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रुद्रसूक्त [नीलसूक्त] भावनुवाद सहित

 

रुद्रसूक्त [नीलसूक्त]

 


[भूतभावन भगवान् सदाशिव की प्रसन्नता के लिये रुद्र सूक्त के पाठ का विशेष महत्त्व बताया गया है। पूजा में भगवान शंकर को सबसे प्रिय जलधारा है। इसलिये भगवान् शिव के पूजन में रुद्राभिषेक की परम्परा है और अभिषेक में इस 'रूद्रसूक्त'की ही प्रमुखता है। रुद्राभिषेक के अन्तर्गत रुद्राष्टाध्यायी के पाठमें ग्यारह बार इस सूक्त की आवृति करने पर पूर्ण रुद्राभिषेक माना जाता है। फल की दृष्टि से इसका अत्यधिक महत्व है। यह 'रुद्रसूक्त' आध्यात्मिक, आधिदैविक एवं आधिभौतिक-त्रिविध तापों से मुक्त कराने तथा अमृतत्व की ओर अग्रसर करने का अन्यतम उपाय है। यहाँ इस सूक्त को भावार्थ सहित प्रस्तुत किया जा रहा है-]

 

ॐ नमस्ते रुद्र मन्यव उतो त इषवे नमः।

बाहुभ्यामुत ते नमः॥१॥

या ते रुद्र शिवा तनूरघोराऽपापकाशिनी।

तया नस्तन्वा शन्तमया गिरिशन्ताभि चाकशीहि॥२॥

यामिषु गिरिशन्त हस्ते बिभयष्स्तवे।

शिवां गिरित्र तां कुरु मा हिसी: पुरुषं जगत् ॥३॥

 

दु:ख दूर करने वाले (अथवा ज्ञान प्रदान करने वाले) हे रुद्र! आपके क्रोध के लिये नमस्कार है, आपके बाणों के लिये नमस्कार है और आप की दोनों भुजाओं के लिये नमस्कार है॥१॥

हे गिरिशन्त (कैलास पर रह कर संसार का कल्याण करने वाले अथवा वाणी में स्थित हो कर लोगों को सुख देने वाले या मेघमें स्थित होकर वृष्टि के द्वारा लोगों को सुख देनेवाले)! हे रुद्र! आपका जो मंगलदायक, सौम्य, केवल पुण्य प्रकाशक शरीर है, उस अनन्त सुखकारक शरीर से हमारी ओर देखिये अर्थात् हमारी रक्षा कीजिये ॥२॥

 

कैलास पर रह कर संसार का कल्याण करने वाले तथा मेघों में स्थित होकर वृष्टि के द्वारा जगत की रक्षा करने वाले हे सर्वज्ञ रुद्र । शत्रुओं का नाश करने के लिये जिस बाण को आप अपने हाथ में धारण करते हैं, वह कल्याणकारक हो और आप मेरे पुत्र-पौत्र तथा गौ, अश्व आदि का नाश मत कीजिये ॥३॥

 

शिवेन वचसा त्वा गिरिशाच्छा वदामसि।

यथा नः सर्वमिजगदयक्ष्म, सुमना असत्॥४॥

अध्यवोचदधिवक्ता प्रथमो दैव्यो भिषक् ।

अहीँश्च सर्वाञ्जम्भयन्त्सर्वाश्च यातुधान्योऽधराची: परा सुव॥५॥

असौ यस्ताम्रो अरुण उत बभ्रुः सुमङ्गलः।

ये चैन रुद्रा अभितो दिक्षु श्रिताः सहस्रशोऽवैषा, हेड ईमहे॥६॥

असौ योऽवसर्पति नीलग्रीवो विलोहितः।

उतैनं गोपा अदृश्रन्नदश्रन्नुदहार्यः स दृष्टो मृडयाति नः ॥७॥

 

हे कैलास पर शयन करने वाले! आपको प्राप्त करने के लिये हम मंगलमय वचन से आपकी स्तुति करते हैं। जिस प्रकार हमारा समस्त संसार ताप रहित, निरोग और निर्मल मनवाला बने, वैसा आप करें॥४॥

अत्यधिक वन्दनशील, समस्त देवताओं में मुख्य, देवगणों के हितकारी तथा रोगों का नाश करनेवाले रुद्र मुझसे सबसे अधिक बोलें, जिससे मैं सर्वश्रेष्ठ हो जाऊँ। हे रुद्र ! समस्त सर्प, व्याघ्र आदि हिंसकों का नाश करते हुए आप अधोगमन कराने वाली राक्षसियोंको हमसे दूर कर दें॥५॥

उदयके समय ताम्रवर्ण (अत्यन्त रक्त), अस्तकाल में अरुणवर्ण (रक्त), अन्य समयमें वधु (पिंगल)-वर्ण तथा शुभ मंगलों वाला जो यह सूर्यरूप है, वह रुद्र ही है। किरण रूप में ये जो हजारों रुद्र इन आदित्यके सभी ओर स्थित हैं, इनके क्रोध का हम अपनी भक्तिमय उपासना से निवारण करते हैं॥६॥

जिन्हें अज्ञानी गोप तथा जल भरनेवाली दासियाँ भी प्रत्यक्ष देख सकती हैं, विष धारण करने से जिनका कण्ठ नीलवर्णका हो गया है, तथापि विशेषतः रक्तवर्ण होकर जो सर्वदा उदय और अस्तको प्राप्त होकर गमन करते हैं, वे रविमण्डलस्थित रुद्र हमें सुखी कर दें॥७॥

 

नमोऽस्तु नीलग्रीवाय सहस्राक्षाय मीढुषे।

अथो ये अस्य सत्वानोऽहं तेभ्योऽकरं नमः॥ ८॥

प्रमुञ्च धन्वनस्त्वमुभयोरात्न्र्योजर्याम्।

याश्च ते हस्त इषवः परा ता भगवो वप॥ ९ ॥

विज्यं धनुः कपर्दिनो विशल्यो बाणवाँ2 उत।

अनेशन्नस्य या इषव आभुरस्य निषङ्गधिः ॥१०॥

या ते हेतिर्मीढुष्टम हस्ते बभूव ते धनुः।

तयाऽस्मान्विश्वतस्त्वमयक्ष्मया परि भुज॥११॥

 

नीलकण्ठ, सहस्रनेत्रवाले, इन्द्रस्वरूप और वृष्टि करनेवाले रुद्रके लिये मेरा नमस्कार है। उस रुद्रके जो अनुचर हैं, उनके लिये भी मैं नमस्कार करता हूँ॥८॥

हे भगवन्! आप धनुषकी दोनों कोटियोंके मध्य स्थित प्रत्यंचाका त्याग कर दें और अपने हाथमें स्थित बाणोंको भी दूर फेंक दें अर्थात् हमपर अनुग्रह करें ॥९॥

जटाजूट धारण करनेवाले रुद्रका धनुष प्रत्यंचारहित रहे, तूणीरमें स्थित बाणोंके नोकदार अग्रभाग नष्ट हो जायें, इन रुद्रके जो बाण हैं, वे भी नष्ट हो जायें तथा इनके खड्ग - रखनेका कोश भी खड्गरहित हो जाये अर्थात् वे रुद्र हमारे प्रति सर्वथा करुणामय हो जायें॥१०॥

अत्यधिक वृष्टि करनेवाले हे रुद्र! आपके हाथमें जो धनुषरूप आयुध है, उस सुदृढ तथा अनुपद्रवकारी धनुषसे हमारी सब ओरसे रक्षा कीजिये ॥११॥

 

परि ते धन्वनो हेतिरस्मान्वृणक्तु विश्वतः।

अथो य इषुधिस्तवारे अस्मन्नि धेहि तम्॥१२॥

अवतत्य धनुष्ट्व सहस्राक्ष शतेषुधे।

निशीर्य शल्यानां मुखा शिवो नः सुमना भव॥१३॥

नमस्त आयुधायानातताय धृष्णवे।

उभाभ्यामुत ते नमो बाहुभ्यां तव धन्वने ॥१४॥

मा नो महान्तमुत मा नो अर्भकं मा न उक्षन्तमुत मा न उक्षितम्।

मा नो वधी: पितरं मोत मातरं मा नः प्रियास्तन्वो रुद्र रीरिषः ॥१५॥

 

हे रुद्र! आपका धनुषरूप आयुध सब ओरसे हमारा त्याग करे अर्थात् हमें न मारे और आपका जो बाणोंसे भरा तरकश है, उसे हमसे दूर रखिये॥१२॥ .

