भारत की आत्म कथा
कुछ समय के बाद भारत ने अपनी जीवन की यात्रा को प्रारंम्भ कर दिया, और
एक दिन एक अनाथालय के अत्याचार से परेशान हो कर, वहां से घुमते-घुमते
पास के एक मन्दिर में पहुचां, जो आगरा छावनी के पास में थी। जहां पर
उसने वहां मन्दिर के पुजारी से मित्रता करके, उसके साथ रहने लगा और वहीं मन्दिर के
पिछे मन्दिर के जहां पुजारियों की समाधि स्थली थी। जहां
पर वह उस मन्दिर के पुजारी के साथ खाना वैगरह बनाता और पुजा पाठ करता रहता था। ऐसे
ही किसी तरह रोते गाते जीवन को गुजार रहा था। कि अचानक एक दिन उस मन्दिर में एक
राजास्थान के कोटा जिले के एक बड़ी मन्दिर का एक बाबा पुजारी आता हैं। जिसकी
मुलाकात भारत से होती है। और भारत उस लवकुश बाबा कि बातों के बहकाओं में आजाता
हैं। और उसके साथ मिल कर भांग बुटी को पिने खाने लगता हैं। और उसका मित्र बन जाता
हैं। लवकुश बाबा एक मोटा तगड़ा काफी शक्तीशाली ताकतवर पागल किस्म का ब्रह्मचारी
साधु बाबा था। जिसने भारत को बताया की उसकी कोटा में एक बहुत बड़ी मन्दिर हैं। और
वह वहीं पर रहता हैं। और उसने कहां कि भारत को तुम भी मेरे साथ चलों और हमारी
गाड़ी को चलाना। भारत ने कहां कि मैं तो गाड़ी चलाने नहीं जानता हूं, तो
उसने कहां कि कोई बात नहीं मैं तुम्हें बहुत जल्दी सिखा दुंगा। इसके बाद जब वह
अपने मन्दिर पर वापिस जाने लगा तो वह अपने साथ भारत को भी अपना एक कुर्ता पहना कर
और एक धोती के साथ एक पगड़ी उसके सर पर बांध कर अपना चेला बना कर वहां से चल पड़ा,
और
एक आगरा के एक छोटे से स्टेसन पर आकर गाड़ी के इन्तजार में बैठ गये, उस
समय दोनो भांग के नशें में मस्त थे। काफी देर वहीं पर एक रेल्वे की जो लोहें की
ठेलिया होती है उस पर बैठ कर तरह तरह की खयाली पुलाव वाली बाते करने लगे। कुछ देर
में शाम के 7 बजे एक पैसेन्जर ट्रेन आजाती हैं। जिसमें दोनों घुस कर बैठ जाते हैं।
लवकुश बाबा किसी तरह से लोगों की भीड़ में अपने लिए सिट की व्यवस्था कर करके बैठ
जाता हैं। और आर्यन भी सामने वाली सिट पर किसी तरह से स्वयं को व्यवस्थित कर लेता
है।
जब ट्रेन वहां रेल्वेस्टेसन से चलती है तो लवकुश बाबा लोगों से धार्मिक
बहश छेड़ देता हैं। और लोगों को तरह तरह के चौपाई और सुन्दर काण्ड, हनुमान
चालिसा का पाठ सुनाने लगता है। जिससे भारत काफी देर तक सुनने के बाद बाबा से कहता
हैं कि मुझे निद आ रही हैं। मै वहां उपर जहां पर ट्रेनों में जहां सामान रखा जाता
है। उस तरफ एक खाली स्थान को दिखाते हुए कहता है। कि सोने के लिए जा रहा हूं। इस
तरह से भारत वहां से उपर जाकर सोने का प्रयास करने लगता हैं और कुछ देर में सो
जाता है।
कुछ एक घंटे में बोगी में अचानक शोर गुल होने लगता हैं। जिसके कारण भारत
आंख खुल जाती हैं और वह निचे ट्रेन की बोगी में जब देखता हैं तो पाता हैं कि लोग
लवकुश बाबा से झड़प रहे थे। और गालि गलौच कर रहे थे। मैं तुरन्त निच उतर कर लोगों
को रोकने का प्रयाश किया लेकिन कहां भीड़ मानने वली थी। किसी तरह से कुछ समय में
भिड़ ने अपने डिब्बे से निकाल कर लोग धिरे धिर शान्त होने लगे। और लवकुश बाबा के
साथ बोगी के दूसरी तरफ जाकर बैठ गया, जहां कुछ देर तक सब कुछ शान्त रहा,
फिर
मैं क्या देखता हूं कि लवकुश बाबा सामने सिट पर बैठी एक महिला का पैर को पकड़ कर
वह कहने लगां कि मुझे माफ कर दे, वह मना कर रहीं थी लेकिन वह बार बार
ऐशा ही कर रहा था। जिसके कारण वह औरत बोगी में चिल्लाने लगी कि यह आदमी मुझे बहुत
देर से परेशान कर रहा हैं। जिसके कारण वोगी के सारे आदमी एक बार फिर एकत्रित होकर
गली गलौच और लवकुश बाबा को मारने लगे जिसके हाथ में जो आया उसी से मराता था। पुरी
बोगी में हंगामा मच गया था। जब मैंने मना करना चाहा तो दो चार हाथ मुझको भी पड़े
थे। और लोग लवकुश बाबा को ट्रेन से निचे फेकने के लिये आमद हो गये। ईश्वर कि कृपा
थी तभी ट्रेन ने अपनी रफ्तार को कम दिया और कुछ ही देर में एक जंगली स्टेशन पर
जाकर खड़ी हो गई, और लोगो नें धक्का मार कर लवकुश बाबा और मुझको
ट्रेन से बाहर धकेल दिया। और कुछ ही मिनट में ट्रेन ने रेल्वे स्टेसन को छोड़ दिया,
इस
तरह से हम दोनो रात के करिब बारह बजे वहां एक में जगंली स्टेसन पर खेड़े थे। उस
समय बाबा काफी अधिक नशे में था। मैंने उससे कहा चलो स्टेशन मास्टर के पास चलते हैं,
और
वही पर आराम करते हैं। जब कोई दूसरी ट्रेन आयेगी तो हम उसमें बैठ कर आगे के लिए
चलेगे। इसके साथ हम दोनो वहां से टिकट मास्टर के आफिस के पास आगये। वह बहुत छोटा
सा पहाड़ी जंगली स्टेशन था, वहां पर एक छोटा सा प्रतिक्षालय भी था
औऱ टिकट मास्टर के आफिस के सामें दो लकड़ी का बेन्च दिवाल से लगी हुई थी। जिसमें
से एक पर जा कर लवकुष बाबा अपने बैग को अपने सर के पास रख कर अपनी टांग को फैला कर
बेधड़क सो गया। और कुछ ही देर में खर्राटे भरने लगा। लेकिन मुझे निद नहीं आरही थी,
पता
नहीं क्यों मुझे कुछ अज्ञाना भय जैसा लग रहा था। वहां शिवाय एक टिकट मास्टर के कोई
नहीं था। और वह स्टेशन मास्टर भी अपनी केबिन में अन्दर आराम कर रहा था। चारों तरफ
संनाटा औऱ सांय सांय कर रहा था। केवल प्लेटफार्म पर कुछ लाईट जल रही थी। और एक
बत्ती स्टेशन मास्टर के केविन में जल रही थी। और इसके अतिरीक्त चारों तरफ घनघोर
अंधेरा था। कुछ भी नहीं दिखाई दे रहा था। वहां पानी भी नहीं कही दिखाई दे रहा था।
उस समय मेरा गला प्यास से सुख रहा था फिर भी मैं अपने मन को मार कर किसी तरह से
रात को बिताने का प्रयाश कर रहा था।
तभी अचानक वहां पर बाहर से एक आदमी लम्बा सा दुबला पतला, फिर
भी शरीर से कसा हुआ आदमी आ टपका, और सिधा मेंरे पैरों के पास बैठ कर
मुझसे बातें करने लगा। पहले तो अपनी जेब से बिड़ी निकाला और उसको जला कर पिने लगा।
फिर कहता हैं कि मेरी पत्नी मर गई है। इस समय केवल मेरे दो लड़के और एक लड़की हैं।
जो मेरी बात नहीं सुनते है। उनपर मुझे बहुत क्रोध आता है। मैं क्या करु मेरी कुछ
समझ में नहीं आरहा है, बाबा मुझे इसका कुछ समाधान बताओ। मैंने कहा
धैर्य से काम लो सब ठिक हो जायेगा। फिर उसने मुझसे पुछा कि आप कहां से आयें हैं?
