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विशुद्ध मनुस्मृति अष्टमोऽध्यायः



अथ अष्टमोऽध्यायः


(हिन्दीभाष्य-'अनुशीलन'-समीक्षा सहित) 


(राजधर्मान्तर्गत व्यवहार-निर्णय) 


(८.१ से ९.२५० पर्यन्त)


व्यवहारों अर्थात् मुकद्दमों के निर्णय के लिए राजा का न्यायसभा में प्रवेश―


व्यवहारान् दिदृक्षुस्तु ब्राह्मणैः सह पार्थिवः। 

मन्त्रज्ञैर्मन्त्रिभिश्चैव विनीतः प्रविशेत् सभाम्॥१॥ (१)


(व्यवहारान्) व्यवहारों अर्थात् मुकद्दमों [८.४७] को (दिदृक्षुः तु) देखने अर्थात् निर्णय करने का इच्छुक (पर्थिवः) राजा और न्यायाधीश (ब्राह्मणैः) न्यायविद्या के ज्ञाता विद्वानों [८.११] (मन्त्रज्ञैः) परामर्शदाताओं (च) और (मन्त्रिभिः) मन्त्रियों [७.५४, ५६] के (सह) साथ (विनीतः) विनीतभाव एवं वेश में [८.२] (सभां प्रविशेत्) सभा=न्यायालय [८.१२] में प्रवेश करे॥१॥


न्यायसभा में मुकद्दमों को देखें―


तत्रासीनः स्थितो वाऽपि पाणिमुद्यम्य दक्षिणम्। 

विनीतवेषाभरण: पश्येत् कार्याणि कार्यिणाम्॥२॥ (२)


राजा और न्यायाधीश (तत्र) वहां न्यायालय में (विनीत-वेष+आभरणः) विनीत वेशभूषा एवं आभूषणों=प्रतीक चिह्नों से युक्त होकर (आसीनः अपि वा स्थितः) सुविधानुसार बैठकर अथवा खड़ा होकर (दक्षिणं पाणिम्+उद्यम्य) दाहिने हाथ को उठा (कार्यिणाम्) मुकद्दमे वालों के (कार्याणि) कार्यों=विवादों को (पश्येत्) देखे=निर्णय करे [७.१४६ में राजसभा में भी इसी प्रकार सुविधानुसार खड़े होने या बैठने की व्यवस्था का कथन है]॥२॥


अठारह प्रकार के मुकद्दमे―


प्रत्यहं देशदृष्टैश्च शास्त्रदृष्टैश्च हेतुभिः। 

अष्टादशसु मार्गेषु निबद्धानि पृथक् पृथक्॥३॥ (३)


न्यायाधीश और राजा (अष्टादशसु मार्गेषु पृथक् पृथक् निबद्धानि) अठारह प्रकारों में पृथक्-पृथक् विभक्त विवादों=मुकद्दमों को (देशदृष्टैः च शास्त्रदृष्टैः हेतुभिः) देश-काल आधारित [८.१२६] और शास्त्रोक्त न्यायविधि पर आधारित युक्ति-प्रमाणों के अनुसार (प्रत्यहम्) प्रतिदिन विचारे, निर्णय करे॥३॥


तेषामाद्यमृणादानं निक्षेपोऽस्वामिविक्रयः। 

संभूय च समुत्थानं दत्तस्यानपकर्म च॥४॥ 

वेतनस्यैव चादानं संविदश्च व्यतिक्रमः। 

क्रयविक्रयानुशयो विवादः स्वामिपालयोः॥५॥ 

सीमाविवादधर्मश्च पारुष्ये दण्डवाचिके। 

स्तेयं च साहसं चैव स्त्रीसङ्ग्रहणमेव च॥६॥ 

स्त्रीपुंधर्मो विभागश्च द्यूतमाह्वय एव च। 

पदान्यष्टादशैतानि व्यवहारस्थिताविह॥७॥ (४-७)


अठारह विवाद ये हैं―(तेषाम् आद्यम्) उनमें पहला है १―(ऋणादानम्) किसी से ऋण लेकर न देने का विवाद [८.४७-१७८], २―(निक्षेपः) धरोहर रखने में विवाद होना अर्थात् किसी ने किसी के पास कोई पदार्थ रखा हो और मांगे पर न देना [८.१७९-१९६], ३―(अस्वामिविक्रयः) किसी के पदार्थ को अस्वामी द्वारा बेचना [८.१९७-२०५], ४.―(सम्भूय च समुत्थानम्) मिलकर किये जाने वाले व्यापार में अन्याय करना [८.२०६-२११], ५.―(दत्तस्य अनपकर्म च) दिये हुए पदार्थ को न लौटाना [८.२१२-२१३], ६―(वेतनस्य+एव च+अदानम्) वेतन अर्थात् किसी की 'नौकरी' में वेतन कम देना या न देना [८.२१४-२१७], ७―(संविदः च व्यतिक्रमः) प्रतिज्ञा के विरुद्ध व्यवहार करना [८.२१८-२२१], ८―(क्रय-विक्रय+अनुशयः) क्रय-विक्रयानुशय अर्थात् लेन-देन में झगड़ा होना [८.२२२-२२८], ९―(स्वामि-पालयोः विवादः) पशु के स्वामी और पशुपालक का झगड़ा [८.२२९-२४४], १०―(सीमाविवादधर्मः च) सीमा का विवाद [८.२४५-२६५], ११-१२―(पारुष्ये दण्डवाचिके) किसी को कठोर दण्ड देना [८.२७८-३००], कठोरवाणी का बोलना [८.२६६-२७७], १३―(स्तेयम्) चोरी करना [८.३०१-३४३], १४―(साहसम् एव) किसी के साथ बलात् दुर्व्यवहार करना [८.३४४-३५१], १५―(स्त्रीसंग्रहणम् एव च) किसी स्त्री से छेड़छाड़ और व्यभिचार करना [८.३५२-३८७], १६―(स्त्री-पुम्+धर्मः) विवाहित स्त्री और पुरुष के धर्म में व्यतिक्रम होना [९.१-१०२], १७―(विभागः) दायभाग में विवाद होना [९.१०३-२१९], १८―(द्यूतम्+आह्वयः+एव च) द्यूत अर्थात् जड़पदार्थ और [आह्वय]=समाह्वय अर्थात् चेतन को दाव में धरके जुआ खेलना [९.२२०-२५०], (अष्टादश+एतानि) अठारह प्रकार के ये (व्यवहारस्थितौ पदानि) परस्पर के व्यवहार में होने वाले विवाद के स्थान हैं॥४-७॥


एषु स्थानेषु भूयिष्ठं विवादं चरतां नृणाम्। 

धर्मं शाश्वतमाश्रित्य कुर्यात् कार्यविनिर्णयम्॥८॥ (८)


न्यायाधीश राजा (एषु स्थानेषु) इन [८.४-७] अठारह व्यवहारों में (भूयिष्ठं विवाद चरतां नॄणाम्) बहुत से विवाद करने वाले पुरुषों के (कार्यविनिर्णयम्) विवादों का निर्णय (शाश्वतं धर्मम् आश्रित्य) सनातन न्यायविधि का आश्रय करके (कुर्यात्) किया करे॥८॥


राजा के अभाव में मुकद्दमों के निर्णय के लिए मुख्य न्यायाधीश विद्वान् की नियुक्ति―


यदा स्वयं न कुर्यात्तु नृपतिः कार्यदर्शनम्। 

तदा नियुञ्ज्याद् विद्वांसं ब्राह्मणं कार्यदर्शने॥९॥ (९)


(यदा) जब कभी [रुग्णता आदि विशेष कारण से अथवा कार्य की अधिकता के कारण] (नृपतिः) राजा (स्वयं कार्यदर्शनम्) खुद मुकद्दमों का निरीक्षण एवं निर्णय (न कुर्यात्) न करे (तदा) तब (ब्राह्मणम् विद्वांसम्) धार्मिक वेदवेत्ता विद्वान् [८.११] न्यायाधीश को (कार्यदर्शने) मुकद्दमों के निरीक्षण एवं निर्णय के लिए (नियुञ्ज्यात्) नियुक्त कर दे॥९॥


मुख्य न्यायाधीश तीन विद्वानों के साथ मिलकर न्याय करे―


सोऽस्य कार्याणि संपश्येत्सभ्यैरेव त्रिभिर्वृतः। 

सभामेव प्रविश्याग्र्यामासीनः स्थित एव वा॥१०॥ (१०) 


(सः) वह न्यायाधीश (त्रिभिः सभ्यैः वृतः) तीन अन्य सभा के विशेषज्ञ विद्वान् सदस्यों [८.११] के साथ (अग्र्याम् सभां प्रविश्य) सर्वोच्च न्यायसभा में प्रवेश करके (आसीनः वा स्थितः एव) बैठकर अथवा खड़ा होकर (अस्य) राजा के द्वारा विचारणीय (कार्याणि) विवादों को (संपश्येत्) न्यायानुसार भली प्रकार देखे॥१०॥


ब्रह्मसभा (न्यायसभा) की परिभाषा―


यस्मिन्देशे निषीदन्ति विप्रा वेदविदस्त्रयः।

राज्ञश्चाधिकृतो विद्वान्ब्रह्मणस्तां सभां विदुः॥११॥ (११)


(यस्मिन्) जिस (देशे) न्यायसभा में (वेदविदः) वेदों के ज्ञाता (त्रयः विप्राः) तीन विद्वान् [१२.११२] (निषीदन्ति) न्याय करने के लिए बैठते हैं (च) और (राज्ञः अधिकृतः विद्वान्) राजा द्वारा नियुक्त उस विषय का एक विशेषज्ञ (तां ब्रह्मणः सभां विदुः) उस चार न्यायाधीशों की सभा को 'ब्रह्मसभा' अर्थात् न्यायसभा कहते हैं॥११॥ 


मुकद्दमों के निर्णय में धर्म की रक्षा की प्रेरणा―


धर्मो विद्धस्त्वधर्मेण सभां यत्रोपतिष्ठते। 

शल्यं चास्य न कृन्तन्ति विद्धास्तत्र सभासदः॥१२॥ (१२)


(यत्र सभाम्) जिस न्यायसभा [८.११] में (धर्मः अधर्मेण विद्धः उपतिष्ठते) धर्म अर्थात् न्याय, अधर्म अर्थात् अन्याय से घायल होकर उपस्थित होता है (च) और (अस्य शल्यं न कृन्तन्ति) न्यायसभा के सदस्य यदि धर्म अर्थात् न्याय को घायल करने वाले उस अधर्म अर्थात् अन्याय रूपी तीर को नहीं निकालते हैं अर्थात् उस अधर्म=अन्याय को दूर नहीं करते हैं तो यह समझो (तत्र सभासदः विद्धाः) उस सभा के सभासद् ही अधर्म से घायल हैं, वे अधर्मी=अन्यायकारी हैं॥१२॥


सभा वा न प्रवेष्टव्यं वक्तव्यं वा समञ्जसम्। 

अब्रुवन् विब्रुवन् वापि नरो भवति किल्बिषी॥१३॥ (१३)


मनुष्य को अथवा न्याय-सभासद् को (वा) या तो (सभां न प्रवेष्टव्यम्) सभा में जाना ही नहीं चाहिए (वा) अथवा (समञ्जसं वक्तव्यम्) वहां यदि जाता है तो उसको न्यायोचित अर्थात् सत्य ही बोलना चाहिए, (अब्रुवन् अपि या विब्रुवन्) सभा में जाकर सामने असत्य-अन्याय के होते हुए मौन रहने पर भी और असत्य-अन्यायोचित बोलने पर भी (नरः किल्बिषी भवति) मनुष्य पापी-अपराधी होता है॥१३॥


अन्याय करने वाले सभासद् मृतकवत् हैं―


यत्र धर्मो ह्यधर्मेण सत्यं यत्रानृतेन च। 

हन्यते प्रेक्षमाणानां हतास्तत्र सभासदः॥१४॥ (१४)


(यत्र) जिस न्यायसभा में (प्रेक्षमाणानाम्) सभासदों की उपस्थिति में उनके देखते-सुनते (अधर्मेण धर्मः) अधर्म=अन्याय से धर्म=न्याय (च) और (यत्र) जहाँ (अनृतेन सत्यं हन्यते) झूठ से सत्य मारा जाता है, (तत्र) उस सभा में (सभासदः हताः) सभी सभासद् मानो मरे हुए हैं, अर्थात् उनमें न्याय करने की योग्यता और सक्षमता ही नहीं है॥१४॥ 


मारा हुआ धर्म मारने वाले को ही नष्ट कर देता है―


धर्म एव हतो हन्ति धर्मो रक्षति रक्षितः।

तस्माद्धर्मो न हन्तव्यो मा नो धर्मो हतोऽवधीत्॥१५॥ (१५)


(हतः धर्मः एव) मारा हुआ धर्म निश्चय से (हन्ति) मारने वाले का नाश करता है और (रक्षितः धर्मः) रक्षित किया हुआ धर्म (रक्षति) रक्षक की रक्षा करता है (तस्मात्) इसलिए (धर्मः न हन्तव्यः) धर्म का हनन कभी न करना चाहिये, यह विचार कर कि (हतः धर्मः) मारा हुआ धर्म (नः मा अवधीत्) कभी हमको न मार डाले॥१५॥


धर्महन्ता वृषल कहाता है―


वृषो हि भगवान्धर्मस्तस्य यः कुरुते ह्यलम्। 

वृषलं तं विदुर्देवास्तस्माद्धर्मं न लोपयेत्॥१६॥ (१६)


(धर्मः हि भगवान् वृषः) निश्चय से, धर्म ऐश्वर्यों का देने वाला और सुखों की वर्षा करने वाला है (यः तस्य हि+अलम्―कुरुते) जो उसका लोप करता है (तम्) उसी को (देवाः) विद्वान् लोग (वृषलं विदुः) वृषल अर्थात् धर्मनाशक जानते हैं (तस्मात्) इसलिए, किसी मनुष्य को (धर्मं न लोपयेत्) धर्म का लोप करना उचित नहीं॥१६॥


धर्म ही परजन्मों में साथ रहता है―


एक एव सुहद्धर्मो निधनेऽप्यनुयाति यः।

शरीरेण समं नाशं सर्वमन्यद्धि गच्छति॥१७॥ (१७)


इस संसार में (एकः धर्मः एव सुहृद्) एक धर्म ही सुहृद=सच्चा मित्र है (यः) जो (निधने+अपि+अनुयाति) मृत्यु के पश्चात् भी साथ रहता है, (अन्यत् सर्वं हि) जब कि अन्य सब पदार्थ वा संगी (शरीरेण समं नाशं गच्छति) शरीर के नाश के साथ ही नाश को प्राप्त होते हैं अर्थात् सब इसी संसार में छूट जाते हैं, परन्तु धर्म का साथ कभी नहीं छूटता, उसका पुण्य-फल अग्रिम जन्मों में भी मिलता है॥१७॥


अन्याय से सब सभासदों की निन्दा―


पादोऽधर्मस्य कर्त्तारं पादः साक्षिणमृच्छति। 

पादः सभासदः सर्वान् पादो राजानमृच्छति॥१८॥ (१८)


न्यायसभा में पक्षपात से किये गये अन्याय का=अधर्म का (पादः) चौथाई भाग (अधर्मस्य कर्त्तारम्) अधर्म=अन्याय के कर्त्ता को (पादः) चौथाई भाग (साक्षिणम्) साक्षी को (ऋच्छति) प्राप्त होता है, और (पादः) चौथाई अंश (सर्वान् सभासदः) शेष सब न्यायसभा को तथा (पादः) चौथाई अंश (राजानम्) राजा को (ऋच्छति) प्राप्त होता है अर्थात् उस अधर्म का फल और निन्दा सभी को प्राप्त होती है॥१८॥


राजा यथायोग्य व्यवहार से पापी नहीं कहलाता―


राजा भवत्यनेनास्तु मुच्यन्ते च सभासदः। 

एनो गच्छति कर्त्तारं निन्दार्हो यत्र निन्द्यते॥१९॥ (१९)


(यत्र) जिस सभा में (निन्दा-अर्हः निन्द्यते) निन्दा के पात्र अर्थात् अधर्म करने वाले की निन्दा होती है, अर्थात् अधर्मी दण्डित होता है वहां (राजा तु अनेनाः भवति) राजा पाप का, अपराध का भागी नहीं होता (च) और (सभासदः मुच्यन्ते) सभी सभासद् भी अधर्म के पाप से मुक्त हो जाते हैं, (कर्तारम् एनः गच्छति) केवल अधर्म का कर्ता ही अधर्म के पाप और दण्ड का भागी होता है॥१९॥


बाह्यैर्विभावयेल्लिङ्गैर्भावमन्तर्गतं नॄणाम्। 

स्वरवर्णेङ्गिताकारैश्चक्षुषा चेष्टितेन च॥२५॥ (२०)


न्यायकर्ता को (बाह्यैः) बाहर के (लिङ्गैः) चिह्नों से [वेशभूषा, चाल, शरीर की मुद्राएं, आदि के लक्षणों से] (स्वर-वर्ण-इङ्गित-आकारैः) स्वर―बोलते समय रुकना, घबराना, गद्गद् होना आदि से; वर्ण―चेहरे का फीका पड़ना, लज्जित होना आदि से; इङ्गित―मुकद्दमे के अभियुक्तों के परस्पर के संकेत, सामने न देख सकना, इधर-उधर देखना आदि से; आकार―मुख, नेत्र आदि का आकार बनाना, काँपना, पसीना आना आदि (चक्षुषा) आंखों में उत्पन्न होने वाले भावों से (च) और (चेष्टितेन) चेष्टाओं―हाथ मसलना, अंगुलियां चटकाना, अंगूठे से जमीन कुरेदना, सिर खुजलाना आदि से (नॄणाम्) मुकद्दमे में शामिल लोगों के (अन्तर्गतभावम्) मन में निहित सही भावों को (विभावयेत्) भांप लेना―जान लेना चाहिये और उनके आधार पर विचार कर निर्णय देना चाहिए॥२५॥


आकारैरिङ्गितैर्गत्या चेष्टया भाषितेन च। 

नेत्रवक्त्रविकारैश्च गृह्यतेऽन्तर्गतं मनः॥२६॥ (२१)


(आकारैः) शरीर के आकारों से (इङ्गितैः) संकेतों से (गत्या) चाल से (चेष्टया) चेष्टा=शारीरिक क्रिया से (च) और (भाषितेन) बोलने से (च) तथा (नेत्र-वक्त्र-विकारैः) नेत्र एवं मुख के विकारों=हावभावों से (अन्तर्गतं मनः) मनुष्यों के मन में निहित भाव (गृह्यते) भलीभांति ज्ञात हो जाता है॥२६॥


बालधन की रक्षा―


बालदायादिकं रिक्थं तावद् राजाऽनुपालयेत्। 

यावत् स स्यात् समावृत्तो यावच्चातीतशैशवः॥२७॥ (२२)


(राजा) राजा और न्यायाधीश (बाल-दाय+आदिकं रिक्थम्) बालक अर्थात् नाबालिग या अनाथ बालक की पैतृक सम्पत्ति और अन्य धन-दौलत की (तावत्) तब तक (अनुपालयेत्) रक्षा करे (यावत् सः) जब तक वह बालक (समावृत्तः स्यात्) समावर्तन संस्कार होकर अर्थात् गुरुकुल से स्नातक बनकर घर न आ जाये [३.१-२] (च) और (यावत्) जब तक वह (अतीतशैशवः) वयस्क न हो जाये॥२७॥


वन्ध्यादि के धन की रक्षा―


वन्ध्याऽपुत्रासु चैवं स्याद्रक्षणं निष्कुलासु च।

पतिव्रतासु च स्त्रीषु विधवास्वातुरासु च॥२८॥ (२३)


(वन्ध्या+अपुत्रासु) बांझ और पुत्रहीन (निष्कुलासु) कुलहीन अर्थात् जिसके कुल में कोई पुरुष न रहा हो (पतिव्रतासु) पविव्रता स्त्री अर्थात् पति के परदेशगमन आदि के कारण से जो स्त्री अकेली हो (विधवासु) विधवा (च) और (आतुरासु) रोगिणी (स्त्रीषु) स्त्रियों की सम्पत्ति की (रक्षणम्) रक्षा भी (एवम्) इसी प्रकार अर्थात् उनके समर्थ हो जाने तक [९.२९] अथवा जीवनभर (स्यात्) करनी चाहिए, इनकी रक्षा करना राजा का कर्त्तव्य है॥२८॥ 


जीवन्तीनां तु तासां ये तद्धरेयुः स्वबान्धवाः। 

ताञ्छिष्याच्चौरदण्डेन धार्मिकः पृथिवीपतिः॥२९॥ (२४)


(तासां जीवन्तीनाम्) उन [८.२८ में उक्त] जीती हुई स्त्रियों के (तत्) धन को (ये स्वबान्धवाः) जो उनके रिश्तेदार या भाई-बन्धु (हरेयुः) हर लें, कब्जा लें (तु) तो (धार्मिकः पृथिवीपतिः) धार्मिक राजा और न्यायाधीश (तान्) उन व्यक्तियों को (चौरदण्डेन) चोर के समान दण्ड से (शिष्यात्) शिक्षा दे अर्थात् चोर के समान दण्ड देकर [८.३०१-३४३] उनको अनुशासित करे॥२९॥


लावारिस धन का नियम―


प्रणष्टस्वामिकं रिक्थं राजा त्र्यब्दं निधापयेत्। 

अर्वाक् त्र्यब्दाद्धरेत्स्वामी परेण नृपतिर्हरेत्॥३०॥ (२५)


(प्रणष्टस्वामिकं रिक्थम्) स्वामी से रहित धन अर्थात् लावारिस धन कोई मिले तो उसको (राजा) राजा और न्यायाधीश (त्रि+अब्दम्) तीन वर्ष तक (निधापयेत्) स्वामी के आने की प्रतीक्षा में सुरक्षित रखें। (त्रि+अब्दात् अर्वाक् स्वामी हरेत्) तीन वर्ष से पहले यदि स्वामी आ जाये तो वह उसको दे दे [८.३१] (परेण नृपतिः हरेत्) उसके बाद उसे राजा राजकोष में ले ले॥३०॥


ममेदमिति यो ब्रूयात् सोऽनुयोज्यो यथाविधि। 

संवाद्य रूपसंख्यादीन् स्वामी तद् द्रव्यमर्हति॥३१॥ (२६)


(यः) जो कोई ('मम+इदम्' इति ब्रूयात्) उस लावारिस धन को 'यह मेरा है' ऐसा कहे तो (सः यथाविधि अनुयोज्यः) उससे उचित विधि से पूछताछ करे अर्थात् धन की संख्या, रंग, समय पहचान आदि पूछे (रूप-संख्या+आदीन्) धन का स्वरूप, मात्रा आदि बातों को (संवाद्य) सही-सही बताकर ही (स्वामी तत् द्रव्यम्+अर्हति) दावा करने वाला स्वामी उस धन को लेने का अधिकारी होता है अन्यथा नहीं, अर्थात् सही-सही पहचान बताने पर ही राजा उस धन को लौटाये॥३१॥ 


अवेदयानो नष्टस्य देशं कालं च तत्त्वतः। 

वर्णं रूपं प्रमाणं च तत्समं दण्डमर्हति॥३२॥ (२७)


जो व्यक्ति (नष्टस्य) नष्ट हुए या खोये हुए लावारिस धन का (देश कालं वर्णं रूपं च प्रमाणम्) स्थान, समय, रंग, स्वरूप और मात्रा को (तत्त्वतः अवेदयानः) सही-सही बतलाकर सिद्ध नहीं कर पाता अर्थात् जो झूठा अधिकार जताकर उस धन को हड़पने का यत्न करता है तो वह (तत् समं दण्डम्+अर्हति) उस धन के बराबर दण्ड पाने का पात्र है अर्थात् झूठा दावा करने पर उसे उतना ही अर्थ दण्ड देना चाहिए॥३२॥


आददीताथ षड्भागं प्रणष्टाधिगतान्नृपः। 

दशमं द्वादशं वाऽपि सतां धर्ममनुस्मरन्॥३३॥ (२८)


