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चाण्क्य निति अध्याय -1

 चाण्क्य निति

दोहा-- सुमति बढावन सबहि जन, पावन नीति प्रकास ।

 

टिका चाणक्यनीति कर, भनत भवानीदास ॥१॥

 

मैं उन विष्णु भगवान को प्रणाम करके कि जो तीनों लोकों के स्वामी हैं, अनेक शास्त्रों से उद् धृत राजनीतिसमुच्चय विषयक बातें कहूंगा ॥१॥

 

दोहा-- तत्व सहित पढि शास्त्र यह, नर जानत सब बात ।

 काज अकाज शुभाशुभहिं, मरम नीति विख्यात ॥२॥

 

इस नीति के विषय को शास्त्र के अनुसार अध्ययन करके सज्जन धर्मशास्त्र में कहे शुभाशुभ कार्यको जान लेते हैं ॥२॥

 

दोहा-- मैं सोड अब बरनन करूँ , अति हितकारक अज्ञ ।

 जाके जानत हो जन, सबही विधि सर्वज्ञ ॥३॥

 

लोगों की भलाई के लिए मैं वह बात बताऊँगा कि जिसे समभक्त लेने मनुष्य सर्वज्ञ हो जाता है ॥३॥

 

दोहा-- उपदेशत शिषमूढ कहँ; व्यभिचारिणि ढिग वास ।

 अरि को करत विश्वास उर, विदुषहु लहत विनास ॥४॥

 

मूर्खशिष्य को उपदेश देनेसे, कर्कशा स्त्री का भरण पोषण करने से ओर दुखियों का सम्पर्क रखने से समझदार मनुष्य को भी दुःखी होना पडता है ॥४॥

 

दोहा-- भामिनी दुष्टा मित्र शठ, प्रति उत्तरदा भृत्य।

 अहि युत बसत अगार में, सब विधि मरिबो सत्य ॥५॥

 

जिस मनुष्य की स्त्री दुष्टा है, नौकर उत्तर देनेवाला (मुँह लगा) है और जिस घर में साँप रहता है उस घरमें जो रह रहा है तो निश्चय है कि किसीन किसी रोज उसकी मौत होगी ही ॥५॥

 

दोहा-- धन गहि राखहु विपति हित, धन ते वनिता धीर ।

 

तजि वनिता धनकूँ तुरत, सबते राख शरीर ॥६॥

 

आपत्तिकाल के लिए धनको ओर धन से भी बढकर स्त्री की रक्षा करनी चाहिये । किन्तु स्त्री ओर धन से भी बढकर अपनी रक्षा करनी उचित है ॥६॥

 

दोहा-- आपद हित धन राखिये, धनहिं आपदा कौन ।

 

संचितहूँ नशि जात है, जो लक्ष्मी करु गौन ॥७॥

 

आपत्ति से बचने के लिए धन कि रक्षा करनी चाहिये । इस पर यह प्रश्न होता है कि श्रीमान् के पास आपत्ति आयेगी ही क्यों ? उत्तर देते हैं कि कोई ऐसा समय भी आ जाता है, जब लक्ष्मी महारानी भी चल देती हैं । फिर प्रश्न होता है कि लक्ष्मी के चले जानेपर जो कोछ बचा बचाया धन है, वह भी चला जायेगा ही ॥७॥

 

दोहा-- जहाँ न आदर जीविका, नहिं प्रिय बन्धु निवास ।

 

नहिं विद्या जिस देश में, करहु न दिन इक वास ॥८॥

 

जिस देश में न सम्मान हो, न रोजी हो, न कोई भाईबन्धु हो और न विद्या का ही आगम हो, वहाँ निवास नहीं करना चाहिये ॥८॥

 

दोहा-- धनिक वेदप्रिय भूप अरु, नदी वैद्य पुनि सोय ।

 

बसहु नाहिं इक दिवस तह, जहँ यह पञ्च न होय ॥९॥

 

धनी (महाजन) वेदपाठी ब्राह्मण, राजा, नदी और पाँचवें वैद्य, ये पाँच जहाँ एक दिन भी न वसो ॥९॥

 

दोहा-- दानदक्षता लाज भय, यात्रा लोक न जान ।

 

पाँच नहीं जहँ देखिये, तहाँ न बसहु सुजान ॥१०॥

 

