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संन्यास ग्रहण की आवश्यकता क्या है?

एक धन, दूसरे बन्धु कुटुम्ब कुल, तीसरी अवस्था, चौथा उत्तम कर्म और पांचवीं श्रेष्ठ विद्या ये पांच मान्य के स्थान हैं। परन्तु धन से उत्तम बन्धु, बन्धु से अधिक अवस्था, अवस्था से श्रेष्ठ कर्म और कर्म से पवित्र विद्या वाले उत्तरोत्तर अधिक माननीय हैं॥
क्योंकि चाहै सौ वर्ष का भी हो परन्तु जो विद्या विज्ञानरहित है वह बालक और जो विद्या विज्ञान का दाता है उस बालक को भी वृद्ध मानना चाहिये। क्योंकि सब शास्त्र आप्त विद्वान् अज्ञानी को बालक और ज्ञानी को पिता कहते हैं॥
अधिक वर्षों के बीतने, श्वेत बाल के होने, अधिक धन से और बड़े कुटुम्ब के होने से वृद्ध नहीं होता। किन्तु ऋषि महात्माओं का यही निश्चय है कि जो हमारे बीच में विद्या विज्ञान में अधिक है वही वृद्ध पुरुष कहाता है॥
ब्राह्मण ज्ञान से, क्षत्रिय बल से, वैश्य धनधान्य से और शूद्र जन्म अर्थात् अधिक आयु से वृद्ध होता है॥
शिर के बाल श्वेत होने से बुढ्ढा नहीं होता किन्तु जो युवा विद्या पढ़ा हुआ है उसी को विद्वान् लोग बड़ा जानते हैं॥
और जो विद्या नहीं पढ़ा है वह जैसा काष्ठ का हाथी; चमड़े का मृग होता है वैसा अविद्वान् मनुष्य जगत् में नाममात्र मनुष्य कहाता है॥
इसलिये विद्या पढ़, विद्वान् धर्मात्मा होकर निर्वैरता से सब प्राणियों के कल्याण का उपदेश करे। और उपदेश में वाणी मधुर और कोमल बोले। जो सत्योपदेश से धर्म की वृद्धि और अधर्म का नाश करते हैं वे पुरुष धन्य हैं॥
प्रश्न : संन्यास ग्रहण की आवश्यकता क्या है?
उत्तरः जैसे शरीर में शिर की आवश्यकता है वैसे ही आश्रमों में संन्यासाश्रम की आवश्यकता है। क्योंकि इसके बिना विद्याधर्म कभी नहीं बढ़ सकते और दूसरे आश्रमों को विद्या ग्रहण गृहकृत्य और तपश्चर्यादिका सम्बन्ध होने से अवकाश बहुत कम मिलता है। पक्षपात छोड़कर वर्त्तना दूसरे आश्रमों को दुष्कर है। जैसा संन्यासी सर्वतोमुक्त होकर जगत का उपकार करता है, वैसा अन्य आश्रमी नहीं कर सकता। क्योंकि संन्यासी को सत्यविद्या से पदार्थों के विज्ञान की उन्नति का जितना अवकाश मिलता है उतना अन्य आश्रमी को नहीं मिल सकता। परन्तु जो ब्रहमचर्य से संन्यासी होकर जगत को सत्य शिक्षा करके जितनी उन्नति कर सकता है उतनी गृहस्थ वा वानप्रस्थ आश्रम करके सन्यासाश्रमी नहीं कर सकता।
प्रश्नः ‘संन्यासी सर्वकर्म्मविनाशी’ और अग्नि तथा धातु को स्पर्श नही करते। यह बात सच्ची है वा
नहीं?
उत्तरः नहीं। ‘सम्यग नित्यमास्ते यस्मिन् यद्वा सम्यग न्यस्यन्ति दुःखानि कर्माणि येन स सन्यासः स प्रशस्तो विद्यते यस्य स सन्यासी’। जो ब्रहम और उसकी आज्ञा में उपविष्ट अर्थात स्थित और जिससे दुष्ट कर्मों का त्याग किया जाय संन्यास, वह उत्तम स्वभाव जिसमें हो वह संन्यासी कहाता है। इसमें सुकर्म का कर्ता और दुष्ट कर्मों का विनाशक करने वाला संन्यासी कहाता है।
प्रश्नः अध्यापन और उपदेश गृहस्थ किया करते हैं, पुनः संन्यासी का क्या प्रयोजन?