किसी के (प्रणष्ट+अधिगतात्) नष्ट या खोये लावारिस धन के प्राप्त होने पर उसमें से (नृपः) राजा (सतां धर्मम्+अनुस्मरन्) सज्जनों के धर्म का अनुसरण करता हुआ अर्थात् न्यायपूर्वक [धन के स्वामी की स्थिति अवस्था, देश, काल आदि को ध्यान में रखकर] (षड्भागं दशमम् अपि वा द्वादशम् आददीत) छठा, दशवां अथवा बारहवां भाग कर-रूप में ग्रहण करे॥३३॥


'राजा द्वारा सुरक्षित धन' की चोरी करने पर दण्ड―


प्रणष्टाधिगतं द्रव्यं तिष्ठेद्युक्तैरधिष्ठितम्। 

यांस्तत्र चौरान् गृह्णीयात्तान् राजेभेन घातयेत्॥३४॥ (२९)


(प्रणष्ट-अधिगतं द्रव्यम्) चोरी हुए धन के प्राप्त होने के बाद प्राप्त किये गये धन को राजा (युक्तैः) योग्य रक्षकों के (अधिष्ठितं रक्षेत्) पहरे=सुरक्षा में रखे (तत्र) अगर उस पहरे में रखे धन को भी (यान् चौरान् गृह्णीयात्) चोरी करते हुए जो चोर पकड़े जायें [चाहे वे पेशेवर चोर हों अथवा रक्षक राजपुरुष] (तान् राजा+इभेन घातयेत्) उन्हें राजा और न्यायाधीश हाथी से कुचलवाकर मरवा डाले॥३४॥


चोरी गये धन की प्राप्ति सम्बन्धी नियम―


ममायमिति यो ब्रूयान्निधिं सत्येन मानवः। 

तस्याददीत षड्भागं राजा द्वादशमेव वा॥३५॥ (३०)


(निधिम्) चोरी गये प्राप्त धन को (यः मानवः) जो मनुष्य ('अयं मम+इति' सत्येन ब्रूयात्) रंग, रूप, तोल, संख्या आदि की ठीक पहचान के द्वारा 'यह वास्तव में मेरा है' ऐसा सच-सच बतला दे तो (राजा) राजा (तस्य षड्भागं वा द्वादशम्+एव आदतीत) उस धन में से छठा या बारहवाँ-भाग कर के रूप में ले ले और शेष धन उसके स्वामी को लौटा दे॥३५॥ 


अनृतं तु वदन्दण्ड्यः स्ववित्तस्यांशमष्टमम्। 

तस्यैव वा निधानस्य संख्यायाल्पीयसीं कलाम्॥३६॥ (३१)


(अनृतं तु वदन्) अगर कोई झूठ बोले अर्थात् चोरी गये किसी धन पर झूठा दावा करे या झूठ ही अपना बतलावे तो ऐसे अपराधी को (स्ववित्तस्य+अष्टमम्+अंशं दण्ड्यः) अपना कहे जाने वाले उस धन का आठवां भाग जुर्माना करे (वा) अथवा (संख्याय) हिसाब लगाकर (तस्य+एव निधानस्य अल्पीयसीं कलां) उस दावे वाले धन का कुछ-न-कुछ भाग जुर्माना अवश्य करे॥३६॥ 


कर्त्तव्यों में संलग्न व्यक्ति सबके प्रिय―


स्वानि कर्माणि कुर्वाणा दूरे सन्तोऽपि मानवाः। 

प्रिया भवन्ति लोकस्य स्वे स्वे कर्मण्यवस्थिताः॥४२॥ (३२)


(स्वानि कर्माणि कुर्वाणाः) सौंपे गये अपने-अपने कर्त्तव्यों को करने वाले और (स्वे-स्वे कर्मणि+अवस्थिताः) अपने-अपने वर्ण और आश्रमों के कर्त्तव्यों-कर्मों में स्थित रहने वाले (मानवाः) मनुष्य (दूरे सन्तः+अपि) दूर रहते हुए भी (लोकस्य प्रियाः भवन्ति) समाज में प्रिय अर्थात् लोकप्रिय होते हैं॥४२॥


राजा या राजपुरुष विवादों को न बढ़ायें―


नोत्पादयेत्स्वयं कार्यं राजा नाप्यस्य पूरुषः।

न च प्रापितमन्येन ग्रसेदर्थं कथंचन॥४३॥ (३३)


(राजा अपि+अस्य पुरुषः) राजा अथवा कोई भी राजपुरुष (स्वयं कार्यं न+उपपादयेत्) स्वयं किसी विवाद को उत्पन्न न करें और न बढ़ायें (च) और (अन्येन प्रापितम् अर्थम्) अन्य किसी भी व्यक्ति द्वारा बताये या प्राप्त कराये गये धन को (कथंचन) किसी भी स्थिति में (न ग्रसेत्) स्वयं हड़पने की इच्छा न करें [जबतक 'यह धन किसका है' यह सिद्ध न हो जाये और वह लावारिस (७.३०) सिद्ध न हो जाये, तब राजा उसे अपने राजकोष में न ले और कोई राजपुरुष उसको बीच में ही हड़पने न पाये]॥४३॥


अनुमान प्रमाण से निर्णय में सहायता―


यथा नयत्यसृक्पातैर्मृगस्य मृगयुः पदम्।

नयेत्तथाऽनुमानेन धर्मस्य नृपतिः पदम्॥४४॥ (३४)


(यथा) जैसे (मृगयुः) शिकारी (असृक्पातैः) खून के धब्बों से (मृगस्य पदं नयति) हिरण के स्थान को खोज लेता है (तथा) वैसे ही (नृपतिः) राजा या न्यायकर्त्ता (अनुमानेन) अनुमान प्रमाण से (धर्मस्य पदम्) धर्म के तत्त्व अर्थात् वास्तविक न्याय का (नयेत्) निश्चय करे॥४४॥


सत्यमर्थं च सम्पश्येदात्मानमथ साक्षिणः।

देशं रूपं च कालं च व्यवहारविधौ स्थितः॥४५॥ (३५)


(व्यवहारविधौ स्थितः) मुकद्दमों का फैसला करने के लिए उद्यत हुआ राजा (सत्यम् च अर्थम्) मुकद्दमे की सत्यता, न्याय-उद्देश्य (आत्मानम्) अपनी आत्मा के अनुकूल सत्य निर्णय को (अथ साक्षिणः) और साक्षियों को (च) तथा (देशं रूपं च कालम्) देश, विवाद की परिस्थिति एवं समय को (संपश्येत्) अच्छी प्रकार देखे=विचार करे॥४५॥


१. ऋण लेने-देने के विवाद का न्याय 


(८.४७-१७८ तक)


ऋण का न्याय―


अधमार्थसिद्ध्यर्थमुत्तमर्णेन चोदितः। 

दापयेद्धनिकस्यार्थमधमर्णाद् विभावितम्॥४७॥ (३६)


(अधमर्ण+अर्थसिद्ध्यर्थम्) अधमर्ण=ऋणधारक से अपना धन वसूल करने के लिए (उत्तमर्णेन चोदितः) उत्तमर्ण=ऋण देने वाले अर्थात् धनी की ओर से प्रार्थना करने पर (धनिकस्य विभावितम् अर्थम्) धनी का वह लेख आदि से सिद्ध दावा किया हुआ धन (अधमर्णात् दापयेत्) ऋणधारक से दिलवाये॥४७॥ 


अर्थेऽपव्ययमानं तु करणेन विभावितम्। 

दापयेद्धनिकस्यार्थं दण्डलेशं च शक्तितः॥५१॥ (३७)


[४७वें में उक्त धन का] (करणेन विभावितम्) यदि लेख, साक्षी आदि साधनों से उस ऋण का लिया जाना निश्चित हो जाये (तु) और यदि (अर्थे+अपव्ययमानम्) ऋणधारक ऋण में लिये गये धन से मुकर जाये तो [राजा] (धनिकस्य+अर्थं दापयेत्) धनी का वह धन भी वापिस दिलवाये (च) और (शक्तितः दण्डलेशम्) उसकी शक्ति, धन आदि के अनुसार ऋणधारक पर कुछ न कुछ यथायोग्य दण्ड भी अवश्य करे॥५१॥


ऋणदाता से ऋण के लेख आदि प्रमाणों को मांगना―


अपह्नवेऽधमर्णस्य देहीत्युक्तस्य संसदि। 

अभियोक्तादिशेद्देश्यं करणं वाऽन्यदुद्दिशेत्॥५२॥ (३८)


(संसदि) न्यायालय में ('देहि+इति'+उक्तस्य) न्यायाधीश के द्वारा 'धनी का धन लौटा दो' ऐसा कहने पर (अधमर्णस्य अपह्नवे) यदि ऋणधारक ऋण लेने से निषेध की बात कहे तो (अभियोक्ता) मुकद्दमा करने वाला धनी ऋण देने की पुष्टि के लिए (देश्यम्) प्रत्यक्षदर्शी साक्षी=गवाह को (दिशेत्) प्रस्तुत करे (वा) और (अन्यत् करणम् उद्दिशेत्) अन्य लेख आदि प्रमाण भी प्रस्तुत करे॥५२॥ 


मुकद्दमों में अप्रामाणिक व्यक्ति―


आदेश्यं यश्च दिशति निर्दिश्यापह्नुते च यः। 

यश्चाधरोत्तरानर्थान् विगीतान्नावबुध्यते॥५३॥ 

अपदिश्यापदेश्यं च पुनर्यस्त्वपधावति। 

सम्यक् प्रणिहितं चार्थं पृष्टः सन्नाभिनन्दति॥५४॥ 

असम्भाष्ये साक्षिभिश्च देशे सम्भाषते मिथः। 

निरुच्यमानं प्रश्नं च नेच्छेद्यश्चापि निष्पतेत्॥५५॥ 

ब्रूहीत्युक्तश्च न ब्रूयादुक्तं च न विभावयेत्। 

न च पूर्वापरं विद्यात्तस्मादर्थात्स हीयते॥५६॥ (३९-४२)


(यः) जो अभियोग कर्ता १―(आदेश्यं दिशति) झूठे साक्षी और मिथ्या प्रमाणपत्र प्रस्तुत करे, (च) और २―(यः) जो (निर्दिश्य) किसी दावे या बात को प्रस्तुत करके या कहकर (अपह्नुते) उससे मुकरता है या टालमटोल करता है, ३―(यः) जो (विगीतान् अधर-उत्तरान्+अर्थान् न+अवबुध्यते) कही हुई अगली-पिछली बातों को ध्यान में नहीं रखता अर्थात् जिसकी अगली-पिछली बातों में विरोध हो, ४―(यः) जो (अपदेश्यम्+अपदिश्य पुनः अपधावति) अपने कथनों या तर्कों को प्रस्तुत करके फिर उनको बदल दे, उनसे फिर जाये, ५―जो (सम्यक्-प्रणिहितम् अर्थं पृष्टः सन्) पहले अच्छी प्रकार प्रतिज्ञापूर्वक कही हुई बात को न्यायाधीश द्वारा पुनः पूछने पर (न+अभिनन्दति) नहीं मानता, उसे पुष्ट नहीं करता, ६―(असम्भाष्ये देशे साक्षिभिः मिथः संभाषते) जो एकान्त स्थान में ले जाकर साक्षियों के साथ घुलमिलकर चुप-चुप बात करे, ७―(निरुच्यमानं प्रश्नं न+इच्छेत्) जांच के लिए पूछे गये प्रश्नों को जो पसन्द न करे, ८―(च यः+अपि निष्पतेत्) और जो इधर-इधर टलता फिरे (च) तथा ९―('ब्रूहि' इति+उक्तः न ब्रूयात्) 'कहो' ऐसा कहने पर कुछ उत्तर न दे सके, १०―(च उक्तं न विभावयेत्) और जो कही हुई बात को सिद्ध न कर पाये, ११―(न पूर्वापरं विद्यात्) पूर्वापर बात को न समझे अर्थात् विचलित हो जाये, (सः तस्मात् अर्थात् हीयते) वह उस प्रार्थना किये गये धन को हार जाता है अर्थात् न्यायाधीश ऐसे व्यक्ति को हारा हुआ मानकर उसे धन न दिलावे॥५३-५६॥


साक्षिणः सन्ति मेत्युक्त्वा दिशेत्युक्तो दिशेन्न यः। 

धर्मस्थः कारणैरेतैर्हीनं तमपि निर्दिशेत्॥५७॥ (४३)


('मे साक्षिणः सन्ति' इति+उक्त्वा) पहले 'मेरे साक्षी हैं' ऐसा कहकर और फिर साक्ष्य के समय न्यायाधीश के द्वारा ('दिश' इति+उक्तः) 'साक्षी लाओ' ऐसा कहने पर (यः न दिशेत्) जो साक्षियों को प्रस्तुत न कर सके तो (धर्मस्थः) न्यायधर्म में स्थित न्यायाधीश (एतैः कारणैः) इन कारणों के आधार पर भी (तम्+अपि हीनं निर्दिशेत्) उस मुकद्दमा प्रस्तुत करने वाले को पराजित घोषित कर दे॥५७॥ 


अभियोक्ता न चेद् ब्रूयाद्वध्यो दण्ड्यश्च धर्मतः। 

न चेत्त्रिपक्षात्प्रब्रूयाद्धर्मं प्रति पराजितः॥५८॥ (४४)


(अभियोक्ता न चेत् ब्रूयात्) जो अभियोक्ता=मुकद्दमा करने वाला पहले मुकद्दमा प्रस्तुत करके फिर अपने मुकद्दमे के लिए कुछ न कहे तो वह (धर्मतः) न्याय धर्मानुसार (वध्यः) शारीरिक दण्ड के योग्य (च) और (दण्ड्यः) अर्थदण्ड [५९] करने योग्य है, इसी प्रकार यदि (त्रिपक्षात् न चेत् प्रब्रूयात्) तीन पखवाड़े अर्थात् डेढ़ मास तक अभियुक्त अपनी सफाई में कुछ न कह सके तो (धर्मं प्रति पराजितः) धर्मानुसार=कानून के अनुसार वह हार जाता है॥५८॥


यो यावन्निह्नुवीतार्थं मिथ्या यावति वा वदेत्। 

तौ नृपेण ह्यधर्मज्ञौ दाप्यौ तद् द्विगुणं दमम्॥५९॥ 


(यः) जो ऋणधारक (यावत् अर्थं निह्नुवीत) जितने धन को छिपावे अर्थात् अधिक धन लेकर जितना कम बतावे (वा) अथवा जो ऋणदाता (यावति मिथ्या वदेत्) जितना झूठ बोले अर्थात् कम धन देकर जितना ज्यादा बतावे (नृपेण) राजा या न्यायाधीश (तौ अधर्मज्ञौ) उन दोनों अधर्मियों अर्थात् झूठ बोलने वालों को (तत् द्विगुणं दमम् दाप्यौ) जितना झूठा दावा किया है, उससे दुगुने धन के अर्थ दण्ड से दण्डित करे॥५९॥


पृष्टोऽपव्ययमानस्तु कृतावस्थो धनैषिणा।

त्र्यवरैः साक्षिभिर्भाव्यो नृपब्राह्मणसन्निधौ॥६०॥ (४५) 


(धनैषिणा कृतावस्थः) धन वापिस चाहने वाले द्वारा अर्थात् ऋणदाता द्वारा मुकद्दमा दायर करने पर (पृष्टः) और न्यायाधीश द्वारा ऋणधारक से पूछने पर (अपव्ययमानः तु) यदि वह मना कर दे अर्थात् यह कहे कि 'मैंने कोई कर्ज नहीं लिया या मैं देनदार नहीं हूँ' तो उस स्थिति में अर्थी को (नृपब्राह्मणसन्निधौ) राजा अथवा नियुक्त विद्वान् न्यायाधीश के सामने (त्र्यवरैः साक्षिभिः भाव्यः) कम से कम तीन साक्षियों के द्वारा अपना पक्ष प्रमाणित करना चाहिये॥६०॥ 


साक्षी बनाने के नियम―


यादृशा धनिभिः कार्या व्यवहारेषु साक्षिणः।

तादृशान् सम्प्रवक्ष्यामि यथावाच्यमृतं च तैः॥६१॥ (४६)


(धनिभिः) साहूकारों अर्थात् धन देने वालों को (व्यवहारेषु) मुकद्दमों में (यादृशाः साक्षिणः कार्याः) जैसे साक्षी बनाने चाहियें (तादृशान्) उनके विषय को (च) और (तैः) उन साक्षियों को (यथा ऋतं वाच्यम्) जैसी सत्य बात कहनी चाहिए, उसे (सम्प्रवक्ष्यामि) अब आगे कहूँगा―॥६१ ॥ 


आप्ताः सर्वेषु वर्णेषु कार्याः कार्येषु साक्षिणः।

सर्वधर्मविदोऽलुब्धा विपरीतांस्तु वर्जयेत्॥६३॥ (४७)


(सर्वेषु वर्णेषु) चारों वर्णों में (कार्येषु) विवादों=मुकद्दमों में (आप्ताः) घटना के प्रत्यक्ष द्रष्टा अथवा यथावत् ज्ञाता व्यक्ति (सर्वधर्मविदः) सब साक्ष्य-नियमों के ज्ञाता (अलुब्धाः) किसी भी प्रकार के लोभ-लालच से रहित (साक्षिणः कार्याः) साक्षी बनाने चाहियें, (विपरीतान् तु वर्जयेत्) इनसे विपरीत लक्षणों वाले व्यक्तियों को साक्षी न बनावे॥६३॥


साक्षी कौन नहीं हो सकते―


नार्थसम्बन्धिनो नाप्ता न सहाया न वैरिणः। 

न दृष्टदोषाः कर्तव्या न व्याध्यार्ता न दूषिताः॥६४॥ (४८)


(अर्थसम्बन्धिनः) धनी से ऋण आदि के लेनेदेने का सम्बन्ध रखने वाले (न कर्त्तव्याः) साक्षी नहीं हो सकते (न आप्ताः) न घनिष्ठ=मित्रादि (न सहायाः) न सहायक―नौकर आदि, (न वैरिणः) न अभियोगी के शत्रु आदि, (न दृष्टदोषाः) जिसकी साक्षी पहले झूठी सिद्ध हो चुकी है वे भी नहीं, (न व्याधि+आर्त्ताः) न रोगग्रस्त, पीड़ित और (न दूषिताः) न अपराधी अर्थात् सजा पाये और दूषित आचरण वाले अधर्मी व्यक्ति साक्षी हो सकते हैं॥६४॥


विशेष प्रसंगों में साक्षीविशेष―


स्त्रीणां साक्ष्यं स्त्रियः कुर्युर्द्विजानां सदृशा द्विजाः।

शूद्राश्च सन्तः शूद्राणामन्त्यानामन्त्ययोनयः॥६८॥ (४९)


(स्त्रिणां साक्ष्यं स्त्रियः कुर्युः) स्त्रियों से सम्बन्धित विशेष विवादों में स्त्रियों को साक्षी बनावें (द्विजानां सदृशाः द्विजाः) द्विजातियों अर्थात् ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्यों से सम्बद्ध विशेष विवादों में समान वर्ण के व्यक्तियों को साक्षी बनावें, (शूद्राणां सन्तः शूद्राः) शूद्रों से सम्बद्ध विशेष विवादों में साधु स्वभाव के शूद्रों को (च) और (अन्त्यानाम्+अन्त्ययोनयः) चारों वर्णों से भिन्न शेष समुदायों में उन्हीं के समुदायों से सम्बद्ध व्यक्तियों को साक्षी बनाना चाहिये, क्योंकि समुदायविशेष से सम्बद्ध विशेष विवादों के ज्ञाता उस समुदाय के व्यक्ति ही होते हैं। सामान्य विवादों में कोई भी प्रत्यक्षद्रष्टा या यथावत् ज्ञाता साक्षी हो सकता है [८.६९-७४]॥६८॥


ऐकान्तिक अपराधों में सभी साक्षी मान्य हैं―


अनुभावी तु यः कश्चित् कुर्यात्साक्ष्यं विवादिनाम्। 

अन्तर्वेश्मन्यरण्ये वा शरीरस्यापि चात्यये॥६९॥ (५०)


(अन्तः+वेश्मनि) घर के अन्दर एकान्त में हुई घटनाओं में (वा) अथवा (अरण्ये) जंगल के एकान्त में हुई बाहरी घटनाओं में (अपि च) और (शरीरस्य अत्यये) रक्तपात आदि से शरीर के घायल हो जाने की अवस्था में और हत्या में (यः कश्चित् अनुभावी) जो कोई अनुभव करने वाला या देखने वाला हो वही (विवादिनाम्) विवाद उपस्थित करने वालों का (साक्ष्यं कुर्यात्) साक्ष्य दे सकता है, चाहे वह कोई भी हो॥६९॥

 

बलात्कार आदि कार्यों में सभी साक्षी हो सकते हैं―


साहसेषु च सर्वेषु स्तेयसङ्ग्रहणेषु च। 

वाग्दण्डयोश्च पारुष्ये न परीक्षेत साक्षिणः॥७२॥ (५९)


(सर्वेषु साहसेषु) सभी प्रकार के साहस-आधारित अपराधों में, जैसे डकैती, अपहरण, बलात्कार, लूट आदि [८.३३२, ३४४-३५१], (च) और (स्तेयसंग्रहणेषु) चोरी [८.३०१-३४३] तथा व्यभिचार में [८.३५२-३८७], (वाग्-दण्डयोः च) दुष्ट वाणी बोलने [८.२६६-२७५] और दण्ड के प्रहार से घायल करने के अपराध में [८.२७८-३००], (साक्षिणः न परीक्षेत) साक्षियों की अधिक आशा और परीक्षा न करे अर्थात् इनमें वादी के कथनों और जैसे-जितने साक्षी मिलें उनके आधार पर ही निर्णय करे, क्योंकि ये काम एकान्त और अकेले में अधिकतः होते हैं॥७२॥


साक्ष्यों में निश्चय―


बहुत्वं परिगृह्णीयात् साक्षिद्वैधे नराधिपः। 

समेषु तु गुणोत्कृष्टान् गुणिद्वैधे द्विजोत्तमान्॥७३॥ (५२)


(नराधिपः) राजा या न्यायाधीश (साक्षिद्वैधे) दो प्रकार के अर्थात् परस्परविरुद्ध साक्ष्य उपस्थित होने पर (बहुत्वं परिगृह्णीयात्) अधिक साक्षियों को निर्णय का आधार बनाये, (समेषु तु गुणोत्कृष्टान्) समान स्तर के परस्परविरोधी साक्षी उपस्थित होने पर अधिक गुणवालों को महत्त्व दे, (गुणिद्वैधे द्विजोत्तमान्) गुणी व्यक्तियों में भी परस्परविरोध होने पर द्विजों में उत्तम आचरण वाले व्यक्तियों को निर्णय में अधिक प्रामाणिक माने॥७३॥

 

समक्षदर्शनात् साक्ष्यं श्रवणाच्चैव सिध्यति। 

तत्र सत्यं ब्रुवन् साक्षी धर्मार्थाभ्यां न हीयते॥७४॥ (५३)


(साक्ष्यं सिद्ध्यति) दो प्रकार से साक्षी होना प्रामाणिक होता है (समक्षदर्शनात्) एक, साक्षात् देखने से (च) और (श्रवणात्) दूसरा, प्रत्यक्ष सुनने से, (तत्र साक्षी सत्यं ब्रुवन्) न्याय सभा में पूछने पर जो साक्षी सत्य बोले (धर्म+अर्थाभ्यां न हीयते) वे धर्महीन और अर्थ दण्ड के योग्य नहीं होते और जो साक्षी मिथ्या बोले वे यथायोग्य दण्डनीय हों॥७४॥ 


साक्षी दृष्टश्रुतादन्यद्विब्रुवन्नार्यसंसदि। 

अवाङ्नरकमभ्येति प्रेत्य स्वर्गाच्च हीयते॥७५॥ (५४)


(आर्यसंसदि) श्रेष्ठ न्यायाधीशों की सभा में (साक्षी) साक्षी (दृष्ट-श्रुतात् अन्यत् विब्रुवन्) साक्षात् देखे और प्रत्यक्ष सुने के विरुद्ध बोलने पर (अवाङ्नरकम्+अभ्येति) वाणी सम्बन्धी कष्ट के फल को प्राप्त करता है (च) और (प्रेत्य) अगले जन्म में (स्वर्गात् हीयते) सुख से हीन हो जाता है अर्थात् उसे दुःख रूपी फल मिलता है॥७५॥


