5. साधु की कथा
एक साधु पहाड़ों पर रहा करता था। न उसके स्त्री थी और न
बच्चे। वह एकान्तवास में ही मगन रहा करता था।
इस पहाड़ की घाटियों में सेव, अमरुद,
अनार इत्यादि फलदार वृक्ष बहुत थे। साधु का भोजन यही मेवे थे। इनके
छोड़ और कुछ नहीं खाता था। एक बार इस साधु ने प्रतिज्ञा की कि ऐ मेरे पालनकर्त्ता
मैं इन वृक्षों से स्वयं मेवे नहीं तोडूगा और न किसी दूसरे से तोड़ने के लिए
कहूंगा। मैं पेड़ पर लगे हुए मेवे नहीं खाऊंगा, जो हवा के
झोंके से सड़कर गिर गये हों।
दैवयोग से पांच दिन तक कोई फल हवा से नहीं झड़ा। भूख की आग
ने साधु को बेचैन कर दिया। उसने एक डाली की फुनगी पर अमरुद लगे हुए देखे। परन्तु
सन्तोष से काम लिया और अपने मन को वश में किये रहा। इतने में हवा का एक ऐसा झोंका
आया कि शाख की फुनगी नीचे झुक आयी, अब तो उसका मन वश में
नहीं रहा और भूख ने उसे प्रतिज्ञा तोड़ने के लिए विवश कर दिया। बस फिर क्या था,
वृक्ष से फल तोड़ते ही इसकी प्रतिज्ञा टूट गयी। साथ ही ईश्वर का कोप
प्रकट हुआ, क्योंकि उसकी आज्ञा है कि जो प्रतिज्ञा करो,
उसे अवश्य पूरा करो।
इसी पहाड़ में शायद पहले से ही चोरों का एक दल रहा करता था
और यहीं वे लोग चोरी का माल आपस बांट करते थे। दैवयोग से उसी समय चोरो के यहां
मौजूद होने की खबर पाकर कोतवाली के सिपाहियों ने इस पहाड़ी को घेर लिया और चोरों
के साथ साधु को भी पकड़कर हथकड़ी-बेड़ी डाल दी। इसके बाद कोतवाल ने जल्लाद को
आज्ञा दी कि इनमें से हरएक के हाथ-पांव काट डालो। जल्लाद ने सबका बांया पांव और
दायां हाथ काट डाला। चोरों के साथ साधु का हाथ भी काट डाला गया और पैर काटने की
बारी आने-वाली थी कि अचानक एक सवार घोड़ा दौड़ाता हुआ आया और सिपाहियों को ललकार
कर कहा, "अरे देखों, यह अमुक साधु
है और ईश्चर-भक्त है। इसक हाथ क्यों काट डाला?" यह
सुनकर सिपाही ने अपने कपड़े फाड़ डाले और जल्दी से कोतवाल की सेवा में उपस्थित
होकर इस घटना की सूचना दी। कोतवाल यह सुनकर नंगे पांव माफी मांगता हुआ हाजिर हुआ।
बोला "महाराज! ईश्वर जानता है कि मुझे खबर नहीं थी। ऐ
दयालु, मुझे माफ कर दो !"
साधु बोला, "मैं इस विपत्ति का
कारण जानता हूं और मुझे अपने पापों का ज्ञान है। मैंने बेईमानी से अपना मान घटाया
और मेरी ही प्रतिज्ञा ने मुझे इसकी कचहरी में धकेल दिया। मैंने जान-बूझकर
प्रतिज्ञा भंग की। इसलिए इसकी सजा में हाथ पर आफत आयी। हमारा हाथ हमारा पांव,
हमारा शरीर तथा प्राण मित्र की आज्ञा पर निछावर हो जाये तो बड़े
सौभाग्य की बात है। तुझसे कोई शिकायत नहीं, क्योंकि तुझे
इसका पता नहीं था।"
संयोग से एक मनुष्य भेंट करने के अभिप्राय से उनकी झोंपड़ी
में घुस आया। देखा कि साधु दोनों हाथों से अपनी झोली सी रहे हैं।
साधु ने कहा, "अरे भले आदमी! तू
बिना सूचना दिये मेरी झोंपड़ी में कैसे आ गया।"
उसने निवेदन किया कि प्रेम और दर्शनों की उत्कंठा के कारण यह
अपराध हो गया।
साधु ने कहा, "अच्छा, तू चला आ। लेकिन खबरदार, मेरे जीवन-काल में यह भेद
किसीसे मत कहना!"