जिसमें रोजी, भय, लज्जा, उदारता और त्यागशीलता, ये पाँच गुण विद्यमान नहीं, ऎसे मनुष्य से मित्रता नहीं करनी चाहिये ॥१०॥

 

दोहा-- काज भृत्य कूँ जानिये, बन्धु परम दुख होय ।

 

मित्र परखियतु विपति में, विभव विनाशित जोय ॥११॥

 

सेवा कार्य उपस्थित होने पर सेवकों की, आपत्तिकाल में मित्र की, दुःख में बान्धवों की और धन के नष्ट हो जाने पर स्त्री की परीक्षा की जाती है ॥११॥

 

दोहा-- दुख आतुर दुरभिक्ष में, अरि जय कलह अभड्ग ।

 

भूपति भवन मसान में, बन्धु सोइ रहे सड्ग ॥१२॥

 

जो बिमारी में दुख में, दुर्भिक्ष में शत्रु द्वारा किसी प्रकार का सड्कट उपस्थित होनेपर, राजद्वार में और श्मशान पर जो ठीक समय पर पहुँचता है, वही बांधव कहलाने का अधिकारी है ॥१२॥

 

दोहा-- ध्रुव कूँ तजि अध्र अ गहै, चितमें अति सुख चाहि ।

 

ध्रुव तिनके नाशत तुरत, अध्र व नष्ट ह्वै जाहि ॥१३॥

 

जो मनुष्य निश्चित वस्तु छोडकर अनिश्चित की ओर दौडता है तो उसकी निश्चित वस्तु भी नष्ट हो जाती है और अनिश्चित तो मानो पहले ही से नष्ट थी ॥१३॥

 

दोहा-- कुल जातीय विरूप दोउ, चातुर वर करि चाह ।

 

रूपवती तउ नीच तजि, समकुल करिय विवाह ॥१४॥

 

समझदार मनुष्य का कर्तव्य है कि वह कुरूपा भी कुलवती कन्या के साथ विवाह कर ले, पर नीच सुरूपवती के साथ न करे । क्योंकि विवाह अपने समान कुल में ही अच्छा होता है ॥१४॥

 

दोहा-- सरिता श्रृड्गी शस्त्र अरु, जीव जितने नखवन्त ।

 

तियको नृपकुलको तथा , करहिं विश्वास न सन्त ॥१५॥

 

नदियों का, शस्त्रधारियोंका, बडे-बडे नखवाले जन्तुओं का, सींगवालों का, स्त्रियों का और राजकुल के लोगों का विश्वास नहीं करना चाहिये ॥१५॥

 

दोहा-- गहहु सुधा विषते कनक, मलते बहुकरि यत्न ।

 

नीचहु ते विद्या विमल, दुष्कुलते तियरत्न ॥१६॥

 

विष से भी अमृत, अपवित्र स्थान से भी कञ्चन, नीच मनुष्य से भी उत्तम विद्या और दुष्टकुल से भी स्त्रीरत्न को ले लेना चाहिए ॥१६॥

 

दोहा-- तिय अहार देखिय द्विगुण, लाज चतुरगुन जान ।

 

षटगुन तेहि व्यवसाय तिय, काम अष्टगुन मान ॥१७॥

 

स्त्रियों में पुरुषकी अपेक्षा दूना आहार चौगुनी लज्जा छगुना साहस और अठगुना काम का वेग रहता है ॥१७॥

 

इति चाणक्यनीतिदर्पणो प्रथमोऽध्यायः ॥१॥

दोहा-- अनृत साहस मूढता, कपटरु कृतघन आइ ।

 

निरदयतारु मलीनता, तियमें सहज रजाइ ॥१॥

 

झूठ बोलना, एकाएक कोई काम कर बैठना, नखरे करना, मूर्खता करना, ज्यादा लालच रखना, अपवित्र रहना और निर्दयता का बर्ताव करना ये स्त्रियों के स्वाभाविक दोष हैं ॥१॥

 

दोहा-- सुन्दर भोजन शक्ति रति, शक्ति सदा वर नारि ।

 

विभव दान की शक्ति यह, बड तपफल सुखकारि ॥२॥

 

भोजन योग्यपदार्थों का उपलब्ध होते रहना, भोजन की शक्ति विद्यमान रहना (यानी स्वास्थ्य में किसी तरह की खराबी न रहना) रतिशक्ति बनी रहना, सुन्दरी स्त्री का मिलना, इच्छानुकूल धन रहना और साथ ही दानशक्ति का भी रहना, ये बातें होना साधारण तपस्या का फल नहीं है (जो अखण्ड तपस्या किये रहता है, उसको ये चीजें उपलब्ध होती हैं) ॥२॥

