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सत्यकाम की गौ सेवा से ब्रह्मज्ञान

सत्यकाम जाबाला की कथा- 

सत्यकाम की गौ सेवा से ब्रह्मज्ञान 




सत्यकाम की गो-सेवा

 

 

    महर्षि हरिद्रुम के पुत्र गौतम अपने समय के आचार्यों में सब से बढ़ें-चढ़े थे । उनके गुरुकुल में देश के कोने-कोने से सैकड़ों विद्यार्थी विद्या सीखने के लिए आते थे । जिस समय का यह हाल है उस समय गुरुकुलों में विद्यार्थियों से कोई फीस नहीं ली जाती थी, उनके खाने पीने और वस्त्र आदि का प्रबन्ध गुरु की ओर से ही होता था । इसका यह अर्थ नहीं कि गुरु लोग इतने धनी होते थे, किन्तु बड़े-बड़े राजा एवं गृहस्थ लोग उनकी आज्ञा से सदा गुरुकुल में अन्न- वस्त्र से सहायता किया करते थे । कुछ विद्यार्थी गाँवों से केवल अपने खाने भर का अन्न माँग लाते थे ।

 

         गौतम के गुरुकुल में अधिक भीड़ होने का कारण यह था कि वह अपने विद्यार्थियों के ऊपर कभी अप्रसन्न नहीं होते थे । उनका स्वभाव बड़ा दयालु था और पढ़ाने-लिखाने में भी वह बे-जोड़ थे । काठ के समान जड़ बुद्धि वाले बालक भी उनके यहाँ से पंडित बन कर घर लौटते थे।

 

       एक दिन गौतम ऋषि के आश्रम में एक दस-बारह वर्ष का बालक ब्रह्मचारी के वेश में आया, किन्तु न उसके हाथ में दूसरे ब्रह्मचारियों की तरह समिधा थी, न कमर में मुज की मेखला थी, न कंधे पर मृग चर्म था और न कंठ में जनेऊ थी । किन्तु बालक देखने में बड़ा होनहार और स्वभाव से विनम्र दिखा रहा था। गौतम के समीप जाकर उसने दूर से ही साष्टांग प्रणाम किया और बोला-- गुरुदेव । मैं आपके गुरुकुल में विद्या सीखने के लिए आया हूँ। मेरी माँ ने मुझे आप के पास भेजा है। मैं ब्रह्मचर्य पूर्वक रहूँगा पर मेरा अभी तक यज्ञोपवीत संस्कार नहीं हुआ है। भगवन‌ ! मैं आपकी शरण में आया हूँ, मुझे स्वीकार कीजिए ।

 

        भोले-भाले किन्तु तेजस्वी बालक के यह शब्द गुरु गौतम के निर्मल हृदय में अंकित हो गए। उसकी सरलता और तेजस्विता ने उन्हें थोड़ी देर के लिए विस्मित-सा कर दिया । थोड़ी देर तक अपने विद्यार्थियों की ओर देखने के बाद उन्होंने मंद स्वर में पूछा--“वत्स ! बहुत अच्छा किया जो तू यहाँ विद्या सीखने के लिए आया । तेरे पिता नहीं हैं क्या,  तेरा गोत्र क्या है ? मैं तुझे अवश्य विद्या सिखाऊँगा । गुरु की सम्मति सुनकर पास बैठे हुए विद्यार्थियों में काना-फूसी होने लगी ।

 

 

       बालक ने तुरन्त ही विनम्र स्वर से जवाब दिया--गुरुदेव ! मैंने अपने पिता जी को नहीं देखा हे और उनका नाम भी नहीं जानता। अपनी माँ से पूछने के बाद मैं आप को बता सकता हूँ। मेरा गोत्र क्या है, इसका भी कुछ पता मुझे नहीं है। किन्तु गुरुदेव । इसे भी मैं माँ से पूछकर बतला सकता हूँ । मैं आप की सेवा में रात-दिन लगा रहूँगा और ब्रह्मचर्य का ठीक - ठीक पालन करूँगा।

 

