दोहा--
केहि कुल दूषण नहीं,
व्याधि न काहि सताय ।
कष्ट
न भोग्यो कौन जन,
सुखी सदा कोउ नाय ॥१॥
जिसके
कुल में दोष नहीं है ?
कितने ऎसे प्राणी हैं जो किसी प्रकार के रोगी नहीं है ? कौन ऎसा जीव है कि हमेशा जिसे सुख ही सुख मिल रहा है ? ॥१॥
दोहा--
महत कुलहिं आचार भल,
भाषन देश बताय ।
आदर
प्राप्ति जनावहि,
भोजन देहु मुटाय ॥२॥
मनुष्य
का आचरण उसके कुल को बता देता है,
उसका भाषण देश का पता दे देता है, उसका आदर
भाव प्रेम का परिचय दे देता है और शरीर भोजनका हाल कह देताहै ॥२॥
दोहा--
कन्या ब्याहिय उच्च कुल,
पुत्रहिं शास्त्र पढाय ।
शत्रुहिं
दुख दीजै सदा,
मित्रहिं धर्म सिखाय ॥३॥
मनुष्य
का कर्तव्य है कि अपनी कन्या किसी अच्छे खानदान वाले को दे । पुत्र को विद्याभ्यास
में लगा दे । शत्रु को विपत्ति में फँसा दे और मित्र को धर्मकार्य में लगा दे ॥३॥
दोहा--
खलहु सर्प इन सुहुन में,
भलो सर्प खल नाहिं ।
सर्प
दशत है काल में,
खलजन पद पद माहिं ॥४॥
दुर्जन
और साँप इन दोनों में,
दुर्जन की अपेक्षा साँप कहीं अच्छा है । क्योंकि साँप समय पाकर एक
ही बार काटता है और दुर्जन पद पद पर काटता रहता है ॥४॥
दोहा--
भूप कुलीनन्ह को करै,
संग्रह याही हेत ।
आदि
मध्य और अन्त में,
नृपहि न ते तजि देत ॥५॥
राजा
लोग कुलीन पुरुषों को अपने पास इसलिए रखते हैं कि जो आदि मध्य और अन्त किसी समय भी
राजा को नहीं छोडता ॥५॥
दोहा--
मर्यादा सागर तजे,
प्रलय होन के काल ।
उत
साधू छोड नहीं,
सदा आपनी चाल ॥६॥
समुद्र
तो प्रलयकाल में अपनी मर्यादा भी भंग कर देते हैं (उमड कर सारे संसार को डुबो देते
हैं) । पर सज्जन लोग प्रलयकाल में भी अपनी मर्यादा का उल्लंघन नहीं करते हैं ॥६॥
दोहा--
मूरख को तजि दीजिये,
प्रगट द्विपद पशु जान ।
वचन
शल्यते वेधहीं,
अड्गहिं कांट समान ॥७॥
मूर्ख
को दो पैरवाला पशु समझ कर उसे त्याग ही देना चाहिए । क्योंकि यह समय-समय पर अपने
वाक्यरूपी शूल से उसी तरह बेधता है जैसे न दिखायी पडता हुआ कांटा चुभ जाता है ॥७॥
दोहा--
संयुत जीवन रूपते,
कहिये बडे कुलीन ।
विद्या
बिन शोभत नहीं पुहुप गंध ते हीन ॥८॥
रूप
और यौवन से युक्त,
विशाल कुल में उत्पन्न होता हुआ भी विद्याविहीन मनुष्य उसी प्रकार
अच्छा नहीं लगता, जैसे सुगंधि रहित पलास फूल ॥८॥
दोहा--
रूप कोकिला रव तियन,
पतिव्रत रूप अनूप ।
विद्यारूप
कुरूप को, क्षमा तपस्वी रूप ॥९॥
कोयल
का सौन्दर्य है उसकी बोली,
स्त्री का सौन्दर्य है उसका पातिव्रत । कुरूप का सौन्दर्य है उसकी
विद्या और तपस्वियों का सौन्दर्य है उनकी क्षमाशक्ति ॥९॥
दोहा--
कुलहित त्यागिय एककूँ,
गृहहु छाडि कुल ग्राम ।
जनपद
हित ग्रामहिं तजिय,
तनहित अवनि तमाम ॥१०॥
जहाँ
एक के त्यागने से कोल की रक्षा हो सकती हो,
वहाँ उस एक को त्याग दे । यदि कुल के त्यागने से गाँव की रक्षा होती
हो तो उस कुल को त्याग दे । यदि उस गाँव के त्यागने से जिले की रक्षा हो तो गाँव
को त्याग दे और यदि पृथ्वी के त्यागने से आत्मरक्षा सम्भव हो तो उस पृथ्वी को ही