और
यहां पर कैसे आगये? जिसको मैंने उसको सब कुछ सच सच बता दिया। जिससे
वह बहुत ही जल्दी क्रोधित हो गया, औऱ कहां की मैं इस इलाके का पुलिस
इस्पैक्टर हूं, अभी कल रात को ही यहां रेल्वेस्टेसन पर एक आदमी
की हत्या कर के उसका सारा सामान लुट लिया गया हैं। मुझे सक हैं कि वह कत्ल तुम
लोगों ने ही किया है। और तरह तरह से धमकाने लगा। मैं ने उसको बहुत कहा ऐसा नहीं
हैं। फिर वह मुझको धमकाने लगा। जिसके कारण मेरी रुह भय और आतंक से कापने लगी,
मैं
बार बार लवकुश बाबा की तरफ देखता था और मन में यहीं सोचता ता कि इस कमिने ने मुझको
इस जंगल में लाकर किस मुसिबत में फंसा दिया। और लवकुश बाबा इस सब से बेखबर गहरी
निद्रा में बेधणक हो कर अपना घोड़ा बेच कर सो रहा था। मैंने उसको जगाने का प्रयाश
किया कई बार मगर हर बार ही मैं बिफल रहा। अन्त में वह लम्बा आदमी जो स्वयं को
पुलिस का दरोगा कहता था, और हम दोनो को हत्यारा बता रहा था। उसी
ने लवकुश बाबा को निद से जगा कर उससे पुछ ताछ करने लगा, और उसने ही
लवकुश बाबा को बताया की कल बिती रात को यहां रेल्वेस्टेसन पर एक आदमी को मार कर
उसका सारा समान लुट लिया गया था। मुझे सक हैं कि वह कल रात की हत्या तुम दोनो ने
ही की है। चलो खड़े हो जाओ तुम दोनो को अभी पुलिस स्टेसन चलना होगा। लवकुश बाबा
नशे में आखें मलते हुए निद से उठ कर बैठ गया, और बड़े तेज से
उसको डांटते हुए कहां कि तुम क्या बकवास कर रहे हो? हम दोनो आगरा से
आरहे हैं। हमको हमारी ट्रेन से यात्रीयों ने हमसे झगड़ा कर यहां के रात्री में
उतार दिया हैं। औऱ हम यहां पर अपनी रात बिताने के लिए यहां पर आराम कर रहे हैं।
दुसरी ट्रेन आते ही हम यहां से कोटा के लिए से प्रस्थान कर जायेंगे।
फिर उस दरोगा ने कहा साले झुठ बोलता हैं। हर चोर जब पुलिस के द्वारा पकड़ा
जाता है, तो यही कहता है कि मैंने चोरी नहीं किया है। अभी ले चल कर थाने मे जब
हम तुम दोनों की धुलाई करेंगे, तो सब कबुल कर लोगों। मुझे चोरों और
कातिलों का लम्बा अनुभव है। मुझें क्या तुम उल्लु समझते हो? इस पर लबकुश
बाबा थोड़ा नरम होते हुए कहा साहब हमने जैसा आपको पहले बताय की हम यात्री है। और
टुसरी ट्रेन से आगे अपने सफर पर चले जायेगें हमारा इस हत्या से कोई संबंध नहीं
हैं। दरोगा ने कहां तुम सब फिर यहां रात को क्यों उतरें जब तुम्हारे पास आगरा से
कोटा का टिकट हैं? तो तुम्हारा यहां रात्री के समय इस
रेल्वेस्टेसन पर उतरने का क्या कारण हैं?
फिर मैंने दरोगा को सब कुछ साफ साफ बताय कि ट्रेन में क्या हुआ था? जैसा
कि लवकुश बाबा हमारी बातों से सहमत नहीं था। तो उस दरोगा ने कहा कि मुझे तो इसकी
सकल से ही लगता हैं, यत तो एक नम्बर का हत्यारा दिखाइ पड़ता हैं।
अभी मैं टिकट मास्टर से परमिसन लेकर तुमको यहां से लेकर चलता हुं। इसके साथ वह
दरोगा अपनी सिट से उठा और सिधा टिकट मास्टर के केबिन में चला गया। और उससे कुछ समय
तक उसके केबिन में ही बात किया, फिर वह दोनो कमरे से बाहर आये। और एक
बार पुनः नये सिरे से हमसे जाच पड़ताल हत्या की करने लगे, मुझसे और लवकुश
बाबा से बारी बारी । हमारी तो जान सकते में आगई, उस समय हमें कोई
रास्ता नहीं दिखाई दे रहा था। कि उस भयानक डरावनी रात में क्या किया जाये? वह
दोनो यह सिद्ध करना चाहते है कि हमने ही हत्या की है। इसको कबुल करके उनके साथ
पुलिस स्टेसन पर जाये। और हम दोने ने हर प्रकार से यह सिद्ध करने का प्रयास किया
की हम दोनों निर्दोष है। अन्त में वह दरोगा अपनी शक्ती का प्रयोग करने लगा और
लवकुश बाबा को जबरजस्ती वहां से ले चलने के लिए सिट पर घसिट कर उतारने लगा। लवकुश
बाब उससे अधिक शक्ती शाली था। वह तुरन्त लड़ने के लिए तैयार होगया और दोनों में
हाथा पाही होने लगी। इस प्रकार से दोनो वहां रात्री में प्लेटफार्म पर द्वन्दयुद्ध
छेड़ दिया, और टिकट मास्टर यह सब कुछ देख रहा था। मेरे साथ
बैठे कर दोनो समान ताकत वर थे दोनो में खुब पटका पटकी और मारपिट होने लगीं,
दोनो
ने एक दुसरे को कस कर पकड़ लिया। औऱ वह किसी सर्त पर छोड़ने के लिये तैयार नहीं
थे। अन्त में टिकट मास्टर ने बिच बचाव करते हुए उनके द्वन्द युद्ध को छुड़ाने का
प्रयाश किया, और कुछ देर में दोनो शान्त होगये।
फिर उस दरोगा ने टिकट मास्टर से कहा कि आपके पास और जो आदमी हैं। उसको
तुरंत यहां पर बुला लिजिये, टिकट मास्टर ने अपने वायर लेस से पास
में फाटक बन्द करने के लिए एक कर्मचारी था। उसको अपने पास बुला लिया। जब वह आदमी
आगया तो उस दरोगा ने उस कर्मचारी और टिकट मास्टर को सख्त आदेश देतो हुए कहां आप
दोने इन दोनों पर नजर रखों। और इनको यहां से भागने मत देना, मैं अभी जाता
हुं और अपने थाने सा कुछ आदमी को लेकर आता हुं। फिर इन सालों को मजा चखाते हूं।
इनके अपराध का, इस तरह से वह टिकट मास्टर और उसका साथी
कर्मचारी हमारी निगरानी करने लगे, और वह दरोगा स्टेसन से बाहर चला गया।
इधर टिकट मास्टर और उसका साथी कर्मचारी हम दोनो के तरह से समझाने लगे,
कि
हम अपने अपराध को स्विकार कर ले, अन्त में हमने उनसे कहां साहब हमने
आपको पहले बता दिया हैं कि हमने किसी की हत्या नहीं की है। हम दोनो ट्रेन से
यात्रा कर रहे थे। और हमें ट्रेन के यात्रियों ने हमसे झगड़ा करके ट्रेन से बाहर
इस स्टेसन पर उतार दिया। आप हमारी बातों पर भरोषा कीजिये उन्होंने कहां तुम दोनो
पक्के अपराधी हो हम तुम्हारी कोई सहयाता नहीं कर सकते हैं। ऐसे ही पुंछ ताछ में
रात्री के एक डेढ़ बज गया। फिर वह दरोगा अपने साथ पास के गांव में के करिब पचास
आदमी जो आदिवासि किस्म के थे। सब के पास अपना हथियार था जैसे भाला, बरछा,
गड़ासा,
कुल्हाड़ी,
लाठी,
डन्डा
इत्यादी उनमें से कुछ अधेड़ उम्र के थे, और कुछ जवान लड़के थे। वह चिल्लाते हुए
रेल्वेस्टेसन के अन्दर घुसे पुऱ स्टेसन परिसर में उनके शोर गुल कोलाहल से रात्री
में बहुत भयावह प्रतित हो रही थी। वह कह रहे थे, पकड़ो सालों को
कहां है? इनको यहां मार कर काट कर फेंक देगे।
यह सब देख कर और उनकी भाषा को सुन कर हीं मेरे तो प्राण सुखने लगे। वह आते
हीं एक बार फिर से जांच पड़ताल हम दोनो से अलग अलग करने लगे। और हमारें बैग को
बारिकी से छानबिन किया। और उसमें जो भी काम का सामान मिला उसको ले लिया। जैसा पैसा
रुपया इत्यादि केवल हमारे कपड़े को छोड़ कर। और एक बार फिर वह सब मिल कर मार पिट
करने लगे और लवकुश बाबा को रेल्वेस्टेसन से बाहर ले जाकर उनकी काफी धुलाई करने लगे,
उसके
कपड़ो को फाड़ दिया। मैं उनमें से जो कुछ अधेड़ उम्र के थे हाथ पैर पकड़ कर बिनती
किया, की हमें ना मारे पिटे तो वह किसी तरह से हमारी बातों को मान गये। और
अन्त में उनको हमारी बातों पर भरोशा होगया कि हमने कोई हत्या नहीं की हैं। औऱ हम
दोनो सच में यात्री हैं। इस तरह से रात्री से सुबह के चार बज गए और एक ट्रेन कोटा
