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वैदिक शास्त्रों का अध्ययन

  वैदिक शास्त्रों का अध्ययन


  प्रातःकालीन के मन्त्र
 
 ओ३म् प्रातरग्निं प्रातरिन्द्रं हवामहे प्रातर्मित्रावरुणा प्रातरश्विना। प्रातर्भगं पूषणं ब्रह्मणस्पतिं प्रातस्सोममुत रुद्रं हुवेम ।।
(ऋग्वेद ७.४१.१)

     हे ज्ञानस्वरूप ज्ञानप्रद परमात्मन्, हे सकल ऐश्वर्य के दाता प्रभो, हे परम प्यारे सूर्य, चन्द्र आदि सब जगत् के रचयिता अपने भक्तों और ब्रह्माण्ड का पालन करने वाले जगदीश, सब मनुष्यों के लिये आप ही सेवनीय हो। आप ही सब भक्तों को शुभ कर्मों में लगाने वाले और उनके रोग शोक आदि कष्टों को दूर करने वाले और अन्तर्यामी हो। हम आपकी ही स्तुति, प्रार्थना और उपसना करते हैं, अन्य की नहीं।
तमोमयी दोषा हुई व्यतीत, प्रातःकाल की वेला आई, पावन परम पुनीत ।

प्रातः अग्नि अक्षय प्रकाश को, प्रातः इन्द्र वैभव निवास को,
प्रातः वरुण बलनिधि विक्रम को, प्रातः मित्र प्रिय प्राणोपम को,

प्रातः सोम को, प्रातः रुद्र को, भजते भक्त विनीत
तमोमयी दोषा हुई व्यतीत ।।१।।

ओे३म् प्रातर्जितं भगमुग्रं हुवेम वयं पुत्रमदितेर्यो विधर्ता ।आध्रश्चिद्यं मन्यमानस्तुरश्चिद्राजाचिद्यं भगं भक्षीत्याह।।
(ऋग्वेद ७.४१.२)

   हे सर्वशक्तिमान्, महातेजस्विन् जगदीश, आपकी महिमा को कौन जान सकता है?आपने सूर्य, चन्द्र, बुध, बृहस्पति, मंगल, शुक्रादि लोकों को बनाया और इनमें अनन्त प्राणी बसाये हैं। उन सबको आपने ही धारण किया और उनमें बसने वाले प्राणियों के गुण, कर्म, स्वभावों को आप ही जानते और उनको सुख, दुःखादि देते हैं। ऐसे महासमर्थ आप प्रभु को, प्रातःकाल में हम स्मरण करते हैं। आप अपने स्मरण का प्रकार भी मन्त्रों द्वारा बता रहे हैं, यह आपकी अपार कृपा है, जिसको हम कभी भूल नहीं सकते।

तमोमयी दोषा हुई व्यतीत
प्रातः उग्र शुचि प्रभावन्त का, जयस्वरूप वैभव अनन्त का,
राजा, खल-शासनकर्त्ता का, लोकों दिव्य आदि धर्त्ता का,
मन्यमान सर्वज्ञ सभी काभग भजनीय देव अवनी का,
सेवनीय आराध्य देव का, हम गाते शुचि गीत,
तमोमयी दोषा हुई व्यतीत

ओ३म् भग प्रणेतर्भग सत्यराधो भगेमां धियमुदवा ददन्नः। भग प्रणो जनय गोभिरश्वैर्भग प्र नृभिर्नृवन्तः स्याम।।
(ऋग्वेद ७.४१.३)

    हे भजनीय प्रभो, आप सारे संसार को उत्पन्न करने वाले और सदाचारी अपने सच्चे भक्तों के लिये सच्चा धन ऐश्वर्य प्रदान करते हैं। जिस बुद्धि से आप हम पर प्रसन्न होवें ऐसी बुद्धि हमें देकर हमारी रक्षा करं। सारे सुखों की जननी उत्तम बुद्धि ही है। इसलिये हम आप से ऐसी प्रज्ञा, मेधा उज्ज्वल बुद्धि की प्रार्थना करते हैं। भगवन्, गौ-घोडे आदि हमें देकर हमारी समृद्धि को बढावें और अच्छे-२ विद्वान् और वीर पुरुषों से हमें संयुक्त करें, जिससे हमें किसी प्रकार का भी कष्ट न हो।सर्वप्रणेता प्रेरक भग हे, सत्य वित्त संप्रषक भग हे।दो वरदान हमें प्रज्ञा का, भार वहन कीजे रक्षा का।

गोधन,वाजि सुभग पशुधन से,हमें समृद्ध करो धन-जन से।
हम होवें सम्यक् नृवन्त, बन्धु सुजन नेह-उपवीत।।
तपोमयी दोषा हुई व्यतीत।।३।।

   ओ३म् उतेदानीं भगवन्तः स्यामोत प्रपित्व उत मध्ये अह्नाम्। उतोदिता मघवन्त्सूर्यस्य वयं देवानां सुमतौ स्याम ।।
(ऋग्वेद७.४१.४)

   हे भगवन्, आपकी कृपा और अपने पुरुषार्थ से हम लोग इस सूर्य के उदयकाल में ऐश्वर्यशाली हों और दिन के मध्यभाग मेंमध्याह्नमें ऐश्वर्य से युक्त हों तथा सूर्यास्त के समय (सायंकाल) ऐश्वर्य से युक्त हों। हे परमपूजित, असंख्य धनप्रदाता परमात्मन्, हम लोग देवपुरुषों की उत्तम प्रज्ञा और सुमति में, उत्तम परामर्श में सदा रहें।

