त्रयोदश समुल्लास
अनुभूमिका (३)
जो यह बाइबल का मत है कि वह केवल ईसाइयों का है सो नहीं किन्तु इससे यहूदी आदि भी गृहीत होते हैं। जो यहां तेरहवें समुल्लास में ईसाई मत के विषय में लिखा है इसका यही अभिप्राय है कि आजकल बाइबल के मत में ईसाई मुख्य हो रहे हैं और यहूदी आदि गौण हैं। मुख्य के ग्रहण से गौण का ग्रहण हो जाता है, इससे यहूदियों का भी ग्रहण समझ लीजिये। इनका जो विषय यहां लिखा है सो केवल बाइबल में से कि जिसको ईसाई और यहूदी आदि सब मानते हैं और इसी पुस्तक को अपने धर्म का मूल कारण समझते हैं। इस पुस्तक के भाषान्तर बहुत से हुए हैं जो कि इनके मत में बड़े-बडे़ पादरी हैं उन्हीं ने किये हैं। उनमें से देवनागरी व संस्कृत भाषान्तर देख कर मुझको बाइबल में बहुत सी शंका हुई हैं। उनमें से कुछ थोड़ी सी इस १३ तेरहवें समुल्लास में सब के विचारार्थ लिखी हैं। यह लेख केवल सत्य की वृद्धि औेर असत्य के ह्रास होने के लिये है न कि किसी को दुःख देने वा हानि करने अथवा मिथ्या दोष लगाने के अर्थ ही। इसका अभिप्राय उत्तर लेख में सब कोई समझ लेंगे कि यह पुस्तक कैसा है और इनका मत भी कैसा है? इस लेख से यही प्रयोजन है कि सब मनुष्यमात्र को देखना, सुनना, लिखना आदि करना सहज होगा और पक्षी, प्रतिपक्षी होके विचार कर ईसाई मत का आन्दोलन सब कोई कर सकेंगे। इससे एक यह प्रयोजन सिद्ध होगा कि मनुष्यों को धर्मविषयक ज्ञान बढ़ कर यथायोग्य सत्याऽसत्य मत और कर्त्तव्याकर्त्तव्य कर्म सम्बन्धी विषय विदित होकर सत्य और कर्त्तव्य कर्म का स्वीकार, असत्य और अकर्त्तव्य कर्म का परित्याग करना सहजता से हो सकेगा। सब मनुष्यों को उचित है कि सब के मतविषयक पुस्तकों को देख समझ कर कुछ सम्मति वा असम्मति देवें वा लिखें; नहीं तो सुना करें। क्योंकि जैसे पढ़ने से पण्डित होता है वैसे सुनने से बहुश्रुत होता है। यदि श्रोता दूसरे को नहीं समझा सके तथापि आप स्वयं तो समझ ही जाता है। जो कोई पक्षपातरूप यानारूढ़ होके देखते हैं उनको न अपने और न पराये गुण, दोष विदित हो सकते हैं। मनुष्य का आत्मा यथायोग्य सत्याऽसत्य के निर्णय करने का सामर्थ्य रखता है। जितना अपना पठित वा श्रुत है उतना निश्चय कर सकता है। यदि एक मत वाले दूसरे मतवाले के विषयों को जानें और अन्य न जानें तो यथावत् संवाद नहीं हो सकता, किन्तु अज्ञानी किसी भ्रमरूप बाड़े में गिर जाते हैं। ऐसा न हो इसलिये इस ग्रन्थ में, प्रचरित सब मतों का विषय थोड़ा-थोड़ा लिखा है। इतने ही से शेष विषयों में अनुमान कर सकता है कि वे सच्चे हैं वा झूठे? जो-जो सर्वमान्य सत्य विषय हैं वे तो सब में एक से हैं। झगड़ा झूठे विषयों में होता है। अथवा एक सच्चा और दूसरा झूठा हो तो भी कुछ थोड़ा सा विवाद चलता है। यदि वादी प्रतिवादी सत्याऽसत्य निश्चय के लिये वाद प्रतिवाद करें तो अवश्य निश्चय हो जाये।
अब मैं इस १३वें समुल्लास में ईसाई मत विषयक थोड़ा सा लिख कर सब के सम्मुख स्थापित करता हूं; विचारिये कि कैसा है।
अलमतिलेखेन विचक्षणवरेषु।
अथ त्रयोदशसमुल्लासारम्भः
अथ कृश्चीनमतविषयं व्याख्यास्यामः
अब इसके आगे ईसाइयों के मत विषय में लिखते हैं जिससे सब को विदित हो जाय कि इनका मत निर्दोष और इनकी बाइबल पुस्तक ईश्वरकृत है वा नहीं? प्रथम बाइबल के तौरेत का विषय लिखा जाता है-
१-आरम्भ में ईश्वर ने आकाश और पृथिवी को सृजा।। और पृथिवी बेडौल और सूनी थी और गहिराव पर अन्धियारा था और ईश्वर का आत्मा जल के ऊपर डोलता था।। -तौरेत उत्पत्ति पुस्तक पर्व १। आय० १।२ ।।
(समीक्षक) आरम्भ किसको कहते हो?
(ईसाई) सृष्टि के प्रथमोत्पत्ति को।
(समीक्षक) क्या यही सृष्टि प्रथम हुई; इसके पूर्व कभी नहीं हुई थी?
(ईसाई) हम नहीं जानते हुई थी वा नहीं; ईश्वर जाने।
(समीक्षक) जब नहीं जानते तो इस पुस्तक पर विश्वास क्यों किया कि जिससे सन्देह का निवारण नहीं हो सकता और इसी के भरोसे लोगों को उपदेश कर इस सन्देह के भरे हुए मत में क्यों फंसाते हो? और निःसन्देह सर्वशंकानिवारक वेदमत को स्वीकार क्यों नहीं करते? जब तुम ईश्वर की सृष्टि का हाल नहीं जानते तो ईश्वर को कैसे जानते होगे? आकाश किसको मानते हो?
(ईसाई) पोल और ऊपर को।
(समीक्षक) पोल की उत्पत्ति किस प्रकार हुई क्योंकि यह विभु पदार्थ और अति सूक्ष्म है और ऊपर नीचे एक सा है। जब आकाश नहीं सृजा था तब पोल और अवकाश था वा नहीं? जो नहीं था तो ईश्वर, जगत् का कारण और जीव कहां रहते थे? विना अवकाश के कोई पदार्थ स्थित नहीं हो सकता इसलिये तुम्हारी बाइबल का कथन युक्त नहीं। ईश्वर बेडौल, उसका ज्ञान कर्म बेडौल होता है वा सब डौल वाला?
(ईसाई) डौल वाला होता है।
(समीक्षक) तो यहां ईश्वर की बनाई पृथिवी बेडौल थी ऐसा क्यों लिखा?
(ईसाई) बेडौल का अर्थ यह है कि ऊंची नीची थी; बराबर नहीं थी।
(समीक्षक) फिर बराबर किसने की? और क्या अब भी ऊंची नीची नहीं है? इसलिये ईश्वर का काम बेडौल नहीं हो सकता क्योंकि वह सर्वज्ञ है, उसके काम में न भूल, न चूक कभी हो सकती है। और बाइबल में ईश्वर की सृष्टि बेडौल लिखी इसलिये यह पुस्तक ईश्वरकृत नहीं हो सकता। प्रथम ईश्वर का आत्मा क्या पदार्थ है?
(ईसाई) चेतन।
(समीक्षक) वह साकार है वा निराकार तथा व्यापक है वा एकदेशी।
(ईसाई) निराकार, चेतन और व्यापक है परन्तु किसी एक सनाई पर्वत, चौथा आसमान आदि स्थानों में विशेष करके रहता है।
(समीक्षक) जो निराकार है तो उसको किसने देखा? और व्यापक का जल पर डोलना कभी नहीं हो सकता। भला! जब ईश्वर का आत्मा जल पर डोलता था तब ईश्वर कहां था? इससे यही सिद्ध होता है कि ईश्वर का शरीर कहीं अन्यत्र स्थित होगा अथवा अपने कुछ आत्मा के एक टुकड़े को जल पर डुलाया होगा। जो ऐसा है तो विभु और सर्वज्ञ कभी नहीं हो सकता। जो विभु नहीं तो जगत् की रचना, धारण, पालन और जीवों के कर्मों की व्यवस्था वा प्रलय कभी नहीं कर सकता क्योंकि जिस पदार्थ का स्वरूप एकदेशी है उसके गुण, कर्म, स्वभाव भी एकदेशी होते हैं, जो ऐसा है तो वह ईश्वर नहीं हो सकता क्योंकि ईश्वर सर्वव्यापक, अनन्त गुण, कर्म, स्वभावयुक्त सच्चिदानन्दस्वरूप, नित्य, शुद्ध, बुद्ध, मुक्तस्वभाव, अनादि, अनन्तादि लक्षणयुक्त वेदों में कहा है। उसी को मानो तभी तुम्हारा कल्याण होगा, अन्यथा नहीं।।१।।
२-और ईश्वर ने कहा कि उजियाला होवे और उजियाला हो गया।। और ईश्वर ने उजियाले को देखा कि अच्छा है।। -तौरेत उत्पत्ति पर्व० १। आ० ३। ४ ।।
(समीक्षक) क्या ईश्वर की बात जड़रूप उजियाले ने सुन ली? जो सुनी हो तो इस समय भी सूर्य्य और दीप अग्नि का प्रकाश हमारी तुम्हारी बात क्यों नहीं सुनता? प्रकाश जड़ होता है वह कभी किसी की बात नहीं सुन सकता। क्या जब ईश्वर ने उजियाले को देखा तभी जाना कि उजियाला अच्छा है? पहले नहीं जानता था? जो जानता होता तो देख कर अच्छा क्यों कहता? जो नहीं जानता था तो वह ईश्वर ही नहीं। इसीलिए तुम्हारी बाइबल ईश्वरोक्त और उसमें कहा हुआ ईश्वर सर्वज्ञ नहीं है।।२।।
३-और ईश्वर ने कहा कि पानियों के मध्य में आकाश होवे और पानियों को पानियों से विभाग करे।। तब ईश्वर ने आकाश को बनाया और आकाश के नीचे के पानियों को आकाश के ऊपर के पानियों से विभाग किया और ऐसा हो गया।। और ईश्वर ने आकाश को स्वर्ग कहा और सांझ और बिहान दूसरा दिन हुआ।। -तौरेत उत्पत्ति पर्व० १। आ० ६। ७। ८।।
(समीक्षक) क्या आकाश और जल ने भी ईश्वर की बात सुन ली? और जो जल के बीच में आकाश न होता तो जल रहता ही कहां? प्रथम आयत में आकाश को सृजा था पुनः आकाश का बनाना व्यर्थ हुआ। जो आकाश को स्वर्ग कहा तो वह सर्वव्यापक है इसलिये सर्वत्र स्वर्ग हुआ फिर ऊपर को स्वर्ग है यह कहना व्यर्थ है। जब सूर्य्य उत्पन्न ही नहीं हुआ था तो पुनः दिन और रात कहां से हो गई? ऐसी ही असम्भव बातें आगे की आयतों में भरी हैं।।३।।
४-तब ईश्वर ने कहा कि हम आदम को अपने स्वरूप में अपने समान बनावें।। तब ईश्वर ने आदम को अपने स्वरूप में उत्पन्न किया, उसने उसे ईश्वर के स्वरूप में उत्पन्न किया, उसने उन्हें नर और नारी बनाया।। और ईश्वर ने उन्हें आशीष दिया।। -तौरेत उत्पत्ति पर्व० १। आ० २६। २७। २८ ।।
(समीक्षक) यदि आदम को ईश्वर ने अपने स्वरूप में बनाया तो ईश्वर का स्वरूप पवित्र ज्ञानस्वरूप, आनन्दमय आदि लक्षणयुक्त है उसके सदृश आदम क्यों नहीं हुआ? जो नहीं हुआ तो उसके स्वरूप में नहीं बना और आदम को उत्पन्न किया तो ईश्वर ने अपने स्वरूप ही की उत्पत्ति वाला किया पुनः वह अनित्य क्यों नहीं? और आदम को उत्पन्न कहां से किया?
(ईसाई) मट्टी से बनाया।
(समीक्षक) मट्टी कहां से बनाई?
(ईसाई) अपनी कुदरत अर्थात् सामर्थ्य से।
(समीक्षक) ईश्वर का सामर्थ्य अनादि है वा नवीन?
(ईसाई) अनादि है।
(समीक्षक) जब अनादि है तो जगत् का कारण सनातन हुआ। फिर अभाव से भाव क्यों मानते हो?
(ईसाई) सृष्टि के पूर्व ईश्वर के विना कोई वस्तु नहीं था।
(समीक्षक) जो नहीं था तो यह जगत् कहां से बना? और ईश्वर का सामर्थ्य द्रव्य है वा गुण? जो द्रव्य है तो ईश्वर से भिन्न दूसरा पदार्थ था और जो गुण है तो गुण से द्रव्य कभी नहीं बन सकता जैसे रूप से अग्नि और रस से जल नहीं बन सकता। और जो ईश्वर से जगत् बना होता तो ईश्वर के सदृश गुण, कर्म, स्वभाव वाला होता। उसके गुण, कर्म, स्वभाव के सदृश न होने से यही निश्चय है कि ईश्वर से नहीं बना किन्तु जगत् के कारण अर्थात् परमाणु आदि नाम वाले जड़ से बना है। जैसी कि जगत् की उत्पत्ति वेदादि शास्त्रें में लिखी है वैसी ही मान लो जिससे ईश्वर जगत् को बनाता है। जो आदम के भीतर का स्वरूप जीव और बाहर का मनुष्य के सदृश है तो वैसा ईश्वर का स्वरूप क्यों नहीं? क्योंकि जब आदम ईश्वर के सदृश बना तो ईश्वर आदम के सदृश अवश्य होना चाहिये।।४।।
५-तब परमेश्वर ईश्वर ने भूमि की धूल से आदम को बनाया और उसके नथुनों में जीवन का श्वास फूंका और आदम जीवता प्राण हुआ।। और परमेश्वर ईश्वर ने अदन में पूर्व की ओर एक बारी लगाई और उस आदम को जिसे उसने बनाया था उसमें रक्खा।। और उस बारी के मध्य में जीवन का पेड़ और भले बुरे के ज्ञान का पेड़ भूमि से उगाया।। -तौरेत उत्पत्ति पर्व० २। आ० ७। ८। ९ ।।
(समीक्षक) जब ईश्वर ने अदन में बाड़ी बनाकर उसमें आदम को रक्खा तब ईश्वर नहीं जानता था कि इसको पुनः यहाँ से निकालना पड़ेगा? और जब ईश्वर ने आदम को धूली से बनाया तो ईश्वर का स्वरूप नहीं हुआ, और जो है तो ईश्वर भी धूली से बना होगा? जब उसके नथुनों में ईश्वर ने श्वास फूंका तो वह श्वास ईश्वर का स्वरूप था वा भिन्न? जो भिन्न था तो आदम ईश्वर के स्वरूप में नहीं बना। जो एक है तो आदम और ईश्वर एक से हुए। और जो एक से हैं तो आदम के सदृश जन्म, मरण, वृद्धि, क्षय, क्षुधा, तृषा आदि दोष ईश्वर में आये, फिर वह ईश्वर क्योंकर हो सकता है? इसलिए यह तौरेत की बात ठीक नहीं विदित होती और यह पुस्तक भी ईश्वरकृत नहीं है।।५।।
६-और परमेश्वर ईश्वर ने आदम को बड़ी नींद में डाला और वह सो गया। तब उसने उसकी पसलियों में से एक पसली निकाली और संति मांस भर दिया।। और परमेश्वर ईश्वर ने आदम की उस पसली से एक नारी बनाई और उसे आदम के पास लाया। -तौरेत उत्पत्ति पर्व० २।। आ० २१। २२ ।।
(समीक्षक) जो ईश्वर ने आदम को धूली से बनाया तो उसकी स्त्री को धूली से क्यों नहीं बनाया? और जो नारी को हड्डी से बनाया तो आदम को हड्डी
से क्यों नहीं बनाया? और जैसे नर से निकलने से नारी नाम हुआ तो नारी से नर नाम भी होना चाहिए। और उनमें परस्पर प्रेम भी रहै, जैसे स्त्री के साथ पुरुष प्रेम करै वैसे पुरुष के साथ स्त्री भी प्रेम करे। देखो विद्वान् लोगो! ईश्वर की कैसी पदार्थविद्या अर्थात् ‘फिलासफी’ चलकती है! जो आदम की एक पसली निकाल कर नारी बनाई तो सब मनुष्यों की एक पसली कम क्यों नहीं होती? और स्त्री के शरीर में एक पसली होनी चाहिये क्योंकि वह एक पसली से बनी है। क्या जिस सामग्री से सब जगत् बनाया उस सामग्री से स्त्री का शरीर नहीं बन सकता था? इसलिए यह बाइबल का सृष्टिक्रम सृष्टिविद्या से विरुद्ध है।।६।।
७-अब सर्प्प भूमि के हर एक पशु से जिसे परमेश्वर ईश्वर ने बनाया था; धूर्त था। और उसने स्त्री से कहा, क्या निश्चय ईश्वर ने कहा है कि तुम इस बारी के हर एक पेड़ से फल न खाना।। और स्त्री ने सर्प्प से कहा कि हम तो इस बारी के पेड़ों का फल खाते हैं।। परन्तु उस पेड़ का फल जो बारी के बीच में है ईश्वर ने कहा है कि तुम उससे न खाना और न छूना; न हो कि मर जाओ।। तब सर्प्प ने स्त्री से कहा कि तुम निश्चय न मरोगे।। क्योंकि ईश्वर जानता है कि जिस दिन तुम उस्से खाओगे तुम्हारी आँखें खुल जायेंगी और तुम भले और बुरे की पहिचान में ईश्वर के समान हो जाओगे।। और जब स्त्री ने देखा वह पेड़ खाने में सुस्वाद और दृष्टि में सुन्दर और बुद्धि देने के योग्य है तो उसके फल में से लिया और खाया और अपने पति को भी दिया और उसने खाया।। तब उन दोनों की आखें खुल गईं और वे जान गये कि हम नंगे हैं सो उन्होंने गूलर के पत्तों को मिला के सिया और अपने लिये ओढ़ना बनाया। तब परमेश्वर ईश्वर ने सर्प्प से कहा कि जो तू ने यह किया है इस कारण तू सारे ढोर और हर एक वन के पशु से अधिक स्रापित होगा। तू अपने पेट के बल चलेगा और अपने जीवन भर धूल खाया करेगा।। और मैं तुझ में और स्त्री में और तेरे वंश और उसके वंश में वैर डालूंगा।। वह तेरे सिर को कुचलेगा और तू उसकी एड़ी को काटेगा।। और उसने स्त्री को कहा कि मैं तेरी पीड़ा और गर्भ- धारण को बहुत बढ़ाऊंगा। तू पीड़ा से बालक जनेगी और तेरी इच्छा तेरे पति पर होगी और वह तुझ पर प्रभुता करेगा।। और उसने आदम से कहा कि तूने जो अपनी पत्नी का शब्द माना है और जिस पेड़ का फल मैंने तुझे खाने से वर्जा था तूने खाया है। इस कारण भूमि तेरे लिये स्रापित है। अपने जीवन भर तू उस्से पीड़ा के साथ खायेगा।। और वह कांटे और ऊंटकटारे तेरे लिये उगायेगी और तू खेत का सागपात खायेगा।।
-तौरेत उत्पत्ति० पर्व० ३। आ० १। २। ३। ४। ५। ६। ७। १४। १५। १६। १७। १८।।
(समीक्षक) जो ईसाइयों का ईश्वर सर्वज्ञ होता तो इस धूर्त सर्प्प अर्थात् शैतान को क्यों बनाता? और जो बनाया तो वही ईश्वर अपराध का भागी है क्योंकि जो वह उसको दुष्ट न बनाता तो वह दुष्टता क्यों करता? और वह पूर्व जन्म नहीं मानता तो विना अपराध उसको पापी क्यों बनाया? और सच पूछो तो वह सर्प्प नहीं था किन्तु मनुष्य था। क्योंकि जो मनुष्य न होता तो मनुष्य की भाषा क्योंकर बोल सकता? और जो आप झूठा और दूसरे को झूठ में चलावे उसको शैतान कहना चाहिये सो यहां शैतान सत्यवादी और इससे उसने उस स्त्री को नहीं बहकाया किन्तु सच कहा और ईश्वर ने आदम और हव्वा से झूठ कहा कि इसके खाने से तुम मर जाओगे। जब वह पेड़ ज्ञानदाता और अमर करने वाला था तो उसके फल खाने से क्यों वर्जा? और जो वर्जा तो वह ईश्वर झूठा और बहकाने वाला ठहरा। क्योंकि उस वृक्ष के फल मनुष्यों को ज्ञान और सुखकारक थे; अज्ञान और मृत्युकारक नहीं। जब ईश्वर ने फल खाने से वर्जा तो उस वृक्ष की उत्पत्ति किसलिये की थी? जो अपने लिए की तो क्या आप अज्ञानी और मृत्युधर्मवाला था? और दूसरों के लिये बनाया तो फल खाने में अपराध कुछ भी न हुआ। और आजकल कोई भी वृक्ष ज्ञानकारक और मृत्युनिवारक देखने में नहीं आता। क्या ईश्वर ने उसका बीज भी नष्ट कर दिया? ऐसी बातों से मनुष्य छली कपटी होता है तो ईश्वर वैसा क्यों नहीं हुआ? क्योंकि जो कोई दूसरे से छल कपट करेगा वह छली कपटी क्यों न होगा? और जो इन तीनों को शाप दिया वह विना अपराध से है। पुनः वह ईश्वर अन्यायकारी भी हुआ और यह शाप ईश्वर को होना चाहिये क्योंकि वह झूठ बोला और उनको बहकाया। यह ‘फिलासफी’ देखो! क्या विना पीड़ा के गर्भधारण और बालक का जन्म हो सकता था? और विना श्रम के कोई अपनी जीविका कर सकता है? क्या प्रथम कांटे आदि के वृक्ष न थे? और जब शाक पात खाना सब मनुष्यों को ईश्वर के कहने से उचित हुआ तो जो उत्तर में मांस खाना बाइबल में लिखा वह झूठा क्यों नहीं? और जो वह सच्चा हो तो यह झूठा है। जब आदम का कुछ भी अपराध सिद्ध नहीं होता तो ईसाई लोग सब मनुष्यों को आदम के अपराध से सन्तान होने पर अपराधी क्यों कहते हैं? भला ऐसा पुस्तक और ऐसा ईश्वर कभी बुद्धिमानों के मानने योग्य हो सकता है? ।।७।।
८-और परमेश्वर ईश्वर ने कहा कि देखो! आदम भले बुरे के जानने में हम में से एक की नाईं हुआ और अब ऐसा न होवे कि वह अपना हाथ डाले और जीवन के पेड़ में से भी लेकर खावे और अमर हो जाय।। सो उसने आदम को निकाल दिया और अदन की बारी की पूर्व ओर करोबीम ठहराये और चमकते हुए खड्ग को जो चारों ओर घूमता था; जिसते जीवन के पेड़ के मार्ग की रखवाली करें।। -तौरेत उत्पत्ति पर्व० ३। आ० २२। २४।।