त्याग दे ॥१०॥
दोहा--
नहिं दारिद उद्योग पर,
जपते पातक नाहिं ।
कलह
रहे ना मौन में,
नहिं भय जागत माहिं ॥११॥
उद्योग
करने पर दरिद्रता नहीं रह सकती । ईश्वर का बार बार स्मरण करते रहने पर पाप नहीं हो
सकता । चुप रहने पर लडाई झगडा नहीं हो सकता और जागते हुए मनुष्य के पास भय नहीं
टिक सकता ॥११॥
दोहा--
अति छबि ते सिय हरण भौ,
नशि रावण अति गर्व ।
अतिहि
दान ते बलि बँधे,
अति तजिये थल सर्व ॥१२॥
अतिशय
रूपवती होने के कारण सीता हरी गई । अतिशय गर्व से रावण का नाश हुआ । अतिशय दानी
होने के कारण वलि को बँधना पडा । इसलिये लोगों को चाहिये कि किसी बात में 'अति'
न करें ॥१२॥
दोहा--
उद्योगिन कुछ दूर नहिं,
बलिहि न भार विशेष ।
प्रियवादिन
अप्रिय नहिं,
बुधहि न कठिन विदेश ॥१३॥
समर्थ्यवाले
पुरुष को कोई वस्तु भारी नहीं हो सकती । व्यवसायी मनुष्य के लिए कोई प्रदेश दूर
नहीं कहा जा सकता और प्रियवादी मनुष्य किसी का पराया नहीं कहा जा सकता ॥१३॥
दोहा--
एक सुगन्धित वृक्ष से,
सब बन होत सुवास ।
जैसे
कुल शोभित अहै,
रहि सुपुत्र गुण रास ॥१४॥
(वन)
के एक ही फूले हुए और सुगन्धित वृक्ष ने सारे वन को उसी तरह सुगन्धित कर दिया जैसे
कोई सपूत अपने कुल की मर्यादा को उज्ज्वल कर देता है ॥१४॥
दोहा--
सूख जरत इक तरुहुते,
जस लागत बन दाढ ।
कुलका
दाहक होत है,
तस कुपूत की बाढ ॥१५॥
उसी
तरह वनके एक ही सूखे और अग्नि से जतते हुए वृक्ष के कारण सारा वन जल कर खाक हो
जाता है । जैसे किसी कुपूत के कारण खानदान का खानदान बदनाम हो जाता है ॥१५।
सोरठा--
एकहु सुत जो होय,
विद्यायुत अरु साधु चित ।
आनन्दित
कुल सोय, यथा चन्द्रमा से निशा ॥१६॥
एक
ही सज्जन और विद्वान पुत्र से सारा कुल आह् लादित हो उठता है, जैसे
चन्द्र्मा के प्रकाश से रात्रि जगमगा उठती है ।
दोहा--
करनहार सन्ताप सुत,
जनमें कहा अनेक ।
देहि
कुलहिं विश्राम जो,
श्रेष्ठ होय वरु एक ॥१७॥
शोक
और सन्ताप देनेवाले बहुत से पुत्रों के होने से क्या लाभ ? अपने
कुल के अनुसार चलनेवाला एक ही पुत्र बहुत है कि जहाँ सारा कुल विश्राम कर सके ॥१७॥
दोहा--
पाँच वर्ष लौं लीलिए,
दसलौं ताडन देइ ।
सुतहीं
सोलह वर्ष में,
मित्र सरिस गनि देइ ॥१८॥
पाँच
वर्ष तक बच्चे का दुलार करे । फिर दस वर्ष तक उसे ताडना दे, किन्तु
सोलह वर्ष के हो जाने पर पुत्र को मित्र के समान समझे ॥१८॥
दोहा--
काल उपद्रव संग सठ,
अन्य राज्य भय होय ।
तेहि
थल ते जो भागिहै,
जीवत बचिहै सोय ॥१९॥
दंगा
बगैरह खडा हो जाने पर,
किसी दूसरे राजा के आक्रमण करने पर, भयानक
अकाल पडने पर और किसी दुष्ट का साथ हो जाने पर , जो मनुष्य
भाग निकलता है, वही जीवित रहता है ॥१९॥
दोहा--
धरमादिक चहूँ बरन में,
जो हिय एक न धार ।
जगत
जननि तेहि नरन के,
मरिये होत अबार ॥२०॥
धर्म, अर्थ,
काम और मोक्ष इन चार पदार्थों में से एक पदार्थ भी जिसको सिध्द नहीं
हो सका, ऎसे मनुष्य का मर्त्यलोक में बार-बार जन्म केवल मरने
के लिए होता है । और किसी काम के लिए नहीं ॥२०॥
दोहा--
जहाँ अन्न संचित रहे,
