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एक ब्रह्मा से ही उत्पन्न देवता और दैत्य

 

  इस विश्व ब्र   ह्माण्ड के उद्भव से पहले केवल एक अदृश्य शक्ति परमेश्वर के रूप में विद्यमान थी। उसने इच्छा की मैं अनन्त रूपों में हो जाऊँ। उस अदृश्य परमेश्वर ने एक बृहद्त्तम उद्घोश रूप शब्द ओम का उच्चारण किया जो परमेश्वर का निज नाम है।

 

    शब्द को भी  ईश्वर कहते है, इस नाम के उच्चारण मात्र से अदृश्य जगत से दृश्य जगत में बहुत सूक्ष्म एक अणु का सृजन हुआ जिसमें प्रथम ब्रह्म कण, दूसरा विष्णु कण, तीसरा महेश कण कहते है। यह एक परमाणु बन गये, और यह ब्रह्म कण निरन्तर विस्तार करने लगा। जिससे आकाश का जन्म हुआ, जिससे मन बना और उसी एक मन को अनन्त ब्रह्माण्डों का गर्भ कह सकते है। यह उस परमेश्वर के लिये कच्चा मैटेरियल की भाती था। जिससे ही वह अनन्त किस्म की इस अद्भुत जगत की रचना की, जैसा की हमारे प्राचीनतम शास्त्रों में आता है कि अग्नि, वायु, जल, और पृथ्वी यह पांच प्राकृतिक भौतिक दृश्य मय पदार्थ है। जिस हम अपनी नग्न आंखों से देख सकते है। यही महेश कण है, यह एक ही पदार्थ से अलग - अलग रुपों में विभक्त हुये है। जैसा कि हम सब जानते है की जल एक ऐसा पदार्थ है जिसमें आग और हवा भी है। जिस प्रकार से वायु आक्सीजन जीवन के लिये आवश्यक तत्व है। जिसको जल के अन्दर रहने वाले जलीय जीव मछली आदी पानी में से छान लेते है। और अपने आप को पानी के अन्दर जीने लायक बनाते है। जैसा की हम सब जानते है की हाइड्रोजन एक ज्वलनशील पदार्थ है जो आक्सीजन के परमाणु के साथ अभीक्रिया करके जल के एक परमाणु को  बनाता है। यही हाइड्रोजन भविष्य के लिये बहुत बड़ा ऊर्जा को श्रोत है जिससे भविष्य में सभी वाहन आदि आसानी से चल सकते है। जबकि जैविक ईंधन जैसे पेट्रोल डीजल आदी खत्म होने के कगार पर है। पानी के एक परमाणु  में दो तत्व है आग और हवा तीसरा स्वयं जल है चौथा तत्व आकाश है, इनके मध्य में ही विद्यमान है पाँचवां तत्व यह पृथ्वी है, जो इन चारों के मेल से बनी है। सर्व प्रथम ज्वलनशील गैसों थी जो आगे चल कर अग्नि का रूप धारण किया जिनसे बहुत सारें तारों का उदय हुआ। इन तारों से अनन्त ग्रहों का उद्भव हुआ। और फिर इन ग्रहों पर जीवों का उद्भव हुआ क्रमशः समय के साथ जब ग्रह और तारें आकाश गंगा में स्थापित हो गये तो उसके बाद इसमें उपस्थित कुछ ग्रहों पर जैसे शुक्र, वृहस्पति , मंगल, आदी ग्रहों पर जीवन का उद्भव हुआ। इनको व्यवस्थित रुप से उस परमेश्वर ने पैदा किया सबसे पहले शुक्र ग्रह पर आज के अरबों खरबों साल पहले वायु मंडल निर्मित किया गया, उसके बाद उस ग्रह पर वनस्पति युग आया तरह तरह के वृक्ष लतायें पेड़ पौधों को उत्पन्न किया गया, उसके उपरान्त देव युग,मन फिर मनु युग आया अर्थात मन का सृजन हुआ जो आकाश का ही एक रुप है। यह विष्णु कण के रूप में है क्योंकि मन ही है, जो दोनों में एक साथ भाषता है। अर्थात मन विशुद्ध रूप से ब्रह्म के स्वरूप को साक्षात्कार करके उनसे एकात्म कर सकता है। और यही मन प्रकृति के मुख्य देवता महेश से भी विशुद्ध रूप से जुड़ कर इस दृश्य मय जगत का सृजन कर सकता है। जो मन पहले ग्रहों में तारों में रहा फिर वनस्पतियों में रहा फिर इसने एक कदम आगे बढ़ कर चलते फिरते प्राणियों और सूक्ष्म से बृहत जीवों के शरीर का रूप ग्रहण किया सबसे अन्त में मानव को शरीर का उद्भव हुआ। इस मानव को स्वयं का ज्ञान परमेश्वर के समान था। प्रारंभ से इसका झुकाव प्रकृति की तरफ अधिक रहा जिसके कारण ही यह निरंतर