सौ तूणीर और सहस्र नेत्र धारण करनेवाले हे रुद्र! धनुषकी प्रत्यंचा दूर करके और बाणोंके अग्न भागोंको तोड़कर आप हमारे प्रति शान्त और प्रसन्न मनवाले हो जायें। १३ ॥

हे रुद्र! शत्रुओंको मारनेमें प्रगल्भ और धनुषपर न चढ़ाये गये आपके बाणके लिये हमारा प्रणाम है। आपकी दोनों बाहुओं और धनुषके लिये भी हमारा प्रणाम है ॥१४॥

हे रुद्र! हमारे गुरु, पितृव्य आदि वृद्धजनोंको मत मारिये, हमारे बालककी हिंसा मत कीजिये, हमारे तरुणको मत मारिये, हमारे गर्भस्थ शिशुका नाश मत कीजिये, हमारे माता-पिताको मत मारिये तथा हमारे प्रिय पुत्र-पौत्र आदिको हिंसा मत कीजिये ॥ १५ ॥

 

मा नस्तोके तनये मा न आयुषि मा नो गोषु मा नो अश्वेषु रीरिषः।

मा नो वीरान् रुद्र भामिनो वधीर्हविष्मन्तः सदमित् त्वा हवामहे ॥१६॥

नमो हिरण्यबाहवे सेनान्ये दिशां च पतये नमो नमो वृक्षेभ्यो हरिकेशेभ्यः पशूनां पतये नमो नमः शष्पिजराय त्विषीमते पथीनां पतये नमो नमो हरिकेशायोपवीतिने पुष्टानां पतये नमः ॥१७॥

नमो बभ्लुशाय व्याधिने ऽन्नानां पतये नमो नमो भवस्य हेत्यै जगतां पतये नमो

नमो रुद्रायाततायिने क्षेत्राणां पतये नमो नमः सूतायाहन्त्यै वनानां पतये नमः॥१८॥

 

हे रुद्र! हमारे पुत्र-पौत्र आदिका विनाश मत कीजिये, हमारी आयुको नष्ट मत कीजिये, हमारी गौओंको मत मारिये, हमारे घोड़ोंका नाश मत कीजिये, हमारे क्रोधयुक्त वीरोंकी हिंसा मत कीजिये। हविसे युक्त होकर हम सब सदा आपका आवाहन करते हैं ॥१६॥

भुजाओंमें सुवर्ण धारण करनेवाले सेनानायक रुद्रके लिये नमस्कार है, दिशाओंके रक्षक रुद्रके लिये नमस्कार है, पूर्णरूप हरे केशोंवाले वृक्षरूप रुद्रोंके लिये नमस्कार है, जीवोंका पालन करनेवाले रुद्रके लिये नमस्कार है, कान्तिमान् बालतृणके समान पीत वर्णवाले रुद्रके लिये नमस्कार है, मार्गोंके पालक रुद्रके लिये नमस्कार है, नीलवर्ण-केशसे युक्त तथा मंगलके लिये यज्ञोपवीत धारण करनेवाले रुद्रके लिये नमस्कार है, गुणोंसे परिपूर्ण मनुष्योंके स्वामी रुद्रके लिये नमस्कार है॥१७॥

कपिल (वर्णवाले अथवा वृषभपर आरूढ़ होनेवाले) तथा शत्रुओंको बेधनेवाले रुद्रके लिये नमस्कार है, अन्नोंके पालक रुद्रके लिये नमस्कार है, संसारके आयुधरूप (अथवा जगन्निवर्तक) रुद्रके लिये नमस्कार है, जगत्का पालन करनेवाले रुद्रके लिये नमस्कार है, उद्यत आयुधवाले रुद्रके लिये नमस्कार है, देहोंका पालन करनेवाले रुद्रके लिये नमस्कार है, न मारनेवाले सारथिरूप रुद्रके लिये नमस्कार है तथा वनोंके रक्षक रुद्रके लिये नमस्कार है॥१८॥

 

 नमो रोहिताय स्थपतये वृक्षाणां पतये नमो नमो भुवन्तये वारिवस्कृतायौषधीनां पतये नमो नमो मन्त्रिणे वाणिजाय कक्षाणां पतये नमो नम उच्चैर्घोषायानन्दयते पत्तीनां पतये नमः ।। १९॥

नमः कृत्स्नायतया धावते सत्वनां पतये नमो नमः सहमानाय निव्याधिन आव्याधिनीनां पतये नमो नमो निषङ्गिणे ककुभाय स्तेनानां पतये नमो नमो निचेरवे परिचरायारण्यानां पतये नमः ॥२०॥

 

लोहितवर्णवाले तथा गृह आदिके निर्माता विश्वकर्मारूप रुद्रके लिये नमस्कार है, वृक्षोंके पालक रुद्रके लिये नमस्कार है, भुवनका विस्तार करनेवाले तथा समृद्धिकारक रुद्रके लिये नमस्कार है, ओषधियोंके रक्षक रुद्रके लिये नमस्कार है, आलोचनकुशल व्यापारकर्तारूप रुद्रके लिये नमस्कार है, वनके लता-वृक्ष आदिके पालक रुद्रके लिये नमस्कार है, युद्धमें उग्र शब्द करनेवाले तथा शत्रुओंको रुलानेवाले रुद्रके लिये नमस्कार है, [हाथी, घोड़ा, रथ, पैदल आदि] सेनाओंके पालक रुद्रके लिये नमस्कार है॥१९॥

- कर्णपर्यन्त प्रत्यंचा खींचकर युद्ध में शीघ्रतापूर्वक दौड़नेवाले (अथवा सम्पूर्ण लाभकी प्राप्ति करानेवाले) रुद्रके लिये नमस्कार है, शरणागत प्राणियोंके पालक रुद्रके लिये नमस्कार है, शत्रुओंका तिरस्कार करनेवाले तथा शत्रुओंको बेधनेवाले रुद्रके लिये नमस्कार है, सब प्रकारसे प्रहार करनेवाली शूर सेनाओंके रक्षक रुद्रके लिये नमस्कार है, खड्ग

 

नमो वञ्चते परिवञ्चते स्तायूनां पतये नमो नमो निषङ्गिण इषुधिमते तस्कराणां पतये नमो नमः सृकायिभ्यो जिघासद्भयो मुष्णतां पतये नमो नमोऽसिमद्भयो नक्तञ्चरद्भयो विकृन्तानां पतये नमः ॥२१॥

