*🚩‼️ओ३म्‼️🚩*
*🕉️🙏नमस्ते जी🙏🕉️*
दिनांक - - २७ जनवरी २०२५ ईस्वी
दिन - - सोमवार
🌘 तिथि -- त्रयोदशी ( २०:३४ तक तत्पश्चात चतुर्दशी )
🪐 नक्षत्र - - मूल ( ९:०२ तक तत्पश्चात पूर्वाषाढ )
पक्ष - - कृष्ण
मास - - माघ
ऋतु - - शिशिर
सूर्य - - उत्तरायण
🌞 सूर्योदय - - प्रातः ७:१२ पर दिल्ली में
🌞 सूर्यास्त - - सायं १७:५६ पर
🌘 चन्द्रोदय -- ३०:२२ पर
🌘 चन्द्रास्त - - १५:३६ पर
सृष्टि संवत् - - १,९६,०८,५३,१२५
कलयुगाब्द - - ५१२५
विक्रम संवत् - -२०८१
शक संवत् - - १९४६
दयानंदाब्द - - २००
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*🚩‼️ओ३म्‼️🚩*
🔥 अतिथि को भारतीय संस्कृति में माता, पिता और गुरू के पश्चात चौथा महान देवता माना गया है। यों तो घात लगाकर आने वाले चोर, ठग और अपराधी प्रवृत्ति के लोग भी अतिथि होने का वैसा प्रयत्न कर सकते हैं जैसा कि रावण ने सीता को अतिथि के नाम पर ही ठग लिया था। वस्तुतः अतिथि से तात्पर्य उन उदार आत्माओं से है जो कृपापूर्वक स्वयं कष्ट उठाकर किसी के यहां आते हैं और उसे सहयोग अनुदान से लाभान्वित करते हैं। प्राचीनकाल में उदारमना संत ऐसा ही अनुग्रह करने गृहस्थों के यहां पधारते थे और अपने पुण्य प्रभाव से उनको सुखी व समुन्नत बनाने का प्रयास करते थे। ऐसे श्रेष्ठ मानवों का, अतिथियों का देवोपम सत्कार किया जाना उचित भी है और आवश्यक भी है। शास्त्रों ने इसी से अतिथि को देवता मानने और उसका समुचित सम्मान करने का निर्देश दिया है। *'अतिथि देवो भव'।*
वैदिक धर्म में पंच-यज्ञो का बडा महत्व है और अतिथि यज्ञ भी हमारा एक दैनिक कर्तव्य है। जब भी हमारे घर पर कोई ऐसा व्यक्ति आ जाए जो वेदादि शास्त्रों का विद्वान हो, जिसने अपना जीवन संसार के कल्याण में लगा दिया हो, तो हमें भोजन, वस्त्रादि से उसका सत्कार करना चाहिए। साथ ही यदि कोई दीन, दुखी असहाय और अनाथ प्राणी द्वार पर आ जाए या कहीं भी मिल जाए तो हर प्रकार से उसकी सहायता करना भी अतिथि सेवा है।
प्राचीनकाल में अतिथि को भोजन कराकर ही गृहस्थ भोजन ग्रहण करते थे। जिस दिन कोई अतिथि न मिले तो अपने को भाग्यहीन समझते थे। हमें भी अपने हृदय में ऐसी ही भावना रखनी चाहिए। अतिथि को खिलाया हुआ भोजन व्यर्थ नहीं जाता। हमारे अन्न से शक्ति पाकर कोई देश और जाति का उद्धार करता है और किसी के प्राणों की रक्षा होती है- यह स्वयं ही महत्वपूर्ण है। जिस घर से अतिथि निराश लौट जाता है उसकी अपकीर्ति होती है। कभी भी अतिथि को निराश नहीं लौटने देना चाहिए। पर दुष्टों और मक्कारों से सावधान रहना भी आवश्यक है।
