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हम सब जानते हैं कि हम सब मरने वालें हैं फिर किसी को मारते क्यों हैं?



       हम सब जानते हैं कि हम सब मरने वालें हैं, फिर हम किसी को मारतें क्यो हैं? क्या हम इंतजार नहीं कर सकते  हैं किसी को मारने से पहले उसके मरने का, यह भी हो सकता है कि कुछ ऐसे लोग हो जिनको मारना आवश्यक हो जाता है, अपने अस्तित्व को बचाने के लिए। लेकिन जब हम देखते हैं कि जिनका कोई दोष नहीं हैं जो निर्दोष हैं उनको भी हम सब अपनी अज्ञानता के कारण और अपनी वासना के तृप्ती के लिए तड़पा-तड़पा कर मारते है। 

   यह क्या हैं, यह संसार जिसमें हम सब रहते है इसमें सबसे बड़ें हत्यारें हमारें माता-पिता ही होते है। जो स्वयं भयंकरतम मानसिक और शारिरीक कष्ट में अपना जीवन व्यतित करते हैं और उसके बाद भी अपनी संतती को आगे बढ़ाते हैं। और उनको संसार के भयंकरतम कष्ट को सहने के लिए मजबुर करते है। वास्तव में क्या उनकी जरुरत है, जिनको केवल कष्ट को भोगने के लिए ही उतपन्न किया जाता है। 

    हमारें समाज में कितने प्रकार के कष्ट हैं मानसिक, शारीरिक, और आत्मिक लेकिन कितने लोग हैं जो यह जानते हैं और इससे मुक्त होने का प्रयाश करते है। ज्यादातर लोग ऐसा समझते हैं कि केवल भौतिक उन्नती ही इस संसार में सबसे अधिक समपन्नता का कारण हैं। जिसके लिए लग-भग सभी प्रयाश करते हैं जिसमें बहुत कम ही लोग इस में सफलता को हासिल करने में समर्थ होते है। और उन्ही को हम सब अपना आइकान बना कर उनका पिछ करते हैं। और एक केन प्रकारेण स्वयं को भौतिक रुप से समपन्न करने के लिए हर प्रकार का संड़यन्त्र करते है। यह सड़यन्त्र क्या आज तक किसी एक को भी उसकी मृत्यु से एक भी पल के लिए बचा पाया है। संसार असंभवता और संभवता के मध्य में अटका हुआ कांटा है। बहुत लोग कहते हैं कि संसार में संघर्ष के द्वारा कुछ भी संभव हैस तो क्या हर आदमी संघर्ष नहीं करता है, ऐसा नहीं हर आदमी अपने स्थान पर परिश्रम और संघर्ष अपनी प्रकृति से करता है। चाहे वह पागल या फिर दिवान या मतवाला हो, क्योंकि इस संसार में हर व्यक्ति समानता के अधिकार को प्राप्त करने में कभी सफल नहीं होते हैं। हर आदमी यह क्यों समझता हैं कि सम्पन्नता का मलतब केवल आर्थिक उन्नती ही प्रमुख कारण है, जबकि मैं समझता हुं कि इस संसार में जो सबसे घटिया वस्तु है। वह है आर्थिक समपन्नता क्योंकि मैंने अनुभव किया हैं जिनके पास भी धन हैं। वह सब अक्सर रुपग्ण और अज्ञान के शिकार होते है। 

  सबसे पहले हमें यह समझना होगा कि ज्ञान में अज्ञान में क्या अंतर है जहां तक हमारें महापुरुष हैं वह कहते है जो कुछ हमारी आँखों के सामने दिख रहा है संसार के समग्र सामग्री के साथ हमारी शरीर भी अज्ञान के श्रेणी में आते है। ज्ञान का मतलब हैं हमारी आत्मा से हैं जो हमें हमारी इस मृत्यु से मुक्त करने का समार्थ रखता है, जबकि हम संसार में यह निरंतर देखते हैं कि यहां कोई भी मृत्यु से मुक्त नहीं है। सभी मृत्यु के चंगुल में फंसे है कोई भीइस मृत्यु से मुक्त नहीं होता है। तो क्या जो हमारें महा पुरुष कहते हैं वह गलत हैं जो कहते हैं कि यह संसार दुख पूर्ण अज्ञानता के प्रमुख श्रोत है। इस संसार से के दुःख और मृत्यु से मुक्त होने के लिए ज्ञान का अर्जन करान होगा। तो क्या हम सब ज्ञान का अर्जन करने के लिए पुरुषार्थ करते है जैसा कि देखने में आता है कि हर कोई सर्वप्रथम धनार्जन करने का प्रयास करता है। और उसमें आवश्यक नहीं हैं कि ज्ञान का उपयोग करना बहुत जरुरी हो, क्योंकि जिनके पास बहुत अधिक धन हैं जरुरी नहीं हैं कि वह सब अपने पुरुषार्थ से प्राप्त या ज्ञान के मार्ग से प्राप्त किया  है। ज्यादा तर लोग तो अपने पुरखों से प्राप्त करते है। और उसी को आगे बढ़ाते हैं बहुत कम ही ऐसे लोग दिुखने में इस संसार में आते हैं। जो अपने पुरुषार्थ से संसार में उन्नती को प्राप्त किया हो, और किसी प्रकार का सड़यंत्र का उपयोग नहीं किया हो। अक्सर तो ऐसा होता है कि जितने लोग अपने दम पर समपन्नता को हासिल करने का दम भरते हैं। वह भी किसी ना किसी प्रकार के सड़यंत्र के सहारें ही इस उपलब्धी को प्राप्त किया है।   

