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विज्ञान भैरव तंत्र भाग-1 सूत्र-5 (ओशो)

तंत्र-सूत्र-विधि-05 

    भृकुटियों के बीच अवधान को स्थिर कर, विचार को मन के सामने करो। फिर सहस्त्रार तक रूप को श्वास-तत्व में, प्राण के भरने दो। वहां वह प्रकाश की तरह बरसेगा।


      यह विधि पाइथागोरस को दी गई थी। पाइथागोरम इसे लेकर यूनान वापस गए। और वह पश्चिम के समस्त रहस्यवाद के आधार बन गए। पश्चिम में अध्यात्मवाद के पिता है। यह विधि बहुत गहरी विधियों में से एक है। इसे समझने की कोशिश

     "भृकुटियों के बीच अवधान को स्थिर करो।" आधुनिक शरीर-शास्त्र कहता है, वैज्ञानिक शोध कहती है कि दो भृकुटियों के बीच में ग्रंथि है, वह शरीर का सबसे रहस्यपूर्ण भाग है। जिसका नाम पाइनियल ग्रंथि है। यही तिब्बतियों की तीसरी आँख है। और यही है शिव का नेत्र, तंत्र के शिव का नेत्र है। दो आंखों के बीच एक तीसरी आँख भी है। लेकिन यह सक्रिय नहीं है। यह है, और यह किसी भी समय सक्रिय हो सकती है। निसर्गतः यह सक्रिय नहीं है। इसको सक्रिय करने के लिए संबंध में तुम को कुछ करना पड़ेगा। यह अंधी नहीं है, शिर्फ बंद है। यह विधि तीसरी आँख को खोलने की विधि है।


      आंखें बंद कर लो, और फिर दोनों आंखों को बंद रखते हुए, भौंहों के बीच में दृष्टि को स्थिर करो, मानो कि दोनों आंखो से तुम देख रहे हो। और समग्र अवधान को वही लगा दो।

       यह विधि एकाग्र होने की सबसे सरल विधियों में से एक है। शरीर के किसी दूसरे भाग में इतनी आसानी से तुम अवधान को नहीं उपलब्ध हो सकते। यह ग्रंथि अवधन को अपने में समाहित करने में कुशल है। यदि तुम इस पर वधान करोगें, तो तुम्हारी दोनों आंखें तीसरी आँख से सम्मोहित हो जाएंगी। वे थिर हो जाएंगी, वे यहां से नहीं हिल सकेगी। यदि तुम शरीर के किसी दूसरे हिस्से पर अवधान दो, तो वहां कठिनाई होगी। तीसरी आंख अवधान को पकड़ लेती है। अवधान को खीच लेती है।

    इसलिए दुनिया की की सभी विधियों में इसका समावेश किया गया है। अवधान को प्रशिक्षित करने में यह सरलतम है, क्योंकि इसमें तुम ही चेष्टा नहीं करते, यह बीधि भी तुम्हारी मदद करती है। यह चुंबकीय है। तुम्हारे अवधान को यह बल पूर्वक खींच लेती है।

    तंत्र के पुराने ग्रन्थों में कहा गया है, कि अवधान तीसरी आँख का भोजन है। यह भूमी है जन्मों-जन्मों से भूखी है। जब तुम इसे अवधान देते हो, तो यह जीवित हो उठती है। इसे भोजन मिल गया है। और जब तुम जान लोगे कि अवधान इसका भोजन है, जान लोगें कि तुम्हारे अवधान को यह चुंबक की तरह खींच लेती है। तब अवधान कठिन नहीं रह जाएगा। सिर्फ सही बिंदु को जानना है।

     इस लिए आँख बंद कर लो, और अवधान को दोनों आंखों के बीच में घूमने दो और उस बिंदू को अनुभव करो। जब तुम उस बिंदु के करीब होगें। अचानक तुम्हारी आंखें थिर हो जाएंगी। और जब उन्हें हिलाना कठिन हो जाए तब जानो कि सही बिंदु मिल गया।

     "भृकुटियों के बीच अवधान को स्थिर कर विचार को मन के सामने रखो।"