(समीक्षक) भला! ईश्वर को ऐसी ईर्ष्या और भ्रम क्यों हुआ कि ज्ञान में हमारे तुल्य हुआ? क्या यह बुरी बात हुई? यह शंका ही क्यों पड़ी? क्योंकि ईश्वर के तुल्य कभी कोई नहीं हो सकता। परन्तु इस लेख से यह भी सिद्ध हो सकता है कि वह ईश्वर नहीं था किन्तु मनुष्य विशेष था। बाइबल में जहां कहीं ईश्वर की बात आती है वहां मनुष्य के तुल्य ही लिखी आती है। अब देखो! आदम के ज्ञान की बढ़ती में ईश्वर कितना दुःखी हुआ और फिर अमर वृक्ष के फल खाने में कितनी ईर्ष्या की। और प्रथम जब उसको बारी में रक्खा तब उसको भविष्यत् का ज्ञान नहीं था कि इसको पुनः निकालना पड़ेगा, इसलिये ईसाइयों का ईश्वर सर्वज्ञ नहीं था। और चमकते खड्ग का पहिरा रक्खा यह भी मनुष्य का काम है; ईश्वर का नहीं।।८।।
९-और कितने दिनों के पीछे यों हुआ कि काइन भूमि के फलों में से परमेश्वर के लिये भेंट लाया।। और हाबिल भी अपनी झुंड में से पहिलौठी और मोटी-मोटी भेड़ लाया और परमेश्वर ने हाबिल का और उसकी भेंट का आदर किया।। परन्तु काबिल का और उसकी भेंट का आदर न किया इसलिये काबिल अति कुपित हुआ और अपना मुंह फुलाया।। तब परमेश्वर ने काबिल से कहा कि तू क्यों क्रुद्ध है और तेरा मुंह क्यों फूल गया।।
-तौरेत उत्पत्ति पर्व० ४। आ० ३। ४। ५। ६।।
(समीक्षक) यदि ईश्वर मांसाहारी न होता तो भेड़ की भेंट और हाबिल का सत्कार और काइन का तथा उसकी भेंट का तिरस्कार क्यों करता? और ऐसा झगड़ा लगाने और हाबिल के मृत्यु का कारण भी ईश्वर ही हुआ और जैसे आपस में मनुष्य लोग एक दूसरे से बातें करते हैं वैसी ही ईसाइयों के ईश्वर की बातें हैं। बगीचे में आना जाना उसका बनाना भी मनुष्यों का कर्म है। इससे विदित होता है कि यह बाइबल मनुष्यों की बनाई है; ईश्वर की नहीं।।९।।
१०-जब परमेश्वर ने काबिल से कहा तेरा भाई हाबिल कहां है और वह बोला मैं नहीं जानता। क्या मैं अपने भाई का रखवाला हूँ। तब उसने कहा तूने क्या किया? तेरे भाई के लोहू का शब्द भूमि से मुझे पुकारता है।। और अब तू पृथिवी से स्रापित है। -तौरेत उत्पत्ति पर्व० ४। आ० ९। १०। ११।।
(समीक्षक) क्या ईश्वर काइन से पूछे विना हाबिल का हाल नहीं जानता था और लोहू का शब्द भूमि से कभी किसी को पुकार सकता है? ये सब बातें अविद्वानों की हैं, इसीलिये यह पुस्तक न ईश्वर और न विद्वान् का बनाया हो सकता है।।१०।।
११-और हनूक मतूसिलह की उत्पत्ति के पीछे तीन सौ वर्ष लों ईश्वर के साथ-साथ चलता था।। -तौरेत उत्पत्ति पर्व० ५। आ० २२।।
(समीक्षक) भला! ईसाइयों का ईश्वर मनुष्य न होता तो हनूक के साथ-साथ क्यों चलता? इससे जो वेदोक्त निराकार व्यापक ईश्वर है उसी को ईसाई लोग मानें तो उनका कल्याण होवे।।११।।
१२-और यों हुआ कि जब आदमी पृथिवी पर बढ़ने लगे और उनसे बेटियां उत्पन्न हुईं।। तो ईश्वर के पुत्रें ने आदम की पुत्रियों को देखा कि वे सुन्दरी हैं और उनमें से जिन्हें उन्होंने चाहा उन्हें व्याहा।। और उन दिनों में पृथिवी पर दानव थे और उसके पीछे भी जब ईश्वर के पुत्र आदम की पुत्रियों से मिले तो उनसे बालक उत्पन्न हुए जो बलवान् हुए जो आगे से नामी थे।। और ईश्वर ने देखा कि आदम की दुष्टता पृथिवी पर बहुत हुई और उनके मन की चिन्ता और भावना प्रतिदिन केवल बुरी होती है।। तब आदमी को पृथिवी पर उत्पन्न करने से परमेश्वर पछताया और उसे अति शोक हुआ।। तब परमेश्वर ने कहा कि आदमी को जिसे मैंने उत्पन्न किया; आदमी से लेके पशुन लों और रेंगवैयों को और आकाश के पक्षियों को पृथिवी पर से नष्ट करूंगा क्योंकि उन्हें बनाने से मैं पछताता हूँ।।
-तौन पर्व० ६। आ० १। २। ३। ४। ५। ६।।
(समीक्षक) ईसाइयों से पूछना चाहिये कि ईश्वर के बेटे कौन हैं? और ईश्वर की स्त्री, सास, श्वसुर, साला, और सम्बन्धी कौन हैं? क्योंकि अब तो आदम की बेटियों के साथ विवाह होने से ईश्वर उनका सम्बन्धी हुआ और जो उनसे उत्पन्न होते हैं वे पुत्र और प्रपौत्र हुए। क्या ऐसी बात ईश्वर और ईश्वर के पुस्तक की हो सकती है? किन्तु यह सिद्ध होता है कि उन जंगली मनुष्यों ने यह पुस्तक बनाया है। वह ईश्वर ही नहीं जो सर्वज्ञ न हो; न भविष्यत् की बात जाने; वह जीव है। क्या जब सृष्टि की थी तब आगे मनुष्य दुष्ट होंगे ऐसा नहीं जानता था? और पछताना अति शोकादि होना भूल से काम करके पीछे पश्चात्ताप करना आदि
ईसाइयों के ईश्वर में घट सकता है; वेदोक्त ईश्वर में नहीं। और इससे यह भी सिद्ध हो सकता है कि ईसाइयों का ईश्वर पूर्ण विद्वान् योगी भी नहीं था, नहीं तो शान्ति और विज्ञान से अति शोकादि से पृथक् हो सकता था। भला पशु पक्षी भी दुष्ट हो गये! यदि वह ईश्वर सर्वज्ञ होता तो ऐसा विषादी क्यों होता? इसलिये न यह ईश्वर और न यह ईश्वरकृत पुस्तक हो सकता है। जैसे वेदोक्त परमेश्वर सब पाप, क्लेश, दुःख, शोकादि से रहित ‘सच्चिदानन्दस्वरूप’ है उसको ईसाई लोग मानते वा अब भी मानें तो अपने मनुष्यजन्म को सफल कर सकें।।१२।।
१३-उस नाव की लम्बाई तीन सौ हाथ और चौड़ाई पचास हाथ और ऊँचाई तीस हाथ की होवे।। तू नाव में जाना तू और तेरे बेटे और तेरी पत्नी और तेरे बेटों की पत्नियां तेरे साथ।। और सारे शरीरों में से जीवता जन्तु दो-दो अपने साथ नाव में लेना जिसतें वे तेरे साथ जीते रहें वे नर और नारी होवें।। पंछी में से उसके भांति-भांति के और ढोर में से उसके भांति-भांति के और पृथिवी के हर एक रेंगवैये में से भाँति-भाँति के हर एक में से दो-दो तुझ पास आवें जिसते जीते रहें।। और तू अपने लिये खाने को सब सामग्री अपने पास इकट्ठा कर वह तुम्हारे और उनके लिये भोजन होगा।। सो ईश्वर की सारी आज्ञा के समान नूह ने किया।।
-तौरेत उत्पत्ति पर्व० ६। आ० १५। १८। १९। २०। २१। २२।।
(समीक्षक) भला कोई भी विद्वान् ऐसी विद्या से विरुद्ध असम्भव बात के वक्ता को ईश्वर मान सकता है? क्योंकि इतनी बड़ी चौड़ी ऊंची नाव में हाथी, हथनी, ऊंट, ऊंटनी आदि क्रोड़ों जन्तु और उनके खाने पीने की चीजें वे सब कुटुम्ब के भी समा सकते हैं? यह इसीलिये मनुष्यकृत पुस्तक है। जिसने यह लेख किया है वह विद्वान् भी नहीं था।।१३।।
१४-और नूह ने परमेश्वर के लिए एक वेदी बनाई और सारे पवित्र पशु और हर एक पवित्र पंछियों में से लिये और होम की भेंट उस वेदी पर चढ़ाई।। और परमेश्वर ने सुगन्ध सूंघा और परमेश्वर ने अपने मन में कहा कि आदमी के लिये मैं पृथिवी को फिर कभी स्राप न दूँगा इस कारण कि आदमी के मन की भावना उसकी लड़काई से बुरी है और जिस रीति से मैंने सारे जीवधारियों को मारा फिर कभी न मारूंगा।। -तौरेत उत्पत्ति पर्व० ८। आ० २०। २१ ।।
(समीक्षक) वेदी के बनाने, होम करने के लेख से यही सिद्ध होता है कि ये बातें वेदों से बाइबल में गई हैं। क्या परमेश्वर के नाक भी है कि जिससे सुगन्ध सूँघा? क्या यह ईसाइयों का ईश्वर मनुष्यवत् अल्पज्ञ नहीं है कि कभी स्राप देता है और कभी पछताता है। कभी कहता है स्राप न दूंगा। पहले दिया था और फिर भी देगा। प्रथम सब को मार डाला और अब कहता है कि कभी न मारूंगा!!! ये बातें सब लड़केपन की हैं, ईश्वर की नहीं, और न किसी विद्वान् की क्योंकि विद्वान् की भी बात और प्रतिज्ञा स्थिर होती है।।१४।।
१५-और ईश्वर ने नूह को और उसके बेटों को आशीष दिया और उन्हें कहा कि हर एक जीता चलता जन्तु तुम्हारे भोजन के लिये होगा।। मैंने हरी तरकारी के समान सारी वस्तु तुम्हें दिईं केवल मांस उनके जीव अर्थात् उसके लोहू समेत मत खाना।। -तौरेत उत्पत्ति पर्व० ९। आ० १। २। ३। ४।।
(समीक्षक) क्या एक को प्राणकष्ट देकर दूसरों को आनन्द कराने से दयाहीन ईसाइयों का ईश्वर नहीं है? जो माता पिता एक लड़के को मरवा कर
दूसरे को खिलावें तो महापापी नहीं हों? इसी प्रकार यह बात है क्योंकि ईश्वर के लिये सब प्राणी पुत्रवत् हैं। ऐसा न होने से इनका ईश्वर कसाईवत् काम करता है और सब मनुष्यों को हिसक भी इसी ने बनाये हैं। इसलिये ईसाइयों का ईश्वर निर्दय होने से पापी क्यों नहीं।।१५।।
१६-और सारी पृथिवी पर एक ही बोली और एक ही भाषा थी।। फिर उन्होंने कहा कि आओ हम एक नगर और एक गुम्मट जिसकी चोटी स्वर्ग लों पहुंचे अपने लिए बनावें और अपना नाम करें। न हो कि हम सारी पृथिवी पर छिन्न-भिन्न हो जायें।। तब परमेश्वर उस नगर और उस गुम्मट को जिसे आदम के सन्तान बनाते थे; देखने को उतरा।। तब परमेश्वर ने कहा कि देखो! ये लोग एक ही हैं और उन सब की एक ही बोली है। अब वे ऐसा-ऐसा कुछ करने लगे सो वे जिस पर मन लगावेंगे उससे अलग न किये जायेंगे।। आओ हम उतरें और वहां उनकी भाषा को गड़बड़ावें जिसते एक दूसरे की बोली न समझें।। तब परमेश्वर ने उन्हें वहां से सारी पृथिवी पर छिन्न-भिन्न किया और वे उस नगर के बनाने से अलग रहे।। -तौन उ० पर्व० ११। आ० १। ४। ५। ६। ७। ८।।
(समीक्षक) जब सारी पृथिवी पर एक भाषा और बोली होगी उस समय सब मनुष्यों को परस्पर अत्यन्त आनन्द प्राप्त हुआ होगा परन्तु क्या किया जाय, यह ईसाइयों के ईर्ष्यक ईश्वर ने सबकी भाषा गड़बड़ा के सब का सत्यानाश किया। उसने यह बड़ा अपराध किया। क्या यह शैतान के काम से भी बुरा काम नहीं है? और इससे यह भी विदित होता है कि ईसाइयों का ईश्वर सनाई पहाड़ आदि पर रहता था और जीवों की उन्नति भी नहीं चाहता था। यह विना एक अविद्वान् के ईश्वर की बात और यह ईश्वरोक्त पुस्तक क्यों कर हो सकता है? ।।१६।।
१७-तब उसने अपनी पत्नी सरी से कहा कि देख मैं जानता हूं तू देखने में सुन्दर स्त्री है।। इसलिये यों होगा कि जब मिस्री तुझे देखें तब वे कहेंगे कि यह उसकी पत्नी है और मुझे मार डालेंगे परन्तु तुझे जीती रखेंगे।। तू कहियो कि मैं उसकी बहिन हूं जिसते तेरे कारण मेरा भला होय और मेरा प्राण तेरे हेतु से जीता रहै।। -तौन उ० पर्व० १२। आ० ११। १२। १३।।
(समीक्षक) अब देखिये! जो अबिरहाम बड़ा पैगम्बर ईसाई और मुसलमानों का बजता है और उसके कर्म मिथ्याभाषणादि बुरे हैं भला! जिनके ऐसे पैगम्बर हों उनको विद्या वा कल्याण का मार्ग कैसे मिल सके? ।।१७।।
१८-और ईश्वर ने अब्राहम से कहा-तू और तेरे पीछे तेरा वंश उनकी पीढ़ियों में मेरे नियम को माने।। तुम मेरा नियम जो मुझ से और तुम से और तेरे पीछे तेरे वंश से है जिसे तुम मानोगे सो यह है कि तुम में से हर एक पुरुष का खतनः किया जाय।। और तुम अपने शरीर की खलड़ी काटो और वह मेरे और तुम्हारे मध्य में नियम का चिह्न होगा। और तुम्हारी पीढ़ियों में हर एक आठ दिन के पुरुष का खतनः किया जाय। जो घर में उत्पन्न होय अथवा जो किसी परदेशी से; जो तेरे वंश का न हो; रूपे से मोल लिया जाय।। जो तेरे घर में उत्पन्न हुआ हो और तेरे रूपे से मोल लिया गया हो; अवश्य उसका खतनः किया जाय और मेरा नियम तुम्हारे मांस में सर्वदा नियम के लिये होगा।। और जो अखतनः बालक जिसकी खलड़ी का खतनः न हुआ हो सो प्राणी अपने लोग से कट जाय कि उसने मेरा नियम तोड़ा है।। -तौन उ० पर्व० १७। आ० ९। १०। ११। १२। १३। १४।।
(समीक्षक) अब देखिये ईश्वर की अन्यथा आज्ञा। कि जो यह खतनः करना ईश्वर को इष्ट होता तो उस चमडे़ को आदि सृष्टि में बनाता ही नहीं और जो यह बनाया गया है वह रक्षार्थ है; जैसा आंख के ऊपर का चमड़ा। क्योंकि वह गुप्तस्थान अति कोमल है। जो उस पर चमड़ा न हो तो एक कीड़ी के भी काटने और थोड़ी सी चोट लगने से बहुत सा दुःख होवे और यह लघुशंका के पश्चात् कुछ मूत्रंश कपड़ों में न लगे इत्यादि बातों के लिये है। इसका काटना बुरा है और अब ईसाई लोग इस आज्ञा को क्यों नहीं करते? यह आज्ञा सदा के लिये है। इसके न करने से ईसा की गवाही जो कि व्यवस्था के पुस्तक का एक विन्दु भी झूठा नहीं है; मिथ्या हो गई। इसका सोच विचार ईसाई कुछ भी नहीं करते।।१८।।
१९-तब उस से बात करने से रह गया और अबिरहाम के पास से ईश्वर ऊपर जाता रहा।। -तौन उ० पर्व० १७। आ० २२।।
(समीक्षक) इससे यह सिद्ध होता है कि ईश्वर मनुष्य वा पक्षिवत् था जो ऊपर से नीचे और नीचे से ऊपर आता जाता रहता था। यह कोई इन्द्रजाली पुरुषवत् विदित होता है।।१९।।
२०-फिर ईश्वर उसे ममरे के बलूतों में दिखाई दिया और वह दिन को घाम के समय में अपने तम्बू के द्वार पर बैठा था।। और उसने अपनी आंखें उठाईं और क्या देखा कि तीन मनुष्य उसके पास खड़े हैं और उन्हें देख के वह तम्बू के द्वार पर से उनकी भेंट को दौड़ा और भूमि लों दण्डवत् किई।। और कहा हे मेरे स्वामी! यदि मैंने अब आप की दृष्टि में अनुग्रह पाया है तो मैं आपकी विनती करता हूं कि अपने दास के पास से चले न जाइये।। इच्छा होय तो थोड़ा जल लाया जाय और अपने चरण धोइये और पेड़ तले विश्राम कीजिये।। और मैं एक कौर रोटी लाऊं और आप तृप्त हूजिये। उसके पीछे आगे बढ़िये। क्योंकि आप इसीलिये दास के पास आये हैं।। तब वे बोले कि जैसा तू ने कहा तैसा कर।। और अबिरहाम तम्बू में सरः पास उतावली से गया और उसे कहा कि फुरती कर और तीन नपुआ चोखा पिसान ले के गूँध और उसके फुलके पका।। और अबिरहाम झुंड की ओर दौड़ा गया और एक अच्छा कोमल बछड़ा ले के दास को दिया। उसने भी उसे सिद्ध करने में चटक किया।। और उसने मक्खन और दूध और वह बछड़ा जो पकाया था; लिया और उनके आगे धरा और आप उनके पास पेड़ तले खड़ा रहा और उन्होंने खाया।। -तौन पर्व० १८। आ० १। २। ३। ४। ५। ६। ७। ८।।
(समीक्षक) अब देखिये सज्जन लोगो! जिनका ईश्वर बछड़े का मांस खावे उसके उपासक गाय, बछड़े आदि पशुओं को क्यों छोड़ें? जिसको कुछ दया नहीं और मांस के खाने में आतुर रहे वह विना हिसक मनुष्य के ईश्वर कभी हो सकता है? और ईश्वर के साथ दो मनुष्य न जाने कौन थे? इससे विदित होता है कि जंगली मनुष्यों की एक मण्डली थी। उनका जो प्रधान मनुष्य था। उसका नाम बाइबल में ईश्वर रक्खा होगा। इन्हीं बातों से बुद्धिमान् लोग इनके पुस्तक को ईश्वरकृत नहीं मान सकते और न ऐसे को ईश्वर समझते हैं।।२०।।
२१-और परमेश्वर ने अबिहराम से कहा कि सरः क्यों यह कहके मुसकुराई कि जो मैं बुढ़िया हूं सचमुच बालक जनूँगी।। क्या परमेश्वर के लिये कोई बात असाध्य है।। -तौन पर्व० १८। आ० १३। १४।।
(समीक्षक) अब देखिये कि क्या-क्या ईसाइयों के ईश्वर की लीला! कि जो लड़के वा स्त्रियों के समान चिढ़ता और ताना मारता है!!! ।।२१।।
२२-तब परमेश्वर ने समूद और अमूरः पर गन्धक और आग परमेश्वर की ओर से स्वर्ग से वर्षाया।। और उन नगरों को और सारे चौगान को और नगरों के सारे निवासियों को और जो कुछ भूमि पर उगता था; उलट दिया।। -तौन उत्प० पर्व० १९। आ० २४। २५।।
(समीक्षक) अब यह भी लीला बाइबल के ईश्वर की देखिये कि जिसको बालक आदि पर भी कुछ दया न आई! क्या वे सब ही अपराधी थे जो सब को भूमि उलटा के दबा मारा? यह बात न्याय, दया और विवेक से विरुद्ध है। जिनका ईश्वर ऐसा काम करे उनके उपासक क्यों न करें? ।।२२।।
२३-आओ हम अपने पिता को दाख रस पिलावें और हम उसके साथ शयन करें कि हम अपने पिता से वंश जुगावें।। तब उन्होंने उस रात अपने पिता को दाख रस पिलाया और पहिलोठी गई और अपने पिता के साथ शयन किया।। हम उसे आज रात भी दाख रस पिलावें तू जाके शयन कर।। सो लूत की दोनों बेटियां अपने पिता से गर्भिणी हुईं।। -तौन उत्प० पर्व० १९। आ० ३२। ३३। ३४। ३६।।
(समीक्षक) देखिये पिता पुत्री भी जिस मद्यपान के नशे में कुकर्म करने से न बच सके ऐसे दुष्ट मद्य को जो ईसाई आदि पीते हैं उनकी बुराई का क्या पारावार है? इसलिये सज्जन लोगों को मद्य के पीने का नाम भी न लेना चाहिये।।२३।।
२४-और अपने कहने के समान परमेश्वर ने सरः से भेंट किया और अपने वचन के समान परमेश्वर ने सरः के विषय में किया।। और सरः गर्भिणी हुई।। -तौन उत्प० पर्व० २१। आ० १। २।।
(समीक्षक) अब विचारिये कि सरः से भेंट कर गर्भवती की यह काम कैसे हुआ! क्या विना परमेश्वर और सरः के तीसरा कोई गर्भस्थापन का कारण दीखता है? ऐसा विदित होता है कि सरः परमेश्वर की कृपा से गर्भवती हुई!!!।।२४।।
२५-तब अबिहराम ने बड़े तड़के उठ के रोटी और एक पखाल में जल लिया और हाजिरः के कन्धे पर धर दिया और लड़के को भी उसे सौंप के उसे विदा किया।। उसने उस लड़के को एक झाड़ी के तले डाल दिया।। और वह उसके सम्मुख बैठ के चिल्ला-चिल्ला रोई।। तब ईश्वर ने उस बालक का शब्द सुना।।
-तौन उत्प० पर्व० २१। आ० १४। १५। १६। १७।।
(समीक्षक) अब देखिये! ईसाइयों के ईश्वर की लीला कि प्रथम तो सरः का पक्षपात करके हाजिरः को वहां से निकलवा दी और चिल्ला-चिल्ला रोई हाजिरः और शब्द सुना लड़के का। यह कैसी अद्भुत बात है? यह ऐसा हुआ होगा कि ईश्वर को भ्रम हुआ होगा कि यह बालक ही रोता है। भला यह ईश्वर और ईश्वर की पुस्तक की बात कभी हो सकती है? विना साधारण मनुष्य के वचन के इस पुस्तक में थोड़ी सी बात सत्य के सब असार भरा है।।२५।।
२६-और इन बातों के पीछे यों हुआ कि ईश्वर ने अबिरहाम की परीक्षा किई, और उसे कहा हे अबिरहाम! तू अपने बेटे का अपने इकलौते इजहाक को जिसे तू प्यार करता है; ले। उसे होम की भेंट के लिए चढ़ा।। और अपने बेटे इजहाक को बांध के उस वेदी में लकड़ियों पर धरा।। और अबिरहाम ने छुरी लेके अपने बेटे का घात करने के लिये हाथ बढ़ाया।। तब परमेश्वर के दूत ने स्वर्ग पर से उसे पुकारा कि अबिरहाम अबिरहाम।। अपना हाथ लड़के पर मत बढ़ा, उसे कुछ मत कर, क्योंकि अब मैं जानता हूं कि तू ईश्वर से डरता है।।
-तौन उत्प० पर्व० २२। आ० १। २। ९। १०। ११। १२।।
(समीक्षक) अब स्पष्ट हो गया कि यह बाइबल का ईश्वर अल्पज्ञ है सर्वज्ञ नहीं। और अबिरहाम भी एक भोला मनुष्य था, नहीं तो ऐसी चेष्टा क्यों करता? और जो बाइबल का ईश्वर सर्वज्ञ होता तो उसकी भविष्यत् श्रद्धा को भी सर्वज्ञता से जान लेता। इससे निश्चित होता है कि ईसाइयों का ईश्वर सर्वज्ञ नहीं।।२६।।
