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स्तुता मया वरदा वेदमाता-4

स्तुता मया वरदा वेदमाता-4

आ वात वाहि भेषजं वि वात वाहि यद्रपः।
त्वं हि विश्व भेजजो देवानां दूत ईपसे।।


      हम वायु को प्राण कहते हैं। वायु के साथ प्राण शबद का प्रयोग प्रायः देखा जाता है, वे प्राण वायु। वायु तो बिना प्राण के भी हो सकता है। वायु में प्राणप्रद तत्व हो तभी वायु, प्राण वायु होता है, प्राण को बढ़ाने वाले वायु की प्रार्थना की गई है। वायु शुद्ध पवित्र होना चाहिए। वायु को योगवाह कहा गया है। जैसे पदार्थों से वायु का संयोग होता है, वायु वैसा ही हो जाता है। मन्त्र में आने वाले वायु को श्वास के रूप में अन्दर जाने वाली वायु को भेषज का वहन करने वाला कहा गया है। निकलने वाले शरीर से बाहर जाने वाले वायु को रपः पाप अशुद्धियों को ले जाने वाला कहा है। इस प्रकार वायु एक माध्यम है, प्राण को प्राप्त कराने का और अशुद्धि मलिनता को दूर निकालने का।
        वायु प्राकृतिक रूप से प्राणशक्ति से भरपूर होता है, जब हम खुले में श्वास लेते हैं, हमारे अंग का विस्तार होता है, शरीर के अंग खुलते हैं। इनमें गति करने का सामर्थ्य आ जाता है, उत्साह, प्रसन्नता आती है। जब प्रकृति के स्वच्छ वातावरण में मनुष्य जाता है, तो उसको उल्लास का अनुभव होता है। प्रकृति में जल और सूर्य की किरणें वायु को हर समय शुद्ध करती हैं। सूर्य के प्रकाश से वायु के अन्दर विद्यमान कृमि नष्ट हो जाते हैं। जल के संसर्ग से वायु उसके अन्दर की उष्णता और अशुद्धि को छोड़ देता है।
      चिकित्सा विज्ञानियों का मत है कि कार्बन डाई ऑक्साइड गैस से युक्त वायु जब जल के संसर्ग में आती है, तो उसमें रासायनिक परिवर्तन होकर वायु की विषाक्तता कम हो जाती है। नीचे की गैस को जल ग्रहण करता है तथा जो गैस ऊपर की ओर जाती है, उससे वातावरण में उष्णता बढ़कर वनस्पतियों को पुष्ट करती है। इसी प्रकार हवन करते समय जो-जो पदार्थ हवन कुण्ड में डाले जाते हैं, उनको अग्नि विखण्डित कर सूक्ष्म कर देता है, जिससे हवन में डाली गई, वस्तु का प्रसार वायु मण्डल में दूर तक हो जाता है तथा उसका सामर्थ्य भी अधिक होता है। वायु को जहाँ सूर्य और जल शुद्ध कहते हैं, वहीं हवन के माध्यम से अग्नि  भी वायु की अशुद्धि को दूर करता है। विष कणों को रोगाणुओं को नष्ट करने की शक्ति अग्नि में ही होती है। अग्नि में भेदक गुण होता है, जिससे वस्तु कणों को भेदकर, उससे ऊर्जा को उत्पन्न करता है। इस प्रकार हवन द्वारा शुद्ध की गई वायु विश्व भेषज हो जाती है। जिस भी प्रकार की औषध अग्नि में डालेंगे, उसी गुण की वायु, उस रोग से मुक्त करने वाली बन जायेगी।
       हवन में डाले जाने वाले पदार्थों में घृत भी विषनाशक है, अग्नि में रोगाणुओं को बड़ी संखया में नष्ट करता है। हवन सामग्री में कपूर गूगल भी रोग कृमियों को नष्ट करता है। यज्ञ की सुगन्ध और धूम शरीर के सीधे समपर्क में आकर शरीर के कोषों में से अशुद्धि को नष्ट कर उनमें ऊर्जा का संचार करते हैं। रक्त में हवन के धूम से सक्रियता बढ़ती है, जिससे रोगाणुओं से लड़ने की क्षमता की शरीर में वृद्धि होती है, जिस प्रकार गूगल रोग कृमियों का नाश करता है, उसी प्रकार गिलोय, चिरायता, मधु आदि पदार्थ यज्ञ में डालने से रक्त शोधन होता है। मुनक्का, काजू, किशमिश आदि यज्ञ में डालने से पौष्टिकता आती है, शरीर में बल बढ़ता है।
     इसलिये मन्त्र में कहा गया है कि यह वायु आता हुआ बल की वृद्धि करता है और जाता हुआ रोग को नष्ट करता है।
       मन्त्र में इसी बात को बताने के लिये वायु के विशेषण के रूप में उसे विश्व भेषज कहा है। हमें जैसे रोगों की चिकित्सा करनी हो, उसी प्रकार की औषध यज्ञ की सामग्री में मिलानी चाहिए। मन्त्र में वायु के लिये देवों का दूत शबद का प्रयोग किया गया है, जैसे दूत स्वामी के सन्देश को दूर तक, दूसरे तक पहुँचाता है, उसी प्रकार वायु रोग नाशक सामर्थ्य को दूर तक पहुँचाता है। अतः दूतईय से कहा गया है कि जैसे देवताओं के दूत गतिशील होते हैं, उसी प्रकार वायु भी दिव्य गुणों का संचार मनुष्य में तीव्रता से करता है।
          इस मन्त्र से हमें बोध होता है कि औषध का शीघ्र लाभ प्राप्त करने के लिये औषध को यज्ञ में डालना चाहिए। वायु को रोग विशेष के अनुसार औषध गुणों से युक्त करना उतित है तथा सामान्य रूप में पर्यावरण की शुद्धि के लिये यज्ञ में वायु शोधक पदार्थों का उपयोग करना चाहिए, जिससे स्वस्थ व्यक्ति का स्वास्थ्य ठीक बना रहे।

