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स्तुता मया वरदा वेदमाता-6

स्तुता मया वरदा वेदमाता-6

आ त्वागमं शंतातिभिरथो अरिष्ट तातिभिः।
दक्षं ते भद्रमाभार्षं परा यक्ष्मं सुवामि ते।।

    इससे पूर्व मन्त्र में वायु की शुद्धता से रोग को दूर करने की तथा रोगी के अन्दर बल संचार करने की चर्चा की गई थी। इस मन्त्र में वैद्य अपने सामर्थ्य का वर्णन कर रहा है। जब रोगी पीड़ा से त्रस्त होता है, उसे वैद्य की आवश्यकता अनुभव होती है। रोगी को विश्वास होता है कि चिकित्सक रोग और पीड़ा को दूर कर देगा। चिकित्सक को भी वैसा ही होना चाहिए। चिकित्सा ऐसा कार्य है, जिसमें मनुष्य पर असीम उपकार करने का सामर्थ्य होता है। यह सामर्थ्य वैद्य के अन्दर नैतिक और मानवीय गुण होने पर ही समभव है।
      वैद्य के सामने रोगी विवश होता है। चिकित्सक योग्य एवं धार्मिक है, तो वह रोगी को प्राणदान कर सकता है, यदि मूर्ख या लोभी हो तो उसका जीवन भी नष्ट कर सकता है। चिकित्सा शास्त्र में इसी आधार पर चिकित्सकों के दो भेद किये गये। पहले वे हैं जो रोगी के प्रति सद्भाव रखते हैं, उसके कष्ट को दूर करने की इच्छा रखते हैं। रोगी की पीड़ा को दूर करके उसे स्वास्थ्य लाभ प्रदान करते हैं, ऐसे चिकित्सकरोगाभिसर कहलाते हैं। इसके विपरीत स्वार्थी एवं अज्ञानी चिकित्सक रोगी के प्राणों का हरण करने वाले होते हैं, अतः उन्हें प्राणाभिसर कहा गया है।
     अच्छे चिकित्सक के पास शास्त्रीय ज्ञान तो होता ही है, उसके साथ ही योग्य चिकित्सक गुरुओं के पास रहकर वह अनुभव भी प्राप्त किया रहता है, क्रिया को अनेक बार होते हुये देखा होता है। इससे कार्य में दक्षता प्राप्त होती है। चिकित्सक को मन-वचन-कर्म से पवित्र रहने का निर्देश दिया गया है। ऐसा व्यक्ति ही मन्त्र की भाषा बोल सकता है।
     मन्त्र में चिकित्सक रोगी को कह रहा है- मैं तेरे पास आ गया हूँ, अब डरने की आवश्यकता नहीं है। मेरे पास ऐसे उपाय हैं, जिनसे मैं तुमहारा कल्याण कर सकता हूँ। त्वा आगमम्– मैं तुमहारे पास आया हूँ। शंतातिभिः कल्याण करने वाले उपाय से। उपाय जानने वाला कभी विषम परिस्थितियों में किंर्त्तव्यविमूढ़ नहीं होता, इसलिये युक्ति जानने वाले चिकित्सक की शास्त्र में प्रशंसा की गई है।उपरितिष्ठति युक्तिज्ञः द्रव्य ज्ञानवतां सदा जो लोग द्रव्य औषध के विषय से परिचित हैं, परन्तु देश, काल, परिस्थिति में उनका उपयोग कैसे किया जाय, इसका विचार नहीं रखते, वे अनेक बार सफल नहीं हो पाते। अतः युक्तिज्ञ को शास्त्रज्ञान वालों से ऊँचा स्थान दिया गया है।
     मन्त्र कह रहा है- मेरे पास दोनों उपाय हैं, एक जो शं= कल्याण करने वाले हैं, स्वास्थ्य को बढ़ाने वाले हैं, दूसरे उपाय है- अरिष्ट तातिभिः जो लक्षण तुहारे में रोग के हैं, उनके निराकरण का उपाय भी मेरे पास है। चिकित्सा दोनों प्रकार की होती है- विकार की शान्ति तथा स्वास्थ्य की उन्नति। इसको मन्त्र के उत्तरार्ध में इस प्रकार कहा गया है- दक्षं ते भद्रमाभार्षं, मेरी चिकित्सा में बल बढ़ाने की योग्यता है। औषध रोग निवारक सामर्थ्य की वृद्धि में सहायता करती है। शरीर के अन्दर यदि रोग निरोधक क्षमता शेष न रहे, तो औषध निष्प्रभावी हो जाती है। यहाँ वैद्य रोगी से कह रहा है- दक्षं ते भद्रं अर्थात् तुमहारे शरीर का कल्याण करने वाली, बल बढ़ाने वाली औषध मैं तुमहारे लिये लाया हूँ। इससे तुमहारा बल निश्चय ही बढ़ेगा।
     अन्त में कहा गया है- परा यक्ष्मं सुवामि– रोग को शरीर से समाप्त ही करता हूँ। परा-दूर बहुत दूर रोग को हटाता हूँ। रोग के कारण तो सब स्थानों पर रहते हैं, परन्तु सभी लोग तो उससे पीड़ित नहीं होते। सभी रोगी नहीं हो जाते। जो बलवान हैं, जिनके पास रोग को रोकने का सामर्थ्य है, उस वातावरण में रहकर भी वे रोगी नहीं होते। जो दुर्बल होते हैं, जिनमें रोग निरोधक क्षमता नहीं है या स्वल्प है, उनको ही रोग पकड़ते हैं। अतः चिकित्सक कहता है- मैं रोगी को ऐसी औषध दे रहा हूँ, जिससे भविष्य में रोगी इन रोगों से बचा रहे। रोग उस पर आक्रमण करने में समर्थ न हो।
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आ त्वागमं शंतातिभिरथो अरिष्टतातिभिः।