उत्तरः सत्योपदेश सब आश्रमी करें और सुनें परन्तु जितना अवकाश और निष्पक्षपातता संन्यासी को होती है उतनी गृहस्थों को नहीं । हाँ! जो ब्राहमण है उनका यही काम है कि पुरुष पुरुषों को और स्त्री स्त्रियों को सत्योपदेश और पढ़ाया करें। जितना भ्रमण का अवकाश संन्यासी को मिलता है उतना गृहस्थ ब्राहमणादिको को कभी नहीं मिल सकता। जब ब्राहमण वेद विरुद्ध आचरण करें तब उनका नियन्ता संन्यासी होता है। इसलिये संन्यास का होना उचित है।
– सत्यार्थ प्रकाश से उद्धृत
उत्तरः जैसे शरीर में शिर की आवश्यकता है वैसे ही आश्रमों में संन्यासाश्रम की आवश्यकता है। क्योंकि इसके बिना विद्याधर्म कभी नहीं बढ़ सकते और दूसरे आश्रमों को विद्या ग्रहण गृहकृत्य और तपश्चर्यादिका सम्बन्ध होने से अवकाश बहुत कम मिलता है। पक्षपात छोड़कर वर्त्तना दूसरे आश्रमों को दुष्कर है। जैसा संन्यासी सर्वतोमुक्त होकर जगत का उपकार करता है, वैसा अन्य आश्रमी नहीं कर सकता। क्योंकि संन्यासी को सत्यविद्या से पदार्थों के विज्ञान की उन्नति का जितना अवकाश मिलता है उतना अन्य आश्रमी को नहीं मिल सकता। परन्तु जो ब्रहमचर्य से संन्यासी होकर जगत को सत्य शिक्षा करके जितनी उन्नति कर सकता है उतनी गृहस्थ वा वानप्रस्थ आश्रम करके सन्यासाश्रमी नहीं कर सकता।
प्रश्नः ‘संन्यासी सर्वकर्म्मविनाशी’ और अग्नि तथा धातु को स्पर्श नही करते। यह बात सच्ची है वा
नहीं?
उत्तरः नहीं। ‘सम्यग नित्यमास्ते यस्मिन् यद्वा सम्यग न्यस्यन्ति दुःखानि कर्माणि येन स सन्यासः स प्रशस्तो विद्यते यस्य स सन्यासी’। जो ब्रहम और उसकी आज्ञा में उपविष्ट अर्थात स्थित और जिससे दुष्ट कर्मों का त्याग किया जाय संन्यास, वह उत्तम स्वभाव जिसमें हो वह संन्यासी कहाता है। इसमें सुकर्म का कर्ता और दुष्ट कर्मों का विनाशक करने वाला संन्यासी कहाता है।
प्रश्नः अध्यापन और उपदेश गृहस्थ किया करते हैं, पुनः संन्यासी का क्या प्रयोजन?
