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षटकर्माणि

 



।। अथ षटकर्माणि ।।

 

शान्तिवश्यस्तम्भनानि विद्वेषोच्चाटनं तथा ।

मारणं तानि शंसन्ति षट् कर्मणिमनीषिणः ॥16।।

 

शान्ति , वशीकरण , स्तम्भन , विद्वेषण , उच्चाटन , मारण - इनको ही प्राचीन महर्षियों ने षटकर्म कहा है ।

 

।। षटकर्मणां लक्षणम् ।।

 

रोगकृत्या गृहादीनां निराशः शान्तिरीरीता ।

वश्यं जनानां सर्वेषां विधेयत्वमुदीरितम् ॥17।।

प्रवृत्तिरोधः सर्वेषां स्तम्भनं समुदाह्नतम् ।

स्निग्धानां द्वेषभावं मिथो विद्वेषणं मतम् ॥18।

उच्चाटनं स्वदेशादेर्भ्रंशनं परिकीर्तितम् ।

प्राणिनां प्राणहरणं मारणं समुदाहतम् ॥19।।

 

        जिस प्रयोग के द्वारा रोगों की शान्ति तथा ग्रहों की शान्ति की जाए और निराशा इत्यादि का नाश किया जाए, उस प्रयोग को 'शान्तिकर्म' कहते है । सभी मनुष्यों को अपने मनोनुकूल कर लेना' वशीकरण ' कहलाता है । सभी की प्रवृत्ति को रोकना एवं शत्रु की गति - मति को रोक देना, अपने अधिकार में करना ' स्तम्भन कर्म ' कहलाता है । दो - प्रेमी , पति - पत्नी या दो पुरुषो में द्वेष करवा देना ' विद्वेषण कर्म ' कहलाता है । जिस कर्म के द्वारा किसी प्राणी को उसके निवास स्थान से अलग कर दिया जाए, उसका नाम' उच्चाटन ' है और किसी भी प्राणी को अपने तन्त्रोबल प्रयोग द्वारा मार दिया जाए, उसके प्राणोम का हरण कर लिया जाए तो वह प्रयोग ' मारण ' कहलाता है ।

 

।। इति षट्कर्मणां लक्षणम् ।।

 

।।ग्रन्थविषय वर्णनम् ।।

 

हे राक्षसराज ! भगवान शिव ने कहा -

 

ग्रन्थेऽस्मिन् कर्षणं चादौ द्वितीयोन्मादनं तथा ।

विद्वेषणं तृतीये च चतुर्थोच्चाटनं तथा ॥20।

ग्रामकस्योच्चाटनं पंच जलस्तम्भश्च षष्ठकम् ।

स्तम्भनं सप्तकं चैव वाजीकरणमष्टमम् ॥21।।

अन्यानपि प्रयोगांश्च बहून् श्रृण्वसुराधिप ।

अन्धी भावो मूक भावो गात्रसंकोचनं तथा ॥22।।

 

      इस उड्डीश तन्त्र में प्रथम में आकर्षण , द्वितीय में उन्माद , तृतीय में विद्वेषण एवं चतुर्थ में उच्चाटन है । पंचम में गांव का उच्चाटन , षष्ठ में स्तम्भन , सप्तम में सर्वस्तम्भन, अष्टम में वाजीकरण है । इस प्रकार और भी विविध प्रयोग हैं, जैसे - अन्धा, बहरा, गूंगा आदि करना, अंगों का संकोचन करने की कला का कथन भी मैं तुमसे करता हूं ।

 

 

बधिरोमूकरणे भूतज्वरकरं तथा ।

मेघानां स्तम्भनं चैव दध्यादिकविनाशम् ॥23।।

मत्तोन्मत्तकरं चैव गजवाजि कोपनम् ।

आकर्षणं भुजंगानां मानवानां तथैव च ॥24।।

सस्यादि नाशनं चैव परग्रामप्रवेशनम् ।

बेतालादिकसिद्धञ्ज पादुकाञ्जनसिद्धयः ॥25।।

 

     इस ग्रन्थ में बहरा करना , मूर्ख बना देना , भूत आदि लगाना , ज्वर चढ़ा देना , बुद्धि का स्तम्भन ( निरोध ) करना एवं दही को नष्ट कर देना है । पागल बनाना , हाथी - घोड़ों को अत्याधिक कुपित कर देना , सर्प तथा मनुष्यों का आकर्षण कर देना । दूसरे गांव में प्रवेश करना , भूत , बैताल की सिद्धि करना , पादुकासिद्धि और अंजनासिद्धि का इसमें विशेष वर्णन है ।

 

