शिव - शिवा और तंत्र
अपार करुणामूर्ति
जगज्जननी भगवती शिवा और शिव ही समस्त सृष्टि के स्रष्टा हैं । इनकी कृपा से
ब्रह्मादि देव आविर्भूत होकर आदेशानुसार सृष्टि , स्थिति और संह्यति में
प्रवृत्त होते हैं । अखिल ब्रह्मांडनायिका भगवती एवं अखिल ब्रह्मांडनायक भगवान्
एकरुप होते हुए भी लोकानुग्रह के लिए द्विधा रुप ग्रहण करते हैं और दिव्य दम्पत्ति
के रुप में शब्दर्थमयी सृष्टि को भी विकसित करते हैं । ये ही ब्रह्मस्वरुप हैं ।
इन्हीं के संवाद रुप में तंत्र सामने आया ।
वस्तुतः ब्रह्मा , विष्णु
तथा शिव में कोई भेद नहीं हैं । लोक - कल्याण की उदार भावना से परस्पर संवाद रुप
में , प्रश्नोत्तर रुप में कर्तव्य कर्मों का चिंतन प्रस्तुत
करते रहे हैं । यह आवश्यक भी है , क्योंकि माता - पिता ही
यदि बालकों की शिक्षा - व्यवस्था न करें तो और कौन करे ? जब
स्वयं ब्रह्मादि देव भी प्रादुर्भूत होने के पश्चात् अबोध की भांति कोऽहं ,
कुतः आयातः , को मे जननी , को मे तातः ? इत्यादि नहीं जान पाए तो उन्हें भी
इन्हीं ने कृपापूर्वक ज्ञान दिया था ।
अतः द्वितिय पटल माला
निर्णय
ईश्वर उवाच -
अथाग्रे कथियिष्यामि
यक्षिण्यादि प्रसाधनम् ।
यस्य सिद्धौ नराणां
हि सर्वे सन्ति मनोरथाः ॥
श्री शिवजी बोले -
हे रावण ! अब मैं
तुमसे यक्षिणी साधन का कथन करता हूं , जिसकी सिद्धि कर लेने से साधक
के सभी मनोरथ सिद्ध हो जाते हैं ।
सर्वासां यक्षिणीना
तु ध्यानं कुर्यात् समाहितः ।
भविनो मातृ पुत्री
स्त्री रुपन्तुल्यं यथेप्सितम् ॥
तन्त्र साधक को अपनी
इच्छा के अनुसार बहिन ,
माता , पुत्री व स्त्री ( पत्नी ) के समान
मानकर यक्षिणियों के स्वरुप का ध्यान अत्यन्त सावधानीपूर्वक करना चाहिए । कार्य
में तनिक - सी भी असावधानी हो जाने से सिद्धि की प्राप्ति नहीं होती ।
भोज्यं निरामिष
चान्नं वर्ज्य ताम्बूल भक्षणम् ।
उपविश्य जपादौ च
प्रातः स्नात्वा न संस्पृशेत् ॥
यक्षिणी साधन में
निरामिष अर्थात् मांस तथा पान का भोजन सर्वथा निषेध है अर्थात् वर्जित है । अपने
नित्य कर्म में ,
प्रातः काल स्नान आदि करके मृगचर्म ( के आसन ) पर बैठकर फिर किसी को
स्पर्श न करें । न ही जप और पूजन के बीच में किसी से बात करें ।
नित्यकृत्यं च कृत्वा
तु स्थाने निर्जनिके जपेत् ।
यावत् प्रत्यक्षतां
यान्ति यक्षिण्यो वाञ्छितप्रदाः ॥
अपना नित्यकर्म करने
के पश्चात् निर्जन स्थान में इसका जप करना चाहिए । तब तक जप करें , जब
तक मनवांछित फल देने वाली ( यक्षिणी ) प्रत्यक्ष न हो । क्रम टूटने पर सिद्धि में
बाधा पड़ती है । अतः इसे पूर्ण सावधानी तथा बिना किसी को बताए करें । यह सब सिद्धकारक
