संपूर्ण महाभारत
आदि पर्व (चैत्ररथ पर्व)
एक सौ इक्यासीवाँ अध्याय
"राजा कल्माषपाद को ब्राह्मणी अंगिरसी का शाप"
अर्जुन ने पूछा;- गन्धर्वराज! किस कारण से सामने आए मठ में राजा कलमाषपाद ने ब्रह्मावेत्ताओं के शिष्यों में गुरु वशिष्ठ जी के साथ अपनी पत्नी का नियोग स्थापित किया था? तथापि एकात्म धर्म के ज्ञाता महातत्त्व महर्षि वसिष्ठ ने यह स्त्रीगमन का पाप कैसे किया? सचे! पूर्वकाल में महर्षि वसी ने जो अधर्म-कार्य किया, उसका कारण क्या है? यह मेरा संशय है, जिसे मैं पूछता हूं। आप मेरे इन सारे संशय का दर्द।
गणधरव ने कहा ;- दुर्धर्ष वीर धनंजय! आप महर्षि वासी कथाएँ और राजा मित्रसाह के विषय में जो कुछ रहस्य पूछ रहे हैं, उनका समाधान सुनिये। भरतश्रेष्ठ! वसि पुत्र महातमा शक्ति से राजा कल्माषपाद को जिस प्रकार से शाप मिला, वह सब प्रसंग में मैंने तुमसे कहा हूं। शत्रुओं को संताप देने वाले राजा कालमासपाद शाप के परावेश हो अपनी पत्नी के साथ नगर में बाहर निकल गये। उस समय उनके ऑफिस पर गुस्सा से वाइटा गुप्त हो रही थी। अपनी प्रमाणिकता के साथ निर्जनवन में ग्राहक वे चारों ओर से ट्रक का उपयोग करने लगे। वह महान् वन भाँति-भाँति के मृगों से भरा हुआ था। इसमें नाना प्रकार के जीव-जंतु निवास करते थे। अनेक प्रकार की लताएँ तथा गुलमाँओं से अच्वेल्यादित तथा विविध प्रकार की वृक्षों से अवृत वह (गहन) वन भंयकर श गोलियों से अच्युलता रहती थी।
शापग्रस्त राजा कल्माषपाद उसी में भ्रमण करने लगे। एक दिन भूख से व्याकुल हो वे अपने लिए भोजन की तलाश करने लगे। बहुत संघर्ष के बाद साएथ ने देखा कि वन के किसी भी निर्जन प्रदेश में एक ब्राह्मण और ब्राह्मणी धर्म के लिए एक साथ हो गए हैं। वे दोनों अभी अपनी इच्छा पूरी नहीं कर पाए थे, तीनों ही में राक्षसों का वर्णन कालखंड में देखने को मिला, जहां से सबसे प्यारे प्यारे हो (वहां से) भाग चले। एक भागते हुए दमपति में से ब्राह्मण को राजा ने बलपूर्वक पकड़ लिया। पति को राक्षस के हाथ में डाला गया लुक,,
ब्राह्मणी बोली;- राजन! मैं तुमसे जो बात करता हूँ, उसे सुनिये! एकान्तम व्रत का पालन करने वाले नरेश! आपका जनम सूर्य-वंश में हुआ है। आप समपूर्ण जगत् में विख्यात हैं। आप सदा प्रभाशून्य धर्म में स्थित रहने वाले हैं। गुरुजनों की सेवा में सदा संल सोख्तानिवास हैं। दुर्धर्ष वीर! हालाँकि आप इस समय शाप से पुराने हैं, तो भी आपको पापकर्म नहीं करना है।
मेरा तुकाल रहस्य है, मैं पति के संवाद में दु:ख पा रही हूं। मैं संत की इच्छी से पति के साथ आई थी और उनकी मां की पसंद अभी अपनी इचछा पूरी नहीं कर पाई हूं। नृपश्रे मित्र! ऐसी दशा में आप मुझ पर प्रसन्न हो जाएं और मेरे इन पति देवता को छोड़ दें। इस प्रकार ब्राह्मणी करुणविलाप करती थी याचना कर रही थी, तो जैसे व्याघ्र मांडे मृग को बख़्शा खा जाता था, उसी प्रकार राजा ने अ कुंठामयी ब्राह्मणी के पति को खा लिया। उस समय क्रोध से पीड़ित हुए ब्राह्मणी के उत्सवों से धरती पर आंसुओं की जो बूंदे गिरी, वे सब प्रज्ज्वलित अग्नि बन गए। उस अग्नि ने उस प्रतिष्ठान को स्थापित भस्म कर दिया। तदन एश्वर्य पति के वियोग से अस्तिथ एवं शोकसंत ब्राह्मणी ने रोष में शोक मनाया राजसी कल्माषपाद को शाप दिया,,
