ईश्वर की सिद्धि में प्रत्यक्षादि प्रमाण सिद्ध नहीं हैं
(सत्यार्थ प्रकाश द्वादश समुल्लास के आधार पर खण्डन)
– ब्र. राजेन्द्रार्य
पिछले अंक का शेष भाग……
निराकार होते हुए कैसे कार्य करता है – प्रश्नः जब परमेश्वर के श्रोत्र-नेत्रादि इन्द्रियां नहीं हैं, फिर वह इन्द्रियों का काम कैसे कर सकता है?
उत्तरः स्वामी दयानन्द उपनिषद् का वचन उद्धृत करते हुए लिखते हैं-
अपाणिपादो जवनो ग्रहीता पश्यत्यचक्षुः स शृणोत्यकर्णः।
स वेत्ति विश्वं न च तस्यास्ति वेत्ता तमाहुरग्रथं पुरुषं महान्तम्।।
– श्वेताश्वतरोपनिषद् अ. 3/मं. 19
परमेश्वर के हाथ नहीं, परन्तु अपनी शक्तिरूप हाथ से सबका रचन, ग्रहण करता, पग नहीं परन्तु व्यापक होने से सबसे अधिक वेगवान्, चक्षु का गोलक नहीं परन्तु सबको यथावत् देखता, श्रोत्र नहीं तथापि सबकी बातें सुनता, अन्तःकरण नहीं, परन्तु सब जगत् को जानता है और उसको अवधि सहित जानने वाला कोई भी नहीं। उसी को सनातन, सबसे श्रेष्ठ, सब में पूर्ण होने से पुरुष कहते हैं। वह इन्द्रियों और अन्तःकरण के बिना अपने सब काम अपने सामर्थ्य से करता है।17
ईश्वर निष्क्रिय और निर्गुण नहीं – प्रश्नः उसको बहुत से मनुष्य निष्क्रिय और निर्गुण कहते हैं।
उत्तर :
न तस्यकार्य्यं करणं च विद्यते न तत्समश्चायधिकश्चदृश्यते।
परास्य शक्तिर्विविधैव श्रूयते स्वाभाविकी ज्ञानबलक्रिया च।।
– श्वेताश्वतरोपनिषद् अ. 6/ मं. 8
परमात्मा से कोई तद्रूप कार्य और उसको करण अर्थात् साधकतम दूसरा अपेक्षित नहीं। न कोई उसके तुल्य और अधिक है। सर्वोत्तम शक्ति अर्थात् उसमें अनन्त ज्ञान, अनन्त बल और अनन्त क्रिया है वह स्वाभाविक अर्थात् सहज उसमें सुनी जाती है। जो परमेश्वर निष्क्रिय होता तो जगत् की उत्पत्ति-स्थिति-प्रलय न कर सकता। इसलिये वह विभु तथापि चेतन होने से उसमें क्रिया भी है।18
निष्क्रिय हो तो जगत् को कैसे बनावे – देखो, जैसे वर्तमान् समय में जीव पाप-पुण्य करता, सुख-दुःख भोगता है, वैसे ईश्वर कभी नहीं होता। जो ईश्वर क्रियावान न होता, तो जगत् को कैसे बना सकता? जैसा कि कर्मों को प्राग भाववत् अनादि सान्त मानते हो, तो कर्म समवाय सबन्ध से नहीं रहेगा। जो समवाय सबन्ध से नहीं, वह संयोगज हो के अनित्य होता है।
– सत्यार्थप्रकाशः, द्वादश समुल्लासः
सृष्टि का उत्पादक – नास्तिकः जब परमात्मा शाश्वत अनादि चिदानन्द ज्ञानस्वरूप है, तो जगत् के प्रपञ्च और दुःख में क्यों पड़ा? आनन्द छोड़ दुःख का ग्रहण ऐसा काम कोई साधारण मनुष्य भी नहीं करता, (फिर) ईश्वर ने क्यों किया?