   हम उत्कर्ष प्राप्ति में इस क्षण, हों भगवन्त, पूज्यवर, भगवन्।
सूर्योदय की वेला पावन, दिव्य सुमतियुत हों हम शोभन।।
देवों की अनुकूल सुमतियुत हों हम दिव्य प्रतीत।
तमोमयी दोषा हुई व्यतीत ।।

ओ३म् भग एव भगवाँ अस्तु देवास्तेन वयं भगवन्तः स्याम। तं त्वा भग सर्व इज्जोहवीति स नो भग पुर एता भवेह ।।
(ऋग्वेद ७.४१.५)

   दे सकल ऐश्वर्यसम्पन्न जगदीश्वर, जिससे सब सज्जन निश्चय ही आपको पुकारते हैं, आपकी प्रशंसा और गुणगान करते हैं, हे ऐश्वर्यप्रद, आप इस संसार में हमारे अग्रणी, नेता अर्थात् आदर्श, शुभकर्मों में प्रेरित करने वाले हों। पूजनीय देव परमात्मा ही हमारा ऐश्वर्य हो। आपके कृपाकटाक्ष से हम विद्वान् लोग सकल ऐश्वर्यसम्पन्न होकर, सब संसार के उपकार में तन-मन-धन से प्रवृत्त होवें।

सुभग बनें भगवान् हमारे, पथ-दर्शक जीवन उजियारे।
हो जावें सौभाग्यवान् हम, सकल देवजन तुझसे प्रियतम।।
हों धन-धान्यवान् हम भगवन्, करते मुक्त-कण्ठ तव वन्दन।
होवें हम तव कृपाकोर से धन-वैभव के मीत।
तमोमयी दोषा हुई व्यतीत।।

   ईश्वर की स्तुति - प्रार्थना उपासना के मंत्र


ॐ विश्वानि देव सवितर्दुरितानि परासुव । यद् भद्रं तन्न आ सुव ॥१॥

     मंत्रार्थ हे सब सुखों के दाता ज्ञान के प्रकाशक सकल जगत के उत्पत्तिकर्ता एवं समग्र ऐश्वर्ययुक्त परमेश्वर! आप हमारे सम्पूर्ण दुर्गुणों, दुर्व्यसनों और दुखों को दूर कर दीजिए, और जो कल्याणकारक गुण, कर्म, स्वभाव, सुख और पदार्थ हैं, उसको हमें भलीभांति प्राप्त कराइये।

हिरण्यगर्भ: समवर्त्तताग्रे भूतस्य जात: पतिरेक आसीत् ।
स दाधार पृथिवीं द्यामुतेमां कस्मै देवाय हविषा विधेम ॥२॥

    मंत्रार्थ सृष्टि के उत्पन्न होने से पूर्व और सृष्टि रचना के आरम्भ में स्वप्रकाशस्वरूप और जिसने प्रकाशयुक्त सूर्य, चन्द्र, तारे, ग्रह-उपग्रह आदि पदार्थों को उत्पन्न करके अपने अन्दर धारण कर रखा है, वह परमात्मा सम्यक् रूप से वर्तमान था। वही उत्पन्न हुए सम्पूर्ण जगत का प्रसिद्ध स्वामी केवल अकेला एक ही था। उसी परमात्मा ने इस पृथ्वीलोक और द्युलोक आदि को धारण किया हुआ है, हम लोग उस सुखस्वरूप, सृष्टिपालक, शुद्ध एवं प्रकाश-दिव्य-सामर्थ्य युक्त परमात्मा की प्राप्ति के लिये ग्रहण करने योग्य योगाभ्यास व हव्य पदार्थों द्वारा विशेष भक्ति करते हैं।

य आत्मदा बलदा यस्य विश्व उपासते प्रशिषं यस्य देवा: ।
यस्य छायाऽमृतं यस्य मृत्यु: कस्मै देवाय हविषा विधेम ॥३॥

     मंत्रार्थ जो परमात्मा आत्मज्ञान का दाता शारीरिक, आत्मिक और सामाजिक बल का देने वाला है, जिसकी सब विद्वान लोग उपासना करते हैं, जिसकी शासन, व्यवस्था, शिक्षा को सभी मानते हैं, जिसका आश्रय ही मोक्षसुखदायक है, और जिसको न मानना अर्थात भक्ति न करना मृत्यु आदि कष्ट का हेतु है, हम लोग उस सुखस्वरूप एवं प्रजापालक शुद्ध एवं प्रकाशस्वरूप, दिव्य सामर्थ्य युक्त परमात्मा की प्राप्ति के लिये ग्रहण करने योग्य योगाभ्यास व हव्य पदार्थों द्वारा विशेष भक्ति करते हैं।

य: प्राणतो निमिषतो महित्वैक इन्द्राजा जगतो बभूव।
य ईशे अस्य द्विपदश्चतुष्पद: कस्मै देवाय हविषा विधेम ॥४॥

      मंत्रार्थ जो प्राणधारी चेतन और अप्राणधारी जड जगत का अपनी अनंत महिमा के कारण एक अकेला ही सर्वोपरी विराजमान राजा हुआ है, जो इस दो पैरों वाले मनुष्य आदि और चार पैरों वाले पशु आदि प्राणियों की रचना करता है और उनका सर्वोपरी स्वामी है, हम लोग उस सुखस्वरूप एवं प्रजापालक शुद्ध एवं प्रकाशस्वरूप, दिव्यसामर्थ्ययुक्त परमात्मा की प्रप्ति के लिये योगाभ्यास एवं हव्य पदार्थों द्वारा विशेष भक्ति करते हैं ।