झोंपड़ी की बाहर मनुष्यों का एक समूह झांक रहा था। वह यह हाल
जान गया। साधु ने कहा, "ऐ परमात्मा! तेरी माया तू ही
जाने। मैं इस चमत्कार को छिपाता हूं और तू प्रकट करता है।
साधु ने आकाश-वाणी सुनी कि अभी थोड़े ही दिन में लोग तुझपर
अविश्वास करने लगते, और तुझे कपटी और प्रपंची बताने लगते।
कहते कि इसीलिए ईश्वर ने इसकी यह दशा की है। वे लोग काफिर न हो जायें और अविश्वास
और भ्रम में ग्रस्त न हो जायें, जन्म के अविश्वासी ईश्वर से
विमुख न हो जायें, इसलिए हमने तेरा यह चमत्कार प्रकट कर दिया
है कि आवश्यकता के समय हम तुझे हाथ प्रदान कर देते हैं। मैं तो इन करामातों से
पहले भी तुझे अपनी सत्ता का अनुभव करा चुका हूं। ये चमत्कार प्रकट करने की शक्ति
जो तुझको प्रदान कीह गयी है, वह अन्य लोगों में विश्चास पैदा
करने के लिए है। इसीलिए इसे उजागर किया गया है।
6. फूट बुरी बला
एक माली ने देखा कि उसके बाग में तीन आदमी चोरों की तरह बिना
पूछे घुस आये हैं। उनमें से एक सैयद है, एक सूफी है और एक
मौलवी है, और एक से बढ़कर एक उद्दंड और गुस्ताख है। उसने अपने
मन में कहा कि ऐसे धूर्तों को दंड देना ही चाहिए, परन्तु
उनमें परस्पर बड़ा मेल है और एका ही सबसे बड़ी शक्ति है। मैं अकेला इन तीनों को
नहीं जीत सकता। इसलिए बुद्धिमानी इसी में है कि पहले इनको एक-दूसरे से अलग कर दूं।
यह सोचकर उसने पहले सूफी से कहा, "हजरात, आप मेरे घर जाइए और इन साथियां के लिए कम्बल ले आइए।" जब सूफी कुछ
दूर गया, तो कहने लगा, "क्यों
श्रीमान! आप तो धर्म-शास्त्र के विद्वान हैं और ये सैयद हैं। हम तुम-जैसे सज्जनों
के प्रताप से ही रोटी खाते हैं और तुम्हारी समझ के परों पर उड़ते हैं। दूसरे पुरुष
हमारे बादशाह हैं, क्योंकि सैयद हैं और हमारे रसूल के वंश के
हैं। लेकिन इस पेटू सूफी में कौन-सा गुण है, जो तुम-जैसे
बादशाहों के संग रहे? अगर वह वापस आये तो उसे रुई की तरह धुन
डालूं। तुम लोग एक हफ्ते तक मेरे बाग में निवास करो। बाग ही क्या, मेरी जान भी तुम्हारे लिए हाजिर हैं, बल्कि तुम तो
मेरी दाहिनी आंख हो।"
ऐसी चिकनी-चुपड़ी बातों से इनको रिझाया और खुद डंडा लेकर
सूफी के पीछे चला और उसे पकड़कर कहा, "क्यों रे सूफी,
तू निर्लल्जता से बिना आज्ञा लिये लोगों के बाग में घुस आता है! यह
तरीका तुझको किसने सिखाया है? बता, सिक
शेख और किस पीर ने आज्ञा दी?" यह कहकर सूफी को
मारते-मारते अधमर कर दिया।
सूफी ने जी में कहा, "जो कुछ मेरे
साथ होनी थी, वह तो हो चुकी; परन्तु
मेरे साथियो! जरा अपनी खबर लो। तुमने मुझको पराया समझा, हालांकि
मैं इस दुष्ट माली से ज्यादा पराया न था। जो कुछ मैंने खाया है, वही तुम्हें भी खाना है और सच बात तो यह है कि धूर्तों को ऐसा दण्ड मिलना
चाहिए।"
जब माली ने सूफी को ठीक कर दिया तो वैसा ही एक बहाना और
ढूंढा और कहा, "ऐ मेरे प्यारे सैयद, आप मेरे घर पर तशरीफ ले जायें। मैंने आपके लिए बढ़िया खाना बनवाया है।
मेरे दरवाजे पर जाकर दासी को आवाज देना। वह आपके लिए पूरियां और तरकारियां ला
देगी।"
जब उसकी विदा कर
चुका तो मौलवी से कहने लगा, "ऐ महापुरुष! यह तो जाहिर
और मुझे भी विश्वास है कि तू धर्म-शास्त्रों का ज्ञात है: परन्तु तेरे साथी को
सैयदपने का दावा निराधार है। तुझे क्या मालूम, इसकी मां ने
क्या-क्या किया?" इस प्रकार सैयद को जाने क्या-क्या
बुरा भला कहा। मौलवी चुपचाप सुनता रहा, तब उस दुष्ट ने सैयद
का भी पीछा किया और रास्ते में रोककर कहा, "अरे मूर्ख!
