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अणु जो ऋतु के समान

हे मनुष्यों जैसे एक अकेला अणु जो ऋतु के समान शास्वत शोभायमान प्रकट हो रहा है। जो निरंतर गति कर रहा है घोड़े के समान विशेष कर रूपादि का भेद पैदा करने वाला है। जो दो प्रकार के नियमों को बनाने वाला है। जो हमारें अंगों को ऋतु संबंधी पदार्थों को अनुकुल बनाने वला है, अग्नि के माध्यम से चेतना को  शुद्ध और उसको नियम में करने वाला है। एक ईश्वर दूसरा प्रकृती है जिस तरह से ईश्वर जीव प्रकृती है इसी तरह से ज्ञान विज्ञान ब्रह्मज्ञान है। जो एक परमाणु में तीन अणुओं की तरह है। सर्व प्रथम हमारी चेतना है जो हमारे शर में सर्वप्रथम उपस्थित होती है, वही से यह हमारे सारे शरीर को एक पीण्ड के रूप में सभी अंगों का देखभाल करती है। इसमें इसके दो सहायक है एक परमेश्वर दूसरा प्रकृती है। जैसा की मंत्रों में आता है कि यह मानव शरीर एक प्रकृती रूपी वृक्ष की तरह है जिसमें दो प्रकार से सुवर्ण सुन्दर पक्षी रहते है एक तो स्वयं की चेतना हा जो शरीर मन और इन्द्रियों से एकात्म अस्थापित करके संसारीक विषयों का निरंतर भोग करती है जिसका पाप पुण्य आत्मा को भोगना पड़ता है जब तक वह शरीर में निवास करती है। दूसरा पक्षी स्वयं परमेश्वर है जो आत्मा रुपी पक्षी के कर्मों का साक्षात्कार करता है और उसके किये कर्मों का उसको फल दे कर प्रसन्न और प्रताणित भी करता है। जब आत्मा को संसारिक विषयों का ज्ञान हो जाता है की इसमें शिवाय दुःख के कुछ नहीं है तो वह विषयों का त्याग करके परमेश्वर में अपना चित्त लगाता है जिससे परमेश्वर के गुण उस चेतना में भी उतरने लगते है जैसे लोहा आग के सम्पर्क करने से आग की गर्मी को प्राप्त करता है उसी प्रकार से आत्मा परमात्मा के गुणों को प्राप्त करता है। जिससे वह शरीर रूपी संसार से मुक्त होने लगता है।  जब तक वह परमेश्वर के सानिध्य में रहता है तब तक वह आनन्दित रहता है और जब उसके पुण्य कर्म क्षीण हो जाते है तो वह पुनः श्रेष्ठ मानव के समृद्ध परिवार में जन्म लेता है।

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