प्रयोग हैं ।
यह विधि सभी
यक्षिणीयों के साधन में प्रयुक्त की जाती है ।
'' ॐ
क्लीं ह्रीं ऐं ओं श्रीं महा यक्षिण्ये सर्वैश्वर्यप्रदात्र्यै नमः ॥ ''
इमिमन्त्रस्य च जप
सहस्त्रस्य च सम्मितम् ।
कुर्यात्
बिल्वसमारुढो मासमात्रमतन्द्रितः ॥
उपर्युक्त मन्त्र को
जितेन्द्रिय होकर बेल वृक्ष पर चढ़कर एक मास पर्यन्त प्रतिदिन एक हजार बार जपें ।
सत्वामिषबलिं तत्र
कल्पयेत् संस्कृत पुरः ।
नानारुपधरा यक्षी
क्वचित् तत्रागमिष्यति ॥
मांस तथा मदिरा का
प्रतिदिन भोग रखें ,
क्योंकि भांति - भांति का रुप धारण करने वाली वह यक्षिणी न जाने कब
आगमन कर जाए ।
तां दृष्ट्वा न भयं
कुर्याज्जपेत् संसक्तमानसः ।
यस्मिन् दिने
बलिंभुक्तवा वरं दातुं समर्थयेत् ॥
जब यक्षिणी आगमन करे
तो उसे देखकर डरना नहीं चाहिए , क्योंकि वह कभी - कभी भयंकर रुप में आ
जाती है । उसके आगमन करने पर दृढ़ता पूर्वक रहें , डरें नहीं
। अपने मन में जप करते रहें ।
तदावरान्वे
वृणुयात्तांस्तान्वेंमनसेप्सितान् ।
धन्मानयितुं
ब्रूयादथना कर्णकार्णिकीम् ॥
जिस दिन बलि ग्रहण
करके वह ( यक्षिणी ) वर देने को तैयार हो , उस दिन जिस वर की कामना हो ,
उससे मांग लेना चाहिए , धन लाने को कहें अथवा
कान में बात करने को कहें ।
भोगार्थमथवा
ब्रूयान्नृत्यं कर्तुमथापि वा ।
भूतानानयितुं वापि
स्त्रियतायितुं तथा ॥
भोग के लिए उससे
नाचने के लिए कहें ,
प्राणियों को लाने की , स्त्रियों को लाने की
बात कहें ।
राजानं वा
वशीकर्तुमायुर्विद्यां यशोबलम् ।
एतदन्यद्यदीत्सेत
साधकस्तत्तु याचयेत् ॥
राजा को वश में करने
के लिए ,
आयु , विद्या एवं यश के लिए साधक को तत्क्षण
वर मांग लेना चाहिए ।
चेत्प्रसन्ना यक्षिणी
स्यात् सर्व दद्यान्नसंशयः ।
आसक्तस्तुद्विजैः
कुर्यात् प्रयोग सुरपूजितम् ॥
प्रसन्न होकर यक्षिणी
सब कुछ प्रदान करती है ,
इसमें संदेह नहीं हैं । यदि प्रयोग को स्वयं न कर सकें तो किसी
ब्राह्मण से कराएं । यह यक्षिणी साधन देवताओं द्वारा बी किया गया है ।
सहायानथवा गृह्य
ब्राह्मणान्साध्यें व्रतम् ।
तिस्त्रः कुमारिका
भौज्याः परमन्नेन नित्यशः ॥
फिर अपने सहायकों को
रखकर ब्राह्मणों को भोजन कराएं और प्रतिदिन तीन कुमारी कन्याओं को भी भोजन कराते
रहें ।
सिद्धैधनादिके चैव
सदा सत्कर्म आचरेत् ।
कुकर्मणि व्ययश्चेत्
स्यात् सिद्धिर्गच्छतिनान्यथा ॥
धन इत्यादि की सिद्धि
होने पर धन को अच्छे कार्यों में व्यय करें , नहीं तो सिद्धि छिन्न हो जाती
हैं ।
धनदा यक्षिणी मन्त्र
प्रयोग
'' ॐ
ऐं ह्रीं श्रीं धनं मम देहि देहि स्वाहा ॥ ''
अश्वत्थवृक्षमारुह्य
जपेदेकाग्रमानसः ।
धनदाया यक्षिण्या च
धनं प्राप्नोति मानवः ॥
