Ad Code

तंत्र साधना विधि

 


एक बार ब्रह्माजी ने भगवान शिव से प्रार्थनापूर्वक निवेदन किया , '' हे प्रभो ! आपने भोग और मोक्ष प्रदान करने वाले तंत्रशास्त्रों का कथन किया है , जिसे जानकर देव , नर और दानव सिद्ध बन जाएंगे , तो फिर वे प्रभु का स्मरण कैसे करेंगे ? मैं ब्रह्मा भी सृष्टि के कार्य से मुक्त हो जाऊंगा । फिर मेरा कार्य भी क्या रहेगा ? '' इस प्रकार निवेदन करके वे ब्रह्मलोक चले गए ।

 

तब भगवान शिव मंदार पर्वत पर गए और वहां नंदिकेश्वर को बुलाकर उन्हें द्वार पर रक्षा के लिए बैठाया तथा वहां अनेक ऋषि - मुनियों को बुलाकर उनके साथ दैत्यों को मोहित करने के लिए विविध शास्त्रों का कथन किया । उन शास्त्रों का चिंतन करने से महर्षि गौतम अक्षपाद बन गए और उन्होंने आकर शिव से पुनः तंत्रो के पृथक् प्रकारों का ज्ञान प्राप्त किया । शिव ने ही विष्णु एवं कृष्ण तंत्र का कथन किया , जिसे नारदजी से अध्ययन करके मुनि ने सिद्धि प्राप्त की ।

 

तंत्रों की रचना प्रारंभ में भगवान शिव ने ही की और उसके पश्चात् ऋषि , मुनि तथा सिद्ध पुरुषों ने अपने परम पुरुषार्थ द्वारा कठोर तप और साधनाओं के बल पर जो भी प्राप्त किया , उसे भिन्न - भिन्न तंत्र ग्रंथों के रुप में निर्मित करके व्यापक रुप दिया ।

 

तंत्र ने एक ओर मानव को परलोक सुधारने के उत्तमोत्तम आध्यात्मिक साधना के मार्गों का दर्शन कराया और दूसरी ओर उसके सांसारिक संकटों से मुक्त होकर , अभिलाषाओं की पूर्ति ले साधन भी प्रस्तुत किए । तंत्र के प्रकारों में वे सभी प्रकार आ गए , जिनमें शास्त्रीय पद्धतियां हैं , अनुभव के आधार हैं , कर्त्तव्यों का निर्देश है , भक्ति , उपासना , सेवा - सुश्रूषा , परोपकार , दया , दान , क्षमा , अहिंसा , अस्तेय , अपरिग्रह आदि की प्रेरणाएं हैं तथा छोटी - छोटी और बड़ी - बड़ी क्रियाएं हैं , जिनके विधिपूर्वक प्रयोग से एक प्रकार की अपूर्व शक्ति , साहस , शौर्य की धारा बहने लगती है ।

 

प्राकृतिक वनस्पतियों के वैज्ञानिक रहस्यों का सूक्ष्म ज्ञान , उनके सहयोग से मिलने वाली अनुभूतियों और उपलब्धियों का अपूर्व संग्रह जितना तंत्रग्रंथों में संगृहीत है , वह किसी विश्वकोश से कम नहीं है । युगों की सुदीर्घ एवं वर्षो के अनवरत परीक्षणों के परिश्रम का परिणाम तंत्रों की परिधि में संकलित है । तंत्रों के रचनाकाल में ईश्वर , धर्म , दर्शन , उपासना , आयुर्वेद , ज्योतिष , योग आदि विषयों का प्रवाह पर्याप्त प्रगति पर था , इसलिए इन विषयों को ही प्रधानता देकर सर्वसाधारण के कल्याण का पथ इनमें प्रशस्त किया गया है ।

 

हमारी आस्तिक परंपरा में देव - देवियां , यक्ष , गंधर्व , सिद्ध , किन्नर , साधु , संत , महात्मा और महापुरुष सदा पूज्य और आराध्य रहे हैं । इस दृष्टि से तंत्रों में इन देव आदि की उपासना वर्णित है । इन्हें प्रसन्न करने की विधियां वर्णित हैं और उनके साधनों का निदर्शन भी इनके द्वारा हुआ है । श्रेष्ठ तंत्रों में प्रारंभ से लेकर मुख्य लक्ष्य तक पहुंचने की प्रक्रियाओं का उल्लेख मिलता है ।

 

तंत्रशास्त्र एक समन्वयवादी शास्त्र है । इससे हमारे परिसर की अत्यंत सूक्ष्म और बहुत विशाल वस्तु के महत्त्व का सम्मान किया गया है तथा उसकी उपयोगिता को पहचाना गया है एवं उसके माध्यम से मानव - मात्र के हितों के निमित्त साध्योंविधानों की व्यवस्था भी दी गई है । वैदिक वाड्मय में वनस्पति को देवता के रुप में प्रस्तुत करते हुए उसके गुणों का आख्यान किया गया है ।

 

पुराणों में वनस्पतियों की उत्पत्ति के अत्यंत रोचक कथानक प्रस्तुत हुए हैं और उनके देवत्व अथवा देवांशत्व की पुष्टि करके गुण - धर्मो का विवेचन ही नहीं किया है , अपितु उनके द्वारा मिलने वाले लाभों को भी विधिपूर्वक बतलाया गया है । मानव ने इसीलिए अपने दैनिक उपयोगी साधनों में वनस्पति को चिर - स्थिर बनाया ।

 

ऐसी अनेक वृक्षावलियां , लताएं , पौधे , कंद एवं मूल आदि हैं , जिन्हें हमने छोटे - छोटे कार्यों में प्रयुक्त करके नष्ट कर दिया है , अथवा हमारे अज्ञान के कारण वन - संपदा के वे अनमोल रत्न अनजाने में उपेक्षित हो गए हैं । तंत्रागम की ग्रंथसंपत्ति का जो भांडार हमारे यहां सुरक्षित है , उसमें विविध प्रसंगों के विविध रुप में स्मरण हैं , निर्देश हैं , प्रक्रियाओं के सटीक निदर्शन हैं , जिन्हें पहचानने - समझने और प्रयोग में लाने की बहुत आवश्यकता है ।

 

प्रकृति हमें मुक्त - हस्त से उत्तमोत्तम वनस्पतियों को प्रदान करती आ रही है , उनके सूक्ष्म तत्त्वों की पहचान न होने के कारण हम उनका वास्तविक लाभ उठने में असमर्थ रहे हैं । अतः इस ओर ध्यान देने की अत्यंत आवश्यकता है । आयुर्वेद में वनस्पतियों के गुण , धर्म एवं कार्यकारिता का जो वर्णन हैं , वो भी तंत्र का ही अंग है । प्राचीन आयुर्वेद के ग्रंथों में बहुत से स्थानों पर उपचार - विधियाँ के साथ - साथ मंत्र - जप आदि के भी निर्देश मिलते हैं ।

 

वनस्पतियों के स्वतंत्र एवं मिश्रित दोनों ही प्रकारों के उपचारों से जो चमत्कारी लाभ होते हैं , वे सभी जानते हैं । जिस प्रकार प्रत्येक वस्तु में न्यूनता और अधिकता के कारण तर - तमसा रहती है , उसी प्रकार इन वनस्पतियों में भी गुण - धर्मों के आधार पर आमान्यता और उच्चता विद्यमान है । हमारे धर्म - शास्त्रों और पुराणों में कतिपय वृक्षों को साक्षात् देवस्वरुप बतलाकर उनकी पूजा - परिक्रमा के विधान दिए हैं । दूर्वा , तुलसी और कदली के पौधों की महत्ता प्रत्येक भारतीय के हदय में चिरकाल से सुस्थिर है ।

 