अवनति ही करता रहा। जिसको हम यह कह सकते है की यह मन ही बहुत अधिक शरीरों को धारण किया जिसमें बहुत सारें देवी देवता और अवतार आते है ऋषि महर्षि के शरीर में यह मन उपस्थित हुआ। अवनति के कारण ही यह एक ग्रह को नष्ट करता हुआ दूसरे ग्रह पर अपना निवास बनाता रहा। शुक्र ग्रह के वायुमंडल को और वहां क सभी जीवों का अन्त करके, यह बृहस्पति पर अपनी वस्तीयां वसा लिया और अरबों सालों तक उस ग्रह के संसाधनों का दोहन किया और उसको भी अधमरा करके जब देखा की इस पर जीवन का रहना संभव नहीं है ।तो वह मंगल ग्रह पर अपना निवास स्थान बनाया। वहां पर भी अरबों सालों तक रहा जब उस ग्रह के जैविक संसाधन अंत हो गये, तो वह पृथ्वी पर अपना निवास बनाने के लिये आया। यह मन ही परमेश्वर के साथ एक हो कर ज्ञान वान बन कर अपने ज्ञान से ही सभी जीव जन्तुओं का पुनः सृजन कर दिया यहां पृथ्वी पर। सर्व प्रथम ब्रह्मा, विष्णु, महेश तीन पुरुष हुए इन तीनों के अधिकार में ही यह सम्पूर्ण दृश्य मय जगत हो गया। जैसा की मैंने पहले बताया कि महेश जिनको हम सिव के नाम से भी जानते है यह संहार के रूप में माने जाते है। विष्णु अर्थात जो मन के स्वामी है जिनके अधिकार में दृश्य और अदृश्य दोनों प्रकार के जगत में संतुलन बनाने का कार्य है। जो इस जगत के पालन करता है। तीसरे ब्रह्मा जिनका मुख्य कार्य है जगत का निरंतर सृजन करना। ब्रह्मा ने ही सर्व प्रथम अपनी बुद्धि से ब्राह्मणी नाम की स्त्री को जन्म दिया इससे दो पुत्र उत्पन्न हुए। एक यक्ष दूसरा रक्ष अर्थात जैसा की नामों से प्रतीत हो रहा है, कि यक्ष नाम का जो पुत्र ब्रह्मा के थे वह सिर्फ पवित्र कार्यों को करते थे जिसमें यज्ञ सर्व श्रेष्ठ कर्म है जिससे ही इस विश्व ब्रह्माण्ड की रक्षा संभव है। दूसरे पुत्र रक्ष थे जिसका कार्य था यज्ञ रूपी श्रेष्ठ कर्मों की निरंतर रक्षा करना। जो आगे चल कर देवता और दैत्य के रूप में विख्यात हुये इस जगत में। जब इस जगत में बहुत समय तक देवता और दैत्यों ने राज्य किया और इस दृश्यम जगत के आकर्षण में आसक्ति के कारण दोनों अपने मुख्य कर्मों से विरक्त होने लगे। जिससे उन दोनों में द्वेष और राग ने अपना स्थाई निवास स्थान बना लिया। जिसके परिणाम स्वरूप काम और क्रोध ने भी अपनी जड़े गहरी जमा ली। इसका परिणाम यह हुआ की यज्ञ रूपी कर्म निरंतर कम होता गया। और निकृष्ट कर्मों की मात्रा में इजाफा होने लगा जिसके कारण दोनों में संघर्ष होने लगा। यहां भारत भूमि पर उनको आर्य और अनार्य के नाम से जानते है। जैसे राम कृष्ण आदी के पुरखे आर्यों में आते है, रावण आदी के पुरखे राक्षस में आते है। इन्हीं को देवता और दैत्य कहते है, यह दोनों ही ऋषि महर्षियों की संतानें थी जिनके पिता स्वयं ब्रह्मा है। इनकी ही वंशज आ ही इस जगत में चल रही है। एक श्रेष्ठ किस्म के मानव हो जो देवता के समान है जो दूसरों के दुःख दर्द पीड़ा को समझते है। जिनकी संख्या अत्यधिक कम है। दूसरे राक्षस दैत्य है जिनकी संख्या बहुत अधिक है। जैसा की हम सब जानते है कि जो श्रेष्ठ लोग पहले थे जिनमें से कुछ के बारे हम अच्छा तरह से जानते है। जैसे राम या कृष्ण जिनको भारत का बच्चा - बच्चा जानता है। उनको लोग भगवान और विष्णु का अवतार मानते है। इनके पास इतनी क्षमता थी की यह जिसे हम आज जड़ समझते है जैसे पानी जो सागर में विद्यमान है जिसने उनको रास्ता दिया था उसके ऊपर पुल बना कर वह रावण को मारने के लिये लंका गये थे। दूसरा कृष्ण ने गोवर्धन पर्वत को अपनी कानी उंगली से उठ लिया था। अगस्त ऋषि ने सागर को