के लिए आने का समय होगया। और किसी तरह से हमने उनसे अपनी जान को बचाया ले देकर
अर्थाथ बाबा के पास जो रुपया और अच्छे अच्छे कपड़े थे, वह सब उनको दे
दिया। अन्त में बाबा ने अपने कपड़ों को जो फट गये थे, उनको निकाल कर
दूसरे अपने अच्छे कपड़ों को पहना, और मैने अपने पुराने उसी पैंट सर्ट को
पहन लिया। और जब ट्रेन रेल्वेस्टेसन पर रुकी हम तुरंत भाग कर उसमें बैठ गये। तब
जाकर कहीं हमारी जान में जान आई, उस समय ट्रेन काफी खाली थी इस तरह से
हमें ट्रेन में सोने के लिए सिट मिल गई। और मैं उस सिट पर पड़ते ही सो गया। यह
ट्रेन करिब बारह एक बजे कोटा रेल्वेस्टेसन पर पहुंची, तब मुझको लवकुश
बाबा ने जगाया और कहा चलो यही पर हमें उतरना हैं। हमारा स्टेसन आगया है। इस तरह से
हम कोटा रेल्वेस्टेसन से बाहर निकले और वहां से मैं बाबा के साथ एक बस में सवार
हुआ। जो कुछ दुर के बाद एक बस स्टाप पर जा कर खड़ी हुई, जहां पर बाबा
गया एक मेडिकल की दुकान से आल्पोज की कुछ टैब्लेट को लिया और उसमें से कुछ खा लिया,
और
बहुत सारे टैब्लेट के पत्तो को अपनी जेब में ठुस लिया। हमको यह बहुत देर के बाद
पता चला की यह नसे की गोली है। जिसका सेवन बाबा करता था। जिसमें से कुछ मंडेक्स की
गोलिया भी होती हैं। जिसके बारें में पहले मैने सुन रखा था। हमारे गांव के जो
जीतनारायण के भाई थे वह फौजदार वह इस गोली का अक्सर नसे के लिए प्रयोग करते थे। इस
तरह से हम कोटा से शाम के वक्त लवकुश बाबा के मन्दिर तक पहुंच गये। वह मन्दिर सच
में काफी बड़ी औऱ पुरीने जमाने की किले नुमा मन्दिर थी। एक बहुत बड़ा दरवाजा पत्थल
का बना था। जिसमें मैं ने लवकुश बाबा के साथ प्रवेश किया जहां पर मेरी मुलाकात
लवकुश बाबा के गुरु से हुई, जो एक लम्बा तगड़ा एक काला डाढ़ी वाला
आदमी था। जो मन्दिर का मुख्य पुजारी था। और स्वभाव से भी काफी सरल था।
जिस मन्दिर में लवकुश बाबा अपने गुरु के साथ रहता था, वह
बहुत पुरानी राम सिता की मन्दीर थी। जो कोटा शहर के एक छोटे से कस्बें में
विद्यमान हैं। जो कोटा शहर से लगभग पचास साठ किलोमिटर दूरी पर है। उस मन्दिर की
बनावट पुराने जमाने कि थी, जैसे किला वगैरह बनते थे कुछ इस प्रकार
कि थी। जो दो तल्ले की थी। पहला महला जो था। उसमें एक बड़ा सा हाल था। जिसमें
तुड़ा वगैर रखा जाता था। दूसरे महले पर एक तरफ पर मन्दीर और पुजारी के रहने के लिए
कमरें थे। पिछे एक आगन और एक कमरा रसोइ का था। और छोटे छोटे कुछ एक कमरे थे एक
गुप्त कमरा था, जिसका दरवाजा मन्दिर के अन्दर जहां पर राम सिता
हनुमान की मुर्ती थी ठिक उनके पिछे से खुलता था। वह भी केवल एक झरोखा था पुरा
दरवाजा नहीं था। उसी में से लवकुश बाबा को गुरु आता जाता था। कभी-कभी जरुरत पड़ने
पर उसमे कुछ गुप्त सामान रखे थे। जैसे तलवार इत्यादि। वहीं दूसरी तरफ पुरब में मन्दिर
से थोड़ा हट कर दूसरे महले पर ही एक विशाल पिपल का वृक्ष भी था, उसके
चारों तरफ कुछ कमरें और उनसे लगा हुआ आगे बरामदा था। जिसमें पत्थल के नक्कासी दार
खम्भे लगे हुए थे। जिसमें एक जुनियक हाईस्कुल स्कुल चलता था।
इस मन्दिर के निचे महले के पुरब और उत्तर से सट कर दो सड़के गुजरती थी
अर्थात मंदिर एक चौराहे पर थी। जिसके कारण ही मन्दिर के पुरब और उत्तर तरफ दोनों
तरफ दुकाने बनाकर जो पचासों की स्ख्या में थी। उनको किराये पर दे रखा था। जो आमदनी
का बहुत बड़ा जरिया था लवकुश बाबा और उसको गुरु के लिए। इसके अतिरिक्त मन्दिर के
दक्षिण तरफ सट कर कुछ एकड़ मन्दिर की खाली जमिन थी जिसको एक किसान को देरखा था।
जिसमें वह तरह तरह के हर मौसम की हरी सब्जियों और हर प्रकार के खाने के आनाज को
पैदा करता था। औऱ रोज मन्दिर में नियमित रुप से लवकुश बाबा और उसके गुरु के खाने
के लिए पहुंचाता था। इसके अतिरिक्त मन्दिर में काफी मात्रा में लोग मन्दिर में
दर्शन करने के लिए आते थे। और बाद में लवकुश बाबा और उसके गुरु से मिलते थे,
प्रणाम
करके उसके पास बैठते थे। एक छोटा सा कमरा था। जो मन्दिर से सट कर था जिसमें दो
विस्तर लगे थे। पश्चिम में गुरु का औऱ पुरब में लवकुश बाबा का था जिस पर प्रायः
दोनो अपने अपने आसन पर बैठते थे। वहां जितने भी लोग आते थे सब नसेड़ी किस्म के लोग
होते थे। जिसके कारण वहां दिन भर चिलम पर चिलम चढ़ती रहती थी। और गांजा भांग
पर्याप्त मात्रा में मन्दिर में रखा गया था। अर्थात बोरे में भर कर रखा जाता था।
इसके अतिरिक्त वहां पर शाम को लवकुश बाबा अपने लिए विशेष रुप से एक बड़ा मग भर के
भांग को घोटा बनाता था जिसमें वह एक पाव बादाम जो पहले से भिगो कर ऱखता था उसको
पिस कर सिल बट्टे पर भांग में मिलाता था। ऐसा रोज सुबह शाम करता था। और उसको पिता
था इसके कारण ही वह मोटा तगड़ा साड़ के समान था। वह बहुत क्रोधी और झक्की किस्म का
आदमी था।
मन्दिर के उत्तर में एक जहां पर सामने कि तरफ दुकाने थी पिछे की तरफ काफी
जगह खाली थी। जहां पर रात्री के समय में दिवाल पर एक सो फिल्म चला करती थी। जिसको
मैं उपर छत पर से बरामदे में बैठ कर खिड़कियों से देखा करता था। मेरा वहां पर काम
था खाना बनाना और बर्तन वगैर साफ करना। जहां पर तीन आदमियों का खाना बनता था।
लवकुश बाबा उसके गुरु और मेरे लिये। कभी कभी लवकुश बाबा भी साथ में होता था। मुझे
धिरे धिरे यह ज्ञात हुआ की वहां सब कुछ नशे में ही होता था। प्रायः मैं भी जमकर
नशा करता था। जिसके कारण मेरा विर्य का अस्खलन अक्सर होता था । लेकिन लवकुश बाबा
और उसके गुरु दिन भर पिते रहते थे, उनको जैसे नशा ही नहीं होता था। गाजें
और भांग का एकादिन जब मैं भांग का घोंटा पी लेता था तो मेरे जिना मुस्किल हो जाता
था। क्योकि उसका नशा बहुत ही जबरजस्त होता था जो मेरे बर्दास्त से प्रायः बाहर ही
रहता था। इसके पहले भी मैं जब अपने गांव में रहता था। और दिल्ली में भांग का नशा
करता था। लेकिन उसका नशा इसके समान तेज औऱ भयंकर नही था। इसके अतिरिक्त एक गौशाला
थी जिसमें कुछ गाय और बछड़े भी थे, जिनको भी देखना पड़ता था। इसको देखने
के लिए और मुझे गाइड करने के लिए प्रायः मेरे साथ लवकुश बाबा रहता था। ऐसा ही कुछ
एक दिन चलता रहा, मैं सबकुछ करता और अपने स्वभाव के अनुकूल बोलता
बहुत था। जो लवकुश बाबा को अच्छा नहीं लगता था। कई बार वह मुझको डाटकर चुप करा
देता था। उसका गुरु बहुत अच्छे स्वभाव का था। उसने मुझे एक दिन बताया कि लवकुश
बाबा कई साल पहले यहां नग्न भभुत शरीर पर लगाये हुए घुमते घुमते आगया था। और मुझसे
कहा कि मुझे अपना शिष्य बना ले मैंने अपना शिष्य बना लिया, और तब से यह
हमारे पास हीं रह रहाता हैं, लगभग दस पन्द्रह साल पहले की बात हैं।
कई बार पुजा पाठ भी करता था लवकुश बाबा हवन करता तो उसमें सुन्दर काण्ड की
चौपाईयों से आहुतिया डालता था। जिसके साथ मैं भी रहता था। लेकिन इस सब के वावजुद
मैं उन सब से विल्कुल प्रभावित नहीं हुआ। मेरी अक्सर लवकुश बाबा से बहस हो जाती