वट , पिप्पल , आंवला आदि के वृक्षों की व्रत - पर्वों के अवसर पर की जाने वाली पूजाएं उनकी महत्ता फलप्रदाता , कल्याणकरिता आदि की प्रतीक तो हैं ही , साथ ही उनकी वैज्ञानिक शक्तिमत्ता भी बहुधा प्रतिपादित है ।

 

तंत्र - साधक को चाहिए कि वो तांत्रिक प्रयोगों की पूरी जानकारी प्राप्त किए बिना कभी कोई प्रयोग न करे । तंत्र - मंत्र के प्रयोगों में मनमानी का प्रयोग पूर्णतया निषिद्ध है । जितनी सावधानी से आप प्रयोग के साथ प्रक्रिया करेंगे , उतना ही शीघ्र लाभ होगा । हमारे तंत्रशास्त्रों में वनस्पति के ऐसे अनेक प्रयोग मिलते हैं , जितनी सत्यता प्रयोग के साथ ही प्रत्यक्ष हो जाती है । शास्त्रकारों का आदेश है कि युक्तौ सिद्धिः प्रतिष्ठिता अर्थात् सिद्धि युक्ति में प्रतिभा , ज्ञान , गुरुकृपा तथा इष्टकृपा के बिना प्राप्त नहीं होती ।

 

औषधियों , धातुओं और अन्य पदार्थों को तंत्र - साधना में प्रयुक्त करने से पूर्व उन्हें विधिवत् मंत्र द्वारा अभिषिक्त कर लेना चाहिए । अपवादस्वरुप कुछ ऐसे प्रयोग भी मिलते हैं , जिनमें मंत्रप्रयोग की अनिवार्यता नहीं है अथवा नाममात्र ही है । फिर भी यह ध्रुवसत्य है कि मंत्र का प्रयोग तंत्रोक्त पदार्थों के गुणों की वृद्धि कर देता है । आस्थावान साधक यदि विधिवत् मंत्र संयुक्त कोई तांत्रिक प्रयोग करेंगे तो उसमें अवश्य ही सफल रहेंगे ।

 

तंत्र - साधना में अनेक प्रकार की वस्तुएं प्रयुक्त होती हैं । वे सभी ग्राह्य हों , ऐसा कदापि नहीं है । जिस प्रकार उन्हें प्राप्त करने में काल - विचार आवश्यक है , ठीक उसी प्रकार स्थान आदि का निर्देश और निषेध भी किया गया है । स्वच्छ , एकांत और जीवंत वातावरण में उत्पन्न वनस्पतियां अधिक उपयोगी और प्रभावशाली होती हैं , जबकि राह - घाट में नित्यप्रति कुचली और चरी जाने वाली अथवा अशुभ - स्थानों में उत्पन्न वनस्पति में एक प्रकार का अदृश्य प्रदूषण व्याप्त रहता है ।

 

इसलिए तांत्रिक प्रयोगों के लिए जो भी वस्तु या वनस्पति ली जाए , उसकी संरचना , सर्वांगता , उत्पत्ति - स्थल , आयु और वातावरण का विचार अवश्य कर लेना चाहिए । त्याज्य - पदार्थो के निमित्त इस प्रकार द्वारा वर्जना की गई है -

 

तंत्र - साधना में प्रयोग के निमित्त कोई भी वनस्पति , जड़ी - बूटी , फल , पुष्प , पत्र अथवा शिखा सड़ी - गली , घुन या कीड़ों द्वारा खाई हुई , ऋतु - विरुद्ध उत्पन्न , अग्नि में जली हुई , किसी प्राकृतिक - प्रकोप के कारण छिन्न , रुग्ण अथवा सत्त्वहीन होने पर त्याज्य हो जाती है । उसका उपयोग लाभकर नहीं होता और साधना का श्रम व्यर्थ चला जाता है ।

 

जीव - जंतुओं के आवास ( बिल - बांबी ) पर उत्पन्न , आवागमन के मार्ग में स्थित वृक्षों के नीचे उगने वाली घास या वनस्पति निंदनीय होती है , अतः उसका उपयोग करना वर्जित है ।

 

मंदिर अथवा श्मशान - भूमि में स्थित वृक्षों का कोई भी अंश नहीं लेना चाहिए । अपवाद की स्थिति अलग है , वो भी तब , जबकि उसके संबंध में स्पष्ट स्वतंत्रता और निर्देश उपलब्ध हो ।

 

साधना हेतु दूसरे की माला अथवा आसन का प्रयोग वर्जित है ।

 

शंख , पूजन - पात्र , प्रतिमा , चित्र , यंत्र आदि खंडित नहीं होने चाहिए । ऐसी वस्तुएं गंगा या अन्य किसी नदी में आदरपूर्वक विसर्जित कर देनी चाहिए ।

 

माला ( वह किसी भी प्रकार के मनकों से निर्मित हो ) की मणियां आकार में समान , पुष्ट , संपूर्ण और विधिवत् शुद्ध की हुई होनी चाहिए । कटे - फटे , टूटे - दरके , आकार में विषम , टेढ़े - मेढ़े , विरुप नकली और आभारहित दाने त्याज्य होते हैं ।

 

भले ही कठिनाई से मिले या असुविधाजनक हो , किन्तु तंत्र - साधना में निर्दिष्ट वस्तु ही प्रयुक्त होती है । उसके पूरक रुप में , आधुनिक सभ्यता की कोई भी वस्तु प्रयुक्त न की जानी चाहिए ।

 

किसी विशेष प्रयोग में निर्दिष्ट होने पर भी श्मशान , रक्त , हड्डी , मांस और मदिरा आदि का उपयोग किया जा सकता है , अन्यथा ये सब अपवित्र और त्याज्य मानी गई हैं ।

 

व्यक्तिगत स्वार्थ के निमित्त अथवा ईर्ष्या - द्वेष की तृप्ति के लिए अभिचारकर्म करना निंदनीय है । आगे चलकर इनका दुष्परिणाम साधक को भोगना पड़ता है । मूलतः ऐसे अभिचार तंत्रों की सर्जना आत्मरक्षा के लिए अथवा लोक - कल्याण के लिए की गई थी , कारण कि उस समय विदेशी - आक्रमण प्रायः होते रहते थे । क्षुद्र - लाभ के लिए अपने ही सामाजिक जीवन में मारण , विद्वेषण एवं उच्चाटन जैसे कृत्य नहीं करने चाहिए ।

 

वैसे तो कोई भी व्यक्ति ( साधक ) अपनी समस्याओं के समाधान हेतु तंत्रमंत्र , जप - तप जैसे आध्यात्मिक प्रयास कर सकता है और इस संदर्भ में अपने लिए यथा सामर्थ्य योग्य गुरु की खोज करने का अधिकारी भी है , किन्तु सफलता के लिए स्वयं उसमें भी कुछ गुणों का होना आवश्यक है ।

 

जैसे कोई द्रव पदार्थ ( तरल वस्तु ) रखने के लिए गहरे पात्र की आवश्यकता होती है ; उसे तश्तरी या प्लेट में नहीं रखा जा सकता , उसी प्रकार सामान्यजीवनचर्या की अपेक्षा आध्यात्मिकचर्या ( साधना ) के लिए व्यक्ति में कुछ विशिष्ट गुणों का होना अनिवार्य माना गया है । ये गुण शास्त्रों में इस प्रकार बतलाए गए हैं -

 

साधक को शीलवान , गुणज्ञ , निश्छल , श्रद्धालु , धैर्यवान् , स्वस्थ , कार्यसक्षम , सच्चरित्र , इंद्रिय - संयमी और कुल - प्रतिष्ठा का पोषक होना चाहिए ।

 

