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पर्वों की सार्थकता क्यों मर रही....

 *पर्वों की सार्थकता क्यों मर रही....


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*"पर्व" पूरित करने वाला प्रकल्प है, जिससे पूरित होने के बाद तृप्त हो जायें, सन्तुष्ट हो जायें,,,,,,, निश्चिन्त हो जायें इत्यादि ।*


*अर्थात जीवन में सहजता, स्थिरता, शान्ति, एकाग्रता, प्रसन्नता सहित समत्वता, तटस्थता, स्वस्थता आदि स्थापित होते चले जायें निरन्तर...... अनेकों कार्यों, व्यवहारों व चेष्टाओं की अति तीव्रता जो थका देती है.....*


*उसके बाद प्रत्येक चेतना की स्वाभाविक माँग है विश्राम की, यही विश्राम अवस्था "निद्रा" है जिसमें हम पुनः ऊर्जान्वित हो उठें, ऐसी गाढ निद्रा चाहिए, स्वप्न रहित गहरी नींद ।*


*गहन परिश्रम और गहन विश्राम दोनों एक दूसरे के पूरक हैं.......जीवन जीने के लिए, जीवन में प्रवेश होना चाहिए और जीवन में प्रवेश गहनता से हो सकता था....हम गहनता से घबरा जाते हैं यही भय हमारे जीवन के पर्वों की सार्थकता को निरर्थकता की ओर ढकेल रहा है.......*


*प्रत्येक वर्ष में अनेकों "पर्व" हम मनाने तो हैं किन्तु उपलब्धि से वंचित रह जाने के लिए....."जीवन ही उत्सव हो जाना चाहिए था"..... अभी तक इतनी भारी संख्या में हम "पर्व" मना चुके ।*


*जब भी गहनता से बोध होने की बारी आई हम भाग खडे हुए वहां से तत्क्षण, अविलम्ब हमनें अपना रुख बदल लिया.... जबकि प्रत्येक "पर्व" हमें सींचना चाह रहा था, हमारे भीतर आद्रता लाने आया था, जो शुष्कता आ गई थी उसे निवृत्त करने आया था....*


*कर्म महत्वपूर्ण नहीं अपितु परिणाम महत्वपूर्ण होता है, कर्म परिणाम को ध्यान में रखकर ही किया जाता है किन्तु परिणाम से लाभान्वित होने के स्थान पर, उपलब्धि को जी भरकर जीने के स्थान पर पुनः दूसरे कर्म की ओर प्रस्थान निरर्थकता की ओर ले गया ।*


*चेतन पुनः वञ्चित रह गया विश्राम से,उस स्वप्न रहित गाढ निद्रा से जिसमें अवस्थित होकर विश्रांति पा आह्लादित हो सकता था ।*


*बस यही चूक फिर ना दोहराई जाये "पर्व" के फल को चखा जाये, खूब जी भरकर ।*


*प्रत्येक बार आनन्द बढना चाहिए, हर बार पहले से अधिक मौज बढनी चाहिए......मग्नता रूपी नृत्य आ जाये जीवन में..... "प्रवृत्ति, निवृत्ति के लिए ही तो थी" ।*


*"पर्वति पूरयति जनानानन्दयति इति पर्व:"*


*🌼🌻 साधक 🌸🌼*

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