द्वा विमो वातौ वात आ सिन्धो रा परावतः।
दक्षते अन्य आ वातु परान्यो वातु पद्रपः।।

     यह सम्पूर्ण सूक्त एक मनुष्य को स्वस्थ रहने के लिये शरीर के अन्दर चल रहे किन-किन कार्यों को हमें जानना चाहिये और उनसे कैसे लाभ उठाना चाहिए? इस बात का उल्लेख है। प्रथम मन्त्र में मानसिक रूप से हमारे उत्थान-पतन की चर्चा की गई है। देवता लोग पतन के मार्ग पर चलने वाले व्यक्ति को उत्थान की ओर ले जाते हैं, उन्हें निष्पाप कर देते हैं। आगे बताया गया है कि इस शरीर में प्राणधारण वायु के माध्यम से हो रहा है। वायु शरीर में गति कर रहा है। यहाँ क्रिया भेद से दो प्रकार की गति हो रही है- एक वायु जब शरीर के अन्दर की ओर जा रही है, वह सिन्धु तक पहुँच रही है। दूसरी लौटने वालीवायु परावत तक जा रही है। सिन्धु क्या है? शरीर का वह स्थान जो वायु से पुष्ट हो रहा है। हृदय के अन्दर संचरित होने वाला रक्त, इस प्राण वायु से शुद्ध किया जा रहा है।
      हृदय और फेफड़े इस शरीर में रक्त के सम्बन्ध में कार्य करने वाले दो मुख्य संस्थान हैं। शरीर का सारा रक्त हृदय में आता है और वहाँ से फेफडों में पहुँचता है। हृदय का कार्य शिराओं के माध्यम से रक्त का संग्रह करना और धमनियों के माध्यम से फेफडों और शरीर के अंगों में वितरण करना है। फेफडों का कार्य रक्त का शोधन करना है। फेफडों में लाखों कोष बने हुए हैं, इनमें रक्त जाता है और वहाँ से लौटकर हृदय में जमा होता है, जहाँ से फिर हृदय द्वारा शरीर के अंगों को  भेजा जाता है। लोग कहते हैं कि शरीर में हृदय, जो रक्त संचार का केन्द्र है, उसका ज्ञान पाश्चात्य विद्वानों ने किया है, परन्तु छान्दोग्य उपनिषद् में हृदय की परिभाषा करते हुए कहा है- हृदय शब्द में तीन अक्षर हैं, इसके तीन कार्यों को बताते हैं- हृ से हरति अर्थात् जो रक्त का संग्रह करता है। द से ददाति अर्थात् जो रक्त का वितरण करता है तथा य से यति अर्थात् गति करता है। जो लेता है, जो देता है और चलता रहता है, इसलिये उसे हृदय कहते हैं।
      उपनिषद् में मस्तिष्क का कार्य, विचार भावना के अर्थ में भी हृदय शब्द का उपयोग हुआ है, परन्तु वायु के सम्बन्ध में जब हृदय कहा जायेगा, तब रक्त का संचरण करने वाले हृदय की बात की जायेगी। फेफडे रक्त का शोधन करते हैं, हृदय रक्त को शरीर से लेकर फेफडों को देता है और फेफडों से लेकर शरीर को देता है। इस क्रिया को करने के लिये वायु शरीर में आता है, प्रवेश करता है- उसे सिन्धु तक, हृदय तक प्रभावकारी होना चाहिये और बाहर की ओर भी वह वायु दूर तक जानी चाहिए। यहाँ परावतः दूर तक शब्द बहुत महत्वपूर्ण है, जब श्वास बाहर दूर तक जायेगा, तभी अन्दर तक जायेगा। यह स्वाभाविक प्रक्रिया है। गहरा श्वास लेने के लिए श्वास को बाहर दूर तक ले जाना होगा। श्वास छोटा होगा, तो अन्दर बाहर भी छोटा-छोटा ही रहेगा। वह रक्त को पूर्ण रूप से शुद्ध करने में समर्थ नहीं होगा। प्रथम सम्पूर्ण रक्त से शुद्ध वायु का संसर्ग नहीं हो पायेगा और रक्त के सम्पर्क में आयेगा, उसे भी सम्पूर्ण प्राण की प्राप्ति नहीं होगी। इसलिए यह अन्दर जाने वाला वायु बल का देने वाला है और बाहर जाने वाला वायु पाप=दोष को बाहर निकाल कर मनुष्य को स्वस्थ करता है।

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