यदि विचार करके देखें तो स्पष्ट है कि उपरोक्त लक्षणों से रहित व्यक्ति साधना कर ही नहीं सकता । शारीरिक और मानसिक रुप से स्वस्थ , समर्थ और संयमशील होना - किसी भी साधना में सफलता - प्राप्ति के लिए सबसे पहली शर्त है । ऐसे ही व्यक्ति साधना के अधिकारी होते हैं और उन्हें दीक्षा देने वाले गुरु का श्रम भी सार्थक होता है ।

 

अधिकांश गुरु जो ऊपर वर्णित श्रेष्ठ गुरुओं की श्रेणी में आते हैं , किसी को दीक्षा देने से पूर्व उसके संबंध में इन गुणों की , उसकी पात्रता की परख कर लेते हैं । चूंकि वे वीतराग और निर्लोभी होते हैं , अतः शिष्य का चुनाव करते समय उसकी आध्यात्मिक - पात्रता को परखते हैं , उसकी भौतिक संपत्ति से उन्हें कोई सरोकार नहीं होता । इसके विपरीत आज के बड़े - बड़े मठाधीस और विज्ञप्त गुरु व्यक्ति की पात्रता को न देखकर उसकी संपत्ति , प्रभाव , राजनीतिक पहुंच , पद और अधिकारों को वरीयता देते हैं ।

 

मनोविज्ञान द्वारा व्यक्ति के जीवन में उसके दूरगामी प्रभावों की विवेचना करते हुए निष्कर्ष रुप में शास्त्रकारों ने प्रतिपादित किया है कि अयोग्य व्यक्ति ( दुर्गुणों से युक्त ) न तो गुरु से दीक्षा पाने का अधिकारी है और न ही वह दीक्षित होने पर साधना के क्षेत्र में कोई उपलब्धि ही हासिल कर पाता है । यही कारण है कि प्रायः संत - महात्मा हरेक किसी को शिष्य नहीं बनाते । कुपात्रजनों को दिया जाने वाला ज्ञानोपदेश , आध्यात्मिक - संकेत , साधना - परामर्श और मंत्र - दीक्षा आदि सब निरर्थक होते हैं ।

 

गुरु और शिष्य के बीच पारस्परिक संबंध बहुत शुचिता और परख के आधार पर स्थापित होना चाहिए , तभी उसमें स्थायित्व आ पाता है । इसलिए गुरुजनों को भी निर्दिष्ट किया गया है कि वे किसी को शिष्य बनाने , उसे दीक्षा देने से पूर्व उसकी पात्रता को भली - भांति परख लें । शास्त्रों का कथन हैं -

 

मंत्री द्वारा किए गए दुष्कृत्य का पातक राजा को लगता है और सेवक द्वारा किए गए पाप का भागी स्वामी बनता है । स्वयंकृत पाप अपने को और शिष्य द्वारा किए गए अपराध का पाप गुरु को लगता है ।

 

दीक्षा और साधना के लिए अयोग्य व्यक्तियों के लक्षणों को शास्त्रकारों ने इस प्रकार स्पष्ट किया है -

 

ऐसा व्यक्ति जो अपराधी - मनोवृत्ति का हो अथवा क्रूर , पापी , हिंसक हो , वह न तो दीक्षा पाने का अधिकारी है और न वह साधना में ही सफल हो सकता है । कारण कि उसकी तामसिक - मनोवृत्ति उसे सदैव अस्थिर और असंतुलित बनाए रखती है ।

 

इसी प्रकार बकवादी , कुतर्क करने वाला , मिथ्याभाषी , अहंकारग्रस्त , लोभी , लम्पट , विषयी , चोर , दुर्व्यसनी , परस्त्रीगामी , मूर्ख , जड़ - बुद्धि , क्रोधी , द्वेषलु , ईर्ष्या अथवा अतिमोह से ग्रस्त , शास्त्र निंदक , आस्थाहीन , दुराचारी , वंचक , पाखंडी और न साधना करने योग्य । ऐसे लोगों को जन्मजात पापी , अपवित्र , दुर्भाग्यग्रस्त और कुपात्र माना गया है ।

 

नियत ध्वनियों के समूह को मंत्र कहते हैं । मंत्र वो विज्ञान या विद्या है , जिससे शक्ति का उदभव होता है । जहां मंत्र का विधिपूर्वक प्रयोग किया जाता है , वहां शक्तियों का निवास बना रहता है ।

 

मंत्र - साधन द्वारा देवी - देवता तक वश में हो जाते हैं और मंत्र - योग की सिद्धि प्राप्त साधक को जगत् का समस्त वैभव सुलभ हो जाता है ( ऐसा माना गया है ) । इस भौतिक प्रधान युग में मानव सुख - सुविधा चाहता है और चमत्कार भी । किन्तु पाखंडियों ने छल व प्रपंच का जाल इस प्रकार फैलाया हुआ है कि केवल अपने साधारण स्वार्थ के लिए एक महान् विद्या के प्रति घृणा व अविश्वास पैदा करवा दिया ।

 

किन्तु इसका यह अर्थ नहीं कि मंत्रों में शक्ति नहीं है या वे केवल वाग्जाल हैं । मंत्र आज भी विद्यमान हैं । लेकिन चाहिए सिद्ध महापुरुष की छत्रछाया में साधना करने वाला । श्रद्धा , भक्ति व विश्वास से की गई साधना कभी निष्फल नहीं होती ।

 

मंत्रों से होने वाले लाभ अचानक ही किसी की कृपा से प्राप्त नहीं हो जाते वरन् उनके द्वारा जो वैज्ञानिक प्रक्रिया अपने आप मंत्रवत् होती हैं , उससे लाभ होता है । मंत्रों का अपना एक स्वतंत्र विधान है ।

 

मंत्र - साधना में सामान्यतः जो विधि अपनाई जाती है , उसकी कुछ मूलभूत क्रियाओं का ध्यान रखता नितांत आवश्यक है , जो निम्न प्रकार से हैं -

 

स्थान पवित्र , शुद्ध व स्वच्छ होना चाहिए , जैसे - देव - स्थान , तीर्थ - भूमि , वन - पद्रेश , पर्वत या उच्च - स्थान , उपासनागृह और पवित्र नदी का तट ! गृह में एकांत , शांत जहां अधिक आवाज न पहुंचे , ऐसा स्थान उपासना - गृह रखना चाहिए ।

 

प्रभु की प्रतिमा , चित्र या यंत्र को अपने सम्मुख रखना चाहिए ।

 

प्रत्येक मंत्र के जाप का समय व संख्या निर्धारित होती है , उसी के अनुरुप जप का प्रारंभ करना चाहिए और जितने समय तक जितनी संख्या में जप करना है , उसे विधि - पूर्वक करना चाहिए । समय में हेर - फेर कभी नहीं करनी चाहिए ।

 

वस्त्र धुला हुआ , स्वच्छ , शुद्ध व बिना सिला होना चाहिए ।

 

धूप - दीप अवश्य रखना चाहिए ।

 

जब तक मंत्र का जप या साधना चले , तब तक अभक्ष्य पदार्थ नहीं खाने चाहिए । ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिए तथा नीतिमय जीवन बिताना चाहिए ।

 

मंत्रों के शब्दों का उच्चारण शुद्ध व बहुत धीमा होना चाहिए । सबसे अच्छा है कि '' मानस जप '' करें ।

 

मंत्र की उपासना , ध्यान , पूजन और जप श्रद्धा व विश्वासपूर्वक करना चाहिए ।

 

दिशा , काल , मुद्रा , आसन , वर्ण , पुष्प , माला , मंडल , पल्लव और दीपनादि प्रकार को जानकर ही किसी मंत्र की साधना प्रारंभ की जानी चाहिए ।

दिशा

 

निम्नलिखित प्रकार से दिशा का निर्धारण करना चाहिए -

 

वशीकरण कर्म उत्तराभिमुख होकर

 

आकर्षण कर्म दक्षिणाभिमुख होकर

 