थी। जिससे वह कभी-कभी बहुत अधिक आक्रोशित और क्रोधित हो जाता था। कुछ समय तक तो
उसने अपने आप पर किसी तरह से नियंत्रित रखा, लेकिन एक दिन
सुबह-सुबह जब वह अपनी भांग को पिस रहा था। उसकी मेरी किसी बात पर बहस होगई। जिससे
वह बहुत अधिक क्रोधित होगया और आपे से बाहर हो गया। और भांग बनाना छोड़ कर सिधा
मेरी तरफ गाली देते हुए बड़ी तेजी से लपका और मेरी गर्दन को पकड़ के बड़ी शक्ती से
दिवाल पर दबाने लगा। जिसके कारण मेरी तो शांशें जैसे बन्द होने लगी। तभी यह यह शोर
गुल सुन कर उसका गुरु वहां तत्काल आगया। और उसको डाटते हुए कहा मुर्ख तूं यह क्या
कर रहा हैं? क्या इसको जान से मारेगा? उसने
कहा हां यह मुझको पागल समझता हैं। इस तरह से उसके गुरु ने मेरी उस शैतान से जान
बचाई। मेरी तो हालत गम्भिर होगई थी। मैंने तुरन्त उसके गुरु से कहा कि मैं तत्काल
यहां से जाना चाहता हूं, मुझे यहां से जाने के लिए कुछ किराया
दे दीजिये। इसके शिवाय मैं आप सब से कुछ नहीं चाहता, यदी आप नहीं भी
देगे तो भी मैं किसी तरह से यहां से चला जाउंगा। इस तरह से मैं अपना पुराना जो एक
पैंट सर्ट था उसको तत्काल पहना और वहां से बाहर निकलने लगा, तो उसके गुरु ने
मुझको बुला कर पांच सौ रुपये देते हुए कहां ठिक हैं तू यहां से चला जा नहीं तो वह
तुमको मार सकता हैं। मैं जानता हूं कि वह बहुत क्रोधी आदमी हैं । उसको मैंने यहां
रखा हैं क्योंकि उसकी मुझको जरुरत हैं। इस तरह से मैं वहां मन्दिर से बाहर निकल कर
और चौराहे से एक प्राइवेट बस को पकड़ लिया जो कोटा के लिए जा रही थी।
कुछ एक घंटे में मैं कोटा शहर में आ गया, बस स्टेशन के
पास में कई सिनेमाहाल थे। जिसमें दो नम्बर की फिल्में लगी थी उनको देखने के लिए
टिकट कटा कर सिनेमाहाल में घुस गया। ऐसा ही दिन भर किया कोटा शहर में जितने
सिनेमाहाल थे उनमें घुम-घुम कर सब में फिल्म देखा। अर्थात एक मार्निंग शो दुसरा
नुन शो और तीसरा मैटनी शो। और अन्त में शाम को कोटा स्टेसन पर पहुंच गया। और वहां
से टिकट लेकर आगरा के लिए चल पड़ा। इस तरह से पहली रात फिर ट्रेन में सोने में
व्यतित किया। और सुबस सुबह मैं आगरा छावनी रेल्वेस्टेशन पर पहुंच गया। और वहां
स्टेसन से बाहर निकल कर घुमने लगा घुमते-घुमते मैं आगरा के तजमहल तक पहुचं गया। और
टिकट लेकर ताजमहल को देखने चला गया। और काफी समय तक ताजमहल का दिदार करता रहा फिर
कुछ एक घंटें में उससे बाहर आकर युं ही मैं घुम रहा था। लेकिन मेरा दिल अन्दर ही
अन्दर से बैठा जा रहा था, जो आने वाला खतरा था उसका कोई समाधन
मेरे पास नहीं था। कि मुझको कहां जाना हैं? और अपनी जीन्दगी
का आगे गुजर बसर कैसे करना हैं? इसी विचार में खोया हुआ मैं आगरा के
ताजमहल को देख कर कुछ एक घंटों में बाहर आगया। और फिर वहां से रेल्वेस्टेसन पर और
वहां से सड़क पकड़ कर कई बार आगरा शहर का पैदल ही भ्रमण किया। औऱ अन्त में थक हार
कर आगरा कैंट रेल्वेस्टेसन पर आकर सो गया। वहां कुछ देर के बाद मुझको एक पुलिस
वाले ने जगाया और मुझसे पुछा कहां जाना हैं? और मैं कहां से
आया हुं? सायद वह मुझ इस स्टेसन का चक्कर लगाते हुए कई बार देख चुका था। मैंने
तुरन्त कोटा से आगरा आने का जो टिकट मेरे पास था, उसको जेब से
निकाल कर दिखा दिया। और उससे बचने के लिए, मैंन उससे कहा कि मुझे बंगलौर जाना
हैं। उस पुलिस वाले ने कहा बंगलौर जाना हैं और तुम्हारे पास कोई सामान नहीं हैं।
मैंने कहा मेरा मित्र वहीं पर रहता हैं। वहां जाने पर हमारी सारी व्यवस्था हो
जाएगी।
उस पुलिस वाले ने कहां ठिक हैं चलो टिकट लेलो ट्रेन आने वाली है। और
प्लेटफार्म पर पहूंचो, इस तरह से मैं ना चाहते हुए भी उस पुलिस वाले
से स्वयं को बचाने के लिए, टिकट खिड़की पर पहुंचा और एक टिकट
बंगलौर का ले लिया। और वहां से सिधा प्लेटफार्म पर जाकर गाड़ी का इन्तजार करने
लगा। करिब बारह बजे ट्रेन बंगलौर जाने वाली आगई। जिसके लोकल डिब्बे किसी तरह से
मसक्कत के साथ मैंन प्रवेश कर लिया। और किसी तरह से रात को व्यतित करने लगा। कुछ
देर में मैने किसी तरह से अपने आपको बोगी के गलियारे में व्यवस्थित कर लिया। और
निद ने अपने आगोस में मुझको खिच लिया। जिसका कारण दिन भर की थकान थी।
मैं बंगलौर पहुंच गया उससे पहले मुझको कुछ उत्तर प्रदेश के मजदुर जो वहां
पर कार्य करने जा रहे थे उनको अपना मित्र बना लिया। और उनके साथ हो लिया और उन
सबसे मैने बहुत अनुनय विनय किया की वह मुझको भी किसी कार्य को अपने साथ ले चलकर
वहां पर लगवा देदे, पहले तो तैयार नहीं हुए मगर मेरे बार बार
अनुरोध करने पर वह सब तैयार हो गये। मुझको अपने साथ ले जाने के लिए। इस तरह से मैं
उन मजदुरों के साथ बंगलौर उनके रहने के स्थाना पर पहुंच गया। वह सब अपने कुछ अपने
पुराने आदमियों के पास गयें थे। वह सब एक इमारत जो बन रही थी उसमें सैटरिंग का
कार्य करते थे। उन सब के लिए एक पार्क में गंदे इलाके में टिन के कमरें बना कर
दिया गया था जैसा कि प्रायः किसी इमारत में काम करने वाले मजदुर रहा करते हैं।
मेरा वहां उन मजदुरों ने परिचय कराया और अपने साथ रख लिया और मुझसे कहा की कल सुबह
हमारें साथ चलना और अपने काम के लिए हमारें ठेकेदार से बात करना, यदी
वह तुमको काम दे देता है तो ठीक है नहीं तो तुम कहीं और जा कर अपने लिए काम तलास
ले लेना।
अगले दिन सुबह सभी मजदुर सुबह सुबस खाना वगैरह खा कर वहां से अपने अपने काम
पर चल पड़ें। जो वहीं पास में एक नई इमारत बन रहीं थी उसमें सैटेरिंग का कार्य था।
अर्थात ऐसा कार्य जब नई कोई बड़ी इमारत बनती है तो उसमें छत ढालने के लिए जो जैक
औऱ सोल्जर इत्यादी लगा कर उसके लिए सपोर्ट तैयार किया जाता है। फिर उसी के उपर छत
या पिलर को ढाल देते हैं। ऐसा ही यहां भी था यहां एक बहुत बड़ी इमारत बन रहीं थी।
जिसमें हजारों आदमी एक साथ कार्य कर रहें थे। उसमें इन्जिनियर और ठेकेदार सब
अलग-अलग प्रकार का कार्य करा रहे थे।
जब मै वह साइट पर पहुंचा जहां पर इमारत बन रहीं थी तो मैंने देखा कि एक
बड़ी सी सड़क के किनारे गड्ढे को खोद कर करके उसमें एक इमारत बन रहीं थी। जिसकी
पहली मंजिल बन चुकी थी और दूसरी मंजिल को तैयार करने के लिए सैटरिंग कि जा रही थी।
मुझको जो मजदुर अपने साथ ले गये थे, उन्होंने मुझको बताया कि यह ठीकेदार
हैं जाकर बात कर लो, जब मैं उसके पास गया औऱ उसको नमस्कार करके के
उससे अपनी मजबुरीयों के बारें में कहा की मुझको यहां पर काम करने के लिए दे
दीजिये। वह ठेकेदार एक कन्नड़ आदमी था जो हिन्दी बहुत कम समझता था। उसने कहा काम
तो मिल जायेगा मगर यहां पर तू रहेगा कहां? क्योंकि यहां तेरे पास ना पैसा हैं औऱ
ना हीं कोई औऱ साधन हैं तू वापिस चला जा तु यहां नहीं रह सकता है। मैंने कई बार
कहा उसने बार बार मुझसे कहा कि तुमको मैं कहां रह सकता हूं पहले तू अपने रहने की
व्यवस्था कर। क्योंकि यहां तुमको कोई जानता नहीं हैं। तेरी गारंटी कौन लेगा?
