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ब्रह्मणस्पतिसूक्त हिन्दी भावानुवाद सहित

 

ब्रह्मणस्पतिसूक्त

 


वैदिक देवता विघ्नेश गणपति 'ब्रह्मणस्पति' भी कहलाते हैं। 'ब्रह्मणस्पति' के रूप में वे ही सर्वज्ञाननिधि तथा समस्त वाङ्मय के अधिष्ठाता हैं। आचार्य सायण से भी प्राचीन वेदभाष्यकार श्रीस्कन्दस्वामी (वि.सं. ६८७) अपने ऋग्वेदभाष्य के प्रारम्भ में लिखते हैं-विघ्नेश विधिमार्तण्डचन्द्रेन्द्रोपेन्द्रवन्दित । नमो गणपते तुभ्यं ब्रह्मणां ब्रह्मणस्पते । अर्थात् ब्रह्मा, सूर्य, चन्द्र, इन्द्र तथा विष्णुके द्वारा वन्दित है विग्नेश गणपति! मन्त्रों के स्वामी ब्रह्मणस्पति! आपको नमस्कार है।

मुद्गलपुराण (८.४९.१७)-में भी स्पष्ट लिखा है-सिद्धिबुद्धिपति वन्दे ब्रह्मणस्पतिसंज्ञितम् । माङ्गल्येशं सर्वपूज्यं विघ्नानां नायकं परम् । अर्थात् समस्त मंगलों के स्वामी, सभीके परम पूज्य, सकल विघ्नों के परम नायक, 'ब्रह्मणस्पति' नाम से प्रसिद्ध सिद्धि-बुद्धि के पति (गणपति)-की मैं वन्दना करता हूँ। ब्रह्मणस्पति के अनेक सूक्त प्राप्त होते हैं। ऋग्वेद के प्रथम मण्डलका ४० वा सूक 'ब्रह्मणस्पतिसूक्त' कहलाता है, इसके ऋषि कण्व घोर' हैं। गणपति के इस सूक्त को यहाँ सानुवाद प्रस्तुत किया जा रहा है।

उत्तिष्ठ ब्रह्मणस्पते देवयन्तस्त्वेमहे।

उप प्र यन्तु मरुत सुदानव इन्द्र प्राशूर्भवा सचा॥१॥

त्वामिद्धि सहसस्पुत्र मर्त्य उपब्रूते धने हिते।

सुवीर्यं मरुत आ स्वश्व्यं दधीत यो व आचके॥२॥

प्रैतु ब्रह्मणस्पतिः प्र देव्येतु सूनृता।

अच्छा वीरं नर्य पङ्क्तिराधसं देवा यज्ञं नयन्तु नः॥३॥

 

हे ज्ञान के स्वामिन् ! उठिये, देवत्व की इच्छा करनेवाले हम तुम्हारी प्रार्थना करते हैं। उत्तम दानी मरुत् वीर साथ-साथ रहकर यहाँ आ जायें। हे इन्द्र! सबके साथ रह कर इस सोमरस का पान कीजिये॥१॥

हे बल के लिये उत्पन्न होनेवाले वीर! मनुष्य युद्ध छिड़ जाने पर तुम्हें ही सहायतार्थ बुलाता है। हे मरुतो! जो तुम्हारे गुण गाता है, वह उत्तम घोड़ों से युक्त और उत्तम वीरतावाला धन पाता है॥२॥

ज्ञानी ब्रह्मणस्पति हमारे पास आ जायँ, सत्यरूपिणी देवी भी आयें। सब देव मनुष्योंके लिये हितकारी, पंक्तिमें सम्मानयोग्य, उत्तम यज्ञ करनेवाले वीरको हमारे पास ले आयें ॥३॥

यो वाघते ददाति सूनरं वसु स धत्ते अक्षिति श्रवः।

तस्मा इळां सुवीरामा यजामहे सुप्रतूर्तिमनेहसम्॥४॥

प्र नूनं ब्रह्मणस्पतिर्मन्त्रं वदत्युक्थ्यम्।

यस्मिन्निन्द्रो वरुणो मित्रो अर्यमा देवा ओकांसि चक्रिरे॥५॥

तमिद् वोचेमा विदथेषु शंभुवं मन्त्रं देवा अनेहसम्।

इमां च वाचं प्रतिहर्यथा नरो विश्वेद् वामा वो अश्नवत्॥६॥

को देवयन्तमश्नवज् जनं को वृक्तबर्हिषम्।

प्रप्र दाश्वान् पस्त्याभिरस्थिताऽन्तर्वावत् क्षयं दधे॥७॥

उप क्षत्रं पृञ्चीत हन्ति राजभिर्भये चित् सुक्षितिं दधे।

नास्य वर्ता न तरुता महाधने नार्भे अस्ति वज्रिणः॥८॥

[ऋक् 1.४०]

जो यज्ञकर्ताको उत्तम धन देता है, वह अक्षय यश प्राप्त करता है। उसके हितार्थ हम उत्तम वीरों से युक्त, शत्रु का हनन करनेवाली, अपराजित मातृभूमि की प्रार्थना करते हैं॥४॥

ब्रह्मणस्पति उस पवित्र मन्त्रका अवश्य ही उच्चारण करता है, जिसमें इन्द्र, वरुण, मित्र, अर्यमा आदि देवोंने अपने घर बनाये हैं ॥५॥

हे देवो! उस सुखदायी अविनाशी मन्त्रको हम यज्ञमें बोलते हैं। हे नेता लोगो। इस मन्त्ररूप वाणी की यदि प्रशंसा करोगे तो सभी सुख तुम्हें मिलेंगे॥६॥

देवत्व की इच्छा करनेवाले मनुष्य के पास ब्रह्मणस्पति को छोड़कर कौन भला दूसरा आयेगा? आसन फैलाने वाले उपासक के पास दूसरा कौन आयेगा? दाता अपनी प्रजाके साथ प्रगति करता है, सन्तानों वाले घर का आश्रय करते हैं॥७॥

ब्रह्मणस्पति क्षात्र बल का संचय करता है, राजाओं की सहायता से यह शत्रुओं को मारता है, महाभय के उपस्थित होने पर भी वह उत्तम धैर्य को धारण करता है। इस वज्रधारी के साथ होने वाले बड़े युद्ध में इसका निवारण करने वाला और पराजित करने वाला कोई नहीं है और छोटे युद्ध में भी कोई नहीं है॥८॥

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