मूर्ख न पूजा पाव ।
दंपति
में जहँ कलह नहिं,
संपत्ति आपुइ आव ॥२१॥
जिस
देश में मूर्खों की पूजा नहीं होती,
जहाँ भरपूर अन्न का संचय रहता है और जहाँ स्त्री पुरुष में कलह नहीं
होता, वहाँ बस यही समझ लो कि लक्ष्मी स्वयं आकर विराज रही
हैं ॥२१॥
इति
चाणक्ये तृतीयोऽध्यायः ॥३॥
सोरठा--
आयुर्बल औ कर्म,
धन, विद्या अरु मरण ये ।
नीति
कहत अस मर्म,
गर्भहि में लिखि जात ये ॥१॥
आयु, कर्म,
धन, विद्या, और मृत्यु
ये पाँच बातें तभी लिख दी जाती हैं, जब कि मनुष्य गर्भ में
ही रहता है ॥१॥
दोहा--
बाँधव जनमा मित्र ये,
रहत साधु प्रतिकूल ।
ताहि
धर्म कुल सुकृत लहु,
वो उनके प्रतिकूल ॥३॥
संसार
के अधिकांश पुत्र,
मित्र और बान्धव सज्जनों से पराड्मुख ही रहते हैं, लेकिन जो पराड्मुख न रह कर सज्जनों के साथ रहते हैं, उन्हीं के धर्म से वह कुल पुनीत हो जाता है ॥२॥
दोहा--
मच्छी पच्छिनि कच्छपी,
दरस, परस करि ध्यान ।
शिशु
पालै नित तैसे ही,
सज्जन संग प्रमान ॥३॥
जैसे
मछली दर्शन से,
कछुई ध्यान से और पक्षिणी स्पर्श से अपने बच्चे का पालन करती है,
उसी तरह सज्जनों की संगति मनुष्य का पालन करती है ॥३॥
दोहा--
जौलों देह समर्थ है,
जबलौं मरिबो दूरि ।
तौलों
आतम हित करै,
प्राण अन्त सब धूरि ॥४॥
जब
तक कि शरीर स्वस्थ है और जब तक मृत्यु दूर है । इसी बीच में आत्मा का कल्याण कर लो
। अन्त समय के उपस्थित हो जाने पर कोई क्या करेगा ? ॥४॥
दोहा--
बिन औसरहू देत फल,
कामधेनु सम नित्त ।
माता
सों परदेश में,
विद्या संचित बित्त ॥५॥
विद्या
में कामधेनु के समान गुण विद्यमान है । यह असमय में भी फल देती है । परदेश में तो
यह माता की तरह पालन करती है । इसलिए कहा जाता है विद्या गुप्त धन है ॥५॥
दोहा--
सौ निर्गुनियन से अधिक,
एक पुत्र सुविचार ।
एक
चन्द्र तम कि हरे,
तारा नहीं हजार ॥६॥
एक
गुणवान पुत्र सैकडों गुणहीन पुत्रों से अच्छा है ।अकेला चन्द्रमा अन्धकार के दुर
कर देता है,
पर हजारों तारे मिलकर उसे नहीं दूर कर पाते ॥६॥
दोहा--
मूर्ख चिरयन से भलो,
जन्मत हो मरि जाय ।
मरे
अल्प दुख होइहैं,
जिये सदा दुखदाय ॥७॥
मूर्ख
पुत्र का चिरजीवी होकर जीना अच्छा नहीं है । बल्कि उससे वह पुत्र अच्छा है, जो पैदा
होते ही मर जाय । क्योंकि मरा पुत्र थोडे दुःख का कारण होता है, पर जीवित मूर्ख पुत्र जन्मभर जलाता ही रहता है ॥७॥
दोहा--
घर कुगाँव सुत मूढ तिय,
कुल नीचनि सेवकाइ ।
मूर्ख
पुत्र विधवा सुता,
तन बिन अग्नि जराइ ॥८॥
खराब
गाँव का निवास,
नीच कुलवाले प्रभु की सेवा, खराब भोजन,
कर्कशा स्त्री, मूर्ख पुत्र और विधवा पुत्री
ये छः बिना आग के ही प्राणी के शरीर को भून डालते हैं ॥८॥
दोहा--
कहा होय तेहि धेनु जो,
दूध न गाभिन होय ।
कौन
अर्थ वहि सुत भये,
पण्डित भक्त न होय ॥९॥
ऎसी
गाय से क्या लाभ जो न दूध देती है और न गाभिन हो । उसी प्रकार उस पुत्र से क्या
लाभ, जो न विद्वान हो और न भक्तिमान् ही होवे ॥९॥
सोरठा--
यह तीनों विश्राम,
मोह तपन जग ताप में ।
हरे
घोर भव घाम,
पुत्र नारि सत्संग पुनि ॥१०॥