तु
किसी का कोई सामान ले कर भाग गया। तो मैं क्या कर पाउंगा? और फिर हम तुमको
कहां तलासेगें? क्योंकि किसी के शकल पर तो लिखा नहीं होता हैं
कि यह आदमी इमानदार हैं। मैं उस समय बहुत अधिक परेशान होकर बड़ी आशा भरी दृष्टी से
उन मजदूरों को देख रहा था। जिनके साथ मैं वहां पर गया था, वह मजदूर भी
मजबुर थे। वह मेरे लिए कुछ भी करने में मजबुर थे। इसी बीच हमारी बातों को उन
मजदूरों में से एक पुराना मजदूर जो सारे मजदुरों के मैनेजर का बड़ा भाई था। जिसकों
लोग वहां पर लम्बु-लम्बु कहते थे। वह था भी काफी लम्बा उसने वहीं अपने स्थान जहां
वह काम कर रहा था वहीं से ठेकेदार से कहा कि कोई बात नहीं आप इस लड़के को काम दे
दीजिये। मैं इसके अपने कमरें में रख लुगां, और इसकी गारंटी
मैं लेता हूं। यह सारे आदमी प्रायः बहुत गरिब और शुद्र किस्म के बेकार अनपढ़ लोग
थे। लेकिन इनका हृदय बहुत बड़ा था जिसका प्रमाण एक बार मुझको फिर मिल चुका था।
इस प्रकार से मैं वहां पर उनके साथ सैटरिंग के कार्य में हेल्पर के स्थान
पर कार्य करने लगा। जिसमें मेरा काम था उन सब का सहयोग करना जैसे जैक और सोल्जर
लगाना, और जहां पर कार्य पुरा हो चुका हैं। अर्थात जहां कि ढलाई होजाती थी
और छत कुछ पक जाती थी। तो उसके निचे से जैक सौल्जर को निकाल कर वहां से लक्कड़
वगैरह को एक स्थान से दूसरे स्थाना पर ले जाना और लागान पड़ता था। मेरे साथ और भी
बहुत से आदमी कार्य करते थे। और भी बहुत प्रकार के छोटे-छोटे कार्य वहां पर करने
के लिये थे। यह कार्य 12 घंटे का था दोपहर
में खाने के लिए भी थोड़ा समय मिलता था। फिर रात में लम्बु के कमरे में रहते थे जो
टिन का बना था। जिसमें रात्री के समय वही एक लकड़ी का चुल्हा था जिसपर खाना बनता
था जिसमें भी मैं थोड़ा सहयोग करता था। वहां बहुत सारे लोग एक साथ रहते थे। एक
प्रकार कि अस्थाई कालोनी थी जिसमें कुछ लोग अपनी पत्नी के साथ भी रहते थे।
जिन्होनें थोड़ा अच्छा झोपड़ा बना रखा था, बाकी सब साधरण थे। वह सब मजदूर प्रायः
सभी मंसाहारी थे जिसमें मैं अकेला शाकाहारी था इसलिए धिरे धिरे उन मजदूरों में
मेरी एक अलग पहचान बन गई थी। सभी मुझे पंडित-पंडित कह कर बुलाया करते थे, और
मेरे साथ काफी अधिक सहानूभुती रखते थे।
सप्ताह में एक दिन के लिए छुट्टी हुआ करती थी और यह कार्य रात दिन बराबर
चलता था। क्योंकि जो इमारत का मालिक बनवा रहा था वह इसको जल्दी से जल्दी पुरा करना
चाहता था। और मजदूर सभी ज्यादा से ज्यादा काम करके नशे और मांश का सेवन करके चौबिस
छत्तिस अड़तालिस घंटों तक लगातार कार्य करते थे। कि वह सब ज्यादा से ज्यादा पैसा
वेतन में उठा सके। लेकिन मेरे साथ ऐसा बिल्कुल नहीं था, मैं बारह घंटे
का कार्य भी बड़ी मुस्किल से करता था। औऱ एक दो बार हप्ते में भी नागा कर देता था
अर्थात कां करने के लिए नहीं जाता था। वहीं कमरें पर आराम करता रहता था। या फिर
मैं बंगलौर शहर में घुमने के लिए चला जाता था। और सिनेमा हाल को तलास कर उनमें
वहीं गंदी-गंदी फिल्मों को देख कर अपने विर्य का नाश करता था। (जिसका परिणाम मुझे
मेरे आगें के जीवन के लिये अत्यन्त दुःख का कारण बना जिसके द्वारा ही मेरा लगभग
सर्वनाश होने लगा) ऐसा ही कई दिनो तक लगभग महिनो तक इसी में बित गए, और
पता नहीं चला अक्सर लम्बु अपने कार्य पर ही रहता था। वह मुझसो नहीं मिलता था इस
तरह से ज्यादा बाते मुझसे कोई कहने वाला नहीं था। मैं स्वतन्त्र रूप से जैसी इच्छा
होती वैसा करता था। पैसा हर सप्ताह का मिलता था खाने पिने का थोड़ा रुपया काट कर
लम्बु का छोटा भाई जो मजदुरों का मैनेजर पैसा लाकर वह सब को कमरें पर एक दिन जिस
दिन अवकाश होता था प्रायः सब को देता था जिसमें एक मैं भी था।
इस तरह से जब मेरे पास पैसे आते तो मैं उनका बहुत अधिक वेपरवाही से खर्च
करता था। अपनी काम वासना की तृप्ती के लिए, कभी-कभी होटलों
में भी खाना खाता था। एकाक बार पुराना फुटपाथ से अपने लिए कपड़ा भी खरिद लिया था।
क्योंकि मेरे पास एक हीं पैंट सर्ट था पहले जिससे उसको साफ करने में काफी दिक्कत
होती थी। कभी कभार एकाक महिने में ही साफ करता और नहाता था। वहां पर सभी कन्नड़
बोलते थे और मांश सेवन और शराब पिना लगभग सभी की यहीं आदत थी। ठेकेदार भी काफी
शराब पिता था इसलिए वह सुबह प्रायः नशें में ही रहता था और सब को डांट डपट कर ही
बातें करता था। जिसके कारण वहां काम का दबाव हमेशा बना कर रखता था। वह भी जल्दी से
जल्दी कार्य को पुरा करना चाहते था। यह स्थान बंगलौर का एक गाद्दागली नाम से जाना
जाने वाला इलाका था। वहीं से थोड़ी दूरी पर एर बहुत बड़ी इस्कान की मन्दिर भी थी,
जिसमें
मैं कभी कभार जाता था और बाहर से ही देख कर वापिस आजाता था। मेरा खाली समय काम के
अतिरिक्त बंगलौर शहर घुमने में और सिनेमाहालों के चक्कर लगाने में और वहां फिल्म
देखने में हीं व्यतित होता थे। इसके अतिरिक्त मैं खाली सड़को का युं हीं चक्कर
लगाता रहता था।
सब कुछ ठीक चल रहा था किसी तरह जीवन की गाड़ी घसिट-घसिट कर चल रही थी,
कि
एक दिन जब मैं पानी लेने के लिए टंकी पर गया था जहां पर प्रायः नहाया भी करते थे।
वहीं पर एक कन्नड़ जवान स्त्री भी आया करती थी, वह एक दिन मुझपर
नाराज हो गई, और मुझको गाली गलौच देने लगी और अपने पति को
बुला लिया, वह भी आकर मुझ पर लाला पिला होने लगा। जिससे
मुझको ज्ञात हुआ कि वह लोग बहुत अधिक क्रोधी होते है। और उनमें अत्यधिक नस्ल वाद
भी होती है। उनके हाव भाव से मैं जान गया कि उनको मेरा वहां पर नहाना अच्छा नहीं
लगा। तब तक लम्बु का एक आदमी वहां पर आगया और वह समझ गया मामला गंभिर होने वाला
हैं इसलिए वह मुझको वहां ले कर तुरंत चला गया।
अगले दिन सुबह जब मैं काम करने के लिए साईट पर गया वहां पर कुछ समय तक तो
सब ठीक था फिर कुछ देर में एक आदमी जो मेरे साथ था वह मुझसे दबा कर काम लेने लगा।