      बालक की भोली-माली बातें सुनते ही गौतम की शिष्य मण्डली में एक दबी-सी खिलखिलाहट फूट निकली। अपने मुंह को बगल में बैठे हुए साथी के कान के पास ले जाकर एक शिष्य ने कहा -- भाई । अब सुनो । दुनिया में ऐसे भी लोग होते हैं, जिन्हें अपने पिता और गोत्र का नाम ही नहीं मालूम रहता । इस पर वेद पढ़ने के लिए आया है । मालूम होता है कि ब्राह्मण नहीं है ।

 

       साथी ने कहा --मुझे भी ऐसा ही लग रहा है। लेकिन भाई । है तो तेजस्वी । देखा न, बात कितनी गम्भीरता से कर रहा है, मुझे याद है कि जब में पहली बार गुरुकुल में आया तो किसी से बोलने की हिम्मत ही नहीं होती थी यद्यपि मेरे पिता जी भी साथ-साथ थे । मगर -इसे देखी तो ऐसा लगता है मानो यहीं जनम भर से रहता है ।

 

       एक सयाना समझता जाने वाला शिष्य गौतम का मुंह लगा था । उसने मुसकराते हुए कहा--'गुरुदेव ! क्या आप के गुरुकुल में ऐसे” भी छात्र प्रवेश पा सकते हैं, जिनका यज्ञोपवीत संस्कार भी नहीं हुआ रहता । यदि ऐसा है तो कल में भी दस-बीस छात्रों को ले आऊँगा जो- पड़ोस के गाँव में रहते हैं ।

 

      ऋषि गौतम अभी उस सयाने विद्यार्थी की ओर ताक ही रहे थे- कि एक सयाने विद्यार्थी ने कहा--'गुरुदेव । जिसको अपने पिता और गोत्र का नाम भी नहीं मालूम है क्या वह भी आप के यहां रह सकता है ?

 

     आगन्तुक बालक गौतम के आश्रमवासी शिष्यों की इस छींटाकशी को समझ रहा था । उनके इशारों और कानाफूसी का भाव भी समझ: रहा था । पर उसका ध्यान गुरुदेव के शब्दों पर था। थोड़ी देर तक वह उसी तरह खड़ा रहा । गौतम भी उतनी देर तक जाने क्या-क्या सोचते रहे ।

 

        फिर अपने सामने विद्यार्थी की ओर देखते हुए गौतम ने कहा--- 'वत्स । जिसका पिता नहीं है, उसका पिता गुरु है। मुझे ही उसका” यज्ञोपवीत करना चाहिए । तुम जिन बालकों की चर्चा कर रहे हो यदि उनके भी पिता नहीं है तो मैं उन्हें सहर्ष आश्रम में लेने को तैयार हूं, उनका भी यज्ञोपवीत संस्कार मुझे करना पड़ेगा । तुम उन्हें ला सकते हो।

 

       सयाने विद्यार्थी के स्वभाव से गौतम परिचित थे अतः उसकी बातों का जवाब देना कोई जरूरी नहीं था। फिर तो बालक की ओर दयालु भाव से देखते हुए वह बोले--'बेटा । अब तुम जाओ और अपनी मां से अपने पिता जी का तथा अपने गोत्र का नाम पूछ कर जल्द चले आओ । तुम्हारे यज्ञोपवीत संस्कार में तुम्हारे पिता और गोत्र के नाम की जरूरत पड़ेगी, इसीलिए तुम्हें यह कष्ट दे रहा हूँ, तुम कुछ दूसरा कुछ मत समझना ।!

 