येन द्यौरुग्रा पृथिवी च दृढा येन स्व: स्तभितं येन नाक: ।
यो अन्तरिक्षे रजसो विमान: कस्मै देवाय हविषा विधेम ॥५॥

      मंत्रार्थ जिस परमात्मा ने तेजोमय द्युलोक में स्थित सूर्य आदि को और पृथिवी को धारण कर रखा है, जिसने समस्त सुखों को धारण कर रखा है, जिसने मोक्ष को धारण कर रखा है, जोअंतरिक्ष में स्थित समस्त लोक-लोकान्तरों आदि का विशेष नियम से निर्माता धारणकर्ता, व्यवस्थापक एवं व्याप्तकर्ता है, हम लोग उस शुद्ध एवं प्रकाशस्वरूप, दिव्यसामर्थ्ययुक्त परमात्मा की प्रप्ति के लिये ग्रहण करने योग्य योगाभ्यास एवं हव्य पदार्थों द्वारा विशेष भक्ति करते हैं।

प्रजापते न त्वदेतान्यन्यो विश्वा जातानि परिता बभूव ।
यत्कामास्ते जुहुमस्तन्नो अस्तु वयं स्याम पतयो रयीणाम् ॥६॥

    मंत्रार्थ हे सब प्रजाओं के पालक स्वामी परमत्मन! आपसे भिन्न दूसरा कोई उन और इन अर्थात दूर और पास स्थित समस्त उत्पन्न हुए जड-चेतन पदार्थों को वशीभूत नहीं कर सकता, केवल आप ही इस जगत को वशीभूत रखने में समर्थ हैं। जिस-जिस पदार्थ की कामना वाले हम लोग अपकी योगाभ्यास, भक्ति और हव्यपदार्थों से स्तुति-प्रार्थना-उपासना करें उस-उस पदार्थ की हमारी कामना सिद्ध होवे, जिससे की हम उपासक लोग धन-ऐश्वर्यों के स्वामी होवें ।

स नो बन्धुर्जनिता स विधाता धामानि वेद भुवनानि विश्वा।
यत्र देवा अमृतमानशाना स्तृतीये धामन्नध्यैरयन्त ॥७॥

    मंत्रार्थ वह परमात्मा हमारा भाई और सम्बन्धी के समान सहायक है, सकल जगत का उत्पादक है, वही सब कामों को पूर्ण करने वाला है। वह समस्त लोक-लोकान्तरों को, स्थान-स्थान को जानता है। यह वही परमात्मा है जिसके आश्रय में योगीजन मोक्ष को प्राप्त करते हुए, मोक्षानन्द का सेवन करते हुए तीसरे धाम अर्थात परब्रह्म परमात्मा के आश्रय से प्राप्त मोक्षानन्द में स्वेच्छापूर्वक विचरण करते हैं। उसी परमात्मा की हम भक्ति करते हैं।

अग्ने नय सुपथा राये अस्मान् विश्वानि देव वयुनानि विद्वान।
युयोध्यस्मज्जुहुराणमेनो भूयिष्ठां ते नम उक्तिं विधेम ॥८॥

       मंत्रार्थ हे ज्ञानप्रकाशस्वरूप, सन्मार्गप्रदर्शक, दिव्यसामर्थयुक्त परमात्मन! हमें ज्ञान-विज्ञान, ऐश्वर्य आदि की प्राप्ति कराने के लिये धर्मयुक्त, कल्याणकारी मार्ग से ले चल। आप समस्त ज्ञानों औरकर्मों को जानने वाले हैं। हमसे कुटिलतायुक्त पापरूप कर्म को दूर कीजिये । इस हेतु से हम आपकी विविध प्रकार की और अधिकाधिक स्तुति-प्रार्थना-उपासना सत्कार व नम्रतापूर्वक करते हैं। 

   शांयकालीन मन्त्रा शिवसंकल्प सूक्त

 ओ३म् यज्जाग्रतो दूरमुदैति दैवं तदु सुप्तस्य तथैवैति । दूरंगमं ज्योतिषां ज्योतिरेकं तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु ॥१॥

    वह दिव्य ज्योतिमय शक्ति (मन) जो हमारे जागने की अवस्था में बहुत दूर तक चला जाता है, और हमारी निद्रावस्था में हमारे पास आकर आत्मा में विलीन हो जाता है,वह प्रकाशमान श्रोत जो हमारी इंद्रियों को प्रकाशित करता है, मेरा वह मन शुभसंकल्प युक्त ( सुंदर व पवित्र विचारों से युक्त) हो।

ओ३म्  येन कर्माण्यपसो मनीषिणो यज्ञे कृण्वन्ति विदथेषु धीराः । यदपूर्वं यक्षमन्तः प्रजानां तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु  ॥२॥

   जिस मन की सहायता से ज्ञानीजन(ऋषिमुनि इत्यादि)कर्मयोग की साधना में लीन यज्ञ,जप,तप करते हैं,वह(मन) जो  सभी जनों के शरीर में विलक्षण रुप से स्थित है, मेरा वह मन शुभसंकल्प युक्त ( सुंदर व पवित्र विचारों से युक्त) हो।

ओ३म् यत् प्रज्ञानमुत चेतो धृतिश्च यज्ज्योतिरन्तरमृतं प्रजासु । यस्मान्न ऋते किञ्चन कर्म क्रियते तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु  ॥३॥

    जो मन ज्ञान, चित्त , व धैर्य स्वरूप , अविनाशी आत्मा से सुक्त इन समस्त प्राणियों के भीतर ज्योति सवरुप विद्यमान है, वह मेरा मन शुभसंकल्प युक्त ( सुंदर व पवित्र विचारों से युक्त) हो।