स्तंभन कर्म पूर्वाभिमुख होका

 

शान्ति कर्म पश्चिमाभिमुख होकर

 

पौष्टिक कर्म नैऋत्याभिमुख होकर

 

मारण कर्म ईशानाभिमुख होकर

 

विद्वेषण कर्म आग्नेयाभिमुख होकर

 

उच्चाटन कर्म वायव्याभिमुख होकर

 

 

 

काल

 

काल यानी समय का निर्धारण भी निम्न प्रकार से करना चाहिए -

 

शांति कर्म अर्द्धरात्रि में

 

पौष्टिक कर्म प्रभात काल में

 

वशीकरण कर्म , दिन में बारह बजे से पहले ( पूर्वाह्न में

 

आकर्षण कर्म व दिन में बारह बजे से पहले ( पूर्वाह्न में )

 

 

 

स्तंभन कर्म दिन में बारह बजे से पहले ( पूर्वाह्न में

 

विद्वेषण कर्म मध्याह्न में

 

उच्चाटन कर्म दोपहर बाद अपराह्न में

 

मारण कर्म संध्याकाल में

 

 

 

मुद्रा

 

मुद्रा का निर्धारण इस प्रकार करें -

 

वशीकरण कर्म में सरोज मुद्रा

 

आकर्षण कर्म में अंकुश मुद्रा

 

स्तंभन कर्म में शंख मुद्रा

 

शान्ति एवं पौष्टिक कर्म में ज्ञान मुद्रा

 

मारण कर्म में वज्रासन मुद्रा

 

विद्वेषण व उच्चाटन कर्म में पल्लव मुद्रा

 

 

 

आसन

 

निम्न प्रकार से आसन का निर्धारण करके कर्म करने चाहिए -

 

आकर्षण कर्म में दण्डासन

 

वशीकरण कर्म में स्वस्तिकासन

 

शांति एवं पौष्टिक कर्म में पदमासन

 

स्तंभन कर्म में वज्रासन

 

मारण कर्म में भद्रासन

 

विद्वेषण व उच्चाटन कर्म में कुक्कुटासन

 

 

 

वर्ण

 

वर्णादि के द्वारा कर्म क विचार इस प्रकार करना चाहिए -

 

आकर्षण कर्म में उदय होते सूर्य के जैसा वर्ण

 

वशीकरण कर्म में रक्तवर्ण

 

स्तंभन कर्म में पीतवर्ण

 

शांति व पौष्टिक कर्म में चंद्रमा के समान श्वेत वर्ण

 

विद्वेषण व उच्चाटन कर्म में धूम्रवर्ण

 

मारण कर्ण में कृष्णवर्ण

 

तत्त्व

 

तत्त्वादि का विचार निम्न प्रकार से करें -

 

आकर्षण कर्म में अग्नि

 

वशीकरण व शांति कर्म में जल

 

स्तंभन व पौष्टिक कर्म में पृथ्वी

 

विद्वेषण व उच्चाटन कर्म में वायु

 

मारण कर्म में व्योम

 

 

 

पुष्प

 

किस कर्म में कौन - सा पुष्प प्रयोजनीय है , इसे नीचे लिखे अनुसार जानना चाहिए -

 

स्तंभन कर्म में पीले

 

आकर्षण व वशीकरण कर्म में लाल

 

मारण , उच्चाटन व विद्वेषण कर्म में काले

 

शांति व पौष्टिक कर्म में श्वेत

 

 

 

माला

 

कर्म आदि में माला का व्यवहार निम्न प्रकार से करें -

 

आकर्षण व वशीकरण कर्म में मूंगे की माला

 

स्तंभन कर्म में सुवर्ण की माला

 

शांति कर्म में स्फटिक की माला

 

पौष्टिक कर्म में मोती की माला

 

विद्वेषण व उच्चाटन कर्म में पुत्रजीवक की माला

 

 

 

पल्लव

 

निम्नलिखित प्रकार से पल्लव समझना चाहिए -

 

आकर्षण में वौषट्

 

वशीकरण में वषट्

 

स्तंभन व मारण में घे घे

 

शांति एवं पौष्टिक कर्म में स्वाहा

 

विद्वेषण कर्म में हुं

 

उच्चाटन कर्म में फट्

 

 

 

मंडल

 

चक्र व साध्य का नाम इस प्रकार रखें -

 

वशीकरण कर्म में अग्निमंडल के मध्य

 

शांति व पौष्टिक कर्म में वरुणमंडल के मध्य

 

स्तंभन व मोहन कर्म में महेन्द्रमंडल के मध्य

 

उंगली

 

उंगली का निर्धारण इस प्रकार करें -

 

आकर्षण कर्म में कनिष्ठिका

 

शांति एवं पौष्टिक कर्म में मध्यमा

 

वशीकरण में अनामिका

 

स्तंभन , मारण , विद्वेषण एवं उच्चाटन कर्म में तर्जनी

 

हस्त

 

आकर्षण , स्तंभन , शांति , पौष्टिक , मारण , विद्वेषण और उच्चाटन कर्म में दक्षिणहस्त तथा वशीकरण में वामहस्त का प्रयोग विहित है ।

 

 

 

दीपक व धूप

 

साधक को दायीं ओर दीपक और बायीं ओर धूप रखनी चाहिए ।

 

 

 

दीपन आदि प्रकार

 

दीपन से शांति कर्म , पल्लव से विद्वेषण कर्म , सम्पुट से वशीकरण कर्म , रोधन से बंधन , ग्रंथन से आकर्षण कर्म , विदर्भण से स्तंभन कर्म होता है । ये छह भेद प्रत्येक मंत्र में लागू होते हैं । उदाहरण के लिए -

 

मंत्र के प्रारंभ में नाम की स्थापना करें तो '' दीपन '' कहा जाता है ।

 

मंत्र के अंत में नाम की स्थापना करें तो '' पल्लव '' कहा जाता है ।

 

मंत्र के मध्य भाग में नामोल्लेख करें तो '' रोधन '' कहा जाता है ।

 

एक मंत्राक्षर दूसरा नामाक्षर , तीसरा मंत्राक्षर चौथा नामाक्षर ; इस प्रकार संकलित करें तो '' ग्रंथन '' कहा जाता है ।

 

मंत्र के दो अक्षरों के बाद एकेक नामाक्षर रखें तो उसे '' संकलित '' कहते हैं

 

किसी भी प्रयोग को करने से पहले मंत्र का जप किया जाता है , ताकि उस प्रयोग में सफलता प्राप्त हो । ऐसे समय में निम्नलिखित बातों पर ध्यान देना अत्यंत आवश्यक हैं -

 

स्वच्छ रहना तथा स्वच्छ वस्त्र धारण करने चाहिए ।

 

स्थान स्वच्छ व शुद्ध होना चाहिए । प्रतिदिन झाडू - पोंछा लगाकर उस स्थान को साफ रखना चाहिए ।

 

नीच व्यक्तियों के साथ वार्तालाप व उनका स्पर्श नहीं करना चाहिए । इससे दूषित परमाणुओं से पवित्रता असत्य नहीं बोलना चाहिए , क्रोध नहीं करना चाहिए तथा जहां तक हो सके मौन रहना चाहिए ।

 

चित्त स्थिर व स्वस्थ रखना चाहिए ।

 

भोजन सात्विक व हल्का करना चाहिए । वह भी एक ही समय लें तो अच्छा है ।

 

भोजन व जल ग्रहण करते समय मन को साफ रखना चाहिए ।

 

हजामत नहीं बनानी चाहिए तथा गरम पानी से स्नान नहीं करना चाहिए ।

 

किसी को शाप या आशीर्वाद नहीं देना चाहिए ।

 

किसी भी धर्मशास्त्र व व्यक्ति की निंदा नहीं करनी चाहिए ।

 

