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श्रीमहाभारते आदिपर्वणि पर्वसंग्रहपर्वणि द्वितीयोऽध्यायः 03


वने दुर्योधनः सैन्यं मन्दात्मा यत्र दुर्मतिः। 

अयुध्यमानं सचिवं वव्रे कृष्णं धनञ्जयः ॥ २२१॥


अपने स्वार्थके सम्बन्धमें अनजान एवं खोटी बुद्धिवाले दुर्योधनने एक अक्षौहिणी सेना माँग ली और अर्जुनने यह मांग की कि श्रीकृष्ण युद्ध भले ही न करें, परंतु मेरे मन्त्री बन जायँ' ।। २२१ ।।


मद्रराजं च राजानमायान्तं पाण्डवान् प्रति । 

उपहारैर्वञ्चयित्वा वर्त्मन्येव सुयोधनः ।। २२२ ।। 

वरदं तं वरं ववे साहाय्यं क्रियतां मम। 

शल्यस्तस्मै प्रतिश्रुत्य जगामोद्दिश्य पाण्डवान् ।। २२३ ।। 

शान्तिपूर्वं चाकथयद्योन्द्रविजयं नृपः। 

पुरोहितप्रेषणं च पाण्डवैः कौरवान् प्रति ।। २२४ ।।


मद्रदेशके अधिपति राजा शल्य पाण्डवोंकी ओरसे युद्ध करने आ रहे थे, परंतु दुर्योधनने मार्गमें ही उपहारोंसे धोखेमें डालकर उन्हें प्रसन्न कर लिया और उन वरदायक नरेशसे यह वर माँगा कि 'मेरी सहायता कीजिये।' शल्यने दर्योधनसे सहायताकी प्रतिज्ञा कर ली। इसके बाद वे पाण्डवोंके पास गये और बड़ी शान्तिके साथ सब कुछ समझाबुझाकर सब बात कह दी। राजाने इसी प्रसंगमें इन्द्रकी विजयकी कथा भी सुनायी। पाण्डवोंने अपने पुरोहितको कौरवोंके पास भेजा ।। २२२-२२४ ।।


वैचित्रवीर्यस्य वचः समादाय पुरोधसः । 

तथेन्द्रविजयं चापि यानं चैव पुरोधसः ॥ २२५ ।। 

संजयं प्रेषयामास शमार्थी पाण्डवान् प्रति । 

यत्र दूतं महाराजो धृतराष्ट्रः प्रतापवान् ।। २२६ ।।


धृतराष्ट्रने पाण्डवोंके पुरोहितके इन्द्रविजयविषयक वचनको सादर श्रवण करते हुए उनके आगमनके औचित्यको स्वीकार किया। तत्पश्चात् परम प्रतापी महाराज धृतराष्ट्रने भी शान्तिकी इच्छासे दूतके रूपमें संजयको पाण्डवोंके पास भेजा ।। २२५-२२६ ।।


श्रुत्वा च पाण्डवान् यत्र वासुदेवपुरोगमान् । 

प्रजागरः सम्प्रजज्ञे धृतराष्ट्रस्य चिन्तया ।। २२७ ।। 

विदुरो यत्र वाक्यानि विचित्राणि हितानि च । 

श्रावयामास राजानं धृतराष्ट्र मनीषिणम् ।। २२८ ।।


जब धृतराष्ट्रने सुना कि पाण्डवोंने श्रीकृष्णको अपना नेता चुन लिया है और वे उन्हें आगे करके युद्धके लिये प्रस्थान कर रहे हैं, तब चिन्ताके कारण उनकी नींद भाग गयी-वे रातभर जागते रह गये। उस समय महात्मा विदुरने मनीषी राजा धृतराष्ट्रको विविध प्रकारसे अत्यन्त आश्चर्यजनक नीतिका उपदेश किया है (वही विदुरनीतिके नामसे प्रसिद्ध है) ।। २२७-२२८ ।।


तथा सनत्सुजातेन यत्राध्यात्ममनुत्तमम् । 

मनस्तापान्वितो राजा श्रावितः शोकलालसः ।। २२९ ।।


उसी समय महर्षि सनत्सुजातने खिन्नचित्त एवं शोकविह्वल राजा धृतराष्ट्रको सर्वोत्तम अध्यात्मशास्त्रका श्रवण कराया ।। २२९ ।।


प्रभाते राजसमितौ संजयो यत्र वा विभोः। 

ऐकात्म्यं वासुदेवस्य प्रोक्तवानर्जुनस्य च ॥ २३०॥


प्रातःकाल राजसभामें संजयने राजा धृतराष्ट्रसे श्रीकृष्ण और अर्जुनके ऐकात्म्य अथवा मित्रताका भलीभाँति वर्णन किया ।। २३०॥


यत्र कृष्णो दयापन्नः संघिमिच्छन् महामतिः। 

स्वयमागाच्छमं कर्तुं नगरं नागसायम् ।। २३१ ।।


इसी प्रसंगमें यह कथा भी है कि परम दयालु सर्वज्ञ भगवान् श्रीकृष्ण दया-भावसे युक्त हो शान्ति-स्थापनके लिये सन्धि करानेके उद्देश्यसे स्वयं हस्तिनापुर नामक नगरमें पधारे ।। २३१ ।।


प्रत्याख्यानं च कृष्णस्य राज्ञा दुर्योधनेन वै। 

शमार्थे याचमानस्य पक्षयोरुभयोर्हितम् ।। २३२ ।।


यद्यपि भगवान् श्रीकृष्ण दोनों ही पक्षोंका हित चाहते थे और शान्तिके लिये प्रार्थना कर रहे थे, परंतु राजा दुर्योधनने उनका विरोध कर दिया ।। २३२ ।।


दम्भोद्भवस्य चाख्यानमत्रैव परिकीर्तितम् ।। 

वरान्वेषणमत्रैव मातलेश्च महात्मनः ।। २३३ ॥


इसी पर्वमें दम्भोद्भवकी कथा कही गयी है और साथ ही महात्मा मातलिका अपनी कन्याके लिये वर ढूँढ़नेका प्रसंग भी है ।। २३३ ।।


महर्षेश्चापि चरितं कथितं गालवस्य वै। 

विदुलायाश्च पुत्रस्य प्रोक्तं चाप्यनुशासनम् ।। २३४ ।।


इसके बाद महर्षि गालवके चरित्रका वर्णन है। साथ ही विदुलाने अपने पुत्रको जो शिक्षा दी है, वह भी कही गयी है ।। २३४ ॥


कर्णदुर्योधनादीनां दुष्टं विज्ञाय मन्त्रितम् । 

योगेश्वरत्वं कृष्णेन यत्र राज्ञां प्रदर्शितम् ।। २३५ ।।


भगवान् श्रीकृष्णने कर्ण और दुर्योधन आदिकी दूषित मन्त्रणाको जानकर राजाओंकी भरी सभामें अपने योगैश्वर्यका प्रदर्शन किया ।। २३५ ।।


रथमारोप्य कृष्णेन यत्र कर्णोऽनुमन्त्रितः। 

उपायपूर्व शौटीर्यात् प्रत्याख्यातश्च तेन सः ।। २३६ ।।


भगवान् श्रीकृष्णने कर्णको अपने रथपर बैठाकर उसे (पाण्डवोंके पक्षमें आनेके लिये) अनेक युक्तियोंसे बहुत समझाया-बुझाया, परंतु कर्णने अहंकारवश उनकी बात अस्वीकार कर दी ।। २३६ ॥


आगम्य ह्यस्तिनपुरादुपप्लव्यमरिन्दमः। 
पाण्डवानां यथावृत्तं सर्वमाख्यातवान् हरिः ।। २३७ ।।


शत्रुसूदन श्रीकृष्णने हस्तिनापुरसे उपप्लव्यनगर आकर जैसा कुछ वहाँ हुआ था, सब | पाण्डवोंको कह सुनाया ।। २३७ ॥


ते तस्य वचनं श्रुत्वा मन्त्रयित्वा च यद्वितम्। 
सांग्रामिकं ततः सर्वं सज्जं चक्रुः परंतपाः ।। २३८ ।।


शत्रुघाती पाण्डव उनके वचन सुनकर और क्या करनेमें हमारा हित है-यह परामर्श करके युद्ध-सम्बन्धी सब सामग्री जुटाने में लग गये ।। २३८ ।।


ततो युद्धाय निर्याता नराश्वरथदन्तिनः। 
नगराद्धास्तिनपुराद् बलसंख्यानमेव च ।। २३९ ।।


इसके पश्चात् हस्तिनापुर नामक नगरसे युद्धके लिये मनुष्य, घोड़े, रथ और हाथियोंकी | चतुरंगिणी सेनाने कूच किया। इसी प्रसंगमें सेनाकी गिनती की गयी है ।। २३९ ।।


यत्र राज्ञा लूकस्य प्रेषणं पाण्डवान् प्रति। 
श्वोभाविनि महायुद्धे दौत्येन कृतवान् प्रभुः ।। २४० ।।


फिर यह कहा गया है कि शक्तिशाली राजा दुर्योधनने दूसरे दिन प्रातःकालसे होनेवाले | महायुद्धके सम्बन्धमें उलूकको दूत बनाकर पाण्डवोंके पास भेजा ।। २४०।।


रथातिरथसंख्यानमम्बोपाख्यानमेव च । 
एतत् सुबहुवृत्तान्तं पञ्चमं पर्व भारते ।। २४१ ।।


इसके अनन्तर इस पर्वमें रथी, अतिरथी आदिके स्वरूपका वर्णन तथा अम्बाका उपाख्यान आता है। इस प्रकार महाभारतमें उद्योगपर्व पाँचवाँ पर्व है और इसमें बहुत-से सुन्दर-सुन्दर वृत्तान्त हैं ।। २४१ ।। 