ब्राह्मणी बोली ;- 'ओ नीच! मेरे पतिविषयक की इच्छा थी कि अभी पूरी नहीं हुई थी, तब तूने अपवित्र स्ट्रॉबेरी की भेंट मेरे देखते-देखते आज मेरे महायश प्रियतम पति को अपना ग्रास बना लिया है; अत: दुर्बुद्धे! तू भी मेरे शाप से पीड़ित हा ॠतुकाल में पटनी के साथ समागम करते ही तत्काल प्राणायाम बर्बाद हो जाएगा। जिन महर्षि वसिष्ठ के पुत्रों का जन्मोत्सव मनाया गया, उन्ही से समागम करके तेरी पत्नी का जन्म हुआ। नृपदम्! 'वह पुत्र टेरर राजवंश वाला होगा।'
इस प्रकार राजा को शाप देकर वह सती साधवी अंगिरसी राजा कल्माषपाद के अंत में ही प्रज्ज्वलित अग्नि में प्रवेश कर गई। शत्रुसुदन अर्जुन! महाभाग वसि के अनुचर जी अपनी बड़ी भारी तपस्या और ज्ञानयोग के प्रभाव से ये सब बातें जानते थे। दीर्घकाल के पश्चात् वे राजर्षि जब शाप से मुजरा हुआ, तब ॠतुकाल में अपनी पटनी के पास गया। लेकिन उनकी रानी मैडे बस्टिनी ने स्टूडियो (उ ज़ार्ट शाप की याद दिलाकर) को रोक दिया। राजा काल महाषपाद काम से मोहित हो रहे थे। इसलिए एकल शाप का अंतिम संस्कार नहीं हो रहा है। महारानी मदय सावंती की बात सुनकर वे नृपश्रे के विश्वासपात्र बड़े समभ्रम (घबराहट) में पड़ गए। उस शाप की बार-बार याद करके किसान बड़ा संत हुआ। नरश्रेष्ठ! इसी कारण शापदोष से मुकार्ट राजा कल्माषपाद ने महर्षि वासी संतों की अपनी पत्नी के साथ निवास स्थान बनाया।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्व के अशान्तगार्ट चैत्ररथपर्व में वसी महोत्सवोपाख्यान विषयक एक सौ इक्यावन अध्याय पूरा हुआ)
संपूर्ण महाभारत
आदि पर्व (चैत्ररथ पर्व)
एक सौ ब्यासीवाँ अध्याय
"पांडवों का धौम्य को अपना पुरोहित बनाना"
अर्जुन ने कहा;- गन्धर्वराज! हमारे अनुरुप जो कोई वेदवेत्ता पुरोहित हों, उनका नाम बताएं; पढ़ा तुम्हें सब कुछ पता है। गणधरव बोला- कुँ चंचलीनन्दन! इसी वन के अणुकोचक तीर्थ में देवल के छोटे भाई धौम्य मुनि तपसत्य करते हैं। यदि आप लॉग इन करते हैं तो उन्ही के पुरोहितों के पद पर प्रवेश करें।
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- तब अर्जुन ने (बहुत) प्रस नवागत गणधरव को विधि डंक अग्निनेयास्त्र प्रदान किया और यह बात कही,,
अर्जुन बोले ;- 'गन्धर्वप्रवर! जो घोड़े पहनते हैं, वे अभी तुम्हारे ही पास रहते हैं। 'आश्वस्तकता के समय हम आंखें दिखाएँ, तुम्हारा कल्याण हो।' अर्जुन की ये बात पूरी तरह से गन्धर्वराज और पांडवों ने एक-दूसरे का बड़ा सत्कार किया। फिर पाण्डव गंगा के रमणीय तट से अपनी इच्छी के अनुसार चल दिये।