यत्रानिबद्धोऽपीक्षेत शृणुयाद्वाऽपि किञ्चन।

पृष्टस्तत्रापि तद् ब्रूयाद्यथादृष्टं यथाश्रुतम्॥७६॥ (५५)


प्रत्यक्षदर्शी मनुष्य (अनिबद्धः+अपि) वादी वा प्रतिवादी के द्वारा साक्षी के रूप में न्यायालय में नामांकित न होने या न बुलाये जाने पर भी (यत्र किञ्चन ईक्षेत अपि वा शृणुयात्) जहाँ कुछ भी देखा या सुना हो (पृष्टः) न्यायाधीश के द्वारा स्वयं पूछने पर (तत्र+अपि) वहाँ न्यायालय में भी (यथादृष्टं यथाश्रुतं तद् ब्रूयात्) जैसा देखा या सुना है, वैसा ही यथावत् कह दे अर्थात् न्याय के लिए साक्षी को न्यायाधीश स्वयं भी बुला ले या द्रष्टा स्वयं साक्षीरूप में पहुंच जाये॥७६॥


स्वाभाविक साक्ष्य ही ग्राह्य है―


स्वभावेनैव यद् ब्रूयुस्तद् ग्राह्यं व्यावहारिकम्। 

अतो यदन्यद्विब्रूयुर्धर्मार्थं तदपार्थकम्॥७८॥ (५६)


साक्षी जन (स्वभावेन+एव यद् ब्रूयुः) स्वाभाविक रूप से अर्थात् बिना किसी हाव-भाव-चेष्टा की विकृति के जो कहें (तद् व्यावहारिकं ग्राह्यम्) उसको मुकद्दमे के निर्णय में ग्राह्य समझें, (अतः अन्यद् य विब्रूयुः) उस स्वाभाविक से भिन्न जो कुछ विरुद्ध बोलें (तद् धर्मार्थम् अपार्थकम्) उसको धर्मनिर्णय अर्थात् न्याय हेतु व्यर्थ समझें॥७८॥ 


साक्ष्य लेने की विधि―


सभान्तः साक्षिणः प्राप्तानर्थिप्रत्यर्थिसन्निधौ। 

प्राड्विवाकोऽनुयुञ्जीत विधिनाऽनेन सान्त्वयन्॥७९॥ (५७)


(प्राड्विवाकः) न्यायाधीश और प्राड्विवाक् अर्थात् वकील (अर्थि-प्रत्यर्थिसन्निधौ) अर्थी=वादी और प्रत्यर्थी=प्रतिवादी के सामने (सभान्तः प्राप्तान् साक्षिणः) न्याय सभा के अन्दर आये हुए साक्षियों को (सान्त्वयन्) शान्तिपूर्वक (तेन विधिना) इस प्रकार से (अनुयुञ्जीत) पूछें―॥७९॥ 


यद् द्वयोरनयोर्वेत्थ कार्येऽस्मिँश्चेष्टितं मिथः।

तद् ब्रूत सर्वं सत्येन युष्माकं ह्यत्र साक्षिता॥८०॥ (५८)


हे साक्षि लोगो! (अस्मिन् कार्ये) इस मुकद्दमे के सम्बन्ध में (अनयोः द्वयोः मिथः चेष्टितम्) इन दोनों ने जो परस्पर चेष्टा की है इस विषय में (यत् वेत्थ) जो तुम जानते हो (तत् सर्वम्) सबको (सत्येन ब्रूत) सत्य-सत्य बोलो (हि) क्योंकि (युष्माकम्) तुम्हारी (अत्र) इस विवाद में (साक्षिता) साक्षी है॥८०॥ 


सत्यं साक्ष्ये ब्रुवन् साक्षी लोकानाप्नोति पुष्कलान्। 

इह चानुत्तमां कीर्तिं वागेषा ब्रह्मपूजिता॥८१॥ (५९)


(साक्षी) साक्षी (साक्ष्ये) साक्ष्य देने में (सत्यं ब्रुवन्) सत्य बोलने पर (पुष्कलान् लोकान्+आप्नोति) परजन्म में उत्तम समृद्ध जन्म को प्राप्त करता है, (च) और (इह) इस जन्म में (उत्तमां कीर्तिम्) श्रेष्ठ यश को प्राप्त करता है, क्योंकि (एषा वाक्) यह सत्य वाणी (ब्रह्मपूजिता) वेदों द्वारा प्रशंसित है॥८१॥


सत्येन पूयते साक्षी धर्मः सत्येन वर्द्धते। 

तस्मात् सत्यं हि वक्तव्यं सर्ववर्णेषु साक्षिभिः॥८३॥ (६०)


(सत्येन साक्षी पूयते) सत्य बोलने से साक्षी पवित्र होता है, (सत्येन धर्मः वर्धते) सत्य बोलने से साक्षी का धर्म बढ़ता है, (तस्मात्) इस से (सर्ववर्णेषु) सब वर्णों में (साक्षिभिः) साक्षियों को (सत्यं हि वक्तव्यम्) सत्य ही बोलना चाहिये है॥८३॥ 


साक्षी आत्मा के विरुद्ध साक्ष्य न दे―


आत्मैव ह्यात्मनः साक्षी गतिरात्मा तथात्मनः। 

माऽवमंस्थाः स्वमात्मानं नॄणां साक्षिणमुत्तमम्॥८४॥ (६१)


(आत्मनः साक्षी आत्मा+एव) अपने आत्मा के शुभ-अशुभ कर्मों का सर्वोत्तम साक्षी=ज्ञान कराने वाला अपना आत्मा ही है [८.९१] (तथा) तथा (आत्मनः गतिः आत्मा) उस आत्मा की गति=आश्रयस्थान परमात्मा है अर्थात् उसमें व्याप्त परमात्मा भी उसके सत्य-असत्य को जानता है तथा उसे अन्तःप्रेरणा से उनका ज्ञान कराता रहता है, इसलिए (नॄणाम् उत्तमं साक्षिणम्) मनुष्यों के सर्वोत्तम साक्षी=सत्य-असत्य विचार और शुभ-अशुभ आचरण का ज्ञान कराने वाले (स्वम्+आत्मानम्) अपने आत्मा का (मा+अवमंस्थाः) अपमान मत कर। आत्मा के विरुद्ध मिथ्याभाषण करना उसका अपमान और हनन है और आत्मा के अनुकूल सत्य बोलना आत्मा की प्रतिष्ठा और उत्थान है॥८४॥  


एकोऽहमस्मीत्यात्मानं यत्त्वं कल्याण मन्यसे।

नित्यं स्थितस्ते हृद्येषः पुण्यपापेक्षिता मुनिः॥९१॥ (६२)


(कल्याण) हे कल्याण की कामना करने वाले मनुष्य! (अहम् एकः+अस्मि+इति, यत् त्वम् आत्मानं मन्यसे) 'मैं अकेला हूं, दूसरा कोई मुझे देखने वाला नहीं है', ऐसा जो तू अपने आत्मा को, अपने आपको समझता है, यही ठीक नहीं, (ते हृदि एषः) तेरे हृदय=आत्मा में एक अन्य परमात्मा (पुण्य-पापईक्षिता मुनिः) तुम्हारे पुण्य-पाप का निरीक्षण करके उसका फल देने वाला सर्वज्ञ मुनि (नित्यं स्थितः) सदा अन्तर्यामी रूप से विद्यमान रहता है, अत: आत्मा और परमात्मा दोनों को अन्तःकरण में विद्यमान साक्षी मान कर सत्य बोला कर॥९१॥ 


यस्य विद्वान् हि वदतः क्षेत्रज्ञो नाभिशङ्कते। 

तस्मान्न देवाः श्रेयांसं लोकेऽन्यं पुरुषं विदुः॥९६॥ (६३)


(यस्य वदतः) साक्ष्य आदि में बोलते हुए जिस व्यक्ति का (विद्वान् क्षेत्रज्ञः) सत्य-असत्य का स्वाभाविक रूप से ज्ञाता आत्मा (न हि अभिशंकते) कुछ भी शंका नहीं करता अर्थात् निश्चयपूर्वक सत्य ही बोलता है (तस्मात् श्रेयांसं अन्यं पुरुषम्) उससे बढ़कर श्रेष्ठ व्यक्ति किसी अन्य को (देवाः लोके न विदुः) विद्वान् जन संसार में नहीं मानते॥९६॥


झूठी गवाही वाले मुकद्दमे पर पुनर्विचार―


यस्मिन्यस्मिन् विवादे तु कौटसाक्ष्यं कृतं भवेत्। 

तत्तत् कार्यं निवर्तेत कृतं चाप्यकृतं भवेत्॥११७॥ (६४)


(यस्मिन् यस्मिन् विवादे तु) जिस-जिस मुकद्दमे में (कौटसाक्ष्यं कृतं भवेत्) यह पता लगे कि झूठी या छलपूर्ण साक्ष्य हुआ है (तत्-तत् कार्यं निवर्तेत) राजा या न्यायाधीश उस-उस निर्णय को निरस्त करके पुनः विचार करे, क्योंकि वह (कृतं च+अपि+अकृतं भवेत्) किया हुआ निर्णय भी न किये के समान है॥११७॥


असत्य साक्ष्य के आधार―


लोभान्मोहाद्भयान्मैत्रात् कामात् क्रोधात्तथैव च।

अज्ञानाद् बालभावाच्च साक्ष्यं वितथमुच्यते॥११८॥ (६५)


(लोभात् मोहात् भयात् मैत्रात् कामात् क्रोधात् अज्ञानात् च बालभावात् साक्ष्यम्) जो लोभ, मोह, भय, मित्रता, काम, क्रोध, अज्ञान और बालकपन से दिया गया साक्ष्य है वह (वितथम्+उच्यते) मिथ्या साक्ष्य होता है॥११८॥


असत्य साक्ष्य में दोषानुसार दण्डव्यवस्था― 


एषामन्यतमे स्थाने यः साक्ष्यमनृतं वदेत्। 


तस्य दण्डविशेषाँस्तु प्रवक्ष्याम्यनुपूर्वशः॥११९॥ (६६)


(एषाम्) इन [८.११८] लोभ आदि कारणों में से (अन्यतमे स्थाने) किसी कारण के होने पर (यः अनृतं साक्ष्यं वदेत्) जो कोई झूठी साक्षिता देता है (तस्य) उसके लिए (दण्डविशेषात्) दण्डविशेषों को (अनुपूर्वशः) क्रमशः (प्रवक्ष्यामि) आगे कहूँगा [८.१२०-१२२]॥११९॥


लोभात् सहस्रं दण्ड्यस्तु मोहात् पूर्वं तु साहसम्। 

भयाद् द्वौ मध्यमौ दण्ड्यौ मैत्रात् पूर्वं चतुर्गुणम्॥१२०॥ (६७)


(लोभात् सहस्रं दण्ड्यः) जो लोभ से झूठी गवाही दे तो 'एक हजार पण' का अर्थ दण्ड देना चाहिए (मोहात् पूर्वं साहसम्) मोह से झूठी गवाही देने वाले को 'प्रथम साहस', (भयात् द्वौ मध्यमौ दण्डौ) भय से झूठी गवाही देने पर दो 'मध्यम साहस' का दण्ड दे (मैत्रात्) मित्रता से झूठी गवाही देने पर (पूर्वं चतुर्गुणम्) प्रथम साहस' का चार गुना दण्ड देना चाहिए॥१२०॥ 


कामाद्दशगुणं पूर्वं क्रोधात्तु त्रिगुणं परम्। 

अज्ञानाद् द्वे शते पूर्णे बालिश्याच्छतमेव तु॥१२१॥ (६८)


(कामात् दशगुणं पूर्वम्) काम से झूठी गवाही देने वाले पर दशगुना 'प्रथम साहस' (क्रोधात् तु त्रिगुणं परम्) क्रोध से देने पर तिगुना 'उत्तम साहस' (अज्ञानात् द्वेशते पूर्णे) अज्ञान से देने पर दो सौ 'पण' और (बालिश्यात् शतम्+एव तु) असावधानी से साक्ष्य देने पर सौ 'पण' दण्ड होना चाहिए॥१२१॥


एतानाहुः कौटसाक्ष्ये प्रोक्तान् दण्डान् मनीषिभिः। 

धर्मस्याव्यभिचारार्थमधर्मनियमाय च॥१२२॥ (६९)


(धर्मस्य+अव्यभिचारार्थम्) धर्म=न्याय का लोप न होने देने के लिए (च) और (अधर्म-नियमाय) अधर्म को रोकने के लिए (कौटसाक्ष्ये) झूठी या कपटपूर्ण गवाही देने पर (मनीषिभिः प्रोक्तान्) विद्वानों द्वारा विहित (एतान् दण्डान्+आहुः) इन [९.११९-१२१] दण्डों को कहा है॥१२२॥ 


दण्ड देते समय विचारणीय बातें―


अनुबन्धं परिज्ञाय देशकालौ च तत्त्वतः। 

साराऽपराधौ चालोक्य दण्डंदण्ड्येषुपातयेत्॥१२६॥ (७०)


न्यायकर्त्ता राजा और न्यायाधीश (अनुबन्धम्) अपराधी का प्रयोजन, षड्यन्त्र या बार-बार किये गये अपराध को (च) और (देशकालौ) देश एवं काल (च) तथा (सार-अपराधौ) अपराधी की शारीरिक एवं आर्थिक शक्ति और अपराध का स्तर और उसका परिणाम आदि (तक्ष्वतः आलोक्य) सही-सही देखविचार कर (दण्ड्येषु दण्डं पातयेत्) दण्डनीय लोगों को दण्ड दे॥१२६॥


अन्यायपूर्वक दण्ड न दे― 


अधर्मदण्डनं लोके यशोघ्नं कीर्त्तिनाशनम्।

अस्वर्ग्यञ्च परत्रापि तस्मात्तत्परिवर्जयेत्॥१२७॥ (७१)


(लोके अधर्मदण्डनम्) इस संसार में अधर्म=अन्याय से दण्ड देना (यशोघ्नं कीर्तिनाशनम्) प्रतिष्ठा का और भविष्यत् में होने वाली कीर्ति का नाश करने हारा है (च) और (परत्र+अपि-अस्वर्ग्यम्) परजन्म में भी दुःखदायक होता है (तस्मात्) इसलिये (तत् परिवर्जयेत्) अधर्म=अन्याय युक्त दण्ड किसी पर न करे॥१२७॥


अदण्ड्यान् दण्डयन् राजा दण्ड्यांश्चैवाप्यदण्डयन्। 

अयशो महदाप्नोति नरकं चैव गच्छति॥१२८॥ (७२)


(राजा) जो राजा या न्यायाधीश (दण्ड्यान् अदण्डयन्) दण्डनीयों को दण्ड नहीं देता और (अदण्ड्यान् दण्डयन्) अदण्डनीयों को दण्ड देता है अर्थात् दण्ड देने योग्य को छोड़ देता और जिसको दण्ड देना न चाहिए उसको दण्ड देता है वह (महत् अयशः आप्नोति) जीता हुआ बड़ी निन्दा को प्राप्त करता है (च) और (नरकम् एव गच्छति) परजन्मों में कठोर दुःख को प्राप्त करता है। इसलिए जो अपराध करे उसको सदा दण्ड देवे और अनपराधी को दण्ड न देवे॥१२८॥


वाग्दण्डं प्रथमं कुर्याद्धिग्दण्डं तदनन्तरम्।

तृतीयं धनदण्डं तु वधदण्डमतः परम्॥१२९॥ (७३)


न्यायाधीश अथवा राजा अपराध के अनुसार (प्रथमं वाग्दण्डं कुर्यात्) दोषी को प्रथम वार वाणी का दण्ड दे अर्थात् उसको फटकार कर उसकी निन्दा करे, (तदनन्तर धिक् दण्डं कुर्यात्) उससे अधिक अपराध में दोषी को धिक्कार कर लज्जित करे, (तृतीयं धनदण्डं तु) उससे बड़े अपराध में आर्थिक दण्ड करे, (अतः परं वधदण्डम्) इनसे बड़े अपराध में अथवा उक्त दण्डों के करने पर भी जो दोषी न माने तो उसको शारीरिक दण्ड से दण्डित करना चाहिए॥१२९॥


वधेनापि यदा त्वेतान्निग्रहीतुं न शक्नुयात्। 

तदैषु सर्वमप्येतत्प्रयुञ्जीत चतुष्टयम्॥१३०॥ (७४)


राजा (एतान्) अपराधियों को (यदा) जब (वधेन+अपि) शारीरिक दण्ड से भी (निग्रहीतुं न शक्नुयात्) नियन्त्रित न कर सके (तदा+एषु) तो इन पर (सर्वम्+अपि+एतत् चतुष्टयं प्रयुञ्जीत) सभी उपर्युक्त [८.१२९] चारों दण्डों को एकसाथ और तीव्ररूप में लागू कर देवे॥१३०॥


लेन-देन के व्यवहार में काम आने वाले बाट और मुद्राएँ―


लोकसंव्यवहारार्थं याः संज्ञाः प्रथिता भुवि। 

ताम्ररूप्यसुवर्णानां ताः प्रवक्ष्याम्यशेषतः॥१३१॥ (७५)


अब मैं (ताम्र-रूप्य-सुवर्णानां या संज्ञाः) तांबा, चांदी, सुवर्ण आदि की 'पण' आदि मुद्राएं और 'माष' आदि बाटों की संज्ञाएं (लोकव्यवहारार्थम्) मोल लेना-देना आदि लोकव्यवहार के लिए (भुवि प्रथिताः) जो जगत् में प्रसिद्ध हैं (ताः) इन सबको (अशेषतः प्रवक्ष्यामि) पूर्णरूप से कहता हूँ॥१३१॥ 


तोल के पहले मापक त्रसरेणु की परिभाषा―


जालान्तरगते भानौ यत्सूक्ष्मं दृश्यते रजः।

प्रथमं तत्प्रमाणानां त्रसरेणुं प्रचक्षते॥१३२॥ (७६)


(भानौ जालान्तरगते) सूर्य की किरणों के मकान के झरोखों के अन्दर से प्रवेश करने पर [उस प्रकाश में] (यत् सूक्ष्मं रजः दृश्यते) जो बहुत छोटा रजकण (कण) दिखाई पड़ता है (तत्) वह (प्रमाणानां प्रथमम्) प्रमाणों=मापकों अर्थात् तोलने के बाटों में पहला प्रमाण है, और उसे ('त्रसरेणुं' प्रचक्षते) 'त्रसरेणु' कहते हैं॥१३२॥ 


लिक्षा-राजसर्षप-गौरसर्षप की परिभाषा―


त्रसरेणवोऽष्टौ विज्ञेया लिक्षैका परिमाणतः।

ता राजसर्षपस्तिस्रस्ते त्रयो गौरसर्षपः॥१३३॥ (७७)


[तोलने में] (परिमाणतः) तोल के अनुसार (अष्टौ 'त्रसरेणवः') आठ 'त्रसरेणु' की (एका 'लिक्षा' विज्ञेया) एक 'लिक्षा' होती है और (ताः तिस्त्रः 'राजसर्षपः') उन तीन लिक्षाओं का एक 'राजसर्षप' (ते त्रयः गौरसर्षपः) उन तीन 'राजसर्षपों' का एक 'गौरसर्षप' होता है॥१३३॥ 


मध्ययव, कृष्णल, माष और सुवर्ण की परिभाषा―


सर्षपाः षट् यवो मध्यस्त्रियवं त्वेककृष्णलम्।

पञ्चकृष्णलको माषस्ते सुवर्णस्तु षोडश॥१३४॥ (७८)


(षट् सर्षपाः मध्य-यवः) छह गौरसर्षपों का एक 'मध्ययव' परिमाण होता है (तु) और (त्रियवम् एक कृष्णलम्) तीन मध्ययवों का एक 'कृष्णल'= रत्ती (पञ्च-कृष्णलकः माषः) पांच कृष्णलों=रत्तियों का एक 'माष' [सोने का] और (ते षोडश सुवर्णः) उन सोलह माषों का एक 'सुवर्ण' होता है॥१३४॥ 


पल, धरण, रौप्यमाषक की परिभाषा―


पलं सुवर्णाश्चत्वारः पलानि धरणं दश।

द्वे कृष्णले समधृते विज्ञेयो रौप्यमाषकः॥१३५॥ (७९)


(चत्वारः सुवर्णाः 'पलम्') चार सुवर्णों का एक 'पल' होता है (दश पलानि 'धरणम्') दश पलों का एक 'धरण' होता है (द्वे कृष्णले समधृते रौप्यमाषकः' विज्ञेयः) दो कृष्णल=रत्ती तराजू पर रखने पर उनके बराबर तोल का माप एक 'रौप्यमाषक' जानना चाहिए॥१३५॥


रौप्यधरण, राजतपुराण, कार्षापण की परिभाषा―


ते षोडश स्याद्धरणं पुराणश्चैव राजतः। 

कार्षापणस्तु विज्ञेयस्ताम्रिकः कार्षिक: पणः॥१३६॥ (८०)


(ते षोडश 'धरणं' स्यात्) उन सोलह रौप्यमाषकों का एक 'रौप्यधरण' तोल का माप होता है (च) और एक ('राजतः पुराणः') चांदी का 'पुराण' नामक सिक्का होता है (ताम्रिकः कार्षिकः पणः) तांबे का कर्षभर अर्थात् १६ माषे वजन का 'पण' ('कार्षापणः' विज्ञेयः) 'कार्षापण' सिक्का समझना चाहिए॥१३६॥ 


रौप्यशतमान, निष्क की परिभाषा―


धरणानि दश ज्ञेयः शतमानस्तु राजतः। 

चतुःसौवर्णिको निष्को विज्ञेयस्तु प्रमाणतः॥१३७॥ (८१)


(दश धरणानि) दश रौप्यधरणों का (राजतः शतमानः ज्ञेयः) एक चांदी का 'राजत शतमान' जानें, और (प्रमाणतः) प्रमाणानुसार (चतुः सौवर्णिकः निष्कः विज्ञेयः) चार सुवर्ण का एक 'निष्क' [=अशर्फी] जानना चाहिए॥१३७॥


पूर्व-मध्यम-उत्तमसाहस की परिभाषा―


पणानां द्वे शते सार्धे प्रथमः साहसः स्मृतः। 

मध्यमः पञ्च विज्ञेयः सहस्रं त्वेव चोत्तमः॥१३८॥ (८२)


(द्वे शते सार्धं पणानां प्रथमः साहसः स्मृतः) २००+५० अर्थात् ढाई सौ पण का एक प्रथम 'साहस' माना है (पञ्च 'मध्यमः' विज्ञेयः) पांच सौ पण का 'मध्यम साहस' समझना चाहिए (सहस्रं तु+एव उत्तमः) एक हजार पण का 'उत्तम साहस' होता है॥१३८॥


ऋण पर ब्याज का विधान―


वसिष्ठविहितां वृद्धिं सृजेद्वित्तविवर्धिनीम्। 

अशीतिभागं गृह्णीयान्मासाद्वार्धुषिकः शते॥१४०॥ (८३)


(वसिष्ठविहिताम्) [दिये हुए ऋण पर] अर्थशास्त्र के विद्वान् द्वारा विहित (वित्तविवर्धिनीम्) धन को बढ़ाने वाली (वृद्धिम्) वृद्धि अर्थात् ब्याज को (सृजेत्) ले, किन्तु (वार्धुषिकः) ब्याज लेने वाला मनुष्य (शते अशीतिभागम्) सौ पर अस्सीवां भाग अर्थात् सवा रुपया सैकड़ा ब्याज (मासात्) मासिक (गृह्णीयात्) ग्रहण करे अर्थात् इससे अधिक ब्याज न ले [यह अधिक से अधिक की सीमा है]॥१४०॥


लाभ वाली गिरवी पर ब्याज नहीं―


न त्वेवाधौ सोपकारे कौसीदीं वृद्धिमाप्नुयात्। 

नचाधेः कालसंरोधान्निसर्गोऽस्ति न विक्रयः॥१४३॥ (८४)