उद्योगपर्व निर्दिष्टं संधिविग्रहमिश्रितम्। 
अध्यायानां शतं प्रोक्तं षडशीतिमहर्षिणा ।। २४२ ।। 
श्लोकानां षट्सहस्राणि तावन्त्येव शतानि च । 
श्लोकाश्च नवतिः प्रोक्तास्तथैवाष्टौ महात्मना ।। २४३ ।। 
व्यासेनोदारमतिना पर्वण्यस्मिंस्तपोधनाः।


इस उद्योगपर्वमें श्रीकृष्णके द्वारा सन्धि-संदेश और उलूकके विग्रह-संदेशका महत्त्वपूर्ण वर्णन हआ है। तपोधन महर्षियो! विशालबुद्धि महर्षि व्यासने इस पर्वमें एक सौ छियासी । (१८६) अध्याय रखे हैं और श्लोकोंकी संख्या छः हजार छ: सौ अट्ठानबे (६.६९८) बतायी है ।। २४२-२४३३॥


अतः परं विचित्रार्थ भीष्मपर्व प्रचक्षते ॥ २४४ ॥ 
जम्बूखण्डविनिर्माणं यत्रोक्तं संजयेन ह।
यत्र यौधिष्ठिरं सैन्यं विषादमगमत् परम् ।। २४५ ॥ 
यत्र युद्धमभूद् घोरं दशाहानि सुदारुणम् । 
कश्मलं यत्र पार्थस्य वासुदेवो महामतिः ।। २४६ ।। 
मोहजं नाशयामास हेतुभिर्मोक्षदर्शिभिः । 
समीक्ष्याधोक्षजः क्षिप्रं युधिष्ठिरहिते रतः ॥ २४७ ॥ 
स्थादाप्लुत्य वेगेन स्वयं कृष्ण उदारधीः। 
प्रतोदपाणिराधावद् भीष्मं हन्तु व्यपेतभीः ।। २४८ ।।


इसके बाद विचित्र अर्थोंसे भरे भीष्मपर्वकी विषय-सूची कही जाती है, जिसमें संजयने | जम्बूद्वीपकी रचनासम्बन्धी कथा कही है। इस पर्वमें दस दिनोंतक अत्यन्त भयंकर घोर युद्ध होनेका वर्णन आता है, जिसमें धर्मराज युधिष्ठिरकी सेनाके अत्यन्त दुःखी होनेकी | कथा है। इसी युद्धके प्रारम्भमें महातेजस्वी भगवान् वासुदेवने मोक्षतत्त्वका ज्ञान | करानेवाली युक्तियोंद्वारा अर्जुनके मोहजनित शोक-संतापका नाश किया था (जो कि भगवद्गीताके नामसे प्रसिद्ध है)। इसी पर्वमें यह कथा भी है कि युधिष्ठिरके हितमें संलग्न रहनेवाले निर्भय, उदारबुद्धि, अधोक्षज, भक्तवत्सल भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुनकी शिथिलता | देख शीघ्र ही हाथमें चाबुक लेकर भीष्मको मारनेके लिये स्वयं रथसे कूद पड़े और बड़े | वेगसे दौड़े।। २४४-२४८ ॥



वाक्यप्रतोदाभिहतो यत्र कृष्णेन पाण्डवः । 
गाण्डीवधन्वा समरे सर्वशस्त्रभृतां वरः ।। २४९ ।।


साथ ही सब शस्त्रधारियोंमें श्रेष्ठ गाण्डीवधन्वा अर्जुनको युद्धभूमिमें भगवान् श्रीकृष्णने व्यंग्य-वाक्यके चाबुकसे मार्मिक चोट पहुँचायी ।। २४९ ।।


शिखण्डिनं पुरस्कृत्य यत्र पार्थो महाधनुः। 
विनिघ्नन् निशितैर्बाणै रथाद् भीष्ममपातयत्।। २५० ॥


तब महाधनुर्धर अर्जुनने शिखण्डीको सामने करके तीखे बाणोंसे घायल करते हुए | भीष्मपितामहको रथसे गिरा दिया ।। २५०॥


शरतल्पगतश्चैव भीष्मो यत्र बभूव ह। 
षष्ठमेतत् समाख्यातं भारते पर्व विस्तृतम् ।।२५१ ।।

जबकि भीष्मपितामह शरशय्यापर शयन करने लगे। महाभारतमें यह छठा पर्व विस्तारपूर्वक कहा गया है ।। २५१ ॥


अध्यायानां शतं प्रोक्तं तथा सप्तदशापरे। 
पञ्च श्लोकसहस्राणिसंख्ययाष्टौ शतानि च ।।२५२ ।। 
श्लोकाश्च चतुराशीतिरस्मिन् पर्वणि कीर्तिताः। 
व्यासेन वेदविदुषा संख्याता भीष्मपर्वणि ॥२५३ ।।


    वेदके मर्मज्ञ विद्वान श्रीकृष्णद्वैपायन व्यासने इस भीष्मपर्वमें एक सौ सत्रह (११७) अध्याय रखे हैं। श्लोकोंकी संख्या पाँच हजार आठ सौ चौरासी (५.८८४) कही गयी है।। २५२-२५३ ॥

द्रोणपर्व ततश्चित्रं बहुवृत्तान्तमुच्यते । 
सैनापत्येऽभिषिक्तोऽथ यत्राचार्यः प्रतापवान् ।। २५४ ।।

    तदनन्तर अनेक वृत्तान्तोंसे पूर्ण अद्भुत द्रोणपर्वकी कथा आरम्भ होती है. जिसमें परम प्रतापी आचार्य द्रोणके सेनापतिपदपर अभिषिक्त हानेका वर्णन है ।। २५४ ।।

दुर्योधनस्य प्रीत्यर्थ प्रतिजज्ञे महास्त्रवित् । 
ग्रहणं धर्मराजस्य पाण्डुपुत्रस्य धीमतः ॥२५५ ॥

वहीं यह भी कहा गया है कि अस्त्रविद्याके परमाचार्य द्रोणने दुर्योधनको प्रसन्न करनेके लिये बुद्धिमान् धर्मराज युधिष्ठिरको पकड़नेकी प्रतिज्ञा कर ली ।। २५५ ।।

यत्र संशप्तकाः पार्थमपनिन्यू रणाजिरात्। 
भगदत्तो महाराजो यत्र शक्रसमो युधि ।। २५६ ।। 
सुप्रतीकेन नागेन स हि शान्तः किरीटिना।

इसी पर्वमें यह बताया गया है कि संशप्तक योद्धा अर्जुनको रणांगणसे दूर हटा ले गये। वहीं यह कथा भी आयी है कि ऐरावतवंशीय सुप्रतीक नामक हाथीके साथ महाराज भगदत्त भी, जो युद्धमें इन्द्रके समान थे, किरीटधारी अर्जुनके द्वारा मीतके घाट उतार दिये गये ।। २५६ ।।

यत्राभिमन्युं बहवो जघ्नुरेकं महारथाः ।। २५७ ।। 
जयद्रथमुखा बालं शूरमप्राप्तयौवनम्।

इसी पर्वमें यह भी कहा गया है कि शूरवीर बालक अभिमन्युको, जो अभी जवान भी नहीं हुआ था और अकेला था, जयद्रथ आदि बहुत-से विश्वविख्यात महारथियोंने मार डाला ।। २५७१ ॥

हतेऽभिमन्यौ कुद्धेन यत्र पार्थेन संयुगे ।। २५८ ॥ 
अक्षौहिणीः सप्त हत्वा हतो राजा जयद्रथः।

अभिमन्युके वधसे कुपित होकर अर्जुनने रणभूमिमें सात अक्षौहिणी सेनाओंका संहार करके राजा जयद्रथको भी मार डाला ।। २५८३ ॥

यत्र भीमो महाबाहुः सात्यकिश्च महारथः ।। २५९ ॥ 
अन्वेषणार्थं पार्थस्य युधिष्ठिरनृपाज्ञया। 
प्रविष्टौ भारती सेनामप्रधृष्यां सुरैरपि ॥२६० ॥

उसी अवसरपर महाबाहु भीमसेन और महारथी सात्यकि धर्मराज युधिष्ठिरकी आज्ञासे अर्जुनको ढूँढनेके लिये कौरवोंकी उस सेनामें घुस गये, जिसकी मोर्चेबन्दी बड़े-बड़े देवता भी नहीं तोड़ सकते थे ।। २५९-२६०॥


संशप्तकावशेषं च कृतं निःशेषमाहवे। 
संशप्तकानां वीराणां कोट्यो नव महात्मनाम् ।। २६१ ।। 
किरीटिनाभिनिष्क्रम्य प्रापिता यमसादनम्। 
धृतराष्ट्रस्य पुत्राश्च तथा पाषाणयोधिनः ।। २६२ ॥ 
नारायणाश्च गोपालाः समरे चित्रयोधिनः। 
अलम्बुषः श्रुतायुश्च जलसन्धश्च वीर्यवान् ।। २६३ ।। 
सौमदत्तिविराटश्च द्रुपदश्वमहारथः। 
घटोत्कचादयश्चान्ये निहता द्रोणपर्वणि ॥ २६४ ॥

अर्जुनने संशप्तकोंमेंसे जो बच रहे थे, उन्हें भी युद्धभूमिमें निःशेष कर दिया। महामना संशप्तक वीरोंकी संख्या नौ करोड़ थी; परंतु किरीटधारी अर्जुनने आक्रमण करके अकेले ही उन सबको यमलोक भेज दिया। धृतराष्ट्रपुत्र, बड़े-बड़े पाषाणखण्ड लेकर युद्ध करनेवाले म्लेच्छ-सैनिक, समरांगणमें युद्धके विचित्र कला-कौशलका परिचय देनेवाले नारायण नामक गोप, अलम्बुष, श्रुतायु, पराक्रमी जलसन्ध, भूरिश्रवा, विराट, महारथी द्रुपद तथा घटोत्कच आदि जो बड़े-बड़े वीर मारे गये हैं, वह प्रसंग भी इसी पर्वमें है ।। २६१ -२६४ ।।