नम उष्णीषिणे गिरिचराय कुलुञ्चानां पतये नमो नम इषुमद्भयो धन्वायिभ्यश्च वो नमो नम आतन्वानेभ्यः प्रतिदधानेभ्यश्च वो नमो नम आयच्छद्भयो ऽस्यद्भयश्च वो नमः ॥ २२॥

 

चलानेवाले महान् रुद्रके लिये नमस्कार है, गुप्त चोरोंके रक्षक रुद्रके लिये नमस्कार है, अपहारकी बुद्धिसे निरन्तर गतिशील तथा हरणकी इच्छासे आपण (बाजार)-वाटिका आदिमें विचरण करनेवाले रुद्रके लिये नमस्कार है तथा वनोंके पालक रुद्रके लिये नमस्कार है॥२०॥

वंचना करनेवाले तथा अपने स्वामीको विश्वास दिलाकर धन हरण करके उसे ठगनेवाले रुद्ररूपके लिये नमस्कार है, गुप्त धन चुरानेवालोंके पालक रुद्रके लिये नमस्कार है, बाण तथा तूणीर धारण करनेवाले रुद्रके लिये नमस्कार है, प्रकटरूपमें चोरी करनेवालोंके पालक रुद्रके लिये नमस्कार है, वज़ धारण करनेवाले तथा शत्रुओंको मारनेकी इच्छावाले रुद्रके लिये नमस्कार है, खेतोंमें धान्य आदि चुरानेवालोंके रक्षक रुद्रके लिये नमस्कार है, प्राणियोंपर घात करनेके लिये खड्ग धारणकर रात्रिमें विचरण करनेवाले रुद्रोंके लिये नमस्कार है तथा दूसरोंको काटकर उनका धन हरण करनेवालोंके पालक रुद्रके लिये नमस्कार है॥२१॥

सिरपर पगड़ी धारण करके पर्वतादि दुर्गम स्थानोंमें विचरनेवाले रुद्रके लिये नमस्कार है, छलपूर्वक दूसरोंके क्षेत्र, गृह आदिका हरण करनेवालोंके पालक रुद्ररूपके लिये नमस्कार है, लोगोंको भयभीत करनेके लिये बाण धारण करनेवाले रुद्रोंके लिये नमस्कार है, धनुष धारण करनेवाले आप रुद्रोंके लिये नमस्कार है, धनुषपर प्रत्यंचा चढ़ानेवाले रुद्रोंके लिये नमस्कार है, धनुषपर बाणका संधान करनेवाले आप रुद्रोंके लिये नमस्कार है, धनुषको भलीभाँति खींचनेवाले रुद्रोंके लिये नमस्कार है, बाणोंको सम्यक् छोड़नेवाले आप रुद्रोंके लिये नमस्कार है॥२२॥

 

नमो विसृजद्भयो विध्यद्भयश्च वो नमो नमः स्वपट्यो जाग्रद्भ्यश्च वो नमो नमः शयानेभ्य आसीनेभ्यश्च वो नमो नमस्तिष्ठद्भयो धावद्भ्यश्च वो नमः ॥२३॥

नमः सभाभ्यः सभापतिभ्यश्च वो नमो नमोऽश्वेभ्यो ऽश्वपतिभ्यश्च वो नमो नम आव्याधिनीभ्यो विविध्यन्तीभ्यश्च वो नमो नम उगणाभ्यस्तृछहतीभ्यश्च वो नमः॥२४॥

 

पापियोंके दमनके लिये बाण चलानेवाले रुद्रोंके लिये नमस्कार है, शत्रुओंको बेधनेवाले आप रुद्रोंके लिये नमस्कार है, स्वप्नावस्थाका अनुभव करनेवाले रुद्रोंके लिये नमस्कार है, जाग्रत् अवस्थावाले आप रुद्रोंके लिये नमस्कार है, सुषुप्ति अवस्थावाले रुद्रोंके लिये नमस्कार है, बैठे हुए आप रुद्रोंके लिये नमस्कार है, स्थित रहनेवाले रुद्रोंके लिये नमस्कार है, वेगवान् गतिवाले आप रुद्रोंके लिये नमस्कार है॥२३॥ - सभारूप रुद्रोंके लिये नमस्कार है, सभापतिरूप आप रुद्रोंके लिये नमस्कार है, अश्वरूप रुद्रोंके लिये नमस्कार है, अश्वपतिरूप आप रुद्रोंके लिये नमस्कार है, सब प्रकारसे बेधन करनेवाले देवसेनारूप रुद्रोंके लिये नमस्कार है, विशेषरूपसे बेधन करनेवाले देवसेनारूप आप रुद्रोंके लिये  नमस्कार है, उत्कृष्ट भृत्य-समूहोंवाली ब्राह्मी आदि मातास्वरूप रुद्रोंके लिये नमस्कार है और मारने में समर्थ दुर्गा आदि मातास्वरूप आप रुद्रोंके लिये नमस्कार है ॥२४॥

 

नमो गणेभ्यो गणपतिभ्यश्च वो नमो नमो वातेभ्यो व्रातपतिभ्यश्च वो नमो नमो गृत्सेभ्यो गृत्सपतिभ्यश्च वो नमो नमो विरूपेभ्यो विश्वरूपेभ्यश्च वो नमः ॥२५॥

नमः सेनाभ्यः सेनानिभ्यश्च वो नमो नमो रथिभ्यो अरथेभ्यश्च वो नमो नमः क्षतृभ्यः संग्रहीतृभ्यश्च वो नमो नमो महद्भयो अर्भकेभ्यश्च वो नमः॥२६॥

 

देवानुचर भूतगणरूप रुद्रोंके लिये नमस्कार है, भूतगणोंके अधिपतिरूप आप रुद्रोंके लिये नमस्कार है, भिन्न-भिन्न जातिसमूहरूप रुद्रोंके लिये नमस्कार है, विभिन्न जातिसमूहोंके अधिपतिरूप आप रुद्रोंके लिये नमस्कार है, मेधावी ब्रह्मजिज्ञासुरूप रुद्रोंके लिये नमस्कार है, मेधावी ब्रह्मजिज्ञासुओंके अधिपतिरूप आप रुद्रोंके लिये नमस्कार है, निकृष्ट रूपवाले रुद्रोंके लिये नमस्कार है, नानाविध रूपोवाले विश्वरूप आप रुद्रोंके लिये नमस्कार है॥ २५॥

सेनारूप रुद्रोंके लिये नमस्कार है, सेनापतिरूप आप रुद्रोंके लिये नमस्कार है, रथीरूप रुद्रोंके लिये नमस्कार है, रथविहीन आप रुद्रोंके लिये नमस्कार है, रथोंके अधिष्ठातारूप रुद्रोंके लिये नमस्कार है, सारथिरूप आप रुद्रोंके लिये नमस्कार है, जाति तथा विद्या आदिसे उत्कृष्ट प्राणिरूप रुद्रोंके लिये नमस्कार है, प्रमाण आदिसे अल्परूप रुद्रोंके लिये नमस्कार है॥२६॥

 

नमस्तक्षभ्यो रथकारेभ्यश्च वो नमो नमः कुलालेभ्यः कर्मारेभ्यश्च वो नमो नमो निषादेभ्यः पुञ्जिष्ठेभ्यश्च वो नमो नमः श्वनिभ्यो मृगयुभ्यश्च वो नमः ॥२७॥

नमः श्वभ्यः श्वपतिभ्यश्च वो नमो नमो भवाय च रुद्राय च नमः शर्वाय च पशुपतये च नमो नीलग्रीवाय च शितिकण्ठाय च॥२८॥