आस्तिकः परमात्मा किसी प्रपञ्च और दुःख में नहीं गिरता, न अपने आनन्द को छोड़ता है, क्योंकि प्रपञ्च और दुःख में गिरना, जो एकदेशी हो उसका हो सकता है, सर्वदेशी का नहीं। जो अनादि चिदानन्द ज्ञानस्वरूप परमात्मा जगत को न बनावे, तो अन्य कौन बना सके? जगत् बनाने का सामर्थ्य जीव में नहीं, और जड़ में स्वयं बनने का सामर्थ्य नहीं। इससे यह सिद्ध हुआ कि परमात्मा ही जगत् को बनाता और सदा आनन्द में रहता है। जैसे परमात्मा परमाणुओं से सृष्टि करता है, वैसे माता-पिता रूप निमित्त कारण से भी उत्पत्ति का प्रबन्ध नियम उसी ने किया है।20
वेदादि शास्त्रों में अनेकत्र सृष्टि को उत्पन्न करने वाले चेतन तत्त्व ब्रह्म का प्रतिपादन किया है। यह विविध सृष्टि जिससे उत्पन्न होती है जिसके द्वारा धारण की जाती है और अन्त में जब यह नहीं रहती, अपने कारण रूप में लीन हो जाती है, इस सबका जो अध्यक्ष-नियन्ता सर्वव्यापक परमेश्वर वही इसकी वास्तविकता को जानता है।21 यह प्राणी-अप्राणी रूप जगत् जिससे उत्पन्न होता, उत्पन्न होकर जिसके आश्रय जीता और जिसके द्वारा अन्त में लीन होता, उसको जानने की इच्छा करो वह ब्रह्म है।22
संभवतः वेद और उपनिषद् के इसी अभिप्राय को महर्षि वेद व्यास ने- जन्माद्यस्य यतः। वेदान्त दर्शन 1/1/2 के रूप में सूत्रबद्ध किया है। यहाँ यह स्पष्ट है कि जिसकी उत्पत्ति होती है, वह जगत् है और जो उससे भिन्न है, वह उसकी उत्पत्ति में निमित्त कारण है।23
आचार्य कपिल ने भी कहा है-
सहि सर्ववित् सर्वकर्त्ता। – सांखय दर्शन 3/56
ईश्वर ही सर्वज्ञ सृष्टिकर्त्ता है, सर्वशक्तिमान् = जो सृष्टि रचना में किसी अन्य की शक्ति उधार नहीं लेता, न इन्द्रियादि साधनों की अधीनता रखता है, अपितु ‘‘सर्वशक्तिमत्ता’’ से आभयन्तरीय (भीतर से) इक्षणशक्ति द्वारा समस्त विश्व-ब्रह्माण्ड की अद्भुत रचना करता है।
स्वामी दयानन्द सरस्वती अपने ग्रन्थ सत्यार्थ प्रकाशः अष्टम समुल्लास में लिखते हैं-
देखो! शरीर में किस प्रकार की ज्ञानपूर्वक सृष्टि रची है जिसको विद्वान् लोग देखकर आश्चर्य मानते हैं। भीतर हाड़ों के जोड़, नाड़ियों का बन्धन, मांस का लेपन, चमड़ी का ढक्कन, प्लीहा, यकृत, फेफड़ा, पंखा, कला का स्थापन, रुधिर शोधन, प्रचालन, विद्युत का स्थापन, जीव का संयोजन, शिरोरूप मूलरचन, लोम नखादि का स्थापन, आँख की अतीव सूक्ष्म शिरा का तारवत् ग्रन्थन, इन्द्रियों के मार्गों का प्रकाशन, जीव के जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति अवस्था के भोगने के लिये स्थान विशेषों का निर्माण, सब धातु का विभाग करण, कला, कौशल स्थापनादि अद्भुत् सृष्टि को बिना परमेश्वर के कौन कर सकता है?24
समस्त वैज्ञानिक ईश्वर को सृष्टिकर्त्ता, सुव्यवस्थापक नहीं मानते, यह कहना भी असत्य है। सर ऑलिवर लाज और आईंस्टीन महोदय का कथन है-
I believe in god – who reveals himself in orderly harmony of the universe
अर्थात् मैं ऐसे ईश्वर में विश्वास करता हूँ जो अपने आपको सांसारिक सुव्यवस्था के रूप में प्रकट करता है।25
कर्मफल दाता– ईश्वरीय व्यवस्था से ही जीव कर्मफलों को भोगते हैं। प्रकरण रत्नाकर के दूसरे भाग आस्तिक-नास्तिक के संवाद के प्रश्नोत्तर के अन्तर्गत इस सिद्धान्त की पुष्टि की गई है, जिसको बड़े-बड़े जैनियों ने अपनी सममति के साथ माना और मुबई में छपवाया है।
नास्तिकः ईश्वर की इच्छा से कुछ नही होता जो कुछ होता है, वह कर्म से।
आस्तिकः जो सब कर्म से होता है तो कर्म किससे होता है? जो कहो जीव आदि से होता है तो जिन श्रोत्रादि साधनों से कर्म जीव करता है, वे किन से हुए? जो कहो कि अनादिकाल और स्वभाव से होते हैं तो अनादि का छूटना असमभव होकर तुमहारे मत में मुक्ति का अभाव होगा। जो कहो कि प्रागभाववत् अनादि सान्त हैं तो बिना यत्न के सब कर्म निवृत्त हो जायेंगे । यदि ईश्वर फलदाता न हो तो पाप के फल दुःख को जीव अपनी इच्छा से कभी नहीं भोगेगा। जैसे चोर आदि चोरी का फल दण्ड अपनी इच्छा से नहीं भोगते, किन्तु राज्य व्यवस्था से भोगते हैं, वैसे ही परमेश्वर के भुगाने से जीव पाप और पुण्य के फलों को भोगते हैं, अन्यथा कर्मसङ्कर हो जायेंगे, अन्य के कर्म अन्य को भोगने पड़ेंगे। – सत्यार्थप्रकाशः द्वादश समुल्लासः पृ. 447
ईश्वर पापों को कभी क्षमा नहीं करता – प्रश्नः ईश्वर अपने भक्तों के पापों को क्षमा करता है वा नहीं?