२७-सो आप हमारी समाधिन में से चुन के एक में अपने मृतक को गाड़िये जिस तें आप अपने मृतक को गाड़ें। -तौन उत्प० पर्व० २३। आ० ६।।
(समीक्षक) मुर्दों के गाड़ने से संसार को बड़ी हानि होती है क्योंकि वह सड़ के वायु को दुर्गन्धमय कर रोग फैला देता है।
(प्रश्न) देखो! जिससे प्रीति हो उसको जलाना अच्छी बात नहीं और गाड़ना जैसा कि उसको सुला देना है इसलिए गाड़ना अच्छा है।
(उत्तर) जो मृतक से प्रीति करते हो तो अपने घर में क्यों नहीं रखते? और गाड़ते भी क्यों हो? जिस जीवात्मा से प्रीति थी वह निकल गया, अब दुर्गन्धमय मट्टी से क्या प्रीति? और जो प्रीति करते हो तो उसको पृथिवी में क्यों गाड़ते हो क्योंकि किसी से कोई कहे कि तुझ को भूमि में गाड़ देवें तो वह सुन कर प्रसन्न कभी नहीं होता। उसके मुख आंख और शरीर पर धूल, पत्थर, ईंट, चूना डालना, छाती पर पत्थर रखना कौन सा प्रीति का काम है? और सन्दूक में डाल के गाड़ने से बहुत दुर्गन्ध होकर पृथिवी से निकल वायु को बिगाड़ कर दारुण रोगोत्पत्ति करता है। दूसरा एक मुर्दे के लिए कम से कम ६ हाथ लम्बी और ४ हाथ चौड़ी भूमि चाहिए। इसी हिसाब से सौ, हजार वा लाख अथवा क्रोड़ों मनुष्यों के लिए कितनी भूमि व्यर्थ रुक जाती है। न वह खेत, न बगीचा, और न वसने के काम की रहती है। इसलिये सब से बुरा गाड़ना है, उससे कुछ थोड़ा बुरा जल में डालना, क्योंकि उसको जलजन्तु उसी समय चीर फाड़ के खा लेते हैं परन्तु जो कुछ हाड़ वा मल जल में रहेगा वह सड़ कर जगत् को दुःखदायक होगा। उससे कुछ एक थोड़ा बुरा जंगल में छोड़ना है क्योंकि उसको मांसाहारी पशु पक्षी लूंच खायेंगे तथापि जो उसके हाड़, हाड़ की मज्जा और मल सड़ कर जितना दुर्गन्ध करेगा उतना जगत् का अनुपकार होगा; और जो जलाना है वह सर्वोत्तम है क्योंकि उसके सब पदार्थ अणु होकर वायु में उड़ जायेंगे।
(प्रश्न) जलाने से भी दुर्गन्ध होता है।
(उत्तर) जो अविधि से जलावे तो थोड़ा सा होता है परन्तु गाड़ने आदि से बहुत कम होता है। और जो विधिपूर्वक जैसा कि वेद में लिखा है-वेदी मुर्दे के तीन हाथ गहिरी, साढ़े तीन हाथ चौड़ी, पांच हाथ लम्बी, तले में डेढ़ हाथ बीता अर्थात् चढ़ा उतार खोद कर शरीर के बराबर घी उसमें एक सेर में रत्ती भर कस्तूरी, मासा भर केशर डाल न्यून से न्यून आध मन चन्दन अधिक चाहें जितना ले, अगर-तगर कपूर आदि और पलाश आदि की लकड़ियों को वेदी में जमा, उस पर मुर्दा रख के पुनः चारों ओर ऊपर वेदी के मुख से एक-एक बीता तक भर के उस घी की आहुति देकर जलाना लिखा है। उस प्रकार से दाह करें तो कुछ भी दुर्गन्ध न हो किन्तु इसी का नाम अन्त्येष्टि, नरमेध, पुरुषमेध यज्ञ है। और जो दरिद्र हो तो बीस सेर से कम घी चिता में न डालें, चाहे वह भीख मांगने वा जाति वाले के देने अथवा राज से मिलने से प्राप्त हो परन्तु उसी प्रकार दाह करे। और जो घृतादि किसी प्रकार न मिल सके तथापि गाड़ने आदि से केवल लकड़ी से भी मृतक का जलाना उत्तम है क्योंकि एक विश्वा भर भूमि में अथवा एक वेदी में लाखों क्रोड़ों मृतक जल सकते हैं। भूमि भी गाड़ने के समान अधिक नहीं बिगड़ती और कबर के देखने से भय भी होता है। इससे गाड़ना आदि सर्वथा निषिद्ध है।।२७।।
२८-परमेश्वर मेरे स्वामी अबिरहाम का ईश्वर धन्य है जिसने मेरे स्वामी को अपनी दया और अपनी सच्चाई विना न छोड़ा। मार्ग में परमेश्वर ने मेरे स्वामी के भाइयों के घर की ओर मेरी अगुआई किई।। -तौन उत्प० पर्व० २४। आ० २७।।
(समीक्षक) क्या वह अबिरहाम ही का ईश्वर था? और जैसे आजकल बिगारी वा अगवे लोग अगुआई अर्थात् आगे-आगे चलकर मार्ग दिखलाते हैं तथा ईश्वर ने भी किया तो आजकल मार्ग क्यों नहीं दिखलाता? और मनुष्यों से बातें क्यों नहीं करता? इसलिए ऐसी बातें ईश्वर वा ईश्वर के पुस्तक की कभी नहीं हो सकतीं किन्तु जंगली मनुष्य की हैं।।२८।।
२९-इसमअऐल के बेटों के नाम ये हैं-इसमअऐल का पहिलौठा नबीत और कीदार और अदबिएल और मिबसाम।। और मिसमाअ और दूमः और मस्सा।। हदर और तैमा इतूर, नफीस और किदिमः।।
-तौन उत्प० पर्व० २५। आ० १३। १४। १५।।
(समीक्षक) यह इसमअऐल अबिरहाम से उसकी हाजिरः दासी का पुत्र हुआ था।।२९।।
३०-मैं तेरे पिता की रुचि के समान स्वादित भोजन बनाऊंगी।। और तू अपने पिता के पास ले जाइयो जिसतें वह खाय और अपने मरने से आगे तुझे आशीष देवे।। और रिबकः ने घर में से अपने जेठे बेटे एसौ का अच्छा पहिरावा लिया।। और बकरी के मेम्नों का चमड़ा उसके हाथों और गले की चिकनाई पर लपेटा।। तब यअकूब अपने पिता से बोला कि मैं आपका पहिलौठा एसौ हूं। आपके कहने के समान मैंने किया है, उठ बैठिये और मेरे अहेर के मांस में से खाइये जिसतें आप का प्राण मुझे आशीष दे।। -तौन उत्प० पर्व० २७। आ० ९। १०। १५। १६। १९।।
(समीक्षक) देखिये! ऐसे झूठ कपट से आशीर्वाद ले के पश्चात् सिद्ध और पैगम्बर बनते हैं क्या यह आश्चर्य की बात नहीं है? और ऐसे ईसाइयों के अगुआ हुए हैं पुनः इनके मत की गड़बड़ में क्या न्यूनता हो? ।।३०।।
३१-और यअकूब बिहान को तड़के उठा और उस पत्थर को जिसे उसने अपना तकिया किया था खम्भा खड़ा किया और उस पर तेल डाला।। और उस स्थान का नाम बैतएल रक्खा।। और यह पत्थर जो मैंने खम्भा खड़ा किया ईश्वर का घर होगा।। -तौन उत्प० पर्व० २८। आ० १८। १९। २२।।
(समीक्षक) अब देखिये जंगलियों के काम। इन्होंने पत्थर पूजे और पुजवाये और इसको मुसलमान लोग ‘बैतएलमुकद्दस’ कहते हैं। क्या यही पत्थर ईश्वर का घर और उसी पत्थरमात्र में ईश्वर रहता था? वाह-वाह जी! क्या कहना है ईसाई लोगो! महाबुत्परस्त तो तुम्हीं हो।।३१।।
३२-और ईश्वर ने राहेल को स्मरण किया और ईश्वर ने उसकी सुनी और उसकी कोख को खोला।। और वह गर्भिणी हुई और बेटा जनी और बोली कि ईश्वर ने मेरी निन्दा दूर किई।। -तौन उत्प० पर्व० ३०। आ० २२। २३।।
(समीक्षक) वाह ईसाइयों के ईश्वर! क्या बड़ा डाक्तर है! स्त्रियों की कोख खोलने को कौन से शस्त्र वा औषध थे जिनसे खोली, ये सब बातें अन्धाधुन्ध की हैं।।३२।।
३३-परन्तु ईश्वर अरामी लावन कने स्वप्न में रात को आया और उसे कहा कि चौकस रह तू यअकूब को भला बुरा मत कहना।। क्योंकि तू अपने पिता के घर का निपट अभिलाषी है तूने किसलिये मेरे देवों को चुराया है।।
-तौन उत्प० पर्व० ३१। आ० २४। ३०।।
(समीक्षक) यह हम नमूना लिखते हैं, हजारों मनुष्यों को स्वप्न में आया, बातें किईं, जागृत साक्षात् मिला, खाया, पिया, आया, गया आदि बाइबल में लिखा है परन्तु अब न जाने वह है वा नहीं? क्योंकि अब किसी को स्वप्न वा जागृत में भी ईश्वर नहीं मिलता और यह भी विदित हुआ कि ये जंगली लोग पाषाणादि मूर्तियों को देव मानकर पूजते थे परन्तु ईसाइयों का ईश्वर भी पत्थर ही को देव मानता है, नहीं तो देवों का चुराना कैसे घटे? ।।३३।।
३४-और यअकूब अपने मार्ग चला गया और ईश्वर के दूत उसे आ मिले।। और यअकूब ने उन्हें देख के कहा कि यह ईश्वर की सेना है।। -तौनउत्पन पर्व० ३२। आ० १। २।।
(समीक्षक) अब ईसाइयों का ईश्वर मनुष्य होने में कुछ भी सन्दिग्ध नहीं रहा, क्योंकि सेना भी रखता है। जब सेना हुई तब शस्त्र भी होंगे और जहाँ तहाँ चढ़ाई करके लड़ाई भी करता होगा, नहीं तो सेना रखने का क्या प्रयोजन है? ।।३४।।
३५-और यअकूब अकेला रह गया और वहां पौ फटे लों एक जन उससे मल्लयुद्ध करता रहा। और जब उसने देखा कि वह उस पर प्रबल न हुआ तो उसकी जांघ को भीतर से छूआ। तब यअकूब के जांघ की नस उसके संग मल्लयुद्ध करने में चढ़ गई।। तब वह बोला कि मुझे जाने दे क्योंकि पौ फटती है और वह बोला मैं तुझे जाने न देऊंगा जब लों तू मुझे आशीष न देवे।। तब उसने उससे कहा कि तेरा नाम क्या ? और वह बोला कि यअकूब।। तब उसने कहा कि तेरा नाम आगे को यअकूब न होगा परन्तु इसराएल, क्योंकि तूने ईश्वर के आगे और मनुष्यों के आगे राजा की नाईं मल्लयुद्ध किया और जीता।। तब यअकूब ने यह कहिके उससे पूछा कि अपना नाम बताइये और वह बोला कि तू मेरा नाम क्यों पूछता है और उसने उसे वहां आशीष दिया।। और यअकूब ने उस स्थान का नाम फनूएल रक्खा क्योंकि मैंने ईश्वर को प्रत्यक्ष देखा और मेरा प्राण बचा है।। और जब वह फनूएल से पार चला तो सूर्य की ज्योति उस पर पड़ी और वह अपनी जाँघ से लँगड़ाता था।। इसलिये इसरायल के वंश उस जांघ की नस को जो चढ़ गई थी आज लों नहीं खाते क्योंकि उसने यअकूब के जांघ की नस को जो चढ़ गई थी; छूआ था।।
-तौन उत्प० पर्व० ३२। आ० २४। २५। २६। २७। २८। २९। ३०। ३१। ३२।।
(समीक्षक) जब ईसाइयों का ईश्वर अखाड़मल्ल है तभी तो सरः और राखल पर पुत्र होने की कृपा की। भला यह कभी ईश्वर हो सकता है? अब देखो लीला! कि एक जना नाम पूछे तो दूसरा अपना नाम ही न बतावे? और ईश्वर ने उसकी नाड़ी को चढ़ा तो दी और जीत गया परन्तु जो डाक्टर होता तो जांघ
की नाड़ी को अच्छी भी करता। और ऐसे ईश्वर की भक्ति से जैसा कि यअकूब लंगड़ाता रहा तो अन्य भक्त भी लंगड़ाते होंगे। जब ईश्वर को प्रत्यक्ष देखा और मल्लयुद्ध किया यह बात विना शरीर वाले के कैसे हो सकती है? यह केवल लड़कपन की लीला है।।३५।।
३६-ईश्वर का मुंह देखा।। -तौनउत्पन पर्व० ३३। आ० १०।।
(समीक्षक) जब ईश्वर के मुंह है और भी सब अवयव होंगे और वह जन्म मरण वाला भी होगा।।३६।।
३७-और यहूदाह का पहिलौठा एर परमेश्वर की दृष्टि में दुष्ट था सो परमेश्वर ने उसे मार डाला। तब यहूदाह ने ओनान को कहा कि अपने भाई की पत्नी पास जा और उससे ब्याह कर अपने भाई के लिए वंश चला।। और ओनान ने जाना कि यह वंश मेरा न होगा और यों हुआ कि जब वह अपने भाई की पत्नी पास गया तो वीर्य्य को भूमि पर गिरा दिया।। और उसका वह कार्य्य परमेश्वर की दृष्टि में बुरा था इसलिये उसने उसे भी मार डाला।।
-तौनउत्पन पर्व० ३८। आ० ७। ८। ९। १०।।
(समीक्षक) अब देख लीजिये! ये मनुष्यों के काम हैं कि ईश्वर के? जब उसके साथ नियोग हुआ तो उसको क्यों मार डाला? उसकी बुद्धि शुद्ध क्यों न कर दी? और वेदोक्त नियोग भी प्रथम सर्वत्र चलता था। यह निश्चय हुआ कि नियोग की बातें सब देशों में चलती थीं।।३७।।
तौरेत यात्र की पुस्तक
३८-जब मूसा सयाना हुआ और अपने भाइयों में से एक इबरानी को देखा कि मिस्री उसे मार रहा है।। तब उसने इधर-उधर दृष्टि किई देखा कि कोई नहीं तब उसने उस मिस्री को मार डाला और बालू में उसे छिपा दिया।। जब वह दूसरे दिन बाहर गया तो देखा, दो इबरानी आपस में झगड़ रहे हैं तब उसने उस अंधेरी को कहा कि तू अपने परोसी को क्यों मारता है।। तब उसने कहा कि किसने तुझे हम पर अध्यक्ष अथवा न्यायी ठहराया, क्या तू चाहता है कि जिस रीति से मिस्री को मार डाला मुझे भी मार डाले।। तब मूसा डरा औेर भाग निकला।।
-तौन या० प० २। आ० ११। १२। १३। १४। १५।।
(समीक्षक) अब देखिये! जो बाइबल का मुख्य सिद्धकर्त्ता मत का आचार्य मूसा कि जिसका चरित्र क्रोधादि दुर्गुणों से युक्त, मनुष्य की हत्या करने वाला और चोरवत् राजदण्ड से बचनेहारा अर्थात् जब बात को छिपाता था तो झूठ बोलने वाला भी अवश्य होगा, ऐसे को भी जो ईश्वर मिला वह पैगम्बर बना उसने यहूदी आदि का मत चलाया वह भी मूसा ही के सदृश हुआ। इसलिये ईसाइयों के जो मूल पुरुषा हुए हैं वे सब मूसा से आदि लेकर के जंगली अवस्था में थे, विद्यावस्था में नहीं, इत्यादि।।३८।।
३९-जब परमेश्वर ने देखा कि वह देखने को एक अलंग फिरा तो ईश्वर ने झाड़ी के मध्य में से उसे पुकार के कहा कि हे मूसा हे मूसा! तब वह बोला मैं यहां हूं।। तब उसने कहा कि इधर पास मत आ, अपने पाओं से जूता उतार, क्योंकि यह स्थान जिस पर तू खड़ा है; पवित्र भूमि है।
-तौन या० पु० प० ३। आ० ४। ५।।
(समीक्षक) देखिये! ऐसे मनुष्य जो कि मनुष्य को मार के बालू में गाड़ने वाले से इनके ईश्वर की मित्रता और उसको पैगम्बर मानते हैं। और देखो जब तुम्हारे ईश्वर ने मूसा से कहा कि पवित्र स्थान में जूती न ले जानी चाहिए। तुम ईसाई इस आज्ञा के विरुद्ध क्यों चलते हो? ।।
(प्रश्न) हम जूती के स्थान में टोपी उतार लेते हैं।
(उत्तर) यह दूसरा अपराध तुमने किया क्योंकि टोपी उतारना न ईश्वर ने कहा न तुम्हारे पुस्तक में लिखा है। और उतारने योग्य को नहीं उतारते, जो नहीं उतारना चाहिये उसको उतारते हो, दोनों प्रकार तुम्हारे पुस्तक से विरुद्ध हैं।
(प्रश्न) हमारे यूरोप देश में शीत अधिक है इसलिये हम लोग जूती नहीं उतारते।
(उत्तर) क्या शिर में शीत नहीं लगता? जो यही है तो यूरोप देश में जाओ तब ऐसा ही करना। परन्तु जब हमारे घर में वा बिछौने में आया करो तब तो जूती उतार दिया करो और जो न उतारोगे तो तुम अपने बाइबल पुस्तक के विरुद्ध चलते हो; ऐसा तुम को न करना चाहिये।।३९।।
४०-तब ईश्वर ने उसे कहा कि तेरे हाथ में यह क्या है और वह बोला कि छड़ी।। तब उसने कहा कि उसे भूमि पर डाल दे और उसने भूमि पर डाल दिया और वह सर्प्प बन गई और मूसा उसके आगे से भागा।। तब परमेश्वर ने मूसा से कहा कि अपना हाथ बढ़ा और उसकी पूंछ पकड़ ले, तब उसने अपना हाथ बढ़ाया और उसे पकड़ लिया और वह उसके हाथ में छड़ी हो गई।। तब परमेश्वर ने उसे कहा कि फिर तू अपना हाथ अपनी गोद में कर और उसने अपना हाथ अपनी गोद में किया जब उसने उसे निकाला तो देखा कि उसका हाथ हिम के समान कोढ़ी था।। और उसने कहा कि अपना हाथ फिर अपनी गोद में कर। उसने फिर अपने हाथ को अपनी गोद में किया और अपनी गोद से उसे निकाला तो देखा कि जैसी उसकी सारी देह थी वह वैसा फिर हो गया।। तू नील नदी का जल लेके सूखी पर ढालियो और वह जल जो तू नदी से निकालेगा सो सूखी पर लोहू हो जायेगा।। -तौन या० प० ४। आ० २। ३। ४। ६। ७। ९।।
(समीक्षक) अब देखिये! कैसे बाजीगर का खेल, खिलाड़ी ईश्वर, उसका सेवक मूसा और इन बातों को मानने हारे कैसे हैं? क्या आजकल बाजीगर लोग इससे कम करामात करते हैं? यह ईश्वर क्या, यह तो बड़ा खिलाड़ी है। इन बातों को विद्वान् क्यों कर मानेंगे? और हर एक बार मैं परमेश्वर हूं और अबिरहाम, इजहाक और याकूब का ईश्वर हूं इत्यादि हर एक से अपने मुख से प्रशंसा करता फिरता है, यह बात उत्तम जन की नहीं हो सकती किन्तु दम्भी मनुष्य की हो सकती है।।४०।।
४१-और फसह मेम्ना मारो।। और एक मूठी जूफा लेओ और उसे उस लोहू में जो बासन में है बोर के, ऊपर की चौखट के और द्वार की दोनों ओर उससे छापो और तुम में से कोई बिहान लों अपने घर के द्वार से बाहर न जावे।। क्योंकि परमेश्वर मिस्र के मारने के लिये आर-पार जायेगा और जब वह ऊपर की चौखट पर और द्वार की दोनों ओर लोहू को देखे तब परमेश्वर द्वार से बीत जायेगा और नाशक तुम्हारे घरों में जाने न देगा कि मारे।। -तौन या० प० १२। आ० २१। २२। २३।।
(समीक्षक) भला यह जो टोने टामन करने वाले के समान है वह ईश्वर सर्वज्ञ कभी हो सकता है? जब लोहू का छापा देखे तभी इसरायल कुल का घर जाने, अन्यथा नहीं। यह काम क्षुद्र बुद्धि वाले मनुष्य के सदृश है। इससे यह विदित होता है कि ये बातें किसी जंगली मनुष्य की लिखी हैं।।४१।।
४२-और यों हुआ कि परमेश्वर ने आधी रात को मिस्र के देश में सारे पहिलौठे जो फिरऊन के पहिलौठे से लेके जो अपने सिहासन पर बैठता था उस बन्धुआ के पहिलौठे लों जो बन्दीगृह में था पशुन के पहिलौठों समेत नाश किये। और रात को फिरऊन उठा, वह और उसके सब सेवक और सारे मिस्री उठे और मिस्र में बड़ा विलाप था क्योंकि कोई घर न रहा जिस में एक न मरा।। -तौन या० प० १२। आ० २९। ३०।।
(समीक्षक) वाह! अच्छा आधी रात को डाकू के समान निर्दयी होकर ईसाइयों के ईश्वर ने लड़के बाले, वृद्ध और पशु तक भी विना अपराध मार दिये और कुछ भी दया न आई और मिस्र में बड़ा विलाप होता रहा तो भी ईसाइयों के ईश्वर के चित्त से निष्ठुरता नष्ट न हुई! ऐसा काम ईश्वर का तो क्या किन्तु किसी साधारण मनुष्य के भी करने का नहीं है। यह आश्चर्य नहीं, क्योंकि लिखा है ‘मांसाहारिणः कुतो दया’ जब ईसाइयों का ईश्वर मांसाहारी है तो उसको दया करने से क्या काम है? ।।४२।।
४३-परमेश्वर तुम्हारे लिये युद्ध करेगा।। इसराएल के सन्तान से कह कि वे आगे बढें़।। परन्तु तू अपनी छड़ी उठा और समुद्र पर अपना हाथ बढ़ा और उसे दो भाग कर और इसराएल के सन्तान समुद्र के बीचों बीच से सूखी भूमि में होकर चले जायेंगे।। -तौन या० प० १४। आ० १४। १५। १६।।
(समीक्षक) क्यों जी! आगे तो ईश्वर भेड़ों के पीछे गड़रिये के समान इस्रायेल कुल के पीछे-पीछे डोला करता था। अब न जाने कहां अन्तर्धान हो गया? नहीं तो समुद्र के बीच में से चारों ओर की रेलगाड़ियों की सड़क बनवा लेते जिससे सब संसार का उपकार होता और नाव आदि बनाने का श्रम छूट जाता। परन्तु क्या किया जाय, ईसाइयों का ईश्वर न जाने कहाँ छिप रहा है? इत्यादि बहुत सी मूसा के साथ असम्भव लीला बाइबल के ईश्वर ने की हैं परन्तु यह विदित हुआ कि जैसा ईसाइयों का ईश्वर है वैसे ही उसके सेवक और ऐसी ही उसकी बनाई पुस्तक है। ऐसी पुस्तक और ऐसा ईश्वर हम लोगों से दूर रहै तभी अच्छा है।।४३।।
४४-क्योंकि मैं परमेश्वर तेरा ईश्वर ज्वलित सर्वशक्तिमान् हूं। पितरों के अपराध का दण्ड उनके पुत्रें को जो मेरा वैर रखते हैं उनकी तीसरी और चौथी पीढ़ी लों देवैया हूं।। -तौन या० प० २०। आ० ५।।