   ओ३म् येनेदं भूतं भुवनं भविष्यत्परिगृहीतममृतेन सर्वम् । येन यज्ञस्तायते सप्तहोता तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु  ॥४॥

   जिस शाश्वत मन द्वारा भूत,भविष्य व वर्तमान काल की सारी वस्तुयें सब ओर से ज्ञात होती हैं,और जिस मन के द्वारा सप्तहोत्रिय यज्ञ(सात ब्राह्मणों द्वारा किया जाने वाला यज्ञ) किया जाता है, मेरा वह मन शुभसंकल्प युक्त ( सुंदर व पवित्र विचारों से युक्त) हो।

 ओ३म् यस्मिन्नृचः साम यजूंषि यस्मिन् प्रतिष्ठिता रथनाभाविवाराः । यस्मिंश्चित्तं सर्वमोतं प्रजानां तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु  ॥५॥

    जिस मन में ऋग्वेद की ऋचाये व सामवेद व यजुर्वेद के मंत्र उसी प्रकार स्थापित हैं, जैसे रथ के पहिये की धुरी से तीलियाँ जुड़ी होती हैं, जिसमें सभी प्राणियों का ज्ञान कपड़े के तंतुओं की तरह बुना होता है, मेरा वह मन शुभसंकल्प युक्त ( सुंदर व पवित्र विचारों से युक्त) हो।

  ओ३म् सुषारथिरश्वानिव यन्मनुष्यान् नेनीयतेऽभीशुभिर्वाजिन इव । हृत्प्रतिष्ठं यदजिरं जविष्ठं तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु  ॥६॥

   जो मन हर मनुष्य को इंद्रियों का लगाम द्वारा उसी प्रकार घुमाता है, तिस प्रकार एक कुशल सारथी लगाम द्वारा रथ के वेगवान अश्वों को नियंत्रितकरता व उन्हें दौड़ाता है, आयुरहित(अजर)तथा अति वेगवान व प्रणियों के हृदय में स्थित  मेरा वह मन शुभसंकल्प युक्त ( सुंदर व पवित्र विचारों से युक्त) हो।

     इशावास्योपनिषद यजुर्वेद 40 अध्याय

     ईशा वास्यामिदं सर्व यत्किँ च जगत्यां जगत्। तेन यत्केन भुञ्जीथा मा गृध: कस्य स्विध्दनम्॥१॥

     भावार्थ : इस सृष्टि मेँ जो कुछ भी (जड़ अथवा चेतन ) है, वह सब ईश द्वारा आवृत-आच्छादित है (उसी के अधिकार मेँ) है। केवल उसके द्वारा (उपयोगार्थ) छोड़ गये (सौँपे गये) का ही उपयोग करो (अधिक का) लालच मत करो। (क्योँकि यह) समस्त सम्पति किसकी है ? (अर्थात किसी व्यक्ति का नहीँ केवल ईशका ही है)॥१॥

  कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छतं समा:। एवं त्वयि नान्यथेतोस्ति न कर्म लिप्यते नरे॥२॥

  भावार्थ : यहाँ (ईश्वर से अनुशासित इस जगत् मेँ) कर्म करते हुए सौ वर्षोँ (पूर्णायु) तक जीने की कामना करेँ। (इस प्रकार अनुशासित रहने से) कर्म मनुष्य को लिप्ति (विकार ग्रस्त) नहीँ करते। (विकार मुक्त जीवन जीने के निमित) यह (मार्गदर्शन) तुम्हारे लिए है। इसके अतिरिक्त परम कल्याण का कोई अन्य मार्ग नहीँ है॥२॥

   आसुर्या नाम ते लोकाऽ अन्धेन तमसावृता:। ताँस्ते प्रत्यपि गच्छन्ति येके चात्महनो जना:॥३॥

   भावार्थ : वे (इस अनुशासन का उल्लंघन करने वाले) लोग आसुर्य (केवल शरीर और इन्द्रियोँ कि शक्ति पर निर्भर सद्विवेक की उपेक्षा करने वाले) नाम से जाने जाते हैँ। वे (जीवन भर) गहन अन्धकार (अज्ञान) से घिरे रहते हैँ। वे आत्मां (आत्मचेतना के निर्देशोँ) का हनन करने वाले लोग प्रेतरूप मेँ (शरीर छूटने पर) भी वैसे ही अन्धकार युक्त लोकोँ मेँ जाते हैं॥३॥

    अनेजदेकं मनसो जवीयो नैनद्देवाऽ आप्नुवन् पूर्वमर्शत। तध्यावतोन्यानत् येति तिष्ठत्तस्मिन्न यो मातरिश्वा दधाति॥४॥

    भावार्थ : चंचलता रहित वह ईश एक (ही है, जो) मन से भी अधिक वेगवान है। वह स्फूर्तिवान पहले से ही है (किन्तु) उसे देवगण (देवता या इन्द्रिय समूह) प्राप्त नहीँ कर पाते। वह स्थिर रहते हुए भी दौड़कर अन्य (गतिशीलोँ) से आगे निकल जाता है। उसके अन्तर्गत (अनुशासन मेँ रहकर) ही गतिशील वायु-जल को धारण किये रहता है॥४॥