काम , क्रोध , मोह , लोभ , मद , हिंसा , असत्य से जहां तक हो सके , बचना चाहिए ।

 

निर्भय होना चाहिए । मंत्र , देवता व गुरु की उपासना श्रद्धा - भक्ति तथा विश्वासपूर्वक करनी चाहिए ।

 

जप तीन प्रकार के बतलाए हैं - १ . मानस जप , २ . उपांशु जप और ३ . वाचिक जप ।

 

१ . मानस जपः -- जिस जप में मंत्र की अक्षर पंक्ति के एक वर्ण से दूसरे वर्ण , एक पद से दूसरे पद तथा शब्द और अर्थ का मन द्वारा बार - बार मात्र चिंतन होता हैं , उसे ' मानस जप ' कहते हैं । यह साधना की उच्च कोटि का जप कहलाता है ।

 

२ . उपांशु जपः -- जिस जप में केवल जिह्वा हिलती है या इतने हल्के स्वर से जप होता है , जिसे कोई सुन न सके , उसे ' उपांशु जप ' कहा जाता है । यह मध्यम प्रकार का जप माना जाता है ।

 

 

 

३ . वाचिक जपः -- जप करने वाला ऊंचे - नीचे स्वर से , स्पष्ट तथा अस्पष्ट पद व अक्षरों के साथ बोलकर मंत्र का जप करे , तो उसे ' वाचिक ' जप कहते हैं । प्रायः दो प्रकार के जप और भी बताए गए हैं - सगर्भ जप और अगर्भ जप । सगर्भ जप प्राणायाम के साथ किया जाता है और जप के प्रारंभ में व अंत में प्राणायाम किया जाए , उसे अगर्भ जप कहते हैं । इसमें प्राणायाम और जप एक - दूसरे के पूरक होते हैं ।

 

मंत्र - विशारदों का कथन है कि वाचिक जप एक गुना फल देता है , उपांशु जप सौ गुना फल देता है और मानस जप हजार गुना फल देता है । सगर्भ जप मानस जप से भी श्रेष्ठ है । मुख्यतया साधकों को उपांशु या मानस जप का ही अधिक प्रयास करना चाहिए ।

 

मंत्राधिराज कल्प में निम्न रुप से तेरह प्रकार के जप बतलाएं हैं -

 

रेचक - पूरक - कुंभा गुण त्रय स्थिरकृति स्मृति हक्का ।

 

नादो ध्यानं ध्येयैकत्वं तत्त्वं च जप भेदाः ॥

 

१ . रेचक जप , २ . पूरक जप , ३ . कुंभक जप , ४ . सात्त्विक जप , ५ . राजसिक जप , ६ . तामसिक जप , ७ . स्थिरकृति जप , ८ . स्मृति जप , ९ . हक्का जप , १० . नाद जप , ११ . ध्यान जप , १२ . ध्येयैक्य जप और १३ . तत्त्व जप ।

 

 

 

१ . रेचक जपः -- नाक से श्वास बाहर निकालते हुए जो जप किया जाता है , वो ' रेचक जप ' कहलाता है ।

 

२ . पूरक जपः -- नाक से श्वास को भीतर लेते हुए जो जप किया जाए , वो ' पूरक जप ' कहलाता है ।

 

३ . कुंभक जपः -- श्वास को भीतर स्थिर करके जो जप किया जाए , वो ' कुंभक जप ' कहलाता है ।

 

४ . सात्त्विक जपः -- शांति कर्म के निमित्त जो जप किया जाता है , वो ' सात्त्विक जप ' कहलाता है ।

 

५ . राजसिक जपः -- वशीकरण आदि के लिए जो जप किया जाए , उसे ' राजसिक जप ' कहते हैं ।

 

६ . तामसिक जपः -- उच्चाटन व मारण आदि के निमित्त जो जप किया जाए , वो ' तामसिक जप ' कहलाता है ।

 

७ . स्थिरकृति जपः -- चलते हुए सामने विघ्न देखकर स्थिरतापूर्वक जो जप किया जाता है , उसे ' स्थिरकृति जप ' कहते हैं ।

 

८ . स्मृति जपः -- दृष्टि को नाक के अग्रभाग पर स्थिर कर मन में जो जप किया जाता है , उसे ' स्मृति जप ' कहते हैं ।

 

९ . हक्का जपः -- श्वास लेते समय या बाहर निकालते समय हक्कार का विलक्षणतापूर्वक उच्चारण हो , उसे ' हक्का जप ' कहते हैं ।

 

१० . नाद जपः -- जप करते समय भंवरे की आवाज की तरह अंतर में आवाज उठे , उसे ' नाद जप ' कहते हैं ।

 

११ . ध्यान जपः -- मंत्र - पदों का वर्णादिपूर्वक ध्यान किया जाए , उसे ' ध्यान जप ' कहते हैं ।

 

१२ . ध्येयैक्य जपः -- ध्याता व ध्येय की एकता वाले जप को ' ध्येयैक्य जप ' कहते हैं ।

 

१३ . तत्त्व जपः -- पृथ्वी , जल , अग्नि , वायु और आकाश - इन पांच तत्त्वों के अनुसार जो जप किया जाए , वह ' तत्त्व जप ' कहलाता है ।

 

 

 

मंत्र - जप कहां करें ?

 

मंत्र - साधना अथवा प्रयोग के समय गृह में किया गया जप एक गुना फल देता है । पवित्र वन या उद्यान में किया गया जप हजार गुना फल देता है । पर्वत पर किया गया जप दस हजार गुना फल देता है । नदी पर किया गया जप एक लाख गुना फल प्रदान करता है एवं देवालय व उपाश्रय में किया गया जप एक करोड़ गुना फल देता है तथा भगवान ( शिव आदि ) के समक्ष किया गया जप अनंत गुना फल देता है ।

 

बैठने का आसन

 

पत्थर या शिला पर बिना कोई आसन बिछाए कभी जपादि नहीं करना चाहिए । सबसे अच्छा यह है कि काठ के पट्टे पर ऊनी वस्त्र , कंबल या मृगचर्म बिछाकर , उस पर बैठकर जप करना चाहिए । यदि काठ का पट्टा उपलब्ध न हो तो ऊनी वस्त्र या मृगचर्म बिछाकर एवं उस पर आसीन होकर प्रयोगात्मक मंत्र का जप करना चाहिए ।

 

मंत्र - विशारदों का कथन है कि बांस का आसन व्याधि व दरिद्रता देता है , पत्थर का आसन रोगकारक है , धरती का आसन दुःखों का अनुभव कराता है , काष्ठ का आसन दुर्भाग्य लाता है , तिनकों का आसन यश हा ह्लास करता है एवं पत्रों का आसन चित्त - विक्षेप कराता हैं ।

 

कपास , कंबल , व्याघ्र व मृगचर्म का आसन ज्ञान , सिद्धि व सौभाग्य प्राप्त कराता है । काले मृगचर्म का आसन ज्ञान व सिद्धि प्राप्त कराता है । व्याघ्रचर्म का आसन मोक्ष व लक्ष्मी प्राप्त कराता है । रेशम का आसन पुष्टि कराता है , कंबल का आसन दुःखनाश करता है तथा कई रंगों के कंबल का आसन सर्वार्थसिद्धि देने वाला होता हैं ।

 

 

 

 

 

मंत्र - जप कब करें ?