(समीक्षक) भला यह किस घर का न्याय है कि जो पिता के अपराध से चार पीढ़ी तक दण्ड देना अच्छा समझना। क्या अच्छे पिता के दुष्ट और दुष्ट के अच्छे सन्तान नहीं होते? जो ऐसा है तो चौथी पीढ़ी तक दण्ड कैसे दे सकेगा? और जो पांचवीं पीढ़ी से आगे दुष्ट होगा उसको दण्ड न दे सकेगा। विना अपराध किसी को दण्ड देना अन्यायकारी की बात है।।४४।।
४५-विश्राम के दिन को उसे पवित्र रखने के लिये स्मरण कर।। छः दिन लों तू परिश्रम कर।। परन्तु सातवां दिन परमेश्वर तेरे ईश्वर का विश्राम है।। परमेश्वर ने विश्राम दिन को आशीष दिई।। -तौन या० प० २०। आ० ८। ९। १०। ११।।
(समीक्षक) क्या रविवार एक ही पवित्र और छः दिन अपवित्र हैं? और क्या परमेश्वर ने छः दिन तक कड़ा परिश्रम किया था कि जिससे थक के सातवें दिन सो गया? और जो रविवार को आशीर्वाद दिया तो सोमवार आदि छः दिन को क्या दिया? अर्थात् शाप दिया होगा। ऐसा काम विद्वान् का भी नहीं तो ईश्वर का क्यों कर हो सकता है? भला रविवार में क्या गुण और सोमवार आदि ने क्या दोष किया था कि जिससे एक को पवित्र तथा वर दिया और अन्यों को ऐसे ही अपवित्र कर दिये।।४५।।
४६-अपने परोसी पर झूठी साक्षी मत दे।। अपने परोसी की स्त्री और उसके दास उसकी दासी और उसके बैल और उसके गदहे और किसी वस्तु का जो तेरे परोसी की है; लालच मत कर।। -तौन या० प० २०। आ० १६। १७।।
(समीक्षक) वाह! तभी तो ईसाई लोग परदेशियों के माल पर ऐसे झुकते हैं कि जानो प्यासा जल पर, भूखा अन्न पर। जैसी यह केवल मतलब सिन्धु और पक्षपात की बात है ऐसा ही ईसाइयों का ईश्वर अवश्य होगा। यदि कोई कहे कि हम सब मनुष्य मात्र को परोसी मानते हैं तो सिवाय मनुष्य के अन्य कौन स्त्री और दासी आदि वाले हैं कि जिनको अपरोसी गिनें? इसलिये ये बातें स्वार्थी मनुष्यों की हैं; ईश्वर की नहीं।।४६।।
४७-जो कोई किसी मनुष्य को मारे और वह मर जाये वह निश्चय घात किया जाय।। और वह मनुष्य घात में न लगा हो परन्तु ईश्वर ने उसके हाथ में सौंप दिया हो तब मैं तुझे भागने का स्थान बता दूँगा।।
-तौन या० प० २१। आ० १२। १३।।
(समीक्षक) जो यह ईश्वर का न्याय सच्चा है तो मूसा एक आदमी को मार गाड़ कर भाग गया था उसको यह दण्ड क्यों न हुआ? जो कहो ईश्वर ने मूसा को मारने के निमित्त सौंपा था तो ईश्वर पक्षपाती हुआ क्योंकि उस मूसा का राजा से न्याय क्यों न होने दिया? ।।४७।।
४८-और कुशल का बलिदान बैलों से परमेश्वर के लिए चढ़ाया।। और मूसा ने आधा लोहू लेके पात्रें में रक्खा और आधा लोहू वेदी पर छिड़का।। और मूसा ने उस लोहू को लेके लोगों पर छिड़का और कहा कि यह लोहू उस नियम का है जिसे परमेश्वर ने इन बातों के कारण तुम्हारे साथ किया है।। और परमेश्वर ने मूसा से कहा कि पहाड़ पर मुझ पास आ और वहां रह और मैं तुझे पत्थर की पटियां और व्यवस्था और आज्ञा मैने लिखी है; दूंगा।।
-तौन या० प० २२। आ० ५। ६। ८। १२।।
(समीक्षक) अब देखिये! ये सब जंगली लोगों की बातें हैं वा नहीं? और परमेश्वर बैलों का बलिदान लेता और वेदी पर लोहू छिड़कना यह कैसी जंगलीपन और असभ्यता की बात है? जब ईसाइयों का खुदा भी बैलों का बलिदान लेवे तो उसके भक्त बैल गाय के बलिदान की प्रसादी से पेट क्यों न भरें? और जगत् की हानि क्यों न करें? ऐसी-ऐसी बुरी बातें बाइबल में भरी हैं। इसी के कुसंस्कारों से वेदों में भी ऐसा झूठा दोष लगाना चाहते हैं परन्तु वेदों में ऐसी बातों का नाम भी नहीं। और यह भी निश्चय हुआ कि ईसाइयों का ईश्वर एक पहाड़ी मनुष्य था, पहाड़ पर रहता था। जब वह खुदा स्याही, लेखनी, कागज, नहीं बना जानता और न उसको प्राप्त था इसीलिये पत्थर की पटियों पर लिख-लिख देता था और इन्हीं जंगलियों के सामने ईश्वर भी बन बैठा था।।४८।।
४९-और बोला कि तू मेरा रूप नहीं देख सकता क्योंकि मुझे देख के कोई मनुष्य न जीयेगा।। और परमेश्वर ने कहा कि देख एक स्थान मेरे पास है और तू उस टीले पर खड़ा रह।। और यों होगा कि जब मेरा विभव चल निकलेगा तो मैं तुझे पहाड़ के दरार में रक्खूँगा और जब लों जा निकलूं तुझे अपने हाथ से ढांपूंगा।। और अपना हाथ उठा लूंगा और तू मेरा पीछा देखेगा परन्तु मेरा रूप दिखाई न देगा।। -तौन या० प० ३३। आ० २०। २१। २२। २३।।
(समीक्षक) अब देखिये! ईसाइयों का ईश्वर केवल मनुष्यवत् शरीर- धारी और मूसा से कैसा प्रपञ्च रच के आप स्वयम् ईश्वर बन गया। जो पीछा देखेगा, रूप न देखेगा तो हाथ से उसको ढांप दिया भी न होगा। जब खुदा ने अपने हाथ से मूसा को ढांपा होगा तब क्या उसके हाथ का रूप उसने न देखा होगा? ।।४९।।
लैव्य व्यवस्था की पुस्तक तौ०
५०-और परमेश्वर ने मूसा को बुलाया और मण्डली के तम्बू में से यह वचन उसे कहा।। कि इसराएल के सन्तानों से बोल और उन्हें कह यदि कोई तुम्में से परमेश्वर के लिये भेंट लावे तो तुम ढोर में से अर्थात् गाय बैल और भेड़ बकरी में से अपनी भेंट लाओ।। -तौन लैव्य व्यवस्था की पुस्तक, प० १। आ० १। २।।
(समीक्षक) अब विचारिये! ईसाइयों का परमेश्वर गाय बैल आदि की भेंट लेने वाला जो कि अपने लिये बलिदान कराने के लिये उपदेश करता है। वह बैल गाय आदि पशुओं के लोहू मांस का प्यासा भूखा है वा नहीं? इसी से वह अहिसक और ईश्वर कोटि में गिना कभी नहीं जा सकता किन्तु मांसाहारी प्रपञ्ची मनुष्य के सदृश है।।५०।।
५१-और वह उस बैल को परमेश्वर के आगे बलि करे और हारून के बेटे याजक लोहू को निकट लावें और लोहू को यज्ञवेदी के चारों ओर जो मण्डली के तम्बू के द्वार पर है; छिड़कें।। तब वह उस भेंट के बलिदान की खाल निकाले और उसे टुकड़ा-टुकड़ा करे।। और हारून के बेटे याजक यज्ञवेदी पर आग रक्खें और उस पर लकड़ी चुनें।। और हारून के बेटे याजक उसके टुकड़ों को और सिर और चिकनाई को उन लकड़ियों पर जो यज्ञवेदी की आग पर हैं; विधि से धरें।। जिसतें बलिदान की भेंट होवे जो आग से परमेश्वर के सुगन्ध के लिये भेंट किया गया।। -तौन लै० व्यवस्था की पुस्तक, प० १। आ० ५। ६। ७। ८। ९।।
(समीक्षक) तनिक विचारिये! कि बैल को परमेश्वर के आगे उसके भक्त मारें और वह मरवावे और लोहू को चारों ओर छिड़कें, अग्नि में होम करें, ईश्वर सुगन्ध लेवे, भला यह कसाई के घर से कुछ कमती लीला है? इसी से न बाइबल ईश्वरकृत और न वह जंगली मनुष्य के सदृश लीलाधारी ईश्वर हो सकता है।।५१।।
५२-फिर परमेश्वर मूसा से यह कह के बोला।। यदि वह अभिषेक किया हुआ याजक लोगों के पाप के समान पाप करे तो वह अपने पाप के कारण जो उसने किया है अपने पाप की भेंट के लिए निसखोट एक बछिया को परमेश्वर के लिये लावे।। और बछिया के शिर पर अपना हाथ रक्खे और बछिया को परमेश्वर के आगे बलि करे।। -तौन लै० व्य० प० ४। आ० १। ३। ४।।
(समीक्षक) अब देखिये पापों के छुड़ाने के प्रायश्चित्त ! स्वयं पाप करें, गाय आदि उत्तम पशुओं की हत्या करें और परमेश्वर करवावे। धन्य हैं ईसाई लोग कि ऐसी बातों के करने करानेहारे को भी ईश्वर मान कर अपनी मुक्ति आदि की आशा करते हैं!!! ।।५२।।
५३-जब कोई अध्यक्ष पाप करे। तब वह बकरी का निसखोट नर मेम्ना अपनी भेंट के लिये लावे।। और उसे परमेश्वर के आगे बलि करे यह पाप की भेंट है।। -तौन लै० प० ४। आ० २२। २३। २४।।
(समीक्षक) वाह जी? वाह? यदि ऐसा है तो इनके अध्यक्ष अर्थात् न्यायाधीश तथा सेनापति आदि पाप करने से क्यों डरते होंगे? आप तो यथेष्ट पाप करें और प्रायश्चित्त के बदले में गाय, बछिया, बकरे आदि के प्राण लेवें। तभी तो ईसाई लोग किसी पशु वा पक्षी के प्राण लेने में शंकित नहीं होते। सुनो ईसाई लोगो! अब तो इस जंगली मत को छोड़ के सुसभ्य धर्ममय वेदमत को स्वीकार करो कि जिससे तुम्हारा कल्याण हो।।५३।।
५४-और यदि उसे भेड़ लाने की पूंजी न हो तो वह अपने किये हुए अपराध के लिए दो पिंडुकियाँ और कपोत के दो बच्चे परमेश्वर के लिये लावे।। और उसका सिर उसके गले के पास से मरोड़ डाले परन्तु अलग न करे।। उसके किये हुए पाप का प्रायश्चित्त करे और उसके लिये क्षमा किया जायगा।। पर यदि उसे दो पिंडुकियाँ और कपोत के दो बच्चे लाने की पूंजी न हो तो सेर भर चोखा पिसान का दशवाँ हिस्सा पाप की भेंट के लिये लावे· उस पर तेल न डाले।। और वह क्षमा किया जायेगा।। -तौन लै० प० ५। आ० ७। ८। १०। ११। १३।।
(समीक्षक) अब सुनिये! ईसाइयों में पाप करने से कोई धनाढ्य न डरता होगा और न दरिद्र भी, क्योंकि इनके ईश्वर ने पापों का प्रायश्चित्त करना सहज कर रक्खा है। एक यह बात ईसाइयों की बाइबल में बड़ी अद्भुत है कि विना कष्ट किये पाप से छूट जाय। क्योंकि एक तो पाप किया और दूसरे जीवों की हिसा की और खूब आनन्द से मांस खाया और पाप भी छूट गया। भला! कपोत के बच्चे का गला मरोड़ने से वह बहुत देर तक तड़फता होगा तब भी ईसाइयों को दया नहीं आती। दया क्योंकर आवे! इनके ईश्वर का उपदेश ही हिसा करने का है। और जब सब पापों का ऐसा प्रायश्चित्त है तो ईसा के विश्वास से पाप छूट जाता है यह बड़ा आडम्बर क्यों करते हैं।।५४।।
५५-सो उसी बलिदान की खाल उसी याजक की होगी जिसने उसे चढ़ाया।।
- इस ईश्वर को धन्य है कि जिसने बछड़ा, भेड़ी और बकरी का बच्चा, कपोत और पिसान (आटे) तक लेने का नियम किया । अद्भुत बात तो यह है कि कपोत के बच्चे ‘‘गरदन मरोड़वा के’’ लेता था अर्थात् गर्दन तोड़ने का परिश्रम न करना पड़े । इन सब बातों के देखने से विदित होता है कि जंगलियों में कोई चतुर पुरुष था वह पहाड़ पर जा बैठा और अपने को ईश्वर प्रसिद्ध किया । जंगली अज्ञानी थे, उन्होंने उसी को ईश्वर स्वीकार कर लिया । अपनी युक्तियों से वह पहाड़ पर ही खाने के लिए पशु, पक्षी और अन्नादि मंगा लिया करता था और मौज करता था । उसके दूत फरिश्ते काम किया करते थे । सज्जन लोग विचारें कि कहां तो बाइबल में बछड़ा, भेड़ी, बकरी का बच्चा, कपोत और ‘‘अच्छे’’ पिसान का खाने वाला ईश्वर और कहां सर्वव्यापक, सर्वज्ञ, अजन्मा, निराकार, सर्वशक्तिमान् और न्यायकारी इत्यादि उत्तम गुणयुक्त वेदोक्त ईश्वर ?
और समस्त भोजन की भेंट जो तन्दूर में पकाई जावें और सब जो कड़ाही में अथवा तवे पर सो उसी याजक की होगी।। -तौन लै० प० ७। आ० ८। ९।।
(समीक्षक) हम जानते थे कि यहाँ देवी के भोपे और मन्दिरों के पुजारियों की पोपलीला विचित्र है परन्तु ईसाइयों के ईश्वर और उनके पुजारियों की पोपलीला इससे सहस्रगुणी बढ़कर है। क्योंकि चाम के दाम और भोजन के पदार्थ खाने को आवें फिर ईसाइयों के याजकों ने खूब मौज उड़ाई होगी? और अब भी उड़ाते होंगे। भला कोई मनुष्य एक लड़के को मरवावे और दूसरे लड़के को उसका मांस खिलावे ऐसा कभी हो सकता है? वैसे ही ईश्वर के सब मनुष्य और पशु, पक्षी आदि सब जीव पुत्रवत् हैं। परमेश्वर ऐसा काम कभी नहीं कर सकता। इसी से यह बाइबल ईश्वरकृत और इसमें लिखा ईश्वर और इसके मानने वाले धर्मज्ञ कभी नहीं हो सकते। ऐसे ही सब बातें लैव्य व्यवस्था आदि पुस्तकों में भरी हैं; कहाँ तक गिनावें।।५५।।
गिनती की पुस्तक
५६-सो गदही ने परमेश्वर के दूत को अपने हाथ में तलवार खींचे हुए मार्ग में खड़ा देखा तब गदही मार्ग से अलग खेत में फिर गई, उसे मार्ग में फिरने के लिये बलआम ने गदही को लाठी से मारा। तब परमेश्वर ने गदही का मुंह खोला और उसने बलआम से कहा कि मैंने तेरा क्या किया है कि तूने मुझे अब तीन बार मारा।। -तौन गि० प० २२। आ० २३। २८।।
(समीक्षक) प्रथम तो गदहे तक ईश्वर के दूतों को देखते थे और आज कल बिशप पादरी आदि श्रेष्ठ वा अश्रेष्ठ मनुष्यों को भी खुदा वा उसके दूत नहीं दीखते हैं। क्या आजकल परमेश्वर और उसके दूत हैं वा नहीं? यदि हैं तो क्या बड़ी नींद में सोते हैं? वा रोगी अथवा अन्य भूगोल में चले गये? वा किसी अन्य धन्धे में लग गये? वा अब ईसाइयों से रुष्ट हो गये? अथवा मर गये? विदित नहीं होता कि क्या हुआ? अनुमान तो ऐसा होता है कि जो अब नहीं हैं, नहीं दीखते तो तब भी नहीं थे और न दीखते होंगे। किन्तु ये केवल मनमाने गपोड़े उड़ाये हैं।।५६।।
५७-सो अब लड़कों में से हर एक बेटे को और हर एक स्त्री को जो पुरुष से संयुक्त हुई हो प्राण से मारो।। परन्तु वे बेटियां जो पुरुष से संयुक्त नहीं हुई हैं उन्हें अपने लिये जीती रक्खो।। -तौन गिनती प० ३१। आ० १७। १८।।
(समीक्षक) वाह जी ! मूसा पैगम्बर और तुम्हारा ईश्वर धन्य है कि जो स्त्री, बालक, वृद्ध और पशु की हत्या करने से भी अलग न रहे। और इससे स्पष्ट निश्चित होता है कि मूसा विषयी था। क्योंकि जो विषयी न होता तो अक्षतयोनि अर्थात् पुरुषों से समागम न की हुई कन्याओं को अपने लिये क्यों मंगवाता वा उनको ऐसी निर्दयी वा विषयीपन की आज्ञा क्यों देता? ।।५७।।
समुएल की दूसरी पुस्तक
५८-और उसी रात ऐसा हुआ कि परमेश्वर का वचन यह कह के नातन को पहुंचा।। कि जा और मेरे सेवक दाऊद से कह कि परमेश्वर यों कहता है कि क्या मेरे निवास के लिए तू एक घर बनवायेगा।। क्योंकि जब से इसराएल के सन्तान को मिस्र से निकाल लाया मैंने तो आज के दिन लों घर में वास न किया परन्तु तम्बू में और डेरे में फिरा किया।। -तौन समुएल की दूसरी पु० प० ७। आ० ४। ५। ६।।
(समीक्षक) अब कुछ सन्देह न रहा कि ईसाइयों का ईश्वर मनुष्यवत् देहधारी नहीं है और उलहना देता है कि मैंने बहुत परिश्रम किया, इधर उधर डोलता फिरा, अब दाऊद घर बनादे तो उसमें आराम करूं। क्यों ईसाइयों को ऐसे ईश्वर और ऐसे पुस्तक को मानने में लज्जा नहीं आती? परन्तु क्या करें बिचारे फंस ही गये। अब निकलने के लिए बड़ा पुरुषार्थ करना उचित है।।५८।।
राजाओं की पुस्तक
५९-और बाबेल के राजा नबुखुदनजर के राज्य के उन्नीसवें बरस के पांचवें मास सातवीं तिथि में बाबुल के राजा का एक सेवक नबूसर अद्दान जो निज सेना का प्रधान अध्यक्ष था, यरूसलम में आया।। और उसने परमेश्वर का मन्दिर और राजा का भवन और यरूसलम के सारे घर और हर एक बड़े घर को जला दिया।। और कसदियों की सारी सेना ने जो उस निज सेना के अध्यक्ष के साथ थी यरूसलम की भीतों को चारों ओर से ढा दिया।।
-तौन रा० पु० २। प० २५। आ० ८। ९। १०।।
(समीक्षक) क्या किया जाय? ईसाइयों के ईश्वर ने तो अपने आराम के लिये दाऊद आदि से घर बनवाया था। उसमें आराम करता होगा, परन्तु नबूसर अद्दान ने ईश्वर के घर को नष्ट-भ्रष्ट कर दिया और ईश्वर वा उसके दूतों की सेना कुछ भी न कर सकी। प्रथम तो इनका ईश्वर बड़ी-बड़ी लड़ाइयां मारता था और विजयी होता था परन्तु अब अपना घर जला तुड़वा बैठा। न जाने चुपचाप क्यों बैठा रहा? और न जाने उसके दूत किधर भाग गये? ऐसे समय पर कोई भी काम न आया और ईश्वर का पराक्रम भी न जाने कहाँ उड़ गया? यदि यह बात सच्ची हो तो जो जो विजय की बातें प्रथम लिखीं सो-सो सब व्यर्थ हो गईं। क्या मिस्र के लड़के लड़कियों के मारने में ही शूरवीर बना था? अब शूरवीरों के सामने चुपचाप हो बैठा? यह तो ईसाइयों के ईश्वर ने अपनी निन्दा और अप्रतिष्ठा करा ली। ऐसी ही हजारों इस पुस्तक में निकम्मी कहानियां भरी हैं।।५९।।
जबूर का दूसरा भाग
काल के समाचार की पहली पुस्तक
६०-सो परमेश्वर ने इसराएल पर मरी भेजी और इसराएल में से सत्तर सहस्र पुरुष गिर गये।। -जबूर २। काल० पु० प० २१। आ० १४।।
(समीक्षक) अब देखिये इसराएल के ईसाइयों के ईश्वर की लीला! जिस इसराएल कुल को बहुत से वर दिये थे और रात दिन जिनके पालन में डोलता था अब झट क्रोधित होकर मरी डाल के सत्तर सहस्र मनुष्यों को मार डाला। जो यह किसी कवि ने लिखा है सत्य है कि-
क्षणे रुष्टः क्षणे तुष्टो रुष्टस्तुष्टः क्षणे क्षणे ।
अव्यवस्थितचित्तस्य प्रसादोऽपि भयंकरः ।।
जैसे कोई मनुष्य क्षण में प्रसन्न, क्षण में अप्रसन्न होता है, अर्थात् क्षण-क्षण
में प्रसन्न अप्रसन्न होवे उसकी प्रसन्नता भी भयदायक होती है वैसी लीला ईसाइयों के ईश्वर की है।।६०।।
ऐयूब की पुस्तक
६१-और एक दिन ऐसा हुआ कि परमेश्वर के आगे ईश्वर के पुत्र आ खड़े हुए और शैतान भी उनके मध्य में परमेश्वर के आगे आ खड़ा हुआ।। और परमेश्वर ने शैतान से कहा कि तू कहां से आता है? तब शैतान ने उत्तर दे के परमेश्वर से कहा कि पृथिवी पर घूमते और इधर उधर से फिरते चला आता हूं।। तब परमेश्वर ने शैतान से पूछा कि तूने मेरे दास ऐयूब को जांचा है कि उसके समान पृथिवी में कोई नहीं है वह सिद्ध और खरा जन ईश्वर से डरता और पाप से अलग रहता है और अब लों अपनी सच्चाई को धर रक्खा है और तूने मुझे उसे अकारण नाश करने को उभारा है।। तब शैतान ने उत्तर दे के परमेश्वर से कहा कि चाम के लिये चाम हां जो मनुष्य का है सो अपने प्राण के लिये देगा।। परन्तु अब अपना हाथ बढ़ा और उसके हाड़ मांस को छू तब वह निःसन्देह तुझे तेरे सामने त्यागेगा।। तब परमेश्वर ने शैतान से कहा कि देख वह तेरे हाथ में है, केवल उसके प्राण को बचा।। तब शैतान परमेश्वर के आगे से चला गया और ऐयूब को सिर से तलवे लों बुरे फोड़ों से मारा।।
-जबूर ऐयू० प० २। आ० १। २। ३। ४। ५। ६। ७।।
(समीक्षक) अब देखिये ईसाइयों के ईश्वर का सामर्थ्य ! कि शैतान उसके सामने उसके भक्तों को दुःख देता है। न शैतान को दण्ड, न अपने भक्तों को बचा सकता है और न दूतों में से कोई उसका सामना कर सकता है। एक शैतान ने सब को भयभीत कर रक्खा है। और ईसाइयों का ईश्वर भी सर्वज्ञ नहीं है। जो सर्वज्ञ होता तो ऐयूब की परीक्षा शैतान से क्यों कराता? ।।६१।।
