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इशावास्योपनिषद यजुर्वेद 40 अध्याय

 


     

शावास्योपनिषद यजुर्वेद 40 अध्याय

 

     ईशा वास्यामिदं सर्व यत्किँ च जगत्यां जगत्। तेन यत्केन भुञ्जीथा मा गृध: कस्य स्विध्दनम्॥१॥

 

     भावार्थ : इस सृष्टि में जो कुछ भी (जड़ अथवा चेतन ) है, वह सब ईश द्वारा आवृत-आच्छादित है (उसी के अधिकार में) है। केवल उसके द्वारा (उपयोगार्थ) छोड़ गये (सौंपे गये) का ही उपयोग करो (अधिक का) लालच मत करो। (क्योंकि यह) समस्त सम्पति किसकी है ? (अर्थात किसी व्यक्ति का नहीँ केवल ‘ईश’ का ही है) ॥१॥

 

  कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छतं समा:। एवं त्वयि नान्यथेतोस्ति न कर्म लिप्यते नरे॥२॥

 

  भावार्थ : यहाँ (ईश्वर से अनुशासित इस जगत् में) कर्म करते हुए सौ वर्षों (पूर्णायु) तक जीने की कामना करें। (इस प्रकार अनुशासित रहने से) कर्म मनुष्य को लिप्त (विकार ग्रस्त) नहीं करते। (विकार मुक्त जीवन जीने के निमित्त) यह (मार्गदर्शन) तुम्हारे लिए है। इसके अतिरिक्त परम कल्याण का कोई अन्य मार्ग नहीं है॥२॥

 

   आसुर्या नाम ते लोकाऽ अन्धेन तमसावृता:। ताँस्ते प्रत्यपि गच्छन्ति येके चात्महनो जना:॥३॥

 

   भावार्थ : वे (इस अनुशासन का उल्लंघन करने वाले) लोग आसुर्य (केवल शरीर और इन्द्रियोँ कि शक्ति पर निर्भर सद्विवेक की उपेक्षा करने वाले) नाम से जाने जाते है। वे (जीवन भर) गहन अन्धकार (अज्ञान) से घिरे रहते है। वे आत्मां (आत्मचेतना के निर्देशों) का हनन करने वाले लोग प्रेतरूप में (शरीर छूटने पर) भी वैसे ही अन्धकार युक्त लोकों में जाते हैं॥३॥

 

    अनेजदेकं मनसो जवीयो नैनद्देवाऽ आप्नुवन् पूर्वमर्शत। तध्यावतोन्यानत् येति तिष्ठत्तस्मिन्न यो मातरिश्वा दधाति॥४॥

 

    भावार्थ : चंचलता रहित वह ईश एक (ही है, जो) मन से भी अधिक वेगवान है। वह स्फूर्तिवान पहले से ही है (किन्तु) उसे देवगण (देवता या इन्द्रिय समूह) प्राप्त नहीं कर पाते। वह स्थिर रहते हुए भी दौड़कर अन्य (गतिशीलों) से आगे निकल जाता है। उसके अन्तर्गत (अनुशासन मेँ रहकर) ही गतिशील वायु-जल को धारण किये रहता है॥४॥

 

  तदेजति तन्नैजीत तद्दूरेतद्वन्ति के। तदन्तरस्य सर्वस्य तदु सर्वस्यास्य बह्मत:॥५॥

 

    भावार्थ : वह (परमात्मतत्व) गतिशील भी है और स्थिर (भी) है, वह दूसरे से दूर भी है और निकट से निकट भी है। वह इस सब (जड़, चेतन, जगत्) के अन्दर भी है तथा सबके बाहर (उसे आवृत किये हुए) भी है॥५॥

 

    यस्तु सर्वणि भूतान्यात्मन्नै वानुपश्यति। सर्वभूतेषु चात्मानं ततो न वि चिकित्सति॥६॥

 

    भावार्थ : व्यक्ति (जब) सभी भूतों (जड़, चेतन, सृष्टि) को (इस) आत्म तत्व में ही स्थित अनुभव करता है तथा सभी भूतों के अन्दर इस आत्मतत्व को समाहित अनुभव करता है, तब वह किसी प्रकार भ्रमित नहीं होता ॥६॥