जनमेजय! तदन बहुमूल्य राक्षस अणुकोचक तीर्थ में धौम्य के आश्रम-पर-पांडवों ने धौम्य के पुरोहित-कर्म का वर्णन किया। समपूर्ण वेदों के विद्वानों में श्रेणियाँ धौम्योन्टी ने जंगली फल-मूल अर्पण करके और पुरोहितों के लिए पवित्र ग्रंथ उन सभी का सत्कार किया। पाण्डवों ने उन ब्राह्मण देवताओं को पुरोहित बनाकर यह भली-भाँति विश्वास दिलाया कि हमें अपना साथी और धन अब मिले के ही समान है। साथ ही कलाकार यह भी भरोसेमंद हो गया कि स्वतंत्रता संग्राम में द्रौपदी हमें मिल जाएगी। उन गुरु एवं पुरोहितों के साथ जाने से उस समय भरतवंशियों में श्री भिक्षु पाण्डवों ने अपने- आपको सनाथ-सा समझाया।
उदारबुद्धि धौम्य वेदार्थ के तत्त्वज्ञ थे, वे पाण्डवों के गुरु थे। उन धर्मज्ञ मुनि ने धर्मज्ञ कु रजनीकांतीकुमारों को अपना यजमान बनाया। धौममती को यह मिलाप हो गया कि ये बुद्धि, वीर्य, और अकाणसाह से यु रक्त देवोपम वीरा संगति ज्वालामुखी धर्म के अनुसार अपना घटक अवशमती बल स्थापना कर शेष। धौमन्योति ने पांडवों के लिए स्वतंत्रता का वचन दिया। तदन शत्रु उन नरेश पाण्डवों ने एक साथ द्रौपदी केस्वयंवर में जाने का निश्चय किया।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत आदि पर्व के अखण्ड चतुर्थ चैत्ररथ पर्व में पुरोहितों द्वारा समबन्ध बनाये रखने वाला एक सौ बायसीवाँ अधित्यय पुरा हुआ)
संपूर्ण महाभारत
आदि पर्व (स्वयंवर पर्व)
एक सौ तिरासीवाँ अध्याय
"पांडवों की पंचाल यात्रा और मार्ग में ब्राह्मणों से बातचीत"
वैशम नामायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! तब वे नृपश्रेष्ठ पांचों भाई पाण्डव राजकुमारी द्रौपदी, उनके पांचालदेश और वहां के महान एकांतवास को देखने के लिए वहां से चले थे। मनुष्यों में सिंह के समान वीर परन्तप पांडव अपनी माता के साथ यात्रा कर रहे थे। सूद मार्ग में देखा, बहुत से ब्राह्मण एक साथ जा रहे हैं। राजन!
उन ब्रह्मचारी ब्राह्मणों ने पांडवों से पूछा;- आप लोग कहां जाएंगे और कहां से आ रहे हैं?
युधिष्ठिर बोले ;- विप्रवरो! आप लोगों को बुरा लगा कि हम लोग एक साथ विचार करने वाले सहोदर भाई हैं और अपनी माता के साथ एकचक्रा नगरी से आ रहे हैं।
ब्राह्मणों ने कहा;- आज ही पंचाचल देश को चलाइये। वहां राजा द्रुपद के दरबार में महान धन-धान्य से सम नॉमिनेशन नामांकनवर का बहुत बड़ा एकांतवास होने वाला है। हम सब लोग एक साथ चल रहे हैं और कहां जा रहे हैं। वहाँ पर अद्भुत अद्भुत और बहुत बड़ा एकामिकसुव होने वाला है। यज्ञसेन नाम वाले महाराज द्रुपद की एक पुत्री है, जो यज्ञ की वेदी से प्रकट हुई है। उनके प्रकाशित उत्सव कमलदल के समान सुंदर हैं। उनका एक-एक अंग खराब है। वह मनस्विनी सुकुमारी द्रुपद कन्याया को ही योगयोग्य देखती है। द्रोणाचार्य के शत्रु प्रतापी धृष्टद्युम्न की वह बहिन है। श्लोकद्युम्न वे ही हैं, जो कवच, धनुर्धर, खड्ग और बाण के साथ ध्वनि-विश्लेषणात्मक हैं। महाबाहु धृष्टद्युमन प्रज्वलित अग्नि से प्रकट होने के कारण अग्नि के समान ही तेजश्वी हैं। द्रौपदी की कमर एक पतली कमर वाली है और उसके शरीर से नीलकमल के समान सुगन्धित लकड़ी एक कोस तक फैली हुई है। वह उनहीं धृष्टद्युमन की बहिन है।