      तेजस्वी बालक गुरुदेव के चरणों पर शीश रख कर तथा छात्रा मंडली की ओर हाथ जोड़ कर प्रणाम करने के बाद अपने निवास स्थान को ओर रवाना हो गया । थोड़ी देर तक उसकी इस विनय भरी चेष्टा ने गौतम समेत उनकी छात्र मण्डली में निस्तब्धता का वातावरण पैदा कर दिया । उसके जाने के थोड़ी देर बाद गौतम ने शिष्यों की सम्बोधित कर कहा--वत्सों । किसी नये बालक के साथ तुम्हें सगे भाई सा व्यवहार करना चाहिए। देखो न, वह कितना सरल, तेजस्वी और होनहार बालक है ।? शिष्य मंडली एकदम चुप हो गई थी । दूसरे दिन प्रातःकाल गौतम की शिष्य मण्डली नित्य कर्म से निवृत्त होकर गुरु के पास पाठ पढ़ने के लिए आ गई थी । गुरु उन्हें पाठ पढ़ाने आ ही रहे थे कि वह तेजस्वी बालक उसी वेश-भूषा में फिर आ गया । कल की तरह उसने फिर गुरु को दण्डवत प्रणाम कर शिष्य मंडली की ओर हाथ जोड़ कर अभिवादन किया । गौतम ने बैठने का आदेश देते हुए पूछा--“वत्स ! अच्छा हुआ तुम आ गए। आज ही शुभ मुहूर्त में तुम्हारा यज्ञोपवीत संस्कार प्रारम्भ कर देना चाहिए । अपनी माँ से पिता का नाम और गोत्र तो पूछ आए हो न। बालक वो खड़े होकर जवाब दिया--हाँ गुरुदेव । माता जी से पुछ आया हूँ। मां ने कहा है कि मेरे पिता जी का नाम उसे भी मालूम नहीं है। वह अपनी युवावस्था में अनेक साधु- सन्‍तों की सेवा में लगी रहती थी, उन्हीं दिनों में उसे गर्भ भी रह गया था । जिससे गर्भाधान हुआ था उसका नाम और नाम मेरी मां को मालूम नहीं है। उसने यह कहा है कि गुरुदेव से जाकर यह सब बाते इस! तरह कह देना। और यदि माता के नाम से यज्ञोपवीत संस्कार हो सकता हो तो मेरा नाम जबाला बतला देना । बस यही उसने कहा है। अब आपकी जो आज्ञा हो । शिष्यों की उत्सुक मण्डली में जोर का तहलका मच गया । उस सयाने विद्यार्थी ने अपने बगल में बैठे हुए एक साथी से कहा-- मैंने तो तुरन्त ही यह अन्दाज लगा लिया था कि दाल में कुछ काला जरूर है । साथी ने कहा--'भाई ! जो भी हो ! बालक है तेजस्वी ओर सत्य बोलने वाला । ऐसी बात तो मैं अपने बारे में सच होने पर भी कभी नहीं कह सकता था ।

 

       शिष्यों की ओर दृष्टि फेरते हुए गौतम ने कहा--“वत्सों ! तुम्हें ऐसे सत्यनिष्ठ और निर्भीक बालक की भूरि-भूरि प्रशंसा करनी चाहिए । फिर बालक को एक ओर बैठने का इशारा करते हुए वह बोले--“बेटा तुम्हारी बाते सुन कर मुझे; यह निश्चय हों गया कि तुम सच्चे ब्राह्मण- कुमार हो । मैं तुम्हारा नाम सत्यकाम रखता हूँ। में तुम्हें शिष्य रूप में अंगीकार कर सारी विद्याएं सिखाऊँगा । शिष्यों इस सत्यकाम का यज्ञोपवीत संस्कार आज ही प्रारम्भ होगा,' तुम सब जाओ और सब सामग्री इकट्ठा करो ।

 

       गौतम की निश्चय भरी वाणी सुन कर शिष्य मण्डली चित्र के समान ठगी-सी बैठी रह गई । थोड़ी ढेर तक चुपचाप रहने के बाद काना-फूसी करते हुए वह उठे और कई झुंडों में बेट कर उपनयन संस्कार की सामग्रियां इकट्टी करने के लिए इधर-उधर चलते गए ।

 

      शुभ मुहूर्त में सत्यकाम का उपनयन संस्कार सम्पन्न' किया गया। गौतम की पत्नी ने अपने इस प्रिय शिष्य की कटि में मुंज मेखला पहीनाई। आज से जाबाला का पुत्र होने के कारण उसका नाम जाबाल भी रखा गया । इस तरह सत्यकाम जाबाल नाम से वह गौतम के गुरुकुल में विख्यात हुआ । यद्यपि बहुतेरे छात्र उसके प्रति गौतम का अटूट स्नेह देख कर मन ही मन जलते थे पर उसकी विनीत वाणी और विनम्र स्वभाव से मुख पर कुछ कहने का साहस उनमें भी नहीं होता था ।

 