नमः कपर्दिने च व्युप्तकेशाय च नमः सहस्राक्षाय च शतधन्वने च नमो

नमो गिरिशयाय च शिपिविष्टाय च नमो मीढुष्टमाय चेषुमते च॥२९॥

 

शिल्पकाररूप रुद्रोंके लिये नमस्कार है, रथनिर्मातारूप आप रुद्रोंके लिये नमस्कार है, कुम्भकाररूप रुद्रोंके लिये नमस्कार है, लौहकाररूप आप रुद्रोंके लिये नमस्कार है, वन-पर्वतादिमें विचरनेवाले निषादरूप रुद्रोंके लिये नमस्कार है, पक्षियोंको मारनेवाले पुल्कसादिरूप आप रुद्रोंके लिये नमस्कार है, श्वानोंके गलेमें बँधी रस्सी धारण करनेवाले रुद्ररूपोंके लिये नमस्कार है और मृगोंकी कामना करनेवाले व्याधरूप आप रुद्रोंके लिये नमस्कार है।। २७॥

श्वानरूप रुद्रोंके लिये नमस्कार है, श्वानोंके स्वामीरूप आप रुद्रोंके लिये नमस्कार है, प्राणियोंके उत्पत्तिकर्ता रुद्रके लिये नमस्कार है, दुःखोंके विनाशक रुद्रके लिये नमस्कार है, पापोंका नाश करनेवाले रुद्रके लिये नमस्कार है, पशुओंके रक्षक रुद्रके लिये नमस्कार है, हलाहलपानके फलस्वरूप नीलवर्णके कण्ठवाले रुद्रके लिये नमस्कार है और श्वेत कण्ठवाले रुद्रके लिये नमस्कार है॥ २८॥

जटाजूट धारण करनेवाले रुद्रके लिये नमस्कार है, मुण्डित केशवाले रुद्रके लिये नमस्कार है, हजारों नेत्रवाले इन्द्ररूप रुद्रके लिये नमस्कार है, सैकड़ों धनुष धारण करनेवाले रुद्रके लिये नमस्कार है, कैलासपर्वतपर शयन करनेवाले रुद्रके लिये नमस्कार है, सभी प्राणियोंके अन्तर्यामी विष्णुरूप रुद्रके लिये नमस्कार है, अत्यधिक सेचन करनेवाले मेघरूप रुद्रके लिये नमस्कार है और बाण धारण करनेवाले रुद्रके लिये नमस्कार है ।। २९॥

 

नमो ह्र्रस्वाय च वामनाय च नमो बृहते च वर्षीयसे नमो वृद्धाय च सवृधे नमोऽग्न्याय च प्रथमाय च॥३०॥

नम आशवे चाजिराय च नमः शीघ्रयाय च शीभ्याय च नम ऊर्ध्याय चावस्वन्याय च नमो नादेयाय च द्वीप्याय च॥३१॥

 

अल्प देहवाले रुद्रके लिये नमस्कार है, संकुचित अंगोंवाले वामनरूप रुद्रके लिये नमस्कार है, बृहत्काय रुद्रके लिये नमस्कार है, अत्यन्त वृद्धावस्थावाले रुद्रके लिये नमस्कार है, अधिक आयुवाले रुद्रके लिये नमस्कार है, विद्याविनयादिगुणोंसे सम्पन्न विद्वानोंके साथीरूप रुद्रके लिये नमस्कार है, जगत्के आदिभूत रुद्रके लिये नमस्कार है और सर्वत्र मुख्यस्वरूप रुद्रके लिये नमस्कार है॥३०॥

जगद्व्यापी रुद्रके लिये नमस्कार है, गतिशील रुद्रके लिये नमस्कार है, वेगवाली वस्तुओंमें विद्यमान रुद्रके लिये नमस्कार है, जलप्रवाहमें विद्यमान आत्मश्लाघी रुद्रके लिये नमस्कार है, जलतरंगोंमें व्याप्त रुद्रके लिये नमस्कार है, स्थिर जलरूप रुद्रके लिये नमस्कार है, नदियोंमें व्याप्त रुद्रके लिये नमस्कार है और द्वीपोंमें व्याप्त रुद्रके लिये नमस्कार है ॥ ३१ ॥

 

नमो ज्येष्ठाय च कनिष्ठाय च नमः । पूर्वजाय चापरजाय

च नमो मध्यमाय चापगल्भाय च नमो जघन्याय च बुध्याय च ॥३२॥

नमः सोभ्याय च प्रतिसर्याय च नमो याम्याय च क्षेम्याय च नमः

श्लोक्याय चावसान्याय च नम उर्याय च खल्याय च॥३३॥

 

अति प्रशस्य ज्येष्ठरूप रुद्रके लिये नमस्कार है, अत्यन्त युवा (अथवा कनिष्ठ)-रूप रुद्रके लिये नमस्कार है, जगत्के आदिमें हिरण्यगर्भरूपसे प्रादुर्भूत हुए रुद्रके लिये नमस्कार है, प्रलयके समय कालाग्निके सदृश रूप धारण करनेवाले रुद्रके लिये नमस्कार है, सृष्टि और प्रलयके मध्यमें देवनर-तिर्यगादिरूपसे उत्पन्न होनेवाले रुद्रके लिये नमस्कार है, अव्युत्पन्नेन्द्रिय रुद्रके लिये नमस्कार है अथवा विनीत रुद्रके लिये नमस्कार है, (गाय आदिके) जघनप्रदेशसे उत्पन्न होनेवाले रुद्रके लिये नमस्कार है और वृक्षादिकोंके मूलमें निवास करनेवाले रुद्रके लिये नमस्कार है॥३२॥

गन्धर्वनगरमें होनेवाले (अथवा पुण्य और पापोंसे युक्त मनुष्यलोकमें उत्पन्न होनेवाले) रुद्रके लिये नमस्कार है, प्रत्यभिचारमें रहनेवाले (अथवा विवाहके समय हस्तसूत्रमें उत्पन्न होनेवाले) रुद्रके लिये नमस्कार है, पापियोंको नरककी वेदना देनेवाले यमके अन्तर्यामी रुद्रके लिये नमस्कार है, कुशलकर्ममें रहनेवाले रुद्रके लिये नमस्कार है, वेदके मन्त्र (अथवा यश)-द्वारा उत्पन्न हुए रुद्रके लिये नमस्कार है, वेदान्तके तात्पर्यविषयीभूत रुद्रके लिये नमस्कार है, सर्वसस्यसम्पन्न पृथ्वीसे उत्पन्न होनेवाले धान्यरूप रुदके लिये नमस्कार है, धान्यविवेचन देश (खलिहान)में उत्पन्न हुए रुद्रके लिये नमस्कार है॥३३॥

 

नमो वन्याय च कक्ष्याय च नमः श्रवाय च प्रतिश्रवाय च नम आशुषेणाय चाशुरथाय च नमः शूराय चावभेदिने च॥ ३४॥

नमो बिल्मिने च कवचिने च नमो वर्मिणे च वरूथिने च नमः श्रुताय च श्रुतसेनाय च नमो दुन्दुभ्याय चाहनन्याय च॥३५॥

नमो धृष्णवे च प्रमशाय च नमो निषङ्गिणे चेषुधिमते च नमस्ती क्ष्णेषवे चायुधिने च नमः स्वायुधाय च सुधन्वने च॥३६॥

 