यज्ञसेन की पुत्री द्रौपदी की नियुक्ति हुई है। अत: हम लोग उस राजकुमारी को और उस स्वेच्छायंवर के दी अस्सेट महोत्साव को देखने के लिए वहां जा रहे हैं। (वहां) जहां ही समृद्धि दक्षिणा देने वाले, यज्ञ करने वाले, स्वेच्छाअध्यायशील, पवित्र, नियम निर्धनता व्रत का पालन करने वाले, महातमा एवं युवा दर्शन वाले राजा और राजकुमार कई देशों से पृष्ठ देंगे। अस्त्रविद्या में सिद्ध महारथी भूमिपाल भी वहां आयेंगे। वे नरपतिगण अपनी-अपनी विजय के उद्देशयोग्यता से वहां नाना प्रकार के उपहार, धन, गौएं, भक्ष्य और भोज्य आदि सभी प्रकार के वास्तु दान करेंगे। उनका वह सब दान ग्रहण कर, स्वेच्छा से देखकर और आनंदोत्सव का आनंद लेकर फिर हम लोग अपनी अभी तक की दोस्ती को लेकर चलेंगे। वहाँ कई देशों के नट, वैतालिक, नर्तक, सूत, मगध और अपवित्र बलवान मलमल आयेंगे। महात्तमाओ! इस प्रकार हमारे साथ खेल करके, तमाशा देखकर और नाना प्रकार के दान ग्रहण करके फिर आप लोग भी लौट आएंगे। आप सभी लोगों का रूप तो देवताओं के समान है, आप सभी दर्शनीय हैं, आप सभी लोगों को (वहां उपस्थित) द्रौपदी देवयोग को देखकर आप में से ही कोई एक अपना वर चुन सकता है। आप लोगों के ये भाई अर्जुन तो बड़े सुंदर और दर्शनीय हैं। उसका भुजाएं बहुत बड़ी है। यदि विजय के कार्य में नियु जन्म कर दिया जाए, तो ये दैवत बहुत बड़ी धनराशि जीत ज्योति निश्चय ही आप लोगों को प्रस नींद बढ़ाता है।
युधिष्ठिर बोले ;- ब्राह्मणो! हम भी द्रुपद कन्या के उस श्रोता-महोत्सव को देखने के लिए आप लोगों के साथ चलेंगे।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत आदि पर्व के अनिर्वचनीय स्वतंत्रता दिवस में पांडव विषयक एक सौ तिरासीवाँ अध्याय पूरा हुआ)
संपूर्ण महाभारत
आदि पर्व (स्वयंवर पर्व)
एक सौ चौरासीवाँ अध्याय
"पांडवों के द्रुपद की राजधानी में वाणिज्यिक कुम्हार के यहाँ निवास, स्वतंत्रताएं वर सभा का वर्णन तथा धृष्टद्युम्न की घोषणा"
वैशम नामायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! उन ब्राह्मणों के यों ने पांडव लोग पर आपत्ति जताई (उन्होनें के साथ) राजा द्रुपद के द्वारा पालित दक्षिणपंचाल देश की ओर चले गए। तदन प्रभु उन पाण्डव पर्व के मार्ग में पापनिहित शुद्धचित्त एवं श्रेष्ठ महात्तमा द्वैपायन मुनि के दर्शन हुए। पाण्डवों ने अपनी यथावत सत्कार की और पिज्जा पाण्डवों का। फिर उनसे चर्चा हुई। पांडव पुन: द्रुपद की राजधानी की ओर चल पड़े। महारथी पाण्डव मार्ग में अनेकानेक रमणीय वन और सरोवर दर्शन और उन-उन बस्तियों में जगह मिले, धीरे-धीरे आगे बढ़ते गए। ( प्रतिदिन )स्वतंत्रता में मधुरतापर रहने वाले, पवित्र, प्रकृति वाले तथा प्रियवादी पाण्डुकुमार इस प्रकार खोए हुए: पांचालदेश में जा पहुँचे। द्रुपद के नगर में उनकी छत्र-दीवारी को देखकर पांडवों ने उस समय एक कुम्हार के घर में अपने निवास की विचारधारा की कल्पना की थी। वहां ब्राह्मणवृति का आश्रय ले वे भिक्षा मांगकर लाते थे (और उसी से निर्वाह करते थे)।