वहां पर बहुत अधिक सोल्जर थे जिनको हटाने कार्य वह मेरे साथ कर रहा था। मुझको निचे
खड़ा करके स्वयं उपर खड़ा हो कर काफी तेजी-तेजी से मेरी तरफ सौल्जरों को फेकने लगा,
वह काफी
पुराना वहां का आदमी था। जिसके कारण वह कार्य को बहुत फुर्ती से करता था मैं उसके
साथ पुरी तरह से सट नहीं पा रहा था। अचानक इसी कार्य में एक सोल्जर मेरे पंजे से
फिसल कर मेरी कलाई पर काफी तेजी से गिरा पड़ा, जिसके कारण मेरी
कलाई छिल गई और मेरी कलाई में काफी अधिक दर्द होने लगा, जो मेरी
सहनशिलता से बहुत अधिक था। जिसके कारण मैं काफी तेज रोने लगा, बच्चों
की तरह से और वहां से रोते हुए बाहर निकल आया। और लोग मुझे आश्चर्य से देख रहे थे
जिसमें प्रायः कन्नड़ ही थे। क्योंकि मैंने यह समझा की मेरी कलाई टुट गई हैं लेकिन
मेरी कलाई टुटी नहीं थी अन्दुरीनि चोट लगी थी। जिसके कारण मैंने काम पर जाना
बिल्कुल बन्द कर दिया, कुछ एक दिन तक कमरें पर रहा औऱ ऐसे ही शहर में
घुमा करता था। किसी दूसरें काम कि तलास में लेकिन मुझको इसमें सफलता नहीं मिली। और
अन्त में लम्बु नें मेरे व्यवहार से तंग आकर अपने भाई से कह कर मुझको कुछ रुपया
दिला दिया। और बोला की तुम अब अपने घर चले जाओ, तुम यहां पर
नहीं रह सकते हो। मैंने उससे या वहां पर किसी से बिल्कुल बात चित करना बन्द कर
दिया था। मैंने लोगों को पहले से ही लिख कर बता चुका था की अब मैं बिल्कुल बात
नहीं कुरुगां और हमेशा मौन ही रहुंगा। वह लोग भी हमारी बातों को मान चुके थे इसलिए
मुझसे कोई बात करता भी नहीं था। क्योंकि बात करने से कोई समाधन नहीं निकलने वाला
था। मेरे साथ हीं हमेशा ऐसी ही विकराल स्थिती खड़ी होती थी।
इस तरह से मैं एक बार फिर सड़क मुसाफिर बन चुका था मेरा वहां रहना मुस्किल
ही नहीं असंभव हो चुका था। सिनेमाहालों का चक्कर लगाया और कुछ एक फिल्म को देखा,
और
अन्त में मैं बंगलौर स्टेसन पर पहुंच गया, और काफी समय युं हीं बहर रेल्वेस्टेसन
पर बैठ कर बिताया। और रात्री के समय वहां से एक ट्रेन को पकड़ लिया, जो
दिल्ली के लिए थी। यह सफर कई एक दिनो का था क्योकि मैंने टिकट नहीं लिया था इसलिए
मैं एक ट्रेन में सफर नहीं करता था कुछ घंटे एक ट्रेन में यात्रा करने के बाद किसी
बड़े स्टेसन पर उस ट्रेन को छोड़ कर किसी दूसरी ट्रेन में सवार हो जाता था। ऐसा
करते हुए मैं एक दो दिन में नान्देड़ रेल्वेस्टन पर पहुंचा और वहां स्टेसन से बाहर
निकल कर शहर की दिवालों पर पोस्टरों को देखता हुआ सिनेमा हाल को तलास लिया जिसमें
गंदी फिल्म लगी हुई थी। और वहीं पर काफी देर तक बैठ फिल्म चालु होने का इन्तजार
किया औऱ टिकट लेकर अन्दर गया, जब फिल्म पुरी हो जाती हैं तो मैं
सिनेमाहाल से बाहर निकला और फिर स्टेसन पर पहुंचा और वहां से फिर एक ट्रेन पकड़
लिया, जिस ट्रेन सें मैं रात्री के समय में इटारसी रेल्वेस्टेसन पर निचे
उतर गया। क्योंकि मैं ना ही दिल्ली जाना चाहता था और ना ही अपने घर ही जाना चाहता
था। क्योंकि दोनो जगह के दर्दनाक यादें अभी मेरी स्मृत्ती में व्याप्त थी। जिसको
मैं फिर से बार बार दोहराना नहीं चाहता था। इसलिए मैं दिन भर इटारसी शहर में घुमता
था, और रात्री के समय वहीं स्टेशन के बाहर एक छोटा पेड़ था जिसके निचे
काफी धुल धक्कड़ थी। वहीं पर आ कर थक हार कर सो जाता था। ऐसे ही एक दिन मैं इटारसी
के एक सिनेमाहाल में फिल्म देखने के लिए गया था, जहां पर मेरे
साथ एक लड़का भी फिल्म उस अस्लिल फिल्म को देखने के लिए आया था। जब मेरी उससे काफी
बात हुइ तो उसको मुझसे अत्यधिक सहानुभुती होगई और वह मुझे फिल्म खत्म होने के बाद
अपने साथ लेकर घर गया औऱ मेरे से कहा तुम मेरे यहां पर ढोरों को चराने का कार्य
करना। लेकिन जब वह मुझको लेकर अपने घर पहुंचा तो उसकी मां ने मुझको खाना खिलाया और
बोली तुम जाओ किसी और काम की तलास कर लो हमारें पास तुम्हारें लिए किसी प्रकार सा
काम नहीं हैं। इस तरह से मैं फिर इटारसी रेल्वेस्टेसन पर आ गया। और किसी मन्दिर या
आश्रम की तलास करने लगां जहां पर मैं कुछ दिन रह सकु उस समय मेरे पैसे लगभग खत्म
हो चुके थे। वहां किसी मन्दिर पर जाने के
बाद मुझको पता चला की यहां से थोड़ी दूरी पर होसंगाबाद हैं। जहां पर नर्मदानदी हैं
जिसके किनारे बहुत बड़ी मन्दिरें है और वहां पर बहुत अधिक लोग रहते हैं। और जहां
पर मुझको रहने के लिए जगह मिल सकती हैं। इस तरह से आज मेरे लिये वहां जाना संभव
नहीं था क्योंकि मेरे पास पैसे किराये के नही थे? मैंने यह निर्णय
किया की मैं कल सुबह ही यहां से पैदल ही चलुगा। और मैने किसी तरह से उस पेड़ के
निचें धुल धुसर में रात को विताया और सुबह सुबह वहां से होसंगाबाद के लिये निकल
पड़ा जो इटारसी से लगभग 18 से बीस किलोंमिटर दूरी पर था। जहां पर मैं लगभग एक बजे
दिन में पहुंच गया। और वहां से सिधा मैं नर्मदा नदी के किनारे गया, लेकिन
मुझे वहां किसी प्रकार के आश्रय की आशा नहीं लगीं। क्योंकि उस दिन कोई विशेष दिन
था जिसके कारण वहां नदीं किनारे पर काफी भीड़–भाड़ थी। मैं
वापिस फिर बाजार में आ गया वहीं पर एक पार्क था। जिसमें कुछ समय आराम करने के लिए
लेट गया और उस समय मेरे पास एक प्लास्टिक की पन्नी थी। जिसमें एक पैन्ट सर्ट के
अतिरिक्त एक रजिस्टर औऱ एक पेन थी जिसमें कभी कभी मैं ऐसे हीं रजीस्टर में मेरे
दिल में जो भी आता था अपने दुःख और अनुभवो को लिखता रहता था। इस प्रकार से उस थैले
को अपने सर से लगा के सो गया, हरी हरी घासों पर जिससे मुझको कुछ समय
में निद आगई।
वही पार्क के पास में एक कबाड़ी की दुकान था जो वहां पार्क में अक्सर घुमने
के लिए आता था। मेरी नीद जब खुली तो शाम हो चुकी थी और मेरी मुलकात वहां पर बैठे
कबाड़ी के दुकान के मालिक से हुइ। मैने उससे बात चित करना शुरु किया और कहां की
मुझे यहां पर कोई काम मिल सकता हैं क्या? वह कबाड़ी वाला पेशे से कबाड़ी वाला था