आजकल तो बस यार दोस्तों की, मेहमानों की, सरकारी कर्मचारियों आदि की जमकर खातिर की जाती है क्योंकि इससे उन्हे लाभ पहुंचने की संभावना रहती है। बहाना कुछ भी हो सकता है, बच्चों का जन्म दिन, विवाह, परीक्षा में पास होना आदि। लोगों को आग्रहपूर्वक बुलाकर हर प्रकार से उनके खाने पीने की व्यवस्था की जाती है। यही नहीं सुरा सुंदरी का सरंजाम भी जुटाया जाता है। क्या इसे अतिथि सत्कार कहा जा सकता है? क्या यह लेन देन नहीं है कि अमुक ने अपने बच्चों के जन्म दिन पर दावत की थी तो हम भी उससे ऊंचा आयोजन करें? क्या यह विशुद्ध व्यापार नहीं है कि दावत में कुछ व्यय करके उससे असंख्य गुना कमाने का मार्ग सुनिश्चित हो रहा है? क्या यह उच्च अधिकारियों को रिश्वत देकर अपना काम निकालने का साधन नहीं है? हमें यह भी ध्यान रखना चाहिए कि इस प्रकार एक व्यक्ति के भोजन आदि पर जो व्यय होता है, उतने में दस-बीस-पचास असहाय व्यक्तियों की सहायता की जा सकती है जिन्हे इसकी सचमुच आवश्यकता है। यही असली पुण्य कर्म है।
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*🕉️🚩 आज का वेद मंत्र 🚩🕉️*
*🌷 ओ३म् उपप्रयन्तो अध्वरं मन्त्रं वोचेमाग्नये ।आरे अस्मे च शृण्वते ।।( यजुर्वेद ३:११ )*
💐 अर्थ :- मनुष्यों को वेदमन्त्रों के साथ ईश्वर की स्तुति वा यज्ञ के अनुष्ठान को करके जो ईश्वर भीतर बाहर सब जगह व्याप्त होकर सब व्यवहारों को सुनता वा जानता हुआ वर्त्तमान है, इस कारण उससे भय मानकर अधर्म करने की इच्छा भी न करनी चाहिए । जब मनुष्य परमात्मा को जानता है, तब समीपस्थ और जब नहीं जानता तब दूरस्थ है, ऐसा निश्चय जानना चाहिए ।
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🔥विश्व के एकमात्र वैदिक पञ्चाङ्ग के अनुसार👇
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🙏 🕉🚩आज का संकल्प पाठ 🕉🚩🙏
(सृष्ट्यादिसंवत्-संवत्सर-अयन-ऋतु-मास-तिथि -नक्षत्र-लग्न-मुहूर्त) 🔮🚨💧🚨 🔮
ओ३म् तत्सत् श्री ब्रह्मणो दिवसे द्वितीये प्रहरार्धे श्वेतवाराहकल्पे वैवस्वते मन्वन्तरे अष्टाविंशतितमे कलियुगे कलिप्रथमचरणे 【एकवृन्द-षण्णवतिकोटि-अष्टलक्ष-त्रिपञ्चाशत्सहस्र- पञ्चर्विंशत्युत्तरशततमे ( १,९६,०८,५३,१२५ ) सृष्ट्यब्दे】【 एकाशीत्युत्तर-द्विसहस्रतमे ( २०८१) वैक्रमाब्दे 】 【 द्विशतीतमे ( २००) दयानन्दाब्दे, काल -संवत्सरे, रवि- उत्तरायणे , शिशिर -ऋतौ, माघ - मासे, कृष्ण पक्षे, त्रयोदश्यां
तिथौ,
मूल नक्षत्रे, सोमवासरे
, शिव -मुहूर्ते, भूर्लोके जम्बूद्वीपे, आर्यावर्तान्तर गते, भारतवर्षे भरतखंडे...प्रदेशे.... जनपदे...नगरे... गोत्रोत्पन्न....श्रीमान .( पितामह)... (पिता)...पुत्रोऽहम् ( स्वयं का नाम)...अद्य प्रातः कालीन वेलायाम् सुख शांति समृद्धि हितार्थ, आत्मकल्याणार्थ,रोग,शोक,निवारणार्थ च यज्ञ कर्मकरणाय भवन्तम् वृणे।
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