अश्वत्थामापि चात्रैव द्रोणे युधि निपातिते। 
अस्त्रं प्रादुश्चकारोग्रं नारायणममर्षितः ।। २६५ ।। 

इसी पर्वमें यह बात भी आयी है कि युद्ध में जब पिता द्रोणाचार्य मार गिराये गये, तब अश्वत्थामाने भी शत्रुओंके प्रति अमर्षमें भरकर 'नारायण' नामक भयानक अस्त्रको प्रकट किया था ।। २६५ ।।

आग्नेयं कीर्त्यते यत्र रुद्रमाहात्म्यमुत्तमम्। 
व्यासस्य चाप्यागमनं माहात्म्यं कृष्णपार्थयोः ॥ २६६ ।।


इसीमें आग्नेयास्त्र तथा भगवान् रुद्रके उत्तम माहात्म्यका वर्णन किया गया है। व्यासजीके आगमन तथा श्रीकृष्ण और अर्जुनके माहात्म्यकी कथा भी इसी में है ।। २६६ ।।

सप्तमं भारते पर्व महदेतदुदाहृतम्। 
यत्र ते पृथिवीपालाः प्रायशो निधनं गताः ॥२६॥ 
द्रोणपर्वणि ये शूरा निर्दिष्टाः पुरुषर्षभाः। 
अत्राध्यायशतं प्रोक्तं तथाध्यायाश्च सप्ततिः ।। २६८ ।। 
अष्टौ श्लोकसहस्राणि तथा नव शतानि च । 
श्लोका नव तथैवात्र संख्यातास्तत्त्वदर्शिना ।। २६९ ।। 
पाराशर्येण मुनिना संचिन्त्य द्रोणपर्वणि।


     महाभारतमें यह सातवाँ महान् पर्व बताया गया है। कौरव-पाण्डवयुद्धमें जो नरश्रेष्ठ नरेश शूरवीर बताये गये हैं, उनमेंसे अधिकांशके मारे जानेका प्रसंग इस द्रोणपर्वमें ही आया है। तत्त्वदर्शी पराशरनन्दन मुनिवर व्यासने भलीभाँति सोच-विचारकर द्रोणपर्वमें एक सी सत्तर (१७०) अध्यायों और आठ हजार नौ सौ नौ (८.९०९) श्लोकोंकी रचना एवं गणना की है।। २६७-२६९ ॥
अतः परं कर्णपर्व प्रोच्यते परमाद्भतम् ।। २७०।। सारथ्ये विनियोगश्च मद्रराजस्य धीमतः। आख्यातं यत्र पौराणं त्रिपुरस्य निपातनम् ॥ २७१ ।। इसके बाद अत्यन्त अद्भुत कर्णपर्वका परिचय दिया गया है। इसीमें परम बुद्धिमान् मद्रराज शल्यको कर्णक सारथि बनानेका प्रसंग है, फिर त्रिपुरके संहारकी पुराणप्रसिद्ध कथा आयी है ।। २७०-२७१।।

प्रयागे परुषश्चात्र संवादः कर्णशल्ययोः। 
हंसकाकीयमाख्यानं तत्रैवाक्षेपसंहितम् ।। २७२ ।।

  युद्धके लिये जाते समय कर्ण और शल्यमें जो कठोर संवाद हुआ है, उसका वर्णन भी | इसी पर्वमें है। तदनन्तर हंस और कौएका आक्षेपपूर्ण उपाख्यान है ।। २७२ ।।

वधः पाण्ड्यस्य च तथा अश्वत्थाम्ना महात्मना। 
दण्डसेनस्य च ततो दण्डस्य च वधस्तथा ।। २७३ ।।

उसके बाद महात्मा अश्वत्थामाके द्वारा राजा पाण्ड्यके वधकी कथा है। फिर दण्डसेन और दण्डके वधका प्रसंग है ।। २७३ ।।

द्वैरथे यत्र कर्णेन धर्मराजो युधिष्ठिरः । 
संशयं गमितो युद्धे मिषतां सर्वधन्विनाम् ।। २७४ ।।

इसी पर्वमें कर्णके साथ युधिष्ठिरके द्वैरथ (द्वन्द) युद्धका वर्णन है, जिसमें कर्णने सब धनुर्धर वीरोंके देखते-देखते धर्मराज युधिष्ठिरके प्राणोंको संकटमें डाल दिया था ।। २७४ ।।

अन्योन्यं प्रति च क्रोधो युधिष्ठिरकिरीटिनोः। 
यत्रैवानुनयः प्रोक्तो माधवेनार्जुनस्य हि ॥ २७५ ॥

तत्पश्चात् युधिष्ठिर और अर्जुनके एक-दूसरेके प्रति क्रोधयुक्त उदगार हैं, जहाँ भगवान् श्रीकृष्णने अर्जुनको समझा-बुझाकर शान्त किया है ।। २७५ ।।

प्रतिज्ञापूर्वकं चापि वक्षो दुःशासनस्य च। 
भित्त्वा वृकोदरो रक्तं पीतवान् यत्र संयुगे ॥२७६ ।।

इसी पर्वमें यह बात भी आयी है कि भीमसेनने पहलेकी की हई प्रतिज्ञाके अनुसार दुःशासनका वक्षःस्थल विदीर्ण करके रक्त पीया था ।। २७६ ।।

द्वैरथे यत्र पार्थेन हतः कर्णो महारथः। 
अष्टमं पर्व निर्दिष्टमेतद् भारतचिन्तकैः ॥ २७७ ॥

   तदनन्तर द्वन्द्वयुद्धमें अर्जुनने महारथी कर्णको जो मार गिराया, वह प्रसंग भी कर्णपर्वमें ही है। महाभारतका विचार करनेवाले विद्वानोंने इस कर्णपर्वको आठवाँ पर्व कहा है।। २७७॥

एकोनसप्ततिः प्रोक्ता अध्यायाः कर्णपर्वणि। 
चत्वार्येव सहस्राणि नव श्लोकशतानि च ।। २७८ ।। 
चतुःषष्टिस्तथा श्लोकाः पर्वण्यस्मिन् प्रकीर्तिताः।

कर्णपर्वमें उनहत्तर (६९) अध्याय कहे गये हैं और चार हजार नौ सौ चौंसठ (४.९६४) श्लोकोंका पाठ इस पर्वमें किया गया है ।। २७८३॥

अतः परं विचित्रार्थ शल्यपर्व प्रकीर्तितम् ।। २७९॥ 

तत्पश्चात् विचित्र अर्थयुक्त विषयोंसे भरा हुआ शल्यपर्व कहा गया है ।। २७९ 
।। 

हतप्रवीरे सैन्ये तु नेता मद्रेश्वरोऽभवत् । 
यत्र कौमारमाख्यानमभिषेकस्य कर्म च ॥ २८०॥

इसीमें यह कथा आयी है कि जब कौरवसेनाके सभी प्रमुख वीर मार दिये गये, तब मद्रराज शल्य सेनापति हुए। वहीं कुमार कार्तिकेयका उपाख्यान और अभिषेककर्म कहा गया है ।। २८०॥

वृत्तानि रथयुद्धानि कीर्त्यन्ते यत्र भागशः ।। 
विनाशः कुरुमुख्यानां शल्यपर्वणि कीर्त्यते ।। २८१ ।। 
शल्यस्य निधनं चात्र धर्मराजान्महात्मनः । 
शकुनेश्च वधोऽत्रैव सहदेवेन संयुगे ।। २८२ ।।

साथ ही वहाँ रथियोंके युद्धका भी विभागपूर्वक वर्णन किया गया है। शल्यपर्वमें ही कुरुकुलके प्रमुख वीरोंके विनाशका तथा महात्मा धर्मराजद्वारा शल्यके वधका वर्णन किया गया है। इसीमें सहदेवके द्वारा युद्धमें शकुनिके मारे जानेका प्रसंग है ।। २८१-२८२ ।।

सैन्ये च हतभूयिष्टे किंचिच्छिष्टे सुयोधनः। 
हृदं प्रविश्य यत्रासौ संस्तभ्यापो व्यवस्थितः ।। २८३ ।।

जब अधिक-से-अधिक कौरवसेना नष्ट हो गयी और थोड़ी-सी बच रही, तब दुर्योधन सरोवरमें प्रवेश करके पानीको स्तम्भित कर वहीं विश्रामके लिये बैठ गया ।। २८३ ।।

प्रवृत्तिस्तत्र चाख्याता यत्र भीमस्य लुब्धकैः । 
क्षेपयुक्तैर्वचोभिश्च धर्मराजस्य धीमतः ।। २८४ ॥ 
हृदात् समुत्थितो यत्र धार्तराष्ट्रोऽत्यमर्षणः। 
भीमेन गदया युद्धं यत्रासी कृतवान् सह ।। २८५ ।। 

    किंतु व्याधोंने भीमसेनसे दुर्योधनकी यह चेष्टा बतला दी। तब बुद्धिमान् धर्मराजके आक्षेपयुक्त वचनोंसे अत्यन्त अमर्षमें भरकर धृतराष्ट्रपुत्र दुर्योधन सरोवरसे बाहर निकला और उसने भीमसेनके साथ गदायुद्ध किया। ये सब प्रसंग शल्यपर्वमें ही हैं ।। २८४-२८५ ।।

समवाये च युद्धस्य रामस्यागमनं स्मृतम्। 
सरस्वत्याश्च तीर्थानां पुण्यता परिकीर्तिता ।। २८६ ।। 
गदायुद्धं च तुमुलमत्रैव परिकीर्तितम् ।

उसीमें युद्धके समय बलरामजीके आगमनकी बात कही गयी है। इसी प्रसंगमें सरस्वतीतटवर्ती तीर्थोके पावन माहात्म्यका परिचय दिया गया है। शल्यपर्वमें ही भयंकर गदायुद्धका वर्णन किया गया है ।। २८६३ ।।