    मैं जानता हु कि इस संसार में मेरी बात को कोई भी माने वाला नहीं हैं, क्योंकि हर आदमी को यहां अपने जीने के लिए धन को प्राप्त करना परमआवश्यक हैं। बिना धन के जीवको पार्जन करना मुस्किल ही नहीं असंभव है, दूसरी बात हर आदमी को असिमीत धन की जरुरत है। लेकिन यह सबको समान रूप से नहीं मिल सकता है जैसा कि हम सब अपने संसार में समाज में देख सकते है। कोई एक देश बहुत ज्यादा अमिर है, जैसे  अमेरिका, रुश, जापान, ब्रिटेन, फ्रांस, चिन, जर्मनी, चाइना, आस्ट्रेलिया, भारत इत्यादि, और कुछ बहुत गरीब देश भी है जैसे पाकिस्तान, अफगानिस्तार, इरान, इराक, नेपाल, श्रृलंका,बंगलादेश इत्यादि, तो क्या इनके पास जीने के हक नहीं है इनको यहां पृथ्वी पर से समाप्त कर देना चाहिए। तो आप कहेंगे ऐसा हम नहीं कर सकते है, जैसा कि हम सब भारतिय जानते हैं कि पाकिस्तान का और चाइना का जो दुर्व्यवहार हमारें भारत देश के साथ किया जा रहा हैं जिसके कारण हमेसा इनमें और हममें हमेशा तना-तना चलाता रहता है। तो क्या इनके पास धन आजाने से यह सब हमारें साथ अच्छा व्यवहार करेंगे। हम ऐसी कामना कर सकते हैं, जैसा कि मैं आप के जबाब को जानता हुं कि यह सब हमारें साथ दुर्व्यवहार को और अधिक घृड़ित कर देगे। जिसके लिए ही हमें तैयारी करनी पड़ती उनके रक्षा करने के लिए अपने शक्ती का विकास और खतरनाक अश्त्रों का निर्वाण करना पड़ रहा है। भले ही हमारें भारते में या पाकिस्तान में बहुत लोग ऐसे है जिनको दो समय का भोजन भी नसिब नहीं होता है। और हम दोनो देश परमाणु बम बना रहें है। एक दूसरे के सर्वनाश करने के लिए, क्योंकि इसके पिछे जो तर्क दिया जाता हैं इसके द्वार हम अपनी रक्षा करते है। तो क्या सच में हम अपनी रक्षा करने में समर्थ हो चुके हैं ृ, उदाहरण के लिए चिन जो जमिन हमसे छिन लिया पुरा का पुरा तीब्बत उससे वापस लेने में समर्थ हो सके हैं, या फिर पाकिस्तान ने जो हमारी कश्मिर के आधे भाग पर कब्जा कर लिया है। उसको प्राप्त करने में सफल हो सके हैं तो जबाा मिलेगा कि नहीं। और यह भी कह सकते हैं कि हम सब इसके लिए प्रयाश कर रहें हैं। उसको तो प्राप्त करना बहुत दूर यहां तो समस्या अपने को आज तो तत्काल में हैं। उसे किसी प्रकार से सुरुक्षित रखा जाये। जिसके लिए ही हमारी भारत सरकार संघर्ष कर रही है। इस प्रकार से हम यह आसानी से समझ सकते है कि यहां संसार मे  जिसे हम कमजोर या गरिब समझते हैं। उसको भी परास्थ करना असंभव सा लगता है, लेकिन दूसरी तरफ हम देखते हैं कि भारत समेत पाकिस्तान और दूसरे कितने देश को अंग्रोजों ने अपने छत्र छाया में कर लिया था। जिसका अभिमान वह आज भी करते है। और यह भी कहते हैं कि भारत अभी आजाद उनके शासन से नहीं हैं। आज भीउसके चमचे हमारें भारत पर अपना अधिकार बना कर रखा है। अर्थात हम सब स्वतंत्र नहीं आज भी हम सब परतंत्र है अर्थात गुलाम है जब हम गुलाम ही है तो हम स्वतंत्र और समर्थ कैसे हुए, अर्थात आज भी हमारी सरकारें भयभित और गुलाम हैं। वह स्वतंत्र नहीं है इसका मतलब यह कि केवल धन या संपदा के संग्रह या उसके उपभोग मात्र से हम में ज्ञान का विकास नहीं होता है। और ना हीउससे हम मृत्यु से ही मुक्त होते है तो फिर हम मुक्त कैसे होते है? और कैसे हम या हमारा राष्ट्र इस गुलामी से सेस्वतंत्र हो सकता है और कैसे हम अपने शत्रुओं को परास्थ कर सकते है? जैसा कि हम सब जानते हैं कि हम सब मरने वालें हैं और हमें किसी को मारने की जरुरत नहीं है जरुरत हैं। लोगो को मरने के लिए अकेला छोड़ दे और इंतजार करें की वह अपनी स्वेच्छा सें मर सके। जिसके लिए हमें किसी हथियार की या परमाणु बम की जरुरत नहीं पड़ेगी, जरुरत है तो केवल ज्ञान की हैं। और वह ज्ञान हमें हैं हमें मरने की तैयारी करनी करनी होगी और जिसके साथ निर्भयता को धारण करना होगा, और हमें आपने शत्रु को मारने की जरुरत नहीं हैं नाही अपने मित्र को ही मित्र समझना है। क्योंकि मित्र भी छद्मबेष में शत्रु ही है हमें स्वावलंबी बनना होगा। हमें अपना निर्वाण करना होगा हममें जो अमरता हैं उसको प्राप्त करना है। और उसको समय की कसौटि के साथ परिक्षीत करना होगा। हमें तपस्वी बनना होगा। जैसा कि मंत्र कहता है "ऋतं च संत्य च चा भी तपसो ध्याजायत"