कौतुकं चेन्द्रजालं च यक्षिणी - मन्त्र - साधनम् ।

गुटिका खेचरत्वं च मृतसंजीवनादिकम् ॥26।।

अन्यान् बइंस्तथा रोद्रान् विद्यामन्त्रांस्थतापरम् ।

औषधं च तथा गुप्तं कार्यवक्ष्यामि यत्नतः ॥27।।

उड्डीश यो न जानाति स रुष्टः किं करिष्यति ।

मेरुं चालयते स्थानात् सागरे प्लावयेन्महीम् ॥28।।

 

      इन्द्रजाल के कौतुक , यक्षिणी मन्त्र का साधन , आसमान में उड़ने की गुटिका , मृत संजीवनी विद्या आदि के अतिरिक्त अन्य घातक विद्याओं का प्रयोग मन्त्र , औषधि , गुप्त कार्यों का यत्नपूर्वक वर्णम मैं तुमसे कहता हूं । जो उड्डीश तन्त्र को नहीं जानता है , वह किसी से क्रोधित होकर भला क्या कर सकता है ? यह तन्त्र सुमेरु पर्वत को चलायमान करने वाला , पृथ्वी को समुद्र में डुबो देने वाला है ।

 

अकुलीनोऽधमोऽबुद्धिर्भक्तिहीनः क्षुधान्वितः ।

मोहितः शंकितश्चापि निन्दकश्च विशेषतः ॥29।।

अभक्ताय न दातव्यं तन्त्र शास्त्रमनुत्तमम् ।

तथै ते सह संयोगे कार्य नोड्डीशकीध्रुवम् ॥30।।

 

     जो व्यक्ति सत्कुल में न हो , जिसकी बुद्धिभ्रष्ट हो , भक्तिरहित तथा क्षुधायुक्त हो । मोहित , संदेहशील या निन्दित हो । जो व्यक्ति तन्त्र में श्रद्धा न रखते हों , ऐसे व्यक्तियों को इस उत्तम तन्त्रशास्त्र को नहीं देना चाहिए और न ही इन सबके साथ उड्डीश तन्त्र मर्मज्ञ को संबंध बनाए रखना चाहिए ।

 

यदि रक्षेत् सिद्धिमेतामात्मानं तु तथैव च ।

देवतागुरुभक्ताय वातव्यं सज्जनाय च ॥31।।

तपस्वीबालवृद्धानां तथा चैवोपकारिणाम् ।

निश्चितं सुमतिं प्राप्य यथोक्तं भाषितानि च ॥32।।

 

      यदि इस तंत्र विद्या की सिद्धि प्राप्त करना एवं अपनी आत्मा को सुरक्षित रखना चाहते हैं तो इस तंत्र को सदैव किसी गुरुभक्त या देवस्वरुप ( मनुष्य ) को ही प्रदान करें । कोई तपस्वी बालक हो , कोई वृद्ध पुरुष या परोपकार करने वाला हो , तंत्र में जो श्रद्धा और विश्वास रखता हो तथा जो सत्य व्रतधारी हो , उसी को यह तंत्र विद्या देनी चाहिए ।

 

न तिथिर्न च नक्षत्रं नियमो नास्ति वासरः ।

न व्रतं नियमो होमः कालवेला विवर्जितम् ॥33।।

केवलं तंत्र मात्रेण ह्योषधि सिद्धिरुपिणी ।

यस्य साधनमात्रेण क्षणात् सिद्धिश्च जायते ॥34।।

 

      इस तंत्र में कथन किए गए प्रयोग को करने में न किसी विधि का नियम हैं , न नक्षत्र का और न ही किसी व्रत या हवन का; न ही समय आदि का नियम हैं । केवल तंत्र मात्र से इसमें सब औषधियां सिद्धि स्वरुप हैं । इनके साधन करने से क्षण भर में ही सिद्धि प्राप्त हो जाती है ।

 

शशि हीना यथा रात्रो रविहीनं यथा दिनम् ।

नृपहीनं यथा राज्यं गुरुहीनं च मंत्रकन् ॥35।।

इन्द्रस्य च यथा वज्र पाशश्च वरुणस्य च ।

यमस्य च यथा दण्डो वह्नेशक्तिर्यथा दहेत् ॥36।।

 

     चंद्रमा के बिना जिस प्रकार रात्रि , सूर्य के बिना दिन और राजा के बिना राज्य संभव नहीं हैं , उसी प्रकार गुरु के बिना सिद्धि संभव नहीं होती । जिस प्रकार इन्द्र का वज्र , वरुण का पाश , यमराज का दण्ड और अग्नि की शक्ति जला देती है ।