इस बाग में तुझे किसने बुलाया? अगर तू नबी सन्तान होता तो यह
कुकर्म न करता।"
फिर उसने सैयद को पीटना शुरु किया और जब वह इस ज़ालिम की मार
से बेहाल हो गया तो आंखों में आसूं भरकर मौलवी से बोला, "मियां, अब तुम्हारी बारी है। अकेले रह गये हो।
तुम्हारी तोंद पर वह चोटी पड़गी कि नक्करा बन जायेगी। अगर मैं सैयद नहीं हूं और
तेरे साथ रहने योग्य नहीं हूं तो ऐसे ज़ालिम से तो बुरा नहीं हूं।"
इधर जब वह माली सैयद से भी निबटन चुका तो मौलवी की ओर मुड़ा
और कहा, "ऐ मौलवी, ! तू सारे
धूर्तों का सरदार है। खुदा तुझे लुंजा करे। क्या तेरा यह फतवा है कि किसी के बाग
में घुस आये और आज्ञा भी न ले? अरे मूर्ख, ऐसा करने की तुझे किसने आज्ञा दी है? या किसी
धार्मिक ग्रन्थ में तूने ऐसा पढ़ा है?" इतना कहकर वह उस
पर टूट पड़ा और उसे इतना मारा कि उसका कचूमर निकाल दिया।
मौलवी ने कहा, "तुझे निस्सन्देह
मारने का अधिकार है। कोई कसर उठा न रखा। जो अपनों से अलग हो जाये, उसकी यही सजा है। इतना ही नहीं, बल्कि इससे भी
सौगुना दण्ड मिलना चाहिए। मैं अपने निजी बचाव के लिए अपने साथियों से क्यों अलग
हुआ?"
जो अपने साथियों से अलग होकर अकेला रह जाता है, उसे ऐसी ही मुसीबतें उठानी पड़ती हैं। फूट बला है।]
7. खारे पानी का उपहार
पुराने जमाने में एक खलीफा था, जो
हातिम से भी बढ़कर उदार और दानी था। उसने अपनी दानशीलता तथा परोपकार के कारण
निर्धनता याचना का अंत कर दिया था। पूरब से पच्छिम तक इसकी दानशीलता की चर्चा फैल
गयी।
एक दिन अरब की स्त्री ने अपने पति से कहा, "गरबी के कारण हम हर तरह के कष्ट सहन कर रहे हैं। सारा संसार सुखी है,
लेकिन हमीं दुखी हैं। खाने के लिए रोटी तक मयस्सर नहीं। आजकल हमारा
भोजन गम है या आंसू। दिन की धूप हमारे वस्त्र हैं, रात सोने
का बिस्तर हैं, और चांदनी लिहाफ है। चन्द्रमा के गोल चक्कर
को चपाती समझकर हमारा हाथ आसमान की तरफ उठ जाता है। हमारी भूख और कंगाली से फकीरों
को भी शर्म आती है और अपने-पराये सभी दूर भागते हैं।"
पति ने जवाब दिया, "कबतक ये
शिकायतें किये जायेगी? हमारी उम्र ही क्या ऐसी ज्यादा रह गयी
है! बहुत बड़ा हिस्सा बीत चुका है। बुद्धिमान आदमी की निगाह में अमीर और गरीब में
कोई फर्क नहीं है। ये दोनों दशाएं तो पानी की लहरें हैं। आयीं और चली गयीं। नदी की
तरेंग हल्की हो या तेज, जब किसी समय भी इनको स्थिरता नहीं तो
फिर इसक जिक्र ही क्या? जो आराम से जीवन बिताता है, वह बड़े दु:खों से मरता है। तू तो मेरी स्त्री है। स्त्री को अपने पति के
विचारो से सहमत होना चाहिए, जिससे एकता से सब काम ठीक चलते
रहें। मैं तो सन्तोष कियो बैठा हूं। तू ईर्ष्या के कारण क्यों जली जा रही है?"