      अगर यह अवधान प्राप्त हो जाए, तो पहली बार एक अद्भुत बात तुम्हारे अनुभव में आएगी। पहली बार तुम देखोगे कि तुम्हारे विचार तुम्हारे सामने चल रहे है. तुम साक्षी हो जाओगे। जैसे कि सिनेमा के पर्दे पर दृश्य देखते हो, वैसे ही तुम देखोगे कि विचार आ रहे है, और तुम साक्षी हो। एक बार तुम्हारा अवधान त्रीनेत्र-केंद्र पर स्थिर हो जाए, तुम तुरंत विचारों के साक्षी हो जाओगे।
आमतौर से तुम साक्षी नहीं होते, तुम विचारों के साथ तादात्म्य कर लेते हो। 

     यदि क्रोध है, तो तुम क्रोध हो जाते हो। यदि एक विचार चलता है तो उसके साक्षी होने की बजाएं तुम विचार के साथ एक हो जाते हो। उससे तादात्म्य करके साथ-साथ चलने लगते हो। तुम विचार ही बन जाते हो, विचार का रूप ले लेते हो, उस क्रोध उठता है, तो तुम क्रोध बन जाते हो। और जब काम उठता है तब काम बन जाते हो। कोई भी विचार तुम्हारे साथ एकात्म हो जाता है। जब लोभ उठता है तो लोभ बन जातो हो। और उसके और तुम्हारे बीच दूरी नहीं रहती है।

     लेकिन तीसरी आंख पर स्थिर होते ही, तुम एकाएक साक्षी हो जाते हो। तीसरी आँख के जरिए तुम साक्षी बनते हो। इस शिव नेत्र के द्वारा तुम विचारो को ही चलता देख सकते हो। जैसे आसमान में तैरते बादलों को देखते हो, या यहां पर चलते लोगों को देखते हो।

      जब तुम अपनी खिड़की से आकाश को या राह चलते लोंगों को देखते हो, तब तुम उनसे तादात्मय नहीं करते। तब तुम अलग होते हो, मात्र दर्शक रहते हो-बिलकुल अलग। वैसे ही जब जब क्रोध आता है तब तुम उसे एक विषय की तरह देखते हो। अब तुम यह नहीं सोचते कि मुझे क्रोध हुआ, तुम यही अनुभव करते हो कि तुम क्रोध से घिरे हो। क्रोध की एक बदली तुम्हारे चारों और धिर आई है। और जब तुम खुद क्रोध नहीं रहे, तब क्रोध नापुसंग हो जाता है। तब वह तुम को नही प्रभावित कर सकता। तब तुम अश्पर्शित रह जाते हो। क्रोध आता है और चला जाता है। और तुम अपने में केन्द्रित रहते हो।

    यह पाँचवी विधि साक्षित्व को प्राप्त करने की विधि है।

  भृकूटियों के बीच अवधान को स्थिर कर, विचार को मन के सामने करो, अब अपने विचारों को देखो, विचारों का साक्षात्कार करो।

    'फिर सहस्त्रार तक रूप श्वास तत्व से प्राण से भरने दो। वहां वह प्रकाश की तरह बरसेगा

    जब अवधान भृकूटियों कीय शिव नेत्र केन्द्र पर स्थिर होता है। तब दो चिंजें घटित होती हैं।

    और यही चीज दो ढंगों से हो सकती है। एक, तुम साक्षी हो जाओ तो तुम तीसरी आँख पर थिर हो जाते हो। साक्षी हो जाओ, जो भी हो रहा हो उसके साक्षी हो जाओ। तुम बीमार हो, शरीर में पीड़ा है. तुम को दुःख और संताप है, जो भी हो, तुम उसके साक्षी रहो, जो भी हो, उससे तादात्मय न करो। बस साक्षी रहो-दर्शक भर। और यदि साक्षित्व संभव हो जाए, तो तुम तीसरे नेत्र पर स्थिर हो जाओगे।

     इससे उलटा भी हो सकता है। यदि तुम तीसरी आँख पर स्थिर हो जाओ, तो साक्षी हो जाओगे।। ये दोनों एक ही बात है।

     इसलिए पहली बातः तीसरी आँख पर केंद्रित होते ही साक्षी आत्मा का उदय होगा। अब तुम अपने विचारों का सामना कर सकते हो। और दूसरी बातः और अब तुम श्वास-प्रश्वास की सूक्ष्म और कोमल तरंगों को भी अनुभव कर सकते हो। अब तुम श्वसन के रूप को ही नहीं, उसके तत्व को, सार को, प्राण को भी समझ सकते हो।

