शिव भक्त उपमन्यु की कथा ।
शिव पुराण में भक्त उपमन्यु की कथा का उल्लेख है। धौम्य ऋषि के बड़े भाई और मुनि व्याघ्रपाद के पुत्र उपमन्यु जब बाल्यावस्था में थे तब उन्होंने दूध पाने के लिए शिव आराधना की थी।
जिससे भगवान शिव ने प्रसन्न होकर बालक उपमन्यु को क्षीरसागर प्रदान किया था साथ ही पाशुपत व्रत, पाशुपत ज्ञान, तात्विक व्रतयोग और चिरकाल तक उसके प्रवचन की पटुता प्रदान की थी।
इस प्रकार उपमन्यु ने केवल दूध के लिए तपस्या करके भी परमेश्वर शिव से सब कुछ पा लिया।
एक समय की बात है उपमन्यु अपने मामा के यहाँ गए थे तब उन्हें पीने के लिए जरा सा दूध दिया गया पर उनके मामा के बेटे को इक्षानुसार दूध पीने को मिला।
यह देखकर बालक उपमन्यु के मन में ईर्ष्या हुई और वे अपने माँ के पास जाकर बड़े प्रेम से बोले –
‘ माँ मुझे गाय का गरम दूध पीना है, थोड़े से मेरा मन नहीं भरता। मेरे मामा का बेटा इक्षानुसार दूध पीता है अतः मुझे भी ढेर सारा दूध चाहिए। ‘
बालक उपमन्यु का दूध के लिए लालायित होना
बेटे की बात सुनकर उस तपस्विनी माता के मन में बड़ा दुःख हुआ और उसने अपने बेटे को प्रेमपूर्वक छाती से लगा लिया और दुलार करने लगी पर अपनी निर्धनता का स्मरण होने पर और भी दुखी हो गई।
बालक उपमन्यु बार बार दूध को याद करके रोते हुए माता से दूध मांगता रहा तब हारकर उस तपस्विनी माता ने बालक को बहलाने के लिए कुछ बीजों को पीस कर उसे पानी में घोल दिया और इस प्रकार कृत्रिम दूध बनाकर उसे उपमन्यु को पीने को दिया।
माता के दिए उस कृत्रिम दूध को मुँह से लगाते ही बालक उपमन्यु ने व्याकुल होकर कहा – ‘ माँ यह दूध नहीं है। ‘
बालक उपमन्यु को माता का उपदेश
तब माता ने बालक के आंसू पोछते हुए उसे ह्रदय से लगा लिया और कहा –
‘ बेटा अपने घर में सभी वस्तुओं का अभाव होने के कारण दरिद्रतावश मैंने तुम्हें पिसे हुए बीजों को घोलकर कृत्रिम दूध तैयार करके दिया था पर तुम बार बार मुझसे दूध मांगकर मुझे दुखी करते हो।
भक्तिपूर्वक माता पार्वती और अनुचरों सहित भगवान शिव के चरणों में जो कुछ समर्पित किया गया हो, वही सम्पूर्ण सम्पत्तियों का कारण होता है।
इस जगत में महादेव ही धन देने वाले हैं, वे ही सकाम पुरुषों को उनकी इक्षा के अनुसार फल देने वाले हैं।
आज से पहले हमने कभी भी धन की कामना से भगवान शिव की पूजा नहीं की है इसलिए दरिद्रता को प्राप्त हुए हैं। इसी कारण मैं तुम्हें दूध देने में सक्षम नहीं हूँ।
बेटा ! पूर्वजन्म में भगवान शिव अथवा विष्णु के उद्देश्य से जो कुछ दिया जाता है, वही वर्तमान जन्म में मिलता है, दूसरा कुछ नहीं।
अगर तुम भक्तिपूर्वक भगवान शिव की आराधना करोगे तो वे तुम्हें निश्चय ही जो चाहोगे सब देंगे।
अन्य देवताओं को छोड़कर मन, वाणी और क्रिया द्वारा भक्तिभाव के साथ पार्षदगणों सहित उन्हीं साम्ब सदाशिव का भजन करो।