पुरुष बड़ी हमदर्दी से इस तरह के उपदेश अपनी औरत को देता
रहा। स्त्री ने झुंझलाकर डांटा, "निर्लज्ज! मैं अब तेरी
बातों में नही आऊंगी। खाली नसीहत की बातें न कर। तूने कब से सन्तोष करना सीखा है?
तूने तो केवल सन्तोष का नाम ही नाम सुना है, जिससे
जब मैं रोटी-कपड़े की शिकायत करुं तो तू अशिष्टता और गुस्ताखी का नाम लेकर मेरा
मुंह बन्द कर सके। तेरी नसीहत ने मुझे निरुत्तर नहीं किया। हां, ईश्वर की दुहाई सुनने से मैं चुप हो गयी। लेकिन अफसोस है तुझपर कि तूने
ईश्चर के नाम को चिड़ीमार का फंदा बना लिया। मैंने तो अपना मन ईश्वर को सौंपा दिया
है, ताकि मेरे घावों की जलन से तेरा शरीर अछूता न बचे या
तुझको भी मेरी तरह बन्दी (स्त्री) बना दे।" स्त्री ने अपने पति पर इसी तरह के
अनेक ताने कसे। मर्द औरत के ताने चुपचाप सुनता रहा।
मर्द ने कहा, "तू मेरी स्त्री है
या बिजका? लड़ाई-झगड़े और दर्वचनों को छोड़। इन्हें नहीं
छोड़ती तो मुझे ही छोड़। मेरे कच्चे फोड़ों पर डंक न मार। अगर तू जीभ बन्द करे तो
ठीक, नहीं तो याद रख, में अभी घरबार
छोड़ दूंगा। तंग जूता पहनने से नंगे पैर फिरना अच्छा है। हर समय के घरेलू झगड़ों
से यात्रा के कष्ट सहना बेहतर है।"
स्त्री ने जब देखा कि उसका पति नाराज हो गया है तो झट रोने
लगी। फिर गिड़गिड़ाकर कहने लगी, "मैं सिर्फ पत्नी ही
नहीं बल्कि पांव की धूल हूं। मैंने तुम्हें ऐसा नहीं समझा था, बल्कि मुझे तो तुमसे और ही आशा थी। मेरे शरीर के तुम्हीं मालिक हो और
तुम्हीं मेरे शासक हो। यदि मैंने धैर्य और सन्तोष को छोड़ा तो यह अपने लिए नहीं,
बल्कि तुम्हारे लिए। तुम मेरी सब मुसीबतों और बीमारियों की दवा करते
हो, इसलिए मैं तुम्हारी दुर्दशा को नहीं देख सकती। तुम्हारे
शरीर की सौगन्ध, यह शिकायत अपने लिए नहीं, बल्कि यह सब रोना-धोना तुम्हारे लिए है। तुम मुझे छोड़ने का जिक्र करते हो,
यह ठीक नहीं हैं।"
इस तरह की बातें कहती रही और फिर रोते-रोते औंधे मुंह गिर
पड़ी। इस वर्षा से एक बिजली चमकी और मर्द के दिल पर इसकी एक चिनगारी झड़ी। वह अपने
शब्दों पर पछतावा करने लगा, जैसे मरते समय कोतवाल अपने पिछले
अत्याचारों और पापों को याद कर रोता है। मन में कहने लगा, जब
मैं इसका स्वामी हूं तो मैंने इसको कष्ट क्यों दिया? फिर
उससे बोला, "मैं अपनी इन बातों के लिए लज्जित हूं। मैं
अपराधी हूं। मुझे क्षमा कर। अब मैं तेरा विरोध नहीं करुगा। जो कुछ तू कहेगी,
उसके अनुसार काम करुंगा।"
औरत ने कहा, "तुम यह प्रतिज्ञा
सच्चे दिल से कर रहे हो या चालाकी से मेरे दिल का भेद ले रहे हो?"