 

तथै ते महायोगाः प्रयोज्यः क्षेम कर्मणि ।

सूर्यम् प्रपातद् भूमौ नेदं मिथ्या भविष्यति ॥37।।

 

  इन महाप्रयोगों का ऐसे ही अच्छे कर्मों में प्रयोग करना चाहिए । इनके प्रभाव से सूर्य को भी भूमि पर लाया जा सकता है । यह बात मिथ्या नहीं हैं ।

 

अपकारिषुदुष्टेषु पापिष्टेषु जनेषुच

प्रयोगैर्हन्यमानेव दोषो नैव प्रजायते ।।38।।

योजयेदनिमित्तं य आत्मघाती न संशयः ।।

असन्तुष्टः प्रयोगेयः शास्त्रमेतन सिद्धिदम् ॥39॥

 

    अर्थ- दुष्च दुराचारी और पापी मनुष्यों पर मारण का प्रयोग करता है, उसके लिए यह शास्त्र सिद्धिदायक नहीं होता ॥

 

अथ मरण प्रयोग

 

अथातःसम्प्रवक्ष्यामि प्रयोगं मारणाभिधम् ।

सद्यः सिद्धिकरं नृणां शृणु रावण यत्नतः ॥40

 

    अर्थ- हे रावण अब मैं मारण प्रयोग का अभिधान वर्णन करता हूँ जो मनुष्यों को शीघ्र सिद्धि देने वाला है। तुम साबधानी से सुनो ॥

 

मारणं न वृथा कार्यं यस्य कस्य कदाचन।

प्राणान्तसंकटे जाते कर्त्तव्यं भूतिमिच्छता॥41

 

अर्थ- मारण प्रयोग व्यर्थ किसी के ऊपर न करना चाहिये। इसका प्रयोग अपनी रक्षा करने के निमित्त उस समय में करना उचित है जब कि प्राण जाने की सम्भावना हो ॥

 

मूर्खेण तु कृते तन्त्र स्वस्मिन्नेव समापयेत् ।

तस्मात् रक्ष्यं सदात्मानं मरणं नक्वचिच्चरेत्।।42।।

 

     अर्थ- मूर्ख का किया हुभा प्रयोग उसी को नष्ट कर देता है अत एव जो सर्वदा अपनी आत्मा की रक्षा करना चाहे, उसके उपर कभी मारण प्रयोग न करना चाहिये ॥

 

ब्रह्मात्मानं तु विततं दृष्ट्वा विज्ञानचक्षुषा ।

सर्वत्र मारणं कार्यमन्यथा दोषभाग्भवेत् ।

कर्तव्यं मरणं चेत्स्यात्तदा कृत्यं समाचरेत् ॥४३॥

 

     अर्थ- जो ग्रहको जाननेवाला अपनी ज्ञान चक्षु से सर्वत्र ब्रह्ममय देखता रहता है, यदि वह किसी आवश्यक कार्यवश मारण प्रयोग करे, तो अनुचित नहीं है। इसके विपरीत जो मारण का प्रयोग करता है वह उस पाप का भागी होता है , यदि मारण करना ही पड़े तो 'निम्नलिखित क्रिया के अनुसार मारण का प्रयोग करना चाहिये ॥

 

रिपुपादतलापासुं गृहीत्वा पुत्तली कुरु ।

चिताभस्मसमायुक्तं मध्यमारुधिरान्वितम् ॥ 44

 

     अर्थ- शत्रु के पैर के नीचे की मिट्टी में चिता की भस्म और मध्यमा अंगुलीका रक्त मिला कर उसकी पुतलि बनावे ॥४४॥

 

कृष्णवस्त्रेण संवेष्य कृष्णसूत्रेण बन्धयेत् ।

कुशासने सुप्तमूर्तिर्दीपं प्रज्ज्वालयेत्ततः।। 45 ।।

 

     अर्थ- फिर उस पुनली को काले रंग के कपड़े में लपेट कर ऊपर से काला डोरा घाँध देवे पश्चात् उक्त मूर्ति को (पुतली को) कुशा के आसन पर शयन कराके दीपक जलाये ॥

 

अयुतं प्रजपेन्मन्त्रं पश्चादष्टोत्तरं शतम् ।

मन्त्रराजप्रभावेण माषाश्चाटोत्तरं शतम् ।।46'

 

     अर्थ- फिर निम्नलिखित मन्त्र का दश हजार जप करे पधात् एक सौ आठ उर्दी के दानों को लेकर एक सौ आठ बार फिर मन्त्र को जपै ॥

 