      यज्ञोपवीत के चार दिन बीत गए । पाँचवे दिन प्रातःकाल हवन कर लेने के बाद गौतम ने सत्यकाम को पास बुलाकर शिष्यों की सुनाते हुए कहा-- बेटा सत्यकाम । आज से तुझे मैं एक सेवा का काम सौंपता हूँ, उसके लिए तुझे आश्रम से बहुत दूर वन से जाना पड़ेगा ।

 

       सत्यकाम ने हाथ जोड़कर कहा--गुरुदेव ! मेरा आश्रम वही है, जहां रहने के लिए आपकी आज्ञा होगी। मुझे गुरुदेव की क्या सेवा करनी पड़ेगी?

 

     शिष्य मंडली गौतम की बाते सुनने के लिए उत्सुक हो उठी । चारों ओर आँखें फेरते हुए गौतम ने कहा--“वत्स ।मेरे पास इस समय चार सौ गौएँ हैं, इनको ठीक से खाने-पीने को यहाँ नहीं मिलता । बहुत-सी एकदम बुड्ढी ओर बेकाम भी हो गई हैं। मैं चाहता हूँ कि तुम इन सब को साथ लेकर सुदूर वन में चले जाओ, और वहीं रहकर चराओ । जिस दिन इनकी संख्या चार सौ से बढ़ कर एक सहस्त्र की हो जायेगी, उसी दिन लौट कर आने पर तुम्हारा स्वागत किया जायेगा । बोलो तुम्हें स्वीकार है न ।

 

     सत्यकाम का हृदय प्रसन्नता से भर उठा था, हाथ जोड़ कर गद- गद कंठ से वह बोला--..'गुरुदेव । अपनी आज्ञा दे देने के बाद आप जो यह पूछते हैं कि 'स्वीकार है न” यही मेरा अभाग्य है। आपकी आशा ही मेरे जीवन का ध्येय है। मैं सहर्ष तैयार हूँ, मुझे जाने की आज्ञा दीजिए!

 

       शिष्य मण्डली में से एक भावुक छात्र ने कहा--गुरु जी ! यह छोटा बालक बेचारा अकेले चार सौ गौओं की रखवाली किस तरह कर पाएगा । दो एक सहायक इसके साथ और भी कर दीजिए ।

 

     सत्यकाम ने कहा--.'भाई ! मुझे सहायकों की जरूरत नहीं है, गुरुदेव की आज्ञा ही मेरी सहायक है । पहले गाय चराने वाले एक शिष्य ने अपने उस साथी से, जो सहायक की बात कर रहा था, कान में कहा--'अजी ! जाने भी दो । बेवकूफ मर जायेगा । इतनी गौओं का संभालना आसान काम नहीं है, अभी इसको कभी का अनुभव नहीं है कि गुरु जी की गौएँ कितना परेशान करती हैं ।

 

       दूसरे साथी ने कहा--भाई सत्यकाम ! यहाँ तो कह ले रहे हो 'मगर वहाँ जब जंगली पशु गोओं के ऊपर दूटेगें तो तुम अकेले क्या कर सकोगे?

 

        सत्यकाम ने कहा--गुरुदेव । का आर्शीवाद उन हिंसक जंगली पशुओं को भी मार कर भगा देगा। मुझे उनका तनिक भी भय नहीं है!  गौतम की शिष्य मण्डली के सब विद्यार्थी एक दूसरे को ताकने लगे । किसी में अब इतनी शक्ति नहीं रही जो सत्यकाम का परिहास कर सकता हो। गौतम ने उसका शीर सहलाते हुए कहा--बेटा । तेरे साहस और उत्साह की जितनी प्रशंसा की जाये थोड़ी है। तुझे संसार में कोई भी कठिन काम न होगा। हिमालय का दुर्गम शिखर और समुद्र की भीषण लहरें भी तुम्हारे मार्ग में बांधा नहीं डाल सकतीं, वन्य के हिंसक पशुओं की क्या शक्ति है ?