” नमः शिवाय ” यह मंत्र साक्षात उन देवाधिदेव शिव का वाचक माना गया है। प्रणव सहित जो दूसरे सात करोड़ महामंत्र हैं, वे सब इसी में लीन होते हैं और फिर इसी से प्रकट होते हैं।
यह मंत्र दूसरे सभी मन्त्रों से शक्तिशाली है। इसलिए तुम दूसरे मन्त्रों को त्यागकर केवल पंचाक्षर के जप में लग जाओ। इस मंत्र के जिह्वा पर आते ही इस संसार में कुछ भी दुर्लभ नहीं रह जाता है।
यह बड़ी से बड़ी आपत्तियों का निवारण करने वाला है। मैंने तुम्हें जो पंचाक्षर मंत्र बताया है, उसको मेरी आज्ञा से ग्रहण करो। इसके जप से ही तुम्हारी रक्षा होगी। ‘
उपमन्यु की कठोर तपस्या
तब उस महातेजस्वी बालक ने कहा – ‘ माँ ! चिंता न करो अगर माता पार्वती सहित भगवान शिव विद्यमान हैं तो मैं उनको तपस्या से प्रसन्न करूंगा और देर या जल्दी उनसे मनोवांछित वर प्राप्त करूंगा। ‘
ऐसा कहकर माता का आशीर्वाद लेकर उपमन्यु ने हिमालय पर्वत के एक शिखर पर जाकर भगवान शिव की कठोर तपस्या आरम्भ की।
वे मिट्टी की एक शिवलिंग बनाकर पंचाक्षर मंत्र के द्वारा एकाग्रचित्त होकर भगवान शिव की पूजा आराधना करने लगे। इस प्रकार वे बहुत समय तक उस तपस्या में लगे रहे।
कठिन तप के कारण उनका शरीर कृशकाय हो गया। उस एकाकी कृशकाय बालक उपमन्यु को शिव में मन लगाकर तपस्या करते देख ऋषि मरीचि के शाप से पिशाचभाव को प्राप्त हुए कुछ मुनियों ने अपने राक्षस स्वभाव के कारण सताना और उनके तप में विघ्न डालना आरम्भ किया।
उनके द्वारा सताए जाने पर भी शिव भक्त उपमन्यु किसी प्रकार तप में लगे रहे और ” नमः शिवाय ” मंत्र का जोर जोर से उच्चारण करते रहे।
उस शब्द को सुनते ही उनकी तपस्या में विघ्न डालने वाले वे मुनि उस बालक को सताना छोड़कर उसकी सेवा करने लगे। ब्राह्मण बालक महात्मा उपमन्यु की उस तपस्या से सम्पूर्ण चराचर जगत प्रदीप्त एवं संतप्त हो उठा।
भगवान शिव की परीक्षा
तब भगवान विष्णु के अनुरोध करने पर शिवजी ने बालक उपमन्यु के संकल्प की परीक्षा लेने के उद्देश्य से उनके पास देवराज इन्द्र के रूप में जाने का विचार किया।
फिर श्वेत ऐरावत हाथी पर सवार होकर स्वयं देवराज इन्द्र का शरीर ग्रहण करके भगवान शिव देवता, असुर, सिद्ध और नागों के साथ बालक उपमन्यु के पास पहुँचे।
इन्द्र रूप में आए भगवान शिव को देखकर उपमन्यु ने उनको प्रणाम करके उनकी स्तुति की। तब इन्द्र रूपधारी शिव बोले – ‘ हे उपमन्यु, मैं तुम्हारी तपस्या से प्रसन्न हूँ, वर मांगो। मैं तुम्हें सभी अभीष्ट वस्तुएँ प्रदान करूँगा। ‘
यह सुनकर उपमन्यु बोले – ‘ भगवन, अगर आप मुझपर प्रसन्न हैं तो मुझे शिव भक्ति प्रदान करें। ‘
तब इन्द्र बोले – ‘ हे तपस्वी, तुम मुझे नहीं जानते मैं देवताओं का राजा और तीनों लोकों का अधिपति इन्द्र हूँ, सभी देवता मुझे नमस्कार करते हैं तुम मेरी शरण में आ जाओ मैं तुम्हें सबकुछ दूँगा।
उस निर्गुण रूद्र को त्याग दो। उस निर्गुण शिव की भक्ति से तुम्हारा कौन सा कार्य सिद्ध होगा, जो देवताओं की पंक्ति से बाहर होकर पिशाचभाव को प्राप्त हो गया है।’