वनोंमें वृक्ष-लतादिरूप रुद्र अथवा वरुणस्वरूप रुद्रोंके लिये नमस्कार है, शुष्क तृण अथवा गुल्मोंमें रहनेवाले रुद्रके लिये नमस्कार है। प्रतिध्वनिस्वरूप रुद्रके लिये नमस्कार है, शीघ्रगामी सेनावाले रुद्रके लिये नमस्कार है, शीघ्रगामी रथवाले रुद्रके लिये नमस्कार है, युद्धमें शूरता प्रदर्शित करनेवाले रुद्रके लिये नमस्कार है तथा शत्रुओंको विदीर्ण करनेवाले रुद्रके लिये नमस्कार है॥३४॥

शिरस्त्राण धारण करनेवाले रुद्रके लिये नमस्कार है, कपास-निर्मित देहरक्षक (अंगरखा) धारण करनेवाले रुद्रके लिये नमस्कार है, लोहेका बख्तर धारण करनेवाले रुद्रके लिये नमस्कार है, गुम्बदयुक्त रथवाले रुद्रके लिये नमस्कार है, संसारमें प्रसिद्ध रुद्रके लिये नमस्कार है, प्रसिद्ध सेनावाले रुद्रके लिये नमस्कार है, दुन्दुभी (भेरी)-में विद्यमान रुद्रके लिये नमस्कार है, भेरी आदि वाद्योंको बजानेमें प्रयुक्त होनेवाले दण्ड आदिमें विद्यमान रुद्रके लिये नमस्कार है॥ ३५ ॥

प्रगल्भ स्वभाववाले रुद्रके लिये नमस्कार है, सत्-असत्का विवेकपूर्वक विचार करनेवाले रुद्रके लिये नमस्कार है, खड्ग धारण करनेवाले रुद्रके लिये नमस्कार है, तूणीर (तरकश) धारण करनेवाले रुद्रके लिये नमस्कार है, तीक्ष्ण बाणोंवाले रुद्रके लिये नमस्कार है, नानाविध आयुधोंको धारण करनेवाले रुद्रके लिये नमस्कार है, उत्तम त्रिशूलरूप आयुध धारण करनेवाले रुद्रके लिये नमस्कार है और श्रेष्ठ पिनाक धनुष धारण करनेवाले रुद्रके लिये नमस्कार है॥३६॥

 

नमः स्रुत्याय च पथ्याय च नमः काट्याय च नीप्याय च नमः कुल्याय च सरस्याय च नमो नादेयाय च वैशन्ताय च॥ ३७॥

नमः कूप्याय चावट्याय नमो वीध्रय्या चातप्याय च नमो मेध्याय च विद्युत्याय च नमो वर्ध्याय चावर्ष्याय च॥३८॥

 

क्षुद्रमार्गमें विद्यमान रहनेवाले रुद्रके लिये नमस्कार है, रथ-गजअश्व आदिके योग्य विस्तृत मार्गमें विद्यमान रहनेवाले रुद्रके लिये नमस्कार है, दुर्गम मार्गामें स्थित रहनेवाले रुद्रके लिये नमस्कार है, जहाँ झरनोंका जल गिरता है, उस भूप्रदेशमें उत्पन्न हुए अथवा पर्वतोंके अधोभागमें विद्यमान रुद्रके लिये नमस्कार है, नहरके मार्गमें स्थित अथवा शरीरोंमें अन्तर्यामीरूपसे विराजमान रुद्रके लिये नमस्कार है, सरोवरमें उत्पन्न होनेवाले रुद्रके लिये नमस्कार है, सरितादिकोंमें विद्यमान जलरूप रुद्रके लिये नमस्कार है, अल्प सरोवरमें रहनेवाले रुद्र के लिये नमस्कार है ॥ ३७॥

कूपोंमें विद्यमान रुद्रके लिये नमस्कार है, गर्त स्थानोंमें रहनेवाले रुद्रके लिये नमस्कार है, शरद्-ऋतुके बादलों अथवा चन्द्र-नक्षत्रादिमण्डलमें विद्यमान विशुद्ध स्वभाववाले रुद्रके लिये नमस्कार है, आतप (धूप)-में उत्पन्न होनेवाले रुद्रके लिये नमस्कार है, मेघोंमें विद्यमान रुद्रके लिये नमस्कार है, विद्युत्में होनेवाले रुद्रके लिये नमस्कार है, वृष्टिमें विद्यमान रुद्रके लिये नमस्कार है तथा अवर्षणमें स्थित रुद्रके लिये नमस्कार है॥३८॥

 

नमो वात्याय च रेष्याय च नमो वास्तव्याय च वास्तुपाय नमः सोमाय च रुद्राय नमस्ताम्राय चारुणाय च॥३९॥

नमः शङ्गवे च पशुपतये च नम उग्राय च भीमाय च नमोऽग्रेवधाय च दूरेवधाय च नमो हन्त्रे च हनीयसे च नमो वृक्षेभ्यो हरिकेशेभ्यो नमस्ताराय॥४०॥

 

वायुमें रहनेवाले रुद्रके लिये नमस्कार है, प्रलयकालमें विद्यमान रहनेवाले रुद्रके लिये नमस्कार है, गृह-भूमिमें विद्यमान रुद्रके लिये नमस्कार है अथवा सर्वशरीरवासी रुद्रके लिये नमस्कार है, गृहभूमिके रक्षकरूप रुद्रके लिये नमस्कार है, चन्द्रमामें स्थित अथवा ब्रह्मविद्या महाशक्ति उमासहित विराजमान सदाशिव रुद्रके लिये नमस्कार है, सर्वविध अनिष्टके विनाशक रुद्रके लिये नमस्कार है, उदित होनेवाले सूर्यके रूपमें ताम्रवर्णके रुद्रके लिये नमस्कार है और उदयके पश्चात् अरुण (कुछ-कुछ रक्त) वर्णवाले रुद्रके लिये नमस्कार है॥३९॥

 

भक्तोंको सुखको प्राप्ति करानेवाले रुद्रके लिये नमस्कार है, जीवोंके अधिपतिस्वरूप रुद्रके लिये नमस्कार है, संहार-कालमें प्रचण्ड स्वरूपवाले रुद्रके लिये नमस्कार है, अपने भयानकरूपसे शत्रुओंको भयभीत करनेवाले रुद्रके लिये नमस्कार है, सामने खड़े होकर वध करनेवाले रुद्रके लिये नमस्कार है, दूर स्थित रहकर संहार करनेवाले रुद्रके लिये नमस्कार है, हनन करनेवाले रुद्रके लिये नमस्कार है, प्रलयकालमें सर्वहन्तारूप रुद्रके लिये नमस्कार है, हरितवर्णके पत्ररूप केशोंवाले कल्पतरुस्वरूप रुद्रके लिये नमस्कार है और ज्ञानोपदेशके द्वारा अधिकारी जनोंको तारनेवाले रुद्रके लिये नमस्कार है॥४०॥

 

नमः शम्भवाय च मयोभवाय च नमः शङ्कराय च मयस्कराय च नमः शिवाय च शिवतराय च ॥४१॥

नमः पार्याय चावार्याय च नमः प्रतरणाय चोत्तरणाय च नमस्तीर्थ्याय च कूल्याय च नमः शष्याय च फेन्याय च ॥४२॥

 

सुखके उत्पत्तिस्थानरूप रुद्रके लिये नमस्कार है, भोग तथा मोक्षका सुख प्रदान करनेवाले रुद्रके लिये नमस्कार है, लौकिक सुख देनेवाले रुद्रके लिये नमस्कार है, वेदान्त-शास्त्रमें होनेवाले ब्रह्मात्मैक्य साक्षात्कारस्वरूप रुद्रके लिये नमस्कार है, कल्याणरूप निष्पाप रुद्रके लिये नमस्कार है और अपने भक्तोंको भी निष्पाप बनाकर कल्याणरूप कर देनेवाले रुद्रके लिये नमस्कार है ॥४१॥