  तदेजति तन्नैजीत तद्दूरेतद्वन्ति के। तदन्तरस्य सर्वस्य तदु सर्वस्यास्य बह्मत:॥५॥

    भावार्थ : वह (परमात्मतत्व) गतिशील भी है और स्थिर (भी) है, वह दूसरे से दूर भी है और निकट से निकट भी है। वह इस सब (जड़, चेतन, जगत्) के अन्दर भी है तथा सबके बाहर (उसे आवृत किये हुए) भी है॥५॥

    यस्तु सर्वणि भूतान्यात्मन्नै वानुपश्यति। सर्वभूतेषु चात्मानं ततो न वि चिकित्सति॥६॥

    भावार्थ : व्यक्ति (जब) सभी भूतोँ (जड़, चेतन, सृष्टि) को (इस) आत्मतत्व मेँ ही स्थित अनुभव करता है तथा सभी भूतोँ के अन्दर इस आत्मतत्व को समाहित अनुभव करता है, तब वह किसी प्रकार भ्रमित नहीँ होता ॥६॥

    यस्मिन्त्सर्वाणिभूतान्यात्मैवाभूद्विजानत:। तत्र को मोह: क: शोक ऽएकत्वमनुपश्यत:॥७॥

    भावार्थ : जिस स्थिति मेँ (व्यक्ति) यह (मर्म) जान लेता है कि यह आत्म तत्व ही समस्त भूतोँ के रूप मेँ प्रकट हुआ है, (तो) उस एकत्व की अनुभूति की स्थिति मेँ मोह अथवा शोक कहाँ टिक सकते हैँ? अर्थात ऐसी स्थिति में व्यक्ति मोह और शोक से परे हो जाता है॥७॥

   स पर्यगाच्छक्रमका यभव्रणमस्नाविरं शुद्धमपापविद्धम्। कविर्मनीणी परिभू: स्वयम्भूर्याताथ थ्यतोर्थान व्यदधाच्छाश्वती भ्य: समाभ्य:॥८॥

     भावार्थ : वह (परमात्मा) सर्वव्यापी है, तेजस्वी है। वह देह रहित है स्नायु रहित एवं छिद्र (व्रण) रहित है। वह शुध्द और निष्पाप है। वह कवि (क्रान्तदर्शी), मनीषी (मन पर शासन करने वाला) सर्वजयी और स्वयं ही उत्पन्न होने वाला है। उसने अनादि काल से ही सबके लिए यथा-योग्य अर्थोँ (साधनोँ) की व्यवस्था बनाई है॥८॥

    अन्धं तम: प्र विशन्ति यंसंभूतिमुपासते। ततो भुयऽ इव ते तमोँ यऽ उ सम्भूत्यायां॥९॥

     भावार्थ : जो लोग केवल असम्भूति (बिखराव-विनाश) की उपासना करते हैँ (उन्ही प्रवृत्तियोँ मे रमे रहते हैँ) वे घोर अन्धकार मेँ घिर जाते हैँ। और जो केवल सम्भूति (संगठन-सृजन) की उपासना करते हैँ, वे भी उसी प्रकार के अन्धकार मेँ फंस जाते हैँ॥९॥

   अन्यदेवाहु: सम्भवादन्यहुरसम् भवात्। इति शुश्रुम धीराणां ये नस्तद्विचचक्षिरे॥१०॥

    भावार्थ : जिन देव पुरुषो ने हमारे लिए (इन विषयोँ को) विशेष रूप से कहा हैउन धीर पुरुषोँ से हमने सुना है कि संभूतियोग का प्रभाव भिन्न है, तथा असंभूति योग का प्रभाव उससे भिन्न है॥१०॥

   संभूतिँ च विनाशं च यस्तद्वेदोभयं सह। विनाशेन मृत्युं तीर्त्वा सम्भूत्यमृतमश्नुते॥११॥

    भावार्थ : (इसलिए) संभूति (समय के अनुरूप नया सृजन) तथा विनाश (आवाञ्छनीय को समाप्त करना) इन दोनोँ कलाओँ को एक साथ जानो। विनाश की कला से मृत्यु को पार करके (अनिष्टकारी को नष्ट करके मृत्यु-भय से मुक्ति पाकर) तथा संभूति (उपयुक्त निर्माण की) कला से अमृतत्व की प्राप्ति की जाती है ॥११॥

   अन्धं तमः प्र विशन्ति येविद्यामुपास्ते। ततो भूयऽ इव ते तमो यऽ उ विद्यायां॥१२॥

   भावार्थ : जो लोग (केवल) अविद्या (पदार्थ-निष्ठ विद्या) की उपासना करते हैं, वे गहन अंधकार (अज्ञान) से घिर जाते हैं और जो (केवल) विद्या (आत्म-विद्या) की उपासना करते हैं, वे भी उसी प्रकार अज्ञान में फंस जाते हैं॥१२॥

   अन्यदेवाहुर्विद् यायाऽअन्यदाहुरविद्या याः। इति शुश्रुम धीराणां ये नस्तद्विचचक्षिरे॥१३॥

   भावार्थ : जिन देवपुरुषों ने हमारे लिए (इन विषयों को) विशेषकर कहा है, उन धीर पुरुषों से हमने सुना है कि विद्या का प्रभाव कुछ और है और अविद्या का प्रभाव उससे भिन्न है॥१३॥

   विद्यां चाविद्यां च यस्तद्वेदोभयं सह।  अविद्या मृत्युं तीर्त्वा विद्यामृतमश्नुते॥१४॥

   भावार्थ : (इसलिए) इस विद्या (आत्म-विज्ञान) तथा उस अविद्या (पदार्थ-विज्ञान ) दोनों का ज्ञान एकसाथ प्राप्त करो। अविद्या के प्रभाव से मृत्यु को पार करके (पदार्थ-विज्ञान से अस्तित्व बनाये रखकर), विद्या (आत्म-विज्ञान) द्वारा अमृत तत्व की प्राप्ति की जाती है॥१४॥

