👉 समर्पण
🔷 एक तपस्वी किसी धर्मात्मा राजा के महल में
पहुँचे। राजा गदगद हो गए और कहे, "आज मेरी इच्छा है कि आपको मुंह
माँगा उपहार दूँ"। तपस्वी ने कहा, "आप ही अपने मन
से सबसे अधिक प्रिय वस्तु दे दें, मैं क्या माँगूँ"।
🔶 राजा ने कहा, "अपने राज्य का समर्पण कर दूँ"। तपस्वी बोले, "वह तो प्रजाजनों का है। आप तो संरक्षक मात्र हैं"।
🔷 राजा ने बात मानी और दूसरी बात कही, "महल, सवारी आदि तो मेरे हैं, इन्हें
ले लें"। तपस्वी हँस पड़े और कहा, "राजन आप भूल
जाते हैं। यह सब भी प्रजाजनों का है। आपको कार्य की सुविधा के लिए दिया गया
है"।
🔶 अब की बार राजा ने अपना शरीर दान देने का विचार
व्यक्त किया। उसके उत्तर में तपस्वी ने कहा, "यह भी आपके
बाल−बच्चों का है, इसे कैसे दे पाएंगे"।
🔷 राजा को असमंजस में देखकर तपस्वी ने कहा, "आप अपने मन का अहंकार दान कर दें। अहंकार ही सबसे बड़ा बंधन है"।
🔶 राजा दूसरे दिन से अनासक्त योगी की तरह रहने
लगा। तपस्वी की इच्छा पूर्ण हो गई।
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