इस प्रकार वहां पहुंच गए पांडव वीरों को जहां कोई भी मनुष्य पहचान नहीं सका। राजा द्रुपद के मन में सदा यही इच्छा रहती थी कि मैं पाण्डुन्दन अर्जुन के साथ द्रौपदी का ब्याह करुं। लेकिन वे अपने इस मनोभाव को किसी भी पर प्रकट नहीं करते थे। भरतवंशी जनमेजय! पंचाल नरेश ने कु रंजीतीकुमार अर्जुन को खोजा एक ऐसा दृढ़ धनुराशि, जिसे दूसरा कोई भी नहीं छोड़ सका। राजा ने एक कृत्रिम आकाश-यन्त्र भी रचाया, (जो तीव्र वेग से आकाश में घूमता रहता था)। उस य़ा डिज़ाइनर के छत्रपति के ऊपर जीडीपी एक ही के बराबर का लक्ष्य तैयार रखवा दिया। (इसके बाद यह घोषणा की गई)।
द्रुपद ने घोषणा की कि ;- जो वीर इस धनुर्धर पर प्रस्तुन्त बाणों द्वारा ही या शत्रु के छेद के भीतर से इसे लंघकर लक्ष्मयवेध विग्रह करेगा, वही मेरी पुत्री को स्थापित करेगा।
वैशम नामायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! इस प्रकार राजा द्रुपद ने जब स्वतंत्रता संग्राम की घोषणा की, तब सभी राजा वहां अपनी-अपनी राजधानी में एकत्र होकर उनका स्वागत करने लगे। बहुत से महातमा ऋषि-मुनि भी स्वेच्छा से दर्शन के लिए आएं। राजन! दुर्योधन आदि कुरुवंशी भी कर्ण के साथ आये थे। भी साइना-इन-देश से जहां ही महाभाग ब्राह्मणों ने भी आवेदन किया था। महामना राजा द्रुपद ने (वहां पधारे हुए) नरपति का भली-भाँतिस्वगत सत्कार एवं सेवा-पूजा की। तत्सतपरिकल्पना वे सभी राष्ट्रभक्तों को देखने की इच्छा से वहां रखे गए मंचों पर बैठे। उस नगर के समस्त निवासी भी यथास्थान ज्ञान पर बैठ गये। उन सभी कोलाहल क्षु पहने हुए समुद्र के भयंकर गर्जन के समान सुनायी था। वहां की बैठक इंस्टिट्यूटकुमार के शीर्ष ने सजायी गयी थी। शिशुकुमार के शिरोभाग में सब राजा अपने-अपने मंचों पर बैठे थे। नगर से ईशानकोण में सुहिन्दर एवं समष्टि भूमि पर स्वतंत्रता दिवस सभा का रंगमंडप अपनाया गया था, जो सब ओर से सुहिन्दर संघ द्वारा ग्राह होने के कारण बड़ी शोभा पा रही थी। उसकी सब ओर चाहरदीवारी और कॉफ़ी बनी थी। अनेक मूर्तियाँ और दरवाजे उस मंडप की शोभा बढ़ा रहे थे। विचित्र चांदोवे से उस सभा भवन को सब ओर से अपनाया गया था।