पुत्तलीमुखमध्ये तु निक्षिपेत् सर्वमाषकान् ।

अर्धरात्रिकृते योगे शक्रतुल्योऽपि मारयेत् ॥47

प्रातःकाले पुत्तलिका स्मशाने च विनिक्षिपेत् ।

मासात्मकप्रयोगेण रिपोर्मृत्यु र्भविष्यति ॥48

 

    अर्थ- फिर उस अभिमन्त्रित सब उर्दी के दाने को उस मूर्ति के मुख में डाल देवे । इस प्रयोग को आधी रात के समय में करने से इन्द्र के समान शत्रु भी मारा जा सकता है। रात्रि में इस प्रयोग को करके प्रातः काल में उक्त पुत्तली को स्मशान में गाड़ देनी चाहिये । इस प्रयोग को निरन्तर एक मास तक करना चाहिये । ऐसा करने से अवश्य शत्रु की मृत्यु होती है ॥

 

मंत्र

नमः कालसंहराय अमुकं हन हन क्रीं हुँ फट् भस्मी कुरु कुरु स्वाहा ॥

 

      विधिः- इस मन्त्रका प्रयोग करते समय इस में जहाँ "अमुक" शब्द है वहाँ शत्रु का नाम लेना चाहिये ।

 

निम्बकाष्ठं समादाय चतुरुंगुलमानतः ।

शत्रुकेशान् समालिप्यततोनाम समालिखेत।।49

चितांगारे च तन्नाम्ना धूपं दद्यात् समाहितः।

त्रिरात्रं सप्तरात्रं वा यस्य नाम उदाहृतम् ।।50

कृष्णाष्टम्या चतुर्दश्या चाष्टोत्तरशतं जपेत्।

प्रेतो गृह्णातितच्छीघ्र मन्त्रेणानेन मन्त्रवित्।।51।।

 

     अर्थ- चार अंगुल की नीम की लकड़ी लेकर उसमें शत्रु के शिर का बाल लपेटे और उसी से शत्रुका नाम लिखे। फिर उस नाम को सावधानी से चिता के अंगारे का धूप देवे । इस प्रकार तीन रात अथवा सात रात तक जिसके नाम पर इस प्रयोग को करै उसकी इस मन्त्र के प्रभाव से शीघ्र प्रेत पकड़ लेता है। प्रयोग करने वाले को इस प्रयोग को कृष्ण पक्ष की अष्टमी से आरंभ करके चतुर्दशी तक समाप्त करना चाहिये। और प्रति दिन निम्निलिखित मन्त्र का एक सौ आठ बार जप भी करते रहना चाहिये ।

 

मन्त्र ।

 

ॐ नमो भगवते भुताधिपतये विरूपाक्षाय घोरंदंष्ट्रिणे विकरालिने ग्रहयक्षमतेनानेन शंकर अमुक हन हन दह दह पच पच गृह्ण गृह्ण हुं फट् ठः ठः

 

    विधिः- उपरोक प्रयोग में इसी मन्त्र का एक सौ आठ बार जप करना चाहिये । प्रयोग करते समय, उसमें जहां "अमुक" शब्द है वहां जिसके ऊपर प्रयोग करे, उसका नाम लेना चाहिये।

 

नरास्थि कीलकं पुष्ये गृह्णीयाच्चतुरंगुलम् ॥

निखनेच्च गृहे यावत्तावत्तस्य कुलक्षयः ॥52॥

 

मन्त्रः ।

 

ॐ ह्रीं फट् स्वाहा ।। अयुतजपात् सिद्धिः।

सास्थ्यंगुलमात्रं चाश्लेषायां रिपोर्गहे ।।

निखनेच्च तथा जप्तं मारयेत् रिपुसन्ततिम् ॥53॥

 

     अर्थ-तथा इसी प्रकार अश्लेषा नक्षत्र में एक अंगुल की सर्प की हड्डी शत्रु के गृह में खोद कर गाड़ दे, और निम्नलिखित मन्त्र का जप करता रहे तो 'शत्रुकी सन्तन्ति नाश हो जाता है।

 

मन्त्रः ।

 

ॐ ।। सुरेश्वराय स्वाहा ।।

 

अवस्थिकीलमश्विन्यां निखनचतुरंगुलम् ।

शत्रोर्गृहे निहन्त्याशु कुटुम्बवैरिणां कुलम् ।।54।।

 

     अर्थ-अश्विनी नक्षत्र में घोड़े की हड्डी की चार अंगुल को कील निम्न लिखित मन्त्र से अभिमन्त्रित करके शत्रु के गृह में गाड़ देने से शत्रु के कुटुमंब का नाश हो जाता है॥

