युद्ध महाभारत का
एतिहासिक है
युद्ध
महाभारत का एतिहासिक है।
लेखक :- पूज्य स्वामी
ओमानन्द सरस्वती
संस्थापक पुरातत्व
संग्रहालय गुरुकुल झज्जर हरयाणा
प्रस्तुति :- अमित सिवाहा
अनेक विद्वानों का मत है कि महाभारत
का युद्ध कोई एक घटना विशेष से सम्बन्धित नहीं है , अपितु यह विभिन्न कालों में हुई अनेक धटनाओं का समूह है।
इसमें तर्क यह दिया जाता है कि विद्वान् लोग महाभारत युद्ध की निश्चित् तिथि न
मानकर विभिन्न तिथियां मानते हैं , अत: जिस महाभारत
की विभिन्न तिथियाँ मानी जाती हैं , वह एक काल में हुई एक घटना नहीं हो सकती। इसी प्रकार उन्होंने यह भी सिद्ध
करने का यत्न किया है कि कौरव - पाण्डव आदि एक कुल के नहीं थे। इतना सब लिखते हुए
कतिपय विद्वानों ने अपने लेख में कोई भी ऐतिहासिक और ठोस प्रमाण नहीं दिया है।
सर्वमान्य है कि संवत् उसी का चलता है ,
जिसकी सत्ता ( विद्यमानता ) रही हो , जैसे यह सृष्टि उत्पन्न हुई तो इसका संवत् चला ,
जिसे सृष्टि संवत् कहते हैं। इसी प्रकार
युधिष्ठिर संवत् , कलिसंवत् ,
विक्रमसंवत् , मूसा का ईसवी , शत संवत् आदि हैं। ये सभी इनकी सत्ता को सिद्ध करते हैं। कलि संवत् को हो
युधिष्ठिरी संवत् कहते हैं। पाण्डव संवत् भी इसी का नाम है। वराहमिहिर कृत '
बृहत्संहिता ' , ' आइने अकबरी ' , माधवाचार्य कृत ' राजावली ,
' द्वारका मन्दिर ताम्रलेख और बूंदी - स्थित
स्तोर ग्राम के शिलालेख से यह सुतरां सिद्ध है।
' आइने अकबरी ' में लिखा है- " कलियुग के आरम्भ होते ही पहला राजा
युधिष्ठिर हुआ , जिसको ( अकबर तक
) ४६९६ वर्ष हो चुके हैं और विक्रम तक यह ३०४४ वर्ष होते हैं। " ( इसके
अनुसार अब वर्तमान २०२८ विक्रम संवत् तदा युधिष्ठिर को ५०७२ वर्ष होते है )। इसी
प्रकार महर्षि दयानन्द सरस्वती ने भी महाभारत युद्ध के पश्चात कलियुग के प्रारम्भ
में जो राजा हुए हैं , उनमें सर्वप्रथम
युधिष्ठर को ही माना है। महर्षि दयानन्द ने ' सत्यार्थ प्रकाश , में जो राजवंशावली दी है, उसके अनुसार
महाराज युधिष्ठिर से लेकर महाराज यशपाल पर्यन्त अर्थात् कलियुग के प्रारम्भ से
विक्रम संवत् १२४६ तक ४२६३ वर्ष व्यतीत होते हैं। एतदनुसार भी आज विक्रम संवत्
२०२८ तक युधिष्ठिर संवत् अथवा पलि संवत् को
५०७२ वर्ष होते हैं। अभी कुछ वर्ष पूर्व हरयाणा सरकार के भाषा विभाग को
डोगरी लिपि में लिखी एक प्राचीन राजवंशावली मिली है , उसमें राजाओं का जो कालमान दिया है , वह महर्षि दयानन्द सरस्वती द्वारा लिखित काल से ही मिलता -
जुलता है, उसके अनुसार भी आज संवत्
२०२८ विक्रम् तक युधिष्ठिर संवत् ५०७२ ही सिद्ध होता है। ' राजावली ' नामक ग्रन्थ में
सुप्रसिद्ध ज्योतिष शास्त्रज्ञ पं० माधवाचार्य ने लिखा है - ' कलियुग के प्रारम्भ से विक्रम् तक ३०४४ वर्ष