यह सुनकर परम बुद्धिमान शिव भक्त उपमन्यु इन्द्र को अपनी तपस्या में विघ्न डालने वाला जानकर बोले –
‘ हे देवराज, यद्यपि आप भगवान शिव की निंदा में तत्पर हैं फिर भी आपने उन्हें निर्गुण कहकर उनकी महत्ता को स्पष्ट कर दिया है। आप नहीं जानते की वो देवों के भी ईश्वर तथा प्रकृति से परे हैं।
तत्वज्ञानी पुरुष उत्कृष्ट जानकर जिनकी उपासना करते हैं मैं उन्हीं भगवान शिव से वर मांगूँगा अन्यथा अपने प्राण त्याग दूँगा पर अपने इष्ट की निंदा नहीं सुनूँगा।
दूध के लिए जो मेरी इक्षा है वो यों ही रह जाये पर शिवास्त्र के द्वारा तुम्हारा वध करके मैं अपने इस शरीर को त्याग दूंगा। ‘
ऐसा कहकर स्वयं मर जाने का निश्चय करके उपमन्यु इन्द्र का वध करने के लिए उद्यत हो गए।
उन्होंने अघोर अस्त्र से अभिमंत्रित भस्म लेकर इन्द्र के उद्देश्य से छोड़ दिया और बड़े जोर से सिंहनाद किया और फिर भगवान शम्भु के चरणों का ध्यान करते हुए अपने शरीर को योगाग्नि में भस्म करने के लिए उद्यत हो गए और आग्नेयी धारणा धारण करके स्थित हुए।
शिव भक्त उपमन्यु जब इस प्रकार स्थित हुए तब भगवान शिव ने योगी उपमन्यु की उस आग्नेयी धारणा को अपनी सौम्य दृष्टि से रोक दिया।
उपमन्यु के छोड़े हुए उस अघोरास्त्र को भगवान की आज्ञा से शिववल्लभ नंदी ने बीच में ही पकड़ लिया।
उपमन्यु को वर की प्राप्ति
तब परमेश्वर भगवान शिव ने अपने मूल स्वरुप को धारण करके माता पार्वती सहित उपमन्यु को दर्शन दिया और बोले –
‘ हे वत्स, आज से तुम अपने भाई बंधुओं के साथ सदा अपनी इक्षानुसार भोज्य पदार्थों का उपभोग करो। दुःख से छूटकर सदा सुखी रहो, तुम्हें मैं अपनी परम भक्ति प्रदान करता हूँ।
आज से तुम मेरे और पार्वती के पुत्र हो। मैं तुम्हें क्षीरसागर प्रदान करता हूँ। केवल दूध का ही नहीं बल्कि मधु, घी, दही, विभिन्न प्रकार के अन्न एवं फलों के रस का समुद्र भी मैं तुम्हें प्रदान करता हूँ।
तुम्हें कभी इनकी कमी नहीं होगी। मैं सभी प्रकार के भोज्य पदार्थों का समुद्र तुम्हें प्रदान करता हूँ। मैं तुम्हें अमरत्व तथा गणपति के समान सनातन पद प्रदान करता हूँ।
इसके अलावे अगर तुम्हारे मन में कोई और अभिलाषा हो तो वह भी मुझसे मांग लो। मैं आज तुम्हें वह सब प्रदान करूँगा। ‘
ये सुनकर उपमन्यु ने दोनों हाथ जोड़कर दण्डवत प्रणाम करके भगवान शिव से कहा –
‘ हे भक्तवत्सल, मुझे अपनी भक्ति प्रदान कीजिये, मेरा मन सदा आपके चरणों में लगा रहे और मेरे जो अपने सगे संबंधी हैं उनमें सदा मेरी श्रद्धा बनी रहे। हे करुणासिन्धु, आप मुझपर प्रसन्न होइए। ‘
तब भगवान शिव बोले – ‘ हे उपमन्यु, मैं तुमपर अत्यन्त प्रसन्न हूँ। तुम्हारी सब इक्षा पूरी होगी। मेरे प्रति सदा तुम्हारी भक्ति बनी रहेगी। ‘
यह कहकर भगवान शिव अंतर्ध्यान हो गए। भगवान शिव से अभीष्ट वर पाकर उपमन्यु बहुत प्रसन्न हुए और अपनी माता के पास चले गए।
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