दुर्योधनस्य राज्ञोऽथ यत्र भीमेन संयुगे ॥ २८७ ।। 
ऊरू भरनी प्रसह्याजौ गदया भीमवेगया। 
नवमं पर्व निर्दिष्टमेतदद्भतमर्थवत् ।। २८८ ॥ 

जिसमें युद्ध करते समय भीमसेनने हठपूर्वक (युद्धके नियमको भंग करके) अपनी भयानक वेग-शालिनी गदासे राजा दुर्योधनकी दोनों जाँ तोड़ डालीं, यह अद्भुत अर्थसे युक्त नवा पर्व बताया गया है ।। २८७-२८८ ॥

एकोनषष्टिरध्यायाः पर्वण्यत्र प्रकीर्तिताः। 
संख्याता बहुवृत्तान्ताः श्लोकसंख्यात्र कथ्यते ।। २८९ ।।

इस पर्वमें उनसठ (५९) अध्याय कहे गये हैं, जिसमें बहुत-से वृत्तान्तोंका वर्णन आया । है। अब इसकी श्लोक-संख्या कही जाती है ।। २८९ ।।

त्रीणि श्लोकसहस्राणि द्वेशते विंशतिस्तथा। 
मुनिना सम्प्रणीतानि कौरवाणां यशोभता ।। २९० ।

कौरव-पाण्डवोंके यशका पोषण करनेवाले मुनिवर व्यासने इस पर्वमें तीन हजार दो सौ बीस (३,२२०) श्लोकोंकी रचना की है ।। २९० ।।

अतः परं प्रवक्ष्यामि सौप्तिकं पर्व दारुणम्। 
भग्नोरु यत्र राजानं दुर्योधनममर्षणम् ।। २९१ ।। 
अपयातेषु पार्थेषु त्रयस्तेऽभ्याययू रथाः। 
कृतवर्मा कृपो द्रौणिः साया रुधिरोक्षितम् ।। २९२ ।।

   इसके पश्चात् में अत्यन्त दारुण सौप्तिकपर्वकी सूची बता रहा है. जिसमें पाण्डवोंके चले जानेपर अत्यन्त अमर्षमें भरे हुए टूटी जाँघवाले राजा दुर्योधनके पास, जो खूनसे लथपथ हुआ पड़ा था, सायंकालके समय कृतवर्मा, कृपाचार्य और अश्वत्थामा-ये तीन महारथी आये ।। २९१-२९२ ॥

समेत्य ददृशुर्भूमौ पतितं रणमूर्धनि। 
प्रतिजज्ञे दृढक्रोधो द्रौणिर्यत्र महारथः ।। २९३ ।। 
अहत्वा सर्वपञ्चालान् धृष्टद्युम्नपुरोगमान्।। 
पाण्डवांश्च सहामात्यान् न विमोक्ष्यामि दंशनम् ।। २९४ ।।


निकट आकर उन्होंने देखा, राजा दुर्योधन यद्ध के मुहानेपर इस दुर्दशामें पड़ा था। यह देखकर महारथी अश्वत्थामाको बड़ा क्रोध हुआ और उसने प्रतिज्ञा की कि 'मैं धृष्टद्युम्न आदि सम्पूर्ण पांचालों और मन्त्रियोसहित समस्त पाण्डवोंका वध किये बिना अपना कवच नहीं उतारूँगा' ।। २९३-२९४ ॥

यत्रैवमुक्त्वा राजानमपक्रम्य त्रयो रथाः। 
सूर्यास्तमनवेलायामासेदुस्ते महद् बनम् ।। २९५ ।।

सौप्तिकपर्वमें राजा दुर्योधनसे ऐसी बात कहकर वे तीनों महारथी वहाँसे चले गये और सूर्यास्त होते-होते एक बहुत बड़े वनमें जा पहुँचे ।। २९५ ।।

न्यग्रोधस्याथ महतो यत्राधस्ताद् व्यवस्थिताः । 
ततः काकान् बहून् रात्रौ दृष्ट्वोलूकेन हिंसितान् ।। २९६ ।। 
द्रौणिः क्रोधसमाविष्टः पितुर्वधमनुस्मरन्। 
पञ्चालानां प्रसुप्तानां वधं प्रति मनो दधे ।। २९७ ।।

वहाँ तीनों एक बहुत बड़े बरगदके नीचे विश्रामके लिये बैठे। तदनन्तर वहाँ एक उल्लूने आकर रातमें बहुत-से कौओंको मार डाला। यह देखकर क्रोधमें भरे अश्वत्थामाने अपने पिताके अन्यायपूर्वक मारे जानेकी घटनाको स्मरण करके सोते समय ही पांचालोंके वधका निश्चय कर लिया ।। २९६-२९७ ।।

गत्वा च शिविरद्वारि दुर्दृशं तत्र राक्षसम् । 
घोररूपमपश्यत् स दिवमावृत्य धिष्ठितम् ।। २९८ ।।

तत्पश्चात् पाण्डवोंके शिविरके द्वारपर पहुँचकर उसने देखा, एक बड़ा भयंकर राक्षस, जिसकी ओर देखना अत्यन्त कठिन है, वहाँ खड़ा है। उसने पृथ्वीसे लेकर आकाशतकके प्रदेशको घेर रखा था ।। २९८ ।।

तेन व्याघातमस्त्राणां क्रियमाणमवेक्ष्य च। 
द्रौणिर्यत्र विरूपाक्षं रुद्रमाराध्य सत्वरः ॥ २९९ ॥

अश्रुत्थामा जितने भी अस्त्र चलाता, उन सबको वह राक्षस नष्ट कर देता था। यह देखकर द्रोणकुमारने तुरंत ही भयंकर नेत्रोंवाले भगवान् रुद्रकी आराधना करके उन्हें प्रसन्न किया ।। २९९ ।।

प्रसुप्तान निशि विश्वस्तान् धृष्टद्युम्नपुरोगमान् । 
पञ्चालान् सपरीवारान् द्रौपदेयांश्च सर्वशः ।। ३०० ।। 
कृतवर्मणा च सहितः कृपेण च निजनिवान् । 
यत्रामुच्यन्त ते पार्थाः पञ्च कृष्णबलाश्रयात् ।। ३०१ ।। 
सात्यकिश्च महेष्वासः शेषाश्च निधनं गताः। 
पञ्चालानां प्रसुप्तानां यत्र द्रोणसुताद्वधः ।। ३०२ ।। 
धृष्टद्युम्नस्य सूतेन पाण्डवेषु निवेदितः।
द्रौपदी पुत्रशोकार्ता पितृभ्रातृवधार्दिता ॥ ३०३ ॥

   तत्पश्चात् अश्वत्थामाने रातमें निःशंक सोये हुए धृष्टद्युम्न आदि पांचालों तथा द्रौपदीपुत्रोंको कृतवर्मा और कृपाचार्यकी सहायतासे परिजनोंसहित मार डाला। भगवान् | श्रीकृष्णकी शक्तिका आश्रय लेनेसे केवल पाँच पाण्डव और महान् धनुर्धर सात्यकि बच गये, शेष सभी वीर मारे गये। यह सब प्रसंग सौप्तिकपर्वमें वर्णित है। वहीं यह भी कहा गया है कि धृष्टद्युम्नके सारथिने जब पाण्डवोंको यह सूचित किया कि द्रोणपुत्रने सोये हुए पांचालोंका वध कर डाला है. तब द्रौपदी पुत्रशोकसे पीड़ित तथा पिता और भाईकी हत्यासे व्यथित हो उठी ।। ३००-३०३ ॥

कृतानशनसंकल्पा यत्र भर्तृनुपाविशत्। 
द्रौपदीवचनाद्यत्र भीमो भीमपराक्रमः ।। ३०४ ।। 
प्रियं तस्याश्चिकीर्षन् वै गदामादाय वीर्यवान् । 
अन्वधावत् सुसंकुद्धो भारद्वाजं गुरोः सुतम् ।। ३०५ ।।

   वह पतियोंको अश्वत्थामासे इसका बदला लेनेके लिये उत्तेजित करती हुई आमरण अनशनका संकल्प ले अन्न-जल छोड़कर बैठ गयी। द्रौपदीके कहनेसे भयंकर पराक्रमी महाबली भीमसेन उसका प्रिय करनेकी इच्छासे हाथमें गदा ले अत्यन्त क्रोधमें भरकर | गुरुपुत्र अश्वत्थामाके पीछे दौड़े।। ३०४-३०५ ।।

भीमसेनभयाद् यत्र दैवेनाभिप्रचोदितः। 
अपाण्डवायेति रुषा द्रौणिरस्त्रमवासृजत् ।। ३०६ ।।

तब भीमसेनके भयसे घबराकर दैवकी प्रेरणासे पाण्डवोंके विनाशके लिये अश्वत्थामाने रोषपूर्वक दिव्यास्त्रका प्रयोग किया ।। ३०६ ।।

मैवमित्यब्रवीत् कृष्णः शमयंस्तस्य तद् वचः। 
यत्रास्त्रमस्त्रेण च तच्छमयामास फाल्गुनः ।। ३०७ ।। 

किंतु भगवान् श्रीकृष्णने अश्वत्थामाके रोषपूर्ण वचनको शान्त करते हुए कहा -'मैवम्-'पाण्डवोंका विनाश न हो। साथ ही अर्जुनने अपने दिव्यास्त्रद्वारा उसके अस्त्रको शान्त कर दिया ।। ३०७ ॥

द्रौणेश्च द्रोहबुद्धित्वं वीक्ष्य पापात्मनस्तदा। 
द्रौणिद्वैपायनादीनां शापाश्चान्योन्यकारिताः ।। ३०८ ।।

उस समय पापात्मा द्रोणपुत्रके द्रोहपूर्ण विचारको देखकर द्वैपायन व्यास एवं श्रीकृष्णने अश्वत्थामाको और अश्वत्थामाने उन्हें शाप दिया। इस प्रकार दोनों ओरसे एकदूसरेको शाप प्रदान किया गया ॥३०८॥