उपदेश की पुस्तक
६२-हां! अन्तःकरण ने बुद्धि और ज्ञान बहुत देखा है।। और मैंने बुद्धि और बौड़ाहपन और मूढ़ता जान्ने को मन लगाया। मैंने जान लिया कि यह भी मन का झंझट है।। क्योंकि अधिक बुद्धि में बड़ा शोक है और जो ज्ञान में बढ़ता है सो दुःख में बढ़ता है।। -जन उ० प० १। आ० १६। १७। १८।।
(समीक्षक) अब देखिये ! जो बुद्धि और ज्ञान पर्यायवाची हैं उनको दो मानते हैं। और बुद्धि वृद्धि में शोक और दुःख मानना विना अविद्वानों के ऐसा लेख कौन कर सकता है? इसलिये यह बाइबल ईश्वर की बनाई तो क्या किसी विद्वान् की भी बनाई नहीं है।।६२।।
यह थोड़ा सा तौरेत जबूर के विषय में लिखा। इसके आगे कुछ मत्तीरचित आदि इञ्जील के विषय में लिखा जाता है कि जिसको ईसाई लोग बहुत प्रमाणभूत मानते हैं। जिसका नाम इञ्जील रक्खा है उसकी परीक्षा थोड़ी सी लिखते हैं कि यह कैसी है।
मत्ती रचित इञ्जील
६३-यीशु ख्रीष्ट का जन्म इस रीति से हुआ-उसकी माता मरियम की यूसफ से मंगनी हुई थी पर उनके इकट्ठे होने के पहिले ही वह देख पड़ी कि पवित्र आत्मा से गर्भवती है।। देखो परमेश्वर के एक दूत ने स्वप्न में उसे दर्शन दे कहा, हे दाऊद के सन्तान यूसफ ! तू अपनी स्त्री मरियम को यहां लाने से मत डर क्योंकि उसको जो गर्भ रहा है सो पवित्र आत्मा से है।।
-इं० प० १। आ० १८। २०।।
(समीक्षक) इन बातों को कोई विद्वान् नहीं मान सकता कि जो प्रत्यक्षादि प्रमाण और सृष्टिक्रम से विरुद्ध हैं। इन बातों का मानना मूर्ख मनुष्य जंगलियों का काम है; सभ्य विद्वानों का नहीं। भला ! जो परमेश्वर का नियम है उसको कोई तोड़ सकता है? जो परमेश्वर भी नियम को उलटा पलटा करे तो उसकी आज्ञा को कोई न माने और वह भी सर्वज्ञ और निर्भ्रम न रहै। ऐसे तो जिस-जिस कुमारिका के गर्भ रह जाय तब सब कोई ऐसे कह सकते हैं कि इसमें गर्भ का रहना ईश्वर की ओर से है और झूठ मूठ कह दे कि परमेश्वर के दूत ने मुझ को स्वप्न में कह दिया है कि यह गर्भ परमात्मा की ओर से है। जैसा यह असम्भव प्रपञ्च रचा है वैसा ही सूर्य्य से कुन्ती का गर्भवती होना भी पुराणों में असम्भव लिखा है। ऐसी-ऐसी बातों को आंख के अन्धे और गांठ के पूरे लोग मान कर भ्रमजाल में गिरते हैं। यह ऐसी बात हुई होगी कि किसी पुरुष के साथ समागम होने से गर्भवती मरियम हुई होगी। उसने वा किसी दूसरे ने ऐसी असम्भव बात उड़ा दी होगी कि इस में गर्भ ईश्वर की ओर से है।।६३।।
६४-तब आत्मा यीशु को जंगल में ले गया कि शैतान से उसकी परीक्षा की जाय।। वह चालीस दिन और चालीस रात उपवास करके पीछे भूखा हुआ।। तब परीक्षा करनेहारे ने कहा कि जो तू ईश्वर का पुत्र है तो कह दे कि ये पत्थर रोटियां बन जावें।। -इं० मत्ती प० ४। आ० १। २। ३।।
(समीक्षक) इससे स्पष्ट सिद्ध होता है कि ईसाइयों का ईश्वर सर्वज्ञ नहीं। क्योंकि जो सर्वज्ञ होता तो उसकी परीक्षा शैतान से क्यों कराता? स्वयं जान लेता। भला ! किसी ईसाई को आज कल चालीस रात चालीस दिन भूखा रक्खें तो कभी बच सकेगा? और इससे यह भी सिद्ध हुआ कि न वह ईश्वर का बेटा और न कुछ उसमें करामात अर्थात् सिद्धि थी। नहीं तो शैतान के सामने पत्थर की रोटियां क्यों न बना देता? और आप भूखा क्यों रहता? और सिद्धान्त यह है कि जो परमेश्वर ने पत्थर बनाये हैं उनको रोटी कोई भी नहीं बना सकता और ईश्वर भी पूर्वकृत नियम को उलटा नहीं कर सकता क्योंकि वह सर्वज्ञ और उसके सब काम बिना भूल चूक के हैं।।६४।।
६५-उसने उनसे कहा मेरे पीछे आओ मैं तुमको मनुष्यों के मछुवे बनाऊंगा।। वे तुरन्त जालों को छोड़ के उसके पीछे हो लिये। -इं० मत्ती प० ४। आ० १९। २०।।
(समीक्षक) विदित होता है कि इसी पाप अर्थात् जो तौरेत में दश आज्ञाओं में लिखा है कि ‘सन्तान लोग अपने माता पिता की सेवा और मान्य करें जिससे उनकी उमर बढ़े’ सो ईसा ने न अपने माता पिता की सेवा की और दूसरों को भी माता पिता की सेवा से छुड़ाये, इसी अपराध से चिरंजीवी न रहा। और यह भी विदित हुआ कि ईसा ने मनुष्यों के फंसाने के लिये एक मत चलाया है कि जाल में मच्छी के समान मनुष्यों को स्वमत जाल में फंसाकर अपना प्रयोजन साधें। जब ईसा ही ऐसा था तो आज कल के पादरी लोग अपने जाल में मनुष्यों को फंसावें तो क्या आश्चर्य है? क्योंकि जैसे बड़ी-बड़ी और बहुत मच्छियों को जाल में फंसाने वाले की प्रतिष्ठा और जीविका अच्छी होती है, ऐसे ही जो बहुतों को अपने मत में फंसा ले उसकी अधिक प्रतिष्ठा और जीविका होती है। इसी से ये लोग जिन्होंने वेद और शास्त्रें को न पढ़ा न सुना उन बिचारे भोले मनुष्यों को अपने जाल में फंसा के उस के मां बाप कुटुम्ब आदि से पृथक् कर देते हैं। इससे सब विद्वान् आर्यों को उचित है कि स्वयम् इनके भ्रमजाल से बच कर अन्य अपने भोले भाइयों को बचाने में तत्पर रहैं।।६५।।
६६-तब यीशु सारे गालील देश में उनकी सभाओं में उपदेश करता हुआ और राज्य का सुसमाचार प्रचार करता हुआ और लोगों में हर एक रोग और हर एक व्याधि को चंगा करता हुआ फिरा किया।। सब रोगियों को जो नाना प्रकार के रोगों और पीड़ाओं से दुःखी थे और भूतग्रस्तों और मृगी वाले अर्द्धांगियों को उसके पास लाये और उसने उन्हें चंगा किया।। -इं० मत्ती प० ४। आ० २३। २४।।
(समीक्षक) जैसे आजकल पोपलीला निकालने मन्त्र पुरश्चरण आशीर्वाद ताबीज और भस्म की चुटुकी देने से भूतों को निकालना रोगों को छुड़ाना सच्चा हो तो वह इञ्जील की बात भी सच्ची होवे। इस कारण भोले मनुष्यों के भ्रम में फंसाने के लिये ये बातें हैं। जो ईसाई लोग ईसा की बातों को मानते हैं तो यहां के देवी भोपों की बातें क्यों नहीं मानते? क्योंकि वे बातें इन्हीं के सदृश हैं।।६६।।
६७-धन्य वे जो मन में दीन हैं क्योंकि स्वर्ग का राज्य उन्हीं का है।। क्योंकि मैं तुमसे सच कहता हूँ कि जब लों आकाश और पृथिवी टल न जायें तब लों व्यवस्था से एक मात्र अथवा एक बिन्दु बिना पूरा हुए नहीं टलेगा।। इसलिये इन अति छोटी आज्ञाओं में से एक को लोप करे और लोगों को वैसे ही सिखावे वह स्वर्ग के राज्य में सब से छोटा कहावेगा।। -इं० मत्ती प० ५। आ० ३। १८। १९।।
(समीक्षक) जो स्वर्ग एक है तो राजा भी एक होना चाहिये। इसलिये जितने दीन हैं वे सब स्वर्ग को जावेंगे तो स्वर्ग में राज्य का अधिकार किसको होगा। अर्थात् परस्पर लड़ाई-भिड़ाई करेंगे और राज्यव्यवस्था खण्ड-बण्ड हो जायेगी। और दीन के कहने से जो कंगले लोगे, तब तो ठीक नहीं। जो निरभिमानी लोगे तो भी ठीक नहीं; क्योंकि दीन और निर् अभिमान का एकार्थ नहीं। किन्तु जो मन में दीन होता है उसको सन्तोष कभी नहीं होता इसलिये यह बात ठीक नहीं। जब आकाश पृथिवी टल जायें तब व्यवस्था भी टल जायेगी ऐसी अनित्य व्यवस्था मनुष्यों की होती है; सर्वज्ञ ईश्वर की नहीं। और यह एक प्रलोभन और भयमात्र दिया है कि जो इन आज्ञाओं को न मानेगा वह स्वर्ग में सब से छोटा गिना जायेगा।।६७।।
६८-हमारी दिन भर की रोटी आज हमें दे।। अपने लिए पृथिवी पर धन का संचय मत करो।। -इं० म० प० ६। आ० ११। १९।।
(समीक्षक) इससे विदित होता है कि जिस समय ईसा का जन्म हुआ है उस समय लोग जंगली और दरिद्र थे तथा ईसा भी वैसा ही दरिद्र था। इसी से तो दिन भर की रोटी की प्राप्ति के लिये ईश्वर की प्रार्थना करता और सिखलाता है। जब ऐसा है तो ईसाई लोग धन संचय क्यों करते हैं? उनको चाहिये कि ईसा के वचन से विरुद्ध न चल कर सब दान पुण्य करके दीन हो जायें।।६८।।
६९-हर एक जो मुझ से हे प्रभु हे प्रभु कहता है स्वर्ग के राज्य में प्रवेश नहीं करेगा।। -इं० म० प० ७। आ० २१।।
(समीक्षक) अब विचारिये! बडे़-बड़े पादरी बिशप साहेब और कृश्चीन लोग जो यह ईसा का वचन सत्य है ऐसा समझें तो ईसा को प्रभु अर्थात् ईश्वर कभी न कहें। यदि इस बात को न मानेंगे तो पाप से कभी नहीं बच सकेंगे।।६९।।
७०-उस दिन में बहुतेरे मुझ से कहेंगे।। तब मैं उनसे खोल के कहूँगा मैंने तुम को कभी नहीं जाना। हे कुकर्म्म करनेहारो! मुझ से दूर होओ।।
-इं० म० प० ७। आ० २२। २३।।
(समीक्षक) देखिये! ईसा जंगली मनुष्यों को विश्वास कराने के लिए स्वर्ग में न्यायाधीश बनना चाहता था। यह केवल भोले मनुष्यों को प्रलोभन देने की बात है।।७०।।
७१-और देखो एक कोढ़ी ने आ उसको प्रणाम कर कहा हे प्रभु ! जो आप चाहें तो मुझे शुद्ध कर सकते हैं।। यीशु ने हाथ बढ़ा उसे छूके कहा मैं तो चाहता हूँ शुद्ध हो जा और उसका कोढ़ तुरन्त शुद्ध हो गया।।
-इं० म० प० ८। आ० २। ३।।
(समीक्षक) ये सब बातें भोले मनुष्यों के फंसाने की हैं। क्योंकि जब ईसाई लोग इन विद्या सृष्टिक्रमविरुद्ध बातों को सत्य मानते हैं तो शुक्राचार्य्य, धन्वन्तरि, कश्यप आदि की बातें जो पुराण और भारत में अनेक दैत्यों की मरी हुई सेना को जिला दी। बृहस्पति के पुत्र कच को टुकड़ा-टुकड़ा कर जानवर मच्छियों को खिला दिया, फिर भी शुक्राचार्य्य ने जीता कर दिया। पश्चात् कच को मार कर शुक्राचार्य्य को खिला दिया फिर उसको पेट में जीता कर बाहर निकाला। आप मर गया उसको कच ने जीता किया। कश्यप ऋषि ने मनुष्यसहित वृक्ष को तक्षक से भस्म हुए पीछे पुनः वृक्ष और मनुष्य को जिला दिया। धन्वन्तरि ने लाखों मुर्दे जिलाये। लाखों कोढ़ी आदि रोगियों को चंगा किया। लाखों अन्वमे और बहिरों को आंख और कान दिये इत्यादि कथा को मिथ्या क्यों कहते हैं? जो उक्त बातें मिथ्या हैं तो ईसा की बातें मिथ्या क्यों नहीं? जो दूसरे की बातों को मिथ्या और अपनी झूठी को सच्ची कहते हैं तो हठी क्यों नहीं। इसलिये ईसाइयों की बातें केवल हठ और लड़कों के समान हैं।।७१।।
७२-तब दो भूतग्रस्त मनुष्य कबरस्थान में से निकलते हुए उससे आ मिले। जो यहां लों अतिप्रचण्ड थे कि उस मार्ग से कोई नहीं जा सकता था।। और देखो उन्होंने चिल्ला के कहा हे यीशु ईश्वर पुत्र ! आपको हम से क्या काम, क्या आप समय के आगे हमें पीड़ा देने को यहां आये हैं।। सो भूतों ने उससे विनती कर कहा जो आप हमें निकालते हैं तो सूअरों के झुण्ड में पैठने दीजिये।। उसने उनसे कहा जाओ और वे निकल के सूअरों के झुण्ड में पैठे।। और देखो सूअरों का सारा झुण्ड कड़ाड़े पर से समुद्र में दौड़ गया और पानी में डूब मरा।।
-इं० म० प० ८। आ० २८। २९। ३१। ३२।।
(समीक्षक) भला! यहां तनिक विचार करें तो ये बातें सब झूठी हैं, क्योंकि मरा हुआ मनुष्य कबरस्थान से कभी नहीं निकल सकता। वे किसी पर न जाते न संवाद करते हैं। ये सब बातें अज्ञानी लोगों की हैं। जो कि महा जंगली हैं वे
ऐसी बातों पर विश्वास लाते हैं। और उन सूअरों की हत्या कराई। सूअरवालों की हानि करने का पाप ईसा को हुआ होगा। और ईसाई लोग ईसा को पाप क्षमा और पवित्र करने वाला मानते हैं तो उन भूतों को पवित्र क्यों न कर सका? और सूअर वालों की हानि क्यों न भर दी? क्या आजकल के सुशिक्षित ईसाई अंग्रेज लोग इन गपोड़ों को भी मानते होंगे? यदि मानते हैं तो भ्रमजाल में पड़े हैं।।७२।।
७३-देखो ! लोग एक अर्धांगी को जो खटोले पर पड़ा था उस पास लाये और यीशु ने उनका विश्वास देख के उस अर्धांगी से कहा हे पुत्र ! ढाढस कर, तेरे पाप क्षमा किये गये हैं।। मैं धर्मियों को नहीं परन्तु पापियों को पश्चात्ताप के लिये बुलाने आया हूँ।। -इं० म० प० ९। आ० २। १३।।
(समीक्षक) यह भी बात वैसी ही असम्भव है जैसी पूर्व लिख आये हैं और जो पाप क्षमा करने की बात है वह केवल भोले लोगों को प्रलोभन देकर फंसाना है। जैसे दूसरे के पिये मद्य, भांग अफीम खाये का नशा दूसरे को नहीं प्राप्त हो सकता वैसे ही किसी का किया हुआ पाप किसी के पास नहीं जाता किन्तु जो करता है वही भोगता है, यही ईश्वर का न्याय है। यदि दूसरे का किया पाप-पुण्य दूसरे को प्राप्त होवे अथवा न्यायावमीश स्वयं ले लेवें वा कर्त्ताओं ही को यथायोग्य फल ईश्वर न देवे तो वह अन्यायकारी हो जावे। देखो ! धर्म ही कल्याणकारक है; ईसा वा अन्य कोई नहीं। और धर्मात्माओं के लिये ईसा की कुछ आवश्यकता भी नहीं और न पापियों के लिये क्योंकि पाप किसी का नहीं छूट सकता।।७३।।
७४-यीशु ने अपने बारह शिष्यों को अपने पास बुला के उन्हें अशुद्ध भूतों पर अधिकार दिया कि उन्हें निकालें और हर एक रोग और हर एक व्याधि को चंगा करें।। बोलनेहारे तो तुम नहीं हो परन्तु तुम्हारे पिता का आत्मा तुम में बोलता है।। मत समझो कि मैं पृथिवी पर मिलाप करवाने को नहीं परन्तु खड्ग चलवाने आया हूँ।। मैं मनुष्य को उसके पिता से और बेटी को उसकी मां से और पतोहू को उसकी सास से अलग करने आया हूँ।। मनुष्य के घर ही के लोग उसके वैरी होंगे।। -इं० म० प० १०। आ० १। २०। ३४। ३५। ३६।।
(समीक्षक) ये वे ही शिष्य हैं जिन में से एक ३०) रुपये के लोभ पर ईसा को पकड़ावेगा और अन्य बदल कर अलग-अलग भागेंगे। भला ! ये बातें जब विद्या ही से विरुद्ध हैं कि भूतों का आना वा निकालना, विना ओषधि वा पथ्य के व्याधियों का छूटना सृष्टिक्रम से असम्भव है। इसलिए ऐसी-ऐसी बातों का मानना अज्ञानियों का काम है। यदि जीव बोलनेहारे नहीं, ईश्वर बोलनेहारा है तो जीव क्या काम करते हैं? और सत्य वा मिथ्याभाषण का फल सुख वा दुःख को ईश्वर ही भोगता होगा, यह भी एक मिथ्या बात है। और जैसा ईसा फूट कराने और लड़ाने को आया था वही आज कल कलह लोगों में चल रहा है। यह कैसी बड़ी बुरी बात है कि फूट कराने से सर्वथा मनुष्यों को दुःख होता है और ईसाइयों ने इसी को गुरुमन्त्र समझ लिया होगा। क्योंकि एक दूसरे की फूट ईसा ही अच्छी मानता था तो ये क्यों नहीं मानते होंगे? यह ईसा ही का काम होगा कि घर के लोगों के शत्रु घर के लोगों को बनाना, यह श्रेष्ठ पुरुष का काम नहीं।।७४।।
७५-तब यीशु ने उनसे कहा तुम्हारे पास कितनी रोटियां हैं। उन्होंने कहा सात और छोटी मछलियां।। तब उसने लोगों को भूमि पर बैठने की आज्ञा दी।। और उसने उन सात रोटियों को और मछलियों को धन्य मान के तोड़ा और अपने शिष्यों को दिया और शिष्यों ने लोगों को दिया।। सो सब खा के तृप्त हुए और जो टुकड़े बच रहे उनके सात टोकरे भरे उठाये।। जिन्होंने खाया सो स्त्रियों और बालकों को छोड़ चार सहस्र पुरुष थे।।
-इं० म० प० १५। आ० ३४। ३५। ३६। ३७। ३८।।
(समीक्षक) अब देखिये ! क्या यह आजकल के झूठे सिद्धों इन्द्रजाली आदि के समान छल की बात नहीं है? उन रोटियों में अन्य रोटियां कहां से आ गईं? यदि ईसा में ऐसी सिद्धियां होतीं तो आप भूखा हुआ गूलर के फल खाने को क्यों भटका करता था? अपने लिये मिट्टी पानी और पत्थर आदि से मोहनभोग, रोटियां क्यों न बना लीं? ये सब बातें लड़कों के खेलपन की हैं। जैसे कितने ही साधु वैरागी ऐसे छल की बातें करके भोले मनुष्यों को ठगते हैं वैसे ही ये भी हैं।।७५।।
७६-और तब वह हर एक मनुष्य को उसके कार्य्य के अनुसार फल देगा।। -इं० म० प० १६। आ० २७।।
(समीक्षक) जब कर्मानुसार फल दिया जायेगा तो ईसाइयों का पाप क्षमा होने का उपदेश करना व्यर्थ है और वह सच्चा हो तो यह झूठा होवे। यदि कोई कहे कि क्षमा करने के योग्य क्षमा किये जाते और क्षमा न करने के योग्य क्षमा नहीं किये जाते हैं यह भी ठीक नहीं। क्योंकि सब कर्मों के फल यथायोग्य देने ही से न्याय और पूरी दया होती है।।७६।।
७७-हे अविश्वासी और हठीले लोगो।। मैं तुमसे सत्य कहता हूँ यदि तुमको राई के एक दाने के तुल्य विश्वास होय तो तुम इस पहाड़ से जो कहोगे कि यहाँ से वहां चला जा, वह जायेगा और कोई काम तुम से असाध्य नहीं होगा।।
-इं० म० प० १७। आ० १७। २०।।
(समीक्षक) अब जो ईसाई लोग उपदेश करते फिरते हैं कि ‘आओ हमारे मत में क्षमा कराओ मुक्ति पाओ’ आदि, वह सब मिथ्या है। क्योंकि जो ईसा में पाप छुड़ाने विश्वास जमाने और पवित्र करने का सामर्थ्य होता तो अपने शिष्यों के आत्माओं को निष्पाप, विश्वासी, पवित्र क्यों न कर देता? जो ईसा के साथ-साथ घूमते थे जब उन्हीं को शुद्ध, विश्वासी और कल्याण न कर सका तो वह मरे पर न जाने कहां है? इस समय किसी को पवित्र नहीं कर सकेगा। जब ईसा के चेले राई भर विश्वास से रहित थे और उन्हीं ने यह इञ्जील पुस्तक बनाई है तब इसका प्रमाण नहीं हो सकता। क्योंकि जो अविश्वासी, अपवित्रत्मा, अधर्मी मनुष्यों का लेख होता है उस पर विश्वास करना कल्याण की इच्छा करने वाले मनुष्य का काम नहीं। और इसी से यह भी सिद्ध हो सकता है कि जो ईसा का यह वचन सच्चा है तो किसी ईसाई में एक राई के दाने के समान विश्वास अर्थात् ईमान नहीं है जो कोई कहे कि हम में पूरा वा थोड़ा विश्वास है तो उससे कहना कि आप इस पहाड़ को मार्ग में से हटा देवें। यदि उनके हटाने से हट जाये तो भी पूरा विश्वास नहीं किन्तु एक राई के दाने के बराबर है और जो न हटा सके तो समझो एक छींटा भी विश्वास, ईमान अर्थात् धर्म का ईसाइयों में नहीं है। यदि कोई कहे कि यहां अभिमान आदि दोषों का नाम पहाड़ है तो भी ठीक नहीं, क्योंकि जो ऐसा हो तो मुर्दे, अन्धे, कोढ़ी, भूतग्रस्तों को चंगा करना भी आलसी, अज्ञानी, विषयी और भ्रान्तों को बोध करके सचेत कुशल किया होगा। जो ऐसा मानें तो भी ठीक नहीं, क्योंकि जो ऐसा होता तो स्वशिष्यों को ऐसा क्यों न कर सकता? इसलिए असम्भव बात कहना ईसा की अज्ञानता का प्रकाश करता है। भला ! जो कुछ भी ईसा में विद्या होती तो ऐसी अटाटूट जंगलीपन की बात क्यों कह देता? तथापि ‘यत्र देशे द्रुमो नास्ति तत्रैरण्डोऽपि द्रुमायते।’ जिस देश में कोई भी वृक्ष न हो तो उस देश में एरण्ड का वृक्ष ही सब से बड़ा और अच्छा गिना जाता है वैसे महाजंगली देश में ईसा का भी होना ठीक था। पर आजकल ईसा की क्या गणना हो सकती है।।७७।।