 

      सभी लोग चुप थे। गौतम ने छाती से लगा कर सत्यकाम को अशीर्वाद दिया । वह गौओं के साथ वन में जाने के लिए तैयार हो गया । गुरुदेव के चरणों की धूल को ललाट में लगाकर उसने शिष्य मण्डली का अभिवादन किया। सब लोग ताकते रह गये । तेजस्वी सत्यकाम ने गोशाला की ओर जाते हुए गुरु पत्नी को भी प्रणाम किया और विधिवत्‌ आशीर्वाद ग्रहण कर जंगल की ओर प्रस्थान किया ।

 

        उसके हाथ में एक लाठी थी । कंधे पर मृगचर्म तथा कमंडल । और पीठ पर गुरुपत्नी के दिए हुए पथ के लिए कुछ उपहारों की एक गठरी, जो लटक रही थी । उसके साथ चल रही थीं चार सो दुबली गौएँ । गौओं को साथ लेकर उसने ऐसे सुन्दर वन का मार्ग पकड़ा, जिसमें गौओं के लिए चारा, जल और छाया की अनेक सुविधाएँ थी। कभी वह आगे-आगे चलता और कभी पीछे-पीछे । किसी गाय की पीठ पर थपकियाँ देता और किसी का मुख चूमता । छोटे -छोटे वछडों के साथ उसका भाई जैसा स्नेह हो गया । मार्ग में जिधर वह चलता उसी ओर सारा का सारा झुण्ड उमड़ पड़ता । इस प्रकार चलते-चलते उस सुन्दर सघन हरे-भरे प्रदेश में वह पहुँच गया, जिसकी लालसा में आश्रम से चला था। वहाँ पहुँच कर उसने देखा कि कोसो तक एक सपाट मैदान है, जिसमें लम्बी-लम्बी घासें उगीं हुई हैं, सघन छायादार वृक्षों की कतारें हैं, छहों ऋतुओं में निर्मल जल से भरी रहने वाली कई पवित्र बावलियाँ हैं । न वहाँ बहुत ठंडक पड़ती है न भीषण गर्मी । दूर से ही शीतल मद सुगन्घित पवन के प्राणदायी झंकोरे गोओं समेत उसका स्वागत करते हुए मानों बुला रहे थे । उस सुन्दर वन्य प्रान्त में पहुँच कर सत्यकाम ने गौओं को रुकने की आवाज दी और स्वयं अपने लिए. एक छोटी-सी झोंपड़ी के प्रबन्‍ध में लग गया । झोंपड़ी को तैयार कर वह तन मन से गुरु की आज्ञा में लग गया। रात दिन गौ-चारण के सिवा वहाँ उसके लिए दूसरा काम ही क्या था । आस पास के' रमणीय सृष्टि-सौन्दर्य में वह इतना तन्मय हो उठा, गौओं की स्नेह भावना में इस प्रकार लीन हो उठा कि कभी एक क्षण के लिए भी उसे अपने अकेलापन का स्मरण नहीं हुआ । एक-एक कर दिन पर दिन बीतते चले गये । वन की सुन्दर प्राकृतिक सुविधाओं में पल- कर गौंओं की संख्या में आशातीत वृद्धि हुई । जो आश्रम से आने पर निरी बछियाँ थीं वे तीन ही चार वषों मे दो-दो तीन-तीन बछुड़ों की माँ वन गई । बुड्ढी गौएं भी जवान को मात करने लगी । इस प्रकार सत्यकाम का वह आश्रम एक गुरुकुल ही हो चला था । गौंओं के छोटे- छोटे बछड़े उसको आगे पीछे से घेर कर कूदते फाँदते निकल जाते । उनको सत्यकाम विविध नामों से जब पुकारता तो भीड़ में से उछलते हुए उसके ऊपर चढ़ने को वह आतुर हो उठते । वह उनका कभी तो मुख चुमता और कभी -कभी थपकियाँ और थपेड़े देकर उनको दुलार देता । यदि संयोग से कोई गाय बीमार हो जाती, तो वह तन मन से उनकी सेवा में जुट जाता, जब तक वह अच्छी न होती तब तक अन्न-जल भी न ग्रहण करता । बड़े-बड़े बलवान गजराज की तरह ऊँचे बैलों की भीड़ देख कर सत्यकाम के हर्ष का वारा पार न रहता । इस तरह उसके चार-पाँच वर्ष बीत गए । चार सो गौओं की संख्या सत्यकाम के अनजाने में दो सहस्त्र से अधिक हो चुकी थीं, पर उसे इसका पता नहीं था। वह कभी इनको गिनता तो था नहीं, जो तुरन्त ध्यान आ जाता, क्योंकि उस सन्तोष और शांति में वह अपना जीवन चला रहा था, जिसमें मनुष्य का ध्यान हिसाब-किताब भूल कर केवल काम पर रहता है ।

