।।श्री।।
।।रावनकृतमुड्डीशतंत्रम्।।
भाषाटीकासहित्
प्रथमः पटलः
ग्रन्थावणिका
कैलास वासी श्रीशिव
कैलासे शिखरे रम्ये
नानारत्नोपशोभिते ।
नाना द्रुमलताकोर्णे
नानापक्षिरवैर्युतः ॥1।।
एक समय कैलाश पर्वत
के शिखर पर जहां सर्वदा विविध प्रकार के रत्नों से शोभायमान हुआ करता है, जिस
पर विविध प्रकार के वृक्षों एवं लताओं से युक्त हुआ करता है,
तथा जहां विविध प्रकार के पक्षियों के स्वरों से गुंजारित कैलास पर्वत का अत्यन्त
रमणीय शिखर है ।
सर्वर्तुः कुसुमामोदं
मोदिते सुमनोहरं ।
शैत्य - सौगन्ध्य -
मन्दाढ्यैर्मरुदभि रुपवीजिते ॥2।।
जहां समस्त ऋतुएं
सुन्दर पुष्पों से युक्त हैं तथा जहां शीतल - सुगान्धित एवं मनमोहक वायु मन्द -
मन्द गति से प्रवाहित हो रही है ।
अप्सरो गणसंगीत
कलध्वनि निनादिते ।
स्थिरच्छायद्रुमच्छायाच्छादिते
स्निग्ध मंजुले ॥3।।
जहां अप्सराओं की
सुन्दर ध्वनियां गूंज रही हैं , जहां वृक्षों की अनन्त छाया व्याप्त हैं।
मत्तकोकिलसंदोह
संघुष्टविपिनान्तरे ।
सर्वदा स्वर्गणः
सार्ध ऋतुराजनिषेविते ॥4।।
जिस ( पर्वत ) का वन
मध्य प्रदेश प्रमत्त कोकिला के मधुर कूकों से मन मोह रहा है , कूजित
हो रहा है , जहां ऋतुराज बसन्त सदैव अपने साथियों के साथ
जिनकी सेवा में तत्पर रहता है ।
सिद्धचारण
गन्धर्वैगाणपत्यगणैर्वृते ।
तत्र मौनधरं देवं
चराचरजगदगुरुम् ॥5।।
जो सिद्ध चारण
गन्धर्व गणपति अपने गणों व षडानन के साथ निवास करते थे । ऐसे सुन्दर कैलास के शिखर
पर जगत् के गुरु श्री शिवजी मौन धारण किए वास करते हैं ।
सदाशिवं सदानन्दं
करुणाऽमृतसागरम् ।
कर्पूरकुन्दधवलं
शुद्धं सत्वगुणमयं विभुम् ॥6।।
शिवजी कल्याण करने
वाले हैं ,
करुणा निधान हैं , आनन्दित करने वाले हैं ,
अमृत के अथाह सागर हैं , कपूर एवं कुन्द की
भांति धवल सतोगुणी प्रभु पवित्र एवं गुणों से युक्त हैं ।
दीगम्बरं दीनानाथं
योगीन्द्रं योगिवल्लभम् ।
गंगाशीकर
संसिक्तंजटामण्डल मण्डितम् ॥7।।
दस दिशामय वस्त्र
धारण किए हुए दीनानाथ ,
योगीराज , योगियों के प्रिय , जिनकी जटाएं गंगा के जल से सदा भीगी रहती हैं ।
विभूतिभूषितं शान्तं
व्यालमालं कपालिनम् ।
त्रिलोचनं त्रिलोकेशं
त्रिशूलवरधारिणम् ॥8।।
जिनके समस्त अंगों
में भस्म विभूषित हो रही हैं । अत्यन्त शान्त स्वरुप हैं , ये
त्रिलोकी नाथ ( गले में ) मुण्ड तथा सर्पों की माला धारण किए हैं तथा हाथ में
त्रिशूल और वर मुद्रा पकड़े हुए हैं ।
आशुतोषं ज्ञानमयं कैवल्यफलदायकम्
।
निरातंकं निर्विकल्पं
निर्विशेषं निरंजनम् ॥9।।
अतिशीघ्र प्रसन्न
होने वाले ज्ञान स्वरुप भगवान आशुतोष मोक्षदाता , निर्विशेष एवं
साक्षात् स्वरुप हैं ।
सर्वेषां हितकारं
देवदेवं निरामयम् ।
अर्द्धचन्द्रोज्ज्वलदभालं
पञ्चवक्त्रं सुभूषितम् ॥10।।
सब प्राणिमात्र का
कल्याण करने वाल्व ,
हितैषी , निरामय , देवों
के देव महादेव , अर्द्ध चन्द्रमा की ' चन्द्रिका
' जिनके मस्तक पर सुशोभित रहती है , सुन्दर
आभूषणों से संपन्न पंचानन ( पांच मुख वाले ) हैं ।
प्रसन्नवदनं वीक्ष्य
लोकानां हितकाम्यया ।
विनयेन समायुक्तो
रावणः शिवमब्रवतीत् ॥11।।
उन सदाशिव भगवान को
अत्यन्त प्रसन्न मुख देखकर लोगों के हित की अभिलाषा से विनम्र होकर लंकाधिपति रावण
भगवान शंकर से पूछता है।
रावण उवाच।।
रावण - शिव संवाद
नमस्ते देव देवेश
सदाशिव जगदगुरो ।
तन्त्रविद्यां क्षणं
सिद्धिं कथयस्व मम प्रभो ॥12।।
हे सदाशिव , देवों
के देव जगदगुरु प्रभु ! आपको मेरा प्रणाम है । क्षणभर में सिद्धि प्रदान करने वाली
तन्त्रविद्या का कथन मुझ से कीजिए ।
ईश्वर उवाच
साधु पृष्टं त्वा
वत्स लोकानां हितकाम्यया ।
उड्डीशाख्यामिदं
तन्त्र कथयामि तवाग्रतः ॥13।।
महादेव जी ने कहा -
हे पुत्र ! लोगों के हित की इच्छा के विचार से तुमने यह अच्छा पूछा है । अतः मैं
तुमसे '
उड्डीश ' नामक इस तंत्र को कहता हूं ।
पुस्तके लिखिता
विद्या नैव सिद्धिप्रदा नृणाम ।
गुरुं विना हि
शास्त्रेऽस्मिन्नाधिकारः कथञ्चन ॥14।।
पुस्तकों में लिखी
विद्या कभी सिद्धी प्रदान करने वाली नहीं होती । गुरु के बिना तन्त्रशास्त्र पर
किसी का अधिकार नहीं होता ।
अथाभिध्यास्ये
शास्त्रेऽस्मिन्सम्यक् षटकर्मलक्षणम् ।
तन्मन्त्रानुसारेण
प्रयोगफलसिद्धिदेम् ॥15।।
अब मैं इस शास्त्र
में सम्यक् तथा उन षटकर्मों के लक्षणों को तुमसे कहता हूं , जिनके
तन्त्रानुसार एवं मन्त्रानुसार विधिवत् प्रयोग करने पर सिद्धि की प्राप्ति होती है
।
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