 

दोहा-- सुत आज्ञाकारी जिनाहिं, अनुगामिनि तिय जान ।

 

विभव अलप सन्तोष तेंहि, सुर पुर इहाँ पिछान ॥३॥

 

जिसका पुत्र अपने वश में, स्त्री आज्ञाकारिणी हो और जो प्राप्त धन से सन्तुष्ट है, उसके लिये यहाँ स्वर्ग है ॥३॥

 

दोहा-- ते सुत जे पितु भक्तिरत, हितकारक पितु होय ।

 

जेहि विश्वास सो मित्रवर, सुखकारक तिय होय ॥४॥

 

वे ही पुत्र, पुत्र हैं जो पिता के भक्त हैं । वही पिता, पिता है, हो अपनी सन्तानका उचित रीति से पालन पोषण करता है । वही मित्र, मित्र है कि जिसपर अपना विश्वास है और वही स्त्री स्त्री है कि जहाँ हृदय आनन्दित होता है ॥४॥

 

दोहा-- ओट कार्य की हानि करि, सम्मुख करैं बखान ।

 

अस मित्रन कहँ दूर तज, विष घट पयमुख जान ॥५॥

 

जो पीठ पीछे अपना काम बिगाशता हो और मुँहपर मीठीमीठी बातें करता हो, ऎसे मित्र को त्याग देना चाहिए । वह वैसे ही है जैसे किसी घडे में गले तक विष भरा हो, किन्तु मुँह पर थोडा सा दूध डाल दिया गया हो ॥५॥

 

दोहा-- नहिं विश्वास कुमित्र कर, किजीय मित्तहु कौन ।

 

कहहि मित्त कहुँ कोपकरि, गोपहु सब दुख मौन ॥६॥

 

(अपनी किसी गुप्त बात के विषय में ) कुमित्र पर तो कोसी तरह विश्वास न करे और मित्र पर भी न करे । क्योंकि हो सकता है कि वह मित्र कभी बिगड जाय और सारे गुप्त भेद खोल दे ॥६॥

 

दोहा-- मनतै चिंतित काज जो, बैनन ते कहियेन ।

 

मन्त्र गूढ राखिय कहिय, दोष काज सुखदैन ॥७॥

 

जो बात मनमें सोचे, वह वचन से प्रकाशित न करे । उस गुप्त बात की मन्त्रणा द्वारा रक्षा करे और गुप्त ढंग से ही उसे काम में भी लावे ॥७॥

 

दोहा-- मूरखता अरु तरुणता, हैं दोऊ दुखदाय ।

 

पर घर बसितो कष्ट अति, नीति कहत अस गाय ॥८॥

 

पहला कष्ट तो मूर्ख होना है, दूसरा कष्ट है जवानी और सब कष्टों से बढकर कष्ट है, पराये घर में रहना ॥८॥

 

दोहा-- प्रतिगिरि नहिं मानिक गनिय, मौक्ति न प्रतिगज माहिं ।

 

सब ठौर नहिं साधु जन, बन बन चन्दन नाहिं ॥९॥

 

हर एक पहाड पर माणिक नहीं होता, सब हाथियों के मस्तक में सुक्ता नहीं होता, सज्जन सर्वत्र नहीं होता, सज्जन सर्वत्र नहीं होते और चन्दन सब जंगलो में नहीं होता ॥९॥

 

दोहा-- चातुरता सुतकू सुपितु, सिखवत बारहिं बार ।

 

नीतिवन्त बुधवन्त को, पूजत सब संसार ॥१०॥

 

समझदार मनुष्य का कर्तव्य है कि वह अपने पुत्रों को विविध प्रकार के शील की शिक्षा दे । क्योंकि नीति को जानने वाले और शीलवान् पुत्र अपने कुल में पूजित होते हैं ॥१०॥

 

दोहा-- तात मात अरि तुल्यते, सुत न पढावत नीच ।

 

सभा मध्य शोभत न सो, जिमि बक हंसन बीच ॥११॥

 