 

       एक दिन प्रातःकाल सत्यकाम सूर्य को अर्ध्य दे रहा था कि पीछे खड़ी हुई वैलों की भीड़ में से मनुष्य की-सी आवाज आई--“सत्य- काम ।सत्यकाम के लिए मानव-स्वर चार पांच वर्षों से अपरिचित हो चला था । आवाज सुनते ही उसका ध्यान बट गया । पीछे देखा तो एक बलवान ऊँचा वृषभ आगे बढ़कर उसकी ओर ताक रहा है। सत्य काम ने कहा--भगवन । क्या आज्ञा है ?

 

        वृषभ ने कहा--वत्स । अब हमारी संख्या सहस्त्र से ऊपर हो रही है । अब हमें आचार्य के पास ले चलो। अपनी अटूट सेवा से तुम ब्रह्मज्ञान के अधिकारी बन चुके हो । मेरी ओर देखो, मैं तुम्हें ब्रह्मज्ञान के एक पाद (एक अंश) का उपदेश कर रहा हूं ।

 

           सत्यकाम ने हाथ जोड़कर आदरपूर्वक कहा--भगवन‌! आप के उपदेश को प्राप्त कर मेरा जीवन सफल हो जायेगा ।!

 

 

           वृषभ ने सत्यकाम को ब्रह्मज्ञान के एक अंश का उपदेश देने के बाद कहा--वत्स । इस अंश का नाम प्रकाशवान है । अगला उपदेश तुम्हें स्वयं अग्निदेव करेंगे। इतना कहने के बाद वृषभ का मानवीय स्वर बन्द हो गया और वह भीड़ में जाकर जुगाली करने लगा ।

 

        ब्रह्मज्ञान के एक अंश को ग्रहण करने के बाद सत्यकाम का ललाट तेज की अधिकता से दीप्तिमान हो उठा, हृदय में शान्ति छा गई। मन एक अलौकिक सन्‍तोष से भर-सा गया ।

 

        दूसरे दिन प्रातःकाल सत्यकाम गौंओं को लेकर गुरुकुल की ओर जब रवाना होने लगा, तब वहां के पशु-पक्षी तथा लता-गुल्म तक उदास हो गए । रास्ते में उसने पहली रात बिताने के खयाल से सूर्यास्त के समय एक सुरम्य प्रदेश में डेरा डाल दिया और गौंओं के शान्तिपूर्वक बैठे जाने के बाद अग्नि में हवन करने बैठ गया।

 

      पहली आहुति डालते ही यज्ञाग्नि की ज्वाला से अग्नि नारायण प्रकट हुए और बोले--वत्स सत्यकाम । सत्यकाम ने हाथ जोड़कर गदगद स्वर में कहा--“भगवन! क्या आज्ञा है? अग्नि नारायण ने कहा--सौम्य । तुम ब्रह्मज्ञान के पूर्ण अधिकारी हो चुके हो, मैं तुम्हें ब्रह्मज्ञान के द्वितीय पाद का उपदेश करूँगा । इसका नाम अनन्तवान है, अगला उपदेश तुम्हें हँस करेगा ।

 

       सत्यकाम ने कहा-'भगवन । आप के उपदेश से मेरा जीवन धन्य हो जायेगा । अग्नि नारायण ने सत्यकाम को ब्रह्मज्ञान के द्वितीय अंश का उपदेश कर वहीं अंतर्ध्यान हो गए । सत्यकाम की लौकिक कामनाएँ अग्नि नारायण के उपदेश से विलीन हो गई। रात भर वह उसी उपदेश का मनन करता रहा । दूसरे दिन प्रातःकाल होते ही गौंओं को साथ लेकर वह आगे बढ़ा और शाम के समय एक सुन्दर सरोवर के सुरम्य तट पर ठहर गया। गौओं के लिए निवास की व्यवस्था करने के बाद वह पिछले दिन की तरह यज्ञाग्नि को जलाकर साधना में लीन हो गया। इतने ही से पूर्व दिशा से एक सुन्दर हंस ऊपर से उड़ता हुआ आया ओर सत्यकाम के पास बैठ कर बोला---सत्यकाम !