मणिं तथा समादाय द्रोणपुत्रान्महारथात्। 
पाण्डवाः प्रददुहटा द्रौपद्यै जितकाशिनः ।। ३०९॥


महारथी अश्वत्थामासे मणि छीनकर विजयसे सुशोभित होनेवाले पाण्डवोंने प्रसन्नतापूर्वक द्रौपदीको दे दी।३०९॥

एतद् वै दशामं पर्व सौप्तिकं समुदाहृतम् । 
अष्टादशास्मिन्नध्यायाः पर्वण्युक्ता महात्मना ।। ३१०।। 

इन सब वृत्तान्तोंसे युक्त सौप्तिकपर्व दसवाँ कहा गया है। महात्मा व्यासने इसमें अठारह (१८) अध्याय कहे है ।।३१०॥

श्लोकानां कथितान्यत्र शतान्यष्टौ प्रसंख्यया। 
श्लोकाश्च सप्ततिः प्रोक्ता मुनिना ब्रह्मवादिना ।। ३११ ।।

इसी प्रकार उन ब्रह्मवादी मुनिने इस पर्वमें श्लोकोंकी संख्या आठ सौ सत्तर (८७०) बतायी है ।। ३११ ।।

सौप्तिकैषीके सम्बद्धे पर्वण्युत्तमतेजसा। 
अत ऊर्ध्वमिदं प्राहः स्त्रीपर्व करुणोदयम् ।। ३१२ ।।

उत्तम तेजस्वी व्यासजीने इस पर्वमें सौप्तिक और ऐषीक दोनोंकी कथाएँ सम्बद्ध कर दी हैं। इसके बाद विद्वानोंने स्त्रीपर्व कहा है, जो करुणरसकी धारा बहानेवाला है ।। ३१२ ।।

पुत्रशोकाभिसंतप्तः प्रज्ञाचक्षुर्नराधिपः । 
कृष्णोपनीतां यत्रासावायसी प्रतिमा दृढाम् ।। ३१३ ।। 
भीमसेनद्रोहबुद्धिधृतराष्ट्रो बभञ्ज ह । 
तथा शोकाभितप्तस्य धृतराष्ट्रस्य धीमतः ॥ ३१४ ॥ 
संसारगहनं बुद्धया हेतुभिर्मोक्षदर्शनैः। 
विदुरेण च यत्रास्य राज्ञ आश्वासनं कृतम् ।। ३१५ ।।


प्रज्ञाचक्षु राजा धृतराष्ट्रने पुत्रशोकसे संतप्त हो भीमसेनके प्रति द्रोहबुद्धि कर ली और श्रीकृष्णद्वारा अपने समीप लायी हुई लोहेकी मजबूत प्रतिमाको भीमसेन समझकर भुजाओंमें भर लिया तथा उसे दबाकर टूक-ट्रक कर डाला। उस समय पुत्रशोकसे पीड़ित बुद्धिमान् राजा धृतराष्ट्रको विदुरजीने मोक्षका साक्षात्कार करानेवाली युक्तियों तथा विवेकपूर्ण बुद्धिके द्वारा संसारकी दुःखरूपताका प्रतिपादन करते हुए भलीभांति समझाबुझाकर शान्त किया ।। ३१३-३१५ ॥

धृतराष्ट्रस्य चात्रैव कौरवायोधनं तथा। 
सान्तःपुरस्य गमनं शोकार्तस्य प्रकीर्तितम् ।। ३१६ ।।

इसी पर्वमें शोकाकुल धृतराष्ट्रका अन्तःपुरकी स्त्रियोंके साथ कौरवोंके युद्धस्थानमें जानेका वर्णन है ।। ३१६ ॥ 

विलापो वीरपत्नीनां यत्रातिकरुणः स्मृतः। 
क्रोधावेशः प्रमोहश्च गान्धारीधृतराष्ट्रयोः ।। ३१७ ।।

वहीं वीरपत्नियोंके अत्यन्त करुणापूर्ण विलापका कथन है। वहीं गान्धारी और धृतराष्ट्रके क्रोधावेश तथा मूर्छित होनेका उल्लेख है ।। ३१७ ।।


यत्र तान् क्षत्रियाः शूरान् संग्रामेष्वनिवर्तिनः।

पुत्रान् भ्रातृन् पितूंश्चैव ददृशुर्निहतान् रणे ।। ३१८ ।।


उस समय उन क्षत्राणियोंने युद्ध में पीठ न दिखानेवाले अपने शूरवीर पुत्रों, भाइयों और पिताओंको रणभूमिमें मरा हुआ देखा ॥ ३१८॥


पुत्रपौत्रवधा यास्तथात्रैव प्रकीर्तिता।

गान्धार्याश्चापि कृष्णेन क्रोधोपशमनक्रिया ।। ३१९ ।।


पुत्रों और पौत्रोंके वधसे पीड़ित गान्धारीके पास आकर भगवान् श्रीकृष्णने उनके क्रोधको शान्त किया। इस प्रसंगका भी इसी पर्वमें वर्णन किया गया है ।। ३१९ ।।


यत्र राजा महाप्राज्ञः सर्वधर्मभृतां वरः।

राज्ञां तानि शरीराणि दाहयामास शास्त्रतः ।। ३२० ।।


वहीं यह भी कहा गया है कि परम बुद्धिमान् और सम्पूर्ण धर्मात्माओंमें श्रेष्ठ राजा युधिष्ठिरने वहाँ मारे गये समस्त राजाओंके शरीरोंका शास्त्रविधिसे दाह-संस्कार किया और कराया ।। ३२०॥


तोयकर्मणि चारब्धे राज्ञामुदकदानिके।

गूढोत्पन्नस्य चाख्यानं कर्णस्य प्रथयाऽऽत्मनः ।। ३२१ ।।

सुतस्यैतदिह प्रोक्तं व्यासेन परमर्षिणा।

एतदेकादशं पर्व शोकवैक्लव्यकारणम् ।। ३२२ ।।

प्रणीतं सज्जनमनोवैक्लव्याश्रप्रवर्तकम।

सप्तविंशतिरध्यायाः पर्वण्यस्मिन् प्रकीर्तिताः ।। ३२३ ।। श्लोकसप्तशती चापि पञ्चसप्ततिसंयुता।

संख्यया भारताख्यानमुक्तं व्यासेन धीमता ।। ३२४ ।।


तदनन्तर राजाओंको जलांजलिदानके प्रसंगमें उन सबके लिये तर्पणका आरम्भ होते ही कुन्तीद्वारा गुप्तरूपसे उत्पन्न हुए अपने पुत्र कर्णका गूढ वृत्तान्त प्रकट किया गया, यह प्रसंग आता है। महर्षि व्यासने ये सब बातें स्त्रीपर्वमें कही हैं। शोक और विकलताका संचार करनेवाला यह ग्यारहवाँ पर्व श्रेष्ठ पुरुषोंके चित्तको भी विह्वल करके उनके नेत्रोंसे आँसूकी धारा प्रवाहित करा देता है। इस पर्वमें सत्ताईस (२७) अध्याय कहे गये हैं। इसके श्लोकोंकी संख्या सात सौ पचहत्तर (७७५) कही गयी है। इस प्रकार परम बुद्धिमान् व्यासजीने महाभारतका यह उपाख्यान कहा है ।। ३२१-३२४ ॥


अतः परं शान्तिपर्व द्वादशं बुद्धिवर्धनम्।

यत्र निर्वेदमापन्नो धर्मराजो युधिष्ठिरः ।। ३२५ ।।

घातयित्वा पितृन् भ्रातृन् पुत्रान् सम्बन्धिमातुलान् ।

शान्तिपर्वणि धर्माश्च व्याख्याताः शारतल्पिकाः ।। ३२६ ।।

स्त्रीपर्वके पश्चात् बारहवाँ पर्व शान्तिपर्वके नामसे विख्यात है। यह बुद्धि और विवेकको बढ़ानेवाला है। इस पर्वमें यह कहा गया है कि अपने पितृतुल्य गुरुजनों, भाइयों, पुत्रों, सगेसम्बन्धी एवं मामा आदिको मरवाकर राजा युधिष्ठिरके मनमें बड़ा निर्वेद (दुःख एवं वैराग्य) हुआ। शान्तिपर्वमें बाणशय्यापर शयन करनेवाले भीष्मजीके द्वारा उपदेश किये हुए धर्मोका वर्णन है।। ३२५-३२६॥

राजभिर्वेदितव्यास्ते सम्यग्ज्ञानबुभुत्सुभिः । 
आपद्धर्माश्च तत्रैव कालहेतुप्रदर्शिनः ।। ३२७ ॥ 
यान् बुद्ध्वा पुरुषः सम्यक् सर्वज्ञत्वमवाप्नुयात्। 
मोक्षधर्माश्च कथिता विचित्रा बहुविस्तराः ।। ३२८ ।।

उत्तम ज्ञानकी इच्छा रखनेवाले राजाओंको उन्हें भलीभाँति जानना चाहिये। उसी पर्वमें काल और कारणकी अपेक्षा रखनेवाले देश और कालके अनुसार व्यवहारमें लानेयोग्य आपद्धोका भी निरूपण किया गया है, जिन्हें अच्छी तरह जान लेनेपर मनुष्य सर्वज्ञ हो जाता है। शान्तिपर्वमें विविध एवं अद्भुत मोक्ष-धर्मोंका भी बड़े विस्तारके साथ प्रतिपादन किया गया है।। ३२७-३२८ ।।

द्वादशं पर्व निर्दिष्टमेतत् प्राज्ञजनप्रियम् । 
अत्र पर्वणि विज्ञेयमध्यायानां शतत्रयम् ।। ३२९ ।।
त्रिंशच्चैव तथाध्याया नव चैव तपोधनाः। 
चतुर्दश सहस्राणि तथा सप्त शतानि च ।। ३३०।। 
सप्त श्लोकास्तथैवात्र पञ्चविंशतिसंख्यया। 
अत ऊर्ध्वं च विज्ञेयमनुशासनमुत्तमम् ।। ३३१ ।।