 

    यस्मिन्त्सर्वाणिभूतान्यात्मैवाभूद्विजानत:। तत्र को मोह: क: शोक ऽएकत्वमनुपश्यत:॥७॥

 

    भावार्थ : जिस स्थिति में (व्यक्ति) यह (मर्म) जान लेता है कि यह आत्म तत्व ही समस्त भूतों के रूप में प्रकट हुआ है, (तो) उस एकत्व की अनुभूति की स्थिति में मोह अथवा शोक कहाँ टिक सकते हैं? अर्थात ऐसी स्थिति में व्यक्ति मोह और शोक से परे हो जाता है॥७॥

 

   स पर्यगाच्छक्रमका यभव्रणमस्नाविरं शुद्धमपापविद्धम्। कविर्मनीणी परिभू: स्वयम्भूर्याताथ थ्यतोर्थान व्यदधाच्छाश्वती भ्य: समाभ्य:॥८॥

 

     भावार्थ : वह (परमात्मा) सर्वव्यापी है, तेजस्वी है। वह देह रहित है स्नायु रहित एवं छिद्र (व्रण) रहित है। वह शुद्ध और निष्पाप है। वह कवि (क्रान्तदर्शी), मनीषी (मन पर शासन करने वाला) सर्वजयी और स्वयं ही उत्पन्न होने वाला है। उसने अनादि काल से ही सबके लिए यथा-योग्य अर्थों (साधनों) की व्यवस्था बनाई है॥८॥

 

    अन्धं तम: प्र विशन्ति यंसंभूतिमुपासते। ततो भुयऽ इव ते तमोँ यऽ उ सम्भूत्यायां॥९॥

 

     भावार्थ : जो लोग केवल असम्भूति (बिखराव-विनाश) की उपासना करते हैं (उन्हीं प्रवृत्तियों में रमे रहते है) वे घोर अन्धकार में घिर जाते हैं। और जो केवल सम्भूति (संगठन-सृजन) की उपासना करते हैं, वे भी उसी प्रकार के अन्धकार में फंस जाते हैँ॥९॥

 

   अन्यदेवाहु: सम्भवादन्यहुरसम् भवात्। इति शुश्रुम धीराणां ये नस्तद्विचचक्षिरे॥१०॥

 

    भावार्थ : जिन देव पुरुषों ने हमारे लिए (इन विषयों को) विशेष रूप से कहा है, उन धीर पुरुषों से हमने सुना है कि संभूति योग का प्रभाव भिन्न है, तथा असंभूति योग का प्रभाव उससे भिन्न है॥१०॥

 

   संभूतिँ च विनाशं च यस्तद्वेदोभयं सह। विनाशेन मृत्युं तीर्त्वा सम्भूत्यमृतमश्नुते॥११॥

 

    भावार्थ : (इसलिए) संभूति (समय के अनुरूप नया सृजन) तथा विनाश (आवाञ्छनीय को समाप्त करना) इन दोनों कलाओ को एक साथ जानो। विनाश की कला से मृत्यु को पार करके (अनिष्टकारी को नष्ट करके मृत्यु-भय से मुक्ति पाकर) तथा संभूति (उपयुक्त निर्माण की) कला से अमृतत्व की प्राप्ति की जाती है ॥११॥

 

   अन्धं तमः प्र विशन्ति येविद्यामुपास्ते। ततो भूयऽ इव ते तमो यऽ उ विद्यायां॥१२॥

 

   भावार्थ : जो लोग (केवल) अविद्या (पदार्थ-निष्ठ विद्या) की उपासना करते हैं, वे गहन अंधकार (अज्ञान) से घिर जाते हैं और जो (केवल) विद्या (आत्म-विद्या) की उपासना करते हैं, वे भी उसी प्रकार अज्ञान में फंस जाते हैं॥१२॥

 

   अन्यदेवाहुर्विद् यायाऽअन्यदाहुरविद्या याः। इति शुश्रुम धीराणां ये नस्तद्विचचक्षिरे॥१३॥

 

   भावार्थ : जिन देव पुरुषों ने हमारे लिए (इन विषयों को) विशेषकर कहा है, उन धीर पुरुषों से हमने सुना है कि विद्या का प्रभाव कुछ और है और अविद्या का प्रभाव उससे भिन्न है॥१३॥