और स्वभाव और हाव भाव से पंडित की तरह से दिखता था। उसने पहले मेरे बारें में
मुझसे सब कुछ पुछा और पुछा मैं कहां से आरहा हूं? मैने उसके सान्तवा के लिए कुछ सहीं कुछ
गलत उत्तर के रुप में जबाब दे दिये। उस कबाड़ी ने मुझसे कहा यहां काम मिलना कोई
आसान कार्य नहीं हैं। हां यहां औऱ जब तक तुमको कोई कार्य नहीं मिलता हैं। तब तक
तुम मेरे यहां खाना खा लेना और मेरे पास में हीं होसंगाबाद रेल्वेस्टेसन हैं। वहां
जाकर सो जाना मैं रेल्वेस्टेसन पर कई लोगों को मैं जानता हूं उनसे बोल दुंगा जिससे
वह तुमको कुछ भी नहीं बोलेंगे।
इस प्रकार से मैं उस कबाड़ी के साथ उसकी पास में ही एक छोटी सी कबाड़ी कि
दुकान पर पहूंचा, उस दुकान के पिछे उसका परिवार रहता था। जिसमें
उसकी पत्नी और उसका एक बेटा और एक उसकी एक लड़की रहती थी। मैं वहीं बाहर उसके साथ
उसके गोमती के बगल में एक छोटी सी बेन्च पर बैठ गया। कुछ देर बितने के बाद उसने
अपने लड़के से कह कर मेरे लिये कुछ रोटी और सब्जी को मंगाया। और उसने लाकर मुझे
खाने के लिए दिया। जिसको मैंने खा लिया उसके बाद उसने अपने लड़के से कह कह कर
मुझको रेल्वेस्टेसन पर भेज दिया। जहां पर उसके लड़के ने मुझको एक स्थान दिखा दिया,
और
बोला यही सो जाना तुमको यहां पर कोई नहीं बोलेगा। मेरे साथ ऐसा हीं हुआ मैं वहां
रात भर आराम से सोया रहा, मेरे पास कोई भी नहीं आया यह पुछने के
लिए कि मैं वहां पर क्यों सोया हुआ हूं। सुबह होने पर मैं फिर कबाड़े की दुकान पर
पहूंच गया जहां पर कबाड़ी नहा धोकर अपने सफेद धोती और सफेद आधें बांह की गंजी को
पहन कर माथे पर चंदन वगैरह लगा कर बैठा था। जब उसकी निगाह मुझ पर पड़ी तो उसने कहा
आवो रात अच्छे से बीत गई ना, मैने कहा हां। उसने कहा बैठो तुमहारें
लिए चाय मंगाता हूं और उसने अपने लड़के से चाय मंगा कर मुझको पिने के लिए दिलाया।
कुछ एक दिन ऐशा ही चलता रहा दिन में मैं काम की तलास में होसंगाबाद शहर में घुमने
के लिए चला जाता था। एक दिन ऐसे ही घुमते घुमते एक सड़क छाप होटल पर पहुंच गया। और
उससे काम के लिए कहा, वह एक ऐसा ही सड़क के किनारे ताल पतरी और लकड़ी
की झोपड़ी बना कर बना था। उसके बगल में एक शराब का ठीका था जिससे वह होटल काफी
अच्छा चलता था। उस होटल का एक ठीगना सा मालिक था उसने मेरे से बात किया और जब मेरे
बारें में सब कुछ जान लिया। तो उसने कहा ठीक है तुम यहां रह सकते हो खाना पिना
रहना उसके अतिरिक्च मैं तुम्हें छः सौ रुपये महिने में तन्ख्वाह के रुप में दे
दुंगा। और इस प्रकार से मैने कबाड़ी के साथ को छोड़ कर यहां इस सड़क छाप होटल में
अपना ठीकाना बना लिया। जहां पर मेरे लिए खाने की कोई कमी नहीं थी। और काम भी बहुत
अधिक था वहां मांश को पकाया जाता था, उसको साफ करना, प्याजा काटना,
बर्तन
साफ करना, खाना ग्राहको परोसना बहुत सा कार्य था। उस होटल के पिछे एक नाला था
जिसके किनारे पर बैठ कर बर्तन वगैरह साफ करना, और मांश को
पकाने के पहले उसको धोना पड़ता था। यह मांश धोने का कार्य मुझे बहुत घठिया लगता
था। मेरे अतिरिक्त भी वहां पर औऱ भी नौकर थे वह सब कारिगर थे वह सब प्रायः कार्य
के लिए मुझसे कहते थे। कि छोटु यह कार्य करदो थाली लगादो ,ग्लास पानी रख
दो सलाद रखो इत्यादी कार्य होता था। वहां होटल में प्रायः लोग शराब पिने के लिए ही
आते थे। और दिन भर शराब ही पिते रहते थे। सुबह से रात्री बारह बजे तक यह कार्य की
धमाल चौकड़ी चलता रहता था। ऐसे ही रात में कुछ सोने का मौका मिलता था वहीं
झोपड़पट्टी नुमा होटल में कुछ दिनो में मैं उस कार्य से तंग आगया।
अक्सर वहां से स्नान करने के लिए में नर्मदा नदी के किनारे पर जाता था और
वहां पर काफी समय आराम करता था, और काफी देर में स्नान करके आता था। जो
होटल मालिक और दूसरे नौकरों को अच्छा नहीं लगता था। इसके बारें में मुझसे कई बार
कह चुके थे स्नान करके जल्दी आया करों। मैं यहीं कहता कपड़ा गंदा था उसको साफ करने
में देर होगई। ऐसा ही कई दिनो तक चलता रहा। एख दिन मैं होटल से नर्मदा नदी में
स्नान करने गया मेरा दिमग बहुत अधिक परेशान था मेरे पास कुछ भी नहीं था शिवाय दश
बिस रुपये के मैं काफी देर तक नदी किनारे बनी पत्थर की सिढ़ियों पर बैठा रहा और
होटल पर ना जाने का फैसला किया मैने सोचा की आज मैं अपने लिए कोई दूसरा ठिकान की
तलास करुंगा।
इस तरह से मैं वहां नदी किनारे बड़ी-बड़ी मन्दिरों का चक्कर लगाने लगा,
और
कई मन्दिरों में गया औऱ वहीं पर स्वयं को रहने के लिए लोगों से बात की क्या मैं
यहां किसी मन्दिर में रह सकता हूं? औऱ यहीं पर सेवा भाव का कार्य करना
चाहता हूं। कई मन्दिरों में जाने के बाद मुझे निराशा हूइ। वह मन्दिरे प्रायः एक
प्रकार से साधु और सन्यासियों के लिये एक प्रकार के आश्रम के समान थी। जो वहां
महत्त्वपूर्ण बात थी वह यह थी कि उन मन्दिरों में प्रायः उसी सम्प्रदाय के लोग या
साधु सन्यासी ही रह सकते थे। जैसा कि मैं किसी समप्रदाय का तो था नहीं और ना ही
उनके बारे में मेरे पास कोई अधिक जावकारी ही थी। कुछ राम सिता की मन्दिर थी और कुछ
हनुमान, कुछ संकर, और कुछ विष्णु आदी देवताओं की हैं। वह सब काफी
पुरानी मन्दिरे है जो काफी बड़ी है जहां पर हर प्रकार की व्यवस्था की गई वहां पर
भी प्रायः नशेणी और गजेणी किस्म के गुरु शिष्य की परम्पराओं का पालन किया जाता था।
जहां पर प्रायः मठाधिसो के अन्तर्गत सारे कार्य किये जाते थे। मन्दिरों को काफी
सुन्दर औऱ साफ शुथरा रखने की अच्छी व्यवस्था की गई थी।
लेकिन इन मन्दिरों में मुझे कही रहने का कोई स्थान नहीं मिला, हां
यह अवश्य था की वही एक मंदिर में से मुझको किसी एक सज्जन मिश्रा जी ने बताया की
यहां होसंगाबाद में यहां से कुछ दूरी पर एक आश्रम हैं जहां पर हमारें राज्य आर्थात
उत्तरप्रदेश बनारस के पास के काफी ब्रह्मचारी रहते हैं। यदी मै वहां पर चला जाउं