    पहले तो यह समझने की कोशिश करें, कि रूप और श्वास-तत्व का क्या अर्थ है। जब तुम श्वास लेते हो, तब सिर्फ वायु की ही श्वास नहीं लेते। वैज्ञानिक तो यही कहते है कि तुम वायु की ही श्वास लेते हो। जिसमें आक्सीजन, हाइड्रोजन तथा अन्य तत्व रहते है। वे कहते है कि तुम वायु की श्वास लेते हो।
किन तंत्र कहता है कि हवा तो मात्र वाहन है, असली चीज नहीं है। असल में तुम प्राण की श्वास लेते हो। हवा तो माध्यम भर है। प्राण उसका सत्व है, सार है। तुम न सिर्फ हवा की, बल्कि प्राण की श्वास लेते हो।

    आधुनिक विज्ञान भी नहीं जान सका है कि प्राण जैसी कोई वस्तु भी है। लेकिन कुछ शोधकर्ताओं ने कुछ रहस्यमयी चीज का अनुभव किया है। श्वास में शिर्फ हवा हम नहीं लेते, वह बहुत से आधुनिक शोधकर्तावों ने अनुभव किया है। विशेषकर एक नाम उल्लेखनीय है। वह है जर्मन मनोवैज्ञानिक विलहेम रेख का जिसने इसे आर्गन एनर्जी या जैविक ऊर्जा का नाम दिया है। यह प्राण ही है। वह कहता है कि जब आप श्वास लेते है, तब हवा तो मात्र आधार है, पात्र है, जिसके भीतर एक रहस्यपूर्ण तत्व है, जिसे आर्गेन एनर्जी या प्राण या एलेन वाइटल कह सकते है। लेकिन वह बहुत सुक्ष्म है। वास्तव में वह भौतिक नही है। पदार्थगत नहीं है। हवा भौतिक है, लेकिल उसके भीतर कुछ सूक्ष्म है । अलौकिक तत्व चल रहा है।

    इसका प्रभाव अनुभव किया जा सकता है। जब तुम किसी प्राणवान व्यक्ति के पास होत हो, तो तुम अपने भीतर किसी शक्ति को उगते देखते हो। और जब किसी बीमार के पास होते हो, तो तुमको लगता है कि तुम चूसे जा रहे हो। तुम्हारे भीतर से कुछ निकाला जा रहा है। जब तुम अस्पताल जाते हो, तब थके - थके जैसा अनुभव करते हो, यहां चारों ओर से तुम चूसे जाते हो। अस्पताल का पूरा माहौल बीमार होता है और यहां सब किसी को अधिक प्राण की अधिक एलेन बाइटल की जरूरत है। इसलिए वहां जाकर अचानक तुम्हारा प्राण तुमसे बहने लगता है। जब तुम भीड़ में होते हो, तो तुम घुटन महसूस क्यों करते हो। इसलिए कि वहां तुम्हारा प्राण चूसा जाने लगाता है। और जब तुम प्रातः काल अकेले आकाश नीचे या वृक्षों के बीच में होते हो, तब फिर अचानक तुम अपने में किसी शक्ति का, प्राण का उदय अनुभव करते हो। प्रत्येक का एक खास स्पेश की जरूरत है। और जब वह स्पेश नहीं मिलता है तो तुमको घुटन महसूस होती है।

    विल्हेम रेख ने कई प्रयोग किया, लेकिन उसे पागल समझा गया। विज्ञान के भी अपने अंधविश्वास है। और विज्ञान बहुत रुढ़िवादी होता है। विज्ञान अभी भी नहीं समझाता है कि कुछ हवा से बढ़कर कुछ है। यह प्राण है। लेकिन भारत सदियों से उस पर प्रयोग कर रहा है।

    तमने सुना होगा-शायद देखा भी हो- कि कोई व्यक्ति कई दिनों के लिए भूमिगत समाधि में प्रवेश कर गया। जहां हवा का कोई प्रवेश नहीं था। 1880 में मिश्र में एक आदमी चालीस वर्षों के लिए समाधि में चला गया था। जिन्होंने उसे गाड़ा था। सभी मर गए। क्योंकि वह 1920 में समाधि से बहार आने वाला था।

    1920 में किसी को भरोसा नहीं था कि वह जीवित मिलेगा। लेकिन वह जीवित था। और उसके बाद भी वह दस वर्षों तक जीवित रहा। वह बिल्कुल पीला पड़ गया था, परंतु जीवित था। और उसको हवा मिलने की कोई संभावना नहीं थी।