 

      सत्यकाम की समाधि भंग हुई । हाथ जोड़कर गदगद स्वर में विनीत भाव से वह बोला--भगवन । क्या आज्ञा है?

 

        हंस ने अपना पर का फड़फड़ाते हुए कहा--वत्स सत्यकाम! तुम्हारी साधना से प्रसन्न होकर मैं तुम्हें ब्रह्मज्ञान के तृतीय पाद का उपदेश करने के लिए आया हूं । उसका नाम ज्योतिष्मान है, इसके बाद का उपदेश तुम्हें एक जलमुर्गी करेगी ।

 

       सत्यकाम धन्य हो गया । बोला--भगवन ! आपके उपदेश रूप अमृत का पान कर मेरी जीवन बाधा छूट जायेगी । हंस सत्यकाम को ब्रह्मज्ञान के ज्योतिष्मान अंश का उपदेश कर वहीं अंतर्ध्यान हो गया । सत्यकाम अब सचमुच ज्योतिष्मान हो गया । तेज की अनुपम आभा से उसके शरीर की कान्ति और भी झलकने लगी । रात भर वह ज्योतिष्मान्‌ ब्रह्मज्ञान की आराधना में लीन रहा और दूसरे दिन प्रातः काल गौओं को हांककर गुरुकुल के मार्ग पर आगे चला । संध्या आई और एक विशाल बट वृक्ष के नीचे गौंओं के विश्राम की व्यवस्था कर सत्यकाम समीप की बावली में संध्या वंदन के लिए चला गया । प्रतिदिन का भाती हवन के लिए अग्नि जलाने के बाद आहुति डालते समय सत्यकाम के सामने एक जलमुर्गी आकर खड़ी हो गई और प्यार भरे स्वर में बोली--वत्स सत्यकाम! सत्यकाम उठकर खड़ा हो गया । और हाथ जोड़कर विनीत स्वर में बोला--'भगवति । क्या आज्ञा है?

       जलमुर्गी सत्यकाम को बैठने का आदेश करती हुई बोली-- वत्स । तुम्हारी साधना अब पूरी हो गई है। ब्रह्मज्ञान के तुम अधिकारी बन चुके हो । इसीलिए तुम्हें वृषभ रूपधर वायु ने, साक्षात अग्निदेव ने तथा हंस रूप धारी सूर्य ने ब्रह्मज्ञान के तीन चरण का उपदेश किया है। अब मैं तुम्हें ब्रह्मज्ञान के अन्तिम चतुर्थ पाद का उपदेश करूँगी । इसका नाम आयतनवान्‌ है । इसे सीखने के उपरान्त तुम ब्रह्मज्ञान के पूर्ण पंडित बन जाओगे ।

 

       सत्यकाम सुनने के लिए सावधान हो गया। जलमुर्गी उसे ब्रह्मज्ञान का उपदेश कर उड़ गई । वह रात भर उसके मनन में लीन रहा। दूसरे दिन प्रातःकाल गौओं को साथ लेकर वह गुरु के आश्रम की ओर चल पड़ा और सायंकाल होने में अभी कुछ देर ही थी कि पहुँच भी गया। आश्रम में गौओं को लंबी भीड़ देखकर गौतम का हृदय प्रसन्नता से भर उठा । उन्हें गौओं की संख्या वृद्धि से अधिक सुख सत्यकाम की सफलता से मिल रहा था।

 