 

सूर्य एवं चंद्र ग्रहण - उत्तम काल कहलाता है ।

 

कर्क एवं मकर संक्रांति - मध्यम काल है ।

 

रविवार व अमावस्या - कनिष्ठ काल है ।

 

सात्विक मंत्रों के लिए किसी भी प्रकार का जप तीनों समय उत्तम माना गया है । यानी सूर्योदय के एक घंटे पहले से एक घंटे बाद तक , मध्याह्न के एक घंटे पहले से एक घंटे बाद तक व सूर्योदय से एक घंटे पहले से एक घंटे बाद तक ।

 

माला द्वारा जप

 

अनेक प्रयोगों में प्रयोग से पहले मंत्र - जप का विधान होता है , ताकि मंत्र की प्रभावशीलता से प्रयोग सफल हो । मंत्र - जप के समय हाथ कहां रखें , इसके बारे में महर्षियों का कथन है -

 

प्रातः काल नाभि पर हाथ रखकर जप करना चाहिए ।

 

मध्याह्न में हदय के आगे हाथ रखकर जप करना चाहिए ।

 

संध्याकाल में मुख के आगे हाथ रखकर जप करना चाहिए ।

 

यदि यह नहीं बन सके तो सामान्य रुप से हाथ को हदय के पास स्पर्श करते हुए माला से जप करना चाहिए ।

 

 

 

मंत्र - जप निषेध

 

नग्नावस्था में कभी भी जप नहीं करना चाहिए ।

 

सिले हुए वस्त्र पहनकर जप नहीं करना चाहिए ।

 

शरीर व हाथ अपवित्र हों तो जप नहीं करना चाहिए ।

 

सिर के बाल खुले रखकर जप नहीं करना चाहिए ।

 

आसन बिछाए बिना जप नहीं करना चाहिए ।

 

बातें करते हुए जप नहीं करना चाहिए ।

 

आधिक लोगों की उपस्थिति में प्रयोग के निमित्त जप नहीं करना चाहिए ।

 

मस्तक ढके बिना जप नहीं करना चाहिए । -

 

अस्थिर चित्त से जप नहीं करना चाहिए ।

 

रास्ते चलते व रास्ते में बैठकर जप नहीं करना चाहिए ।

 

भोजन करते व रास्ते में बैठकर जप नहीं करना चाहिए ।

 

निद्रा लेते समय भी जप नहीं करना चाहिए ।

 

उल्टे - सीधे बैठकर या पांव पसारकर भी कभी जप नहीं करना चाहिए ।

 

जप के समय छींक नहीं लेनी चाहिए , खंखारना नहीं चाहिए , थूकना नहीं चाहिए , नीचे के अंगों का स्पर्श नहीं करना चाहिए व भयभीतावस्था में भी जप नहीं करना चाहिए ।

 

अंधकारयुक्त स्थान में जप नहीं करना चाहिए ।

 

अशुद्ध व अशुचियुक्त स्थान में जप नहीं करना चाहिए ।

 

 

 

जप की गणना

 

जप की गणना के तीन प्रकार बतलाए गए हैं - वर्णमाला जप , अक्षमाला जप एवं कर माला जप ।

 

वर्णमाला जपः -- वर्णमाला के अक्षरों के आधार पर जप - संख्या की गणना की जाए , उसे ' वर्णमाला जप ' कहते हैं ।

 

अक्षमाला जपः -- मनकों की माला पर जो जप किया जाता है , उसे ' अक्षमाला जप ' कहते हैं । अक्षमाला में एक सौ आठ मनकों की माला को प्रधानता प्राप्त है और उसके पीछे भी व्यवस्थित वैज्ञानिक रहस्य है ।

 

जीवन जगत् और सृष्टि का प्राणाधार सूर्य है , जो कि एक मास में एक व्रुत्त पूरा कर लेता है । खगोलीय वृत्त ३६० अंशों का निर्मित है और यदि इसकी कलाएं बनाई जाएं तो ३६० + ६० = २१६०० सिद्ध होती हैं ।

 

चूंकि सूर्य छह मास तक उत्तरायन तथा शेष छह मास दक्षिणायन में रहता है , अतः एक वर्ष में दो अयन होने से यदि इन कलाओं के दो भाग करें तो एक भाग १०८०० का सिद्ध होता है ।

 

सामंजस्य हेतु अंतिम बिंदुओं से संख्या को मुक्त कर दें तो शुद्ध संख्या १०८ बच रहती हैं , इसलिए भारतीय धर्मग्रंथों में उत्तरायन सूर्य के समय सीधे तरीके से तथा दक्षिणायन सूर्य के समय दाएं - बाएं तरीके से एक सौ आठ मनको की माला फेरने का विधान है , जि से कार्यसिद्धि में सफलता मिलती है ।

 

भारतीय कालगति में एक दिन रात का परिणाम ६० घड़ी माना गया है , जिसके ६० * ६० = ३६०० पल तथा ३६०० * ६० = २१६०० विपल सिद्ध होते हैं । इस प्रकार इसके दो भाग करने से १०८०० विपल दिन के और इतने ही रात्रि के सिद्ध होते हैं और शुभकार्य में अहोरात्र का पूर्व भाग ( दिन को ) ही उत्तम माना गया है , जिसके विपल १०८०० हैं , अतः उस शुभ कर्म में १०८ मनकों की माला को प्रधानता देना तर्क संगत और वैज्ञानिक दृष्टि से उचित है ।

 

किसी भी मंत्र भी हजार अथवा लाख संख्या की गणना माला द्वारा ही संभव है । इसके लिए १०८ मनकों की माला सर्वश्रेष्ठ मानी गई है ।

 

करमाला जपः - हाथ की उंगलियों के पोरवों ( पर्वो ) पर जो जप किया जाता है , ' करमाला जप ' कहते हैं । नित्य सामान्यतः बिना माला के भी जप किया जा सकता है , किन्तु विशिष्ट कार्य या अनुष्ठान - प्रयोग से माला प्रयोग में लाई जाती है ।

 

 

 

माला - संबंधी सावधानी

 

माला फेरते समय निम्न सावधानियां बरतनी आवश्यक हैं -

 

माला सदा दाहिने हाथ में रखनी चाहिए ।

 

माला भूमि पर नहीं गिरनी चाहिए , उस पर धूल नहीं जमनी चाहिए ।

 

माला अंगूठे , मध्यमा व अनामिका से फेरना ठीक है । दूसरी उंगली तर्जनी से भूलकर भी माला नहीं फेरनी चाहिए ।

 

मनकों पर नाखून नहीं लगने चाहिए ।

 

माला में जो सुमेरु होता है , उसे लांघना नहीं चाहिए । यदि दुबारा माला फेरनी हो तो वापस माला बदलकर फेरें । मनके फिराते समय सुमेरु भूमि का कभी स्पर्श न करे । इस बात के प्रति सदा सावधान रहना चाहिए ।

 

नित्यकर्म की संक्षिप्त विधि

 

प्रत्येक तंत्र - साधक को अपने जीवन - यापन में ही नहीं , अपितु दैनिक दिनचर्या में भी कुछ विशेष बातों का ध्यान रखना बहुत आवश्यक होता है । वैसे भी जो व्यक्ति जिस मार्ग का अनुसरण करता है , उसे उस मार्ग में सफलतापूर्वक चलकर लक्ष्य तक पहुंचने के सभी नियमों को जान लेना तथा उनका पूरी तरह से पालन करना चाहिए । तंत्र - साधक को तंत्रादि प्रयोग में सफलता प्राप्त करने के लिए स्नान - संध्याशील होना अत्यावश्यक है ।

 

 

 

प्रातः कृत्य

 

सूर्योदय से प्रायः दो घण्टे पूर्व ब्रह्म - मुहूर्त्त होता है । इस समय सोना ( निद्रालीन होना ) सर्वथा निषिद्ध है । इस कारण ब्रह्म - मुहूर्त्त में उठकर निम्न मंत्र को बोलते हुए अपने हाथों ( हथेलियों ) को देखना चाहिए ।

 

कराग्रे वसते लक्ष्मी करमध्ये सरस्वती ।

 

करमूले स्थितो ब्रह्मा प्रभाते कर - दर्शनम् ॥

 

