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भगवान् के दर्शन


भगवान् के दर्शन

राजा जनक समय- समय पर धर्मशास्त्र मर्मज्ञों और विद्वानों को सादर आमंत्रित कर अपनी जिज्ञासाओं का समाधान किया करते थे । एक बार उन्होंने विद्वानों की सभा में पूछा, क्या कोई ऐसा ऋषि व मनीषी है, जो ईश्वर के साक्षात् दर्शन करा सके ? उनका यह प्रश्न सुनकर सभी हतप्रभ हो उठे और सिर झुकाए बैठे रहे । अचानक मुनि अष्टावक्र जनकजी के सत्संग के लिए आ पहुँचे। उनसे भी राजा जनक ने यह प्रश्न किया । वे बोले, भला, यह भी कोई कठिन काम है ? यदि आज्ञा दें, तो मैं ईश्वर के दर्शन करा सकता हूँ । राजा जनक ने कहा, यदि यह कठिन कार्य नहीं है, तो मुझे प्रभु के दर्शन कराएँ ।

अष्टावक्र ने कहा , महाराज, सिंहासन पर बैठ- बैठे ईश्वर के दर्शन नहीं किए जा सकते । राजपद का अहंकार त्यागकर आप भूमि पर बैठें । राजा जमीन पर आकर बैठ गए । मुनि अष्टावक्र ने कहा, दर्शन करने से पूर्व मुझे दक्षिणा देने का संकल्प करें । राजा ने कहा, बोलिए, आप कितना धन चाहते हैं ? अष्टावक्र ने कहा, आपके पास तमाम धन व संपत्ति जनता की है । आपकी कहाँ है ?

अंत में राजा ने कहा, यह शरीर तो मेरा है । मैं शरीर देने का संकल्प करता हूँ । यह शरीर भी आपका कहाँ है । यह पंचतत्त्वों से निर्मित है । पंच तत्त्वों में इसे विलीन हो जाना है । अष्टावक्र ने कहा । अब तो जनक के विवेक चक्षु खुल गए । उन्होंने कहा, मुनिवर , आपने ज्ञान रूपी भगवान् के दर्शन मुझे करा दिए हैं । इसके लिए मैं सदा आपका आभारी रहूँगा । 

 

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