उत्तरः सत्योपदेश सब आश्रमी करें और सुनें परन्तु जितना अवकाश और निष्पक्षपातता संन्यासी को होती है उतनी गृहस्थों को नहीं । हाँ! जो ब्राहमण है उनका यही काम है कि पुरुष पुरुषों को और स्त्री स्त्रियों को सत्योपदेश और पढ़ाया करें। जितना भ्रमण का अवकाश संन्यासी को मिलता है उतना गृहस्थ ब्राहमणादिको को कभी नहीं मिल सकता। जब ब्राहमण वेद विरुद्ध आचरण करें तब उनका नियन्ता संन्यासी होता है। इसलिये संन्यास का होना उचित है।
– सत्यार्थ प्रकाश से उद्धृत

ईश्वर की सिद्धि में प्रत्यक्षादि प्रमाण सिद्ध नहीं हैं

ईश्वर की सिद्धि में प्रत्यक्षादि प्रमाण सिद्ध नहीं हैं
(सत्यार्थ प्रकाश द्वादश समुल्लास के आधार पर खण्डन)
– ब्र. राजेन्द्रार्य
चारवाक, बौद्ध, जैन आदि नास्तिक मतों का मानना है कि ईश्वर की सिद्धि प्रत्यक्षादि प्रमाणों से सिद्ध नहीं हो सकती। स्वामी दयानन्द सरस्वती ने अपने वैचारिक क्रान्तिकारी ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाशः द्वादश समुल्लास में ईश्वर के दार्शनिक स्वरूप एवं वैज्ञानिक विवेचन के आधार पर नास्तिकों की इस मान्यता का खण्डन किया है। ईश्वर प्रत्यक्ष न होने की जिस युक्ति के भरोसे नास्तिकों के सब सम्प्रदाय और आधुनिक वैज्ञानिक गण फूले नहीं समा रहे थे, स्वामी दयानन्द ने उनकी जड़ ही काट दी। महर्षि ने कहा कि ईश्वर का प्रत्यक्ष होता है। ईश्वर का प्रत्यक्ष कैसे होता है, एतद् विषयक स्वामी जी की मान्यता के विचार यहाँ पर उद्धृत हैं-
ईश्वर का लक्षण वा स्वरूप – स्वामी दयानन्द सरस्वती ने लगभग अपने सभी ग्रन्थों में ईश्वर के विषय में कुछ न कुछ अवश्य लिखा है। आर्य समाज के प्रथम व द्वितीय नियम में भी ईश्वर की चर्चा की हे। ऋषि दयानन्द ने अपने ग्रन्थों में ईश्वर विषयक ऐसे अनेक मतों का निराकरण किया है, जिसमें ईश्वर के अस्तित्व को स्वीकार नहीं किया जाता है या अन्यथा रूप में स्वीकार किया जाता है। नास्तिक मूर्धन्य चारवाक की चर्चा करते हुए वे लिखते हैं-‘‘कोई एक बृहस्पति नामा पुरुष हुआ था जो वेद, ईश्वर और यज्ञादि उत्तम कर्मों को नहीं मानता था। उसके अनुसार लोकसिद्ध राजा ही परमेश्वर है।’’ ईश्वर विषयक इस चारवाक मत का निराकरण करते हुए स्वामी दयानन्द लिखते हैं- ‘‘यद्यपि राजा को ऐश्वर्यवान और प्रजा पालन में समर्थ होने से श्रेष्ठ मानें तो ठीक है, परन्तु जो अन्यायकारी पापी राजा हो, उसको भी परमेश्वरवत् मानते हो तो तुम्हारे जैसा कोई भी मूर्ख नहीं।’’ स्वामी दयानन्द सरस्वती ने अपने ग्रन्थों में ईश्वर के गुणों के वर्णन के सन्दर्भ में अनेक वेद मन्त्र प्रमाण स्वरूप प्रस्तुत किये हैं। उनमें से कुछ प्रमाण यहाँ पर उद्धृत हैं-
ऋचो अक्षरे परमे व्योमन्यस्मिन्देवा अधि विश्वे निषेदुः।
यस्तन्न वेद किमृचा करिष्यति य इत्तद्विदुस्त इमे समासते।।
– ऋग्वेद १/१६४/३९
अर्थात् जो सब दिव्य गुण-कर्म-स्वभाव-विद्यायुक्त, और जिसमें पृथिवी सूर्य्यादि लोक स्थित हैं, और जो आकाश के समान व्यापक, सब देवों का देव परमेश्वर है, उसको जो मनुष्य न जानते न मानते और उसका ध्यान नहीं करते, वे नास्तिक मन्दमति सदा दुःख सागर में डूबे ही रहते हैं। इसलिये सर्वदा उसी को जानकर सब मनुष्य सुखी होते हैं।
प्रश्नः वेद में ईश्वर अनेक हैं, इस बात को तुम मानते हो वा नहीं?