संसारसमुद्रके अपर तीरपर रहनेवाले अथवा संसारातीत जीवन्मुक्त विष्णुरूप रुद्रके लिये नमस्कार है, संसारव्यापी रुद्रके लिये नमस्कार है, दुःख-पापादिसे प्रकृष्टरूपसे तारनेवाले रुद्रके लिये नमस्कार है, उत्कृष्ट ब्रह्म-साक्षात्कार कराकर संसारसे तारनेवाले रुद्रके लिये नमस्कार है, तीर्थस्थलोंमें प्रतिष्ठित रहनेवाले रुद्रके लिये नमस्कार है, गंगा आदि नदियोंके तटपर विद्यमान रहनेवाले रुद्रके लिये नमस्कार है, गंगा आदि नदियोंके तटपर उत्पन्न रहनेवाले कुशांकुरादि बालतॄणरूप रुद्रके लिये नमस्कार है और जलके विकारस्वरूप फेनमें विद्यमान रहनेवाले रुद्र के लिये नमस्कार है॥ ४२ ॥

 

नमः सिकत्याय च प्रवाशाय च नमः किछशिलाय च क्षयणाय च नमः कपर्दिने

च पुलस्तये च नम इरिण्याय च प्रपथ्याय च॥४३॥

नमो व्रज्याय च गोष्ठ्याय च नमस्तल्प्याय च गेह्याय च नमो हृदय्याय च निवेष्याय च नमः काट्याय च गह्वरेष्ठाय च॥४४॥

 

नदियोंकी बालुकाओंमें होनेवाले रुद्रके लिये नमस्कार है, नदी आदिके प्रवाहमें होनेवाले रुद्रके लिये नमस्कार है, क्षुद्र पाषाणोंवाले प्रदेशके रूपमें विद्यमान रुद्रके लिये नमस्कार है, स्थिर जलसे परिपूर्ण प्रदेशरूप रुद्रके लिये नमस्कार है, जटामुकुटधारी रुद्रके लिये नमस्कार है, शुभाशुभ देखनेकी इच्छासे सदा सामने खड़े रहनेवाले अथवा सर्वान्तर्यामीस्वरूप रुद्रके लिये नमस्कार है, ऊसरभूमिरूप रुद्रके लिये नमस्कार है और अनेक जनोंसे संसेवित मार्गमें होनेवाले रुद्रके लिये नमस्कार है॥४३॥

गोसमूहमें विद्यमान अथवा व्रजमें गोपेश्वरके रूपमें रहनेवाले रुद्रके लिये नमस्कार है, गोशालाओंमें रहनेवाले गोष्ठ्यरूप रुद्रके लिये नमस्कार है, शय्या विद्यमान रहनेवाले रुद्रके लिये नमस्कार है, गृहमें विद्यमान रहनेवाले रुद्रके लिये नमस्कार है, हृदयमें रहनेवाले जीवरूपी रुद्रके लिये नमस्कार है, जलके भंवरमें रहनेवाले रुद्रके लिये नमस्कार है, दुर्ग-अरण्य आदि स्थानोंमें रहनेवाले रुद्रके लिये नमस्कार है और विषम गिरिगुहा आदि अथवा गम्भीर जलमें विद्यमान रुद्रके लिये नमस्कार है॥ ४४ ।।

 

नमः शुष्क्याय च हरित्याय च नमः पासव्याय च रजस्याय च नमो लोप्याय चोलप्याय च नम ऊर्ध्याय च साय च॥४५॥

नमः पर्णाय च पर्णशदाय च नम उद्गुरमाणाय चाभिघ्नते च नम आखिदते च प्रखिदते च नम इषुकृयो धनुष्कृयश्च वो नमो नमो वः किरिकेभ्यो देवाना हृदयेभ्यो नमो विचिन्वत्केभ्यो नमो विक्षिणत्केभ्यो नम आनिर्हतेभ्यः ॥ ४६॥

 

काष्ठ आदि शुष्क पदार्थोंमें भी सत्तारूपसे विद्यमान रुद्रके लिये नमस्कार है, आई काष्ठ आदिमें सत्तारूपसे विद्यमान रुद्रके लिये नमस्कार है, धूलि आदिमें विराजमान पांसव्यरूप रुद्रके लिये नमस्कार है, रजोगुण अथवा परागमें विद्यमान रजस्यरूप रुद्रके लिये नमस्कार है, सम्पूर्ण इन्द्रियोंके व्यापारकी शान्ति होनेपर भी अथवा प्रलयमें भी साक्षी बनकर रहनेवाले रुद्रके लिये नमस्कार है, बल्वजादि तृणविशेषोंमें होनेवाले उलप्यरूपी रुद्रके लिये नमस्कार है, बडवानलमें विराजमान रुद्रके लिये नमस्कार है और प्रलयाग्निमें विद्यमान रुद्रके लिये नमस्कार है॥ ४५ ॥

वृक्षोंके पत्ररूप रुद्रके लिये नमस्कार है, वृक्ष-पोंके स्वतः शीर्ण होनेके काल-वसन्त-ऋतुरूप रुद्रके लिये नमस्कार है, पुरुषार्थपरायण रहनेवाले रुद्रके लिये नमस्कार है, सब ओर शत्रुओंका हनन करनेवाले रुद्रके लिये नमस्कार है, सब ओरसे अभक्तोंको दीन-दुःखी बना देनेवाले रुद्रके लिये नमस्कार है, अपने भक्तोंके दु:खोंसे दु:खी होनेके कारण दयासे आदय होनेवाले रुद्रके लिये नमस्कार है, बाणोंका निर्माण करनेवाले रुद्रोंके लिये नमस्कार है, धनुषोंका निर्माण करनेवाले रुद्रोंके लिये नमस्कार है, वृष्टि आदिके द्वारा जगत्का पालन करनेवाले देवताओंके हदयभूत अग्नि-वायु-आदित्यरूप रुद्रोंके लिये नमस्कार है, धर्मात्मा तथा पापियोंका भेद करनेवाले अग्नि आदि रुद्रोंके लिये नमस्कार है, भक्तोंके पाप-रोगअमंगलको दूर करनेवाले तथा पाप-पुण्यके साक्षीस्वरूप अग्नि आदि रुद्रोंक लिये नमस्कार है और सृष्टिके आदिमें मुख्यतया इन लोकोंसे निर्गत हुए अग्नि-वायु-सूर्यरूप रुद्रोंके लिये नमस्कार है॥ ४६ ॥

 

द्रापे अन्धसस्पते दरिद्र नीललोहित। आसां प्रजानामेषां पशूनां मा भेर्मा रोड्मो च नः किंचनाममत्॥४७॥

इमा रुद्राय तवसे कपर्दिने क्षयद्वीराय प्रभरामहे मतीः। यथा शमसद् द्विपदे चतुष्पदे विश्वं पुष्टं ग्रामे अस्मिन्ननातुरम्॥४८॥

या ते रुद्र शिवा तनूः शिवा विश्वाहा भेषजी। शिवा रुतस्य भेषजी तया नो मृड जीवसे ॥४९॥

 

हे द्रापे (दुराचारियोंको कुत्सित गति प्राप्त करानेवाले)! हे अन्धसस्पते (सोमपालक)! हे दरिद्र (निष्परिग्रह)! हे नीललोहित! हमारी पुत्रादि प्रजाओं तथा गो-आदि पशुओंको भयभीत मत कीजिये, उन्हें नष्ट मत कीजिये और उन्हें किसी भी प्रकारके रोगसे ग्रसित मत कीजिये ॥४७॥