(सोपकारे) उपकार अर्थात् साथ के साथ लाभ पहुंचाने वाली (आधौ) बंधक रखी धरोहर=गिरवी [जैसे भूमि, घर, गौ आदि] पर (कौसीदीं वृद्धिं न तु+एव आप्नुयात्) धरोहर रखने वाला व्यक्ति ब्याज रूप में प्राप्त धनवृद्धि बिल्कुल न ले (च) और (कालसंरोधात्) बहुत समय बीत जाने पर (आधेः) उस धरोहर को (न निसर्गः) रखाने वाले स्वामी के अधिकार से वंचित नहीं किया जा सकता है अर्थात् रखाने वाले की ही वह वस्तु सदा रहेगी और उसे (न विक्रयः) दूसरे को बेचा भी नहीं जा सकता है॥१४३॥


धरोहर-सम्बन्धी व्यवस्थाएँ (उन पर ऋण-ब्याज आदि की व्यवस्था)―


न भोक्तव्यो बलादाधिर्भुञ्जानो वृद्धिमुत्सृजेत्। 

मूल्येन तोषयेच्चैनमाधिस्तेनोऽन्यथा भवेत्॥१४४॥ (८५)


(बलात्) किसी की धरोहर को अपने पास रखाने वाला व्यक्ति बलपूर्वक (आधिः न भोक्तव्यः) उस धरोहर=गिरवी को उपयोग में न लाये (भुजानः) यदि वह उस वस्तु को उपभोग में लाता है तो (वृद्धिम्+उत्सृजेत्) उसके बदले ब्याज को छोड़ देवे अथवा (एनं मूल्येन तोषयेत्) धरोहर रखने वाले व्यक्ति को उसका मूल्य देकर सन्तुष्ट करे (अन्यथा) ऐसा न करने पर वह धरोहर रखने वाला (आधिः+स्तेनः भवेत्) 'धरोहर का चोर' कहलाएगा अर्थात् चोर के दण्ड का भागी होगा॥१४४॥ 


आधिश्चोपनिधिश्चोभौ न कालात्ययमर्हतः।

अवहार्यौ भवेतां तौ दीर्घकालमवस्थितौ॥१४५॥ (८६)


(आधिः) खुली धरोहर=गिरवी भूमि, पशु आदि (च) और (उपनिधिः) मुहरबन्द दी हुई धरोहर=अमानत (उभौ) ये दोनों (काल+अत्ययम्) समय अतिक्रमण की सीमा के (न अर्हतः) अन्तर्गत नहीं आती अर्थात् इन पर कोई समय की सीमा लागू नहीं होती कि इतने दिनों के पश्चात् ये मूल स्वामी के अधिकार से विहीन हो जायेंगी (तौ) ये (दीर्घकालम्+अवस्थितौ) लम्बे समय तक रहने के बाद भी (अवहार्यौ भवेताम्) मूल स्वामी को लौटा लेने योग्य रहती है।


सम्प्रीत्या भुज्यमानानि न नश्यन्ति कदाचन। 

धेनुरुष्ट्रो वहन्नश्वो यश्च दम्यः प्रयुज्यते॥१४६॥ (८७)


(सम्प्रीत्या भुज्यमानानि) परस्पर प्रेमपूर्वक उपभोग में लायी जाती हुई वस्तुएं जैसे (धेनुः) दुधारू गौ (वहन्) बोझ या सवारी आदि ढोने वाले (उष्ट्रः) ऊंट, (अश्वः) घोड़ा (च) और (यः) जो (दम्यः) हल आदि में जोते जाने वाले बैल आदि (प्रयुज्यते) यदि उपभोग में लाये जाते हैं, तो वे (कदाचन न नश्यन्ति) कभी भी अपने पूर्व स्वामी के स्वामित्व से मुक्त नहीं होते, अर्थात् प्रयोग करने वाले के नहीं होते अर्थात् पूर्वस्वामी उन्हें कभी भी वापस ले सकता है॥१४६॥


दुगुने से अधिक मूलधन न लेने का आदेश―


कुसीदवृद्धिर्द्वैगुण्यं नात्येति सकृदाहृता। 

धान्ये सदे लवे वाह्ये नातिक्रामति पञ्चताम्॥१५१॥ (८८)


(सकृत्+आहृता) एकबार लिए ऋण के धन पर (कुसीदवृद्धिः) ब्याज की वृद्धि (द्वैगुण्यं न+अत्येति) मूलधन के दुगुने से अधिक नहीं होनी के चाहिए। (धान्ये) अन्नादि धान्य (सदे) वृक्षों के फल (लवे) ऊन (वाह्ये) भारवाहक पशु बैल आदि (पञ्चतां न+अतिक्रामति) मूल के पांच गुने से अधिक नहीं लेने चाहिए॥१५१॥


कौन-कौन से ब्याज न ले―


नातिसांवत्सरी वृद्धिं न चादृष्टां पुनर्हरेत्। 

चक्रवृद्धिः कालवृद्धिः कारिता कायिका च या॥१५३॥ (८९)


(अतिसांवत्सरीं वृद्धि न हरेत्) एक वर्ष से अधिक समय का ब्याज एक बार में न ले (च) और (अदृष्टां पुनः न हरेत्) शास्त्रविरुद्ध ब्याज न ले और किसी कारण से एक बार छोड़े हुए ब्याज को फिर न मांगे (चक्रवृद्धिः) ब्याज पर लगाया हुआ ब्याज (कालवृद्धिः) मासिक, त्रैमासिक या ब्याज की किश्त देने के लिए निश्चित किये गये काल पर एक बार ब्याज लेकर अगले ब्याज की दर को बढ़ा देना (कारिता) कर्जदार की विवशता, विपत्ति आदि के कारण दबाव देकर शास्त्र में निश्चित सीमा से अधिक लिखाया या बढ़ाया गया ब्याज लेना (कायिका) ब्याज के रूप में शरीर से बेगार करवाना या शरीर से काम कराके धन या ब्याज उगाहना, ये ब्याज भी न ले॥१५३॥


पुनः ऋणपत्रादि लेखन―


ऋणं दातुमशक्तो यः कर्तुमिच्छेत्पुनः क्रियाम्। 

स दत्त्वा निर्जितां वृद्धिं करणं परिवर्तयेत्॥१५४॥ (९०)


(यः) जो कर्जदार (ऋणं दातुम्+अशक्तः) निर्धारित समय पर ऋण न लौटा सका हो (पुनः क्रियां कर्तुम्+इच्छेत्) फिर आगे भी ऋण की क्रिया करना चाहता हो अर्थात् उस ऋण को जारी रखने का लेख लिखाना चाहता हो तो (सः) वह (निर्जितां वृद्धिं दत्त्वा) उस समय तक के ब्याज को देकर (करणं परिवर्तयेत्) 'लेन-देन का समझौता पत्र' नया लिख दे॥१५४॥


अदर्शयित्वा तत्रैव हिरण्यं परिवर्तयेत्।

यावती सम्भवेद् वृद्धिस्तावीं दातुमर्हति॥१५५॥ (९१)


(अदर्शयित्वा) यदि ऋणधारक निर्धारित ब्याज न दे सके तो (तत्र+एव हिरण्यं परिवर्तयेत्) ब्याज को मूलधन में जोड़कर उसे सारे हिरण्य=धन का नया कागज लिख दे (यावती वृद्धिः सम्भवेत्) उस पर फिर जितना ब्याज बनेगा (तावतीं दातुम्+अर्हति) उतना उसे देना होगा॥१५५॥ 


चक्रवृद्धिं समारूढो देशकालव्यवस्थितः। 

अतिक्रामन् देशकालौ न तत्फलमवाप्नुयात्॥१५६॥ (९२)


(चक्रवृद्धिं समारूढः) उपर्युक्त [८.१५५] प्रकार से वार्षिक ब्याज को मूलधन में जोड़कर चक्रवृद्धि ब्याज लेने वाला व्यक्ति (देश-कालव्यवस्थितः) देश और काल-व्यवस्था में बंध कर ब्याज ले [देशव्यवस्था अर्थात् स्थान या देश की उपयुक्त व्यवस्था जैसे नकद राशि पर दुगुने से अधिक न ले; व्यापारिक अन्न, फल आदि पर पांच गुने से अधिक न ले; और सवा रुपये सैंकड़े की अधिकतम सीमा तक जितना ब्याज जिस स्थान या देश में लिया जाता है उस व्यवस्था के अनुसार (८.१४०, १५१)। कालव्यवस्था―वर्ष के निर्धारित समय के बाद ही सूद को मूलधन में जोड़ना, पहले नहीं] (८.१५५) (देशकालौ अतिक्रामन्) देश, काल की व्यवस्था को भंग करने पर (तत् फलं न अवाप्नुयात्) ब्याज लेने वाला उस ब्याज को लेने का हकदार नहीं होता॥१५६॥


समुद्रयानों का किराया-भाड़ा निर्धारण―


समुद्रयानकुशला देशकालार्थदर्शिनः।

स्थापयन्ति तु यां वृद्धिं सा तत्राधिगमं प्रति॥१५७॥ (९३)


(समुद्रयानकुशलाः) समुद्रपार देशों तक और स्थलमार्गों पर व्यापार करने में चतुर और (देशकालार्थदर्शिनः) देश की दूरी और काल-सीमा के अनुसार अर्थलाभ के ज्ञाता विद्वान् (यां वृद्धिं स्थापयन्ति) जिस भाड़े का निश्चय करें (सा तत्र+अधिगमं प्रति) वही भाड़ा लाभप्राप्ति के लिए प्रामाणिक है [ऐसा समझना चाहिए]॥१५७॥ 


जमानती सम्बन्धी विधान―


यो यस्य प्रतिभूस्तिष्ठेद्दर्शनायेह मानवः।

अदर्शयन् स तं तस्य प्रयच्छेत् स्वधनादृणम्॥१५८॥ (९४)


(यः मानवः) जो व्यक्ति (यस्य) जिस ऋणधारक का (इह दर्शनाय) न्यायालय के सामने उपस्थित करने और ऋण लौटाने का (प्रतिभूतः तिष्ठेत्) जमानती बने (अदर्शयन्) उस कर्जदार को उपस्थित न कर सकने पर (तस्य ऋणम्) उस द्वारा लिया हुआ कर्ज (स्वधनात् प्रयच्छेत्) जमानती अपने धन से दे॥१५८॥


प्रातिभाव्यं वृथादानमाक्षिकं सौरिकं च यत्। 

दण्डशुल्कावशेषं च न पुत्रो दातुमर्हति॥१५९॥ (९५)


(प्रातिभाव्यम्) किसी जमानती द्वारा जमानत के रूप में स्वीकार किया गया धन (वृथादानम्) व्यर्थ अर्थात् हंसी-मजाक में देने के लिए कहा गया धन या व्यर्थ अर्थात् कुपात्र के लिए कहा गया दान (आक्षिकम्) जूआ-सम्बन्धी हारा धन (च) और (यत् सौरिकम्) जो शराब पर व्यय किया गया धन (च) तथा (दण्ड-शुल्क-अवशेषम्) राजा की ओर से दण्ड के रूप में किया गया जुर्माने का धन और कर, चुंगी आदि का धन (पुत्रः न दातुम्+अर्हति) पुत्र को नहीं देना होता॥१५९॥ 


दर्शनप्रतिभाव्ये तु विधिः स्यात् पूर्वचोदितः।

दानप्रतिभुवि प्रेते दायादानपि दापयेत्॥१६०॥ (९६)


(दर्शन-प्रातिभाव्ये तु) ऋणधारक को उपस्थित करने का जमानती बनने में तो (पूर्वचोदितः विधिः स्यात्) पहले [८.१५९ में] कही हुई विधि लागू होती किन्तु (दान-प्रतिभुवि प्रेते) ऋण आदि देने का जमानती होकर [कि अगर ऋणधारक नहीं देगा तो मैं दूंगा] जमानती के मर जाने पर और ऋणी द्वारा वह धन न लौटाने पर (दायदान्+अपि दापयेत्) जमानत के धन को उसके धन के उत्तराधिकारी बने व्यक्तियों से राजा दिलवाये॥१६०॥ 


अदातरि पुनर्दाता विज्ञातप्रकृतावृणम्।

पश्चात्प्रतिभुवि प्रेते परीप्सेत् केन हेतुना॥१६१॥ (९७)


(अदातरि पुनः विज्ञातप्रकृतौ) ऋण के अदाता जमानती की प्रतिज्ञा की ऋणदाता को जानकारी होने की स्थिति में अर्थात् यदि जमानती ने ऋण देने की जमानत नहीं ली है, किन्तु केवल ऋणी को ऋणदाता के सामने नियत समय पर उपस्थित करने की जमानत ली है, और जमानती की इस प्रतिज्ञा को ऋणदाता जानता भी है तो ऐसे (प्रतिभुवि प्रेते पश्चात्) जमानती के मर जाने के बाद (दाता केन हेतुना ऋणं परीप्सेत्) ऋणदाता किस कारण अर्थात् आधार पर उसके पुत्रादि से ऋण प्राप्त करने की इच्छा करेगा? अर्थात् वह ऋणदाता ऐसे जमानती के पुत्र से ऋण प्राप्त करने का हकदार नहीं है॥१६१॥ 


निरादिष्टधनश्चेत्तु प्रतिभूः स्यादलंघनः।

स्वधनादेव तद्दद्यान्निरादिष्ट इति स्थितिः॥१६२॥ (९८)


(चेत्) यदि (प्रतिभूः निरादिष्टधनः) अपने जमानती को ऋणी ने धन सौंप दिया हो (च) और (अलंघनः स्यात्) ऋणी ने जमानती से ऋणदाता को वह धन लौटा देने की आज्ञा न दी हो तो ऐसी स्थिति में (निरादिष्टः) वह आज्ञा न दिया हुआ भी जमानती अथवा मरने पर जमानती का पुत्र (तत् स्वधनात्+एव दद्यात्) [ऋणदाता के मांगने पर] उसका धन अपने धन में से लौटा देवे (इति स्थितिः) ऐसी शास्त्र-मर्यादा है॥१६२॥


आठ प्रकार के व्यक्तियों से लेन-देन अप्रामाणिक है―


मत्तोन्मत्तार्ताध्याधीनैर्बालेन स्थविरेण वा।

असम्बद्धकृतश्चैव व्यवहारो न सिद्ध्यति॥१६३॥ (९९)


(मत्तः) नशे में ग्रस्त (उन्मत्तः) पागल (―आर्तः) शारीरिक रोगी (―आधि) मानसिक रूप से रोगी या विपत्तिग्रस्त (―अधीनैः) अधीन रहनेवाले नौकर आदि से (बालेन) नाबालिग से (वा) अथवा (स्थविरेण) बहुत बूढ़े से (च) और (असम्बद्धकृतः) सम्बद्ध व्यक्ति के पीछे से उसके किसी नाम पर अन्य व्यक्ति से किया गया (व्यवहार) लेन-देन (न सिद्ध्यति) प्रामाणिक अर्थात् मानने योग्य नहीं होता॥१६३॥


शास्त्र और नियमविरुद्ध लेन-देन अप्रामाणिक―


सत्या न भाषा भवति यद्यपि स्यात् प्रतिष्ठिता। 

बहिश्चेद्भाष्यते धर्मान्नियताद् व्यावहारिकात्॥१६४॥ (१००)


(भाषा) कोई भी बात या पारस्परिक प्रतिज्ञा (चेत्) यदि (धर्मात्) धर्मशास्त्र अर्थात् कानून के अनुसार (नियतात् व्यावहारिकात्) निश्चित व्यवहार से (बहिः भाष्यते) बाह्य अर्थात् विरुद्ध की हुई है (यद्यपि प्रतिष्ठिता स्यात्) चाहे वह लेख आदि द्वारा प्रमाणित भी हो तो भी (सत्या न भवति) सत्य=प्रामाणिक या मान्य नहीं होती॥१६४॥ 


योगाधमनविक्रीतं योगदानप्रतिग्रहम्।

यत्र वाऽप्युपधिं पश्येत् तत्सर्वं विनिवर्तयेत्॥१६५॥ (१०१)


(योग+आधमन―विक्रीतम्) छल-कपट से रखी हुई धरोहर और बेची हुई वस्तु (योगदान―प्रतिग्रहम्) छल-कपट से दी गई और ली गई वस्तु (वा) अथवा (यत्र अपि+उपधिं पश्येत्) जिस-किसी भी व्यवहार में छल-कपट दिखाई पड़े (तत् सर्वं विनिवर्तयेत्) उस सब को रद्द या अमान्य घोषित कर दे॥१६५॥


कुटुम्बार्थ लिये गये धन को कुटुम्बी लौटायें―


ग्रहीता यदि नष्टः स्यात् कुटुम्बार्थं कृतो व्ययः। 

दातव्यं बान्धवैस्तत्स्यात् प्रविभक्तैरपि स्वतः॥१६६॥ (१०२)


(कुटुम्बार्थं व्ययः कृतः) यदि किसी व्यक्ति ने परिवार के लिए ऋण लेकर खर्च किया हो और (यदि ग्रहीता नष्टः स्यात्) यदि ऋण लेने वाले उस की मृत्यु हो गई हो तो (तत्) वह ऋण (बान्धवैः) उसके पारिवारिक सम्बन्धियों को (विभक्तैः+अपि) चाहे वे अलग-अलग भी क्यों न हो गये हों (स्वतः) अपने धन में से (दातव्यम् स्यात्) देना चाहिए॥१६६॥ 


कुटुम्बार्थेऽऽध्यधीनोऽपि यं व्यवहारं समाचरेत्। 

स्वदेशे वा विदेशे वा तं ज्यायान्न विचारयेत्॥१६७॥ (१०३)


(अधि+अधीनः+अपि) कोई अधीनस्थ परिजन (सेवक, पुत्र, पत्नी आदि) भी यदि (कुटुम्बार्थे) परिवार के भरण-पोषण के लिए (स्वदेशे वा विदेशे वा) स्वदेश वा विदेश में (यं व्यवहारम्+आचरेत्) जिस लेन-देन के व्यवहार को कर लेवे (ज्यायान्) घर का बड़ा=मुखिया आदमी (तं न विचालयेत्) उस व्यवहार को टालमटोल न करे अर्थात् उसे स्वीकार करके चुकता कर दे॥१६७॥


अनेन विधिना राजा मिथो विवदतां नॄणाम्। 

साक्षिप्रत्ययसिद्धानि कार्याणि समतां नयेत्॥१७८॥ (१०४)


(राजा) राजा और न्यायाधीश (मिथः विवदतां नॄणाम्) परस्पर झगड़ते हुए मनुष्यों के (साक्षिप्रत्ययसिद्धानि कार्याणि) साक्षी और लेख आदि प्रमाणों से प्रमाणित मुकद्दमों को (अनेन विधिना) इस उपर्युक्त [८.९ से ८.१७७] विधि से (समतां नयेत्) सबसे बराबर न्याय करता हुआ निर्णय करे॥१७८॥ 


(२) धरोहर रखने के विवाद का निर्णय 


(१७९-१९६) 


कुलजे वृत्तसम्पन्ने धर्मज्ञे सत्यवादिनि।

महापक्षे धनिन्यार्ये निक्षेपं निक्षिपेद् बुधः॥१७९॥ (१०५)


(बुधः) बुद्धिमान् व्यक्ति को चाहिए कि वह (कुलजे) कुलीन (वृत्त-सम्पन्ने) सदाचारी (धर्मज्ञे) धर्मात्मा (सत्यवादिनि) सत्यवादी (महापक्षे) विस्तृत व्यापार या बहुत धन वाले (आर्ये धनिनि) सज्जन धनवान् व्यक्ति के यहां (निक्षेपं निक्षिपेत्) धरोहर रखे॥१७९॥


यो यथा निक्षिपेद्धस्ते यमर्थं यस्य मानवः। 

स तथैव ग्रहीतव्यो यथा दायस्तथा ग्रहः॥१८०॥ (१०६)


(यः) जो धरोहर रखाने वाला (मानवः) मनुष्य (यम्+अर्थम्) जिस धन को (यस्य हस्ते) जिस किसी धरोहर लेने वाले के हाथ में (यथा निक्षिपेत्) जैसे अर्थात् मुहरबन्द या बिना मुहरबन्द, साक्षियों के सामने या एकान्त में, जैसे धन की मात्रा अवस्था आदि के रूप में रखे (सः) वह धन उसको (तथा+एव) वैसी स्थिति के अनुसार ही (ग्रहीतव्यः) वापिस लेना चाहिए क्योंकि (यथा दायः तथा ग्रहः) जैसा देना वैसा ही लेना होता है [तुलनार्थ द्रष्टव्य ८.१९५]॥१८०॥


यो निक्षेपं याच्यमानो निक्षेप्तुर्न प्रयच्छति। 

स याच्यः प्राड्विवाकेन तन्निक्षेप्तुरसन्निधौ॥१८१॥ (१०७)


(यः) जो धरोहर लेने वाला (निक्षेप्तुः निक्षेपम्) धरोहर रखाने वाले के द्वारा अपनी धरोहर के (याच्यमानः) मांगने पर (न प्रयच्छति) नहीं लौटाता है तो [धरोहर रखाने वाले के द्वारा न्यायालय में प्रार्थना करने पर] (तत् निक्षेप्तुः+असन्निधौ) धरोहर रखाने वाले की अनुपस्थिति में या परोक्षरूप से (प्राड्विवाकेन सः याच्यः) न्यायाधीश उससे धरोहर मांगे [८.१८२] अर्थात् धरोहर लौटाने के लिए उससे पूछताछ-परीक्षा आदि करे॥१८१॥ 


साक्ष्यभावे प्रणिधिभिर्वयोरूपसमन्वितैः।

अपदेशैश्च संन्यस्य हिरण्यं तस्य तत्त्वतः॥१८२॥ (१०८)


(साक्षी+अभावे) दिये गये धरोहर-धन को सिद्ध करने के लिए यदि देने वाले के पास साक्षी न हों तो [उसकी जांच-पड़ताल का एक उपाय यह है कि राजा] (वयः-रूप-समन्वितैः) समयानुसार अवस्था और विविध रूप बनाने की कला चतुर (प्रणिधिभिः) गुप्तचरों के द्वारा (अपदेशैः) विभिन्न बहानों एवं तरीकों से (तत्त्वतः) जो नकली प्रतीत न हों अर्थात् ऐसी स्वाभाविक पद्धति से (तस्य) उस अभियोगी के यहां (हिरण्यं संन्यस्य) स्वर्ण, धन आदि धरोहर रखवाकर फिर (याच्यः) मांगे॥१८२॥


स यदि प्रतिपद्येत यथान्यस्तं यथाकृतम्।

न तत्र विद्यते किंचिद्यत्परैरभियुज्यते॥१८३॥ (१०९)


(सः) वह धरोहर लेने वाला अभियोगी व्यक्ति [अनेक बार, विभिन्न प्रकार के उपायों से परीक्षा करने के पश्चात्] (यदि यथान्यस्तं यथाकृतं प्रतिपद्येत) यदि रखी हुई धरोहर को ईमानदारी से ज्यों का त्यों वापिस कर देता है तो (यत् परैः+अभियुज्यते) जो दूसरों के द्वारा उस पर अभियोग लगाया गया है (तत्र न किंचित् विद्यते) उसमें कुछ सच्चाई नहीं है, ऐसा समझना चाहिए॥१८३॥ 


तेषां न दद्याद्यदि तु तद्धिरण्यं यथाविधि।

उभौ निगृह्य दाप्यः स्यादिति धर्मस्य धारणा॥१८४॥ (११०)


(यदि तु) और अगर (तेषां तत् हिरण्यम्) उन गुप्तचरों द्वारा रखी गई स्वर्ण आदि धरोहर को (यथाविधि) ज्यों का त्यों (न दद्यात्) न लौटावे तो (उभौ निगृह्य) धरोहर रखाने वाले तथा गुप्तचरों द्वारा रखी गई, उन दोनों धरोहरों को अपने वश में लेकर (दाप्यः स्यात्) धरोहर रखने वाले को दण्डित करे (इति धर्मस्य धारणा) ऐसा धर्मानुसार दण्ड-विधान है॥१८४॥


निक्षेपोपनिधी नित्यं न देयौ प्रत्यनन्तरे। 

नश्यतो विनिपाते तावनिपाते त्वनाशिनौ॥१८५॥ (१११)