वह बोला, "उस ईश्वर की सौगन्ध,
जो सबके दिलों का भेद जानेवाले हैं, जिसने आदम
के समान पवित्र नबी को पैदा किया। अगर मेरे ये शब्द केवल तेरा भेद लेने के लिए हैं
तो तू इनकी भी एक बार परीक्षा करके देख ले।"
औरत ने कहा, "देख, सूरज चमक रहा है और संसार इससे जगमगा रहा है। खुदा के खलीफा का नायाब
जिसके प्रताप से शहर बगदाद इंद्रपुरी बना हुआ है, अगर तू उस
बादशाह से मिले तो खुद भी बादशाह हो जायेगा, क्योंकि
भाग्यवानों की मित्रता पारस के समान है, बल्कि पारस भी इसके
सामने छोटा है। हजरत रसूल की निगाह अबू बकर पर पड़ी तो वह उनकी जरा-सी कृपा से इस
महान पद को पहुंच गये।"
मर्द ने कहा, "भला, बादशाह तक मेरी पहुंच कैस हो सकती है? बिना किसी
जरिये के वहां तक कैसे पहुंच सकता हूं?"
औरत ने कहा, "हमारी मशक में
बरसाती पानी भरा रक्खा है। तुम्हारे पास यही सम्पत्ति है। इस पानी की मशक को उठाकर
ले जाओ और इसी उपहार के साथ बादशाह की सेवा में हाजिर हो जाओ और प्रार्थना करो कि
हमारी जमा-पूंजी इसके सिवा कुछ है नहीं। रेगिस्तान में इससे उत्तम जल प्राप्त होना
असम्भव है। चाहे उसके खजाने में मोती और हीरे भरे हुए हैं, लेकिन
ऐसे बढ़िया जल का वहां मिलना भी दुश्वार है।"
मर्द ने कहा, "अच्छी बात है। मशक
का मुंह बन्द कर। देखें, तो यह सौगात हमें क्या फायदा
पहुंचाती है? तू इसे नमदे में सी दे, जिससे
सुरक्षित रहे और बादशाह हमारी इस भेंट से रोज़ खोले। ऐसा पानी संसार भर में कहीं
नहीं। पानी क्या, यह तो निथरी हुई शराब है।"
उसने पानी की मशक उठायी और चल दिया। सफर में दिन को रात और
रात को दिन कर दिया। उसको यात्रा के कष्टों के समय भी मशक की हिफाजत का ही ख्याल
रहता था।
इधर औरत ने खुदा से दुआ मांगनी शुरु की कि ऐ परवरदिगार,
रक्षा कर, ऐ खदा! हिफाजत कर।
स्त्री की प्रार्थना तथा अपने परिश्रम और प्रयत्न से वह अरब
हर विपत्ति से बचता हुआ राजी-खुशी राजधानी तक पानी की मशक को ले पहुंचा। वहां जाकर
देखा, बड़ा सुन्दर महल बना हुआ है और सामने याचकों का जमघट
लागा हुआ है। हर तरफ के दरवाजों से लोग अपनी प्रार्थना लेकर जाते हैं और सफल मनोरथ
लौटते हैं।
जब यह अरब महल के द्वारा तक पहुंचा ता चोबदार आये। उन्होंने
इसके साथ बड़ा अच्छा व्यवहार किया। चोबदारों ने पूछा, "ऐ
भद्र पुरुष! तू कहां से आ रहा है? कष्ट और विपत्तियों के
कारण तेरी क्या दशा हो गयी है?"