धन देने वाली यक्षिणी
का जप पीपल के वृक्ष पर बैठकर एकाग्रतापूर्वक करना चाहिए । इससे धनदादेवी प्रसन्न
होकर धन प्रदान करती हैं ।
पुत्रदा यक्षिणी
मन्त्र प्रयोग
'' ॐ
ह्रीं ह्रीं हूं रं पुत्रं कुरु कुरु स्वाहा ॥ ''
इस मन्त्र को दस हजार
बार जपना चाहिए ।
चूतवृक्षं समारुह्य
जपेदेकाग्र मानस ।
अपुत्रो लभते पुत्रं
नान्यथा मम भाषितम् ॥
पुत्र की इच्छा करने
वाले व्यक्ति को आम के वृक्ष के ऊपर चढ़कर जप् करना चाहिए तब पुत्रदा यक्षिणी
प्रसन्न होकर पुत्र प्रदान करती है ।
महालक्ष्मी यक्षिणी
मन्त्र प्रयोग
'' ॐ
ह्रीं क्लीं महालक्ष्म्यै नमः ॥ ''
वटवृक्षे समारुढो जपेदेकाग्रमानसः
।
सा लक्ष्मी यक्षिणी च
स्थितालक्ष्मीश्च जायते ॥
वट वृक्ष ( बरगद के
वृक्ष ) पर ऊपर ( किसी मोटी शाखा पर ) बैठकर एकाग्र मन से महालक्ष्मी यक्षिणी का
दस हजार जप करें तो लक्ष्मी स्थिर होती है और साधक को सफलता मिलती है ।
जया यक्षिणी मन्त्र
प्रयोग
'' ॐ
ऐं जया यक्षिणायै सर्वकार्य साधनं कुरु कुरु स्वाहा ॥ ''
अर्कमूले समारुढो
जपेदेकाग्रमानसः ।
यक्षिणी च जया नाम
सर्वकार्यकरी मता ॥
आक की मूल के ऊपर
बैठकर उपरोक्त मन्त्र का जप करने से जया नामक यक्षिणी प्रसन्न होकर सब कार्यों को
सिद्ध करती हैं ।
गुप्तेन विधिना कार्य
प्रकाश नैव कारयेत् ।
प्रकाशे बहुविघ्नानि
जायते नात्र संशयः ॥
प्रयोगाश्चानुभूतोऽयं
तस्मद्यत्नं समाचरेत् ।
निर्विघ्नेन विधानेन
भवेत् सिद्धिरनुत्तमा ॥
यक्षिणियों की साधना
सदैव गुप्त रुप से ही करनी चाहिए , प्रकट रुप से करने में
विघ्नों का भय रहता है तथा प्रयोग सिद्ध नहीं हो पाते , निर्विघ्न
विधान से सिद्धि की प्राप्ति अवश्य होती हैं ।
सा भूतिनी
कुण्डलधारिणी च सिन्दूरिणी चाप्यथ हारिणी च ।
नटी तथा चातिनटी च
चैटी कामेश्वरी चापि कुमारिका च ॥
भूतिनी नाम की यक्षिणी
बहुत से रुप धारण कर लेती है , जैसे कुण्डल धारण करन्जे वाली , सिन्दूर धारण करने वाली , हार पहनने वाली , नाचने वाली , अत्यन्त नृत्य करने वाली , चेटी , कामेश्वरी और कुमारी आदि रुपों में आती हैं ।
भूतिनी यक्षिणी का
मंत्र निम्न है -
'' ॐ
ह्रां क्रूं क्रूं कटुकटु अमुकी देवी वरदा सिद्धिदा च भव ओं अः ॥ ''
चम्पावृक्षतले रात्रौ
जपेदष्ट सहस्रकम् ।
पूजनं विधिना कृत्वा
दद्यात् गुग्गुलपधूकम् ॥
सप्तमेऽहि निशीथे च
सा चागच्छिति भूतिनी ।
दद्यात्
गन्धोदकेनार्घ्यतुष्टामातादिका भयेत् ॥
भूतिनी यक्षिणी का जप
चम्पा वृक्ष के नीचे प्रतिदिन आठ हजार बार करें । सर्वप्रथम भूतिनी का पूजन करें , फिर
गुग्गुल की धूप दें । ऐसा करने से सातवीं रात में भूतिनी आती है । जब वह आगमन करे