जो माता अपने बेटे को पढाती नहीं, वह शत्रु है । उसी तरह पुत्र को न पढानेवाला पिता पुत्र का बैरी है । क्योंकि (इस तरह माता-पिता की ना समझी से वह पुत्र ) सभा में उसी तरह शोभित नहीं होता, जैसे हंसो के बीच में बगुला ॥११॥

 

दोहा-- सुत लालन में दोष बहु, गुण ताडन ही माहिं ।

 

तेहि ते सुतअरु शिष्यकूँ, ताडिय लालिय नाहिं ॥१२॥

 

बच्चों का दुलार करने में दोष है और ताडन करने में भुत से गुण हैं । इसलिए पुत्र और शिष्य को ताडना अधिक दे, दुलार न करे ॥१२॥

 

दोहा-- सीखत श्लोखहु अरध कै, पावहु अक्षर कोय ।

 

वृथा गमावत दिवस ना, शुभ चाहत निज सोय ॥१३॥

 

किसी एक श्लोक या उसके आधे आधे भाग या आधे के भी आधे भाग का मनन करे । क्योंकि भारतीय महर्षियों का कहना यही है कि जैसे भी हो दान, अध्ययन (स्वाध्याय) आदि सब कर्म करके बीतते हुए दिनों को सार्थक करो, इन्हें यों ही न गुजर न जाने दो ॥१३॥

 

दोहा-- युध्द शैष प्यारी विरह, दरिद बन्धु अपमान ।

 

दुष्टराज खलकी सभा, दाहत बिनहिं कृशान ॥१४॥

 

स्त्री का वियोग, अपने जनों द्वारा अपमान, युध्द में बचा हुआ शत्रु, दुष्ट राजा की सेवा, दरिद्रता और स्वार्थियों की सभा, ये बातें अग्नि के बिना ही शरीर को जला डालती हैं ॥१४॥

 

दोहा-- तरुवर सरिता तीरपर, निपट निरंकुश नारि ।

 

नरपति हीन सलाह नित, बिनसत लगे न बारि ॥१५॥

 

नदी के तट पर लगे वृक्ष, पराये घर रनेवाली स्त्री, बिना मंत्री का राजा, ये शीघ्र ही नष्ट हो जातें हैं ॥१५॥

 

दोहा-- विद्या बल है विप्रको, राजा को बल सैन ।

 

धन वैश्यन बल शुद्रको, सेवाही बलदैन ॥१६॥

 

ब्राह्मणों का बल विद्या है, राजाओं का बल उनकी सेना है, वैश्यों का बल धन है और शूद्रों का बलद्विजाति की सेवा है ॥१६॥

 

दोहा-- वेश्या निर्धन पुरुष को, प्रजा पराजित राय ।

 

तजहिं पखेरूनिफल तरु, खाय अतिथि चल जाय ॥१७॥

 

धनविहीन पुरुष को वेश्या, शक्तिहीन राजा को प्रजा, जिसका फल झड गया है, ऎसे वृक्ष को पक्षी त्याग देते हैं और भोजन कर लेने के बाद अतिथि उस घर को छोड देता है ॥१७॥

 

दोहा-- लेइ दक्षिणां यजमान सो, तजि दे ब्राह्मण वर्ग ।

 

पढि शिष्यन गुरु को तजहिं, हरिन दग्ध बन पर्व ॥१८॥

 

ब्राह्मण दक्षिणा लेकर यजमान को छोड देते हैं । विद्या प्राप्त कर लेने के बाद विद्यार्थी गुरु को छोड देता है और जले हुए जंगल को बनैले जीव त्याग देते हैं ॥१८॥

 

दोहा-- पाप दृष्टि दुर्जन दुराचारी दुर्बस जोय ।

 

जेहि नर सों मैत्री करत, अवशि नष्ट सो होय ॥१९॥

 

दुराचारी, व्यभिचारी, दूषित स्थान के निवासी, इन तीन प्रकार के मनुष्य़ों से जो मनुष्य मित्रता करता है, उसका बहुत जल्दी विनाश हो जाता है ॥१९॥

 

दोहा-- सम सों सोहत मित्रता, नृप सेवा सुसोहात ।

 

बनियाई व्यवहार में, सुन्दरि भवन सुहात ॥२०॥

 

बराबरवाले के साथ मित्रता भली मालूम होती है । राजा की सेवा अच्छी लगती है । व्यवहार में बनियापन भला लगता है और घर में अन्दर स्त्री भली मालूम होती है ॥२०॥

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