उत्तरः नहीं मानते, क्योंकि चारों वेदों में ऐसा कहीं नहीं लिखा, जिससे अनेक ईश्वर सिद्ध हों, किन्तु यह तो लिखा है कि ईश्वर एक है।
ईशा वास्यमिद ं  सर्वंयत्किञ्च जगत्याञ्जगत्।
तेन व्यक्तेन भुञ्जीथा मा गृधः कस्य स्विद्धनम्।।
– यजुर्वेद ४०/१
हे मनुष्य! जो कुछ इस संसार में जगत् है, उस सब में व्याप्त होकर (जो उसका) नियन्ता है वह ईश्वर कहाता है। उससे डर कर तू अन्याय से किसी के धन की आकांक्षा मत कर। उस अन्याय के त्याग और न्यायाचरण रूप धर्म से अपने आत्मा से आनन्द को भोग।
परमेश्वर का जैसा गुण-कर्म-स्वभाव है, वैसा ही जानकर मानना ही ज्ञान-विज्ञान कहाता है, उल्टा अज्ञान है। महर्षि पतञ्जलि ने योगसूत्र में कहा है-
क्लेश कर्मविपाकाशयैर परामृष्टः पुरुषविशेष ईश्वरः।
-योगदर्शन १/२४
जो अविद्यादि क्लेश, कुशल-अकुशल, इष्ट-अनिष्ट और मिश्र फलदायक कर्मों की वासना से रहित है, वह सब जीवों से विशेष ईश्वर कहाता है।
स्वामी दयानन्द ईश्वर के स्वरूप का उल्लेख इस प्रकार करते हैं-
‘ईश्वर’ कि जिसके ब्रह्म परमात्मादि नाम हैं, जो सच्चिदानन्दादि लक्षणयुक्त है, जिसके गुण, कर्म, स्वभाव पवित्र हैं। जो सर्वज्ञ, निराकार, सर्वव्यापक, अजन्मा, अनन्त, सर्वशक्तिमान, दयालु, न्यायकारी , सब सृष्टि का कर्त्ता, धर्त्ता, हर्त्ता, सब जीवों को कर्मानुसार सत्य न्याय से फलदाता आदि लक्षणयुक्त है, उसी को परमेश्वर मानता हॅूँ।
जीव और ईश्वर का स्वरूप गुण-कर्म-स्वभाव -प्रश्नः जीव और ईश्वर का स्वरूप गुण-कर्म-स्वभाव कैसा है?
उत्तरः दोनों चेतन स्वरूप हैं। स्वभाव दोनों का पवित्र, अविनाशी और धार्मिकता आदि है, परन्तु परमेश्वर के सृष्टि की उत्पत्ति, स्थिति, प्रलय, सब को नियम में रखना, जीवों को पाप पुण्यों के फल देना आदि धर्मयुक्त कर्म हैं और जीव के सन्तानोत्त्पति, उनका पालन, शिल्प विद्या आदि अच्छे बुरे कर्म हैं। ईश्वर के नित्यज्ञान, आनन्द, अनन्त बल आदि गुण हैं और जीव के-
इच्छाद्वेष प्रयत्नसुख दुःख ज्ञानान्यात्मनो लिङ्गमिति।
-न्याय दर्शन १/१/१०
प्राणापाननिमेषोन्मेषजीवनमनोगतीन्द्रिया
न्तरविकाराः सुख-दुःखे
इच्छाद्वेष प्रयत्नाश्चात्मनो लिङ्गानि।
– वैशेषिक दर्शन ३/२/४
‘इच्छा’ = पदार्थों की प्राप्ति की अभिलाषा, ‘द्वेष’ = दुःखादि की अनिच्छा वैर, ‘पुरुषार्थ’ =बल, ‘सुख’ = आनन्द, ‘दुःख’ =विलाप, अप्रसन्नता, ‘ज्ञान’=विवेक पहिचानना ये तुल्य हैं। परन्तु वैशेषिक में ‘प्राण’= प्राणवायु को बाहर निकालना, ‘अपान’ = प्राणवायु को भीतर लेना, ‘निमेष’ =आँख को मींचना, ‘उन्मेष’ = आँख को खोलना, ‘जीवन’  = प्राण का धारण करना, ‘मन’ = निश्चय स्मरण और अहंकार करना, ‘गति’= चलना, ‘इन्द्रिय’= सब इन्द्रियों को चलाना, ‘अन्तरविकार’= भिन्न-भिन्न क्षुधा-तृषा, हर्ष-शोकादि युक्त होना (ये विशेष हैं।) ये जीवात्मा के गुण परमात्मा (के गुणों) से भिन्न हैं। इन्हीं से आत्मा की प्रतीति करनी, क्योंकि वह स्थूल नहीं है।