 

मन्त्रः । ॥ हुं हुं फट् स्वाहा ।। सप्तदशाभिमन्त्रितं कृत्वा निखनेत् ।

 

     विधिः- ऊपरोक्त कील को इस मन्त्र से शत्रह बार अभिमन्त्रित करके शत्रु के गृह में गाड़ देना चाहिये ।

आर्द्रायां निम्ववन्दाकं शत्रोः शायनमन्दिरे ।

निखनेन्मृतवच्छत्रु रुद्धते च पुनः मुखी ॥55।।

 

    अर्थ- जिस गृह में शत्रु शयन करता हो उसमें आर्दा नक्षत्र में निन्य का बन्दाक खोद कर गाड़ देने से शत्रु मरणोन्मुख हो जाता है। और फिर जब उक्त बन्दाक को निकाल से बह फिर पूर्ववत सुखी हो जाता है ।

 

तथा शिरीषवन्दाकं पूर्वोतनोडुना हरेत् ।

शत्रोर्ग्रहे स्थापयित्वा-रिपोर्नाशो भविष्यति ।।56।।

 

    अर्थ- और उपरोक्त विधि के अनुसार सीरीस का बन्दाक, 'शत्रु के गृह में गाड़ देने से उसका नाश होता है ॥

मन्त्रः ।

 

।। हुं हुं फट् स्वाहा ॥ एकविंशतिवार मभिमन्त्रितं कृत्वा निखनेत् ।

 

      विधिः- उपरोक्त दोनों प्रयोगों में कील को इस मन्त्र से इक्किस बार अभिमन्त्रित करके शत्रु के घर में गाड़ना चाहिये।

 

मंत्र।

 

डंडा डि डी डुंडूं. ड. डो डौं डं डः। अमुकं गृह्ण गृह्ण हुं हुं ठः ठः॥

 

     विधिः- इस मन्त्र से मनुष्य की हड्डी की कील को एक हजार बार अमि मन्त्रित करके जिसके नाम से चीता में गाड़ देवे, वह ज्वर से पीड़ित होकर मर जाता है। इसी प्रकार पहिले कहे हुए मन्त्र से मनुष्य के हड्डी के कील को एक हजार बार अभि मन्त्रित करके जिसके घर में अथवा जिसके नाम से आधी रात के समय स्मशान में गाड़ देवे उसका नाश हो जाता है।

 

रिपुविष्ठां वृश्चिक च खनित्वा तु विनिःक्षिपेत् ।

आछाद्यावरणेनाथ तत पृष्ठे मृत्तिकां क्षिपेत् । ।

प्रियते मलरोधेने उद्धृते च पुनः सुखी ॥57 ॥

 

      अर्थ- शत्रुकी विष्ठा और बिच्छ को एक पात्र में रख कर बन्द कर दे, फिर उस पात्र के पीछे मिट्टी लगा के और जमीन खोद कर उसे गाड़ दे, तो शत्रु मल के अवरोध से, अर्थात् मल के रुक जाने से मरने लग जाता है। और जब उसको जमीन में से निकाल ले तब उसका कष्ट भी छुट जाता है, और वह पूर्ववत् सुखी हो जाता है ।

 

शत्रुपादतालात्यांसुं गृह्णीयाद्भौमवासरे।

गोमूत्रण तु सिंचिता प्रतिमा करयेत् सुधीः।। 58।।

निर्जने च नदीतीरे स्थापयेत् स्थंडिलोपरि।

लोहशूलं च निखमेत्तदक्षसि सुदारुणम् ।

तद्वामे भैरवं कृष्णं बलिभिः प्रत्यहं यजेत् ॥59॥

 

     अर्थ मंगलवार के दिन शत्रु के पैर के नीचे की मिट्टी लाकर गौ के मूत्र में उस को भिंगावे अर्थात् सान ले, फिर 'शत्रु के नाम से उस मिट्टी की एक पुतली बना लेवे । फिर एकान्त स्थान में अथवा नदी के तट पर वेदी बना कर, उस मूर्ति को उस पर स्थापित करके उसकी छाती में खूब तेज लोहे का त्रीशूल गाड़ देवे। पश्चात् उस मूर्ति के बाम भाग में काल भैरव की मूर्ति स्थापित करके प्रति दिन उनकी पूजा और बलिदान दिया करे ॥

 

एकादशवटुं तत्र परमानेन भोजयेत् ।

अखण्डदीपं तस्याने कुटुतैलेन ज्वालयेत् ।।60॥

व्याघ्रचर्मासनं कृत्वा निघसेत्तस्य दक्षिणे ।।

दक्षिणाभिमुखोरात्रौ जपेन्मन्त्रमतन्द्रितः ॥61॥

 