   वायुरनिलममृतमथे दं भस्मान्तं शरीरम। ओ३म क्रतो स्मर क्लिबे स्मर कृतं स्मर॥१५॥

   भावार्थ : यह जीवन (अस्तित्व) वायु-अग्नि आदि (पंचभूतों) तथा अमृत (सनातन आत्म चेतना) के संयोग से बना है। शरीर तो अंततः भस्म हो जाने वाला है। (इसलिए) हे संकल्पकर्ता ! तुम परमात्मा का स्मरण करो, अपनी सामर्थ्य का स्मरण करो और जो कर्म कर चुके हो, उसका स्मरण करो॥१५॥

अग्ने नय सुपथा राये अस्मान्विश्वानि देव वयुनानि विद्वान्।
युयोध्यास्मज्जु हुराणमेनो भूयिष्ठां ते नमऽ उक्तिं विधेम॥१६॥

   भावार्थ : हे अग्ने (यज्ञ प्रभु) ! आप हमें श्रेष्ठ मार्ग से ऐश्वर्य की ओर ले चलें। हे विश्व के अधिष्ठातादेव ! आप कर्म मार्गों के श्रेष्ठ ज्ञाता हैं। हमें कुटिल पापकर्मों से बचाएँ। हम बहुशः (भूयिष्ठ) नमन करते हुए आप से विनय करते हैं॥१६॥

   हिरण्येन पात्रेण सत्यस्यापिहितं मुखम। योसावादित्ये पुरुषः सोसावहम। ॐ खं ब्रह्म॥१७॥

    भावार्थ : सोने के (चमकदार-लुभावने) पात्र से सत्य का मुख (स्वरुप) ढंका हुआ होता है। (आवरण हटाने पर पता चलता है कि) वह जो आदित्यरूप पुरुष है, वही (आत्मरूप में) मैं हूँ। ॐ (अक्षर) आकाशरूप में ब्रह्म ही संव्याप्त है॥१७॥

संगठन सूक्त ऋग्वेद

ओ३म्‌ सं समिधवसे वृषन्नग्ने विश्वान्यर्य आ ।
इड़स्पदे समिधुवसे स नो वसुन्या भर ।।

हे प्रभो ! तुम शक्तिशाली हो बनाते सृष्टि को ।।
वेद सब गाते तुम्हें हैं कीजिए धन वृष्टि को ।।

ओ३म सगंच्छध्वं सं वदध्वम् सं वो मनांसि जानतामं ।
देवा भागं यथा पूर्वे सं जानानां उपासते ।।

प्रेम से मिल कर चलो बोलो सभी ज्ञानी बनो ।
पूर्वजों की भांति तुम कर्त्तव्य के मानी बनो ।।

समानो मन्त्र:समिति समानी समानं मन: सह चित्त्मेषाम् ।
समानं मन्त्रमभिमन्त्रये व: समानेन वो हविषा जुहोमि ।।

हों विचार समान सब के चित्त मन सब एक हों ।
ज्ञान देता हूँ बराबर भोग्य पा सब नेक हो ।।

ओ३म समानी व आकूति: समाना ह्र्दयानी व: ।
समानमस्तु वो मनो यथा व: सुसहासति ।।

हों सभी के दिल तथा संकल्प अविरोधी सदा ।
मन भरे हो प्रेम से जिससे बढे सुख सम्पदा ।।

   यह मैने कुछ वैदिक मंत्रों के उदाहरण दिये यदि मंत्रों की बाते करेगें तो उसके लिए मुझे अलग से इसके लिए किताब लिखनी पड़गी। जो अभी संभव नहीं हैं मेरे लिए। अभी हम बात कर रहें थे भारत के बारें में जो यहां गुरुकुल में रहकर किस प्रकार के ज्ञान का अर्जन किया, और अपने ज्ञान का विस्तार किया और इसका दिवाना बन गया। जिसके लिए उसने जीन्दगी के संग्राम को एक बार लड़ने की योजना को बनाता हैं। वहां होसंगाबाद गुरुकुल में जब एकाक साल हो गया था। वहां पर रहना और वहां उपलब्ध किताबों का अध्यन फ्री था। मगर वहां पर किसी प्रकार से आमदनी पैसे के रुप में कही से बिल्कुल भी नहीं था। जिसके कारण से भारत काफी अधिक पैसे के लिए वेचैन रहने लगा था। उसी बिच बच्चे अपनी वार्षिक परिक्षा देने के लिए वहां से हरियाणा गुरुकुल झज्जर में आने वाले थे। जिनके साथ भारत भी आने के लिए तैयार हो जाता हैं और स्वामी ऋतस्पती से कहता हैं की मैं भी इनके साथ जाउंगा और वहां मेरा कुछ काम दिल्ली में हैं। हो सकता है मैं वहीं पर स्वयं के लिए किसी काम को तलास लुंगा। इस तरह से वह गुरुकुल का आचार्य तैयार हो गया औऱ अपने बच्चों ब्रह्मचारियों के साथ मुझको झज्जर गुरुकुल के लिये रवाना कर दिया, और मुझो पांच सौ रुपया भी दिया था। इस तरह से मैं दिल्ली आगया। और वहां मैं उन विद्यार्थीयों के साथ जो कक्षा 9 वी से शास्त्री की कक्षा तक के विद्यार्थी थे अर्थात बीए फाइनल के कुछ छात्र भी थे। जिनकी कुल संख्या 40 के करीब होगी। इनके साथ मुझको आर्य समाज की संस्थाओं के बारें में जानकारी मिली, जिनका मैं अपने आगे जीवन में काफी उपयोग किया, जहां पर मुझको रात बिताने के लिए स्थान और खाना मुफ्त मिलता था। पर यह मुझको ले कर पहली बार पहूंचे वह एक छोटा सा आर्यसमाज का गुरुकुल दिल्ली के पहाड़ गन्ज के इलाके में है। जहां पर मैं कई सालो तक जाता रहा था। और वहां पर रह कर रातें विताता था। क्योंकि मैं मिनु को नहीं भुल पाया था मैं उससे संबंध बना कर स्वयं के जीवन को सम्पन्न करना चाहता था। यह हमारे जीवन की सबसे बड़ी भुल सिद्ध हुई उसके कारण हीं मैं स्वयं के सर्वनाश करने का आधार सदा ही मजबुत किया था। वह मेरे लिए कभी भी तैयार नहीं हुए वह मुझको बार बार गालिया देते और मुझसे एक खतरनाक शत्रु की तरह से व्यवहार करते थे।