इस प्रकार यह बारहवाँ पर्व कहा गया है, जो ज्ञानीजनोंको अत्यन्त प्रिय है। इस पर्वमें तीन सौ उन्तालीस (३३९) अध्याय हैं और तपोधनो! इसकी श्लोक-संख्या चौदह हजार सात सौ बत्तीस (१४,७३२) है। इसके बाद उत्तम अनुशासनपर्व है, यह जानना चाहिये ।। ३२९-३३१ ।।

यत्र प्रकृतिमापन्नः श्रुत्वा धर्मविनिश्चयम् । 
भीष्माद् भागीरथीपुत्रात् कुरुराजो युधिष्ठिरः ।। ३३२ ॥ 

जिसमें कुरुराज युधिष्ठिर गंगानन्दन भीष्मजीसे धर्मका निश्चित सिद्धान्त सुनकर प्रकृतिस्थ हुए. यह बात कही गयी है ।। ३३२॥

व्यवहारोऽत्र कात्स्येन धर्मार्थी यः प्रकीर्तितः। 
विविधानां च दानानां फलयोगाः प्रकीर्तिताः ।। ३३३ ।।

इसमें धर्म और अर्थसे सम्बन्ध रखनेवाले हितकारी आचार-व्यवहारका निरूपण किया गया है। साथ ही नाना प्रकारके दानोंके फल भी कहे गये हैं ।। ३३३ ।।


तथा पात्रविशेषाश्च दानानां च परो विधिः। 
आचारविधियोगश्च सत्यस्य च परा गतिः ।। ३३४ ।। 
महाभाग्यं गवां चैव ब्राह्मणानां तथैव च । 
रहस्यं चैव धर्माणां देशकालोपसंहितम् ।। ३३५॥ 
एतत् सुबहुवृत्तान्तमुत्तमं चानुशासनम्। 
भीष्मस्यात्रैव सम्प्राप्तिः स्वर्गस्य परिकीर्तिता ।। ३३६ ।।

दानके विशेष पात्र, दानकी उत्तम विधि, आचार और उसका विधान, सत्यभाषणकी पराकाष्ठा, गौओं और ब्राह्मणोंका माहात्म्य, धर्मोका रहस्य तथा देश और काल (तीर्थ और पर्व)-की महिमा-ये सब अनेक वृत्तान्त जिसमें वर्णित हैं, वह उत्तम अनुशासन-पर्व है। इसी में भीष्मको स्वर्गकी प्राप्ति कही गयी है ।। ३३४-३३६ ।।

एतत् त्रयोदशं पर्व धर्मनिश्चयकारकम् । 
अध्यायानां शतं त्वत्र षट्चत्वारिंशदेव तु ।। ३३७ ।।

धर्मका निर्णय करनेवाला यह पर्व तेरहवाँ है। इसमें एक सौ छियालीस (१४६) अध्याय । हैं ।। ३३७ ।।

श्लोकानां तु सहस्राणि प्रोक्तान्यष्टी प्रसंख्यया । 
ततोऽश्वमेधिकं नाम पर्व प्रोक्तं चतुर्दशम् ।। ३३८।।

और पूरे आठ हजार (८,०००) श्लोक कहे गये हैं। तदनन्तर चौदहवें आवमेधिक नामक पर्वकी कथा है ।। ३३८ ।।

तत् संवर्तमरुत्तीयं यत्राख्यानमनुत्तमम्। 
सुवर्णकोषसम्प्राप्तिर्जन्म चोक्तं परीक्षितः ।। ३३९ ।। 

जिसमें परम उत्तम योगी संवर्त तथा राजा मरुत्तका उपाख्यान है। युधिष्ठिरको सुवर्णके खजानेकी प्राप्ति और परीक्षितके जन्मका वर्णन है ।। ३३९ ।।

दग्धस्यास्त्राग्निना पूर्व कृष्णात् संजीवनं पुनः। 
चर्यायां हयमुत्सृष्टं पाण्डवस्यानुगच्छतः ।। ३४०॥ 
तत्र तत्र च युद्धानि राजपुत्रैरमर्षणैः। 
चित्राङ्गदायाः पुत्रेण पुत्रिकाया धनंजयः ।। ३४१ ।। 
संग्रामे बभुवाहेण संशयं चात्र दर्शितः। 
अश्वमेधे महायज्ञे नकुलाख्यानमेव च ।। ३४२ ॥ 
इत्याश्वमेधिकं पर्व प्रोक्तमेतन्महाद्भूतम् । 
अध्यायानां शतं चैव त्रयोऽध्यायाश्च कीर्तिताः ।। ३४३ ।। 
त्रीणि श्लोकसहस्राणि तावन्त्येव शतानि च । 
विंशतिश्च तथा श्लोकाः संख्यातास्तत्त्वदर्शिना ।। ३४४ ।।

पहले अश्वत्थामाके अस्त्रकी अग्निसे दग्ध हुए बालक परीक्षितका पुनः श्रीकृष्णके अनुग्रहसे जीवित होना कहा गया है। सम्पूर्ण राष्ट्रोंमें घूमनेके लिये छोड़े गये अश्वमेधसम्बन्धी अश्वके पीछे पाण्डुनन्दन अर्जुनके जाने और उन-उन देशोंमें कुपित राजकुमारोंके साथ उनके युद्ध करनेका वर्णन है। पुत्रिकाधर्मके अनुसार उत्पन्न हुए चित्रांगदाकुमार बभ्रुवाहनने युद्धमें अर्जुनको प्राणसंकटकी स्थितिमें डाल दिया था; यह कथा भी अश्वमेधपर्वमें ही आयी है। वहीं अवमेध-महायज्ञमें नकुलोपाख्यान आया है। इस प्रकार यह परम अद्भुत आवमेधिकपर्व कहा गया है। इसमें एक सौ तीन अध्याय पढ़े गये हैं। तत्त्वदर्शी व्यास ने इस पर्वमें तीन हजार तीन सौ बीस (३. ३२०) श्लोकोंकी रचना की है।। ३४०-३४४ ॥

ततस्त्वाश्रमवासाख्यं पर्व पञ्चदशं स्मृतम्। 
यत्र राज्यं समुत्सृज्य गान्धार्या सहितो नृपः ।। ३४५ ।। 
धृतराष्ट्रोऽऽश्रमपदं विदुरश्च जगामह। 
यं दृष्ट्वा प्रस्थितं साध्वी पृथाप्यनुययौ तदा ।। ३४६ ।। 
पुत्रराज्यं परित्यज्य गुरुशुश्रूषणे रता।

तदनन्तर आश्रमवासिक नामक पंद्रहवें पर्वका वर्णन है। जिसमें गान्धारीसहित राजा धृतराष्ट्र और विदुरके राज्य छोड़कर वनके आश्रममें जानेका उल्लेख हुआ है। उस समय धृतराष्ट्रको प्रस्थान करते देख सती साध्वी कुन्ती भी गुरुजनोंकी सेवामें अनुरक्त हो अपने पुत्रका राज्य छोड़कर उन्हींके पीछे-पीछे चली गयीं ।। ३४५-३४६६ ।।

यत्र राजा हतान् पुत्रान् पौत्रानन्यांश्च पार्थिवान् ।। ३४७ ।। 
लोकान्तरगतान् वीरानपश्यत् पुनरागतान् । 
ऋषेः प्रसादात् कृष्णस्य दृष्ट्वाश्चर्यमनुत्तमम् ।। ३४८ ।। 
त्यक्त्वा शोकं सदारश्च सिद्धिं परमिकां गतः। 
यत्र धर्म समाश्रित्य विदुरः सुगतिं गतः ।। ३४९ ॥ 
संजयश्च सहामात्यो विद्वान् गावल्गणिर्वशी। 
ददर्श नारदं यत्र धर्मराजो युधिष्ठिरः ॥ ३५०॥

जहाँ राजा धृतराष्ट्रने युद्धमें मरकर परलोकमें गये हुए अपने वीर पुत्रों. पौत्रों तथा अन्यान्य राजाओंको भी पुनः अपने पास आया हुआ देखा। महर्षि व्यासजीके प्रसादसे यह उत्तम आश्चर्य देखकर गान्धारीसहित धृतराष्ट्रने शोक त्याग दिया और उत्तम सिद्धि प्राप्त कर ली। इसी पर्वमें यह बात भी आयी है कि विदरजीने धर्मका आश्रय लेकर उत्तम गति प्राप्त की। साथ ही मन्त्रियोंसहित जितेन्द्रिय विद्वान् गवल्गणपुत्र संजयने भी उत्तम पद प्राप्त कर लिया। इसी पर्वमें यह बात भी आयी है कि धर्मराज युधिष्ठिरको नारदजीका दर्शन हुआ ।। ३४७-३५०॥

नारदाच्चैव शुश्राव वृष्णीनां कदनं महत् ।
एतदाश्रमवासाख्यं पर्वोक्तं महदद्भतम् ।। ३५१ ।।

नारदजीसे ही उन्होंने यदुवंशियोंके महान् संहारका समाचार सुना। यह अत्यन्त अद्भुत आश्रमवासिकपर्व कहा गया है।३५१ ॥

द्विचत्वारिंशदध्यायाः पर्वैतदभिसंख्यया। 
सहस्रमेकं श्लोकानां पञ्च श्लोकशतानि च ।। ३५२ ।। 
षडेव च तथा श्लोकाः संख्यातास्तत्त्वदर्शिना। 
अतः परं निबोधेदं मौसलं पर्व दारुणम् ।। ३५३ ।।

इस पर्वमें अध्यायोंकी संख्या बयालीस (४२) है। तत्त्वदर्शी व्यासजीने इसमें एक हजार पाँच सौ छः (१,५०६) श्लोक रखे हैं। इसके बाद मौसलपर्वकी सूची सुनो-यह पर्व अत्यन्त दारुण है।। ३५२-३५३ ॥