    डॉक्टरों ने तथा दूसरों ने उससे पूछा कि इसका रहस्य क्या है? उसने कहा हम नहीं जानते, हम इतना ही जानते है कि प्राण कही भी प्रवेश कर सकता है। और वह है। हवा वहां नहीं प्रवेश कर सकती, लेकिन प्राण कर सकता है।
एक बार तुम जान जाओ कि श्वास के बिना भी कैसे तुम प्राण को सीधे ग्रहण कर सकते हो, तो तुम सदियों तक के लिए भी समाधि जा सकते हो।

   तीसरी आँख पर केंद्रित होकर तुम श्वास के सार तत्व को, श्वास को नहीं, श्वास के सार तत्व प्राण को देख सकेत हो। और अगर तुम प्राण को देख सके, तो तुम उस बिंदु पर पहुंच गए, जहां से छलांग लग सकती है। क्रांति घटित हो सकती है।

   सूत्र कहता है: सहस्त्रार तक रूप को प्राण से भरने दो।

  और जब तुमको प्राण का एहसास हो, तब कल्पना करो कि तुम्हारा सिर प्राण से भर गया है। सिर्फ कल्पना करो, किसी प्रयत्न की जरूरत नहीं है। और मैं बताऊंगा कि कल्पना कैसे काम करती है? तब तुम त्रीनेत्र-बिंदु पर स्थिर हो जाओ, तब कल्पना करो, और चीजें आप ही और तुरंत घटित होने लगती है।

    अभी तुम्हारी कल्पना नपुंसक है। तुम कल्पना किए जाते हो, और कुछी नहीं होता। लेकिन कभी-कभी अनजाने साधारण जिंदगी में भी घटित होती है। तुम अपने मित्र की सोच रहे हो, और अचानक दरवाजे पर दस्तक होती है। तुम कहते हो कि सांयोगिक था कि मित्र आ गया। की तुम्हारी कल्पना संयोग की तरह भी काम करती है।

    लेकिन जब भी ऐसा हो, तो याद रखने की चेष्टा करो। और पूरी चीज का विश्लेषण करो। जिसमी लगे कि तुम्हारी कल्पना सत्य हुई है। तुम भीतर जाओ और देखो। कहीं न कहीं तुम्हारा अवधान तीसरे नेत्र के पास रहा होगा। दरअसल यह संयोग नहीं था। यह कैसा दिखता है? क्योंकि ग्हुम विज्ञान का तुमको पता नहीं है। अनजाने ही तुम्हारा मन त्रीनेर केन्द्र के पास चला गया होगा। और अवधान यदि तीसरी आँख पर है तो किसी घटना के सृजन के लिए उसकी कल्पना काफी है।

 

   यह सूत्र कहता है कि तुम भृकुटियों के बीच स्थिर रहो, और प्राण को अनुभव करते रहो, रूप को भरने दो। अब कल्पना करो कि प्राण तुम्हारे पूरे मस्तिष्क को भर रहे है। विशेष कर सहस्वात्रार को जो सर्वस्व मनस केन्द्र है। उस क्षण तुम कल्पना करो। और वह भर जाएगा। कल्पना करो कि वह प्राण तुम्हारे सहस्त्रार से प्रकाश की तरह बरसेगा। और वह बरसने लगेगा। और उस प्रकाश की वर्षा में तुम ताजा हो जाओगे। तुम्हारा पुनर्जन्म हो जाएगा। तुम बिल्कुल नए हो जाओगे। आंतरिक जन्म का यही अर्थ है।

     यहां दो बाते हैं। एक तीसरी आंख पर केंद्रित हो कर तुम्हारी कल्पना पुंसत्व को, शुद्धि को उपलब्ध हो जाती है। यही कारण है कि शुद्धता पर, पवित्रता पर इतना बल दिया गया है। इस साधना में उतरने के पहले, शहज बने।
    तंत्र के लिए शुद्धि कोई नैतिक धारण नहीं है। शुद्धि इसलिए अर्थ पूर्ण है कि यदि तुम तीसरी आँख पर स्थिर हुए, और तुम्हारा मन अशुद्ध रहा, तो तुम्हारी कल्पना खतरनाक सिद्ध हो सकती है तुम्हारे लिए भी और दूसरे के लिए भी। यदि तुम किसी की हत्या करने की सोच रहे हो, उसका महज विचार भी मन में है। तो सिर्फ कल्पना से उस आदमी की मृत्यु घटित हो जाएगी। यही कारण है कि शुद्धता पर इतना जोर दिया जाता है।