तो मुझको वहां पर रहने के लिए स्थाना मिल सकता हैं। और वहां पर मेरी सारी व्यवस्था
हो सकती है। यह सुनते ही मेरे हृदय में एक आशा का संचार हुआ और जीवन में एक जीने
की ललक फिर पैदा होगई। मैंने उन महाशय से उस आश्रम का पता पुछा और उनका धन्यवाद
करके, सिधा उस आश्रम की खोज पर निकल पड़ा उस समय करीब शाम के चार बज चुके
थे। मैं कई लोगों से रास्ते में पुंछ-पुंछ कर अन्त में उस आश्रम में पहूंच गया।
जिसका नाम था गुरुकुल होसंगाबाद, जो नर्मदा नदी के किनारे पर हैं। जिसके
बगल से ही रेल्वेलाईन गुजरती हैं।
जब मैं आश्रम में पहुंचा तो देखा कि वह गुरुकुलिय आश्रम काफी बड़ा था लगभग
24 एकड़ में फैला हुआ है। जिसमें काफी मनोरम दृश्य थे फल फुल के बगिचे थे और उसमें
काफी लड़के पढ़ने के लिए रहते थे वह एक आवासिय विद्यालय था जिसको गुरुकुल कहते थे।
उस समय शाम का समय था करीब छः बजने वाले थे। उस गुरुकुल के आचार्य नैष्ठिक
ब्रह्मचारी सन्यासी ऋतस्पती जो लाल कपड़ों में थे। वह कुछ लड़को को ले कर वहां पर
कुछ साफ सफाई का काम कर रहा थे। मैं सिधा उनके पास पहुंचा और बड़े सलिके से
नमस्कार करके उनसे वहां अपने आने का कारण बताया, और मैने कहां की
मैं इस समय बड़ी मुसिबत में हूं मेरी किसी प्रकार से सहायता करें। उन्होंने मुझसे
काफी बात चित की और मेरे बारें में सबकुछ पुछ कर स्वयं को आश्वस्थ किया। फिर
उन्होंने मुझसे कहा की यहां पर ब्रह्मचारी रहते हैं। वह पढ़ते हैं और कुछ अध्यापक
रहते हैं जो उनको पढ़ाते हैं। तुम यहां पर रह कर क्या कर सकते हो? मैंने कहा कि मैं यहां रह कर अध्यन
करुंगा। मुझे यहां पर रह कर पढ़ने का मौका दीजिये, आपकी बड़ी कृपा
होगी इस तरह से वह सहृदय सन्यासी मुझे वहां आश्रम में रहने की अनुमती दे देता हैं।
जहां पर मुझको खाने की अच्छी व्यवस्था औऱ रहने के लिए कए अच्छा कमरा दे दिया। इस
तरह से मैं वहां रह कर अध्यन करने लगा। और वहां की दिन चर्या का हिस्सा बन गया
वहां पर कई सौ ब्रह्मचारी जो लगभग पुरे भारत के आकर अध्यन किया करते थे। जिनमें
कुछ हमारी तरफ के भी ब्रह्मचारी थे। जिनसे बाद में मेरी काफी अच्छी मित्रता होगई
थी।
जहां तक मेरी शिक्षा का सवाल था पहले मैं जब अपने घर पर रहता था तो मैं
ज्ञानपुर के काशीनरेश स्नाकोत्तर महाविद्यालय में कुछ एक साल अध्यन के बाद मेरे
जीवन में आने वालीं व्यवधानो से परेशान हो कर उसको छोड़ कर शहरों और महानगरों में
रहने लगा था। और महानगरों में जब मैं रहता था तो मैं किसी तरह से रजनिश ओशो के
बिचारों के सम्पर्क में आगया था। और मैंने जमकर उनकी किताबो का लगातार कई सालों तक
खुब अध्यन किया था। और उनके द्वारा हीं ध्यान योग का भी अभ्यास करने लगा था जिसके
कारण मेरे जीवन पर रजनिश ओशो के बिचारों का बहुत अधिक प्रभाव था। मैं बात बात पर
उनके विचारों का औऱ उनके नाम का वर्णन करता था। और उनके उदहारणों के द्वारा अपनी
बातों को सिद्ध करने का प्रयाश करता था। लेकिन यह जान कर बड़ा आश्चर्य हुआ की जिस
गुरुकुल में उस समय था वह सब रजनिश के विचार के बिरोधी थे। यह सब प्राचिन ऋषि
प्रणित आर्ष ग्रन्थों को मानने वाले थे। और जिनके संस्थापक महर्षि स्वामी दयानन्द
सरस्वती थे। अर्थात वह सब आर्य समाजी हैं, जो इश्वर को निराकार मानते हैं,
औऱ
उस ईश्वर का मुख्य निज नाम ओ३म् हैं। इनके
मुख्य ग्रन्थ है चार वेद हैं पहला ऋग्वेद दूसरा यजुर्वेद तीसरा साम वेद और चौथा
अथर्वेद हैं। इसका साक्षात्कार क्रमशः अग्नी ऋषी, वायु ऋषी,
आदित्य
ऋषी और अङ्गिरा ऋषि को माना जाता हैं। और यह वेद मानव कृत नहीं माने जाते हैं। यह
स्वयं परमेश्वर श्रृष्ठी के प्रारंम्भ में उत्पन्न करता है। इसके अतिरिक्त इसके छः अंग हैं शिक्षा, कल्प,
निरुक्त,
छन्द
व्यकरण और ज्योतिषी हैं। और इसके उपांग हैं जिनको हम सब आस्तिक दर्शन मानते हैं
जिनमे न्याय दर्शन, गौतम ऋषि द्वारा प्रणित हैं, वैशेषिक
दर्शन कणाद ऋषि द्वारा प्रणित हैं, साख्य दर्शन जो कपिल ऋषि द्वारा प्रणित
हैं, योग दर्शन जो पतंञ्जली ऋषि द्वारा प्रणित हैं। मिमांशा जैमिनी ऋषी
द्वारा प्रणित हैं और वेदान्त व्याष ऋषि द्वारा प्रणित हैं। इसके अतिरिक्त ग्यारह
उपनिषद को यह मानते है। और वैदिक इतीहास के रुप मे रामायण, महाभारत को
मानते हैं। यह पुराणो को नहीं मानते हैं, औऱ यह मुर्ती पुजा नहीं करते हैं। यह
सब यज्ञ हवन करते हैं, इनके अनुसार यहीं प्राचिन भारतिय पद्दती हैं।
महर्षि स्वामि दयानन्द सरस्वती द्वारा रचित उनका कालजई ग्रन्थ सत्यार्थ प्रकाश
इनका मुख्य ग्रन्थ माना जाता हैं। इस प्रकार से मुझको इस गुरुकल में रह कर इन
ग्रन्थों को चिन्तन मनन करने का समय मिला और सबसे बड़ी बात यह है कि यहां पर
आचार्य ब्रह्मचारी लड़को पर बिशेष जोर दिया करते थे। कि वह सदैव लंगोट को पहने और
विर्य का रक्षण करना सिखें, किसी प्रकार से अपने विर्य का अस्खल ना
होने दे जिसके लिये एक निश्चित दिन चर्या बना कर रखी गई हैं। सुबह चार बजे उठना
नित्य कृया से निवृत्त हो कर व्यायाम करना स्वध्याय करना रोज सुबह संध्या करना।
फिर नास्ता इसके बाद विद्यालय में अध्यन करना, शाम को फिर
व्यायाम, संध्या, स्वाध्याय और एकाक घंटे शारिरीक परिश्रम गुरु
के लिए करना पड़ता था। जो लगभग सबको करना पड़ता था जो पढ़ने के लिए वहां
ब्रहम्चारी के रुप में रहते थे। जो विशेष बात देखने को मिली मुझको वहां हर कार्य
को करने से पहले वेदों मन्त्रों का गायन करना पड़ता था। व्यायाम के लिए प्रातः
कालिन मन्त्र, शांय कालिन मन्त्र सोने से पहले के मन्त्र
जिसका निरंतर अनवरत होता था। जो धिरे धिरे लगभग मुझको भी कठस्थ हो गये। जिनको
संख्या हजारों में हैं जो मुझको किसी ना किसी रुप में आज भी याद हैं। जैसे कुछ
मन्त्रों का उदाहरण यहां पर देता हूं।
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