सांसारिक
ताप से जलते हुए लोगों के तीन ही विश्राम स्थल हैं । पुत्र, स्त्री
और सज्जनों का संग ॥१०॥
दोहा--
भुपति औ पण्डित बचन,
औ कन्या को दान ।
एकै
एकै बार ये,
तीनों होत समान ॥११॥
राजा
लोग केवल एक बात कहतें हैं,
उसी प्रकार पण्डित लोग भी केवल एक ही बार बोलते हैं, ( आर्यधर्मावलम्बियोंके यहाँ ) केवल एक बार कन्या दी जाती हैं, ये तीन बातें केवल एक ही बार होती हैं ॥११॥
दोहा--
तप एकहि द्वैसे पठन,
गान तीन मग चारि ।
कृषी
पाँच रन बहुत मिलु,
अस कह शास्त्र विचारि ॥१२॥
अकेले
में तपस्या,
दो आदमियों से पठन, तीन गायन, चार आदमियों से रास्ता, पाँच आदमियों के संघ से खेती
का काम और ज्यादा मनुष्यों को समुदाय द्वारा युध्द सम्पन्न होता है ॥१२॥
दोहा--
सत्य मधुर भाखे बचन,
और चतुरशुचि होय ।
पति
प्यारी और पतिव्रता,
त्रिया जानिये सोय ॥१३॥
वही
भार्या (स्त्री) भार्या है,
जो पवित्र, काम-काज करने में निपुण, पतिव्रता, पतिपरायण और सच्ची बात करने वाली हो ॥१३॥
दोहा--
है अपुत्र का सून घर,
बान्धव बिन दिशि शून ।
मूरख
का हिय सून है,
दारिद का सब सून ॥१४॥
जिसके
पुत्र नहीं जओ,
उसका घर सूना है । जिसका कोई भाईबन्धु नहीं होता, उसके लिए दिशाएँ शून्य रहती हैं । मूर्ख मनुष्य का हृदय शून्य रहता है और
दरिद्र मनुष्य के लिए सारा संसार सूना रहता है ॥१४॥
दोहा--
भोजन विष है बिन पचे,
शास्त्र बिना अभ्यास ।
सभा
गरल सम रंकहिं,
बूढहिं तरुनी पास ॥१५॥
अनभ्यस्त
शास्त्र विष के समान रहता है,
अजीर्ण अवस्था में फिर से भोजन करना विष है । दरिद्र के लिए सभा विष
है और बूढे पुरुष के लिए युवती स्त्री विष है ॥१५॥
दोहा--
दया रहित धर्महिं तजै,
औ गुरु विद्याहीन ।
क्रोधमुखी
प्रिय प्रीति बिनु,
बान्धव तजै प्रवीन ॥१६॥
जिस
धर्म में दया का उपदेश न हो,
वह धर्म त्याग दे । जिस गुरु में विद्या न हो, उसे त्याग दे । हमेशा नाराज रहनेवाली स्त्री त्याग दे और स्नेहविहीन
भाईबन्धुओं को त्याग देना चाहिये ॥१६॥
दोहा--
पन्थ बुराई नरन की,
हयन पंथ इक धाम ।
जरा
अमैथुन तियन कहँ,
और वस्त्रन को धाम ॥१७॥
मनुष्यों
के लिए रास्ता चलना बुढापा है । घोडे के लिए बन्धन बुढापा है । स्त्रियों के लिए
मैथुन का अभाव बुढापा है । वस्त्रों के लिए घाम बुढापा है ॥१७॥
दोहा--
हौं केहिको का शक्ति मम,
कौन काल अरु देश ।
लाभ
खर्च को मित्र को,
चिन्ता करे हमेश ॥१८॥
यह
कैसा समय है,
मेरे कौन २ मित्र हैं, यह कैसा देश है,
इस समय हमारी क्या आमदनी और क्या खर्च है, मैं
किसेके अधीन हूँ और मुझमें कितनी शक्ति है इन बातों को बार-बार सोचते रहना चाहिये
॥१८॥
दोहा--
ब्राह्मण, क्षतिय, वैश्य को, अग्नि देवता
और ।
मुनिजन
हिय मूरति अबुध,
समदर्शिन सब ठौर ॥१९॥
द्विजातियों
के लिए अग्नि देवता हैं,
मुनियों का हृदय ही देवता है, साधारण
बुध्दिवालों के लिए प्रतिमायें ही देवता है और समदर्शी के लिए सारा संसार देवमय है
॥१९॥
इति
चाणक्ये चतुर्थोऽध्यायः ॥४॥
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