वहां सैकड़ों प्रकार के बाजे बज रहे थे। बहुमूल्य अगुरु धूप की सुगन्ध चारों ओर फल रही थी। मशरुम चंदन के जल का कचरा हो गया। सब तरफ फूलों की मालाएं और हार तांगे थे, जहां की शोभा बहुत बढ़ गई थी। उस रंगमंडप के चारों ओर कैलास शिखर के समान भवन और वैलेट रंग के गगनचुंबमबी महल बने हुए थे। इसमें शामिल होने से सोने के नकलीदार पर्दों और झालरों को दफनाया गया था। वहां चारों ओर दीवारों में मणि एवं रत्न जड़ते गये थे। एकांकीतम सुख बेहोश योगनोयटी सीढ़ियां बनी थी। बड़े-बड़े आसन और बिनवावन आदि बेघर हो गए थे। अनेक प्रकार की मालाएं और हार उन संगत की शोभा बढ़ा रहे थे। गुरु की सुगंध छा गई थी। वे इस और चंद्रमा की किरण के समान वेलेत दिखाते थे। उनके अंदर नजर आई धूप की सुगन्ध चारों ओर एक योजन-तक फेल रही थी। उन महलों में सैकड़ों दरवाजे थे। उनके अंदर आने-जाने के लिए बिल्कुल रोक-टोक नहीं थी और वे भँति-भँति की शय्याएँ और आसनों से सुशोभित थे। उनकी दीवारों को अनेक प्रकार के अलौकिक रंगों से रंगा गया था। अत: वे राजमहल हिमालय के बहुरंगे शिखरों के समान सुशोभित हो रहे थे। उन्हैं सतमहले मकानों या बाजारों में, जो अनेक प्रकार के हुए थे, सब राजा लोग पर व्यापारी एक दूसरे से होड़ हुए सुन्दर-से-सुन्दर धारणा धारण करके बैठे। नगर और जिले के लोगों ने जब देखा जब की उ खुराक में बहुमूल्य मंचों के ऊपर महान बल और प्रभाव से सम न्याय द्रौपदी के दर्शन का लाभ लेने के लिए वे भी सब ओर सुख-धन जा बैठे। वे पाण्डव भी पंचालनरेश की उस उत्तम समृद्धि का उपदेश देते हुए ब्राह्मणों को पंक्तिबद्ध करके बैठे थे।
राजन! नगर में कई दिनों से लोगों की भीड़ बह रही थी। राजसमाज द्वारा प्रचुर धन रत्नों का दान किया जा रहा था। बोएरे नट और डांसर अपनी कला के नतीजे उस समाज को शोभा बढ़ा रहे थे। सेलवें दिन अव्यवस्थित मनोहर सोसायटी सोसायटी। भारतश्रेष्ठ मित्र! एक ही दिन में सजावटी वस्त्र और सभी प्रकार के आभूषणों से विभूषित हो हाथों में सोने की बनी हुई कामदार जयमाला के लिए द्रुपदराजकुमारी उस रंगभूमि में दिखती हैं। तब सोमक वंशीय क्षत्रियों के पवित्र एवं मन्त्रज्ञ ब्राह्मण पुरोहितों ने अग्निवेदी के चारों ओर कुशा भोजकर वेदों के अनुसार अग्निवेदी के अनुसार अग्नि में घी की आहुति डाली। इस प्रकार अग्रिदेव को त्रिगुट बनाकर ब्राह्मणों को स्वतंत्रता प्रदान करने के लिए चारों ओर बजने वाले सभी प्रकार के बाजे बंद करा दिए गए। महाराज! बाजों की आवाज बंद हो जाने पर जब स्वयंसेवक सभा में स न्योता छा गया, तब विधि के अनुसार धृष्टद्युमन्दन द्रौपदी को (साथ) लेकर रंगमंडप के बीच में खड़े मेघ हो और दुन्दुभि के समान स्वर तथा मेघ गर्जना की सी गमभीर वाणी में यह अर्थयु क्त अखण्डतम एवं मधुर वचन बोला,,
धृष्टवचनद्युम्न बोला ;- यहाँ आये हुए भूपालगण! आप लोग (ध्यान देकर) मेरी बात देखें। ये धनुर्धर हैं, ये बाण हैं और ये प्राकृतिक हैं। आप लोग आकाश में छोड़े गए पांच पैने बाणों द्वारा उस या बेडरूम के छेद से लक्ष्य को भेदकर गिरा दिया गया। मैं सच कहता हूं, झूठ नहीं बोलता- जो एकांतम कुल, सुंद्र रूप और श्रेणियां बल से सम नॉइज़ना वीर यह महान कर्म कर दिखाएगी, आज यह मेरी बहिन कृष्ण की धर्मपत्नी होगी। द्रुपदकुमार द्रौपदी के नाम, गोत्र और वृत्तान्त का वर्णन करते हुए अपनी हुई बहिन द्रौपदी से इस प्रकार कहा।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्व के अशान्तर्गत स्वतंत्रतापर्व में श्लोकधुम्न वाकय्य विषयक एक सौ चौरासीवन अध्याय पूरा हुआ)