७८-मैं तुम्हें सच कहता हूँ जो तुम मन न फिराओ और बालकों के समान न हो जाओ तो स्वर्ग के राज्य में प्रवेश करने न पाओगे।।
-इं० म० प० १८। आ० ३।।
(समीक्षक) जब अपनी ही इच्छा से मन का फिराना स्वर्ग का कारण और न फिराना नरक का कारण है तो कोई किसी का पाप पुण्य कभी नहीं ले सकता ऐसा सिद्ध होता है। और बालक के समान होने के लेख से विदित होता है कि ईसा की बातें विद्या और सृष्टिक्रम से बहुत सी विरुद्ध थीं। और यह भी उसके मन में था कि लोग मेरी बातों को बालक के समान मान लें। पूछें गाछें कुछ भी नहीं, आंख मीच के मान लेवें। बहुत से ईसाइयों की बालबुद्धिवत् चेष्टा है। नहीं तो ऐसी युक्ति, विद्या से विरुद्ध बातें क्यों मानते? और यह भी सिद्ध हुआ जो ईसा आप विद्याहीन बालबुद्धि न होता तो अन्य को बालवत् बनने का उपदेश क्यों करता? क्योंकि जो जैसा होता है वह दूसरे को भी अपने सदृश बनाना चाहता ही है।।७८।।
७९-मैं तुम से सच कहता हूँ, धनवान् को स्वर्ग के राज्य में प्रवेश करना कठिन होगा।। फिर भी मैं तुम से कहता हूं कि ईश्वर के राज्य में धनवान् के प्रवेश करने से ऊँट का सूई के नाके में से जाना सहज है।।
-इं० म० प० १९। आ० २३। २४।।
(समीक्षक) इससे यह सिद्ध होता है कि ईसा दरिद्र था। धनवान् लोग उस की प्रतिष्ठा नहीं करते होंगे, इसलिये यह लिखा होगा। परन्तु यह बात सच नहीं क्योंकि धनाढ्यों और दरिद्रों में अच्छे बुरे होते हैं। जो कोई अच्छा काम करे वह अच्छा और बुरा करे वह बुरा फल पाता है। और इससे यह भी सिद्ध होता है कि ईसा ईश्वर का राज्य किसी एक देश में मानता था; सर्वत्र नहीं। जब ऐसा हो तो वह ईश्वर ही नहीं, जो ईश्वर है उसका राज्य सर्वत्र है। पुनः उसमें प्रवेश करेगा वा न करेगा यह कहना केवल अविद्या की बात है। और इससे यह भी आया कि जितने ईसाई धनाढ्य हैं क्या वे सब नरक ही में जायेंगे? और दरिद्र सब स्वर्ग में जायेंगे? भला तनिक सा विचार तो ईसामसीह करते कि जितनी सामग्री धनाढ्यों के पास होती है उतनी दरिद्रों के पास नहीं। यदि धनाढ्य लोग विवेक से धर्ममार्ग में व्यय करें तो दरिद्र नीच गति में पड़े रहें और धनाढ्य उत्तम गति को प्राप्त हो सकते हैं।।७९।।
८०-यीशु ने उनसे कहा मैं तुम से सच कहता हूँ कि नई सृष्टि में जब
मनुष्य का पुत्र अपने ऐश्वर्य के सिहासन पर बैठेगा तब तुम भी जो मेरे पीछे हो लिये हो; बारह सिहासनों पर बैठ के इस्राएल के बारह कुलों का न्याय करोगे।। जिस किसी ने मेरे नाम के लिये घरों वा भाइयों वा बहिनों वा पिता वा माता वा स्त्री वा लड़कों वा भूमि को त्यागा है सो सौ गुणा पावेगा और अनन्त जीवन का अधिकारी होगा।। -इं० म० प० १९। आ० २८। २९।।
(समीक्षक) अब देखिये ईसा के भीतर की लीला! मेरे जाल से मरे पीछे भी लोग न निकल जायें और जिसने ३०) रुपये के लोभ से अपने गुरु को पकड़ा, मरवाया वैसे पापी भी इसके पास सिहासन पर बैठेंगे और इस्राएल के कुल का पक्षपात से न्याय ही न किया जायेगा किन्तु उनके सब गुनाह माफ और अन्य कुलों का न्याय करेंगे। अनुमान होता है इसी से ईसाई लोग ईसाइयों का बहुत पक्षपात कर किसी गोरे ने काले को मार दिया हो तो भी बहुधा पक्षपात से निरपराधी कर छोड़ देते हैं। ऐसा ही ईसा के स्वर्ग का भी न्याय होगा और इससे बड़ा दोष आता है क्योंकि एक सृष्टि की आदि में मरा और एक ‘कयामत’ की रात के निकट मरा। एक तो आदि से अन्त तक आशा ही में पड़ा रहा कि कब न्याय होगा ? और दूसरे का उसी समय न्याय हो गया। यह कितना बड़ा अन्याय है और जो नरक में जायगा सो अनन्त काल तक नरक भोगे और जो स्वर्ग में जायेगा वह सदा स्वर्ग भोगेगा यह भी बड़ा अन्याय है। क्योंकि अन्त वाले साधन और कर्मों का फल भी अन्त वाला होना चाहिये। और तुल्य पाप व पुण्य दो जीवों का भी नहीं हो सकता। इसीलिये तारतम्य से अधिक न्यून सुख दुःख वाले अनेक स्वर्ग और नरक हों तभी सुख दुःख भोग सकते हैं। सो ईसाइयों के पुस्तक में कहीं व्यवस्था नहीं। इसलिये यह पुस्तक ईश्वरकृत वा ईसा ईश्वर का बेटा कभी नहीं हो सकता। यह बड़े अनर्थ की बात है कि कदापि किसी के मां बाप सौ सौ नहीं हो सकते किन्तु एक की एक मां और एक ही बाप होता है। अनुमान है कि मुसलमानों ने एक को ७२ स्त्रियाँ बहिश्त में मिलती हैं; लिखा है।।८०।।
८१-भोर को जब वह नगर को फिर जाता था तब उसको भूख लगी।। और मार्ग में एक गूलर का वृक्ष देख के वह उस के पास आया परन्तु उस में और कुछ न पाया केवल पत्ते। और उसको कहा तुझ में फिर कभी फल न लगेंगे। इस पर गूलर का पेड़ तुरन्त सूख गया।। -इं० म० प० २१। आ० १८। १९।।
(समीक्षक) सब पादरी लोग ईसाई कहते हैं कि वह बड़ा शान्त क्षमान्वित और क्रोधादि दोषरहित था। परन्तु इस बात को देख क्रोधी, ऋतु का ज्ञानरहित ईसा था और वह जंगली मनुष्यपन के स्वभावयुक्त वर्त्तता था। भला ! जो वृक्ष जड़ पदार्थ है। उसका क्या अपराध था कि उसको शाप दिया और वह सूख गया। उसके शाप से तो न सूखा होगा किन्तु कोई ऐसी औषधि डालने से सूख गया हो तो आश्चर्य नहीं।।८१।।
८२-उन दिनों के क्लेश के पीछे तुरन्त सूर्य अन्धियारा हो जायगा और चांद अपनी ज्योति न देगा! तारे आकाश से गिर पङेंगे और आकाश की सेना डिग जायेगी।। -इं० म० प० २४। आ० २९।।
(समीक्षक) वाह जी ईसा! तारों को किस विद्या से गिर पड़ना आपने जाना और आकाश की सेना कौन सी है जो डिग जायेगी? जो कभी ईसा थोड़ी
भी विद्या पढ़ता तो अवश्य जान लेता कि ये तारे सब भूगोल हैं क्योंकर गिरेंगे। इससे विदित होता है कि ईसा बढ़ई के कुल में उत्पन्न हुआ था। सदा लकड़े चीरना, छीलना, काटना और जोड़ना करता रहा होगा। जब तरंग उठी कि मैं भी इस जंगली देश में पैगम्बर हो सकूंगा; बातें करने लगा। कितनी बातें उस के मुख से अच्छी भी निकलीं और बहुत सी बुरी। वहां के लोग जंगली थे; मान बैठे। जैसा आज कल यूरोप देश उन्नति युक्त है वैसा पूर्व होता तो ईसा की सिद्धाई कुछ भी न चलती। अब कुछ विद्या हुए पश्चात् भी व्यवहार के पेच और हठ से इस पोल मत को न छोड़ कर सर्वथा सत्य वेदमार्ग की ओर नहीं झुकते; यही इनमें न्यूनता है।।८२।।
८३-आकाश और पृथिवी टल जायेंगे परन्तु मेरी बातें कभी न टलेंगी।।
-इं० म० प० २४। आ० ३५।।
(समीक्षक) यह भी बात अविद्या और मूर्खता की है। भला ! आकाश हिल कर कहाँ जायगा? जब आकाश अति सूक्ष्म होने से नेत्र से दीखता ही नहीं तो इसका हिलना कौन देख सकता है? और अपने मुख से अपनी बड़ाई करना अच्छे मनुष्यों का काम नहीं।।८३।।
८४-तब वह उनसे जो बाईं ओर हैं कहेगा हे स्रापित लोगो ! मेरे पास से उस अनन्त आग में जाओ जो शैतान और उसके दूतों के लिये तैयार की गई है।। -इं० म० प० २५। आ० ४१।।
(समीक्षक) भला यह कितनी बड़ी पक्षपात की बात है! जो अपने शिष्य हैं उनको स्वर्ग और जो दूसरे हैं उनको अनन्त आग में गिराना। परन्तु जब आकाश ही न रहेगा लिखा तो अनन्त आग नरक बहिश्त कहाँ रहेगी? जो शैतान और उसके दूतों को ईश्वर न बनाता तो इतनी नरक की तैयारी क्यों करनी पड़ती? और एक शैतान ही ईश्वर के भय से न डरा तो वह ईश्वर ही क्या है? क्योंकि उसी का दूत होकर बागी हो गया और ईश्वर उसको प्रथम ही पकड़ कर बन्दीगृह में न डाल सका, न मार सका, पुनः उसकी ईश्वरता क्या? जिसने ईसा को भी चालीस दिन दुःख दिया। ईसा भी उसका कुछ न कर सका तो ईश्वर का बेटा होना व्यर्थ हुआ। इसलिये ईसा ईश्वर का न बेटा और न बाइबल का ईश्वर, ईश्वर हो सकता है।।८४।।
८५-तब बारह शिष्यों में से एक यिहूदा इस्करियोती नाम एक शिष्य प्रधान याजकों के पास गया।। और कहा जो मैं यीशु को आप लोगों के हाथ पकड़वाऊं तो आप लोग मुझे क्या देंगे ? उन्होंने उसे तीस रुपये देने को ठहराया।। -इं० म० प० २६।। आ० १४। १५।।
(समीक्षक) अब देखिये! ईसा की सब करामात और ईश्वरता यहां खुल गई। क्योंकि जो उसका प्रधान शिष्य था वह भी उसके साक्षात् संग से पवित्रत्मा न हुआ तो औरों को वह मरे पीछे पवित्रत्मा क्या कर सकेगा ? और उसके विश्वासी लोग उसके भरोसे में कितने ठगाये जाते हैं क्योंकि जिसने साक्षात् सम्बन्ध में शिष्य का कुछ कल्याण न किया वह मरे पीछे किसी का कल्याण क्या कर सकेगा।।८५।।
८६-जब वे खाते थे तब यीशु ने रोटी लेके धन्यवाद किया और उसे तोड़ के शिष्यों को दिया और कहा लेओ खाओ यह मेरा देह है।। और उसने कटोरा ले के धन्य माना और उनको देके कहा तुम इससे पीओ।। क्योंकि यह मेरा लोहू
अर्थात् नये नियम का लोहू है।। -इं० म० प० २६। आ० २६। २७। २८।।
(समीक्षक) भला यह ऐसी बात कोई भी सभ्य करेगा? विना अविद्वान् जंगली मनुष्य के, शिष्यों से खाने की चीज को अपने मांस और पीने की चीजों को लोहू नहीं कह सकता। और इसी बात को आजकल के ईसाई लोग प्रभु-भोजन कहते हैं अर्थात् खाने पीने की चीजों में ईसा के मांस और लोहू की भावना कर खाते पीते हैं; यह कितनी बुरी बात है? जिन्होंने अपने गुरु के मांस लोहू को भी खाने पीने की भावना से न छोड़ा तो और को कैसे छोड़ सकते हैं? ।।८६।।
८७-और वह पितर को और जबदी के दोनों पुत्रें को अपने संग ले गया और शोक करने और बहुत उदास होने लगा।। तब उसने उनसे कहा, मेरा मन यहां लों अति उदास है कि मैं मरने पर हूँ।। और थोड़ा आगे बढ़ के वह मुंह के बल गिरा और प्रार्थना की, हे मेरे पिता ! जो हो सके तो यह कटोरा मेरे पास से टल जाय।। -इं० म० प० २६। आ० ३७। ३८। ३९।।
(समीक्षक) देखो ! जो वह केवल मनुष्य न होता, ईश्वर का बेटा और त्रिकालदर्शी और विद्वान् होता तो ऐसी अयोग्य चेष्टा न करता। इससे स्पष्ट विदित होता है कि यह प्रपञ्च ईसा ने अथवा उसके चेलों ने झूठमूठ बनाया है कि ईश्वर का बेटा भूत भविष्यत् का वेत्ता और पाप क्षमा का कर्त्ता है। इससे समझना चाहिये यह केवल साधारण सूधा सच्चा अविद्वान् था, न विद्वान्, न योगी, न सिद्ध था।।८७।।
८८-वह बोलता ही था कि देखो यिहूदा जो बाहर शिष्यों में से एक था; आ पहुंचा। और लोगों के प्रधान याजकों और प्राचीनों की ओर से बहुत लोग खड्ग और लाठियां लिये उसके संग।। यीशु के पकड़वानेहारे ने उन्हें यह पता दिया था जिसको मैं चूमूं उसको पकड़ो।। और वह तुरन्त यीशु पास आ बोला, हे गुरु ! प्रणाम और उसको चूमा।। तब उन्होंने यीशु पर हाथ डाल के उसे पकड़ा।। तब सब शिष्य उसे छोड़ के भागे।। अन्त में दो झूठ साक्षी आके बोले, इसने कहा कि मैं ईश्वर का मन्दिर ढहा सकता हूँ और तीन दिन में फिर बना सकता हूं।। तब महायाजक ने खड़ा हो यीशु से कहा तू कुछ उत्तर नहीं देता है ये लोग तेरे विरुद्ध क्या साक्षी देते हैं।। परन्तु यीशु चुप रहा इस पर महायाजक ने उससे कहा मैं तुझे जीवते ईश्वर की क्रिया देता हूँ। हम से कह तू ईश्वर का पुत्र ख्रीष्ट है कि नहीं।। यीशु उससे बोला तू तो कह चुका।। तब महायाजक ने अपने वस्त्र फाड़ के कहा यह ईश्वर की निन्दा कर चुका है अब हमें साक्षियों का और क्या प्रयोजन? देखो तुमने अभी उसके मुख से ईश्वर की निन्दा सुनी है।। तुम क्या विचार करते हो? तब उन्होंने उत्तर दिया वह वध के योग्य है।। तब उन्होंने उसके मुंह पर थूंका और उसे घूंसे मारे। औरों ने थपेड़े मार के कहा-हे ख्रीष्ट ! हमसे भविष्यद्वाणी बोल किसने तुझे मारा।। पितर बाहर अंगने में बैठा था और एक दासी उसके पास आके बोली तू भी यीशु गालीली के संग था।। उसने सबों के सामने मुकर के कहा मैं नहीं जानता तू क्या कहती है।। जब वह बाहर डेवढ़ी में गया तो दूसरी दासी ने उसे देख के जो लोग वहां थे उनसे कहा यह भी यीशु नासरी के संग था।। उसने क्रिया खाके फिर मुकरा कि मैं उस मनुष्य को नहीं जानता हूँ।। तब वह धिक्कार देने और क्रिया खाने लगा कि मैं उस मनुष्य को नहीं जानता हूँ।।
-इं० म० प० २६। आ० ४७। ४८। ४९। ५०। ६१। ६२। ६३। ६४। ६५। ६६।
६७। ६८। ६९। ७०। ७१। ७२। ७४।।
(समीक्षक) अब देख लीजिये कि जिसका इतना भी सामर्थ्य वा प्रताप नहीं था कि अपने चेले का भी दृढ़ विश्वास करा सके। और वे चेले चाहे प्राण भी क्यों न जाते तो भी अपने गुरु को लोभ से न पकड़ाते, न मुकरते, न मिथ्याभाषण करते, न झूठी क्रिया खाते। और ईसा भी कुछ करामाती नहीं था, जैसा तौरेत में लिखा है कि-लूत के घर पर पाहुनों को बहुत से मारने को चढ़ आये थे। वहां ईश्वर के दो दूत थे उन्होंने उन्हीं को अन्धा कर दिया। यद्यपि वह भी बात असम्भव है तथापि ईसा में तो इतना भी सामर्थ्य न था और आज कल कितना भड़वा उसके नाम पर ईसाइयों ने बढ़ा रक्खा है। भला ! ऐसी दुर्दशा से मरने से आप स्वयं जूझ वा समाधि चढ़ा अथवा किसी प्रकार से प्राण छोड़ता तो अच्छा था परन्तु वह बुद्धि विना विद्या के कहां से उपस्थित हो? वह ईसा यह भी कहता है कि-।।८८।।
८९-मैं अभी अपने पिता से विनती नहीं करता हूँ और वह मेरे पास स्वर्गदूतों की बारह सेनाओं से अधिक पहुँचा न देगा? -इं० म० प० २६। आ० ५३।।
(समीक्षक) धमकाता जाता, अपनी और अपने पिता की बड़ाई भी करता जाता पर कुछ भी नहीं कर सकता। देखो आश्चर्य की बात ! जब महायाजक ने पूछा था कि ये लोग तेरे विरुद्ध साक्षी देते हैं इसका उत्तर दे तो ईसा चुप रहा। यह भी ईसा ने अच्छा न किया क्योंकि जो सच था वह वहां अवश्य कह देता तो भी अच्छा होता। ऐसी बहुत सी अपने घमण्ड की बातें करनी उचित न थीं और जिन्होंने ईसा पर झूठा दोष लगाकर मारा उनको भी उचित न था। क्योंकि ईसा का उस प्रकार का अपराध नहीं था जैसा उसके विषय में उन्होंने किया। परन्तु वे भी तो जंगली थे। न्याय की बातों को क्या समझें? यदि ईसा झूठ-मूठ ईश्वर का बेटा न बनता और वे उसके साथ ऐसी बुराई न वर्त्तते तो दोनों के लिये उत्तम काम था। परन्तु इतनी विद्या, धर्म्मात्मता और न्यायशीलता कहां से लावें? ।।८९।।
९०-यीशु अध्यक्ष के आगे खड़ा हुआ और अध्यक्ष ने उससे पूछा क्या तू यहूदियों का राजा है? यीशु ने उनसे कहा आप ही तो कहते हैं।। जब प्रधान याजक और प्राचीन लोग उस पर दोष लगाते थे तब उसने कुछ उत्तर नहीं दिया।। तब पिलात ने उससे कहा क्या तू नहीं सुनता कि ये लोग तेरे विरुद्ध कितनी साक्षी देते हैं।। परन्तु उसने एक बात का भी उसको उत्तर न दिया। यहां लों कि अध्यक्ष ने बहुत अचम्भा किया।। पिलात ने उनसे कहा तो मैं यीशु से जो ख्रीष्ट कहावता है क्या करूं।। सभों ने उससे कहा वह क्रूश पर चढ़ाया जावे।। और यीशु को कोड़े मार के क्रूश पर चढ़ाया जाने को सौंप दिया।। तब अध्यक्ष के योद्धाओं ने यीशु को भवन में ले जा के सारी पलटन उस पास इकट्ठी की।। और उन्होंने उसका वस्त्र उतार के उसे लाल बाना पहिराया।। और कांटों का मुकुट गूँथ के उसके शिर पर रक्खा और उसके दाहिने हाथ में नर्कट दिया।। और उसके आगे घुटने टेक के यह कह के उससे ठट्ठा किया हे यहूदियों के राजा प्रणाम।। और उन्होंने उस पर थूका और उस नर्कट को ले उसके शिर पर मारा।। जब वे उससे ठट्ठा कर चुके तब उससे वह बागा उतार के उसी का वस्त्र पहिरा के उसे क्रूश पर चढ़ाने को ले गये।। जब वे एक स्थान पर जो गलगथा था अर्थात् खोपड़ी का स्थान कहाता है; पहुँचे।। तब उन्होंने सिरके में पित्त मिला के उसे पीने को दिया परन्तु उसने चीख के पीना न चाहा।। तब उन्होंने उसको क्रूश पर चढ़ाया।। और उन्होंने
उसका दोषपत्र उसके शिर के ऊपर लगाया।। तब दो डाकू एक दाहिनी ओर और दूसरा बाईं ओर उसके संग क्रूशों पर चढ़ाये गये।। जो लोग उधर से आते जाते थे उन्होंने अपने शिर हिला के और यह कह के उसकी निन्दा की।। हे मन्दिर के ढहानेहारे अपने को बचा, जो तू ईश्वर का पुत्र है तो क्रूश पर से उतर आ।। इसी रीति से प्रधान याजकों ने भी अध्यापकों और प्राचीनों के संगियों ने ठट्ठा कर कहा।। उसने औरों को बचाया अपने को बचा नहीं सकता है, जो वह इस्राएल का राजा है तो क्रूश पर से अब उतर आवे और हम उसका विश्वास करेंगे।। वह ईश्वर पर भरोसा रखता है, यदि ईश्वर उसे चाहता है तो उसको बचावे क्योंकि उसने कहा मैं ईश्वर का पुत्र हूँ।। जो डाकू उसके संग चढ़ाये गये उन्होंने भी इसी रीति से उसकी निन्दा की।। दो प्रहर से तीसरे प्रहर लों सारे देश में अन्धकार हो गया।। तीसरे प्रहर के निकट यीशु ने बड़े शब्द से पुकार के कहा ‘एली एली लामा सबक्तनी’ अर्थात् हे मेरे ईश्वर! हे मेरे ईश्वर! तूने क्यों मुझे त्यागा है।। जो लोग वहां खडे़ थे उनमें से कितनों ने यह सुनके कहा, वह एलीयाह को बुलाता है।। उनमें से एक ने तुरन्त दौड़ के इस्पंज लेके सिरके में भिगोया और नल पर रख के उसे पीने को दिया।। तब यीशु ने फिर बडे़ शब्द से पुकार के प्राण त्यागा।। -इं० म० प० २७। आ० ११। १२। १३। १४। २२। २३। २४। २६। २७। २८।२९। ३०।
३१। ३३। ३४। ३५। ३७। ३८। ३८। ३९। ४०। ४१। ४२। ४३। ४४। ४५। ४६। ४७। ४८। ५०।।