यत्र ते पुरुषव्याघ्राः शस्त्रस्पर्शहता युधि । 
ब्रह्मदण्डविनिष्पिष्टाः समीपे लवणाम्भसः ।। ३५४ ।।

इसीमें यह बात आयी है कि वे श्रेष्ठ यदुवंशी वीर क्षारसमुद्रके तटपर आपसके युद्धमें अस्त्र-शस्त्रोंके स्पर्शमात्रसे मारे गये। ब्राह्मणोंके शापने उन्हें पहले ही पीस डाला | था ।। ३५४ ।।

आपाने पानकलिता देवेनाभिप्रचोदिताः। 
एरकारूपिभिर्वर्जेनिजघ्नुरितरेतरम् ।। ३५५ ।।

उन सबने मधुपानके स्थानमें जाकर खूब पीया और नशेसे होश-हवास खो बैठे। फिर देवसे प्रेरित हो परस्पर संघर्ष करके उन्होंने एरकारूपी वज्रसे एक-दूसरेको मार डाला ।। ३५५ ।।

यत्र सर्वक्षयं कृत्वा तावुभौ रामकेशवौ। 
नातिचक्रामतुः कालं प्राप्तं सर्वहरं महत् ।। ३५६ ।।

वहीं सबका संहार करके बलराम और श्रीकृष्ण दोनों भाइयोंने समर्थ होते हुए भी अपने ऊपर आये हुए सर्वसंहारकारी महान् कालका उल्लंघन नहीं किया (महर्षियोंकी वाणी सत्य करनेके लिये कालका आदेश स्वेच्छासे अंगीकार कर लिया) ।। ३५६ ।।

यत्रार्जुनो द्वारवतीमेत्य वृष्णिविनाकृताम्।। 
दृष्टवा विषादमगमत् परां चार्ति नरर्षभः ।। ३५७ ।।

वहीं यह प्रसंग भी है कि नरश्रेष्ठ अर्जुन द्वारकामें आये और उसे वृष्णिवंशियोंसे सूनी | देखकर विषादमें डूब गये। उस समय उनके मनमें बड़ी पीड़ा हुई ।। ३५७ ।।

स संस्कृत्य नरश्रेष्ठं मातुलं शौरिमात्मनः। 
ददर्श यदुवीराणामापाने वैशसं महत् ।।३५८॥

उन्होंने अपने मामा नरश्रेष्ठ वसुदेवजीका दाहसंस्कार करके आपानस्थानमें जाकर । यदुवंशी वीरोंके विकट विनाशका रोमांचकारी दृश्य देखा ।। ३५८ ।।

शरीरं वासुदेवस्य रामस्य च महात्मनः । 
संस्कारं लम्भयामास वृष्णीनां च प्रधानतः ॥ ३५९ ॥

वहाँसे भगवान् श्रीकृष्ण, महात्मा बलराम तथा प्रधान-प्रधान वृष्णिवंशी वीरोंके शरीरोंको लेकर उन्होंने उनका संस्कार सम्पन्न किया ।। ३५९ ।।

स वृद्धबालमादाय द्वारवत्यास्ततो जनम् । 
ददर्शापदि कष्टायां गाण्डीवस्य पराभवम् ।। ३६० ।।

तदनन्तर अर्जुनने द्वारकाके बालक, वृद्ध तथा स्त्रियोंको साथ ले वहाँसे प्रस्थान किया; परंतु उस दुःखदायिनी विपत्तिमें उन्होंने अपने गाण्डीव धनुषकी अभूतपूर्व पराजय देखी ।। ३६० ।।

सर्वेषां चैव दिव्यानामस्त्राणामप्रसन्नताम् । 
नाशं वृष्णिकलत्राणां प्रभावाणामनित्यताम् ।। ३६१ ।। 
दृष्ट्वा निर्वेदमापन्नो व्यासवाक्यप्रचोदितः। 
धर्मराजं समासाद्य संन्यासं समरोचयत् ।। ३६२ ।।

उनके सभी दिव्यास्त्र उस समय अप्रसन्न-से होकर विस्मृत हो गये। वृष्णिकुलकी स्त्रियोंका देखते-देखते अपहरण हो जाना और अपने प्रभावोंका स्थिर न रहना-यह सब देखकर अर्जुनको बड़ा निर्वेद (दुःख) हुआ। फिर उन्होंने व्यासजीके वचनोंसे प्रेरित हो धर्मराज युधिष्ठिरसे मिलकर संन्यासमें अभिरुचि दिखायी ।। ३६१-३६२ ।।

इत्येतन्मीसलं पर्व षोडशं परिकीर्तितम् । 
अध्यायाष्टी समाख्याताः श्लोकानां च शतत्रयम् ।। ३६३ ।। 
श्लोकानां विंशतिश्चैव संख्यातास्तत्त्वदर्शिना। 
महाप्रस्थानिकं तस्मादूर्ध्वं सप्तदशं स्मृतम् ।। ३६४ ॥

इस प्रकार यह सोलहवाँ मौसलपर्व कहा गया है। इसमें तत्त्वज्ञानी व्यासने गिनकर आठ (८) अध्याय और तीन सौ बीस (३२०) श्लोक कहे हैं। इसके पश्चात् सत्रहवाँ महाप्रस्थानिकपर्व कहा गया है ।। ३६३–३६४ ॥

यत्र राज्यं परित्यज्य पाण्डवाः पुरुषर्षभाः। 
द्रौपद्या सहिता देव्या महाप्रस्थानमास्थिताः ।। ३६५ ।। 

जिसमें नरश्रेष्ठ पाण्डव अपना राज्य छोड़कर द्रौपदीके साथ महाप्रस्थानके पथपर आ गये ।। ३६५ ।।

यत्र तेऽग्निं ददृशिरे लौहित्यं प्राप्य सागरम्। 
यत्राग्निना चोदितश्च पार्थस्तस्मै महात्मने ।। ३६६ ।। 
ददी सम्पूज्य तद् दिव्यं गाण्डीवं धनुरुत्तमम्।। 
यत्र भ्रातृन निपतितान् द्रौपदीं च युधिष्ठिरः ।। ३६७ ।। 
दृष्ट्वा हित्वा जगामैव सर्वाननवलोकयन्।
एतत् सप्तदर्श पर्व महाप्रस्थानिकं स्मृतम् ।। ३६८ ।।

उस यात्रामें उन्होंने लाल सागरके पास पहुँचकर साक्षात् अग्निदेवको देखा और उन्हींकी प्रेरणासे पार्थने उन महात्माको आदरपूर्वक अपना उत्तम एवं दिव्य गाण्डीव धनुष अर्पण कर दिया। उसी पर्वमें यह भी कहा गया है कि राजा युधिष्ठिरने मार्गमें गिरे हुए अपने भाइयों और द्रौपदीको देखकर भी उनकी क्या दशा हुई यह जाननेके लिये पीछेकी ओर फिरकर नहीं देखा और उन सबको छोड़कर आगे बढ़ गये। यह सत्रहवाँ महाप्रस्थानिकपर्व कहा गया है ।। ३६६-३६८॥

यत्राध्यायास्त्रयः प्रोक्ताः श्लोकानां च शतत्रयम् । 
विंशतिश्च तथा श्लोकाः संख्यातास्तत्त्वदर्शिना ।। ३६९ ।।

इसमें तत्त्वज्ञानी व्यासजीने तीन (३) अध्याय और एक सौ तेईस (१२३) श्लोक गिनकर कहे हैं ।। ३६९ ।।

स्वर्गपर्व ततो ज्ञेयं दिव्यं यत् तदमानुषम्। 
प्राप्तं देवरथं स्वर्गान्नेष्टवान् यत्र धर्मराट् ।। ३७० ।। 
आरोढुं सुमहाप्राज्ञ आनृशंस्याच्छुना विना। 
तामस्याविचला ज्ञात्वा स्थितिं धर्मे महात्मनः ।। ३७१ ।। 
श्वरूपं यत्र तत् त्यक्त्वा धर्मेणासौ समन्वितः । 
स्वर्ग प्राप्तः स च तथा यातना विपुला भृशम् ।। ३७२ ।। 
देवदूतेन नरकं यत्र व्याजेन दर्शितम् । 
शुश्राव यत्र धर्मात्मा भ्रातृणां करुणा गिरः ।। ३७३ ।। 
निदेशे वर्तमानानां देशे तत्रैव वर्तताम् । 
अनुदर्शितश्च धर्मेण देवराजेन पाण्डवः ।। ३७४ ।।

तदनन्तर स्वर्गारोहणपर्व जानना चाहिये। जो दिव्य वृत्तान्तोंसे युक्त और अलौकिक है। उसमें यह वर्णन आया है कि स्वर्गसे युधिष्ठिरको लेनेके लिये एक दिव्य रथ आया, किंतु महाज्ञानी धर्मराज युधिष्ठिरने दयावश अपने साथ आये हुए कुत्तेको छोड़कर अकेले उसपर चढ़ना स्वीकार नहीं किया। महात्मा युधिष्ठिरकी धर्ममें इस प्रकार अविचल स्थिति जानकर कुत्तेने अपने मायामय स्वरूपको त्याग दिया और अब वह साक्षात् धर्मके रूपमें स्थित हो गया। धर्मके साथ युधिष्ठिर स्वर्गमें गये। वहाँ देवदूतने व्याजसे उन्हें नरककी विपुल यातनाओंका दर्शन कराया। वहीं धर्मात्मा युधिष्ठिरने अपने भाइयोंकी करुणाजनक पुकार सुनी थी। वे सब वहीं नरकप्रदेशमें यमराजकी आज्ञाके अधीन रहकर यातना भोगते थे। तत्पश्चात् धर्मराज तथा देवराजने पाण्डुनन्दन युधिष्ठिरको वास्तवमें उनके भाइयोंको जो सद्गति प्राप्त हुई थी, उसका दर्शन कराया ।। ३७०-३७४ ।।