जिस प्रकारसे मेरे पुत्रादि तथा गौ आदि पशुओंको कल्याणकी प्राप्ति हो तथा इस ग्राममें सम्पूर्ण प्राणी पुष्ट तथा उपद्रवरहित हों, इसके निमित्त हम अपनी इन बुद्धियोंको महाबली, जटाजूटधारी तथा शूरवीरोंके निवासभूत रुद्रके लिये समर्पित करते हैं ॥४८॥

हे रुद्र! आपका जो शान्त, निरन्तर कल्याणकारक, संसारकी व्याधि निवृत्त करनेवाला तथा शारीरिक व्याधि दूर करनेका परम औषधिरूप शरीर है, उससे हमारे जीवनको सुखी कीजिये॥ ४९ ॥

 

परि नो रुद्रस्य हेतिवृणक्तु परि त्वेषस्य दुर्मतिरघायोः।

अव स्थिरा मघवद्भयस्तनुष्व मीढ्वस्तोकाय तनयाय मृड॥५०॥

मीढुष्टम शिवतम शिवो नः सुमना भव।

परमे वृक्ष आयुधं निधाय कृत्तिं वसान आ चर पिनाकं बिभ्रदा गहि॥५१॥

विकिरिद्र विलोहित नमस्ते अस्तु भगवः ।

यास्ते सहस्र हेतयोऽन्यमस्मन्नि वपन्तु ताः॥५२॥

सहस्राणि सहस्रशो बाह्वोस्तव हेतयः।

तासामीशानो भगवः पराचीना मुखा कृधि॥५३॥

 

रुद्रके आयुध हमारा परित्याग करें और क्रुद्ध हुए द्वेषी पुरुषोंकी दुर्बुद्धि हमलोगोंको वर्जित कर दे (अर्थात् उनसे हमलोगोंको किसी प्रकारकी पीड़ा न होने पाये)। अभिलषित वस्तुओंकी वृष्टि करनेवाले हे रुद्र! आप अपने धनुषको प्रत्यंचारहित करके यजमान-पुरुषोंके भयको दूर कीजिये और उनके पुत्र-पौत्रोंको सुखी बनाइये॥५०॥

अभीष्ट फल और कल्याणोंकी अत्यधिक वृष्टि करनेवाले हे रुद्र! आप हमपर प्रसन्न रहें, अपने त्रिशूल आदि आयुधोंको कहीं दूरस्थित वृक्षोंपर रख दीजिये, गजचर्मका परिधान धारण करके तप कीजिये और केवल शोभाके लिये धनुष धारण करके आइये ॥५१॥

विविध प्रकारके उपद्रवोंका विनाश करनेवाले तथा शुद्धस्वरूपवाले हे रुद्र । आपको हमारा प्रणाम है, आपके जो असंख्य आयुध हैं, वे हमसे अतिरिक्त दूसरोंपर जाकर गिरें ॥५२॥

गुण तथा ऐश्वयोंसे सम्पन्न हे जगत्पति रुद्र! आपके हाथोंमें हजारों प्रकारके जो असंख्य आयुध हैं, उनके अग्रभागों (मुखों)-को हमसे विपरीत दिशाओंकी ओर कर दीजिये (अर्थात् हमपर आयुधोंका प्रयोग मत कीजिये) ॥५३॥

 

असंख्याता सहस्राणि ये रुद्रा अधि भूम्याम्।

तेषा सहस्रयोजनेऽव धन्वानि तन्मसि ॥५४॥

अस्मिन् महत्यर्णवे ऽन्तरिक्ष भवा अधि।

तेषा सहस्रयोजनेऽव धन्वानि तन्मसि॥५५॥

नीलग्रीवाः शितिकण्ठा दिव रुद्रा उपश्रिताः।

तेषा, सहस्रयोजनेऽव धन्वानि तन्मसि॥५६॥

नीलग्रीवा: शितिकण्ठाः शर्वा अधः क्षमाचराः।

तेषा सहस्त्रयोजनेऽव धन्वानि तन्मसि॥५७॥

 

पृथ्वीपर जो असंख्य रुद्र निवास करते हैं, उनके असंख्य धनुर्षोंको प्रत्यंचारहित करके हमलोग हजारों कोसोंके पार जो मार्ग है, उसपर ले जाकर डाल देते हैं॥५४॥

मेघमण्डलसे भरे हुए इस महान् अन्तरिक्षमें जो रुद्र रहते हैं, उनके असंख्य धनुषोंको प्रत्यंचारहित करके हमलोग हजारों कोसोंके पारस्थित मार्गपर ले जाकर डाल देते हैं ॥ ५५ ॥

जिनके कण्ठका कुछ भाग नीलवर्णका है और कुछ भाग श्वेत वर्णका है तथा जो धुलोकमें निवास करते हैं, उन रुद्रोंके असंख्य धनुर्षोंको प्रत्यंचारहित करके हमलोग हजारों कोस दूरस्थित मार्गपर ले जाकर डाल देते हैं॥५६॥

कुछ भागमें नीलवर्ण और कुछ भागमें शुक्लवर्णक कण्ठवाले तथा भूमिके अधोभागमें स्थित पाताललोकमें निवास करनेवाले रुद्रोंके असंख्य धनुषोंको प्रत्यंचारहित करके हमलोग हजारों कोस दूरस्थित मार्गपर ले जाकर डाल देते हैं॥५७॥

 

ये वृक्षेषु शष्पिञ्जरा नीलग्रीवा विलोहिताः।

तेषा सहस्रयोजनेऽव धन्वानि तन्मसि॥५८॥

ये भूतानामधिपतयो विशिखासः कपर्दिनः।

तेषा सहस्रयोजनेऽव धन्वानि तन्मसि ॥५९॥

ये पथां पथिरक्षय ऐलबृदा आयुर्युधः ।

तेषा सहस्रयोजनेऽव धन्वानि तन्मसि॥६०॥

ये तीर्थानि प्रचरन्ति सृकाहस्ता निषङ्गिणः।

तेषा सहस्रयोजनेऽव धन्वानि तन्मसि ॥ ६१॥

 

बाल तृणके समान हरितवर्णके तथा कुछ भागमें नीलवर्ण एवं कुछ भागमें शुक्लवर्णके कण्ठवाले, जो रुधिररहित रुद्र (तेजोमय शरीर रहनेसे उन शरीरोंमें रक्त और मांस नहीं रहता) हैं, वे अश्वत्थ आदिके वृक्षोंपर रहते हैं। उन रुद्रोंके धनुषोंको प्रत्यंचारहित करके हमलोग हजारों कोसोंके पारस्थित मार्गपर डाल देते हैं।। ५८॥

जिनके सिरपर केश नहीं हैं, जिन्होंने जटाजूट धारण कर रखा है और जो पिशाचोंके अधिपति हैं, उन रुद्रोंके धनुषोंको प्रत्यंचारहित करके हमलोग हजारों कोसोंके पारस्थित मार्गपर ले जाकर डाल देते हैं ॥ ५९॥

अन्न देकर प्राणियोंका पोषण करनेवाले, आजीवन युद्ध करनेवाले, लौकिक-वैदिक मार्गका रक्षण करनेवाले तथा अधिपति कहलानेवाले जो रुद्र हैं, उनके धनुर्षोंको प्रत्यंचारहित करके हमलोग हजारों कोसोंके पारस्थित मार्गपर ले जाकर डाल देते हैं॥६०॥