हाथों के अग्रभाग में लक्ष्मी , मध्य में सरस्वती और मूल में ब्रह्मा स्थित हैं ( ऐसा शास्त्रों में कहा गया है ) । इसलिए प्रातः उठते ही हाथों का दर्शन करना चाहिए । उसके पश्चात् नीचे लिखी प्रार्थना को बोलकर भूमि पर पैर रखें ।

 

समुद्रवसने देवी ! पर्वतस्तनमण्डले ।

 

विष्णुपत्नि ! नमस्तुभ्यं पादस्पर्श क्षमस्व मे ॥

 

हे विष्णु पत्नी ! हे समुद्ररुपी वस्त्रों को धारण करने वाली तथा पर्वतरुप स्तनों से युक्त पृथ्वी देवी ! तुम्हें नमस्कार है , तुम मेरे पादस्पर्श को क्षमा करो ।

 

इस कृत्य के पश्चात् मुख को धोएं , कुल्ला करें और फिर प्रातः स्मरण तथा भजन आदि करके श्री गणेश , लक्ष्मी , सूर्य , तुलसी , गाय , गुरु , माता , पिता , इष्टदेव एवं ( घर के ) वृद्धों को सादर प्रणाम करें ।

 

 

 

प्रातः स्मरण

 

उमा उषा च वैदेही रमा गंगेति पंचकम् ।

 

प्रातरेव स्मरेन्नित्यं सौभाग्यं वर्द्धते सदा ॥

 

सर्वमंगल मांगल्ये ! शिवे ! सर्वार्थसाधिके ।

 

शरण्ये ! त्र्यंबक ! गौरि नारायणि ! नमोऽस्तुते ॥

 

हे जिह्वेरससराज्ञे ! सर्वदा मधुरप्रिये ! ।

 

नारायणाख्यपीयूषं पिब जिह्वे ! निरंतरम् ॥

 

शौच - विधि

 

यज्ञोपवीत को कंठी कर दाएं कर्ण में लपेटकर वस्त्र या आधी धोती से सिर ढांप लें । वस्त्राभाव में जनेऊ को सिर के ऊपर से लेकर बाएं कर्ण से पीछे करें । जल के पात्र को बाएं रख , दिन में उत्तर तथा रात्रि में दक्षिण की ओर मुख कर निम्नलिखित मंत्र बोलकर एवं मौनता बनाए रखकर मल - मूत्र का त्याग करें -

 

गच्छंतु ऋषयो देवाः पिशाचा ये च गुह्यकाः ।

 

पितृभूतगणाः सर्वे करिष्ये मलमोचनम् ॥

 

पात्र से जल लें , बाएं हाथ से गुदा धोकर लिंग में एक बार , गुदा में तीन बार मिट्टी लगाकर जल से शुद्ध करें । बाएं हाथ को अलग रखते हुए दाएं हाथ से लांग टांगकर उसी हाथ में पात्र लें । मिट्टी के तीन हिस्से करें । पहले से बायां हाथ दस बार , दूसरे ( हिस्से ) से दोनों हाथ सात बार और तीसरे से पात्र को तीन बार शुद्ध करें ।

 

उसी पात्र से बारह से सोलह बार कुल्ले करें । अब दोनों पैरों को ( पहले बायां और फिर दायां ) तीन - तीन बार धोकर बची हुई मिट्टी धो दें । सूर्योदय से पूर्व एवं पश्चात् उत्तर की ओर मुख कर बारह बार कुल्ला करें ।

 

दिन से रात्रि में आधी , यात्रा में चौथाई तथा आतुरकाल में यथाशक्ति शुद्धि करनी आवश्यक है । मल - त्याग के पश्चात् बारह बार , मूत्र - त्याग के बाद चार बार तथा भोजनोपरांत सोलह बार कुल्ला करें ।

तधावन - विधि

 

मुखशुद्धि किए बिना कोई भी मंत्र कभी फलदायक नहीं होता । अतः सूर्योदय से पहले और बाद में उत्तर अथवा दोनों समय पूर्वोत्तर कोण ( ईशान ) में मुंह करके दतुअन करें । मध्यमा , अनामिका अथवा अंगुष्ठ से दांत साफ करें । तर्जनी उंगली का कभी प्रयोग न करें । तत्पश्चात् प्रार्थना करें -

 

आयुर्बलं यशो वर्चः प्रजाः पशुवसूनि च ।

 

ब्रह्म प्रज्ञां च मेधां च त्वन्नो देहि वनस्पते ॥

 

 

 

दुग्धवाले वृक्ष का बारह अंगुल का दतुअन ( दातौन ) धोकर उपर्युक्त प्रार्थना करें । फिर दतुअन को चीरकर जीभी करें और धोकर बायीं ओर फेंक दें ।

 

 

 

स्नान विधि

 

मानव - शरीर में नौ छिद्र प्रमुख होते हैं । रात्रि में शयन करने से वे अपवित्र हो जाते हैं । अतः प्रातः स्नान अवश्य करना चाहिए । गंगा आदि नदी में कभी दतुअन नहीं करना चाहिए । स्नानोपरांत गंगा में भीगे वस्त्र बदलने अथवा निचोड़ने नहीं चाहिए । निम्नलिखित मंत्र से वरुण की प्रार्थना करें -

 

 

 

अपामधिपतिस्त्वं च तीर्थेषु वसतिस्तव ।

 

वरुणाय नमस्तुभ्यं स्नानानुज्ञां प्रयच्छ मे ॥

 

पवित्र होकर एवं स्नानार्थ संकल्प करके निम्नलिखित मंत्र से मृत्तिका लगाएं । कटि के नीचे , दाहिने हाथ तथा मंत्र से न लगाएं ।

 

अश्वक्रांते रथक्रांते ! विष्णुक्रांते ! वसुंधरे ! ।

 

मृत्तिके ! हर मे पापं यन्मया दुष्कृतां कृतम् ॥

 

 

 

तीर्थावाहन

 

पुष्कराद्यानि तीर्थानि गंगाद्या सरितस्तथा ।

 

आगच्छन्तु पवित्राणि स्नानकालं सदा मम् ॥

 

भागीरथी की प्रार्थना

 

विष्णुपादाब्ज संभूते ! गंगे ! त्रिपथगामिनी ।

 

धर्मद्रवेति विख्याते ! पापं मे हर जाह्नवि ॥

 

नाभि तक जल में उतरकर सूर्य की ओर मुख करके ( जल के ऊपर ब्रह्महत्या रहती है , इसलिए ) जल हिलाकर एवं तीन गोते लगाकर स्नान करें । अच्छी तरह स्नान कर लेने पर निम्न मंत्र से जल के बाहर एक अंजलि दें ।

 

यन्मया दूषितं तोयं मलैः शरीरसंभवेः ।

 

तस्य पापस्य शुद्धयर्थं यक्ष्माणं तर्पमाम्यहम् ॥

 

यदि घर में स्नान करें तो पूर्वाभिमुख हो पात्र से जल लेकर वरुण और गंगा आदि तीर्थो का आवाहन कर पांव तथा मुख धोकर स्नान करें । असमर्थ अवस्था में निम्न क्रिया करने से भी स्नान का फल होता ( मिलता ) है ।

 

मणिबंध , हाथ तथा घुटनों तक पैर धोकर एवं पवित्र होकर दोनों घुटनो के भीतर हाथ करके आचमन करने से स्नान के समान फल होता है ।

 

यज्ञोपवीत - धारण विधि

 

यज्ञोपवीत धारण करें । यदि मल - मूत्र का त्याग करते समय यज्ञोपवीत कान में टांगना भूल जाएं तो नया बदल लें । नए यज्ञोपवीत को जल द्वारा शुद्ध करके , दस बार गायत्री मंत्र से अभिमंत्रित कर निम्न मंत्रों से देवताओं का आवाहन करें -