    उन व्रह्मचारियों के साथ मैं फिर दिल्ली में जब मेरा कोई काम नहीं बना तो मैं विद्यार्थियों के साथ गुरुकुल झज्जर आगया। वहीं पर जब तक उनकी परिक्षा हुई, तो मैं उनके साथ ही रहा उनका संरक्षक बन कर और जब उनकी परिक्षा समाप्त होगई। तो मैं भी उनके साथ होसंगाबाद गुरुकुल वापिस चला गया। इनके साथ मेरा एक नया परिचय हुआ गुरुकुल झज्जर और यहां के आचार्य से जो सारें गुरुकुलों में और पुरे भारत में आर्य समाज का सबसे बड़ा गुरुकुल माना जाता था पहले अब ऐसा नहीं हैं।

     जैसा कि मैंने होसंगाबाद गुरुकुल के आचार्य से कह कर आया था कि मैं दिल्ली में किसी काम की तलास कर लुंगा, लेकिन मैं ऐसा नहीं कर पाया इसके विपरित मैं वापिस फिर उसी गुरुकुल में चला गया जो उनके और उनके अनुयाई जो एक विक्षिप्त किस्म का अध्यापक था जो बच्चों की देखभाल करने वाला था। जिसका आचार्य के बाद उसी का स्थान था वह मेरे खिलाफ होगया जिसका नाम सत्यसिन्धु था और उसके साथ कुछ और लोग थे। वह चाहता था की किसी तरह से मैं उस गुरुकुल को छोड़ कर चला जाउं। मुझको आचार्य ने जो पैसे दिया था उसको तो मैने सब खर्च करदिया था। इस समय मेरे पास पैसा विल्कुल नहीं था। फिर भी मैं कई महिना तक वहां पर रहा और बहुत बड़े बड़े साधु सन्यासियों से मिला जो उस गुरुरकुल में प्रायः आय़ा करते थे। जिसमें एक थे स्वामी धर्मबन्धु जो गुजरात के थे जो काफी मोटे तगड़े और काफी अमिर साधु आदमी है। एक बार इनके रहने के लिए कमरे की तलसा करने के लिए हम लोग कई ब्रह्मचारियों और आचार्य के साथ पंचमणी के पहाड़ों की यात्री की थी। जहां पर कभी पांण्डव जा कर रहें थे उनकी गुफा को वहां पर हमनें देखा था इसके अतिरिक्त भी हमने काफी वस्तुओ को देखा उन पहाड़ियों पर। इसके अतिरिक्य हमारी मुलाकात सावर कंठा के आचार्य स्वामी विवेकानन्द से हुइ थी जो गुजरात में अपना एक महाविद्यालय चलाता हैं जो स्वामी सत्य पती के प्रमुख शिष्यों में से एक है।

    होसंगाबाग गुरुकुल से मुझको जाने के लिए जो वहां के आचार्य के निचे रहने वाले सत्यसिन्धु नामक अध्यापक थे उन्होने ने कुछ किराये का रुपया दे दिया और मैं वहां से एक बार फिर निकल पड़ा और वहां से सिधा मैं अहमदाबाद से साबर कंठा दर्शनयोग महाविद्यालय में पहुंच गया। जहां मेरी मुलाकात वहां के प्रमुख आचार्य ज्ञानश्वर से हुई जिन्होंने मुझे वहां रखने से मना कर दिया। और कहा कि पहले आप व्याकरण को सिखने के लिए गुरुकुल कालवा जाइए जो हरयाणा में है। या फिर अजमेर में जाईये। उसके बाद यहां पर आईये दर्शनों को पढ़ने के लिए। इस तरह से मुझको वहां एक रात को वहां ठहरने दिया और अगले दिन सुबह मुझकों स्कुटर पर बैठा कर बसस्टा पर पहुंचा दिया गया। और मैं वहां से एक बस को लेकर मैं सिधा अहमदाबाद में आगया। जहां पर आकर मैंने आर्य समाज मन्दिर को तलासने लगा रात विताने के लिए। जब से मैं गुरुकुलों में रहता था तो वहीं गुरुकुलों के ब्रह्मचारियों के समान सफेद धोती कुर्ता पहनता था। और सर को मुड़ा कर बड़ी सी एक चोटी रखा करता था। इस प्रकार से मैंने वहां अहमदाबाद में एक आर्यसमाज मन्दिर को तलास लिया। जहां पर मुझको रहने के अनुमती मिल गई, वहां पर खाने के अतिरिक्त दुध भी रात्री के समय में मिलता था। इस प्रकार के आर्यसमाज मन्दिर में और किसी गुरुकुल में तीन दिन तक अतिथी बन कर रह सकते थे ऐसी उनकी व्यवस्था थी।