पी लिया था। राम के ही वंशज थे भगीरथ जिन्होंने गंगा को आकाश से जमीन पर लाये थे। इसके पीछे मैं यह बताना चाहते हूं की पहले लोग इन पदार्थों के देवता शिव की आराधना करके उनसे अपना मन चाहा कार्य सिद्ध कर लेते थे। दूसरी बात जो मैं बताना चाहता हूँ वह है की पहले जो शुक्र, वृहस्पति, मंगल पर सृष्टि कैसे खत्म हो गई, उसका कारण यही है की देवता और दैत्यों का निरंतर युद्ध संग्राम होता रहा। जब देवताओं की संख्या कम होने लगी दैत्यों का अधिकार ग्रहों पर हने लगा। हर तरफ त्राहि- त्राहि मचने लगी हर कोई प्रताड़ित होने लगा। तब जैसा की कृष्ण गीता में कहते है यदा - यदा जब- जब पृथ्वी पर दुष्टों की संख्या और अत्याचार बढे़गा तब - तब मैं यहां जन्म लेकर उस ग्रह का उद्धार करूंगा। और उन सब का साम्राज्य समाप्त करके धर्म और सत्य के राज्य की स्थापना करूंगा। यह एक सिद्धान्त इसी पर चल कर परमेश्वर ने मानव शरीर में कुछ समय के लिये अवतरित हो कर संपूर्ण जगत को अधर्म से मुक्त किया जिसमें उस ग्रह के राक्षस बसों को खत्म करने के लिये खतरनाक युद्ध हुए। जिसमें आज से भी आधुनिक और खतरनाक हथियारों का प्रयोग किया गया था उनके पास परमाणु बम हाइड्रोजन बम न्युट्रान, बम आदि की श्रेष्ठतम और उत्तम किस्म के खतरनाक अस्त्र शस्त्र थे। इसका नया प्रमाण पृथ्वी पर मिला है सीन्धु घाटी सभ्यता और वैदिक सभ्यता के अन्त का कारण परमाणु बम पृथ्वी पर गिराये गये थे। पहले के समय में अति उत्तम विमान और स्पैसक्राफ्ट थे जो प्रकाश की गति से यात्रा करके एक ग्रह से दूसरे ग्रह पर आसानी से पहुंच जाते थे। पहले के समय में एक राक्षस राजा शाल्व था जो लाखों साल जिन्दा वाला था, क्योंकि उसने अपनी चिकित्सा की उत्तम विधियों के सृजन से उसने मृत्यु पर अधिकार कर लिये था। जिसके पास बहुत बड़ी सेना और बहुत अच्छे स्पैस क्राफ्ट थे जिसने शुक्र ग्रह, वृहस्पति ग्रह, और मंगल पर अपना अधिकार कर लिया था, और देवताओं को वहां से भगा दिया था। देवताओं ने अपनी जान बचा कर यहां पृथ्वी पर अपना गुप्त स्थान रहने का बना लिया था। जिसकी खोज उसने करके यहां पृथ्वी पर भी हमला करना शुरु कर दिया था। जिसके समर्पक में रावण आदि राक्षस भी थे, जिनके राज्य और अत्याचार को राम ने एक बार समाप्त कर दिया था। और रामराज्य स्थापित कर दिया था। लेकिन कृष्ण के समय आते - आते राक्षस फिर बढ़त को प्राप्त कर लिया था जिसमें दुर्योधन आदि प्रथम थे, इस पृथ्वी पर, जिसके लिये कृष्ण ने महाभारत जैसे भयंकर युद्ध को कराया। जिस युद्ध में तीन हिस्सा पुरी आबादी के लोग सभी मार दिये गये थे। जब शाल्व को यह को यह ज्ञात हुआ की उसकी योजना कामयाब नहीं हो रही है। उसके सारे जो योद्धा है वह मारे जा रहे हैं वहां पर सत्यता और धर्म का राज्य स्थापित हो गया है। उसने अपने तीनों ग्रहों से एक साथ कृष्ण जो उस समय द्वारिका में रहते थे। उसपर भंयकर आक्रमण कर दिया, और पृथ्वी पर उसने बहुत आतंक मचा दिया था। जिससे कृष्ण बहुत परेशान हो गये थे। उन्होंने भगवान शीव साधना करके उनको प्रसन्न किया और उनसे ऐसे अस्त्र शस्त्र लिये  जिनकी सहायता से शाल्व के रहने के स्थान शुक्र ग्रह, वृहस्पति ग्रह, और मंगल ग्रह के जीवन को हमेशा के पूर्णतः नष्ट कर दिया। शीव का इसी लिये एक नाम त्रीपुरारी भी पड़ गया। अर्थात तीन लोक या तीन शत्रु को मारने वाले। त्रीकाल दर्शी जिन्होंने एक साथ तीनों स्थानों पर आक्रमण कर के अपने शत्रु का पूर्ण रूपेण संहार किया।      

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