उत्तरः नहीं। क्योंकि जो पाप क्षमा करे तो उसका न्याय नष्ट हो जाय, और मनुष्य महापापी हो जायें। क्योंकि क्षमा की बात सुन ही के उनको पाप करने में निर्भयता और उत्साह हो जाये। जैसे राजा अपराध को क्षमा कर दे, तो वे उत्साह पूर्वक अधिक-अधिक बड़े-बड़े पाप करें, क्योंकि राजा अपना अपराध क्षमा कर देगा और उनको भी भरोसा हो जाए कि राजा से हम हाथ जोड़ने आदि चेष्टा कर अपने अपराध छुड़ा लेंगे और जो अपराध नहीं करते, वे भी अपराध करने से न डर कर पाप करने में प्रवृत्त हो जाएँगे। इसलिए सब कर्मों का फल यथावत् देना ही ईश्वर का काम है क्षमा करना नहीं।
ईश्वर की सिद्धि में प्रत्यक्षादि प्रमाण – प्रश्नः- आप ईश्वर-ईश्वर कहते हो, परन्तु उसकी सिद्धि किस प्रकार करते हो?
उत्तरः–सब प्रत्यक्षादि प्रमाणों से।
प्रश्नः–ईश्वर में प्रत्यक्षादि प्रमाण कभी नहीं घट सकते।
उत्तरः– इन्द्रियार्थ सन्निकर्षोत्पन्नं ज्ञानमव्यपदेशयमव्यभिचारि व्यवसायात्मकं प्रत्यक्षम्।
– न्यायदर्शन 1/1/4
अर्थात् जो श्रोत्र, त्वचा, चक्षु, जिह्वा, घ्राण और मन का, शद, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध, सुख-दुःख सत्यासत्य विषयों के साथ सबन्ध होने से ज्ञान उत्पन्न होता है, उसको प्रत्यक्ष कहते हैं, परन्तु वह निर्भ्रम हो।
अब विचारना चाहिए कि इन्द्रियों और मन से गुणों का प्रत्यक्ष होता है, गुणी का नहीं। जैसे चारों त्वचा आदि इन्द्रियों से स्पर्श, रूप, रस और गन्ध का ज्ञान होने से गुणी जो पृथिवी उसका आत्मायुक्त मन से प्रत्यक्ष किया जाता है, वैसे इस प्रत्यक्ष सृष्टि में रचना विशेष आदि ज्ञानादि गुणों के प्रत्यक्ष होने से परमेश्वर का भी प्रत्यक्ष है।26
इस प्रकार स्वामी दयानन्द ने अपने ग्रन्थों में ईश्वर सिद्धि के सन्दर्भ में वेद, उपनिषद्, तर्क आदि प्रमाणों के आधार पर बहुत विस्तार से लिखा है। इस प्रसंग में महर्षि की जो मौलिक देन है, वह यह है कि वह प्रत्यक्षादि प्रमाणों से ईश्वर की सिद्धि करते हैं।
प्रत्यक्ष के बारे में वे स्वीकार करते हैं कि जब जीवात्मा शुद्ध अन्तःकरण से युक्त योग समाधिस्थ होकर आत्मा और परमात्मा का विचार करने में तत्पर होता है, उसको उसी समय आत्मा और परमात्मा दोनों प्रत्यक्ष होते हैं। परमात्मा का यह प्रत्यक्ष केवल आत्मा युक्त मन से होता है, उसमें बाह्य इन्द्रियाँ कारण नहीं होतीं। ईश्वरकी सिद्धि में प्रत्यक्ष प्रमाण की स्वीकृति ऋषि दयानन्द के मौलिक और वैचारिक क्रान्तिकारी चिन्तन का परिणाम है।
स्वामी दयानन्द का ईश्वर विषयक एक-एक चिन्तन किसी दार्शनिक वैज्ञानिक की खोज से कम नहीं है। यथा जड़ पदार्थ कभी परमात्मा नहीं हो सकता और परमात्मा कभी जड़ नहीं हो सकता।