 

प्रथमतंतौ - ॐ कारमावाहयामि

 

द्वितीयतंतौ - ॐ अग्निमावाहयामि

 

तृतीयतंतौ - ॐ सर्पानावाहयामि

 

चतुर्थतंतौ - ॐ सोममावाहयामि

 

पंचमतंतौ - ॐ पितृनावाहयामि

 

षष्ठतंतौ - ॐ प्रजापतिमावाहयामि

 

सप्तमतंतौ - ॐ अनिलमावाहयामि

 

अष्टमतंतौ - ॐ सूर्यमावाहयामि

 

नवमतंतौ - ॐ विश्वान्देवानावाहयामि

 

ग्रंथिमध्ये - ॐ ब्रह्मणे नमः ब्रह्माणमावाहयामि

 

ॐ विष्णवे नमः विष्णुमावाहयामि

 

ॐ रुद्राय नमः रुद्रमावाहयामि

 

इस प्रकार आवाहन करके गंध और अक्षत से आवाहित देवताओं की पूजा करें तथा निम्नलिखित मंत्र से यज्ञोपवीत धारण का विनियोग करें -

 

विनियोग - ॐ यज्ञोपवीतमिति मंत्रस्य परमेष्ठी ऋषिः , लिंगोक्ता देवता , त्रिष्टुपछन्दो यज्ञोपवीत धारणे विनियोगः ।

 

तदनन्तर जनेऊ धोकर प्रत्येक बार निम्न मंत्र बोलते हुए एकेक कर धारण करें -

 

ॐ यज्ञोपवीतं परमं पवित्रं प्रजापतेर्यत्सहजं पुरस्तात् ।

 

आयुष्मग्रयं प्रतिमुंच शुभ्रं यज्ञोपवीतं बलमस्तु तेजः ॥

 

पुराने जनेऊ को कंठीकर सिर पर से पीठ की ओर निकालकर यथा - संख्य गायत्री मंत्र का जप करें -

 

एतावददिन - पर्यन्तं ब्रह्मत्वं धारितं मया ।

 

जीर्णत्वात् त्वत्परित्यागी गच्छ सूत्र ! यथासुखं ॥

 

अब आसनादि बिछाकर आचमन आदि क्रिया करें -

 

केशवाय ॐ नमः स्वाहा

 

ॐ नारायणाय स्वाहा

 

ॐ माधवाय नमः स्वाहा

 

उपर्युक्त मंत्र बोलते हुए तीन बार आचमन करें । इसके पश्चात् अंगूठे के मूल से दो बार होंठों को पोंछकर ॐ गोविंदाय नमः बोलकर हाथ धो लें ।

 

फिर दाएं हाथ की हथेली में जल लेकर कुशा से अथवा कुशा के अभाव में अनामिका और मध्यमा से , मस्तक पर जल छिड़कते हुए यह मंत्र पढ़ें -

 

ॐ अपवित्रः पवित्रो वा सर्वावस्थां गतोऽपिवा ।

 

यः स्मरेत् पुण्डरीकाक्षं स बाह्याभ्यंतरः शुचिः ॥

 

तदनन्तर निम्नलिखित मंत्र से आसन पर जल छिड़ककर दाएं हाथ से उसका स्पर्श करें -

 

ॐ पृथ्वि ! त्वया धृता लोका देवि त्वं विष्णुना धृता ।

 

त्वं च धारय मां देवि पवित्रं कुरु चासनम् ॥

 

शिखा की महत्ता

 

मंत्र प्रयोगादि सभी कर्म शिखा बांधकर करने चाहिए । शास्त्रकारों ने भी शिखा ( चोटी ) को आवश्यक माना है । संस्कार भास्कर में शिखा के न होने पर कुश की शिखा बनाने की आज्ञा देकर उसे अनिवार्य बताया गया है । इसे इन्द्रयोनि भी कहते हैं । योगी लोग इसे सुषुम्ना का मूल स्थान कहते हैं । वैद्यादि इसे मस्तुमस्तिष्क कहते हैं । योगविद्या विशारद इसे ब्रह्मरन्ध्र कहते हैं । यह विषय कृत्रिम नहीं हैं , किन्तु सत्यता से युक्त प्राकृतिक है । अतः शिखा की महत्ता सर्वोपरि है ।

 

 

 

तिलक लगाना

 

उंगली द्वारा तिलक लगाने का विधान है । चंदनादि के अभाव में गंगाजल से तिलक करें । तिलक करने में अनामिका उंगली शांति देने वाली , मध्यमा आयु की वृद्धि करने वाली , अंगूठा पुष्टि देने वाला तथा तर्जनी मोक्ष प्रदान करने वाली है । वस्तुतः चकले पर घिसा चंदन नहीं लगाना , कुछ विद्वानों का ऐसा विचार है । निम्न मंत्र के द्वारा चंदन लगाने की क्रिया करें -

 

चंदनस्य महत् पुण्यं पाप - नाशनम् ।

 

आपदं हरते नित्यं लक्ष्मीस्तिष्ठति सर्वदा ॥

 

तिलक - धारण के संबंध में बतलाया गया है कि ललाट में केशव , कंठ में पुरुषोत्तम , हदय में बैकुंठ , नाभि में नारायण , पीठ में पदमनाभ , बाएं पार्श्व में विष्णु , दाएं पार्श्व में वामन , बाएं कर्ण में यमुना , दाएं कर्ण में गंगा , बायीं भुजा में कृष्ण , दायीं भुजा में हरि , मस्तक में ऋषिकेश एवं गरदन में दामोदर का स्मरण करते हुए चंदन का तिलक लगाएं ।

 

 

 

भस्म धारण विधि

 

प्रातः जल मिश्रित , मध्याह्न में चंदन मिश्रित और सायंकाल में सुखी भस्म लगाएं । बाएं हाथ में भस्म ले और दाएं हाथ से ढककर निम्न मंत्र से भस्म को अभिमंत्रित करें -

 

ॐ अग्निरिति भस्म

 

ॐ वायुरिति भस्म

 

ॐ जलमिति भस्म

 

ॐ स्थलमिति भस्म

 

ॐ व्योमेति भस्म

 

ॐ ह वा इदम् भस्म

 

ॐ मन एतानि चक्षूंषि भस्मानीति

 

अब निम्नलिखित मंत्र से सूचित स्थानों में भस्म लगाएं -

 

ललाट में - ॐ त्र्यायुषं जमदग्नेः

 

कंठ में - ॐ कश्यपस्य त्र्यायुषं

 

भुजाओं में - ॐ येवेषु त्र्यायुषं

 

हदय में - ॐ तन्नो अस्तु त्र्यायुषं

 

इसके पश्चात् संध्या - वंदन करें । यदि संध्या न आती हो तो गायत्री मंत्र द्वारा सूर्यनारायण को प्रातः सूर्योदय से पूर्व तीन , सूर्योदय के पश्चात् चार , मध्याह्न में यथा समय एक , बाद में दो और सायं यथासमय बाद तीन और बाद में चार अर्घ्य प्रदान करें ।

 

तदनन्तर नीचे लिखे पद्य से क्षमा - प्रार्थना करें -

 

गुह्यातिगुह्यगोप्त्री त्वं गृहाणामस्त्कृतं जपम् ।

 

सिद्धिर्भवतु मे देवि ! त्वत्प्रासादात् सुरेश्वरि ॥

 

इस प्रकार प्रारंभिक नित्यकर्म करने के पश्चात् तंत्र साधना एवं प्रयोग में प्रवृत्त होना चाहिए । उड्डीश तंत्र आदि के प्रयोग भी उपरोक्त क्रियाओं के पश्चात् ही करने चाहिए । विधिपूर्वक किए गए प्रयोग सदैव सफल होते हैं ।

 

Post a Comment

0 Comments

Ad Code