वन और खड्ग आदि आयुधोंको हाथमें धारणकर जो रुद्र तीर्थोपर जाते हैं, उनके धनुषोंको प्रत्यंचारहित करके हमलोग हजारों कोसोंके पारस्थित मार्गपर ले जाकर डाल देते हैं।६१॥

 

येऽन्नेषु विविध्यन्ति पात्रेषु पिबतो जनान्।

तेषा सहस्रयोजनेऽव धन्वानि तन्मसि॥६२॥

य एतावन्तश्च भूया,सश्च दिशो रुद्रा वितस्थिरे।

तेषा सहस्रयोजनेऽव धन्वानि तन्मसि॥६३ ।।

 

खाये जानेवाले अन्नोंमें स्थित जो रुद्र अन्नभोक्ता प्राणियोंको पीड़ित करते हैं (अर्थात् धातुवैषम्यके द्वारा उनमें रोग उत्पन्न करते हैं) और पात्रोंमें स्थित दुग्ध आदिमें विराजमान जो रुद्र उनका पान करनेवाले लोगोंको (व्याधि आदिके द्वारा) कष्ट देते हैं, उनके धनुषोंको प्रत्यंचारहित करके हमलोग हजारों कोस दूरस्थित मार्गपर ले जाकर डाल देते हैं। ६२॥

दसों दिशाओमें व्याप्त रहनेवाले जी अनेक रुद्र है, उनके धनुष को प्रत्यंचारहित करके हमलोग हजारों कोस दूरस्थित मार्गपर ले जाकर डाल देते हैं॥६३॥

जो रुद्र घुलोकमें विद्यमान हैं तथा जिन. रुद्रोंके बाण वृष्टिरूप हैं, उन रुद्रोंके लिये नमस्कार है। उन रुद्रोंके लिये पूर्व दिशाकी ओर दसों अँगुलियाँ करता हूँ, दक्षिणकी और दसों अँगुलियाँ करता हूँ, पश्चिमकी ओर दसों अँगुलियाँ करता हूँ, उत्तरकी ओर दसों अँगुलियाँ करता हूँ और ऊपरकी ओर दसों अँगुलियाँ करता हूँ (अर्थात् हाथ जोड़कर सभी दिशाओम उन रुद्रोंके लिये प्रणाम करता हूँ। वे रुद्र हमारी रक्षा करें और वे हमें सुखी बनायें। वे रुद्र जिस मनुष्यसे द्वेष करते हैं, हमलोग जिससे द्वेष करते हैं और जो हमसे द्वेष करता है, उस पुरुषको हमलोग उन रुद्रोंके भयंकर दाँतोंवाले मुखमें डालते हैं (अर्थात् वे रुद्र हमसे द्वेष करनेवाले मनुष्यका भक्षण कर जायँ) ॥ ६४॥

 

नमोऽस्तु रुद्रेभ्यो ये दिवि येषां वर्षमिषवः।

तेभ्यो दश प्राचीर्दश दक्षिणा दश प्रतीचीर्दशोदीचीर्दशोर्ध्वाः।

तेभ्यो नमो अस्तु ते नोऽवन्तु ते नो मृडयन्तु ते यं द्विष्मो यश्च नो द्वेष्टि तमेषां जम्भे दध्मः॥६४॥

नमोऽस्तु रुद्रेभ्यो येऽन्तरिक्षे येषां वात इषवः।

तेभ्यो दश प्राचीर्दश दक्षिणा दश प्रतीचीर्दशोदीचीर्दशोर्ध्वाः।

तेभ्यो नमो अस्तु ते नोऽवन्तु ते नो मृडयन्तु ते यं द्विष्मो यश्च नो द्वेष्टि तमेषां जम्भे दध्मः॥६५॥

नमोऽस्तु रुद्रेभ्यो ये पृथिव्यां येषामन्नमिषवः। तेभ्यो दश प्राचीर्दश दक्षिणा दश प्रतीचीर्दशोदीचीर्दशोर्ध्वाः तेभ्यो नमो अस्तु ते नोऽवन्तु ते नो मृडयन्तु ते यं द्विष्मो यश्च नो द्वेष्टि तमेषां जम्भे दध्मः॥६६॥

 

जो रुद्र अन्तरिक्षमें विद्यमान हैं तथा जिन रुद्रोंके बाण पवनरूप हैं, उन रुद्रोंके लिये नमस्कार है। उन रुद्रोंके लिये पूर्व दिशाकी ओर दसों अँगुलियों करता हूँ, दक्षिणकी ओर दसों अँगुलियाँ करता हूँ, पश्चिमकी ओर दसों अँगुलियाँ करता हूँ, उत्तरकी ओर दसों अँगुलियाँ करता हूँ और ऊपरकी ओर दसों अँगुलियाँ करता हूँ (अर्थात् हाथ जोड़कर सभी दिशाओंमें उन रुद्रोंके लिये प्रणाम करता हूँ)। वे रुद्र हमारी रक्षा करें और वे हमें सुखी बनायें। वे रुद्र जिस मनुष्यसे द्वेष करते हैं, हमलोग जिससे द्वेष करते हैं और जो हमसे द्वेष करता है, उस पुरुषको हमलोग उन रुद्रोंके भयंकर दाँतोंवाले मुखमें डालते हैं (अर्थात् वे रुद्र हमसे द्वेष करनेवाले मनुष्यका भक्षण कर जायें) ॥६५॥

जो रुद्र पृथ्वीलोकमें स्थित हैं तथा जिनके बाण अन्नरूप हैं, उन रुद्रोंके लिये नमस्कार है। उन रुद्रोंके लिये पूर्व दिशाकी और दसों अँगुलियाँ करता हूँ, दक्षिणकी ओर दसों अँगुलियाँ करता हूँ, पश्चिमकी ओर दसों अँगुलियाँ करता हूँ, उत्तरकी ओर दसों अँगुलियाँ करता हूँ और ऊपरकी ओर दसों अँगुलियाँ करता हूँ (अर्थात् हाथ जोड़कर सभी दिशाओंमें उन रुद्रोंके लिये प्रणाम करता हूँ)। वे रुद्र हमारी रक्षा करें और वे हमें सुखी बनायें। वे रुद्र जिस मनुष्यसे द्वेष करते हैं, हमलोग जिससे द्वेष करते हैं और जो हमसे द्वेष करता है, उस पुरुषको हमलोग उन रुद्रोंके भयंकर दाँतोंवाले मुखमें डालते हैं (अर्थात् वे रुद्र हमसे द्वेष करनेवाले मनुष्यका भक्षण कर जायँ) ॥६६॥

 

महामृत्युंजय मन्त्र (यजु० ३।६०) सम्पुटसहित

ॐ हौं जूं सः। ॐ भूर्भुवः स्वः । ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्। उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय मामृतात्। स्वः भुवः भूः ॐ। सः जूहौँ ॐ'

दिव्य गन्धसे युक्त, मृत्युरहित, धन-धान्यवर्धक, त्रिनेत्र रुद्रकी हम पूजा करते हैं। वे रुद्र हमें अपमृत्यु और संसाररूप मृत्युसे मुक्त करें। जिस प्रकार ककड़ी (फूट)-का फल अत्यधिक पक जानेपर अपने वृन्त (डंठल)-से मुक्त हो जाता है, उसी प्रकार हम भी मृत्युसे छूट जायें; किंतु अभ्युदय और निःश्रेयसरूप अमृतसे हमारा सम्बन्ध न छूटने पाये।

[शु० यजुर्वेद १६।१-६६]

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