      पाइथागोरस को विशेष उपवास और प्राणायाम से गुजरने को कहा गया; क्योंकि यहां बहुत खतरनाक भूमि से यात्री गुजरता है। जहां भी शक्ति है, वहां खतरा है। यदि मन अशुद्ध है तो शक्ति मिलने पर आपके अशुद्ध विचार शक्ति पर हावी हो जाएंगे।

    कई बार तुमने हत्या करने की सोचा है। लेकिन भाग्य से वहां कल्पना न काम नहीं किया। यदि वह काम करें, यदि वह तुरंत वास्तविक हो जाए, तो वह दूसरी के लिए ही नहीं तुम्हारे लिए भी खतरनाक सिद्ध हो सकती है। क्योकि कितनी ही बार तुमने आत्म हत्या की सोची है। अगर मन तीसरी आँख पर केंद्रित है तो आत्महत्या का विचार भी आत्महत्या बन जाएगा। तुमको विचार बदलने का समय भी नहीं मिलेगा। वह तुरंत घटित हो जाएगी।
तुमने किसी को सम्मोहित होते देखा है। जब कोई सम्मोहित किया जाता है, तब सम्मोहन विद जो भी कहता है, सम्मोहित व्यक्ति तुरंत उसका पालन करता है। आदेश कितना ही बेहुदा हो तर्कहीन हो, असंभव ही क्यों न हो। सम्मोहित व्यक्ति उसका पालन करता है। क्या होता है?

      यह पांचवी विधि सब सम्मोहन की जड़ में है। जब कोई सम्मोहित किया जाता है, तब उसे एक विशेष बिंदू पर, किसी प्रकाश पर या दीवार पर लगे किसी चिन्ह पर या किसी भी बीज पर या सम्मोहक की आँख पर ही अपनी दृष्टि केंद्रित करने को कहा जाता है। और जब तुम किसी खास बिंदु पर दृष्टिकेंद्रित करते हो, उसके तीन मिनट के अंदर तुम्हारा आंतरिक अवधान तीसरी आँख की और बहने लगता है। तुम्हारे चेहरे की मुद्रा बदलने लगाती है। और सम्मोहन विद जानता है कि कब तुमारा चेहरा बदलने लगा। एकाएक चेहरे से सारी शक्ति गायब हो जाती है। वह मृत वत हो जाता है। मानो गहरी तंद्रा में पड़े हो। जब ऐसा होता है, सम्मोहक को उसका पता हो जाता है। उसका अर्थ हुआ कि तीसरी आँख अवधान को पी रहा है। आपका चेहरा पीला पड़ गया है। पूरी ऊर्जा त्रीनेत्र केंद्र की और बह रही है।

     अब सम्मोहित करने वाला तुरंत जान जाता है। कि जो भी कहा जाएगा। यह घटित होगा। वह कहता है कि अब तुम गहरी नीद में जा रहे हो, और तुम तुरंत सो जाते हो। वह कहता है कि अब तुम बेहोश हो रहे हो, और तुम बेहोश हो जाते हो। अब कुछ भी किया जा सकता है। अब अगर वह कहे कि तुम नेपोलियन या हिटलर हो गए हो। तो तुम हो जाओगे। तुम्हारी मुद्रा बदल जायेगी। आदेश पाकर तुम्हारा अचेतन उसका वास्तविक बना देता है। अगर तुम किसी रोग से पीड़ित हो तो रोग को हटाने का आदेश देगा, और मजेदार बात रोग दूर हो जायेगा। या कोई नया रोग भी पैदा किया जा सकता है।

     यही नहीं, सड़क पर से एक कंकड़ उठा कर अगर सम्मोहन विद तुम्हारी हथेली पर रख दे, और कहें कि यह अंगारा है। तो तुम जलना महसूस करोगे, और तुम्हारी हथेली जल जाएगी-मानसिक तल पर नहीं, वास्तविक में ही। वास्तव में तुम्हारी चमड़ी जब जल जायेगी और तुम्हे जलन महसूस होगी। क्या होता है? अंगारा नहीं, बस एक मामूली कंकड़ है, वह भी ठंडा है, फिर भी जलना ही नहीं हाथ फफोले उग आतें हैं।