लक्षण प्रमाणायां वस्तु सिद्धिर्नतुप्रतिज्ञा मात्रेण।
सन्दर्भः–
- (1) सब सत्य विद्या और जो पदार्थ विद्या से जाने जाते हैं, उन सबका आदि मूल परमेश्वर है।
– आर्य समाज का प्रथम नियम
(2) ईश्वर सच्चिदानन्दस्वरूप, निराकार, सर्वशक्तिमान्, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनन्त, निर्विकार, अनादि, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र और सृष्टिकर्त्ता है, उसी की उपासना करनी योग्य है।
– आर्य समाज का द्वितीय नियम
- सत्यार्थप्रकाशः द्वादश समुल्लासः पृष्ठ 426, 428
- सत्यार्थप्रकाशः द्वादश समुल्लासः पृष्ठ 428
- सत्यार्थप्रकाशः सप्तम समुल्लासः पृष्ठ 175
- (1)एकं सद्विप्रा बहुधा वदन्त्यग्निं यमं मातरिश्वानााहुः।
इन्द्रं मित्रं वरुणमग्निमाहुरथो दिव्यः स सुपर्णो गरुत्मान्।।
– ऋग्वेद 1/164/64
(2) भुवनस्य यस्यपतिरेक एव नमस्यः ।
– अथर्ववेद 2/2/1
(3) ‘‘न द्वितीयो न तृतीयश्चतुर्थो नाप्युच्यते। न पंचमो न षष्ठः सप्तमो नाप्युच्यते। नाष्टमो न नवमो दशमो नाप्युच्यते। स एक एव सकवृदेक एव।’’
– अथर्ववेद (13/4/2) 16 से 18 मन्त्र
(4) ‘‘भूतस्य जातः पतिरेक आसीत्’’।
– यजुर्वेद 13/4
- सत्यार्थप्रकाशः, सप्तम समुल्लासः पृष्ठ 176
- सत्यार्थप्रकाशः, सप्तम समुल्लासः पृष्ठ 193
- वही, पृष्ठ 193
- ऋग्वेदादि भाष्य भूमिका, ईश्वर प्रार्थना विषयः पृष्ठ 3
- सत्यार्थ प्रकाशः अष्टम समुल्लासः पृष्ठ 211
- वही, पृष्ठ 211
- सत्यार्थप्रकाशः सप्तम समुल्लासःपृष्ठ 178
- ऋग्वेदादि भाष्य भूमिका, वेद विषय विचारः पृष्ठ 33
- सत्यार्थप्रकाशः, सप्तम समुल्लासः पृष्ठ 180
- वही, पृष्ठ 180
- सत्यार्थप्रकाशः, सप्तम समुल्लासः पृष्ठ 187
- वही, पृष्ठ 187
- दार्शनिक संयोग दो प्रकार का मानते हैं। एक संयोगज और दूसरा समवायिक। समवाय सबन्ध गुण-गुणी में, कर्म-कर्मवान् में, अवयव-अवयवी में और जाति-व्यक्ति में रहता है। यह सबन्ध नित्य होता है। – युधिष्ठिर मीमांसक, स.प्र. (शतादी संस्करण) पृष्ठ 665
- सत्यार्थप्रकाशः द्वादश समुल्लासः पृष्ठ 449
- इयं विसृष्टियति आबभूव यदिवादधे यदि वा न वेद।। – ऋग्वेद 10/129/7
- यतो वा इमानि भूतानि जायन्ते येन जातानि जीवन्ति।
यत्प्रयन्त्यभिसंविशन्ति तद्विजिज्ञासस्व तद् ब्रह्म।।
– तैत्तिरीयोपनिषद् 3/1
- तत्त्वमसि, स्वामी विद्यानन्द सरस्वती, पृष्ठ 44
- सत्यार्थप्रकाशः अष्टम् समुल्लासः पृष्ठ 226
- विद्यार्थियों की दिनचर्या, स्वामी जगदीश्वरानन्द सरस्वती, पृष्ठ 38
- सत्यार्थ प्रकाशः, सप्तम समुल्लासः पृष्ठ 178
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