(नित्यम्) कभी भी (निक्षेप+उपनिधी) बिना मुहरबन्द=गिरवी धरोहर और मुहरबन्द धरोहर (अनन्तरे प्रति) देने वाले से भिन्न निकटतम व्यक्ति को [चाहे वे पुत्र आदि ही क्यों न हो] (न देयौ) नहीं लौटानी चाहियें (तौ) ये (विनिपातेः नश्यतः) देने वाले के मर जाने पर नष्ट हो जाती हैं अर्थात् लौटानी नहीं पड़तीं (तु) और (अनिपाते) जीवित रहते हुए (अनाशिनौ) कभी नष्ट नहीं होतीं॥१८५॥ 


स्वयमेव तु यो दद्यान्मृतस्य प्रत्यनन्तरे। 

न स राज्ञा नियोक्तव्यो न निक्षेप्तुश्च बन्धुभिः॥१८६॥ (११२)


(मृतस्य अनन्तरे प्रति) धरोहर देने वाले के मर जाने पर उसके वारिसों को (यः स्वयम्+एव दद्यात्) जो व्यक्ति स्वयं ही धरोहर लौटा दे तो (सः) उस व्यक्ति पर (न राज्ञा) न तो राजा और न्यायाधीश को (न निक्षेप्तुः बन्धुभिः) और न धरोहर रखाने वाले के उत्तराधिकारी बान्धवों को (नियोक्तव्यः) किसी प्रकार का दावा या सन्देह करना चाहिए॥१८६॥ 


अच्छलेनैव चान्विच्छेत्तमर्थं प्रीतिपूर्वकम्। 

विचार्य तस्य वा वृत्तं साम्नैव परिसाधयेत्॥१८७॥ (११३)


(तत्+अर्थम्) यदि उस व्यक्ति के पास कुछ धन रह भी गया है तो उस धन को (अच्छलेन) छलरहित होकर (प्रीतिपूर्वकम्+एव) प्रेमपूर्वक ही (अनु+इच्छेत्) लेने की इच्छा करे (वा) और (तस्य वृत्तं विचार्य) उसके भलेपन को ध्यान में रखते हुए [कि उसने स्वयं ही कुछ धन लौटा दिया] (साम्ना+एव परिसाधयेत्) शान्तिपूर्वक या मेल-जोल से ही धनप्राप्ति के काम को सिद्ध करले॥१८७॥ 


निक्षेपेष्वेषु सर्वेषु विधिः स्यात्परिसाधने। 

समुद्रेनाप्नुयात्किञ्चिद्यदि तस्मान्न संहरेत्॥१८८॥ (११४)


(एषु सर्वेषु निक्षेपेषु) उपर्युक्त सब प्रकार के बिना मुहरबन्द निक्षेपों में (परिसाधने) विवादों का निर्णय करने के लिए (विधिः स्यात्) यह विधि [८.१८२ आदि] कही गई है और (समुद्रे) मोहरबन्द धरोहरों में (यदि तस्मात् न हरेत्) यदि मुहर को तोड़कर रखने वाला उसमें से कुछ नहीं लेता है तो (किञ्चित् न+आप्नुयात्) वह किसी दोष का भागी नहीं होता॥१८८॥


चौरैर्हृतं जलेनोढमग्निना दग्धमेव वा। 

न दद्याद्यदि तस्मात् स न संहरति किञ्चन॥१८९॥ (११५)


(तस्मात्) रखे हुए धरोहर में से (यदि सः किञ्चन न संहरति) यदि धरोहर लेने वाला कुछ नहीं लेता है और धरोहर (चौरैः हृतम्) चोरों के द्वारा चुरा ली जाये (जलेन+ऊढम्) जल में बह जाये (वा) या (अग्निना एव दग्धम्) आग से ही जल जाये तो (न दद्यात्) धरोहर लेने वाला धरोहर को न लौटाए॥१८९॥


यो निक्षेपं नार्पयति यश्चानिक्षिप्य याचते। 

तावुभौ चौरवच्छास्यौ दाप्यौ वा तत्समं दमम्॥१९१॥ (११६)


(यः) जो (निक्षेपं न+अर्पयति) धरोहर को वापिस नहीं लौटाता (च) और (यः) जो (अनिक्षिप्य याचते) बिना धरोहर रखे झूठ ही मांगता है तो (तौ+उभौ) वे दोनों प्रकार के व्यक्ति (चौरवत् शास्यौ) चोर के समान दण्ड के भागी हैं (वा) अथवा (तत् समं दमं दाप्यौ) बताये गये धन के बराबर अर्थदण्ड के द्वारा दण्डनीय हैं॥१९१॥


उपधाभिश्च यः कश्चित् परद्रव्यं हरेन्नरः।

ससहायः स हन्तव्यः प्रकाशं विधिधैर्वधैः॥१९३॥ (११७)


(यः कश्चित् नरः) जो कोई मनुष्य (उपधाभिः) छल-कपट या जाल-साजी से (परद्रव्यं हरेत्) दूसरों का धन हरण करे (सः) राजा उसे (ससहायः) उसके सहायकों सहित (प्रकाशम्) जनता के सामने (विविधैः वधैः हन्तव्यः) विविध प्रकार के वधों [कोड़े या बेंत मारना, हाथ-पैर बांधना आदि] से दण्डित करे॥१९३॥


निक्षेपो यः कृतो येन यावांश्च कुलसन्निधौ। 

तावानेव स विज्ञेयो विब्रुवन्दण्डमर्हति॥१९४॥ (११८)


(कुलसन्निधौ) परिवारवालों या साक्षियों के सामने (येन) जिसने (यः च यावान् निक्षेपः कृतः) जो वस्तु और जितना धरोहर के रूप में रखा है (सः) वह (तावान्+एव विज्ञेयः) उतना ही समझना चाहिए अर्थात् धरोहर घटती या बढ़ती नहीं है (विब्रुवन्) उसके विरुद्ध कहने वाला भी (दण्डम्+अर्हति) दण्ड का भागी होता है॥१९४॥ 


मिथो दायः कृतो येन गृहीतो मिथ एव वा। 

मिथ एव प्रदातव्यो यथा दायस्तथा ग्रहः॥१९५॥ (११९)


(येन मिथः दायः कृतः) जिस व्यक्ति ने बिना साक्षियों के परस्पर ही सहमति से धरोहर या धन दिया है (वा) अथवा (मिथः एव गृहीतः) उसी प्रकार एकान्त में ग्रहण किया है उन्हें (मिथः एव प्रदातव्यः) उसी प्रकार एकान्त में लौटा देना चाहिए (यथा दायः तथा ग्रहः) क्योंकि जैसा देना वैसा ही लेना होता है [तुलनार्थ द्रष्टव्य ८.१८०]॥१९५॥ 


निक्षिप्तस्य धनस्यैवं प्रीत्योपनिहितस्य च।

राजा विनिर्णयं कुर्यादक्षिण्वन् न्यासधारिणम्॥१९६॥ (१२०)


(एवम्) इस प्रकार [८.१७९ से ८.१९५ तक] (निक्षिप्तस्य) धरोहर के रूप में रखे गये (च) और (प्रीत्या+उपनिहितस्य धनस्य) प्रेमपूर्वक उपनिधि आदि के रूप में रखे गये धन का (न्यासधारिणम् अक्षिण्वन्) जिससे धरोहर रखाने वाले को किसी प्रकार की हानि न हो (राजा विनिर्णयं कुर्यात्) राजा या न्यायाधीश उस प्रकार निर्णय करे॥१६९॥ 


(३) तृतीय विवाद 'अस्वामिविक्रय' का निर्णय १६९-२०५ तक 


दूसरे की वस्तु बेच देना―


विक्रीणीते परस्य स्वं योऽस्वामी स्वाम्यसंमतः। 

न तं नयेत साक्ष्यं तु स्तेनमस्तेनमानिनम्॥१९७॥ (१२१)


(यः) जो मनुष्य (अस्वामी) किसी वस्तु का स्वामी नहीं होता हुआ भी (स्वामी+असंमतः) उस वस्तु के असली स्वामी की आज्ञा लिए बिना (परस्य स्वं विक्रीणीते) उसकी सम्पत्ति को बेच देता है (अस्तेनमानिनम्) चोर होते हुए भी स्वयं को चोर न समझने वाले (तम् स्तेनम्) उस चोर व्यक्ति के (साक्ष्यं न नयेत) साक्षियों या कथनों को प्रामाणिक न माने॥१६७॥


अवहार्यो भवेच्चैव सान्वयः षट्शतं दमम्। 

निरन्वयोऽनपसर: प्राप्तः स्याच्चौरकिल्बिषम्॥१९८॥ (१२२)


(अवहार्यः सान्वयः एव भवेत्) यदि इस प्रकार [८.१९७] सम्पत्ति को बेचने वाला वस्तु के स्वामी का वंशज उत्तराधिकारी हो तो (षट्शतं दमम्) राजा उस पर छह सौ पण दण्ड करे तथा सम्पत्ति को वापस दिलाये और यदि वह (निरन्वयः) स्वामी के वंश का न हो, (अनपसरः) या कोई बलपूर्वक उस सम्पत्ति पर अधिकार करके बेचने वाला हो तो वह (चौरकिल्बिषं प्राप्तः स्यात्) चोर के दण्ड को [८.३०१-३४३] प्राप्त करने योग्य होगा॥१९८॥


अस्वामिना कृतो यस्तु दायो विक्रय एव वा।

अकृतः स तु विज्ञेयो व्यवहारे यथा स्थितिः॥१९९॥ (१२३)


(अस्वामिना) वास्तविक स्वामी के बिना (यः तु दायः वा विक्रयः कृतः) जो कुछ भी देना या बेचना किया जाये (व्यवहारे यथा स्थितिः) व्यवहार के नियम के अनुसार (सः तु अकृतः विज्ञेयः) उस कार्य को 'न किया हुआ' अर्थात् अमान्य ही समझना चाहिए॥१९९॥


सम्भोगो दृश्यते यत्र न दृश्येतागमः क्वचित्। 

आगमः कारणं तत्र न सम्भोग इति स्थितिः॥२००॥ (१२४)


(यत्र सम्भोगः दृश्यते) जहाँ किसी वस्तु का उपभोग किया जाना देखा जाये (आगमः क्वचित् न दृश्येत) किन्तु उसका आगम=आने का साधन या स्रोत न दिखाई पड़े (तत्र) वहाँ (आगमः कारणम्) आगम=वस्तु की प्राप्ति के स्रोत या साधन की सिद्धि को प्रमाण मानना चाहिए (सम्भोगः न) उपभोग करना उसके स्वामित्व का मुख्य प्रमाण नहीं है (इति स्थितिः) ऐसी शास्त्र-व्यवस्था है। अर्थात्―किसी वस्तु के उपभोग करने मात्र से कोई व्यक्ति उसका स्वामी नहीं बन जाता अपितु 'उचित प्राप्ति स्रोत' को सिद्ध करने पर ही उसे उस वस्तु का स्वामी माना जा सकता है॥२००॥


विक्रयाद्यो धनं किञ्चिद् गृह्णीयात् कुलसन्निधौ। 

क्रयेण स विशुद्धं हि न्यायतो लभते धनम्॥२०१॥ (१२५)


(यः) जो व्यक्ति (किञ्चित् विक्रयात्) किसी वस्तु को बेचकर (धनं गृह्णीयात्) धन प्राप्त करना चाहे तो वह (कुलसन्निधौ) साक्षियों या कुल के लोगों के बीच में (विशुद्धं क्रयेण हि) उस बेची जाने वाली वस्तु की दोषरहित खरीददारी को प्रमाणित करके ही (न्यायतः धनं लभते) न्यायानुसार धन प्राप्त करने का अधिकारी होता है अर्थात् जिस वस्तु को वह बेच रहा है वह विशुद्ध रूप से उसकी है या उसने कानूनी तौर पर खरीद रखी है, यह बात सिद्ध करने पर ही वह उस बेची हुई वस्तु के धन को प्राप्त करने का अधिकारी है, अन्यथा नहीं। जो उसकी विशुद्ध खरीददारी को प्रमाणित नहीं कर सकता, वह न उस वस्तु को बेचने का अधिकारी है और न उसके विक्रय के धन को प्राप्त करने का॥२०१॥


अथ मूलमनाहार्यं प्रकाशक्रयशोधितः। 

अदण्ड्यो मुच्यते राज्ञा नाष्टिको लभते धनम्॥२०२॥ (१२६)


(अथ मूलम्+अनाहार्यम्) अगर कोई धन या वस्तु मूलतः क्रय करने योग्य सिद्ध नहीं होती है अर्थात् उसका क्रय करना कानूनसम्मत नहीं है किन्तु खरीददार ने उस वस्तु की (प्रकाश-क्रय-शोधितः) लोगों के सामने दोषरहित रूप से खरीददारी की है, तो ऐसी स्थिति में उस वस्तु का खरीददार (राज्ञा अदण्ड्यः मुच्यते) राजा के द्वारा दण्डनीय नहीं होता, राजा उसे छोड़ दे, और (नाष्टिकः धनं लभते) जिसका वह धन मूलरूप से है, उसे लौटा दे॥२०२॥


नान्यदन्येन संसृष्टरूपं विक्रयमर्हति। 

न चासारं न च न्यूनं न दूरेण तिरोहितम्॥२०३॥ (१२७)


(अन्येन अन्यत् संसृष्टरूपम्) किसी वस्तु में उससे मिलते-जुलते रङ्गरूप वाली, कम कीमत वाली या खराब वस्तु मिलाकर (न विक्रयम्+अर्हति) नहीं बेची जा सकती (च) और (न असारम्) न गुणहीन वस्तु को उत्तम बताकर (न न्यूनम्) न तोल और माप में कम (दूरेण तिरोहितम्) न दूर से अस्पष्ट वस्तु को दिखाकर अन्य के स्थान में अन्य वस्तु को बेचना या देना प्रामाणिक है॥२०३॥


(४) चतुर्थ विवाद 'सामूहिक व्यापार' का निर्णय [२०६-२११ तक]


मिलजुलकर व्यापार करना और उसमें लाभ का बंटवारा―


सर्वेषामर्धिनो मुख्यास्तदर्धेनार्धिनोऽपरे। 

तृतीयिनस्तृतीयांशाश्चतुर्थांशाश्च पादिनः॥२१०॥ (१२८)


[साझे व्यापार में अपने धनव्यय के अनुसार] (सर्वेषां मुख्याः अर्धिनः) सब साझीदारों में जो मुख्य हैं, वे कुल आय के आधे भाग को लें (अपरे तत् अर्धिन: अर्धेन) दूसरे नम्बर के साझीदार उनसे आधा भाग ग्रहण करें (तृतीयिनः तृतीयांशाः) तीसरे नम्बर के साझीदार उन मुख्यों से एक तिहाई भाग लें (च) और (चतुर्थांशाः पादिनः) चौथे हिस्से के हिस्सेदार एक चौथाई हिस्सा लें। इस प्रकार साझे का व्यापार करें॥२१०॥


सम्भूय स्वानि कर्माणि कुर्वद्भिरिह मानवैः।

अनेन विधियोगेन कर्त्तव्यांशप्रकल्पना॥२११॥ (१२९)


(इह) इस संसार में (सम्भूय स्वानि कर्माणि कुर्वद्भिः मानवैः) मिलजुलकर अपने काम करने वाले मनुष्यों को (अनेन विधियोगेन) इस विधि के अनुसार (अंशप्रकल्पना कर्त्तव्या) आपस के भाग का बंटवारा करना चाहिए अर्थात् जिसका जितना साझे का अंश है तदनुसार ही लाभांश प्राप्त करना चाहिए॥२११॥


(५) पञ्चम विवाद 'दिये पदार्थ को न लौटाना' का निर्णय [२१२-२१३]


दान की हुई वस्तु को लौटाना―


धर्मार्थं येन दत्तं स्यात् कस्मैचिद्याचते धनम्। 

पश्चाच्च न तथा तत् स्यान् न देयं तस्य तद्भवेत्॥२१२॥ (१३०)


(येन) जिसने (कस्मैचित् याचते) किसी चन्दा-दान मांगने वाले को (धर्मार्थं धनं दत्तं स्यात्) धर्मकार्य के लिए धन दिया हो (च) और (पश्चात्) बाद में (तथा तत् न स्यात्) उस याचक ने जैसा कहा था वह काम नहीं किया हो तो (तस्य तत् न देयं भवेत्) उस याचक को वह धन देने योग्य नहीं रहता अर्थात् वह धन उससे वापिस ले ले॥२१२॥


यदि संसाधयेत्तत्तु दर्प्पाल्लोभेन वा पुनः।

राज्ञा दाप्यः सुवर्ण स्यात्तस्य स्तेयस्य निष्कृतिः॥२१३॥ (१३१)


(पुनः) वापिस मांगने पर भी (दर्पात् वा लोभेन) अभिमान या लालचवश (यदि तत् संसाधयेत्) यदि उस धन को वह याचक मनमाने काम में लगाये और वापिस न करे तो (राजा) राजा (तस्य स्तेयस्य निष्कृतिः) उसके चोरीरूप अपराध की निवृत्ति के लिए (सुवर्णं दाप्यः स्यात्) एक 'सुवर्ण' [८.१३४] के दण्ड से दण्डित करे, और दाता का धन भी दिलवाये॥२१३॥


(६) षष्ठ विवाद 'वेतन-आदान' का निर्णय [२१४-२१७]


वेतन देने, न देने का विवाद―


दत्तस्यैषोदिता धर्म्या यथावदनपक्रिया। 

अत ऊर्ध्वं प्रवक्ष्यामि वेतनस्यानपक्रियाम्॥२१४॥ (१३२)


(एषा) ये [८.२१२-२१३] (दत्तस्य) दिये हुए दान को (यथावत्+अनपक्रिया) ज्यों का त्यों न लौटाने की और तदनुसार कार्य न करने की क्रिया (उदिता) कही। (अतः+ऊर्ध्वम्) इसके बाद अब (वेतनस्य+अनप्रक्रियाम्) वेतन न देने आदि के विषय का (प्रवक्ष्यामि) वर्णन करूंगा॥२१४॥ 


भृतो नार्तो न कुर्याद्यो दर्पात् कर्म यथोदितम्।

स दण्ड्यः कृष्णलान्यष्टौ न देयं चास्य वेतनम्॥२१५॥ (२३३)


(यः) जो (भृतः) सेवक (अनार्तः) रोगरहित होते हुए भी (यथा+उदितं कर्म) यथा निश्चित काम को (दर्पात्) अहंकार के कारण या जानबूझकर (न कुर्यात्) न करे (सः अष्टौ कृष्णलानि दण्ड्यः) राजा उस पर आठ 'कृष्णल' [७.१३४] दण्ड करे (च) और (अस्य वेतनं न देयम्) उसे उस समय का वेतन न दे॥२१५॥


आर्तस्तु कुर्यात्स्वस्थः सन् यथाभाषितमादितः।

स दीर्घस्यापि कालस्य तल्लभेतैव वेतनम्॥२१६॥ (१३४)


यदि सेवक (आर्तः) रोगी हो जाये और फिर (स्वस्थः सन्) स्वस्थ होने पर (यथाभाषितम्+आदितः कुर्यात्) जैसा नियुक्ति के समय कहा था या निश्चय हुआ था उसके अनुसार ठीक-ठीक काम पूरा कर दे तो (सः) वह (तत् दीर्घस्य कालस्य+अपि वेतनं लभेत) उस रुग्णकाल के लम्बे समय के वेतन को भी पाने का अधिकारी होता है॥२१६॥ 


(७) सप्तम विवाद 'प्रतिज्ञा विरुद्धता' का निर्णय [२१८-२२१]


कृत-प्रतिज्ञा से फिर जाना―


एष धर्मोऽखिलेनोक्तो वेतनादानकर्मणः। 

अत ऊर्ध्वं प्रवक्ष्यामि धर्मं समयभेदिनाम्॥२१८॥ (१३५)


(एषः) यह [८.२१४-२१६] (वेतन+आदानकर्मणः) वेतन लेने का (धर्मः) नियम (अखिलेन+उक्तः) पूर्णरूप से अर्थात् सभी के लिए कहा। (अतः ऊर्ध्वम्) इसके बाद अब (समयभेदिनाम्) की हुई प्रतिज्ञा या व्यवस्था को तोड़ने वालों के लिए (धर्मम्) विधान (प्रवक्ष्यामि) कहूँगा॥२१८॥ 


यो ग्रामदेशसङ्घानां कृत्वा सत्येन संविदम्। 

विसंवदेन्नरो लोभात्तं राष्ट्राद्विप्रवासयेत्॥२१९॥ (१३६)


(यः) जो (नरः) मनुष्य (ग्राम-देश-संघानाम्) गांव, देश या किसी समुदाय=उद्योगसमूह आदि से (सत्येन संविदं कृत्वा) सत्यवचनपूर्वक प्रतिज्ञा, व्यवस्था, ठेका या समझौता करके (लोभात् विसंवदेत्) फिर लोभ के कारण उसे भंग कर देवे (तं राष्ट्रात् विप्रवासयेत्) राजा उसे राष्ट्र से बाहर निकाल दे॥२१९॥


निगृह्य दापयेच्चैनं समयव्यभिचारिणम्।

चतुः सुवर्णान्षण्निष्कांश्छतमानं च राजतम्॥२२०॥ (१३७)

 

(च) और (एनं समयव्यभिचारिणम्) इस प्रतिज्ञा या कानून को भंग करने वाले को (निगृह्य) पकड़कर [अपराध के स्तरानुसार] (चतुः सुवर्णान्) चार 'सुवर्ण' [८.१३४] (षट् निष्कान्) छह 'निष्क' [८.१३७] (राजतं शतमानम्) चांदी का 'शतमान' [८.१३७] (दापयेत्) दण्ड दे॥२२०॥


एतद्दण्डविधिं कुर्याद्धार्मिकः पृथिवीपतिः।

ग्रामजातिसमूहेषु समयव्यभिचारिणाम्॥२२१॥ (१३८)


(धार्मिकः पृथिवीपतिः) धार्मिक राजा (ग्रामजाति-समूहेषु) गांव, वर्ण और समुदाय-सम्बन्धी विषयों में (समय-व्यभिचारिणाम्) प्रतिज्ञा या व्यवस्था का भंग करने वालों पर (एतत्) यह उपर्युक्त [८.२१९-२२०] (दण्डविधिम्) दण्ड का विधान (कुर्यात्) लागू करे॥२२१॥ 


(८) अष्टम विवाद 'क्रय-विक्रय' का निर्णय [२२२-२२८] 


खरीद-बिक्री का विवाद―


क्रीत्वा विक्रीय वा किञ्चिद्यस्येहानुशयो भवेत्। 

सोऽन्तर्दशाहात्तद् द्रव्यं दद्याच्चैवाददीत वा॥२२३॥ (१३९)


(किंचित् क्रीत्वा) किसी भी वस्तु को खरीदकर (वा) अथवा (विक्रीय) बेचकर (यस्य) जिस व्यक्ति को (इह+अनुशयः भवेत्) मन में पश्चात्ताप अनुभव हो (सः) वह क्रेता (अन्तर्दशाहात्) दश दिन के भीतर (तत् द्रव्यम्) उस वस्तु को यथावत् (दद्यात्) लौटा दे (वा) अथवा (आददीत एव) विक्रेता वापिस ले ले॥२२२॥ 


परेण तु दशाहस्य न दद्यान्नापि दापयेत्। 

आददानो ददच्चैव राज्ञा दण्ड्यः शतानि षट्॥२२३॥ (१४०)


(तु) परन्तु (दश+अहस्य परेण) दश दिन के बीतने बाद (न दद्यात्) न तो वापिस दे (अपि न दापयेत्) और न वापिस ले, इस अवधि के बीतने पर (आददानः) यदि कोई वापिस लेने का विवाद करे (च+एव) या (ददत्) वापिस देने का विवाद करे तो (राज्ञा षट्शतानि दण्ड्यः) राजा उस पर छह सौ पण [८.१३६] का जुर्माना करे॥२२३॥ 


यस्मिन्यस्मिन्कृते कार्ये यस्येहानुशयो भवेत्। 

तमनेन विधानेन धर्मे पथि निवेशयेत्॥२२८॥ (१४१)


(यस्मिन् यस्मिन् कार्ये कृते) जिस-जिस कार्य के करने के बाद (यस्य) करने वाले व्यक्ति को (इह+अनुशयः भवेत्) मन में पश्चात्ताप अनुभव हो (तम्) उस उसको राजा (अनेन विधानेन) पूर्वोक्त दस दिन के विधान [८.२२२-२२३] के अनुसार (धर्मे पथि निवेशयेत्) धर्मयुक्त मार्ग अर्थात् न्याय के अनुसार परिवर्तित कर दे॥२२८॥