जब तक आत्मा देह में होती है, तभी तक ये गुण प्रकाशित रहते हैं और जब आत्मा शरीर छोड़ चली जाती है, तब ये गुण शरीर में नहीं रहते। जिसके होने से जो हो और न होने से न हो, वे गुण उसी के होते हैं। जैसे दीप और सूर्यादि के न होने से प्रकाशादि का न होना और होने से होना, वैसे जीव और परमात्मा का विज्ञान गुण द्वारा होता है।
ईश्वर अनादि है – ईश्वर भूत, वर्तमान, भविष्यत तीनों कालों के बन्धन में न आने के कारण अनुत्पत्ति धर्मक है, अतः अनादि और जो वस्तु अनादि होती है, वह अमरणधर्मा होती है और जो अमृत होती है, वह अनन्त होती है। अनादि अनन्त को ही ‘‘सत्’’ कहते हैं। स्वामी दयानन्द ने अथर्ववेद के मन्त्र को उद्धृत करते हुए ऋग्वेदादि भाष्य भूमिका१० में कहा है-
यो भूतञ्च भव्यञ्च सर्वं यश्चाधितिष्ठति स्वर्यस्य
च केवलं तस्मै ज्येष्ठाय ब्रह्मणे नमः।
– अथर्ववेद १०/८/१
अर्थ- यो भूत, भविष्यति, वर्तमानान् कालान् सर्वं जगच्चाधितिष्ठति सर्वाधिष्ठाता सन् कालादूर्ध्वं विराजमानोऽस्ति। दयानन्दर्षि।।
प्रश्नः ईश्वर सादि है वा अनादि?
उत्तरः अनादि। अर्थात् जिसका आदि कोई कारण वा समय न हो, उसको अनादि कहते हैं।
अनादि पदार्थ तीन हैं- एक ईश्वर, द्वितीय जीव, तीसरा प्रकृति, अर्थात् जगत् का कारण। इन्हीं को नित्य भी कहते हैं। जो नित्य पदार्थ हैं, उनके-गुण-कर्म स्वभाव भी नित्य हैं। ईश्वर, जीव और प्रकृति के अनादित्व में वेदादिशास्त्रों के निम्न प्रमाण उद्धृत हैं-
द्वा सुपर्णा सयुजासखाया समानं वृक्षं परिषस्वजाते।
तयोरन्यः पिप्पलं स्वाद्वत्त्यनश्नन्नयो अभि चाकशीति।।१।।
– ऋग्वेद १/१६४/२०
शाश्वतीभ्यः समाभ्यः।। २।।  – यजुर्वेद ४०/८
(द्वा) जो ब्रह्म और जीव दोनों (सुपर्णा) चेतनता और पालनादि गुणों से सदृश (सयुजा) व्याप्य-व्यापक भाव से संयुक्त (सखाया) परस्पर मित्रतायुक्त सनातन अनादि हैं और (समानम्) वैसा ही (वृक्षम्) अनादि मूलरूप कारण और शाखारूप कार्ययुक्त वृक्ष अर्थात् जो स्थूल होकर प्रलय में छिन्न-भिन्न हो जाता है, वह तीसरा अनादि पदार्थ। इन तीनों के गुण, कर्म और स्वभाव भी अनादि हैं। (तयोरन्यः) इन जीव और ब्रह्म में से एक जो जीव है, वह इस वृक्ष रूप संसार में पाप-पुण्य रूप फलों को (स्वाद्वत्ति) अच्छे प्रकार भोक्ता  है और दूसरा परमात्मा कर्मों के फलों को (अनशन्) न भोगता हुआ चारों ओर अर्थात् भीतर-बाहर सर्वत्र प्रकाशमान हो रहा है। जीव से ईश्वर, ईश्वर से जीव और दोनों से प्रकृति भिन्न स्वरूप; तीनों अनादि हैं।। १।।
(शाश्वतीभ्यः०) अर्थात् अनादि सनातन जीवरूप प्रजा के लिए वेद द्वारा परमात्मा ने सब विद्याओं का बोध किया है।।२।।
अजामेकां लोहितशुक्लकृष्णां बह्वीः
प्रजाः सृजमानां स्वरूपाः।
अजो ह्येको जुषमाणोऽनुशेते जहात्येनां
भुक्त भोगामजोऽन्यः।।
– श्वेताश्वतर उपनिषद् ४/५
प्रकृति, जीव और परमात्मा तीनों अज अर्थात् जिनका जन्म कभी नहीं होता और न कभी ये जन्म लेते अर्थात् ये तीन सब जगत् के कारण हैं। इनका कारण कोई नहीं। इस अनादि प्रकृति का भोग अनादि जीव करता हुआ फँसता है और उसमें परमात्मा न फँसता और न उसका भोग करता है।१२
ईश्वर का व्यापकत्व – प्रश्नः ईश्वर व्यापक है, वा किसी देश-विशेष में रहता है?