होते हैं। कलियुगी संवत् ३०४४ में विक्रम का राज्य आरम्भ हुआ और संवत् ३१७६ में
शाल वाहन का राज्य प्रारम्भ हुआ।
" इसके अनुसार भी वर्तमान १८९३ शका संवत् तक
कलियुगी संवत् को ५०७२ वर्ष व्यतीत होते हैं। इसके अतिरिक्त बूंदी के अन्तर्गत
स्तोर ग्राम में विद्यमान पाषाण लेखों का परीक्षण सर विलियम म्यूर साहिब ने करवाया
था। उनके मतानुसार इस लेख में भी युधिष्ठिरी संवत् लिखा है। एक बार सूरत के एक
मन्दिर में दो शंकराचार्यों का शास्त्रार्थ हुआ था। उस शास्त्रार्थ में द्वारका के
मन्दिर से प्राप्त एक ताम्र लेख दिखाया गया था। उस लेख की तिथि २६६३ युधिष्ठिरी
संवत् में दी हुई है। वह लेख ईसा मसीह से ४३८ वर्ष पूर्व लिखा गया था। इस लेख के
अनुसार भी वर्तमान ईसवी संवत् १९७१ तक युधिष्ठिरी संवत् के ५०७२ वर्ष व्यतीत होते
हैं।
ऐसे ही अन्य भी अनेक प्रमाण हैं ,
जिनसे कलिसंवत् अथवा युधिष्ठिरी संवत् का काल
नितान्त एक सा और निश्चित है। अत: महाभारत युद्ध काल को अनिश्चित कहना बुद्धिसंगत
नहीं है। इन लिखित प्राचीन प्रमाणों के अतिरिक्त पुरात्विक और ऐतिहासिक प्रमाण भी
हैं , जिनसे सिद्ध है कि
महाभारत का युद्ध एक ऐतिहासिक युद्ध था और वह एक ही समय की घटना थी, तथा कौरव - पाण्डव आदि भी समकालीन थे और यह
युद्ध कौरव - पाण्डव तथा उनके ही सहयोगियों में हुआ था।
. महाभारत युद्ध के निकटवर्ती समय में जो ग्राम
और नगर विद्यमान थे , विधमान हैं। इसी
की पुष्टि में कुछेक प्रमाण नीचे दिये जाते हैं। इनमें से अनेक आज भी उसी नाम से
अथवा कुछ नामभेद ( विकृत नाम ) महाभारत नामक ग्रन्थ में जो कथा वर्णित हैं ,
वह आज तक ज्यों की त्यों भारत के सभी प्रान्तों
में जन श्रुति के रूप में विद्यमान हैं। यदि महाभारत का अस्तित्व नहीं होता तो यह
जनश्रुति सर्वत्र क्योंकर मिलती ? महाभारत का युद्ध
कुरूक्षेत्र के मैदान में हुआ था। महाभारत युद्ध
कलयुग से ३६वर्ष पूर्व हुआ था। तद्नुसार महाभारत युद्ध को आज विक्रम संवत्
२०२६ में ५१०६ वर्ष व्यतीत होते हैं। सभी प्रमाणों से यही काल निश्चित है। महाभारत
में नकुल की पश्चिम दिग्विजय में रोहीतक , शैरिशक , और महत्यम का वर्णन है ,
सो इन्द्रप्रस्थ ( दिल्ली ) के पश्चिम में
रोहतक , सिरसा और महम आज भी
विद्यमान हैं।
महाभारत का युद्धस्थल कुरुक्षेत्र तो आज उसी
नाम से ही है। युद्ध के अन्तिम दिन जब दुर्योधन तालाब में छिपा और उसे ढूंढने के
लिये युधिष्ठिर , कृष्ण आदि गये थे
, उस स्थान का नाम ढूंढू
जोहड़ और ईक्कस आज तक भी है। संस्कृत के “ ईश दर्शने " धातु से विकृत होकर यह
' ईकस ' शब्द बना है। महाभारत में वर्णित परशुराम ने
जिस तालाब में अपना परशु धोया था , वह रामराहद भी आज
रामरा नाम से प्रसिद्ध है। पाण्डु के नाम