(९) नवम विवाद 'पालक-स्वामी' का निर्णय [२२९-२४४] 


पशु-स्वामी और ग्वालों का विवाद―


पशुषु स्वामिनां चैव पालानां च व्यतिक्रमे।

विवादं सम्प्रवक्ष्यामि यथावद्धर्मतत्त्वतः॥२२९॥ (१४२) 


अब मैं (पशुषु) पशुओं के विषय में (स्वामिनां च पालानां व्यतिक्रमे) पशु-मालिकों और चरवाहों में मतभेद हो जाने पर जो विवाद खड़ा हो जाता है (विवादम्) उस विवाद को (धर्मतत्त्वतः) धर्मतत्त्व=न्यायविधि के अनुसार (यथावत्) ठीक-ठीक (सम्प्रवक्ष्यामि) कहूँगा―॥२२९॥ 


दिवा वक्तव्यता पाले रात्रौ स्वामिनि तद्गृहे।

योगक्षेमेऽन्यथा चेत्तु पालो वक्तव्यतामियात्॥२३०॥ (१४३)


(दिवा योगक्षेमे पाले वक्तव्यता) [स्वामी द्वारा पशु चरवाहे को सौंप दिये जाने पर] दिन में [यदि पशु कोई हानि करता है या पशु की हानि होती है तो] चरवाहे पर आक्षेप या दोष आयेगा (रात्रौ तद्गृहे स्वामिनि) रात को स्वामी के घर में पशुओं को सौंप देने पर स्वामी पर दोष आयेगा (अन्यथा चेत् तु) अन्यथा यदि दिन-रात में पूर्णतः पशु-सुरक्षा या देखभाल का उत्तरदायित्व चरवाहे पर हो तो उस स्थिति में (पालः वक्तव्यताम्+इयात्) चरवाहा ही पशुविषयक दोष का भागी माना जायेगा॥२३०॥ 


गोपः क्षीरभृतो यस्तु स दुह्याद्दशतो वराम्।

गोस्वाम्यनुमते भृत्यः सा स्यात् पालेऽभृते भृतिः॥२३१॥ (१४४)


(यः तु गोपः क्षीरभृतः) जो चरवाहा स्वामी से वेतन न लेकर दूध लेता हो (सः भृत्यः दशतः वराम्) वह नौकर प्रथम दश गायों में जो श्रेष्ठ गाय हो उसका दूध (गोस्वामी+अनुमतेः दुह्यात्) गोस्वामी की अनुमति लेकर दुह लिया करे (अभृते पाले सा भृतिः स्यात्) भरण-पोषण का व्यय न लेने पर वह दूध ही चरवाहे का पारिश्रमिक है॥२३१॥ 


नष्टं विनष्टं कृमिभिः श्वहतं विषमे मृतम्।

हीनं पुरुषकारेण प्रदद्यात्पाल एव तु॥२३२॥ (१४५) 


(नष्टम्) यदि कोई पशु खो जाये (कृमिभिः विनष्टम्) सर्प आदि कीड़ों के काटने आदि से मर जाये (श्वहतम्) कुत्ते खा जायें (विषमे मृतम्) विपत्ति में फंसकर या ऊंचे-नीचे स्थानों में गिरने से मर जाये (पुरुषकारेण हीनम्) चरवाहे के द्वारा पुरुषार्थ न करने के कारण या उपेक्षा के कारण पशु नष्ट हो जाये तो (पालः एव प्रदद्यात्) चरवाहा ही उस पशु का देनदार है॥२३२॥ 


विघुष्य तु हृतं चौरैर्न पालो दातुमर्हति। 

यदि देशे च काले च स्वामिनः स्वस्य शंसति॥२३३॥ (१४६)


(विघुष्य तु चौरैः हृतम्) यदि घोषणा करके और बलात् चोर पशु को ले जायें (च) और (यदि देशे च काले स्वामिनः स्वस्य शंसति) यदि चरवाहा देश काल के अनुसार यथाशीघ्र अपनी ओर से स्वामी को इसकी सूचना दे देता है तो (पालः दातुं न अर्हति) चरवाहा उस पशु का देनदार नहीं होता॥२२३॥ 


कर्णौ चर्म च बालांश्च बस्ति स्नायुं च रोचनाम्। 

पशुषु स्वामिनां दद्यान्मृतेष्वङ्कानि दर्शयेत्॥२३४॥ (१४७)


(पशुषु मृतेषु) पशुओं के स्वयं मर जाने पर चरवाहा उस पशु के (कर्णौ) दोनों कान (चर्म) चमड़ा (बालान्) पूंछ आदि के बाल (बस्तिम्) मूत्रस्थान (स्नायुम्) नसें (रोचनाम्) चर्बी (अङ्कानि दर्शयेत्) इन चिह्नों को दिखा दे और (स्वामिनां दद्यात्) स्वामी को उसको सौंप दे॥२३४॥


अजाविके तु संरुद्धे वृकैः पाले त्वनायति।

यां प्रसह्य वृको हन्यात् पाले तत्किल्बिषं भवेत्॥२३५॥ (१४८)


(अजा+अविके) बकरी और भेड़ (वृकैः संरुद्ध) भेडियों या अन्य हिंसक जानवरों के द्वारा घेर लिए जाने पर (पाले तु अनायति) यदि चरवाहा उन्हें बचाने के लिए यत्न करने न आये तो (यां प्रसह्य वृकः हन्यात्) जिस बकरी या भेड़ को आक्रमण करके जबरदस्ती भेड़िया मार जाये तब (पाले तत् किल्विषं भवेत्) चरवाहे पर उसका दोष होगा अर्थात् वही उसका देनदार होगा॥२३५॥ 


तासां चेदवरुद्धानां चरन्तीनां मिथो वने।

यामुत्प्लुत्य वृको हन्यान्न पालस्तत्र किल्विषी॥२३६॥ (१४९)


(तासां चेत्+अवरुद्धानाम्) चरवाहे ने यदि घेरकर बकरियों और भेड़ों को संभाल रखा है और उनके (वने मिथः चरन्तीनाम्) वन में परस्पर झुण्ड बनाकर उनके चरते हुए (याम्+उत्प्लुत्य वृकः हन्यात्) जिस बकरी या भेड़ को एकाएक घात लगाकर भेड़िया या कोई हिंसक पशु मार जाये तो (तत्र पालः न किल्बिषी) वहाँ चरवाहा दोषी नहीं होता अर्थात् देनदार नहीं होता॥२३६॥


धनुःशतं परीहारो ग्रामस्य स्यात् समन्ततः।

शम्यापातास्त्रयो वाऽपि त्रिगुणो नगरस्य तु॥२३७॥ (१५०)


पशुओं के बैठने व घूमने-फिरने के लिए (ग्रामस्य समन्तात्) प्रत्येक गांव के चारों ओर (धनुःशतम्) १०० धनुष अर्थात् चार सौ हाथ तक (वा) अथवा (त्रयः शम्यापाताः) तीन बार छड़ी फेंकने से जितनी दूर जाये वहां तक (अपि तु) और (नगरस्य त्रिगुणः) नगर के पास इससे तीन गुना (परीहारः) खाली आरक्षित भूखण्ड (स्यात्) रखा जाना चाहिए॥२३७॥


तत्रापरिवृतं धान्यं विहिंस्युः पशवो यदि।

न तत्र प्रणयेद्दण्डं नृपतिः पशुरक्षिणाम्॥२३८॥ (१५१)


(तत्र) उस पशुस्थान के समीप के (यदि अपरिवृतं धान्यं पशवः विहिंस्युः) किसानों द्वारा बिना घेरा या बाड़ बांधे खेतों की फसलों की यदि पशु हानि कर दें तो (नृपतिः) राजा (तत्र) उस विषय में (पशुरक्षिणां दण्डं न प्रणयेत्) चरवाहों को दण्ड न दे॥२३८॥


वृतिं तत्र प्रकुर्वीत यामुष्ट्रो न विलोकयेत् । 

छिद्रं च वारयेत्सर्वं श्वसूकरमुखानुगम्॥२३९॥ (१५२)


(तत्र) उस पशुस्थान में (याम्+उष्ट्रः न विलोकयेत्) जिससे ऊंट उसके ऊपर से धान्य को न खा सके, उतनी ऊंची (वृतिं कुर्यात्) बाड़ या घेरा बनाये (च) और उसमें (श्व-सूकर-मुख+अनुगम्) कुत्ते तथा सूअरों का मुंह भी न जा सके, ऐसे (सर्वं छिद्रं वारयेत्) सब तरह के छिद्रों को न रहने दे, रहे हों तो उनको बन्द कर दे॥२३९॥


पथि क्षेत्रे परिवृते ग्रामान्तीयेऽथवा पुनः। 

सपाल: शतदण्डार्हो विपालान् वारयेत्पशून्॥२४०॥ (१५३)


(परिवृते) बाड़ से युक्त (पथि) पशुओं के आवागमन के रास्ते में (क्षेत्रे) खेतों में (अथवा) या (ग्राम+अन्तीये) गांव या नगर के समीप वाले पशुस्थानों से पशुओं द्वारा नुकसान पहुंचाने पर (सपालः शतदण्ड+अर्हः) चरवाहा सौ-पण दण्ड का [८.१३६] भागी है, (विपालान् पशून् वारयेत्) किन्तु यदि वे पशु यों ही घूमने वाले अर्थात् बिना पालक के हों तो उन्हें केवल वहाँ से हटा दे॥२४०॥ 


क्षेत्रेष्वन्येषु तु पशुः सपादं पणमर्हति। 

सर्वत्र तु सदो देयः क्षेत्रिकस्येति धारणा॥२४१॥ (१५४) 


(अन्येषु क्षेत्रेषु तु पशुः) उपर्युक्त श्लोक [८.२४०] में वर्णित खेत आदि से भिन्न स्थानों में यदि पशु नुकसान कर दें तो (सपादं पणम्+अर्हति) [चरवाहा या मालिक जिसकी देखरेख में वह नुकसान हुआ है उसको सवा पण दण्ड होना चाहिए (सर्वत्र तु) जहां अधिक या पूरा खेत ही नष्ट कर दिया हो तो (क्षेत्रिकस्य सदः देयः) उस खेत वाले को पूरा हर्जाना देना होगा (इति धारणा) ऐसी न्याय की व्यवस्था है॥२४१॥


क्षेत्रियस्यात्यये दण्डो भागाद्दशगुणो भवेत्। 

ततोऽर्धदण्डो भृत्यानामज्ञानात्क्षेत्रिकस्य तु॥२४३॥ (१५५)


(क्षेत्रियस्य+अत्यये) स्वामी किसान की लापरवाही के कारण पशुओं द्वारा चर जाने पर अन्न की जो हानि हुई हो तो (भागात्) राजा को देय कर से (दशगुणः दण्डः भवेत्) दशगुना दण्ड उस किसान पर होना चाहिए (क्षेत्रिकस्य+अज्ञानात् भृत्यानां तु) यदि किसान की जानकारी के बिना उसके नौकरों से खेत का नुकसान हो जाय तो (ततः+अर्धदण्डः) उससे आधा अर्थात् पांच गुणा दण्ड किसान पर होना चाहिए॥२४३॥


एद्विधानमातिष्ठेद्-धार्मिकः पृथिवीपतिः। 

स्वामिनां च पशूनां च पालानां च व्यतिक्रमे॥२४४॥ (१५६)


(धार्मिकः पृथिवीपतिः) धार्मिक राजा (स्वामिनां पशूनां च पालानां व्यतिक्रमे) स्वामी, पशु और चरवाहा इनमें कोई मतभेद या विवाद उपस्थित हो जाने पर (एतत् विधानम्+आतिष्ठेत्) उपर्युक्त [८.२२९-२४१] विधान के अनुसार निर्णय करे॥२४४॥ 


(१०) सीमा-सम्बन्धी विवाद (२४५-२६५) और उसका निर्णय―


सीमां प्रति समुत्पन्ने विवादे ग्रामयोर्द्वयोः। 

ज्येष्ठे मासि नयेत् सीमां सुप्रकाशेषु सेतुषु॥२४५॥ (१५७)


(द्वयोः ग्रामयोः) दो गांवों या दो पक्षों का (सीमां प्रति विवादे समुत्पत्ने) सीमा-सम्बन्धी विवाद या मुकद्दमा खड़ा हो जाने पर (ज्येष्ठे मासि) ज्येष्ठ के महीने में (सेतुषु सुप्रकाशेषु) सीमा-चिह्नों के स्पष्ट दीखने के बाद (सीमां नयेत्) सीमा का निर्णय करे [यह समय उन विवादों के लिए है जिनका वर्षा आदि अन्य कालों में निर्णय न हो सके]॥२४५॥ 


सीमावृक्षांश्च कुर्वीत न्यग्रोधाश्वत्थकिंशुकान्। 

शाल्मलीन् सालतालांश्च क्षीरिणश्चैव पादपान्॥२४६॥ (१५८)

गुल्मान् वेणूँश्च विविधाञ्छमीवल्लीस्थलानि च। 

शरान् कुब्जकगुल्मांश्च तथा सीमा न नश्यति॥२४७॥ (१५९)


(च) और सीमा को निश्चित करने के लिए राजा (सीमावृक्षान् कुर्वीत) सीमा को बतलाने के चिह्नरूप वृक्षों को लगवाये―(न्यग्रोध) बड़ (+अश्वत्थ) पीपल (किंशकान्) ढाक (शाल्मलीन्) सेमल (साल-तालान्) साल और ताड़वृक्ष (च) और (क्षीरिणः पादपान्+एव) दूध वाले अन्य वृक्षों को [जैसे—गूलर, पिलखन आदि] (गुल्मान्) झाड़वाले पौधों (विविधान् वेणून्) विविध प्रकार के बांसवृक्ष (शमी-वल्ली-स्थलानि) शमी=जांटी (खेजड़ी) तथा अन्य भूमि पर फैलने वाली लताएं और (सरान्) सरकंडे या मूंज के झाड़ (च) और (कुब्जकगुल्मान्) मालती पौधे के झाड़ों को लगवाये (तथा सीमा न नश्यति) इस प्रकार करने से सीमा विवादित या नष्ट नहीं होती, पहचान सुरक्षित रहती है॥२४६-२४७॥ 


तडागान्युदपानानि वाप्यः प्रस्रवणानि च। 

सीमासन्धिषु कार्याणि देवतायतनानि च॥२४८॥ (१६०)


(तडागानि) तालाब (उदपानानि) कुएं (वाप्यः) बावड़ियां (प्रस्रवाणि) नाले (च) तथा (देवतायतनानि) देवस्थान=यज्ञशालाएँ आदि (सीमासन्धिषु कार्याणि) सीमा के मिलने के स्थानों पर बनवाने चाहिएं॥२४८॥


उपच्छन्नानि चाप्यानि सीमालिङ्गानि कारयेत्। 

सीमाज्ञाने नॄणां वीक्ष्य नित्यं लोके विपर्ययम्॥२४९॥ 

अश्मनोऽस्थीनि गोबालाँस्तुषान्भस्मकपालिकाः। करीषमिष्टकाङ्गारांश्छर्करा बालुकास्तथा॥२५०॥

यानि चैवं प्रकाराणि कालाद्भूमिर्न भक्षयेत्। 

तानि सन्धिषु सीमायामप्रकाशानि कारयेत्॥२५१॥ (१६१-१६३)


राजा (लोके) संसार में (सीमाज्ञाने) सीमा के विषय में (नॄणाम्) मनुष्यों का (नित्यं विपर्ययं वीक्ष्य) सदैव मतभेद पाया जाता है, इस बात को देखकर (अन्यानि उपच्छन्नानि सीमालिङ्गानि कारयेत्) दूसरे गुप्त सीमाचिह्नों को भी करवा दे; [जैसे―] (अश्मनः) पत्थर (अस्थीनि) हड्डियां (गोबालान्) गौ आदि पशुओं के बाल (तुषान्) तुस=चावलों के छिलके आदि (भस्म) राख (कपालिकाः) खोपड़ियां (करीषम्) सूखा गोबर (+इष्टकः) ईंटें (+अङ्गरान्) कोयले (शर्करा) पत्थर की रोड़िया=कंकड़ (तथा) तथा (बालुकाः) बालू रेत (च) और (यानि एवं प्रकाराणि) जितने भी इस प्रकार के पदार्थ हैं जिन्हें (कालात् भूमिः न भक्षयेत्) बहुत समय तक भूमि अपने रूप में न मिला सके (तानि) उनको (अप्रकाशानि) गुप्तरूप से अर्थात् जमीन में दबाकर (सीमायां कारयेत्) सीमास्थानों पर रखवादे॥२४९-२५१॥ 


एतैर्लिङ्गैर्नयेत् सीमां राजा विवदमानयोः

पूर्वभुक्त्या च सततमुदकस्यागमेन च॥२५२॥ (१६४)


(राजा) राजा (विवदमानयोः) सीमा के विषय में लड़ने वालों की (एतैः लिङ्गैः) इन [८.२४६-२५१] चिह्नों से (च) तथा (पूर्वभुक्त्या) पहले जो उसका उपभोग कर रहा हो, इस आधार पर (च) और (सततम्+उदकस्य+आगमेन) निरन्तर जल के प्रवाह के आगमन के आधार पर [कि पानी किस ओर से आता है आदि] (सीमां नयेत्) सीमा का निर्णय करे॥२५२॥


यदि संशय एव स्याल्लिङ्गानामपि दर्शने।

साक्षिप्रत्यय एव स्यात् सीमावादविनिर्णयः॥२५३॥ (१६५)


(यदि लिङ्गानाम्+अपि दर्शने) यदि सीमाचिह्नों के देखने पर भी (संशय एव स्यात्) सन्देह रह जाये तो (साक्षीप्रत्यय एव) साक्षियों के प्रमाण से (सीमावाद-विनिर्णयः स्यात्) सीमाविषयक विवाद का निर्णय करे॥२५३॥


ग्रामीयककुलानां च समक्षं सीम्नि साक्षिणः। 

प्रष्टव्याः सीमालिङ्गानि तयोश्चैव विवादिनोः॥२५४॥ (१६६)


राजा (ग्रामीयककुलानां च तयोः विवादिनोः समक्षम्) गांवों के कुलीन पुरुषों और उन वादी-प्रतिवादियों के सामने (सीम्नि) सीमा-स्थान पर (साक्षिणः) साक्षियों से [८.६२-६३] (सीमालिङ्गानि प्रष्टव्याः) सीमा-चिह्नों को पूछे॥२५४॥ 


ते पृष्टास्तु यथा ब्रूयुः समस्ताः सीम्नि निश्चयम्। 

निबध्नीयात् तथा सीमां सर्वांस्तांश्चैव नामतः॥२५५॥ (१६७)


राजा के द्वारा (पृष्टाः) पूछने पर अर्थात् जांच-पड़ताल करने पर (सीम्नि निश्चयम्) सीमा-निश्चय के विषय में (ते समस्ताः यथा ब्रूयुः) वे सब साक्षी और गांव के उपस्थित कुलीन पुरुष जैसे एकमत होकर कहें, स्वीकार करें (तथा सीमां निबध्नीयात्) राजा उसी प्रकार सीमा को निर्धारित कर दे (च) और (तान् सर्वान् एव नामतः) उन उपस्थित सभी साक्षियों एवं पुरुषों के नामों और साक्ष्यों को भी लिखकर रख ले [जिससे पुनः विवाद उपस्थित होने पर यह ज्ञात हो सके कि किन-किन लोगों के समक्ष या गवाही से यह निर्णय हुआ था]॥२५५॥


साक्ष्यभावे तु चत्वारो ग्रामाः सामन्तवासिनः। 

सीमाविनिर्णयं कुर्युः प्रयता राजसन्निधौ॥२५८॥ (१६८)


(साक्षी+अभावे) यदि सीमा-विषय में साक्षियों का भी अभाव हो (तु) तो (सामन्तवासिनः चत्वारः ग्रामाः) समीपवर्ती चार गांव के प्रतिष्ठित व्यक्ति (राजसन्निधौ) राजा या न्यायाधीश के सामने (प्रयताः) पक्षपातरहितभाव से (सीमाविनिर्णयं कुर्युः) सीमा का निर्णय करें अर्थात् सीमा निर्णय के विषय में अपना मत दें॥२५८॥ 


क्षेत्रकूपतडागानामारामस्य गृहस्य च।

सामन्तप्रत्ययो ज्ञेयः सीमासेतुविनिर्णयः॥२६२॥ (१६९)


(क्षेत्र-कूप-तडागानाम्+आरामस्य) खेत, कूआं, तालाब, बगीचा (च) और (गृहस्य) घर की (सीमासेतु-विनिर्णयः) सीमा के चिह्न का निर्णय (सामन्तप्रत्ययः ज्ञेयः) उस गांव के प्रतिष्ठित-धार्मिक निवासियों की साक्षिताओं के आधार पर करना चाहिए॥२६२॥ 


सामान्ताश्चेन्मृषा ब्रूयुः सेतौ विवदतां नॄणाम्। 

सर्वे पृथक्पृथग्दण्ड्या राज्ञा मध्यमसाहसम्॥२६३॥ (१७०)


(नॄणां सेतौ विवदताम्) दो ग्रामवासियों में परस्पर सीमासम्बन्धी विवाद उपस्थित होने पर (सामन्ताः चेत् मृषा ब्रूयुः) गांव के निवासी यदि झूठ या गलत कहें तो (राज्ञा) राजा (पृथक्-पृथक् सर्वे) उनमें से झूठ कहने वाले प्रत्येक को ('मध्यमसाहसम्' दण्ड्याः) 'मध्यमसाहस' अर्थात् पांच सौ पण का [८.१३८] दण्ड दे॥२६३॥


गृहं तडागमारामं क्षेत्रं वा भीषया हरन्। 

शतानि पञ्च दण्ड्यः स्यादज्ञानाद् द्विशतो दमः॥२६४॥ (१७१)


(भीषया) यदि कोई भय दिखाकर (गृहं तडागम्+आरामं वा क्षेत्रं हरन्) घर, तालाब, बगीचा अथवा खेत को लेले, तो राजा उस पर (शतानि पञ्च दण्ड्यः) पांच सौ पणों का दण्ड करे (अज्ञानात् द्विशतः दमः स्यात्) यदि अनजाने में अधिकार करले तो दो सौ पणों का दण्ड दे और उस अधिकृत वस्तु को भी स्वामी को लौटाये॥२६४॥


सीमायामविषह्यायां स्वयं राजैव धर्मवित्।

प्रदिशेद् भूमिमेतेषामुपकारादिति स्थितिः॥२६५॥ (१७२)


(सीमायाम्+अविषह्यायाम्) चिह्नों एवं साक्षियों आदि उपर्युक्त [८.२४५-१६३] उपायों से सीमा के निर्धारित न हो सकने पर (धर्मवित् राजा स्वयम् एव) न्याय का ज्ञाता राजा स्वयं ही (एतेषाम्+उपकारात्) वादी-प्रतिवादी के उपकार अर्थात् हितों को ध्यान में रखकर (भूमिं प्रदिशेत्) भूमि-सीमा को निश्चित कर दे (इति स्थितिः) ऐसी शास्त्रव्यवस्था है॥२६५॥


(११) दुष्ट या कटुवाक्य बोलने-सम्बन्धी विवाद [२६६-२७७] और उसका निर्णय―


एषोऽखिलेनाभिहितो धर्मः सीमाविनिर्णये। 

अत ऊर्ध्वं प्रवक्ष्यामि वाक्पारुष्यविनिर्णयम्॥२६६॥ (१७३)


(एषः) यह [८.२४५-२६५] (सीमाविनिर्णये) सीमा के निर्णय करने के विषय में (धर्मः) न्यायविधान (अखिलेन+अभिहितः) पूर्णरूप से कहा। (अतः+ऊर्ध्वम्) इसके बाद अब (वाक्पारुष्य-विनिर्णयम्) कठोर और दुष्टवचन बोलने के विषय में निर्णय (प्रवक्ष्यामि) कहूँगा―॥२६६॥ 


श्रुतं देशं च जातिं च कर्म शारीरमेव च।

वितथेन ब्रुवन् दर्पाद्दाप्यः द्विशतं दमम्॥२७३॥ (१७४)