संपूर्ण महाभारत
आदि पर्व (स्वयंवर पर्व)
एक सौ पचासी अध्याय
"द्युम्न द्रौपदी के स्वतंत्रता दिवस में आये हुए राजकुमार का परिचय"
धृष्टद्युम्न ने कहा ;- बहिन! यह देखें- दुर्योधन, दुर्विषह, दुर्मुख, दुष्प्रदर्शन, विंशति, विकर्ण, सह, दु:शासन, युयुत्सु, वायुवेग, भीमवेगर्व, उग्रायुध, बलाकी, कर्कयु, विरोचन, कुंडदक, चित्रसेन, सुवर्चा, कनकधवज, नन्दक, बाहुशाली, तुहुंडद तथा विकट- ये और भी हैं महाबली धृतराष्ट्र जो सबके-सब वीर हैं, तुम्हें उपदेश देने के लिए कर्ण के साथ यहां पधारे हैं। तीन सागर और भी असंख्यगम्य महामना क्षत्रियशिरोमणि भूमिपाल यहाँ आये हैं। इधर देखो, गणधरराज सुबल के पुत्र शकुनि, वृषभ और बृहद्बल बैठे हैं। गणधरराज के ये सभी पुत्र यहाँ पधारे हैं।
अवाल्ततथामा और भोज- ये दोनों महान तेजास्तवी और समपूर्ण शस्त्र स्त्रियाँ के श्रीमान हैं। रोचमान, नील, चित्रायुध, अंसमान, चेकितान, महाबली श्रेणिमान, समुद्रसेन के प्रतापी पुत्र चंद्रसेन, जलसंघ, विदंद और उनके पुत्र दंडक, पौंड्रक वासुदेव, कल्पित भगदतेत, कलिंगनरेश, ताम्रलि महंत नरेश, पाटन के राजा, उनके दो पुत्र वीर रुक्मनागद और रुक्मरथ के साथ महारथी मद्रराज शाल्म्य, कुरुवंश सोमदत्त तथा उनके तीन महारथी शूरवीर पुत्र भूरि, भूरिश्रवा और शल, कामबोजदेशीय सुदक्षिण, पुरुवंशी दृढ़धन्वा।
महाबली, सुषेण, उशीनरदेशीय शिबि और चोर-डाकुओं को मारने वाले करुषाधिपति भी यहां आए हैं। इधर संकर्षण, वासुदेव, (भगवान श्री कृष्ण) रुक्मिनिंदन बली प्रद्युम्न, सम्बद, चारुदेषन, प्रद्युम्नकुमार अनिरुद्ध, श्रीकृष्ण के सासे भाई गद, अक्रूर, सात्यकि, परमबुद्धिमान उदय, ह्रदिकपुत्र कृतवर्मा, पृथु, विपृथु, विधुरथ, कंक, शंक, गवेषण, अश्वः, अनिरुद्ध, शमीक, सरिमेजय, वीर, वातपति, अवशेषपिंडदारक तथा मैकी उशीनर- ये सब वृष्णिवंशी कहे गये हैं। भगीरथवंशी बृहत्क्षत्र, सिनेदुगज जयद्रथ, बृहद्रथ, वालक, महारथी श्रुतयु, उलूक, राजा कैटव, चित्राद, शुमगद, बुद्धि वत डक्टराज, कोसलनरेश, क्रीत चेपालपाल और जरासंध- ये और भी कई जिलों के शासक भूमंडल में विखायत बहुत से क्षत्रिय वीर तुम्हरे के लिए यहां पधारे हैं। भद्रे! ये लक्षणी नरेश तुम्हें पाने के उद्देशम्यता से इस विशिष्ट लक्ष्य का भेद करेंगे। शुभे! जो इस असंगति को वेध डाला, वही का आज तुम वर्णन करना।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत आदि पर्व के आखरीवाँ अध्यायंवर पर्व में पिओन के नाम का परिचय विषय एक सौ आदिवाँ अध्याय पूरा हुआ)

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