उत्तरः व्यापक है। क्योंकि जो एक देश में रहता तो सर्वान्तर्यामी सर्वज्ञ, सर्वनियन्ता, सब का सृष्टा, सब का धर्त्ता और प्रलय कर्त्ता नहीं हो सकता। अप्राप्त देश में कर्त्ता की क्रिया का होना असम्भव है।१३
इस विषय में स्वामी दयानन्द ने ऋग्वेदादि भाष्य भूमिका में ऋग्वेद का निम्न मन्त्र उद्धृत किया है-
तद्विष्णोः परमं पदं सदा पश्यन्ति सूरयः।
दिवीव चक्षुराततम्।।
– ऋग्वेद १/२२/२०
व्यापक जो परमेश्वर है उसका अत्यन्त उत्तम आनन्दस्वरूप जो प्राप्ति होने के योग्य अर्थात् जिसका नाम मोक्ष है, उसको विद्वान् लोग सब काल में देखते हैं। वह कैसा है कि सब में व्याप्त हो रहा है और उसमें देश, काल और वस्तु का भेद नहीं है अर्थात् उस देश काल में था और इस काल में नहीं,उस वस्तु में है और इस वस्तु में ंनहीं, ऐसा नहीं है। इसी कारण से वह पद सब जगह में सबको प्राप्त होता है, क्योंकि वह ब्रह्म सब ठिकाने परिपूर्ण है। इसमें यह दृष्टान्त है कि जैसे सूर्य का प्रकाश आवरणरहित आकाश में व्याप्त होता है, इसी प्रकार परब्रह्म पद भी स्वयं प्रकाश, सर्वत्र व्याप्तवान् हो रहा है। उस पद की प्राप्ति से कोई भी प्राप्ति उत्तम नहीं है, इसलिये चारों वेद उसी की प्राप्ति कराने के लिये विशेष करके प्रतिपादन कर रहे हैं।१४
ईश्वर सर्वशक्तिमान है – प्रश्नः ईश्वर सर्वशक्तिमान है, वा नहीं?
उत्तरः है। परन्तु जैसा तुम सर्वशक्तिमान शब्द का अर्थ जानते हो, वैसा नहीं। किन्तु ‘सर्वशक्तिमान’ शब्द का यही अर्थ है कि ईश्वर अपने काम उत्पत्ति, पालन, प्रलय आदि और सब जीवों के पुण्य-पाप की यथायोग्य व्यवस्था करने में किंचित् भी किसी की सहायता नहीं लेता, अर्थात् अपने अनन्त सामर्थ्य से ही सब अपना काम पूर्ण कर लेता है।१५
ईश्वर निराकार है, साकार नहीं – प्रश्नः ईश्वर साकार है वा निराकार?
उत्तरः निराकार। क्योंकि जो साकार होता तो व्यापक नहीं हो सकता। जब व्यापक न होता तो सर्वज्ञादि गुण भी ईश्वर में न घट सकते। क्योंकि परिमित वस्तु में गुण-कर्म-स्वभाव भी परिमित रहते हैं तथा शीतोष्ण क्षुधा-तृषा और रोग-दोष छेदन-भेदन आदि से रहित नहीं हो सकता, इससे यही निश्चित है कि ईश्वर निराकार है। जो साकार हो तो उसके नाक, कान, आँख आदि अवयवों का बनाने हारा दूसरा होना चाहिये। क्योंकि जो संयोग से उत्पन्न होता है, उसको संयुक्त करने वाला निराकार चेतन अवश्य होना चाहिये।१६                        

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