तो उसे चन्दन मिश्रित जल से अर्घ्य दें । वह प्रसन्न होकर उसी रुप में परिणत हो
जाती है , जिस रुप की कामना की है ।
मातेत्यष्टादशानां चं
वस्त्रालंकार भोजनम् ।
भगिनी चेत्तदा नारीं
दूरादा कृष्यक मुन्दरीम् ॥
रसं रसांजनं दिव्यं
विधानं च प्रयच्छति ।
भार्यचपृष्ठमारोप्य
स्वर्ग नयति कामिता ।
भोजनं कामिकं नित्य
साधमाय प्रयच्छति ॥
जब साधक यक्षिणी को
माता के रुप में सिद्ध करता है तो वह अठ्ठारह व्यक्तियों के वस्त्र , आभूषण
और भोजन प्रतिदिन देती है । एक बहन के रुप में सिद्ध होने पर सुंदर स्त्रियों को
दूर - दूर से लाकर देती है तथा रसपूर्ण दिव्य भोजन प्रदान करती है । पत्नी के रुप
में सिद्ध होने पर वह साधक को अपनी पीठ पर बैठाकर स्वर्ग आदि लोकों का भ्रमण कराती
है एवं भोजनादि के पदार्थ भी उपलब्ध कराती है ।
रात्रौ पुष्पेण गत्वा
शुभा शय्योपकल्पयेत् ।
जाति पुष्पेण
वस्त्रेण चन्दनेन च पूजयेत् ॥
धूपं गुग्गुलं
दत्त्वा जपेदष्ट सहस्त्रकम् ।
जपान्ते शीघ्रमायाति
चुम्बत्यालिंगयत्यपि ॥
सर्वालंकारसंयुक्ता
संभोगादि समन्विता ।
कुबेरस्य गृहादेव
द्रव्यमाकृष्य यच्छति ॥
रात्रि हो जाने पर
मंदिर में आसन बिछाकर सजाएं तथा चमेली के पुष्प एवं चंदन आदि से पूजब्न करें और
गुग्गुल की धूप देकर मंत्र का आठ हजार जप करें । जप की समाप्ति पर संपूर्ण
अलंकारों से युक्त होकर यक्षिणी आगमन करती है और साधक का आलिंगन - चुम्बनादि करके
उससे संभोग करती है तथा कुबेर के खजाने से धन लाकर उसे देती है ।
अन्य यक्षिणियों के
नाम एवं मंत्र
विद्या यक्षिणी -
ह्रीं वेदमातृभ्यः स्वाहा ।
कुबेर यक्षिणी - ॐ
कुबेर यक्षिण्यै धनधान्यस्वामिन्यै धन - धान्य समृद्धिं मे देहि दापय स्वाहा ।
जनरंजिनी यक्षिणी - ॐ
क्लीं जनरंजिनी स्वाहा ।
चंद्रिका यक्षिणी - ॐ
ह्रीं चंद्रिके हंसः क्लीं स्वाहा ।
घंटाकर्णी यक्षिणी -
ॐ पुरं क्षोभय भगवति गंभीर स्वरे क्लैं स्वाहा ।
शंखिनी यक्षिणी - ॐ
शंखधारिणी शंखाभरणे ह्रां ह्रीं क्लीं क्लीं श्रीं स्वाहा ।
कालकर्णी यक्षिणी - ॐ
क्लौं कालकर्णिके ठः ठः स्वाहा ।
विशाला यक्षिणी - ॐ
ऐं विशाले ह्रां ह्रीं क्लीं स्वाहा ।
मदना यक्षिणी - ॐ
मदने मदने देवि ममालिंगय संगं देहि देहि श्रीः स्वाहा ।
श्मशानी यक्षिणी - ॐ
हूं ह्रीं स्फूं स्मशानवासिनि श्मशाने स्वाहा ।
महामाया यक्षिणी - ॐ
ह्रीं महामाये हुं फट् स्वाहा ।
भिक्षिणी यक्षिणी - ॐ
ऐं महानादे भीक्षिणी ह्रां ह्रीं स्वाहा ।
माहेन्द्री यक्षिणी -
ॐ ऐं क्लीं ऐन्द्रि माहेन्द्रि कुलुकुलु चुलुचुलु हंसः स्वाहा ।
विकला यक्षिणी - ॐ
विकले ऐं ह्रीं श्रीं क्लैं स्वाहा ।
कपालिनी यक्षिणी - ॐ