     अर्थ- जिस स्थान में इस प्रयोग को करे, उस स्थान में ग्यारह ब्रह्मचारियों को उत्तम उत्तम अन्न का भोजन कराये, और उस भैरवं मूर्ति के सम्मुख रात दिन कहुए तेल का अखण्ड दीपक जलाया करे । और उस मूर्ति की दाहिनी और बाघ के चर्म का आसनं बना कर दक्षिण मुख होकर उस पर बैठे, और जितेन्द्रिय हो निम्नलिखित मन्त्र का जप करें।। ।।

।। मंत्र ।।

 

ॐ नमोभगवते महांकालभैरवाय कालाग्नितेजसे अमुक में शत्रु मारय मारय पोथय पो थय हुं फट् स्वाहा-॥

 

अयुतं प्रजपेदेनं मन्त्रं निशि समाहृतः । ।

एकोनत्रिंशद्दिवसैर्मारणं जायते ध्रुवम् ॥62॥

 

     विधि- रात्रि के समय सावधानी से इस मन्त्र का दश हजार जप करने से उनतिस दिन में यह प्रयोग अवश्य सफल होता है। इस मन्त्र में जहाँ "अमुक" शब्द है वहाँ जिसके ऊपर प्रयोग करना हो, जप करते समय उसका नाम लेना चाहिये ।।६२॥

 

अथ आर्द्रपटी साधन ।

 

मन्त्रः ।

 

ॐ नमो भगवति आर्द्रपटेश्वरी हरितनीलपट कालि आर्दजिह्वे चाण्डालिनि रुद्राणि कपालिनि ज्वालामुखि ससजिह्वे सहस्रनयने एहि एहि अमुकं ते पशुं ददामि अमुकस्य जीव निकृन्तय एहि जीवितापहारिणि हुं फट् भुर्भुवः वः फट रुधिरार्द्रवशाखा दिनं दिनं मम शत्रून् छेदय छेदय शोणितं पिव पिव हुं फट् स्वाहा॥

 

विनियोगः।

 

ॐ अस्यश्रीर्द्रपटीमहाविद्यामन्त्रस्य दुर्वासाऋषिर्गायत्री छन्दः हुं बीजं स्वाहा शक्तिः ममामुकशत्रुनिग्रहार्थे जपे विनियोगः ॥

 

     अर्थ- ऊपर आर्द्रपटी भगवती का मन्त्र है उसका जप करना चाहिये, और नीचे विनियोग है इसको, हाथ मैं जल लेकर पढ़े, और फिर उस जलको पृथ्वी पर डाल दे। उपरोक्त मन्त्र और विनियोग में जहाँ "अमुक" शब्द है वहाँ शत्रु का नाम लेना चाहिये।

 

केवलं जपमात्रेण मासान्ते शत्रुमारणम् ।

कृष्णाष्टमीं समारभ्ययावत् कृष्णचतुर्दशीम् ।।१॥

शत्रुनांमसमायुक्तं मन्त्रं तावज्जपेन्नरः।

रिपुपादस्थधूल्याश्च कुर्यात् पुत्तलिकां ततः ।।२।।

अजापुत्रबलिं दत्त्वा वस्त्रं रक्तन संलिपेत् ।

ततो गृहीत्वा तद्वस्त्रं न्यसेत् पुत्तलिकोपरि ॥३॥

यावच्छुष्यति तंद्वस्त्रं तावच्छत्रु र्विनश्यति ।

मन्त्रराजप्रभावेण नात्र कार्या बिचारणा ॥ ४ ॥

 

      विधि-  उपरोक्त मन्त्र का केवल जप करने से एक महीने में शत्रु मारण का प्रयोग सिद्ध होता है। इस मन्त्र का प्रति दिन एक सौ आठ बार जप करना चाहिये। फिर कृष्णपक्षकी अष्टमी से कृष्णपक्ष की चतुर्दशी तक शत्रु के नाम के सहित मन्त्र का जप करे, और जब अन्तिम दिन आये, अर्थात् सात दिन शत्रु के पैर के नीचे की मिट्टी को लाकर उसकी पुतली बनाये, और काली को बकरा का बलिदान करके उसके रक्त में एक वस्त्र को भिगा फिर उस धन को उस पुतली के ऊपर रख दे, और मन्त्र का जप करता रहे। इस प्रकार से मारण का प्रयोग करे तो मन्ब राज के प्रभाव से जब तक यह वस्त्र सूखेगा तब तक शत्रु की मृत्यु हो जायगी ॥