(समीक्षक) सर्वथा यीशु के साथ उन दुष्टों ने बुरा काम किया। परन्तु यीशु का भी दोष है। क्योंकि ईश्वर का न कोई पुत्र न वह किसी का बाप है। क्योंकि वह किसी का बाप होवे तो किसी का श्वसुर, श्याला सम्बन्धी आदि भी होवे। और जब अध्यक्ष ने पूछा था तब जैसा सच था; उत्तर देना था। और यह ठीक है कि जो-जो आश्चर्य-कर्म्म प्रथम किये हुए सच्चे होते तो अब भी क्रूश पर से उतर कर सब को अपने शिष्य बना लेता। और जो वह ईश्वर का पुत्र होता तो ईश्वर भी उसको बचा लेता। जो वह त्रिकालदर्शी होता तो सिर्के में पित्त मिले हुए को चीख के क्यों छोड़ता। वह पहले ही से जानता होता। और जो वह करामाती होता तो पुकार-पुकार के प्राण क्यों त्यागता? इससे जानना चाहिये कि चाहे कोई कितनी भी चतुराई करे परन्तु अन्त में सच-सच और झूठ-झूठ हो जाता है। इससे यह भी सिद्ध हुआ कि यीशु एक उस समय के जंगली मनुष्यों में से कुछ अच्छा था। न वह करामाती, न वह ईश्वर का पुत्र और न विद्वान् था। क्योंकि जो ऐसा होता तो ऐसा वह दुःख क्यों भोगता? ।।९०।।९१-और देखो, बड़ा भुईंडोल हुआ कि परमेश्वर का एक दूत उतरा और आ के कबर के द्वार पर से पत्थर लुढ़का के उस पर बैठा।। वह यहां नहीं है, जैसे उसने कहा वैसे जी उठा है।। जब वे उसके शिष्यों को सन्देश देने को जाती थीं, देखो यीशु उनसे आ मिला, कहा कल्याण हो और उन्होंने निकट आ, उसके पांव पकड़ के उसको प्रणाम किया।। तब यीशु ने कहा मत डरो, जाके मेरे भाइयों से कह दो वे गालील को जावें और वहां वे मुझे देखेंगे।। ग्यारह शिष्य गालील में उस पर्वत पर गये जो यीशु ने उन्हें बताया था।। और उन्होंने उसे देख के उसको प्रणाम किया पर कितनों का सन्देह हुआ।। यीशु ने उनके पास आ उनसे कहा, स्वर्ग में और पृथिवी पर समस्त अधिकार मुझको दिया गया है।। और देखो मैं जगत्
के अन्त लों सब दिन तुम्हारे संग हूँ।। -इं० म० प० २८। आ० २। ६। ९। १०। १६। १७। १८। २०।।
(समीक्षक) यह बात भी मानने योग्य नहीं, क्योंकि सृष्टिक्रम और विद्याविरुद्ध है। प्रथम ईश्वर के पास दूतों का होना, उनको जहां-तहां भेजना, ऊपर से उतरना, क्या तहसीलदारी, कलेक्टरी के समान ईश्वर को बना दिया? क्या उसी शरीर से स्वर्ग को गया और जी उठा? क्योंकि उन स्त्रियों ने उसके पग पकड़ के प्रणाम किया तो क्या वही शरीर था? और वह तीन दिन लों सड़ क्यों न गया? और अपने मुख से सब का अधिकारी बनना केवल दम्भ की बात है। शिष्यों से मिलना और उनसे सब बातें करनी असम्भव हैं। क्योंकि जो ये बातें सच हों तो आजकल भी कोई क्यों नहीं जी उठते? और उसी शरीर से स्वर्ग को क्यों नहीं जाते? यह मत्तीरचित्त इञ्जील का विषय हो चुका। अब मार्करचित इञ्जील के विषय में लिखा जाता है।।९१।।
मार्क रचित इञ्जील
९२-यह क्या बढ़ई नहीं है। -इंनमार्क प० ६। आ० ३।।
(समीक्षक) असल में यूसफ बढ़ई था, इसलिये ईसा भी बढ़ई था। कितने ही वर्ष तक बढ़ई का काम करता था। पश्चात् पैगम्बर बनता-बनता ईश्वर का बेटा ही बन गया और जंगली लोगों ने बना लिया तभी बड़ी कारीगरी चलाई। काट कूट फूट फाट करना उसका काम है।।९२।।
लूका रचित इञ्जील
९३-यीशु ने उससे कहा तू मुझे उत्तम क्यों कहता है, कोई उत्तम नहीं है, केवल एक अर्थात् ईश्वर।। -इं० लू० प० १८। आ० १९।।
(समीक्षक) जब ईसा ही एक अद्वितीय ईश्वर कहाता है तो ईसाइयों ने पवित्रत्मा पिता और पुत्र तीन कहां से बना लिये? ।।९३।।
९४-तब उसे हेरोद के पास भेजा।। हेरोद यीशु को देख के अति आनन्दित हुआ क्योंकि वह उसको बहुत दिनों से देखने चाहता था इसलिये कि उसके विषय में बहुत सी बातें सुनी थीं और उसका कुछ आश्चर्य कर्म्म देखने की उसको आशा हुई।। उसने उससे बहुत बातें पूछीं परन्तु उसने उसे कुछ उत्तर न दिया।।
-इं० लू० प० २३। आ० ७। ८। ९।।
(समीक्षक) यह बात मत्तीरचित में नहीं है इसलिए ये साक्षी बिगड़ गये। क्योंकि साक्षी एक से होने चाहियें और जो ईसा चतुर और करामाती होता तो उत्तर देता और करामात भी दिखलाता। इससे विदित होता है कि ईसा में विद्या और करामात कुछ भी न थी।।९४।।
योहन रचित सुसमाचार
९५-आदि में वचन था और वचन ईश्वर के संग था और वचन ईश्वर था।। वह आदि में ईश्वर के संग था।। सब कुछ उसके द्वारा सृजा गया और जो सृजा गया है कुछ भी उस बिना नहीं सृजा गया। उसमें जीवन था और वह जीवन मनुष्यों का उजियाला था।। -यो०प० १। आ० १। २। ३। ४।।
(समीक्षक) आदि में वचन विना वक्ता के नहीं हो सकता और जो वचन ईश्वर के संग था तो यह कहना व्यर्थ हुआ। और वचन ईश्वर कभी नहीं हो सकता क्योंकि जब वह आदि में ईश्वर के संग था तो पूर्व वचन वा ईश्वर था; यह नहीं घट सकता। वचन के द्वारा सृष्टि कभी नहीं हो सकती जब तक उसका कारण न हो। और वचन के विना भी चुपचाप रह कर कर्त्ता सृष्टि कर सकता है। जीवन किस में वा क्या था, इस वचन से जीव अनादि मानोगे, जो अनादि है तो आदम के नथुनों में श्वास फूंकना झूठा हुआ और क्या जीवन मनुष्यों ही का उजियाला है; पश्वादि का नहीं? ।।९५।।
९६-और बियारी के समय में जब शैतान शिमोन के पुत्र यिहूदा इस्करियोती के मन में उसे पकड़वाने का मत डाल चुका था।। -यो० प० १३। आ० २।।
(समीक्षक) यह बात सच नहीं। क्योंकि जब कोई ईसाइयों से पूछेगा कि शैतान सब को बहकाता है तो शैतान को कौन बहकाता है? जो कहो शैतान आप से आप बहकता है तो मनुष्य भी आप से आप बहक सकते हैं पुनः शैतान का क्या काम? और यदि शैतान का बनाने और बहकाने वाला परमेश्वर है तो वही शैतान का शैतान ईसाइयों का ईश्वर ठहरा। परमेश्वर ही ने सब को उसके द्वारा बहकाया। भला ऐसे काम ईश्वर के हो सकते हैं? सच तो यही है कि यह पुस्तक ईसाइयों का और ईसा ईश्वर का बेटा जिन्होंने बनाये वे शैतान हों तो हों किन्तु न यह ईश्वरकृत पुस्तक, न इसमें कहा ईश्वर और न ईसा ईश्वर का बेटा हो सकता है।।९६।।
९७-तुम्हारा मन व्याकुल न होवे। ईश्वर पर विश्वास करो और मुझ पर विश्वास करो।। मेरे पिता के घर में बहुत से रहने के स्थान हैं। नहीं तो मैं तुम से कहता मैं तुम्हारे लिये स्थान तैयार करने जाता हूँ।। और जो मैं जाके तुम्हारे लिये स्थान तैयार करूं तो फिर आके तुम्हें अपने यहां ले जाऊंगा कि जहां मैं रहूं तहां तुम भी रहो।। यीशु ने उससे कहा मैं ही मार्ग और सत्य और जीवन हूँ। विना मेरे द्वारा से कोई पिता के पास नहीं पहुँचता है।। जो तुम मुझे जानते तो मेरे पिता को भी जानते।। -यो० प० १४। आ० १। २। ३। ६। ७।।
(समीक्षक) अब देखिये ! ये ईसा के वचन क्या पोपलीला से कमती हैं? जो ऐसा प्रपंच न रचता तो उसके मत में कौन फंसता? क्या ईसा ने अपने पिता को ठेके में ले लिया है? और जो वह ईसा के वश्य है तो पराधीन होने से वह ईश्वर ही नहीं। क्योंकि ईश्वर किसी की सिफारिश नहीं सुनता। क्या ईसा के पहले कोई भी ईश्वर को नहीं प्राप्त हुआ होगा? ऐसा स्थान आदि का प्रलोभन देता और जो अपने मुख से आप मार्ग, सत्य और जीवन बनता है वह सब प्रकार से दम्भी कहाता है। इससे यह बात सत्य कभी नहीं हो सकती।।९७।।
९८-मैं तुमसे सच-सच कहता हूँ जो मुझ पर विश्वास करे। जो काम मैं करता हूँ उन्हें वह भी करेगा और इनसे बड़े काम करेगा।।
-यो० प० १४। आ० १२।।
(समीक्षक) अब देखिये ! जो ईसाई लोग ईसा पर पूरा विश्वास रखते हैं वैसे ही मुर्दे जिलाने आदि का काम क्यों नहीं कर सकते? और जो विश्वास से भी आश्चर्य काम नहीं कर सकते तो ईसा ने भी आश्चर्य कर्म नहीं किये थे
ऐसा निश्चित जानना चाहिये। क्योंकि स्वयम् ईसा ही कहता है कि तुम भी आश्चर्य काम करोगे तो भी इस समय ईसाई एक भी नहीं कर सकता तो किसकी हिये की आंख फूट गई है वह ईसा को मुर्दे जिलाने आदि काम का कर्त्ता मान लेवे।।९८।।
९९-जो अद्वैत सत्य ईश्वर है।। -यो०प० १७। आ० ३।।
(समीक्षक) जब अद्वैत एक ईश्वर है तो ईसाइयों का तीन कहना सर्वथा मिथ्या है।।९९।।
इसी प्रकार बहुत ठिकाने इञ्जील में अन्यथा बातें भरी हैं।
योहन के प्रकाशित वाक्य
अब योहन की अद्भुत बातें सुनो-
१००-और अपने-अपने शिर पर सोने के मुकुट दिये हुए थे।। और सात अग्निदीपक सिहासन के आगे जलते थे जो ईश्वर के सातों आत्मा हैं। और सिहासन के आगे कांच का समुद्र है और सिहासन के आस-पास चार प्राणी हैं जो आगे और पीछे नेत्रें से भरे हैं।। -यो० प्र० प० ४। आ० ४। ५। ६।।
(समीक्षक) अब देखिये ! एक नगर के तुल्य ईसाइयों का स्वर्ग है। और इनका ईश्वर भी दीपक के समान अग्नि है और सोने का मुकुटादि आभूषण धारण करना और आगे पीछे नेत्रें का होना असम्भावित है। इन बातों को कौन मान सकता है? और वहां सिहादि चार पशु भी लिखे हैं।।१००।।
१०१-और मैंने सिहासन पर बैठने हारे के दाहिने हाथ में एक पुस्तक देखा जो भीतर और पीठ पर लिखा हुआ था और सात छापों से उस पर छाप दी हुई थी।। यह पुस्तक खोलने और उसकी छापें तोड़ने योग्य कौन है।। और न स्वर्ग में और न पृथिवी पर न पृथिवी के नीचे कोई वह पुस्तक खोल अथवा उसे देख सकता था।। और मैं बहुत रोने लगा इसलिए कि पुस्तक खोलने और पढ़ने अथवा उसे देखने योग्य कोई नहीं मिला।। -यो० प्र० पर्व० ५। आ० १। २। ३। ४।।
(समीक्षक) अब देखिये ! ईसाइयों के स्वर्ग में सिहासनों और मनुष्यों का ठाठ और पुस्तक कई छापों से बंध किया हुआ जिसको खोलने आदि कर्म करने वाला स्वर्ग और पृथिवी पर कोई नहीं मिला। योहन का रोना और पश्चात् एक प्राचीन ने कहा कि वही ईसा खोलने वाला है। प्रयोजन यह है कि जिसका विवाह उसका गीत! देखो! ईसा ही के ऊपर सब माहात्म्य झुकाये जाते हैं परन्तु ये बातें केवल कथनमात्र हैं।।१०१।।
१०२-और मैंने दृष्टि की और देखो सिहासन के चारों प्राणियों के बीच में और प्राचीनों के बीच में एक मेम्ना जैसा बंध किया हुआ खड़ा है जिसके सात सींग और सात नेत्र हैं जो सारी पृथिवी में भेजे हुए ईश्वर के सातों आत्मा हैं।।
-यो० प्र० प० ५। आ० ६।।
(समीक्षक) अब देखिये इस योहन के स्वप्न का मनोव्यापार ! उस स्वर्ग के बीच में सब ईसाई और चार पशु तथा ईसा भी है और कोई नहीं! यह बड़ी अद्भुत बात हुई कि यहां तो ईसा के दो नेत्र थे और सींग का नाम भी न था और स्वर्ग में जाके सात सींग और सात नेत्र वाला हुआ ! और वे सातों ईश्वर के आत्मा ईसा के सींग और नेत्र बन गए थे ! हाय ! ऐसी बातों को ईसाइयों
ने क्यों मान लिया? भला कुछ तो बुद्धि काम में लाते।।१०२।।
१०३-और जब उसने पुस्तक लिया तब चारों प्राणी और चौबीसों प्राचीन मेम्ने के आगे गिर पड़े और हर एक के पास वीणा थी और धूप से भरे हुए सोने के पियाले जो पवित्र लोगों की प्रार्थनाएं हैं।। -यो० प्र० प० ५। आ० ८।।
(समीक्षक) भला जब ईसा स्वर्ग में न होगा तब ये बिचारे धूप, दीप, नैवेद्य, आर्ति आदि पूजा किसकी करते होंगे? और यहां प्रोटेस्टेंट ईसाई लोग बुत्परस्ती (मूर्तिपूजा) का खण्डन करते हैं और इनका स्वर्ग बुत्परस्ती का घर बन रहा है।।१०३।।
१०४-और जब मेम्ने ने छापों में से एक को खोला तब मैंने दृष्टि की चारों प्राणियों में से एक को जैसे मेघ गर्जने के शब्द को यह कहते हुए सुना कि आ और देख।। और मैंने दृष्टि की और देखो एक श्वेत घोड़ा है और जो उस पर बैठा है उस पास धनुष् है और उसे मुकुट दिया गया और वह जय करता हुआ और जय करने को निकला।। और जब उसने दूसरी छाप खोली।। दूसरा घोड़ा जो लाल था निकला उसको दिया गया कि पृथिवी पर से मेल उठा देवे।। और जब उसने तीसरी छाप खोली; देखो एक काला घोड़ा है।। और जब उसने चौथी छाप खोली।। और देखो एक पीला सा घोड़ा है और जो उस पर बैठा है उसका नाम मृत्यु है; इत्यादि।। -यो० प्र० प० ६। आ० १। २। ३। ४। ५। ७। ८।।
(समीक्षक) अब देखिये यह पुराणों से भी अधिक मिथ्या लीला है वा नहीं? भला! पुस्तकों के बन्धनों के छापे के भीतर घोड़ा सवार क्योंकर रह सके होंगे? यह स्वप्ने का बरड़ाना जिन्होंने इसको भी सत्य माना है। उनमें अविद्या जितनी कहें उतनी ही थोड़ी है।।१०४।।
१०५-और वे बड़े शब्द से पुकारते थे कि हे स्वामी पवित्र और सत्य! कब लों तू न्याय नहीं करता है और पृथिवी के निवासियों से हमारे लोहू का पलटा नहीं लेता है।। और हर एक को उजला वस्त्र दिया गया और उनसे कहा गया कि जब लों तुम्हारे संगी दास भी और तुम्हारे भाई जो तुम्हारी नाईं बंध किये जाने पर हैं न पूरे हों तब लों और थोड़ी बेर विश्राम करो।। -यो० प्र० प० ६। आ० १०। ११।।
(समीक्षक) जो कोई ईसाई होंगे वे दौड़े सुपुर्द होकर ऐसे न्याय कराने के लिये रोया करेंगे। जो वेदमार्ग का स्वीकार करेगा उसके न्याय होने में कुछ भी देर न होगी। ईसाइयों से पूछना चाहिये क्या ईश्वर की कचहरी आजकल बन्द है? और न्याय का काम भी नहीं होता? न्यायाधीश निकम्मे बैठे हैं? तो कुछ भी ठीक-ठीक उत्तर न दे सकेंगे। और ईश्वर को भी बहका कर और इनका ईश्वर बहक भी जाता है क्योंकि इनके कहने से झट इनके शत्रु से पलटा लेने लगता है। और दंशिले स्वभाव वाले हैं कि मरे पीछे स्ववैर लिया करते हैं, शान्ति कुछ भी नहीं। और जहां शान्ति नहीं वहां दुःख का क्या पारावार होगा।।१०५।।
१०६-और जैसे बड़ी बयार से हिलाए जाने पर गूलर के वृक्ष से उसके कच्चे गूलर झड़ते हैं, तैसे आकाश के तारे पृथिवी पर गिर पड़े।। और आकाश पत्र की नाईं जो लपेटा जाता है अलग हो गया।। -यो० प्र० प० ६। आ० १३। १४।।
(समीक्षक) अब देखिये! योहन भविष्यद्वक्ता ने जब विद्या नहीं है तभी तो ऐसी अण्ड बण्ड कथा गाई। भला! तारे सब भूगोल हैं एक पृथिवी पर कैसे
गिर सकते हैं? और सूर्यादि का आकर्षण उनको इधर-उधर क्यों आने जाने देगा? और क्या आकाश को चटाई के समान समझता है? यह आकाश साकार पदार्थ नहीं है जिस को कोई लपेटे वा इकट्ठा कर सके। इसलिये योहन आदि सब जंगली मनुष्य थे। उनको इन बातों की क्या खबर? ।।१०६।।
१०७-मैंने उनकी संख्या सुनी, इस्राएल के सन्तानों के समस्त कुल में से एक लाख चवालीस सहस्र पर छाप दी गई।। यिहूदा के कुल में से बारह सहस्र पर छाप दी गई।। -यो० प्र० प० ७। आ० ४। ५।।
(समीक्षक) क्या जो बाइबल में ईश्वर लिखा है वह इस्राएल आदि कुलों का स्वामी है वा सब संसार का? ऐसा न होता तो उन्हीं जंगलियों का साथ क्यों देता? और उन्हीं का सहाय करता था। दूसरे का नाम निशान भी नहीं लेता। इससे वह ईश्वर नहीं। और इस्राएल कुलादि के मनुष्यों पर छाप लगाना अल्पज्ञता अथवा योहन की मिथ्या कल्पना है।।१०७।।
१०८-इस कारण वे ईश्वर के सिहासन के आगे हैं और उसके मन्दिर में रात और दिन उसकी सेवा करते हैं।। -यो० प्र० प० ७। आ० १५।।
(समीक्षक) क्या यह महाबुत्परस्ती नहीं है? अथवा उनका ईश्वर देह- धारी मनुष्य तुल्य एकदेशी नहीं है? और ईसाइयों का ईश्वर रात में सोता भी नहीं है । यदि सोता है तो रात में पूजा क्योंकर करते होंगे? तथा उसकी नींद भी उड़ जाती होगी और जो रात दिन जागता होगा तो विक्षिप्त वा अति रोगी होगा।।१०८।।
१०९-और दूसरा दूत आके वेदी के निकट खड़ा हुआ जिस पास सोने की धूपदानी थी और उसको बहुत धूप दिया गया।। और धूप का धुंआ पवित्र लोगों की प्रार्थनाओं के संग दूत के हाथ में से ईश्वर के आगे चढ़ गया।। और दूत ने वह धूपदानी लेके उसमें वेदी की आग भर के उसे पृथिवी पर डाला और शब्द और गर्जन और बिजलियाँ और भुईंडोल हुए।। -यो० प्र० प० ८। आ० ३। ४। ५।।
(समीक्षक) अब देखिये ! स्वर्ग तक वेदी, धूप, दीप, नैवेद्य, तुरही के शब्द होते हैं, क्या वैरागियों के मन्दिर से ईसाइयों का स्वर्ग कम है? कुछ धूम- धाम अधिक ही है।।१०९।।
११०-पहिले दूत ने तुरही फूंकी और लोहू से मिले हुए ओले और आग हुए और वे पृथिवी पर डाले गये और पृथिवी की एक तिहाई जल गई।। -यो० प्र० प० ८। आ० ७।।
(समीक्षक) वाह रे ईसाइयों के भविष्यद्वक्ता! ईश्वर, ईश्वर के दूत, तुरही का शब्द और प्रलय की लीला केवल लड़कों ही का खेल दीखता है।।११०।।
१११-और पांचवें दूत ने तुरही फूंकी और मैंने एक तारे को देखा जो स्वर्ग में से पृथिवी पर गिरा हुआ था और अथाह कुण्ड के कूप की कुंजी उसको दी गई।। और उसने अथाह कुण्ड का कूप खोला और कूप में से बड़ी भट्ठी के धुंए की नाईं धुंआ उठा।। और उस धुंए में से टिड्डियां पृथिवी पर निकल गईं और जैसा पृथिवी के बीछुओं को अधिकार होता है तैसा उन्हें अधिकार दिया गया।। और उनसे कहा गया कि उन मनुष्यों को जिनके माथे पर ईश्वर की छाप नहीं है।। पांच मास उन्हें पीड़ा दी जाय।। -यो० प्र० प० ९। आ० १। २। ३। ४। ५।।
(समीक्षक) क्या तुरही का शब्द सुनकर तारे उन्हीं दूतों पर और उसी स्वर्ग में गिरे होंगे? यहां तो नहीं गिरे। भला वह कूप वा टिड्डियां भी प्रलय के लिये ईश्वर ने पाली होंगी और छाप को देख बांच भी लेती होंगी कि छाप वालों को मत काटो? यह केवल भोले मनुष्यों को डरा के ईसाई बना लेने का धोखा देना है कि जो तुम ईसाई न होगे तो तुमको टिड्डियां काटेंगी परन्तु ऐसी बातें विद्याहीन देश में चल सकती हैं आर्य्यावर्त्त में नहीं। क्या वह प्रलय की बात हो सकती है।।१११।।
११२-और घुड़चढ़ों की सेनाओं की संख्या बीस करोड़ थी।।
-यो० प्र० प० ९। आ० १६।।
(समीक्षक) भला ! इतने घोड़े स्वर्ग में कहां ठहरते, कहां चरते और कहां रहते और कितनी लीद करते थे? और उसका दुर्गन्ध भी स्वर्ग में कितना हुआ होगा? बस ऐसे स्वर्ग, ऐसे ईश्वर और ऐसे मत के लिये हम सब आर्य्यों ने तिलाञ्जलि दे दी है। ऐसा बखेड़ा ईसाइयों के शिर पर से भी सर्वशक्तिमान् की कृपा से दूर हो जाय तो बहुत अच्छा हो।।११२।।