ऐं कपालिनी ह्रां ह्रीं क्लीं क्लैं क्लौं हससकल ह्रीं फट् स्वाहा ।
सुलोचना यक्षिणी - ॐ
क्लीं सुलोचने देवि स्वाहा ।
पदमिनी यक्षिणी - ॐ
ह्रीं आगच्छ पदमिनि वल्लभे स्वाहा ।
कामेश्वरी यक्षिणी -
ॐ ह्रीं आगच्छ कामेश्वरि स्वाहा ।
मानिनी यक्षिणी - ॐ
ऐं मानिनि ह्रीं एहि एहि सुंदरि हस हसमिह संगमिह स्वाहा ।
शतपत्रिका यक्षिणी -
ॐ ह्रां शतपत्रिके ह्रां ह्रीं श्रीं स्वाहा ।
मदनमेखला यक्षिणी - ॐ
क्रों मदनमेखले नमः स्वाहा ।
प्रमदा यक्षिणी - ॐ
ह्रीं प्रमदे स्वाहा ।
विलासिनी यक्षिणी - ॐ
विरुपाक्षविलासिनी आगच्छागच्छ ह्रीं प्रिया मे भव क्लैं स्वाहा ।
मनोहरा यक्षिणी - ॐ
ह्रीं आगच्छ मनोहरे स्वाहा ।
अनुरागिणी यक्षिणी -
ॐ ह्रीं आगच्छानुरागिणी मैथुनप्रिये स्वाहा ।
चंद्रद्रवा यक्षिणी -
ॐ ह्रीं नमश्चंद्रद्रवे कर्णाकर्णकारणे स्वाहा ।
विभ्रमा यक्षिणी - ॐ
ह्रीं विभ्रमरुपे विभ्रमं कुरु कुरु एहि एहि भगवति स्वाहा ।
वट यक्षिणी - ॐ एहि
एहि यक्षि यक्षि महायक्षि वटवृक्ष निवासिनी शीघ्रं मे सर्व सौख्यं कुरु कुरु
स्वाहा ।
सुरसुंदरी यक्षिणी -
ॐ आगच्छ सुरसुंदरि स्वाहा ।
कनकावती यक्षिणी - ॐ
कनकावति मैथुनप्रिये स्वाहा ।
इन सभी यक्षिणियों मे
अपार क्षमता है । अपने उपासक को प्रसन्न होने पर ये कुछ भी प्रदान कर सकती हैं ।
भौतिक सिद्धि एवं समृद्धि के लिए तथा अन्य अनेक समस्याओं के समाधान के निमित्त भी
यक्षिणी - साधना निश्चित रुपेण फलदायी होती है । किन्तु एकान्त - सेवन , नियमित
जप , व्रत , उपवास , भूमि - शयन , साधनाभेद से जङ्गल - श्मशान अथवा
निर्जन नदी - तट जैसे स्थान में जप , आहुति आदि प्रतिबन्धों
का पालन करना अनिवार्य रहता है ।
आज के युग में इतनी
जटिल साधना संभव नहीं रह गई है , फिर भी प्रसङ्गवश विषय की पूर्ति के लिए
यहां कुछ प्रमुख यक्षिणियों के जप - मन्त्र दिए जा रहे हैं । आस्थावान और समर्थजन
चाहें तो यक्षिणी - उपासना से लाभ उठा सकते हैं । यहां यह भी ध्यान रखने की बात है
कि सदविषय के लिए की गई साधना का फल निरापद होता है , जबकि
असद ( अभिचार - कर्म , पर - पीड़न , पर
- शोषण आदि ) के उद्देश्य से की गई साधना - कालान्तर में साधक को कष्ट पहुंचाती है
।
साधना विधि
यदि यक्षिणी का चित्र
, प्रतिमा अथवा यन्त्र प्राप्त न हो सके तो भोजपत्र पर लाल चन्दन से अनार की
कलम द्वारा किसी शुभ मुहूर्त्त में उस अभीष्ट यक्षिणी का नाम लिखकर उसे आसन पर
प्रतिष्ठित करके उसी की पूजा करनी चाहिए । यहां जिन प्रमुख यक्षिणियों के मन्त्र
लिखे जा रहे हैं , उनमें साधक जन अपनी निष्ठा , क्षमता और सुविधा के अनुसार उनमें से किसी भी एक की आराधना कर सकते हैं ।