अथ वैमारणकवचम् ।

 

"विनियोगः।

 

॥ॐ अस्य श्रीकालिकाकवचस्य भैरवऋषि गायत्री छन्दः श्रीकालीदेवता सद्यः शत्रु संहन नार्थें विनियोगः ॥

 

    विधिः- हाथ मैं जल लेकर इस विनियोग को पढ़े और फिर उस जल को पृथ्वी पर डाल दे, और निम्नलिखित काली जी का ध्यान करें।

 

अथ ध्यानम् ।। ध्यात्वा काली महामायां त्रिनेत्रा बहुरूपिणीं ।चतुर्भजा लोलजिह्वां पूर्णचन्द्रनिभाननाम् ॥२॥ नीलोत्पलदलश्यामां शत्रुसङ्घविदारिणीम् । नरमुण्डं तथा खड्ग कमलं वरदं तथा ॥ ३॥ 'विभ्राणां रक्तबसनां घोरंदंष्ट्रस्वरूपिणीम् । अट्टाहासनिरतां सर्वदा च दिगम्बराम् ॥४॥ शवासनस्थितां देवीं मुण्डमालाविभूषितम् । इति ध्यात्वा महादेवीं ततस्तु कवचं पठेत् ॥५॥

 

       अर्थ- महामाया, काली जी का ध्यान इस प्रकार से करे कि, तीन नेत्र, महा भयानक स्वरूप, चार भुजा, लम्बी जिह्वा, पूर्ण चन्द्रमा के सदृश मुख, नील कमल के समान श्याम वर्ण की शरीर शत्रु के झुण्ड को नाश करनेवाली एक हाथ में मनुष्य का कपाल दूसरे में खड्ग तीसरे में कमल और चौथे में खप्पर लिये, बड़े बड़े दांत, रक्त वस्त्र ओढ़े और अत्यन्त भयानयक स्वरूप बनाये, बड़े जोर से हंसनेवाली और सर्वदा दिगम्बर धारण करनेवाली अर्थात् नंगी रहनेवाली, कण्ठ में, मनुष्य के मुण्ड की माला पहिने हुए और मुर्दे के ऊपर आसन लगाये हुए देवी बैठी हैं । इस प्रकार महाकाली का ध्यान करने के पश्चात् निम्नलिखित कवच को पढ़ना चाहिये।।

 

अथ कवचम् ।

 

ॐ कालिका घोररूपाढ्या सर्वकामप्रदा शुभा । सर्वदेवस्तुता देवी शत्रुनाशं करोतु मे ॥ १॥ हं हं स्वरूपिणी चैवं हृं हृं हृं संगिनी तथा। हृं हृं हृक्षों क्षौं स्वरूपासा सर्वदा शत्रुनाशिनी।।२।। श्री हं ऐं रूपिणी देवी भवबन्धविमोचनी । यथा शुम्भो हतोंदैत्यो निशुंभश्च महासुरः ॥३॥ वैरिनोशाय बन्दे तां कालिकां शंकरप्रियाम् । ब्राह्मी शैवी वैष्णवी च वाराही नरसिंहिका ॥४॥ कौमारी श्रीश्च चामुण्डा खादयन्तु ममद्विषान् । सुरेश्वरी घोररूपा चण्डमुण्डविनाशिनी ॥५॥ मुण्डमाला वृतांगी च सर्वतः पातु मां सदा। हं हं कालिके घोरदंष्ट्रे रुधिरप्रिये ॥ ६॥

 

मन्त्रः ।।

 

रुधिरपूर्णवक्रे च रुधिरावितीस्तीन मम शत्रून् । खादय खादय हिंसय हिसय मारय मारय भिन्धि भन्धिा छिन्धि छिन्धि उच्चाटय उच्चाटय द्रावय द्रावय शोषय शोषय यातुधानीं चामुण्डे हृं हृं वांवीं कालिकायै सर्व शत्रून् समर्पयामि स्वाहा ॥ ॐ जहे किटि किटि किरि किरि कटु कटु मर्दय मर्दय मोहय हर हर मम रिपून ध्वंसय ध्वंसय भक्षय भक्षय त्रोटयं त्रोटय यातुधानिकाचामुण्डा सर्वजनान् राजपुरुषान् राजश्रियं देहि देहि नूतननूतनधान्यं जक्षय जक्षय क्षां क्षां क्षूं क्षैं क्षौं क्षः स्वाहाः॥

इति कवचम् ।

 

अथ कवच माहात्म्यम् ।

 