से पाण्डुपिण्डारा और पाण्डुखरक भी विद्यमान हैं , जो कि कौरव - पाण्डवों की सत्ता के द्योतक हैं। पाण्डवों का
किला भी इसी की पुष्टि करता है। महाभारत के इन्द्रप्रस्थ से तो आज सभी परिचित हैं
ही। विराट के महाराज की गायें कौरवों ने इसी लिये भगाई थीं कि अज्ञातवासी पाण्डवों
का पता चल सके। उन गायों को पाण्डवों ने जिस स्थान पर छुड़ाया , वहाँ आज छुड़ानी नाम का ग्राम विद्यमान है ,
यह बहादुरगढ़ और झज्जर के मध्य है।
द्रोपदी की जन्मभूमि अहिच्छत्र (
पाण्चाल प्रदेश ) आज भी खण्डहर रूप में विद्यमान है। पाण्डवों की राजधानी कौशाम्बी
( प्रयाग ) भी आज ध्वस्त रूप में पड़ी हैं। महाभारत में वर्णित योधेय , कुणिन्द आर्जुनायन , वृष्णि आदि गणों की मुद्रायें आज भी प्राप्त हैं। इसी
प्रकार बहुधान्यक प्रदेश का वर्णन भी महाभारत में आया है , जिसके नाम वाले यौधेयों के सिक्के आज भी उस प्रदेश की सत्ता
जतला रहे हैं। जब महर्षि वेदव्यास रचित इस महाभारत ग्रन्थ में उल्लिखित ये सब तथ्य
प्रस्तुत हैं तो उसी में वर्णित कौरव - पाण्डव और उनका युद्ध अनैतिहासिक कैसे हो
सकता है ? कैसे उसकी सत्ता को
अस्वीकार किया जा सकता है ?
इसी प्रकार पाण्डवों ने दुर्योधन से जो
पांच ग्राम मांगे थे वे भी भाज किचन्नाम भेद से देखे जा सकते हैं। बिना इन
ऐतिहासिक तथ्यों की खोज किये महाभारत युद्ध और कौरव पाण्डवों की अनैतिहासिकता की
घोषणा करना ठीक नहीं है। महाभारत के अध्ययन से स्पष्ट ज्ञात होता है कि श्री कृष्ण
और कौरव पाण्डव आदि का परस्पर रक्त का सम्बन्ध भी था। महर्षि व्यास ने श्री कृष्ण
को बार बार वार्ष्णेय ( वृष्णिकुलोत्पन्न ) नाम से सम्बोधित किया है। इसी
वृष्णिकुल की कुछ प्राचीन मोहरें मुझे प्राप्त हुई हैं , जिनसे इस कुल की सत्ता का स्पष्ट प्रमाण मिलता है। यदि यह
कुल न होता तो इसकी मोहरें कहां से आतीं। यदि इसी भांति इन्द्रप्रस्थ , पाण्डुकिला , अहिच्छत्र और कौशाम्बी आदि की पूर्ण खुदाई करवाई जाए तो
कौरव - पाण्डवों से सम्बन्धित विशिष्ट सामग्री भी मिल सकती है। जैसे कि अहिच्छत्र
से कौरव - पाण्डव युद्ध के दृश्यों से अंकित विशाल मृण्मूर्तियां उपलब्ध हुई हैं
जो कि महाभारत युद्ध की वास्तविकता का ठोस प्रमाण हैं।
नीचे स्वामी ओमानन्द जी महाराज द्वारा खोजा
गया महाभारत युद्ध का एक हथियार है। बढ़ती सैक्यूलरता तथा नये नये इतिहासकार आज के
नवयुवकों में यह संदेश पहुंचा रहे हैं की महाभारत का युद्ध काल्पनिक गाथा है। ऐसा
करके आप कहां तक ठहरोगे ? आजकल के पैड
वर्कर इतिहासकार केवल हिन्दु ग्रंथो को नीचा दिखाने मात्र हेतु ऐसा घिनौना कार्य
कर रहे हैं। उनकी भावना साफ साफ समझी जाती है। यें छद्मी लोग कुरान बाईबल पर चूं न
करते। स्मरण रहे आप आर्यसमाज को चुनौती कर
रहे हैं।
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