   आज हमारें समाज में जो रुग्ड़ता हैं या विकार हैं उसका कारण है अत्यधिक बिलाशता हमें अपने बिलासता का त्याग करना होगा। जिस प्रकार से अंग्रेज अपने संपन्नता के लिए अपने भोग विलास से संपन्न देश को छोड़ कर भारत में आये और धिरे धिरे भारत पर अपना कब्जा बना लिया। उनके अंदर जो सबसे बड़ी वस्तु पाइ जाती है वह अपनr नस्लता के प्रति सब कुछ दाव पर लगा देना। और आखिरी दम तक लड़ते रहना। जब तक कि सफलता उनके कदमों को नहीं चुम लेती है। तो सबसे पहले हमें उनसे ही लड़ना होगा आज हमारी जो सबसे बड़ी शत्रु हैं, वह अंग्रेज और अंग्रेजियत हैं इससे जब तक हम मुक्त नहीं होगें। तब तक हम एक दुसरें को मारते रहेंगे, यद्यपि आज जो भी दूनिया में सद्गुण और उत्साह या विजेता का गुण हैं। वह सब हमारें द्वारा ही उन्हें प्राप्त हुआ और हम सब अपने स्वयं के ज्ञान से दूर होगये हैं। और हमारी सरकारें उनसे ज्ञान को खरिद कर भारतिय बना रही यह उसी प्रकार से हैं जैसे कि जो प्राणी मछली में रहने के लिये निर्मित किया गया हैं। उसको जंगल औऱ पहाड़ियों पर रहने के लिए विवश कर रहें हैं। चाइना इतना बड़ा देश हैं लेकिन उसके उपर कभी किसी राष्ट्र नें कब्जा नहीं किया हैं। उसके पिछे कारण हैं अपनी नस्लता के प्रति श्रद्धा और यह श्रद्धा जब तक हमारी स्वयं पर नहीं होगी तब तक हम सवतंत्र नहीं होगे। और नाही किसी के द्वारा मृत्यु से ही दूर हो सकते है। हमें मरना होगा स्वयं के अस्तित्व को सिद्ध करने के हमें हमारें पागलपन को विकसीत करना होगा। इन दुनिया के पागलों पर विजय प्राप्त करने के लिए और हमारे शत्रुओं को परास्थ करने के लिए सर्वप्रथम यही अज्ञान हैं। की हम स्वयं को हाड़ मान्स का पिजंड़ समझते हैं। जबकी सत्य और ज्ञान यह हैं कि हम सरीर नहीं है हमारे अंदर एक दिव्य शक्ती है जिसको विकसीत करना होगा। जिसके कारण एक समय ऐसा था जब हम विश्व के गुरु कहलाते थे और आगे भी संभव होगा जब हम स्वयं के अस्तित्व से संबंध स्थापित करने में समर्थ होते हैं।
मनोज पाण्डेय  
ज्ञान विज्ञान ब्रह्मज्ञान 
वैदिक विश्वविद्यालय 
             ब्रह्मपूरा                                          

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