इत्येत् कवचं दिव्यं कथितं तव रावण । ये पठन्तिः सदा भक्तयातेषां नश्यन्ति शत्रवः।।१।। वैरिणः प्रलयं यान्ति:व्याधिताश्च भवन्ति हि ।। धनहीनाः पुत्रहीनाः शत्रवस्तस्य सर्वदा ॥२॥ सहस्रपठनात् सिद्धिः कवचस्य भवेत्तदा । । ततः कार्याणि सिद्धयन्ति नान्यथा मम भाषितम्।।३।।

 

     अर्थ - इतना वर्णन करके श्री शिवजी बोले हे रावण! इस दिव्य कवच का मैंने तुमसे वर्णन किया । जो भक्ति पूर्वक सर्वदा इस कवच का पाठ करते हैं उनके शत्रुओं का नाश हो' जाता है। इस कवच के पाठ करने वाले के शत्रु रोग से पीड़ित हो कर नाश हो जाते हैं, इसके पाठ करने वाले शत्रु धन तथा पुत्र को कभी नहीं पाते। इस कवच का एक हजार पाठ करने से सिद्धि प्राप्त होती है। पश्चात् प्रयोग करने से निःसन्देह कार्य सिद्ध होता है॥

 

इति कवचमाहात्म्यम् ।

 

स्मशानांगारमादाय चूर्णं कृत्वा विधानतः।

पादोदकेन पिष्ट्वा च लिखेल्लोहश्लाकया ।।४।।

भूमौ शत्रू न हीनरूपान् उत्तराशिरसस्तथा।।

हस्तं दत्त्वा तत् हृदयें कवचं तु स्वयं पठेत् ॥५॥

प्राणप्रतिष्ठां कृत्वा वै तथा मन्त्रोण मन्त्रवित् ।

हन्यात् अस्त्रप्रहारेण तन्मूर्तेः कण्ठमक्षयम् ॥६॥

ज्वलदंङ्गारलेपेन भवति ज्वरितो भृशम् 

पोक्षणामपादेन दरिद्रो भवति ध्रुवम् ।। ७॥

 

     अर्थ स्मशान का कोयला लाकर विधि पूर्वक उसका चरण बना लेबे फिर उस को शत्रुके पैर के जलमें मिला कर पीले, पश्चात् पृथिवी में अपने शत्रु को कुरूप मूर्ति उक्त मसि से लोहे की कलम से लिखे । लिखिते समय मूर्तिका शिर उत्तर शीर पर दक्षिण ओर करदे । फिर उसके हृदय पर अपना हाथ रख कर पहिले वर्णन किया हुआ कवंच पड़ और मन्त्र जानने वाला एक मूर्तिकी प्राणप्रतिष्ठा करदे । फिर शस्त्र को लेकर शत्रु की मूर्ति का शिर काट डाले। फिर उस कटी हुई मूर्ति में जलते हुए अंगारे का लेप करने से शत्रु ज्वर, से पीड़ित हो कर मर जाता है। और उसका बायां पैर पोछने से शत्रु अवश्य दरिद्र हो जाता है॥४॥ ५॥ ६॥6॥

 

वैरिनाशकरं प्रोक्तं कवचं वश्यकारकम् ।

परमैश्वर्यदं चैव पुत्रपौत्रादिवृद्धिदम् ॥८॥

प्रभातसमये चैव पूजाकाले प्रयत्नतः।

सायंकाले तथा पाठात् सर्वसिद्धिर्भवेत् ध्रुवम्।।९।।

शत्रुरुचाटनं याति देशात् वै विच्युतो भवेत् ।

पश्चात् किं करतामेति सत्यमेव न संशयः॥१०॥ ॥

इति श्री उड्डीशतन्त्र रावणेश्वरसम्यादे

मारणप्रयोगवणेनं नाम प्रथमः  पटलः ममाप्तः ॥११॥

 

     अर्थ- यह वैरी नाशक कवंच सबको वश में करने वाला, पुत्र, पौत्रको बढ़ाने वाला तथा महान ऐश्वर्य को देने वाला है। प्रातः काल में पूजा के समय और सायं काल में यत्न पूर्वक इस का पाठ किया करे, तो अवश्य सब सिद्धियां प्राप्त हो जाती हैं। इस कवच का पाठ करने से शत्रु को उच्चाटन हो जाता है और यह देश त्याग कर विदेश में भाग जाता है अथवा अन्त में विवश हो कर वह स्वयं दास बन जाता है इस में कुछ भी सन्देह नहीं है॥

 

इति श्री उहीशस रावणेश्वरसम्बादे भाषाटीका सहित मारण प्रयोग वर्णनं नाम प्रथमः पलटः समाप्तः ॥१॥

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