    वहां आर्य समाज मंदिर में मेरी मुलाकात वहां समाज के मंत्री से होती हैं और वह मेरे से काफी बात चित करता है और जब उसको यह ज्ञात होता हैं कि मैं पढ़ने के लिये दर्शनयोग महाविद्यालय गया था। और वहां मुझको अजमेर राजास्थान या अजमेर में जा कर व्याकरण सिखने के लिए कहा गया हैं। तो उन्होने कहां कि आपको व्यकारण सिखने के लिए राजास्थान के आबु पर्वत गुरुकुल में जा सकते है। और मैं वहां आपके रहने के लिए व्यवस्था भी करा दुंगा। जब मैने यह सुना तो मुझको एक बार फिर आशा जगी ज्ञानार्जन की और अपनी जिज्ञासा को शान्त करने का इसको मैंने तुरंत स्विकार कर लिया। इसी समय वहां माउन्टाबु राजस्थान के गुरुकुल का वार्सिक उत्सव होने वाला था। जिसमें कई लोग वहां गुरुकुल में जारहे थे, जिनमें से एक के साथ उस मंत्री ने मझको भी लगा दिया, कि अगली सुबह इनके साथ गुरुकुल माउंटाबु के लिए प्रस्थान कीजियेगा। मैंने कहा की ठीक हैं। तीन चार दिन वहां अहमदाबाद में रहा और अहमदाबाद शहर में घुम-घुम कर कई फिल्मों को भी देख चुका था। अगले दिन सुबह मैं उम महाशय के साथ रेल्वेस्टेसन से एक ट्रेन पकड़ लिया, मेरा भी टीकट उन्ही साथ वाले महाशय ने कटा लिया था। शाम के लगभग हम दोनो माउन्टाबु रेल्वेस्टेसन पर पहूंच गये। औऱ वहां से उपर पहाड़ियों के मध्य जहां पर प्रसिद्ध दिलवाड़ा मन्दिर है। जो जैनियों की काफी सुन्दर और पुरानी मन्दिर है जिसको बारहवी सदी में बनाया गयी थी। उसी से थोड़ी दुरी पर वह माउन्टाबु गुरुकुल था। जिसका आचार्य एक हरियाणा के फरिदीबाद का आदमी था जिसने वहां पर अपना एक गुरुकुल बना लिया हैं। वह अस्थान बहुत सुरम्य हैं वहां पर गर्मी नहीं लगती हैं और किसी को पंखें की जरुरत नहीं पड़ती है। वहां के आचार्य ने पहले विवाह किया था बाद में उसने अपना घर बार छोड़ कर संयास ले लिया था।


   यह आदमी पक्का आर्य समाजी और कट्टर स्वामी दयानन्द का स्वयं को भक्त कहता हैं। वह मुझको रखने के लिए तैयार हो जाते हैं। जिसके साथ मैं वहीं माउन्ट आबु गुरुकुल में रहने लगा। वहां पर उस गुरुकल के आचार्य ने मेरे लिय़े दो अध्यापको को पढ़ाने के लिए लगा दिया। जिसमें एक 50, साल के उपर के मोटे तगड़े ब्रह्मचारी थे, जिनको मुझे संस्कृत व्याकरण पढ़ाने के लिए नियुक्त किये गये। और साहित्य पढ़ाने के लिए एक उसी गुरुकुल का एक छात्र ब्रह्मचारी को लगाया गया। और इस तरह से मेरी संस्कृत अध्यन का कार्य शुरु किया गया। और वहां पर मुझको कुछ छोटी कक्षाओ को पढ़ाने के लिए लगाया गया था। यह कार्य कुछ एक महिने तक चलता रहा और मैंने बहुत अधिक प्रयाश किया। इसके अतिरीक्त वहां पर कुछ क्रितीम गुफांए बनाई गई थी जिनमें मैं बैठ कर साधना करने लगा था। वहां पर आस पास में बहुत अधिक खतरनाक जानवर भी रहते थे जैसे भालु इत्यादी चारों तऱफ जंगल से आच्छादित था। एक दिन मैं गुफा में ध्यान में लिन था वहीं पर एकबहुत बड़ा काला नाग आगया जिसको देख कर बहुत अधिक आतंकित हो गया था। जिसके कारण उश गुफा में बैठ कर ध्यान करने से मेरा मन उचटने लगा। मैने बहुत प्रयाश किया वहां रहने की लेकिन मुझको पुरी तरह से वहां सफलता नहीं मिल सकी। क्योंकि मुझ पर हमारें अध्यापक के द्वारा जोर डाला जाने लगा की मैं सारा उनका समझया गया अष्ठाध्याई इत्यादी स्मरण करु जो मेरे लिए आसान नहीं था। जिसके कारण मैंने अध्यापको के पास जा कर पढ़ना छोड़ दिया, और वहां पर हमारें विचारों के कारण वह सब हमें अपना विद्रोही समझने लगे। क्योंकि उस समय ओशों के विचार मेरे मन मस्तिस्क पर हाबी थे और मैं ध्यान पर अधिक जोर देता था बाकी साहित्या औऱ व्याकरण को छोड़ कर। जिसके कारण एक दिन लग-भग तीन महिनो के बाद मुझको वहां से निकलने के लिए वहां के स्वामी ने कह दिया साथ में मुझको तीन सो रुपया भी दिया था।

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