कोई मनुष्य किसी मनुष्य के (श्रुतम्) विद्या (देशम्) देश (जातिम्) वर्ण (च शारीरम् एव कर्म) और शरीर-सम्बन्धी कर्म के विषय में (दर्पात्) घमण्ड में आकर (वितथेन ब्रुवन्) झूठी निन्दा अथवा अपवचनों से अपमानित करे, उसे (द्विशतं दमं दाप्यः) दो सौ पण दण्ड देना चाहिए॥२७३॥


काणं वाऽप्यथवा खञ्जमन्यं वाऽपि यथाविधम्।

तथ्येनापि ब्रुवन् दाप्यो दण्डं कार्षापणावरम्॥२७४॥ (१७५)


किसी (काणम्) काने को (अपि वा) अथवा (खञ्जम्) लंगड़े को (वा) अथवा (तथाविधम्+अपि) इसी प्रकार के अन्य विकलांगों को (तथ्येन+अपि ब्रुवन्) वास्तव में वैसा होते हुए भी किसी को काना, लंगड़ा आदि कहने पर (कार्षापणावरं दण्डं दाप्यः) कम से कम एक कार्षापण दण्ड [८.१३६] करना चाहिए॥२७४॥


मातरं पितरं जायां भ्रातरं तनयं गुरुम्। 

आक्षारयञ्छतं दाप्यः पन्थानं चाददद् गुरोः॥२७५॥ (१७६)


(मातरं पितरं जायां भ्रातरं तनयं गुरुम्) माता, पिता, पत्नी, भाई, बेटा, गुरु इनके ऊपर (आक्षारयन्) मिथ्या दोष लगाकर निन्दा करने वाले पर (च) और (गुरोः) गुरु के लिए (पन्थानम्+अदद्त्) अहंकारपूर्वक रास्ता न देने पर (शतं दाप्यः) सौ पण दण्ड होना चाहिए॥२७५॥


(१२) दण्ड से घायल करने या मारने सम्बन्धी विवाद [२७८-३००] और उसका निर्णय―


एष दण्डविधिः प्रोक्तो वाक्पारुष्यस्य तत्त्वतः। 

अत ऊर्ध्वं प्रवक्ष्यामि दण्डपारुष्यनिर्णयम्॥२७८॥ (१७७)


(एषः) यह [८.२६५-२७६] (तत्त्वतः) ठीक-ठीक (वाक्पारुष्यस्य) कठोर वचन या दुष्ट वचन बोलने का (दण्डविधिः) दण्डविधान (प्रोक्तः) कहा (अतः+ऊर्ध्वम्) इसके पश्चात् अब (दण्डपारुष्यनिर्णयम्) कठोर दण्ड से घायल करना या मारना अथवा दण्डे से कठोरतापूर्वक मारपीट करने विषयक निर्णय को (प्रवक्ष्यामि) कहूँगा॥२७८॥ 


मनुष्याणां पशूनां च दुःखाय प्रहृते सति।

यथा यथा महद् दुःखं दण्डं कुर्यात्तथा तथा॥२८६॥ (१७८)


(मनुष्याणां च पशूनाम्) मनुष्य और पशुओं पर (दुःखाय प्रहृते सति) दुःख देने के लिए दण्ड से प्रहार करने पर (यथा यथा महत् दुःखम्) जैसा-जैसा पीड़ित को अधिक कष्ट हो (तथा तथा दण्डं कुर्यात्) उसी के अनुसार अधिक और कम कारावास तथा अर्थ दण्ड करे॥२८६॥


अङ्गावपीडनायां च व्रणशोणितयोस्तथा।

समुत्थानव्ययं दाप्यः सर्वदण्डमथापि वा॥२८७॥ (१७९)


(अङ्ग+अवपीडनायाम्) किसी अंग के टूटने, कटने आदि पर (तथा) और (व्रण+शोणितयोः) घाव करने तथा रक्त बहाने पर (समुत्थानव्ययं दाप्यः) जब तक रोगी पहले जैसा ठीक न हो जाये तब तक सम्पूर्ण औषध आदि का तथा अन्य सम्पूर्ण व्यय मारने वाले से दिलवाये (अथापि वा) और साथ ही (सर्वदण्डम्) उसे पूर्ण दण्ड भी दे॥२८७॥ 


द्रव्याणि हिंस्याद्यो यस्य ज्ञानतोऽज्ञानतोऽपि वा।

स तस्योत्पादयेत् तुष्टिं राज्ञे दद्याच्च तत्समम्॥२८८॥ (१८०)


(यः) जो कोई (यस्य) जिस किसी के (ज्ञानतः अपि वा अज्ञानतः) जानकर अथवा अनजाने में (द्रव्याणि हिंस्यात्) प्रहार करके वस्तुओं को नष्ट कर दे तो (सः) वह अपराधी (तस्य तुष्टिम्+उत्पादयेत्) उसके मालिक को वस्तु या धन आदि देकर सन्तुष्ट करे (च) तथा (तत् समम् राज्ञे दद्यात्) उसके बराबर दण्ड रूप में राजकोष में राजा को भी दे॥२८८॥ 


(१३) चोरी का विवाद (३०१-३४३) और उसका निर्णय


एषोऽखिलेनाभिहितो दण्डपारुष्यनिर्णयः। 

स्तेनस्यातः प्रवक्ष्यामि विधिं दण्डविनिर्णये॥३०१॥ (१८१)


(एषः) यह [८.२७८-२८८] (दण्डपारुष्यनिर्णयः) दण्डे से कठोर मारपीट करने का निर्णय (अखिलेन+अभिहितः) पूर्णरूप से कहा। (अतः) इसके पश्चात् अब (स्तेनस्य दण्ड-विनिर्णये) चोर के दण्ड का निर्णय करने की (विधिं प्रवक्ष्यामि) न्याय विधि कहूँगा―॥३०१॥ 


चोरों के निग्रह से राष्ट्र की वृद्धि―


परमं यत्नमातिष्ठेत् स्तेनानां निग्रहे नृपः। 

स्तेनानां निग्रहादस्य यशो राष्ट्रं च वर्धते॥३०२॥ (१८२)


(नृपः) राजा (स्तेनानां निग्रहे) चोरों को रोकने के लिए (परमं यत्नम्+आतिष्ठेत्) अधिक यत्न करे, क्योंकि (स्तेनानां निग्रहात्) चोरों पर नियन्त्रण करने से (अस्य) इस राजा के (यशः च राष्ट्र वर्धते) यश और राष्ट्र की वृद्धि होती है॥३०२॥ 


चोरों से प्रजा की रक्षा श्रेष्ठ कर्त्तव्य है―


अभयस्य हि यो दाता स पूज्यः सततं नृपः। 

सत्रं हि वर्धते तस्य सदैवाभयदक्षिणम्॥३०३॥ (१८३)


(यः नृपः अभयस्य हि दाता) जो राजा प्रजाओं को अभय प्रदान करने वाला होता है अर्थात् जिस राजा के राज्य में प्रजाओं को चोर आदि से किसी प्रकार का भय नहीं होता (सः सततं पूज्यः) वह सदैव पूजित होता है—प्रजाओं की ओर से उसे सदा आदर मिलता है, और (तस्य) उसका (अभयदक्षिणं सत्रं हि) प्रजा को अभय की दक्षिणा देने वाला यज्ञ-रूपी राज्य (सदैव वर्धते) सदा बढ़ता ही जाता है॥३०३॥ 


रक्षन्धर्मेण भूतानि राजा वध्यांश्च घातयन्। 

यजतेऽहरहर्यज्ञैः सहस्रशतदक्षिणैः॥३०६॥ (१८४)


(धर्मेण भूतानि रक्षन्) धर्मपूर्वक=न्यायपूर्वक प्रजाओं की रक्षा करता हुआ (च) और (वध्यान् घातयन्) दण्डनीय अपराधियों को दण्ड देता हुआ और या वध के योग्य लोगों का वध करता हुआ (राजा) राजा (अहः+अहः सहस्त्र-शत-दक्षिणैः यज्ञैः यजते) यह समझो कि प्रतिदिन हजारों-सैंकड़ों दक्षिणाओं से युक्त यज्ञों को करता है अर्थात् इतने बड़े यज्ञों को करने जैसा पुण्यकार्य करता है॥३०६॥ 


प्रजा की रक्षा किये बिना कर लेनेवाला राजा पापी होता है―


योऽरक्षन् बलिमादत्ते करं शुल्कं च पार्थिवः। 

प्रतिभागंच दण्डं च सः सद्यो नरकं व्रजेत्॥३०७॥ (१८५)


(यः पार्थिवः) जो राजा (अरक्षन्) प्रजाओं की रक्षा किये बिना उनसे (बलिम्) छठा भाग अन्नादि (करम्) कर=टैक्स (शुल्कम्) महसूल (प्रतिभागम्) चुंगी (च) और (दण्डम्) जुर्माना (आदत्ते) ग्रहण करता है (सः सद्यः नरकं व्रजेत्) वह शीघ्र ही दुःख को प्राप्त होता है अर्थात् प्रजाओं का ध्यान न रखने के कारण उनके असहयोग अथवा विरोध से किसी-न-किसी कष्ट से ग्रस्त हो जाता है॥३०७॥


अरक्षितारं राजानं बलिषड्भागहारिणम्। 

तमाहुः सर्वलोकस्य समग्रमलहारकम्॥३०८॥ (१८६)


(अरक्षितारम्) प्रजाओं की रक्षा न करने वाले और (बलिषड्भागहारिणम्) 'बलि' के रूप में छठा भाग ग्रहण करने वाले (तं राजानम्) ऐसे राजा को (सर्वलोकस्य समग्रमलहारकम्+आहुः) सब प्रजाओं की निन्दा को ग्रहण करने वाला कहा है अर्थात् सारी प्रजाएँ ऐसे राजा की सभी प्रकार से निन्दा करती हैं॥३०८॥


अनपेक्षितमर्यादं नास्तिकं विप्रलुम्पकम्।

अरक्षितारमत्तारं नृपं विद्यादधोगतिम्॥३०९॥ (१८७)


(अनपेक्षितमर्यादम्) शास्त्रोक्त मर्यादा के अनुसार न चलने वाले (नास्तिकम्) वेद और ईश्वर में अविश्वास करने वाले (विप्रलुम्भकम्) लोभ आदि के वशीभूत (अरक्षितारम्) प्रजाओं की रक्षा न करने वाले, और (अत्तारम्) कर आदि का धन प्रजाओं के हित में न लगाकर स्वयं खा जाने वाले (नृपम्) राजा को (अधोगतिं विद्यात्) निकृष्ट समझना चाहिए अथवा यह समझना चाहिए कि शीघ्र ही उसकी अवनति या पतन हो जायेगा॥३०९॥ 


अधार्मिकं त्रिभिर्न्यायैर्निगृह्णीयात् प्रयत्नतः।

निरोधनेन बन्धेन विविधेन वधेन च॥३१०॥ (१८८)


इसलिए राजा (निरोधनेन) निरोध=कारावास में बन्द करना (बन्धेन) बन्धन=हथकड़ी, बेड़ी आदि लगाना (च) और (विविधेन वधेन) विविध प्रकार के वध=ताड़ना, अंगच्छेदन, मारना आदि (त्रिभिः न्यायैः) इन तीन प्रकार के उपायों से (प्रयत्नतः) यत्नपूर्वक (अधार्मिकं निगृह्णीयात्) चोर आदि दुष्ट अपराधी को वश में करे॥३१०॥ 


निग्रहेण हि पापानां साधूनां संग्रहेण च।

द्विजातय इवेज्याभिः पूयन्ते सततं नृपाः॥३११॥ (१८९) 


(हि) क्योंकि (पापानां निग्रहेण) पापी=दुष्टों को वश में करने और दण्ड देने से (च) तथा (साधूनां संग्रहेण) श्रेष्ठ लोगों की सुरक्षा और संवृद्धि करने से (नृपाः) राजा लोग (द्विजातयः इज्याभिः इव सततं पूयन्ते) जैसे द्विजवर्ण वाले व्यक्ति यज्ञों को करके पवित्र होते हैं ऐसे राजा भी पवित्र अर्थात् पुण्यवान् और निर्मल यशस्वी होते हैं अर्थात् प्रजारक्षण भी क्षत्रिय का एक यज्ञ है, इसको सत्यनिष्ठा से करके राजा भी पुण्यवान् होता है॥३११॥


चोर की स्वयं प्रायश्चित्त की विधि―


राजा स्तेनेन गन्तव्यो मुक्तकेशेन धावता। 

आचक्षाणेन तत् स्तेयमेवंकर्मास्मि शाधि माम्॥३१४॥ (१९०)


[यदि चोरी करने के बाद स्वयं उस अपराध को अनुभव कर लेता है तो उसके प्रायश्चित्त और उससे मुक्ति के लिए] (स्तेनेन) चोर को चाहिए कि वह (मुक्तकेशेन धावता) बाल खोलकर दौड़ता हुआ (तत् स्तेयम्+आचक्षाणेन) उसने जो चोरी की है उसको कहता हुआ 'कि मैंने अमुकक चोरी की है, अमुक चोरी की है,' आदि (राजा गन्तव्यः) राजा या न्यायाधीश के पास जाना चाहिए, और कहे कि (एवंकर्मा+अस्मि) 'मैंने ऐसा चोरी का काम किया है, मैं अपराधी हूं (मांशाधि) मुझे दण्ड दीजिए'॥१३४॥

 

स्कन्धेनादाय मुसलं लगुडं वाऽपि खादिरम्।

शक्तिं चोभयतस्तीक्ष्णामायसं दण्डमेव वा॥३१५॥ (१९१)


(स्कन्धेन मुसलम् अपि वा खादिरं लगुडम्) चोर को कन्धे पर मुसल अथवा खैर का दंड, (उभयतः तीक्ष्णां शक्तिम्) दोनों ओर से तेज धार-वाली बरछी (वा) अथवा (आयसं दण्डम् एव) लोहे का दण्ड ही रखकर [राजा या न्यायाधीश के पास जाना चाहिए और कहे कि 'मैं चोर हूं, मुझे दण्ड दीजिए']॥३२५॥ 


शासनाद् वा विमोक्षाद् वा स्तेनः स्तेयाद् विमुच्यते। 

अशासित्वा तु तं राजा स्तेनस्याप्नोति किल्बिषम्॥३१६॥ (१९२)


(शासनात्) दण्ड पाकर (वा) या (विमोक्षात्) [स्वयं प्रायश्चित्त करने के बाद] राजा के द्वारा क्षमा कर दिये जाने पर (स्तेनः) चोर (स्तेयात् विमुच्यते) चोरी के अपराध से मुक्त हो जाता है (तम् अशासित्वा तु) चोर को दण्ड न देने पर (राजा स्तेनस्य किल्बिषम् आप्नोति) राजा को चोर के बदले निन्दा=बुराई मिलती है अर्थात् फिर प्रजाएं उस चोर के स्थान पर राजा को चोरी का अधिक दोष देती हैं॥३१६॥


पापियों के संग में पाप―


अन्नादे भ्रूणहा मार्ष्टि पत्यौ भार्यापचारिणी।

गुरौ शिष्यश्च याज्यश्च स्तेनो राजनि किल्विषम्॥३१७॥ (१९३)


(भ्रूणहा अन्नादे मार्ष्टि) भ्रूणहत्या करने वाला उसके यहां भोजन करने वाले को भी निन्दा का पात्र बना देता है अर्थात् जैसे भ्रूणहत्यारे को निन्दा मिलती है वैसे ही उसके यहां अन्न खाने वाले को भी उसके कारण निन्दा मिलती है (अपचारिणी भार्या पत्यौ) व्यभिचारी स्त्री की बुराई या निन्दा उसके पति को मिलती है (शिष्यः गुरौ) बुरे शिष्य की बुराई उसके गुरु को मिलती है (च) और (याज्यः) यजमान की बुराई उसके यज्ञ कराने वाले ऋत्विक् गुरु को मिलती है (स्तेनः किल्बिषं राजनि) इसी प्रकार दण्ड न देने पर चोर और अपराधी की बुराई=निन्दा राजा को मिलती है॥३१७॥


राजाओं को दण्ड प्राप्त करके निर्दोषता―


राजभिः कृतदण्दास्तु कृत्वा पापानि मानवाः। 

निर्मला: स्वर्गमायान्ति सन्तः सुकृतिनो यथा॥३१८॥ (१९४)


(मानवाः पापानि कृत्वा) मनुष्य पाप=अपराध करके (राजभिः कृतदण्डाः तु) पुनः राजाओं या न्यायाधीशों से दण्डित होकर अथवा राजा द्वारा किये गये दण्डरूप प्रायश्चित्त को करके (निर्मलाः) पवित्र=दोषमुक्त होकर (स्वर्गम्+आयान्ति) सुखी शान्त जीवन को प्राप्त करते हैं (यथा सुकृतिनः सन्तः) जैसे अच्छे कर्म करने वाले श्रेष्ठ लोग सुखी रहते हैं। अभिप्राय यह है कि इस प्रकार दण्ड पाकर अपराधी दोषमुक्त होकर सुखपूर्वक रहता है तथा प्रायश्चित्त करने पर उस पापरूप अपराध के संस्कार क्षीण हो जाते हैं और दोषी होने की भावना नहीं रहती, उससे तथा पुनः श्रेष्ठ कर्मों में प्रवृत्ति होने से मनुष्य सन्तों की तरह मानसिक सुख-शान्ति को प्राप्त करते हैं॥३१८॥


विभिन्न चोरियों की दण्डव्यवस्था―


यस्तु रज्जु घटं कूपाद्धरेद्भिन्द्याच्च यः प्रपाम्। 

स दण्डं प्राप्नुयान्माषं तच्च तस्मिन्समाहरेत्ः॥३१९॥ (१९५)


(यः तु) जो व्यक्ति (कूपात्) कुए से (रज्जूं घटं हरेत्) रस्सी या घड़ा चुरा ले (च) और (यः) जो (प्रपां भिन्द्यात्) प्याऊ को तोड़े (सः) वह (माषं दण्डं प्राप्नुयात्) एक सोने का ‘माष' [८.१३४] दण्ड का भागी होगा (च) तथा (तत् तस्मिन् समाहरेत्) तोड़ा गया वह सब सामान यथावत् लाकर दे॥३१९॥ 


धान्यं दशभ्यः कुम्भेभ्यो हरतोऽभ्यधिकं वधः। शेषेऽप्येकादशगुणं दाप्यस्तस्य च तद्धनम्॥३२०॥ (१९६)


(दशभ्यः कुम्भ्यः अधिकं धान्यं हरतः) दश कुम्भ=बड़े घड़ों से अधिक धान्य=अन्नादि चुराने पर (वधः) चोर को शारीरिक दण्ड मिलना चाहिए (शेषे तु) दश कुम्भ तक धान्य चुराने पर (एकादशगुणं दाप्यः) चुराये धान्य से ग्यारह गुना जुर्माना करना चाहिए (तस्य तत् धनं च) और उस व्यक्ति का चुराया धन वापिस दिलवा दे॥३२०॥ 


तथा धरिममेयानां शतादभ्यधिके वधः।

सुवर्णरजतादीनामुत्तमानां च वाससाम्॥३२१॥ (१९७)


(तथा) इसी प्रकार (धरिममेयानाम्) धरिम=काँटे से, मेय=तोले जाने वाले (सुवर्ण-रजत+आदीनाम्) सोना, चाँदी आदि पदार्थों के १०० पल [८.१३५] से अधिक चुराने पर (च) और (उत्तमानां वाससाम्) उत्तम कोटि के कपड़े (शतात्+अभ्यधिके) सौ से अधिक चुराने पर (वधः) शारीरिक दण्ड से दण्डित करे और वह धन भी वापिस दिलाये॥३२१॥


पञ्चाशतस्वभ्यधिके हस्तच्छेदनमिष्यते। 

शेषे त्वेकादशगुणं मूल्याद्दण्डं प्रकल्पयेत्॥३२२॥ (१९८)


(पंचाशतः तु+अभ्यधिके) [उपर्युक्त ८.३२१ वस्तुओं के] पचास से अधिक सौ तक चुराने पर (हस्तच्छेदनम्+इष्यते) हाथ काटने का दण्ड देना चाहिए (शेषे तु) पचास से कम चुराने पर राजा (मूल्यात् एकादशगुणं दण्डं प्रकल्पयेत्) मूल्य से ग्यारह गुणा दण्ड करे और वह वस्तु वापिस दिलवाये॥३२२॥


पुरुषाणां कुलीनानां नारीणां च विशेषतः। 

मुख्यानां चैव रत्नानां हरणे वधमर्हति॥३२३॥ (१९९)


(कुलीनानां पुरुषाणाम्) कुलीन पुरुषों (च) और (विशेषतः नारीणाम्) विशेषरूप से स्त्रियों का (हरणे) अपहरण करने पर (च) तथा (मुख्यानाम् एव रत्नानाम्) मुख्य हीरे आदि रत्नों की चोरी करने पर (वधम्+अर्हति) शारीरिक दण्ड [ताड़ना से प्राणवध तक देना] चाहिए॥३२३॥ 


महापशूनां हरणे शस्त्राणामौषधस्य च।

कालमासाद्य कार्यं च दण्डं राजा प्रकल्पयेत्॥३२४॥ (२००)


(महापशूनाम्) हाथी, घोड़े आदि बड़े पशुओं के (शस्त्राणाम्) शस्त्रास्त्रों के (च) और (औषधस्य) ओषधियों के (हरणे) चुराने पर (कालं च कार्यम् आसाद्य) समय [परिस्थति] और चोरी के कार्य की गम्भीरता को देखकर (राजा दण्डं प्रकल्पयेत्) राजा और न्यायाधीश अपने विवेक से चोर को दण्ड दे॥३२४॥


साहस और चोरी का लक्षण―


स्यात् साहसं त्वन्वयवत् प्रसभं कर्म यत्कृतम्।

निरन्वयं भवेत्स्तेयं हृत्वाऽपव्ययने च यत्॥३३२॥ (२०१)


(अन्वयवत्) किसी वस्तु के स्वामी के सामने (प्रसभं यत् कर्म कृतम्) बलात् जो लूट, डाका, हत्या, बलात्कार आदि कर्म किया जाता है ('साहसम्' स्यात्) वह साहस=डाका डालना या बलात्कार कर्म कहलाता है (निरन्वयम्) स्वामी के पीछे से छुपाकर किसी वस्तु को लेना (च) और (यत् हृत्वा+अपव्ययने) जो किसी वस्तु को [सामने या परोक्ष में] लेकर मुकरना या चुराकर भाग जाना है (स्तेयं भवेत्) वह 'चोरी' कहलाती है॥३३२॥


डाकू, चोरों के अंगों का छेदन―


येन येन यथाङ्गेन स्तेनो नृषु विचेष्टते। 

तत्तदेव हरेत्तस्य प्रत्यादेशाय पार्थिवः॥३३४॥ (२०२)


(स्तेनः) चोर (यथा) जिस प्रकार (येन येन+अङ्गेन) जिस-जिस अङ्ग से (नृषु) मनुष्यों में (विचेष्टते) विरुद्ध चेष्टा करता है (अस्य तत्-तत्+एव) उस-उस अंग को (पार्थिवः) राजा (प्रत्यादेशाय) सब मनुष्यों को अपराध न करने की चेतावनी देने के लिए (हरेत्) हरण अर्थात् छेदन कर दे॥३३४॥


माता-पिता, आचार्य आदि सभी राजा द्वारा दण्डनीय हैं―


पिताऽचार्यः सुहृन्माता भार्या पुत्रः पुरोहितः। 

नादण्ड्यो नाम राज्ञोऽस्तियः स्वधर्मे न तिष्ठति॥३३५॥ (२०३)


(पिता+आचार्यः सुहृत् माता) पिता, आचार्य=गुरु, मित्र, माता (भार्या पुत्रः पुरोहितः) पत्नी, पुत्र, पुरोहित आदि कोई भी (यः स्वधर्मे न तिष्ठति) जो कर्त्तव्य और कानून का पालन नहीं करता (राज्ञः अदण्ड्यः नाम न अस्ति) राजा या न्यायाधीश द्वारा अवश्य दण्डनीय होता है अर्थात् सबको अपराध करने पर दण्ड अवश्य देना चाहिये, किसी कारण से दण्ड से छोड़ना नहीं चाहिए॥३३५॥