स्मरण रहे कि यक्षिणी - साधना घर में नहीं , बाहर एकान्त में
करने क विधान हैं । एकान्त - वन , वट वृक्ष के नीचे ,
श्मशान , मन्दिर , वाटिका
, नगर - द्वार जैसे स्थान इस साधना के लिए विशेष उपयुक्त
माने गए हैं ।
साधक को चाहिए कि वह
निश्चित स्थान पर नित्य रात्रि के समय जाकर शुद्ध आसन पर बैठे और पश्चिम की और मुख
करके भोजपत्र पर अङ्कित यक्षिणीचित्र ( अथवा नाम ) की धूप - दीप से पूजा करके
मन्त्र - जप प्रारम्भ करे । जप समाप्त होने पर वहीं सो जाए ।
साधना - काल में काम
- क्रोध से परे और व्रत ,
उपवास तथा संयम के साथ रहना चाहिए । जप आरम्भ करने से पूर्व जो
संख्या जैसे निश्चित की जाए , उसे उसी विधि से पूरी करनी
चाहिए । जैसे किसी साधक ने एक लाख जप का सङ्कल्प किया है और नित्य पचास माला
मन्त्र जपता है तो उसे दस दिन में अपनी जपसंख्या पूरी करनी होगी । जप - संख्या
पूरी हो जाने पर कम एक सौ आठ बार आहुति देकर ( वही जप - मन्त्र पढ़ते हुए ) हवन
करना चाहिए । हवन में प्रयुक्त होने वाली सामग्री कई प्रकार की होती है । यदि कुछ
नहो सके तो काले तिल , घी और गुड़ का मिश्रण भी प्रयुक्त किया
जा सकता है । हवन के पश्चात् कम से कम एक कुमारी कन्या को भोजन - वस्त्र और
दक्षिणा भी देनी चाहिए । साधनाकाल में किसी प्रकार की अलौकिक अनुभूति हो तो उसका
प्रचार न करके चुपचाप उसी आराध्य यक्षिणी से निवेदन करना उचित होता है ।
वनस्पति यक्षिणियां
कुछ ऐसी यक्षिणियां
भी होती हैं ,
जिनका वास किसी विशेष वनस्पति ( वृक्ष - पौधे ) पर होता है । उस
वनस्पति का प्रयोग करते समय उस यक्षिणी का मंत्र जपने से विशेष लाभ प्राप्त होता
है । वैसे भी वानस्पतिक यक्षिणी की साधना की जा सकती है । अन्य यक्षिणियों की
भांति वे भी साधक की कामनाएं पूर्ण करती हैं ।
वानस्पतिक यक्षिणियों
के मंत्र भी भिन्न हैं । कुछ बंदों के मंत्र भी प्राप्त होते हैं । इन यक्षिणियों
की साधना में काल की प्रधानता है और स्थान का भी महत्त्व है ।
जिस ऋतु में जिस
वनस्पति का विकास हो ,
वही ऋतु इनकी साधना में लेनी चाहिए । वसंत ऋतु को सर्वोत्तम माना
गया है । दूसरा पक्ष श्रावण मास ( वर्षा ऋतु ) का है । स्थान की दृष्टि से एकांत
अथवा सिद्धपीठ कामाख्या आदि उत्तम हैं । साधक को उक्त साध्य वनस्पति की छाया में
निकट बैठकर उस यक्षिणी के दर्शन की उत्सुकता रखते हुए एक माह तक मंत्र - जप करने
से सिद्धि प्राप्त होती हैं ।
साधना के पूर्व आषाढ़
की पूर्णिमा को क्षौरादि कर्म करके शुभ मुहूर्त्त में बिल्वपत्र के नीचे बैठकर शिव
की षोडशोपचार पूजा करें और पूरे श्रावण मास में इसी प्रकार पूजा - जप के साथ