दक्षं ते भद्रमाभार्षं परा यक्ष्मं सुवामि ते।।
    चिकित्सक का आना आशा का सूचक है। इससे रोगी को आश्वासन मिलता है। मनुष्य को आश्वासन से बड़ा बल मिलता है। चिकित्सक रोगी को आश्वासन दे रहा है-मैं तेरे पास आ रहा हूँ। ऐसे ही नहीं आ रहा हूँ, मैं श्रेय कल्याण को लेकर आ रहा हूँ। मेरे हाथों से तेरा कल्याण निश्चित है। कल्याण करने वाले उपायों को लेकर आ रहा हूँ। रिष्ट रोग हिंसा और कष्ट को कहते हैं। वैद्य कहता है- मैं तुझे रोग रहित करने आ रहा हूँ।
    इस सूक्त के सभी मन्त्रों में जहाँ औषध की चर्चा है, वहाँ वाणी और स्पर्श चिकित्सा का भी वर्णन मिलता है। हाथ को विश्वभेषजः कहा है। चिकित्सक के हाथ के स्पर्श से रोगी को शान्ति और स्वास्थ्य का अनुभव होता है। मेरा हाथ समस्त रोगों की औषध है। स्पर्श मात्र से रोग का निवारण करता हूँ। समस्त अशिव को मेरा हाथ मसल देने में समर्थ है। वाणी से भी रोगी को स्वास्थ्य का अनुभव कराता हूँ।
      मूल रूप से मनुष्य शरीर के रोग तो सहन कर लेता है, परन्तु यदि मानसिक रूप से निराशा का अनुभव करने लगे तो फिर उसको स्वस्थ करना कठिन हो जाता है। मनुष्य को किसी की सहायता का विश्वास होता है तो वह अपने में बल का अनुभव करता है। आस्तिक होने का मनुष्य को सबसे अधिक लाभ मानसिक स्तर पर ही मिलता है। आस्तिक मनुष्य परमेश्वर की सहायता का अनुभव हर समय कर सकता है, अतः उसे भय नहीं लगता। डेल कार्नेगी ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘चिन्ता छोड़ो, सुख से जीओ’ में अपने अनुभव लिखे हैं। एक अनुभव में कहा गया है कि रोगी पर औषध उपचार के साथ-साथ आस्तिकता का क्या प्रभाव पड़ता है, इसका भी परीक्षण किया गया। आस्तिक और नास्तिक रोगियों पर औषध का समान उपयोग किया गया, परिणाम में पाया गया कि आस्तिक रोगी शीघ्र स्वस्थ हुये तथा उनका प्रतिशत भी अधिक रहा। मनुष्य को परमेश्वर का विश्वास होता है तो उसका आन्तरिक बल बढ़ता है।
      इसके साथ वातावरण भी मनुष्य के मन पर प्रभाव डालता है। जहाँ का वातावरण स्वच्छ होता है, पवित्र होता है तो ऐसे स्थान पर जाकर मन प्रसन्न होता है। इसका मुखय कारण वातावरण में ऊर्जा बढ़ाने वाले तत्त्वों का होना है। शुद्ध वायु में ऊर्जा का होना, प्राण शक्ति का होना ही वायु की शुद्धता है। शुद्ध वायु का शरीर में संचार होते ही शरीर की कोशिकाएँ विस्फारित होने लगती हैं। प्रसन्नता में शरीर की मांसपेशियों में विस्तार आता है। जो व्यक्ति प्रसन्न रहता है, उसे ही स्वास्थ्य का बल मिलता है। मन्त्र कहता है- मैं तेरे लिये बल बढ़ाने वाली औषध लाया हूँ। पिछले मन्त्र में भी कहा गया है कि वातावरण की वायु ऐसी होनी चाहिये, जो अन्दर जाते हुए बल का संचार करे, प्राण शक्ति को बढ़ावे और अन्दर से बाहर की ओर निकलती हुई वायु अन्दर के दोषों को बाहर ले जावे। वैद्य कह रहा है- मैं तेरे लिये बल और सुख की प्राप्ति का उपाय लेकर आया हूँ। निश्चित रूप से तेरे रोग को ‘परा सुवामि’दूर करने में समर्थ हूँ। तेरे रोग को निकाल कर दूर फेंक  देता हूँ।
      मन्त्र के शबद से चिकित्सा की विश्वसनीयता तथा वैद्य की योग्यता और आत्मविश्वास-दोनों का बोध होता है। जैसे वैद्य में आत्मविश्वास होता है, वैसे ही रोगी में भी जिजीविषा होनी आवश्यक है। इस सूक्त के मन्त्रों में रोगी को विश्वास  बढ़ाने की प्रेरणा की गई है। इन मन्त्रों के पाठ से रोगी के विचारों को बल मिलता है। इससे पता लगता है कि चाहे स्वस्थ होना हो या रोग दूर करना हो, किसी अकेले उपाय से सिद्धि नहीं मिलती। जितनेाी प्रयत्न समभव हैं, सबका उपयोग करना चाहिये, इसीलिये औषध के साथ पथ्य पर बल दिया जाता है। पुराने चिकित्सक पथ्य को भी औषध का भाग स्वीकार करते हैं। उसके मत में औषध पथ्य होता है, अतः औषध के साथ पथ्य भी आवश्यक है। आजकल की चिकित्सा लाक्षणिक है, अतः औषध केवल लक्षण का निवारण करती है, कारण का नहीं। औषध रोग का निवारण करती है, पथ्य कारण को दूर करता है, अतः दोनों को मिलाकर ही मनुष्य शीघ्र और पूर्ण स्वस्थ हो सकता है।

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