११३-और मैंने दूसरे पराक्रमी दूत को स्वर्ग से उतरते देखा जो मेघ को ओढ़े था और उसके सिर पर मेघधनुष् था और उसका मुंह सूर्य्य की नाईं और उसके पांव आग के खम्भों के ऐसे थे।। और उसने अपना दाहिना पांव समुद्र पर और बायां पृथिवी पर रक्खा।। -यो० प्र० प० १०। आ० १। २।।
(समीक्षक) अब देखिये इन दूतों की कथा ! जो पुराणों वा भाटों की कथाओं से भी बढ़ कर है।।११३।।
११४-और लोगों के समान एक नर्कट मुझे दिया गया और कहा गया कि उठ! ईश्वर के मन्दिर को और वेदी को और उसमें के भजन करनेहारों को नाप।। -यो० प्र० प० ११। आ० १।।
(समीक्षक) यहां तो क्या परन्तु ईसाइयों के तो स्वर्ग में भी मन्दिर बनाये और नापे जाते हैं। अच्छा है, उनका जैसा स्वर्ग वैसी ही बातें हैं। इसीलिए यहां प्रभुभोजन में ईसा के शरीरावयव मांस लोहू की भावना करके खाते पीते हैं और गिर्जा में भी क्रूश आदि का आकार बनाना आदि भी बुतपरस्ती है।।११४।।
११५-और स्वर्ग में ईश्वर का मन्दिर खोला गया और उसके नियम का सन्दूक उसके मन्दिर में दिखाई दिया।। -यो० प्र० प० ११। आ० १९।।
(समीक्षक) स्वर्ग में जो मन्दिर है सो हर समय बन्द रहता होगा। कभी-कभी खोला जाता होगा। क्या परमेश्वर का भी कोई मन्दिर हो सकता है? जो वेदोक्त परमात्मा सर्वव्यापक है उसका कोई भी मन्दिर नहीं हो सकता। हां ! ईसाइयों का जो परमेश्वर आकारवाला है उसका चाहे स्वर्ग में हो चाहे भूमि में। और जैसी लीला टं टन् पूं पूं की यहां होती है वैसी ही ईसाइयों के स्वर्ग में भी। और नियम का सन्दूक भी कभी-कभी ईसाई लोग देखते होंगे। उससे न जाने क्या प्रयोजन सिद्ध करते होंगे? सच तो यह है कि ये सब बातें मनुष्यों को लुभाने की हैं।।११५।।
११६-और एक बड़ा आश्चर्य स्वर्ग में दिखाई दिया अर्थात् एक स्त्री जो सूर्य्य पहिने है और चांद उसके पांवों तले है और उसके सिर पर बारह तारों का मुकुट है।। और वह गर्भवती होके चिल्लाती है क्योंकि प्रसव की पीड़ा उसे लगी और वह जनने को पीड़ित है।। और दूसरा आश्चर्य स्वर्ग में दिखाई दिया और देखो एक बड़ा लाल अजगर है जिसके सात सिर और दस सींग हैं और उसके सिरों पर सात राजमुकुट हैं।। और उसकी पूंछ ने आकाश के तारों की एक तिहाई को खींच के उन्हें पृथिवी पर डाला।। -यो० प्र० प० १२। आ० १। २। ३। ४।।
(समीक्षक) अब देखिये लम्बे चौड़े गपोड़े ! इनके स्वर्ग में भी विचारी स्त्री चिल्लाती है। उसका दुःख कोई नहीं सुनता, न मिटा सकता है। और उस अजगर की पूंछ कितनी बड़ी थी जिसने एक तिहाई तारों को पृथिवी पर डाला? भला! पृथिवी तो छोटी है और तारे भी बडे़-बड़े लोक हैं। इस पृथिवी पर एक भी नहीं समा सकता। किन्तु यहां यही अनुमान करना चाहिये कि ये तारों की तिहाई इस बात के लिखने वाले के घर पर गिरे होंगे और जिस अजगर की पूंछ इतनी बड़ी थी जिससे सब तारों की तिहाई लपेट कर भूमि पर गिरा दी वह अजगर भी उसी के घर में रहता होगा।।११६।।
११७-और स्वर्ग में युद्ध हुआ मीखायेल और उसके दूत अजगर से लडे़ और अजगर और उसके दूत लड़े।। -यो० प्र० प० १२। आ० ७।।
(समीक्षक) जो कोई ईसाइयों के स्वर्ग में जाता होगा वह भी लड़ाई में दुःख पाता होगा। ऐसे स्वर्ग की यहीं से आशा छोड़ हाथ जोड़ बैठ रहो। जहां शान्तिभंग और उपद्रव मचा रहे वह ईसाइयों के योग्य है।।११७।।
११८-और वह बड़ा अजगर गिराया गया। हां ! वह प्राचीन सांप जो दियाबल और शैतान कहावता है जो सारे संसार का भरमानेहारा है।।
-यो० प्र० प० १२। आ० ९।।
(समीक्षक) क्या जब वह शैतान स्वर्ग में था तब लोगों को नहीं भरमाता था? और उसको जन्म भर बन्दीगृह में घिरा अथवा मार क्यों न डाला? उसको पृथिवी पर क्यों डाल दिया? जो सब संसार का भरमाने वाला शैतान है तो शैतान को भरमाने वाला कौन है? यदि शैतान स्वयं भर्मा है तो शैतान के विना भरमनेहारे भर्मेंेगे और जो भरमानेहारा परमेश्वर है तो वह ईश्वर ही नहीं ठहरा। विदित तो यह होता है कि ईसाइयों का ईश्वर भी शैतान से डरता होगा क्योंकि जो शैतान से प्रबल है तो ईश्वर ने उसको अपराध करते समय ही दण्ड क्यों न दिया ? जगत् में शैतान का जितना राज है उसके सामने सहस्रांश भी ईसाइयों के ईश्वर का राज नहीं। इसीलिये ईसाइयों का ईश्वर उसे हटा नहीं सकता होगा। इससे यह सिद्ध हुआ कि जैसा इस समय के राज्याधिकारी ईसाई डाकू चोर आदि को शीघ्र दण्ड देते हैं वैसा भी ईसाइयों का ईश्वर नहीं । पुनः कौन ऐसा निर्बुद्धि मनुष्य है जो वैदिक मत को छोड़ पोकल ईसाई मत स्वीकार करे? ।।११८।।
११९-हाय पृथिवी और समुद्र के निवासियो! क्योंकि शैतान तुम पास उतरा है।। -यो० प्र० प० १२। आ० १२।।
(समीक्षक) क्या वह ईश्वर वहीं का रक्षक और स्वामी है? पृथिवी के मनुष्यादि प्राणियों का रक्षक और स्वामी नहीं है? यदि भूमि का भी राजा है तो शैतान को क्यों न मार सका? ईश्वर देखता रहता है और शैतान बहकाता फिरता है तो भी उसको वर्जता नहीं।। विदित तो यह होता है कि एक अच्छा ईश्वर और एक समर्थ दुष्ट दूसरा ईश्वर हो रहा है।।११९।।
१२०-और बयालीस मास लों युद्ध करने का अधिकार उसे दिया गया।। और उसने ईश्वर के विरुद्ध निन्दा करने को अपना मुंह खोला कि उसके नाम की और उसके तम्बू की और स्वर्ग में वास करनेहारों की निन्दा करे।। और उसको यह दिया गया कि पवित्र लोगों से युद्ध करे और उन पर जय करे और हर एक कुल और भाषा और देश पर उसको अधिकार दिया गया।।
-यो० प्र० प० १३। आ० ५। ६। ७।।
(समीक्षक) भला ! जो पृथिवी के लोगों को बहकाने के लिये शैतान और पशु आदि को भेजे और पवित्र मनुष्यों से युद्ध करावे वह काम डाकुओं के सरदार के समान है वा नहीं। ऐसा काम ईश्वर वा ईश्वर के भक्तों का नहीं हो सकता।।१२०।।
१२१-और मैंने दृष्टि की और देखो मेम्ना सियोन पर्वत पर खड़ा है और उसके संग एक लाख चवालीस सहस्र जन थे जिनके माथे पर उसका नाम और उसके पिता का नाम लिखा है।। -यो० प्र० प० १४। आ० १।।
(समीक्षक) अब देखिये ! जहां ईसा का बाप रहता था वहीं उसी सियोन पहाड़ पर उसका लड़का भी रहता था। परन्तु एक लाख चवालीस सहस्र मनुष्यों की गणना क्योंकर की? एक लाख चवालीस सहस्र ही स्वर्ग के वासी हुए। शेष करोड़ों ईसाइयों के शिर पर न मोहर लगी? क्या ये सब नरक में गये? ईसाइयों को चाहिये कि सियोन पर्वत पर जाके देखें कि ईसा का उक्त बाप और उनकी सेना वहां है वा नहीं? जो हों तो यह लेख ठीक है; नहीं तो मिथ्या। यदि कहीं से वहां आया है तो कहां से आया? जो कहो स्वर्ग से; तो क्या वे पक्षी हैं कि इतनी बड़ी सेना और आप ऊपर नीचे उड़ कर आया जाया करें? यदि वह आया जाया करता है तो एक जिले के न्यायाधीश के समान हुआ। और वह एक दो या तीन हो तो नहीं बन सकेगा किन्तु न्यून एक-एक भूगोल में एक-एक ईश्वर चाहिए। क्योंकि एक दो तीन अनेक ब्रह्माण्डों का न्याय करने और सर्वत्र युगपत् घूमने में समर्थ कभी नहीं हो सकते।।१२१।।
१२२-आत्मा कहता है हां कि वे अपने परिश्रम से विश्राम करेंगे परन्तु उनके कार्य्य उनके संग हो लेते हैं।। -यो० प्र० प० १४। आ० १३।।
(समीक्षक) देखिये ! ईसाइयों का ईश्वर तो कहता है उनके कर्म उन के संग रहेंगे अर्थात् कर्मानुसार फल सब को दिये जायेंगे और ये लोग कहते हैं कि ईसा पापों को ले लेगा और क्षमा भी किये जायेंगे। यहां बुद्धिमान् विचारें कि ईश्वर का वचन सच्चा वा ईसाइयों का ? एक बात में दोनों तो सच्चे हो ही नहीं सकते। इनमें से एक झूठा अवश्य होगा। हम को क्या ! चाहे ईसाइयों का ईश्वर झूठा हो वा ईसाई लोग।।१२२।।
१२३-और उसे ईश्वर के कोप के बडे़ रस के कुण्ड में डाला। और रस के कुण्ड का रौंदन नगर के बाहर किया गया और रस के कुण्ड में से घोड़ों के लगाम तक लोहू एक सौ कोश तक बह निकला।।
-यो० प्र० प० १४। आ० १९। २०।।
(समीक्षक) अब देखिये ! इनके गपोड़े पुराणों से भी बढ़कर हैं वा नहीं? ईसाइयों का ईश्वर कोप करते समय बहुत दुःखित हो जाता होगा और उसके कोप
के कुण्ड भरे हैं क्या उसका कोप जल है? वा अन्य द्रवित पदार्थ है कि जिससे कुण्ड भरे हैं? और सौ कोश तक रुधिर का बहना असम्भव है क्योंकि रुधिर वायु लगने से झट जम जाता है पुनः क्यों कर बह सकता है? इसलिये ऐसी बातें मिथ्या होती हैं।।१२३।।
१२४-और देखो स्वर्ग में साक्षी के तम्बू का मन्दिर खोला गया।। -यो० प्र० प० १५। आ० ५।।
(समीक्षक) जो ईसाइयों का ईश्वर सर्वज्ञ होता तो साक्षियों का क्या काम? क्योंकि वह स्वयं सब कुछ जानता होता। इससे सर्वथा यही निश्चय होता है कि इनका ईश्वर सर्वज्ञ नहीं किन्तु मनुष्यवत् अल्पज्ञ है। वह ईश्वरता का क्या काम कर सकता है? नहि नहि नहि, और इसी प्रकरण में दूतों की बड़ी-बड़ी असम्भव बातें लिखी हैं उनको सत्य कोई नहीं मान सकता। कहां तक लिखें इस प्रकरण में सर्वथा ऐसी ही बातें भरी हैं।।१२४।।
१२५-और ईश्वर ने उसके कुकर्मों को स्मरण किया है।। जैसा उसने तुम्हें दिया है तैसा उसको भर देओ और उसके कर्मों के अनुसार दूना उसे दे देओ।।
-यो० प्र० प० १८। आ० ५। ६।।
(समीक्षक) देखो! प्रत्यक्ष ईसाइयों का ईश्वर अन्यायकारी है। क्योंकि न्याय उसी को कहते हैं कि जिसने जैसा वा जितना कर्म किया उसको वैसा और उतना ही फल देना। उससे अधिक न्यून देना अन्याय है। जो अन्यायकारी की उपासना करते हैं वे अन्यायकारी क्यों न हों।।१२५।।
१२६-क्योंकि मेम्ने का विवाह आ पहुंचा है और उसकी स्त्री ने अपने को तैयार किया है।। -यो० प्र० प० १९। आ० ७।।
(समीक्षक) अब सुनिये! ईसाइयों के स्वर्ग में विवाह भी होते हैं! क्योंकि ईसा का विवाह ईश्वर ने वहीं किया। पूछना चाहिये कि उसके श्वसुर, सासू, सालादि कौन थे और लड़के बाले कितने हुए? और वीर्य के नाश होने से बल, बुद्धि, पराक्रम आयु आदि के भी न्यून होने से अब तक ईसा ने वहां शरीर त्याग किया होगा क्योंकि संयोगजन्य पदार्थ का वियोग अवश्य होता है। अब तक ईसाइयों ने उसके विश्वास में धोखा खाया और न जाने कब तक धोखे में रहेंगे।।१२६।।
१२७-और उसने अजगर को अर्थात् प्राचीन सांप को जो दियाबल और शैतान है पकड़ के उसे सहस्र वर्ष लों बांध रक्खा।। और उसको अथाह कुण्ड में डाला और बन्द करके उसे छाप दी जिसतें वह जब लों सहस्र वर्ष पूरे न हों तब लों फिर देशों के लोगों को न भरमावे।। -यो० प्र० प० २०। आ० २। ३।।
(समीक्षक) देखो ! मरूं मरूं करके शैतान को पकड़ा और सहस्र वर्ष तक बन्ध किया; फिर भी छूटेगा। क्या फिर न भरमावेगा? ऐसे दुष्ट को तो बन्दीगृह में ही रखना वा मारे विना छोड़ना ही नहीं। परन्तु यह शैतान का होना ईसाइयों का भ्रममात्र है वास्तव में कुछ भी नहीं। केवल लोगों को डरा के अपने जाल में लाने का उपाय रचा है। जैसे किसी धूर्त्त ने किन्हीं भोले मनुष्य से कहा कि चलो ! तुमको देवता का दर्शन कराऊं। किसी एकान्त देश में ले जाके एक मनुष्य को चतुर्भुज बना कर रक्खा। झाड़ी में खड़ा करके कहा कि आंख मीच लो। जब मैं कहूं तब खोलना और फिर जब कहूँ तभी मीच लो । जो न मीचेगा वह अन्धा हो जायेगा। वैसी इन मत वालों की बातें हैं कि जो हमारा मजहब न मानेगा वह शैतान का बहकाया हुआ है। जब वह सामने आया तब कहा-देखो! और पुनः शीघ्र कहा कि मीच लो। जब फिर झाड़ी में छिप गया तब कहा-खोलो! देखा नारायण को, सब ने दर्शन किया ! वैसी लीला मजहबियों की है। इसलिये इनकी माया में किसी को न फंसना चाहिये।।१२७।।
१२८-जिसके सम्मुख से पृथिवी और आकाश भाग गये और उनके लिये जगह न मिली।। और मैंने क्या छोटे क्या बड़े सब मृतकों को ईश्वर के आगे खड़े देखा और पुस्तक खोले गये और दूसरा पुस्तक अर्थात् जीवन का पुस्तक खोला गया और पुस्तकों में लिखी हुई बातों से मृतकों का विचार उनके कर्मों के अनुसार किया गया।। -यो० प्र० प० २०। आ० ११। १२।।
(समीक्षक) यह देखो लड़कपन की बात! भला पृथिवी और आकाश कैसे भाग सकेंगे? और वे किस पर ठहरेंगे? जिनके सामने से भगे। और उसका सिहासन और वह कहाँ ठहरा? और मुर्दे परमेश्वर के सामने खड़े किये गये तो परमेश्वर भी बैठा वा खड़ा होगा? क्या यहां की कचहरी और दूकान के समान ईश्वर का व्यवहार है जो कि पुस्तक लेखानुसार होता है? और सब जीवों का हाल ईश्वर ने लिखा वा उसके गुमाश्तों ने? ऐसी-ऐसी बातों से अनीश्वर को ईश्वर और ईश्वर को अनीश्वर ईसाई आदि मत वालों ने बना दिया।।१२८।।
१२९-उनमें से एक मेरे पास आया और मेरे संग बोला कि आ मैं दुलहिन को अर्थात् मेम्ने की स्त्री को तुझे दिखाऊंगा।। -यो० प्र० प० २१। आ० ९।।
(समीक्षक) भला! ईसा ने स्वर्ग में दुलहिन अर्थात् स्त्री अच्छी पाई, मौज करता होगा। जो जो ईसाई वहां जाते होंगे उनको भी स्त्रियां मिलती होंगी और लड़के बाले होते होंगे औेर बहुत भीड़ के हो जाने के कारण रोगोत्पत्ति होकर मरते भी होंगे। ऐसे स्वर्ग को दूर से हाथ ही जोड़ना अच्छा है।।१२९।।
१३०-और उसने उस नल से नगर को नापा कि साढ़े सात सौ कोश का है। उसकी लम्बाई और चौड़ाई और ऊँचाई एक समान है।। और उसने उसकी भीत को मनुष्य के अर्थात् दूत के नाप से नापा कि एक सौ चवालीस हाथ की है।। और उसकी भीत की जुड़ाई सूर्य्यकान्त की थी और नगर निर्मल सोने का था जो निर्मल कांच के समान था।। और नगर की भीत की नेवें हर एक बहुमूल्य पत्थर से सँवारी हुई थीं। पहिली नेव सूर्य्यकान्त की थी; दूसरी नीलमणि की; तीसरी लालड़ी की, चौथी मरकत की।। पांचवीं गोमेदक की, छठवीं माणिक्य की, सातवीं पीतमणि की, आठवीं पेरोज की, नवीं पुखराज की, दशवीं लहसनिये की, ग्यारहवीं धूम्रकान्त की, बारहवीं मर्टीष की।। और बारह फाटक बारह मोती थे, एक-एक मोती से एक-एक फाटक बना था और नगर की सड़क स्वच्छ कांच के ऐसे निर्मल सोने की थी।। -यो० प्र० प० २१। आ० १६। १७। १८। १९। २०। २१।।
(समीक्षक) सुनो ईसाइयों के स्वर्ग का वर्णन! यदि ईसाई मरते जाते और जन्मते जाते हैं तो इतने बड़े शहर में कैसे समा सकेंगे? क्योंकि उसमें मनुष्यों का आगम होता है और उससे निकलते नहीं और जो यह बहुमूल्य रत्नों की बनी हुई नगरी मानी है और सर्व सोने की है इत्यादि लेख केवल भोले-भोले मनुष्यों को बहका कर फंसाने की लीला है। भला लम्बाई चौड़ाई तो उस नगर की लिखी सो हो सकती परन्तु ऊँचाई साढ़े सात सौ कोश क्योंकर हो सकती है? यह सर्वथा मिथ्या कपोलकल्पना की बात है और इतने बड़े मोती कहां से आये होंगे। इस लेख के लिखने वाले के घर के घड़े में से। यह गपोड़ा पुराण का भी बाप है।।१३०।।
१३१-और कोई अपवित्र वस्तु अथवा घिनित कर्म करनेहारा अथवा झूठ पर चलने हारा उसमें किसी रीति से प्रवेश न करेगा।। -यो० प्र० प० २१। आ० २७।।
(समीक्षक) जो ऐसी बात है तो ईसाई लोग क्यों कहते हैं कि पापी लोग भी स्वर्ग में ईसाई होने से जा सकते हैं। यह बात ठीक नहीं है। यदि ऐसा है तो योहन्ना स्वप्ने की मिथ्या बातों का करनेहारा स्वर्ग में प्रवेश कभी न कर सका होगा और ईसा भी स्वर्ग में न गया होगा क्योंकि जब अकेला पापी स्वर्ग को प्राप्त नहीं हो सकता तो जो अनेक पापियों के पाप के भार से युक्त है वह क्योंकर स्वर्गवासी हो सकता है।।१३१।।
१३२-और अब कोई श्राप न होगा और ईश्वर का और मेम्ने का सिहासन उसमें होगा और उसके दास उसकी सेवा करेंगे।। और ईश्वर उसका मुंह देखेंगे और उसका नाम उनके माथे पर होगा।। और वहां रात न होगी और उन्हें दीपक का अथवा सूर्य्य की ज्योति का प्रयोजन नहीं क्योंकि परमेश्वर ईश्वर उन्हें ज्योति देगा, वे सर्वदा राज्य करेंगे।। -यो० प्र० प० २२। आ० ३। ४। ५।।
(समीक्षक) देखिये यही ईसाइयों का स्वर्गवास ! क्या ईश्वर और ईसा सिहासन पर निरन्तर बैठे रहेंगे? और उनके दास उनके सामने सदा मुंह देखा करेंगे। अब यह तो कहिये तुम्हारे ईश्वर का मुंह यूरोपियन के सदृश गोरा वा अफ्रीका वालों के सदृश काला अथवा अन्य देश वालों के समान है? यह तुम्हारा स्वर्ग भी बन्धन है क्योंकि जहां छोटाई बड़ाई है और उसी एक नगर में रहना अवश्य है तो वहां दुःख क्यों न होता होगा जो मुख वाला है वह ईश्वर सर्वज्ञ सर्वेश्वर कभी नहीं हो सकता।।१३२।।
१३३-देख ! मैं शीघ्र आता हूँ और मेरा प्रतिफल मेरे साथ है जिसतें हर एक को जैसा उसका कार्य ठहरेगा वैसा फल देऊंगा।। -यो० प्र० प० २२। आ० १२।।
(समीक्षक) जब यही बात है कि कर्मानुसार फल पाते हैं तो पापों की क्षमा कभी नहीं होती और जो क्षमा होती है तो इञ्जील की बातें झूठीं। यदि कोई कहे कि क्षमा करना भी इञ्जील में लिखा है तो पूर्वापर विरुद्ध अर्थात् ‘हल्फदरोगी’ हुई तो झूठ है। इसका मानना छोड़ देओ। अब कहां तक लिखें इनकी बाइबल में लाखों बातें खण्डनीय हैं। यह तो थोड़ा सा चिह्न मात्र ईसाइयों की बाइबल पुस्तक का दिखलाया है। इतने ही से बुद्धिमान् लोग बहुत समझ लेंगे। थोड़ी सी बातों को छोड़ शेष सब झूठ भरा है। जैसे झूठ के संग से सत्य भी शुद्ध नहीं रहता वैसा ही बाइबल पुस्तक भी माननीय नहीं हो सकता किन्तु वह सत्य तो वेदों के स्वीकार में गृहीत होता ही है।।१३३।।
इति श्रीमद्दयानन्दसरस्वतीस्वामिनिर्मिते सत्यार्थप्रकाशे
सुभाषाविभूषिते कृश्चीनमतविषये त्रयोदश समुल्लास सम्पूर्ण ।।१३।।
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