प्रतिदिन कुबेर की पूजा करके निम्नलिखित कुबेर मंत्र का एक सौ आठ बार जप करें -
'' ॐ
यक्षराज नमस्तुभ्यं शंकर प्रिय बांधव ।
एकां मे वशगां नित्यं
यक्षिणी कुरु ते नमः ॥
इसके पश्चात् अभीष्ट
यक्षिणी के मंत्र का जप करें । ब्रह्मचर्य और हविष्यान्न भक्षण आदि नियमों का पालन
आवश्यक है । प्रतिदिन कुमारी - पूजन करें और जप के समय बलि नैवेद्य पास रखें । जब
यक्षिणी मांगे ,
तब वह अर्पित करें । वर मांगने की कहने पर यथोचित वर मांगें । द्रव्य
- प्राप्त होने पर उसे शुभ कार्य में भी व्यय करें ।
यह विषय अति रहस्यमय
है । सबकी बलि सामग्री ,
जप - संख्या , जप - माला आदि भिन्न - भिन्न
हैं । अतः साधक किसी योग्य गुरु की देख - रेख में पूरी विधि जानकर सधना करें ,
क्योंकि यक्षिणी देवियां अनेक रुप में दर्शन देती हैं उससे भय भी
होता है । वानस्पतिक यक्षिणियों के वर्ग में प्रमुख नाम और उनके मंत्र इस प्रकार
हैं -
बिल्व यक्षिणी - ॐ
क्ली ह्रीं ऐं ॐ श्रीं महायक्षिण्यै सर्वेश्वर्यप्रदात्र्यै ॐ नमः श्रीं क्लीं ऐ
आं स्वाहा ।
इस यक्षिणी की साधना
से ऐश्वर्य की प्राप्ति होती है ।
निर्गुण्डी यक्षिणी -
ॐ ऐं सरस्वत्यै नमः ।
इस यक्षिणी की साधना
से विद्या - लाभ होता है ।
अर्क यक्षिणी - ॐ ऐं
महायक्षिण्यै सर्वकार्यसाधनं कुरु कुरु स्वाहा ।
सर्वकार्य साधन के
निमित्त इस यक्षिणी की साधना करनी चाहिए ।
श्वेतगुंजा यक्षिणी -
ॐ जगन्मात्रे नमः ।
इस यक्षिणी की साधना
से अत्याधिक संतोष की प्राप्ति होती है ।
तुलसी यक्षिणी - ॐ
क्लीं क्लीं नमः ।
राजसुख की प्राप्ति
के लिए इस यक्षिणी की साधना की जाती है ।
कुश यक्षिणी - ॐ
वाड्मयायै नमः ।
वाकसिद्धि हेतु इस
यक्षिणी की साधना करें ।
पिप्पल यक्षिणी - ॐ
ऐं क्लीं मे धनं कुरु कुरु स्वाहा ।
इस यक्षिणी की साधना
से पुत्रादि की प्राप्ति होती है । जिनके कोई पुत्र न हो , उन्हें
इस यक्षिणी की साधना करनी चाहिए ।
उदुम्बर यक्षिणी - ॐ
ह्रीं श्रीं शारदायै नमः ।
विद्या की प्राप्ति
के निमित्त इस यक्षिणी की साधना करें ।
अपामार्ग यक्षिणी - ॐ
ह्रीं भारत्यै नमः ।
इस यक्षिणी की साधना
करने से परम ज्ञान की प्राप्ति होती है ।
धात्री यक्षिणी - ऐं
क्लीं नमः ।
इस यक्षिणी के मंत्र
- जप और करने से साधना से जीवन की सभी अशुभताओं का निवारण हो जाता है ।
सहदेई यक्षिणी - ॐ
नमो भगवति सहदेई सदबलदायिनी सदेववत् कुरु कुरु स्वाहा ।
इस यक्षिणी की साधना
से धन - संपत्ति की प्राप्ति होती है । पहले के धन की वृद्धि होती है तथा मान -
सम्मान आदि इस यक्षिणी की कृपा से सहज ही प्राप्त हो जाता है ।
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