अपराध करने पर राजा को साधारण जन से सहस्रगुणा दण्ड हो―


कार्षापणं भवेद् दण्ड्यो यत्रान्यः प्राकृतो जनः। 

तत्र राजा भवेद् दण्ड्यः सहस्रमिति धारणा॥३३६॥ (२०४)


(यत्र) “जिस अपराध में (अन्यः प्राकृतः जनः) किसी साधारण मनुष्य को (कार्षापणः दण्ड्यः भवेत्) एक पैसा दण्ड किया जाता हो तो (तत्र) उसी प्रकार के अपराध में (राजा सहस्रं दण्ड्यः भवेत्) राजा को एक सहस्र पैसे का दण्ड दिया जाने (इति धारणा) ऐसी न्याय की व्यवस्था है॥"३३६॥


उच्चवर्ण के व्यक्तियों को साधारण जनों से अधिक दण्ड दे―


अष्टापाद्यन्तु शूद्रस्य स्तेये भवति किल्बिषम्। 

षोडशैव तु वैश्यस्य द्वात्रिंशत् क्षत्रियस्य च॥३३७॥ 


ब्राह्मणस्य चतुःषष्टिः पूर्णं वापि शतं भवेत्। 

द्विगुणा वा चतुःषष्टिस्तद्दोषगुणविद्धि सः॥३३८॥ (२०५-२०६)


उसी प्रकार (स्तेये) चोरी आदि अपराधों में (तु शुद्रस्य किल्बिषम् अष्टापाद्यं भवति) यदि किसी विवेकी शूद्र को साधारण जन के एक पैसे के दण्ड [८.३३६] की तुलना में आठ गुना अर्थात् आठ पैसे दण्ड दिया जाता है तो उसी अपराध में (वैश्यस्य तु षोडश+एव) वैश्य को सोलह गुना अर्थात् शूद्र से दो गुना सोलह पैसे दण्ड दिया जाये, (च) और (क्षत्रियस्य द्वात्रिंशत्) उसी अपराध में क्षत्रिय को बत्तीस गुना अर्थात् शूद्र से चार गुना और वैश्य से दो गुना अधिक दण्ड दिया जाये, तथा (ब्राह्मणस्य चतुः षष्टिः) उसी अपराध में ब्राह्मण को चौंसठ गुना अर्थात् शूद्र से आठ गुना अधिक, वैश्य से चार गुना और क्षत्रिय से दो गुना अधिक दण्ड दिया जाये, (वा) अथवा (पूर्णं शतम् अपि भवेत्) पूरा सौ गुना अधिक दण्ड दें, (वा) अथवा (द्विगुणा चतुःषष्टिः) चौंसठ का भी दो गुना अर्थात् एक-सौ अट्ठाईस गुना तक अधिक दण्ड दें (हि) क्योंकि (सः) ब्राह्मण वर्ण का व्यक्ति (तत् दोष-गुणवित्) किये जाने वाले उस अपराध के दोषों और जनता पर पड़ने वाले उसके दुष्प्रभाव को भलीभांति तथा अन्य वर्णों से अधिक जानता है, क्योंकि वह विद्वान् और समाज में सर्वोच्च प्रतिष्ठा पाता है, अतः जो जितना ज्ञानी होकर अपराध करता है, वह उतना ही अधिक दण्ड का पात्र है॥३३७-३३८॥


अनेन विधिना राजा कुर्वाणः स्तेननिग्रहम्। 

यशोऽस्मिन् प्राप्नुयाल्लोके प्रेत्य चानुत्तमं सुखम्॥३४३॥ (२०७)


(राजा) राजा (अनेन विधिना) इस उपर्युक्त [८.३०१-३३८] विधि से (स्तेननिग्रहं कुर्वाणः) चोरों को नियंत्रित एवं दण्डित करता हुआ (अस्मिन् लोके यशः) इस जन्म में या लोक में यश को (च) और (प्रेत्य) परजन्म में (अनुत्तमं सुखम्) अच्छे सुख को (प्राप्नुयात्) प्राप्त करता है॥३४३॥


(१४) साहस=डाका, हत्या आदि अत्याचारपूर्ण अपराधों का निर्णय [३४४-३५१] 


ऐन्द्रं स्थानमभिप्रेप्सुर्यशश्चाक्षयमव्ययम्। 

नोपेक्षेत क्षणमपि राजा साहसिकं नरम्॥३४४॥ (२०८)


(ऐन्द्रं स्थानं च अक्षयम् अव्ययं यशः अभिप्रेप्सुः राजा) सर्वोच्च शासक का पद और कभी कम और नष्ट न होने वाले यश को चाहने वाला राजा (साहसिकं नरम्) डाकू और अपहर्ता अत्याचार करने वाले मनुष्य की (क्षणम्+अपि न+उपेक्षेत) एक क्षण भी उपेक्षा न करे अर्थात् तत्काल उनको पकड़कर दण्डित करे॥३४४॥ 'न


साहसी व्यक्ति चोर से अधिक पापी―


वाग्दुष्टात् तस्कराच्चैव दण्डेनैव च हिंसतः। 

साहसस्य नरः कर्त्ता विज्ञेयः पापकृत्तमः॥३४५॥ (२०९)


(वाक्-दुष्टात् च तस्करात् एव) दुष्ट वचन बोलने वाले और चोर से भी (दण्डेन हिंसतः एव) दण्डे से घातक प्रहार करने वाले से भी (साहसस्य कर्ता नरः) डकैती, अपहरण, बलपूर्वक अत्याचार करने वाला मनुष्य (पापकृत्तमः विज्ञेयः) अत्यधिक पापी होता है और उतना ही अधिक दण्डनीय होता है॥३४५॥ 


डाकू को दण्ड न देने राजा विनाश को प्राप्त करता है―


साहसे वर्तमानं तु यो मर्षयति पार्थिवः। 

स विनाशं व्रजत्याशु विद्वेषं चाधिगच्छति॥३४६॥ (२१०)


(सः पार्थिवः) जो राजा (साहसे वर्तमानं तु मर्षयति) साहस के कामों में संलग्न पुरुष को दण्ड न देकर सहन करता है (सः आशु विनाशं व्रजति) वह राजा शीघ्र ही नाश को प्राप्त होता है (च) और (विद्वेषम्+अधिगच्छति) प्रजा उससे द्वेष-घृणा करने लगती है॥३४६॥


मित्र या धन के कारण साहसी को क्षमा न करे―


न मित्रकारणाद् राजा विपुलाद् वा धनागमात्। 

समुत्सृजेत् साहसिकान् सर्वभूतभयावहान्॥३४७॥ (२११)


(राजा) राजा (मित्रकारणात्) अपराधी के मित्र होने के कारण से, (वा) अथवा (विपुलात् धन-आगमात्) दण्ड न देने के बदले में बहुत सारा धन मिलने की संभावना के कारण भी (सर्वभूतभय-आवहान्) सभी लोगों को भयभीत करने वाले (साहसिकान्) अत्याचारी लोगों को (न समुत्सृजेत्) कारावास अथवा दण्ड दिये बिना न छोड़े॥३४७॥


आततायी को मारने में अपराध नहीं―


गुरुं वा बालवृद्धौ वा ब्राह्मणं वा बहुश्रुतम्।

आततायिनमायान्तं हन्यादेवाविचारयन्॥३५०॥

नाततायिवधे दोषो हन्तुर्भवति कश्चन। 

प्रकाशं वाऽप्रकाशं वा मन्युस्तन्मन्युमृच्छति॥३५१॥ (२१२-२१३)


(गुरुं वा बाल-वृद्धौ वा ब्राह्मणं वा बहुश्रुतम्) गुरु को, किसी बालक को, अथवा किसी वृद्ध को, अथवा किसी महान् पंडित ब्राह्मण को (आततायिनम् आयान्तम्) अपने धर्म को छोड़ अधर्म के मार्ग को अपनाकर अत्याचार करने की भावना से अपनी ओर प्रहार करने को उद्यत देखे तो (अविचारयन् हन्यात् एव) 'उसकी हत्या में धर्म है या अधर्म है' आदि बातों पर विचार किये बिना तत्काल उस पर प्रहार कर दे अथवा उसका वध कर दे अर्थात् पहले आत्म रक्षा करे, फिर अन्य बातों पर विचार करे॥३५०॥


क्योंकि (प्रकाशं वा अप्रकाशम्) सबके सामने अथवा एकान्त में (आततायिवधे) अत्याचारी के वध करने पर (हन्तुः) वध या घायलकर्त्ता को (कश्चनः दोषः न भवति) कोई अपराध नहीं लगता, क्योंकि उस परिस्थिति में (तं मन्युं मन्युः ऋच्छति) अत्याचार करने के लिए प्रकट हुए क्रोध को आत्मरक्षक क्रोध मारता है अर्थात् उस समय किसी के वध की इच्छा से वध नहीं किया जाता अपितु वधार्थ उद्यत क्रोध को रोकना प्रयोजन होता है॥३५१॥


[१५] स्त्री-संग्रहणसम्बन्धी विवाद तथा उसका निर्णय [३५२-३८७]―


परदाराभिमर्शेषु प्रवृत्तान् नॄन् महीपतिः। 

उद्वेजनकरैर्दण्डश्छिन्नयित्वा प्रवासयेत्॥३५२॥ (२१४)


(परदारा+अभिमर्शेषु प्रवृत्तान् नॄन्) परस्त्रियों से बलात्कार और व्यभिचार करने में संलग्न पुरुषों को (महीपतिः) राजा (उद्वेजनकरैः दण्डैः छिन्नयित्वा) व्याकुलता पैदा करने वाले दण्डों से दण्डित करके (प्रवासयेत्) देश से निकाल दे॥३५२॥ 


परस्य पत्न्या पुरुषः सम्भाषां योजयन् रहः। 

पूर्वमाक्षारितो दोषैः प्राप्नुयात् पूर्वसाहसम्॥३५४॥ (२१५)


(पूर्वं दोषैः आक्षारितः पुरुषः) जो व्यक्ति पहले परस्त्री-गमन-सम्बन्धी दोषों से अपराधी सिद्ध हो चुका है (रहः परस्य पत्न्या संभाषां योजयन्) यदि वह एकान्त स्थान में पराई स्त्री के साथ कामुक बातचीत की योजना में लगा मिले तो (पूर्वसाहसं प्राप्नुयात्) उसको 'पूर्वसाहस' [८.१३८] का दण्ड देना चाहिए॥३५४॥


यस्त्वनाक्षारितः पूर्वमभिभाषेत कारणात्। 

न दोषं प्राप्नुयात् किंचिन्न हि तस्य व्यतिक्रमः॥३५५॥ (२१६)


(यः तु पूर्वम्+अनाक्षारितः) किन्तु जो पहले ऐसे किसी अपराध में अपराधी सिद्ध नहीं हुआ है, यदि वह (कारणात् अभिभाषेत) किसी परस्त्री से उचित कारणवश बातचीत करे तो (किंचित् दोषं न प्राप्नुयात्) किसी दोष का भागी नहीं होता (हि) क्योंकि (तस्य न व्यतिक्रमः) उसका कोई मर्यादा-भंग का दोष नहीं बनता॥३५५॥


स्त्रीसंग्रहण की परिभाषा―


उपचारक्रियाः केलिः स्पर्शो भूषणवाससाम्।

सहखट्वासनं चैव सर्वं संग्रहणं स्मृतम्॥३५७॥ (२१७)


विषयगमन के लिए (उपचारक्रिया) एक-दूसरे को आकर्षित करने के लिए माला, सुगन्ध आदि शृंगारिक वस्तुओं का आदान-प्रदान करना (केलिः) विलासक्रीड़ाएं=कामुक स्पर्श, छेड़खानी आदि (भूषणवाससां स्पर्शः) आभूषण और कपड़ों आदि का अनुचित स्पर्श (च) और (सह खट्वा+आसनम्) साथ मिलकर अर्थात् सटकर एकान्त में खाट आदि पर बैठना, साथ सोना, सहवास करना आदि (सर्वं संग्रहणं स्मृतम्) ये सब बातें 'संग्रहण'= विषयगमन में मानी गयी हैं॥३५७॥ 


स्त्रियं स्पृशेददेशे यः स्पृष्टो वा मर्षयेत्तया।

परस्परस्यानुमते सर्वं संग्रहणं स्मृतम्॥३५८॥ (२१८)


(यः स्त्रियम् अदेशे स्पृशेत्) यदि कोई पुरुष किसी परस्त्री को न छूने योग्य स्थानों स्तन, जघनस्थल, गाल आदि को स्पर्श करे (वा) अथवा (तया स्पृष्टः मर्षयेत्) स्त्री के द्वारा अस्पृश्य स्थानों को स्पर्श करने पर उसे सहन करे (परस्परस्य+अनुमते) परस्पर की सहमति से होने पर भी (सर्वं संग्रहणं स्मृतम्) यह सब 'संग्रहण'=काम सम्बन्ध कहा गया है॥३५८॥ 


पांच महा-अपराधियों को वश में करने वाला राजा इन्द्र के समान प्रभावी―


यस्य स्तेनः पुरे नास्ति नान्यस्त्रीगो न दुष्टवाक् । 

न साहसिकदण्डघ्नौ स राजा शक्रलोकभाक्॥३८६॥ (२१९)


(यस्य) जिस राजा के राज्य में (स्तेनः न अस्ति) चोर नहीं है, (न+अन्यस्त्रीगः) न परस्त्री-गामी है, (न दुष्टवाक्) न दुष्ट वाणी बोलने वाला है, (न साहसिकदण्डघ्नौ) न अत्याचारी और दण्ड प्रहार करके घायल करने वाला है, (सः राजा शक्रलोकभाक्) वह राजा स्वर्ग के राजा इन्द्र के समान सुखी और सर्वश्रेष्ठ राजा है॥३८६॥


एतेषां निग्रहो राज्ञः पञ्चानां विषये स्वके। 

साम्राज्यकृत् सजात्येषु लोके चैव यशस्करः॥३८७॥ (२२०)


(स्वके विषये) अपने राज्य में (एतेषां पञ्चानां निग्रहः) उक्त पांचों प्रकार के अपराधियों पर नियन्त्रण रखने वाला (राज्ञः) राजा (सजात्येषु साम्राज्यकृत्) सजातीय अन्य राजाओं पर साम्राज्य करने वाला अर्थात् राजाओं में शिरोमणि बन जाता है (च) और (लोके यशस्करः एव) लोक में यश अवश्य प्राप्त करता है॥३८७॥


ऋत्विज् और यजमान द्वारा एक-दूसरे को त्यागने पर दण्ड―


ऋत्विजं यस्त्यजेद्याज्यो याज्यं चर्त्विक् त्यजेद्यदि। 

शक्तं कर्मण्यदुष्टं च तयोर्दण्डः शतं शतम्॥३८८॥ (२२१)


(यः याज्यः) जो यजमान (कर्मणि शक्तं च अदुष्टम्) काम करने में समर्थ और श्रेष्ठ (ऋत्विजम्) पुरोहित को (त्येजत्) बिना उचित कारण के त्याग दे तो (तयोः) उन दोनों को (शतं-शतं दण्डः) सौ-सौ पण [८.१३६] दण्ड करना चाहिए॥३८८॥ 


माता-पिता-स्त्री-पुत्र को छोड़ने पर दण्ड―


न माता न पिता न स्त्री न पुत्रस्त्यागमर्हति।

त्यजन्पतितानेतान् राज्ञा दण्ड्यः शतानि षट्॥३८९॥ (२२२)


धर्म मर्यादा में स्थित (न माता न पिता न स्त्री न पुत्रः त्यागम्+अर्हति) न माता, न पिता, न स्त्री और न पुत्र त्यागने योग्य होते हैं, (अपतितान् एतान् त्यजन्) अपतित अर्थात् निर्दोष होते हुए जो इनको कोई छोड़े तो (राज्ञा षट् शतानि दण्ड्यः) राजा के द्वारा उस पर छः सौ पण दंड किया जाना चाहिए और उनको सम्मानपूर्वक पूर्ववत् घर में रखवाये॥३८९॥


व्यापार में शुल्क एवं वस्तुओं के भावों का निर्धारण―


शुल्कस्थानेषु कुशलाः सर्वपण्यविचक्षणाः। 

कुर्युरर्घुं यथापण्यं ततो विंशं नृपो हरेत्॥३९८॥ (२२३)


(शुल्कस्थानेषु कुशलाः) शुल्क लेने के स्थानों अर्थात् जल और स्थल के व्यापारों के शुल्कव्यवहार के विशेषज्ञ (सर्वपण्यविचक्षणाः) सब बेचने योग्य वस्तुओं के मूल्य-निर्धारित करने के विशेषज्ञ व्यक्ति (यथापण्यं अर्धं कुर्युः) बाजार के अनुसार जो मूल्य निश्चित करें (ततः) उसके लाभ में से (नृपः विंशं हरेत्) राजा बीसवां भाग कररूप में प्राप्त करे॥३९८॥ 


राज्ञः प्रख्यातभाण्डानि प्रतिषिद्धानि यानि च। 

तानि निर्हरतो लोभात्सर्वहारं हरेन्नृपः॥३९९॥ (२२४)


(राज्ञः प्रख्यातभाण्डानि) राजा के उपयोगी प्रसिद्ध साधन (च) और (यानि प्रतिषिद्धानि) जिन वस्तुओं का देशान्तर में ले जाना निषिद्ध घोषित कर दिया है (लोभात् तानि निर्हरतः) लोभवश उन्हें देशान्तर में ले जाने वाले का (नृपः) राजा (सर्वहारं हरेत्) सर्वस्व हरण कर ले॥३९९॥ 


शुल्कस्थानं परिहरन्नकाले क्रयविक्रयी।

मिथ्यावादी च संख्याने दाप्योऽष्टगुणमत्ययम्॥४००॥ (२२५)


(शुल्कस्थानं परिहरन्) चुंगी के स्थान को छोड़कर दूसरे रास्ते से सामान ले जाने वाला (अकाले) असमय में अर्थात् रात आदि में गुप्तरूप से (क्रयविक्रयी) सामान खरीदने और बेचने वाला (च) और (संख्याने मिथ्यावादी) शुल्क बचाने हेतु माप-तौल में झूठ बतलाने वाला, इनको (अष्टगुणम्+अत्ययं दाप्यः) वास्तविक शुल्क से आठ गुने अधिक दण्ड से दण्डित करे॥४००॥ 


आगमं निर्गमं स्थानं तथा वृद्धिक्षयावुभौ।

विचार्य सर्वपण्यानां कारयेत् क्रयविक्रयौ॥४०१॥ (२२६)


(आगमं निर्गमं स्थानं तथा वृद्धिक्षयौ+उभौ) वस्तुओं के आयात-निर्यात, रखने का स्थान, लाभवृद्धि तथा हानि (सर्वपण्यानां विचार्य) खरीद-बेचने की वस्तुओं से सम्बन्धित सभी बातों पर विचार करके (क्रय-विक्रयौ कारयेत्) राजा मूल्य निश्चित करके वस्तुओं का क्रयविक्रय कराये॥४०१॥ 


पञ्चरात्रे पञ्चरात्रे पक्षे पक्षेऽथवा गते।

कुर्वीत चैषां प्रत्यक्षमर्घसंस्थापनं नृपः॥४०२॥ (२२७)


(पञ्चरात्रे-पञ्चरात्रे) पांच-पांच के दिन के बाद (अथवा) या (पक्षे पक्षे गते) पन्द्रह-पन्द्रह दिन के पश्चात् (नृपः) राजा (एषां प्रत्यक्षम्) व्यापारियों के सामने (अर्घसंस्थापनं कुर्वीत) मूल्य का निर्धारण करता रहे॥४०२॥


तुला एवं मापकों की छह महीने में परीक्षा―


तुलामानं प्रतीमानं सर्वं च स्यात् सुलक्षितम्। 

षट्सु षट्सु च मासेषु पुनरेव परीक्षयेत्॥४०३॥ (२२८)


(सर्वं तुलामानम्) सब तराजू (च) और (प्रतीमानम्) तोलने के बाट (सुलक्षितं स्यात्) अच्छी प्रकार परीक्षा करके परखे हुए हों (च) और (षटसु षट्सु मासेषु पुनः+एव परीक्षयेत्) राजा प्रत्येक छह मास की अवधि में उनकी पुनः परीक्षा अवश्य कराया करे॥४०३॥


नौका-व्यवहार में किराया आदि की व्यवस्थाएं―


पणं यानं तरे दाप्यं पौरुषोऽर्धपर्णं तरे। 

पादं पशुश्च योषिच्च पादार्धं रिक्तकः पुमान्॥४०४॥ (२२९)


(यानं तरे पणम्) नाव से पार उतारने में खाली गाड़ी का एक पण [८.१३६] किराया ले (पौरुषः तरे) एक पुरुष द्वारा ढोये जाने वाले भार को पार उतारने में (अर्ध-पणं दाप्यः) आधा पण किराया ले (च) और (पशुः पादम्) पशु आदि को पार करने में चौथाई पण (च) तथा (योषित् विरक्तः पुमान् पाद+अर्धम्) स्त्री और खाली मनुष्य से एक पण का आठवाँ भाग [८.१३६] किराया लेवें॥४०४॥ 


भाण्डपूर्णानि यानानि तार्यं दाप्यानि सारतः। 

रिक्तभाण्डानि यत्किंचित्पुमांसश्चापरिच्छदाः॥४०६॥ (२३०)


(भाण्डपूर्णानि यानानि तार्यं सारतः दाप्यानि) वस्तुओं से भरी हुई गाड़ियों को पार उतारने का किराया उनके भारी और हल्केपन के अनुसार देवे (रिक्तभाण्डानि) खाली बर्तनों का (च अपरिच्छदाः पुमांसः) और निर्धन व्यक्ति (यत् किंचित्) इनसे नाममात्र का ही किराया लेवे॥४०५॥ 


दीर्घाध्वनि यथादेशं यथाकालं तरो भवेत्। 

नदीतीरेषु तद्विद्यात् समुद्रे नास्ति लक्षणम्॥४०६॥ (२३१)


(दीर्घः+अध्वनि) नदी का लम्बा रास्ता पार करने के लिए (यथा देशम्) स्थान के अनुसार [तेज बहाव, मन्द प्रवाह, दुर्गम स्थल आदि] (यथाकालम्) समय के अनुसार [सर्दी, गर्मी, रात्रि आदि] (तरः भवेत्) किराया निश्चित होना चाहिए (तत् नदीतीरेषु विद्यात्) यह नियम नदी-तट के लिए समझना चाहिए (समुद्रे नास्ति लक्षणम्) समुद्र में यह नियम नहीं है अर्थात् समुद्र में वहाँ की स्थिति के अनुसार अन्य किराया निश्चित करना चाहिए॥४०६॥


यन्नावि किंचिद्दाशानां विशीर्येतापराधतः। 

तद्दाशैरेव दातव्यं समागम्य स्वतोंऽशतः॥४०८॥ (२३२)


(दाशानाम् अपराधतः) नाविकों=मल्लाहों की गलती से (नावि यत् किंचित् विशीर्येत) नाव में जो कुछ यात्रियों को हानि हो जाये (तत्+दाशैः+एव) वह मल्लाहों को ही (समागम्य स्वतोंशतः दातव्यम्) मिलकर अपने-अपने हिस्से में से पूरा करना चाहिए॥४०८॥


एष नौयायिनामुक्तो व्यवहारस्य निर्णयः। दाशापराधतस्तोये दैविके नास्ति निग्रहः॥४०९॥ (२३३)


(एषः) यह [८.४०४-४०८] (नौयायिनां व्यवहारस्य दाशापराधतः निर्णयः उक्तः) नाविकों के व्यवहार का और जल में मल्लाहों के अपराध से नष्ट हुए सामान का निर्णय कहा (दैविके निग्रहः नास्ति) दैवी विपत्ति के कारण [आंधी, तूफान आदि से] हुई हानि के मल्लाह देनदार नहीं हैं॥४०९॥


इति महर्षिमनुप्रोक्तायां सुरेन्द्रकुमारकृतहिन्दीभाष्यसमन्वितायाम् अनुशीलन-समीक्षाभ्यां विभूषितायाञ्च विशुद्धमनुस्मृतौ राजधर्मात्मकोऽष्टमोऽध्यायः॥


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