उसने कहा, "यदि तुम मेरा सत्कार
करो तो मैं भद्र पुरुष हूं और मुंह फेर लो तो बिल्कुल छोटा हूं। ऐ अमीरो! तुम्हारे
चेहरों पर एश्चर्य टपक रहा है। तुम्हारे चेहरों का रंग शुद्ध सोने से भी अधिक उजला
है। मैं मुसाफिर हूं। रेगिस्तान से बादशाह की सेवा में भिखारी बनकर हाजिर हुआ हूं।
बादशाह के गुणों की सुगन्धित रेगिस्तान तक पहुंच चुकी है। रेत के बेजान कणों तक
में जान आ गयी है। यहां तक तो मैं अशर्फियों के लोभ से आया था, परन्तु जब यहां पहुंचा तो इसके दर्शनों के लिए उत्कण्ठित हो गया।"
फिर पानी की मशक देकर कहा, "इस नजराने को सुलतान की
सेवा में पहुंचाओ और निवेदन करो कि मेरी यह तुच्छ भेंट किसी मतलब के लिए नहीं है।
यह भी अर्ज करना कि यह मीठा पानी सौंधी मिट्टी के घड़े का है, जिसमें बरसाती पानी इकट्ठा किया गया था।"
चोबदारों को पानी की प्रशंसा सुनकर हंसी आने लगी। लेकिन
उन्होंने प्राणों की तरह मशक को उठा लिया, क्योंकि बुद्धिमान
बादशाह के सदगुण सभी राज-कर्मचारियों में आ गये थे।
जब खलीफा ने देखा और इसका हाल सुना तो मशक को अशर्फियों से
भर दिया। इतने बहुमल्य उपहार दिये कि वह अरब भूख-प्यास भूल गया। फिर एक चोबदार को
दयालु बादशाह ने संकेत किया, "यह अशर्फी-भरी मशक अरब के
हाथ में दे दी जाये और लौटते समय इसे दजला नदी के रास्ते रवाना किया जाये। वह बड़े
लम्बे रास्ते से यहां तक पहुंचा है। और दजला का मार्ग उसके घर से बहुत पास है। नाव
में बैठेगा तो सारी पिछली थकान भूल जायेगा।"
चोबदारों ने ऐसा ही किया। उसको अशर्फियां से भरी हुई मशक दे
दी और दजला पर ले गये। जब वह अरब नौका में सवार हुआ और दजला नदी को देखा तो लज्जा
के कारण उसका सिर झुक गया, फिर सिर झुक गया, फिर सिर झुकाकर कहने लगा कि दाता की देन भी निराली है और इससे भी बढ़कर
ताज्जुब की बात यह है कि उसने मेरे कड़वे पानी तक को कबूल कर लिया।
8. स्वच्छ ह्रदय
चीनियों को अपनी चित्रकला पर घमंड था और रुमियों को अपने
हुनर पर गर्व था। सुलतान ने आज्ञा दी कि मैं तुम दोनों की परीक्षा करुंगा। चीनियों
ने कहा, "बहुत अच्छा, हम अपना
हुनर दिखायेंगे।" रुमियों ने कहा, "हम अपना कमाल
दिखायेंगे।" मतलब यह कि चीनी और रुमियों में अपनी-अपनी कला दिखाने के लिए
होड़ लग गई।
चीनियों ने रुमियों से कहा, "अच्छा,
एक कमरा हम ले लें और एक तुम ले लो।" दो कमरे आमने-सामने थे।
इनमें एक चीनियों को मिला और दूसरा रुमियों कों चीनियों ने सैकड़ों तरह के रंग
मांगें बादशाह ने खजाने का दरवाज खोल दिया। चीनियों को मुंह मांगे रंग मिलने लगे।
रुमियों ने कहा, "हम न तो कोई चित्र बनाएंगे और न रंग
लगायेगे, बल्कि अपना हुनर इस तरह दिखायेंगे कि पिछला रंग भी
बाकी न रहें।"
उन्होंने दरवाजे बन्द करके दीवारों को रगड़ना शुरु किया और
आकाश की तरह बिल्कुल और साफ सादा घाटा कर डाला। उधर चीनी अपना काम पूरा करके खुशी
के कारण उछलने लगे।
बादशाह ने आकर चीनियों का काम देखा और उनकी अदभुत चित्रकारी
को देखकर आश्चर्य-चकित रह गया। इसके पश्चात वह रुमियों की तरफ आया। उन्होंने अपने
काम पर से पर्दा उठाया। चीनियों के चित्रों का प्रतिबिम्ब इन घुटी हुई दीवार इतनी
सुन्दर मालूम हुई कि देखनेवालों कि आंखें चौंधिसयाने लगीं।
रूमियां की उपमा उन ईश्वर-भक्त सूफियों की-सी है, जिन्होंने न तो धार्मिक पुस्तकें पढ़ी और न किसी अन्य विद्या या कला में
योग्यता प्राप्त की है। लेकिन लोभ, द्वेष, दुर्गुणों को दूर करके अपने हृदय को रगड़कर, इस तरह
साफ कर लिया है कि उसके दिल स्वच्छ शीशें की तरह उज्जवल हो गये है।, जिनमें निराकार ईश्चरीय ज्योति का प्रतिबिम्ब स्पष्ट झलकता है।
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