     तुम तीसरी आंख पर केन्द्रित हो और सम्मोहन विद तुमको सुझाव देता है और समय वास्तविक हो जाता है। यदि सम्मोहन विद कहे कि जब तुम मर गए, तो तुम तुरंत मर जाओगी। तुम्हारी हृदय गति रुक जायेगी। रुक ही जाएगी।

     यह होता है जिसके चलते। त्रीनेत्र के लिए कल्पना और वास्तविकता दो चीजें नहीं है। कल्पना ही तथ्य है। कल्पना की और वैशा हो जाएगा। स्वप्न और यथार्थ में फासला नहीं है। स्वप्न देखो और सच हो जायेगा।

     यही कारण है कि शंकर ने कहा कि यह संसार परमात्मा के स्वप्न के सिवाय और कुछ नहीं है यह परमात्मा की माया है। यह इसलिए कि परमात्मा तीसरी आँख में बसता है-सदा, सनातन से। इसलिए परमात्मा जो स्वप्न देखता है वह सब हो जाता है। और यदि तुम भी तीसरी आँख में थिर हो जाओ, तो तुम्हारे स्वप्न भी सच होने लगेंगे।

       सारिपुत्र बुद्ध के पास आया। उसने गहरा अवधान किया, तब बहुत चीजें घटित होने लगी, बहुन तरह के दृशय उसे दिखाई देने लगे। जो भी ध्यान की गहराई में जाता है। उसे यह सब दिखाई देने लगता है। स्वर्ग और नरक, देवता और दानव, सब उसे दिखाई देने लगे। और वह ऐसे वास्तविक थे कि सारिपुत्र बुद्ध के पास दौड़ा आया। और बोला कि ऐसे-ऐसे दृश्य दिखाई देते है। बुद्ध ने कहा, वे कुछ नहीं है। मात्र स्वप्न है।

       लेकिन सारिपुत्र ने कहा कि वे इतने वास्तविक है कि मैं कैसे उन्हें स्वप्न कहूं? जब एक फूल दिखाई पड़ता है, यह फूल किसी भी फूल से अधिक वास्तविक मालूम पड़ता है। उसमे सुगंध है। उसे मैं छु सकता हूं। अभी जो मैं आपको देखता हूं वह उतना वास्तविक नहीं है। आप जितना वास्तविक मेरे सामने हैं, वह फूल उससे अधिक वास्तविक है। इसलिए कैसे मैं भेद करू कि कौन सच है,और कौन सवप्न।

      बुद्ध ने कहा, अब चूंकि तुम तीसरी आंख में केंद्रित हो, इसलिए स्वप्न और यथार्य एक हो गए है। जो भी स्वप्न तुम देखोगे और उससे ठीक उलटा भी घटित हो सकता है। जो त्रिनेत्र पर थिर हो गया, उसके लिए स्वप्न यथार्थ हो जाएगा। और यथार्य स्वप्न हो जाएगा। क्योंकि जब तुम्हारा स्वप्न सच हो जाता है तब तुम जानते हो कि स्वप्न और यथार्य में बुनियादी भेद नही है।

    इसलिए जब संकर कहते है कि सब संसार माया है, परमात्मा का स्वप्न है. तब यह कोई सैद्धांतिक प्रस्तावना या कोई मीमांसक व्यतव्य नहीं है, उस व्यक्ति का आंतरिक अनुभव है, जो शिव नेत्र में थिर हो गया है।

    अंत:जब तुम तीसरे नेत्र पर केंद्रित हो जाओ, तब कल्पना करो, कि सहस्त्रार से प्राण बरस रहा है, जैसे कि तुम किसी वृक्ष के नीचे बैठे हो, और फूल बरस रहे है, या तुम आकाश के नीचे हो। और कोई बदली बरसने लगी। या सुबह तुम बैठे हो, और सूरज उग रहा है, और उसकी किरणे बरसने लगी है। कल्पना करो और तुरंत तुम्हारे सहस्त्रार से प्रकाश की वर्षा होने लगेगी। यह वर्षा मनुष्य को पुननिर्मित करती है, उसको नया जन्म दे जाती है। तब उसका पुनर्जन्म हो जाता है।


ओशो 


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