 

   विद्यां चाविद्यां च यस्तद्वेदोभयं सह।  अविद्या मृत्युं तीर्त्वा विद्यामृतमश्नुते॥१४॥

 

   भावार्थ : (इसलिए) इस विद्या (आत्म-विज्ञान) तथा उस अविद्या (पदार्थ-विज्ञान ) दोनों का ज्ञान एकसाथ प्राप्त करो। अविद्या के प्रभाव से मृत्यु को पार करके (पदार्थ-विज्ञान से अस्तित्व बनाये रखकर), विद्या (आत्म-विज्ञान) द्वारा अमृत तत्व की प्राप्ति की जाती है॥१४॥

 

   वायुरनिलममृतमथे दं भस्मान्तं शरीरम। ओ३म क्रतो स्मर क्लिबे स्मर कृतं स्मर॥१५॥

 

   भावार्थ : यह जीवन (अस्तित्व) वायु-अग्नि आदि (पंचभूतों) तथा अमृत (सनातन आत्म चेतना) के संयोग से बना है। शरीर तो अंततः भस्म हो जाने वाला है। (इसलिए) हे संकल्पकर्ता ! तुम परमात्मा का स्मरण करो, अपनी सामर्थ्य का स्मरण करो और जो कर्म कर चुके हो, उसका स्मरण करो॥१५॥

 

अग्ने नय सुपथा राये अस्मान्विश्वानि देव वयुनानि विद्वान्।

युयोध्यास्मज्जु हुराणमेनो भूयिष्ठां ते नमऽ उक्तिं विधेम॥१६॥

 

   भावार्थ : हे अग्ने (यज्ञ प्रभु) ! आप हमें श्रेष्ठ मार्ग से ऐश्वर्य की ओर ले चलें। हे विश्व के अधिष्ठातादेव ! आप कर्म मार्गों के श्रेष्ठ ज्ञाता हैं। हमें कुटिल पाप कर्मों से बचाएँ। हम बहुशः (भूयिष्ठ) नमन करते हुए आप से विनय करते हैं॥१६॥

 

   हिरण्येन पात्रेण सत्यस्यापिहितं मुखम। योसावादित्ये पुरुषः सोसावहम। ॐ खं ब्रह्म॥१७॥

 

    भावार्थ : सोने के (चमकदार-लुभावने) पात्र से सत्य का मुख (स्वरुप) ढंका हुआ होता है। (आवरण हटाने पर पता चलता है कि) वह जो आदित्यरूप पुरुष है, वही (आत्मरूप में) मैं हूँ। ॐ (अक्षर) आकाशरूप में ब्रह्म ही संव्याप्त है॥१७॥

 

ओ३म्‌ सं समिधवसे वृषन्नग्ने विश्वान्यर्य आ ।

इड़स्पदे समिधुवसे स नो वसुन्या भर ।।

 

हे प्रभो ! तुम शक्तिशाली हो बनाते सृष्टि को ।।

वेद सब गाते तुम्हें हैं कीजिए धन वृष्टि को ।।

 

ओ३म सगंच्छध्वं सं वदध्वम् सं वो मनांसि जानतामं ।

देवा भागं यथा पूर्वे सं जानानां उपासते ।।

 

प्रेम से मिल कर चलो बोलो सभी ज्ञानी बनो ।

पूर्वजों की भांति तुम कर्त्तव्य के मानी बनो ।।

 

समानो मन्त्र:समिति समानी समानं मन: सह चित्त्मेषाम् ।

समानं मन्त्रमभिमन्त्रये व: समानेन वो हविषा जुहोमि ।।

 

हों विचार समान सब के चित्त मन सब एक हों ।

ज्ञान देता हूँ बराबर भोग्य पा सब नेक हो ।।

 

ओ३म समानी व आकूति: समाना ह्र्दयानी व: ।

समानमस्तु वो मनो यथा व: सुसहासति ।।

 

हों सभी के दिल तथा संकल्प अविरोधी सदा ।

मन भरे हो प्रेम से जिससे बढे सुख सम्पदा ।।

 

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