          सत्यकाम ने जाकर गुरु के चरणों में सादर प्रणाम किया । गुरु पत्नी के चरण छूए और गौंओं को गौशाला की ओर कर के स्वयं गुरु के पास खड़ा हो गया । इसी बीच आश्रम की शिष्य मंडली में सत्यकाम के वन से वापस आने की चर्चा पहुंच गई। जो जहाँ रहे वही से उसे देखने के लिए दौड़ पड़े । चारों ओर से शिष्यों की भारी भीड़ गौतम और सत्यकाम को घेर कर खड़ी हो गई। लोगों ने देखा कि सत्यकाम अब वह बालक सत्यकाम नहीं रह गया है । इन चार वर्षों के बीच में उसका तेजस्वी शरीर ब्रह्मवर्चस की अनुपम आभा से देदीप्त हो उठा है, आँखों में बिजली की-सी चमक आ गई है, ललाट पर चन्द्रमा की आभा है और सभी वाद्य इन्द्रियों से मानसिक प्रसन्नता क लक्षण दिखाई पड़ रहे हैं । उसका सुन्दर मुख सूर्य के समान तेजोमय किन्तु कमल के समान मनोहर लग रहा है । इतने थोड़े समय में गौओं की संख्या वृद्धि करके उसकी सेवा, धीरता, सत्यनिष्ठा और लगन ने सब को मोह लिया । गौतम ने बैठने की आज्ञा देते हुए सत्यकाम से कहा--वत्स! तुम्हारे चेहरे की शान्ति और शरीर की कान्ति से मुझे यह निश्चय हो रहा है कि तुम केवल हमारे कोरे सत्यकाम ही नहीं रह गए हो वरन सेवा वृत्ति से ब्रह्म तेज का अंश भी तुम में आ गया है। क्या वन में किसी गुरु चरण की कृपा तुम पर हो गई थी?

 

       सत्यकाम ने कहा--'गुरूदेव । मुझे मार्ग में ऐसे चार दिव्य प्राणियों ने ब्रह्मज्ञान का उपदेश किया है जो एक से एक बढ़कर तेजस्वी मालूम पड़ते थे ।

 

        गुरु के पूछने पर सत्यकाम ने मार्ग की सारी बातें गौतम को: बतला दी । गौतम ने सम्मान भरे स्वर से कहा-वत्स । तुम्हारी सत्य की साधना ने दी तुम्हें आज इस सफलता के द्वार पर ला पहुँचाया है । तुम धन्य हो। तुम्हारे जैसे पुत्र रत्नों को पाकर ही पृथ्वी का भार कम हो सकता है। तात । अपने अध्यापन जीवन में मैंने तुम्हारे समान सत्य- निष्ठ, सच्चरित्र और धैर्यशाली छात्र को कभी नहीं पाया था । तुम्हारी सेवाभावना और ज्ञान की प्यास की जितनी प्रशंसा की जाये थोड़ी है! सत्यकाम गुरु गौतम के अमृतवर्षा प्रशंसात्मक वाक्यों का सुनकर कृतज्ञता के बोझ से दबने-सा लगा । उसे बोध हुआ कि हमारे गुरुदेव कितने दयालु ओर महात्मा हैं । हाथ जोड़कर उसने कहा---गुरुदेव ! आप के आशीर्वाद और सत्कामना ही का तो यह फल मुझे मिला है, अन्यथा मेरी योग्यता ही क्‍या है ? आप जैसे गुरु के समीप में रहकर यदि मैंने कुछ सीख लिया है तो उसमें मेरा क्या है ? ब्रह्मज्ञान के चारों अंशों का उपदेश यद्यपि मैंने भली भाँति ग्रहण कर लिया है, पर आप की दी हुई विद्या से ही उसकी सफलता मुझे मिलेगी । मैं चाहता हूँ कि आप मुझे उनका पुनः यथेष्ट उपदेश कीजिए । आपके उपदेशों के बिना मुझे पूर्ण शान्ति नहीं मिल रही है ।

 

         इस प्रकार विनीत सत्यकाम के अनुरोध पर गौतम ने उससे कहा--वत्स । ब्रह्मविद्या का जितना उपदेश तुमने प्राप्त किया है, वही उसका परम तत्व है । अब तुम्हारे लिए इस चराचर जगत में कोई भी वस्तु अजेय नहीं है। यह सब तुम्हारी गौ-सेवा का महान पुण्य फल है। उसके प्रसाद से ही तुम्हें यह सिद्धि प्राप्त हुईं है ।

 

       सत्यकाम ने गुरु के चरणों पर मस्तक रखकर गदगद स्वर में कहा ---'किन्तु गुरुदेव । उस गौ-सेवा का अवसर देनेवाले तो आप की महान कृपा ही है न ।


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