आप्लुत्याकाशगङ्गायां देहं त्यक्त्वा स मानुषम्। 
स्वधर्मनिर्जितं स्थानं स्वर्गे प्राप्य स धर्मराट् ।। ३७५ ।।
मुमुदे पूजितः सर्वैः सेन्ट्रैः सुरगणैः सह । 
एतदष्टादशं पर्व प्रोक्तं व्यासेन धीमता ।। ३७६ ।।

इसके बाद धर्मराजने आकाशगंगामें गोता लगाकर मानवशरीरको त्याग दिया और स्वर्गलोकमें अपने धर्मसे उपार्जित उत्तम स्थान पाकर वे इन्द्रादि देवताओंके साथ उनसे सम्मानित हो आनन्दपूर्वक रहने लगे। इस प्रकार बुद्धिमान् व्यासजीने यह अठारहवाँ पर्व कहा है ।। ३७५-३७६ ॥

अध्यायाः पञ्च संख्याताः पर्वण्यस्मिन् महात्मना । 
श्लोकानां वे शते चैव प्रसंख्याते तपोधनाः ।। ३७७ ।। न
व श्लोकास्तथैवान्ये संख्याताः परमर्षिणा । 
अष्टादशैवमेतानि पर्वाण्युक्तान्यशेषतः ।। ३७८ ।।

तपोधनो! परम ऋषि महात्मा व्यासजीने इस पर्वमें गिने-गिनाये पाँच (५) अध्याय और दो सौ नौ (२०९) श्लोक कहे हैं। इस प्रकार ये कुल मिलाकर अठारह पर्व कहे गये हैं ।। ३७७-३७८ ।।

खिलेषु हरिवंशश्च भविष्यं च प्रकीर्तितम। 
दशश्लोकसहस्राणि विंशच्छलोकशतानि च ।। ३७९ ।। 
खिलेषु हरिवंशे च संख्यातानि महर्षिणा। 
एतत् सर्व समाख्यातं भारते पर्वसंग्रहः ।। ३८० ।।

खिलपर्वोमें हरिवंश तथा भविष्यका वर्णन किया गया है। हरिवंशके खिलपर्वो में महर्षि व्यासने गणनापूर्वक बारह हजार (१२,०००) श्लोक रखे हैं। इस प्रकार महाभारतमें यह सब पर्वोका संग्रह बताया गया है ।। ३७९-३८०॥

अष्टादश समाजग्मुरक्षौहिण्यो युयुत्सया। 
तन्महादारुणं युद्धमहान्यष्टादशाभवत् ।। ३८१ ॥

कुरुक्षेत्रमें युद्धकी इच्छासे अठारह अक्षौहिणी सेनाएँ एकत्र हुई थीं और वह महाभयंकर युद्ध अठारह दिनोंतक चलता रहा ।। ३८१ ।।

यो विद्याच्चतुरो वेदान् साङ्गोपनिषदो द्विजः। 
न चाख्यानमिदं विद्यान्नैव स स्याद् विचक्षणः ।। ३८२ ।।

जो द्विज अंगों और उपनिषदोंसहित चारों वेदोंको जानता है. परंतु इस महाभारतइतिहासको नहीं जानता, वह विशिष्ट विद्वान् नहीं है ।। ३८२ ।।

अर्थशास्त्रमिदं प्रोक्तं धर्मशास्त्रमिदं महत्। 
कामशास्त्रमिदं प्रोक्तं व्यासेनामितबुद्धिना ।। ३८३ ।।

असीम बुद्धिवाले महात्मा व्यासने यह अर्थशास्त्र कहा है। यह महान् धर्मशास्त्र भी है, इसे कामशास्त्र भी कहा गया है (और मोक्षशास्त्र तो यह है ही) ।। ३८३ ।।

श्रुत्वा त्विदमुपाख्यानं श्राव्यमन्यन्न रोचते।
पुस्कोकिलरुतं श्रुत्वा रूक्षा ध्वाक्षस्य वागिव ।। ३८४ ।।।

इस उपाख्यानको सुन लेनेपर और कुछ सुनना अच्छा नहीं लगता। भला कोकिलका कलरव सुनकर कौओंकी कठोर काय-काय' किसे पसंद आयेगी? ।। ३८४ ।।

इतिहासोत्तमादस्माज्जायन्ते कविबुद्धयः। 
पञ्चभ्य इव भूतेभ्यो लोकसंविधयस्त्रयः ।। ३८५ ।।

जैसे पाँच भूतोंसे त्रिविध (आध्यात्मिक, आधिदैविक और आधिभौतिक) लोकसष्टियाँ प्रकट होती हैं, उसी प्रकार इस उत्तम इतिहाससे कवियोंको काव्यरचनाविषयक बुद्धियाँ प्राप्त होती हैं ।। ३८५ ॥

अस्याख्यानस्य विषये पुराणं वर्तते द्विजाः। 
अन्तरिक्षस्य विषये प्रजा इव चतुर्विधाः ॥ ३८६ ।। 

द्विजवरो! इस महाभारत-इतिहासके भीतर ही अठारह पुराण स्थित हैं, ठीक उसी तरह, जैसे आकाशमें ही चारों प्रकारकी प्रजा (जरायुज, स्वेदज, अण्डज और उद्भिज्ज) विद्यमान हैं ।। ३८६॥

क्रियागुणानां सर्वेषामिदमाख्यानमाश्रयः । 
इन्द्रियाणां समस्तानां चित्रा इव मनःक्रियाः ।। ३८७ ।।

जैसे विचित्र मानसिक क्रियाएँ ही समस्त इन्द्रियोंकी चेष्टाओंका आधार हैं उसी प्रकार सम्पूर्ण लौकिक-वैदिक कर्मोंके उत्कृष्ट फल-साधनोंका यह आख्यान ही आधार । है ।। ३८७ ।।

अनाश्रित्यैतदाख्यानं कथा भुवि न विद्यते। 
आहारमनपाश्रित्य शरीरस्येव धारणम् ।। ३८८ ॥

जैसे भोजन किये बिना शरीर नहीं रह सकता, वैसे ही इस पृथ्वीपर कोई भी ऐसी कथा नहीं है जो इस महाभारतका आश्रय लिये बिना प्रकट हुई हो ।। ३८८ ।।

इदं कविवरैः सर्वैराख्यानमुपजीव्यते । 
उदयप्रेप्सुभिर्भूत्यैरभिजात इवेश्वरः ।। ३८९ ॥ 
अस्य काव्यस्य कवयो न समर्था विशेषणे। 
साधोरिव गृहस्थस्य शेषास्त्रय इवाश्रमाः ।। ३९० ।।

सभी श्रेष्ठ कवि इस महाभारतकी कथाका आश्रय लेते हैं और लेंगे। ठीक वैसे ही, जैसे उन्नति चाहनेवाले सेवक श्रेष्ठ स्वामीका सहारा लेते हैं। जैसे शेष तीन आश्रम उत्तम गृहस्थ आश्रमसे बढ़कर नहीं हो सकते, उसी प्रकार संसारके कवि इस महाभारत काव्यसे बढ़कर काव्य-रचना करनेमें समर्थनहीं हो सकते ।। ३८९-३९०।। 

धर्मे मतिर्भवतु वः सततोत्थितानांसोक एव परलोकगतस्य बन्धुः। 
अर्थाः स्त्रियश्च निपुणैरपि सेव्यमानानैवाप्तभावमुपयान्ति न च स्थिरत्वम् ।। ३९१ ॥ __

_ तपस्वी महर्षियो! (तथा महाभारतके पाठको!) आप सब लोग सदा सांसारिक आसक्तियोंसे ऊँचे उठे और आपका मन सदा धर्ममें लगा रहे: क्योंकि परलोकमें गये हुए जीवका बन्धु या सहायक एकमात्र धर्म ही है। चतुर मनुष्य भी धन और स्त्रियोंका सेवन तो करते हैं, किंतु वे उनकी श्रेष्ठतापर विश्वास नहीं करते और न उन्हें स्थिर ही मानते हैं ।। ३९१ ।। 

द्वैपायनोष्ठपुटनिःसृतमप्रमेयंपुण्यं पवित्रमथ पापहरं शिवं च। 
यो भारतं समधिगच्छति वाच्यमानं किं तस्य पुष्करजलैरभिषेचनेन ।। ३९२ ॥

जो व्यासजीके मुखसे निकले हुए इस अप्रमेय (अतुलनीय) पुण्यदायक, पवित्र, पापहारी और कल्याणमय महाभारतको दूसरोंके मुखसे सुनता है, उसे पुष्करतीर्थक जलमें गोता लगानेकी क्या आवश्यकता है? ॥३९२ ।।

यदह्ना कुरुते पापं ब्राह्मणस्त्विन्द्रियैश्चरन् । 
महाभारतमाख्याय संध्यां मुच्यति पश्चिमाम् ।। ३९३ ।।

ब्राह्मण दिनमें अपनी इन्द्रियोंद्वारा जो पाप करता है, उससे सायंकाल महाभारतका पाठ करके मुक्त हो जाता है ।। ३९३ ।।

यद् रात्री कुरुते पापं कर्मणा मनसा गिरा। 
महाभारतमाख्याय पूर्व संध्यां प्रमुच्यते ।। ३९४ ।।

इसी प्रकार वह मन, वाणी और क्रियाद्वारा रातमें जो पाप करता है, उससे प्रातःकाल महाभारतका पाठ करके छूट जाता है ।। ३९४ ।। यो गोशतं कनकशृङ्गमयं ददाति

विप्राय वेदविदुषे च बहुश्रुताय । 
पुण्यां च भारतकथां शृणुयाच्च नित्यंतुल्यं फलं भवति तस्य च तस्य चैव ।। ३९५ ।। 

जो गौओंके सींगमें सोना मढ़ाकर वेदवेत्ता एवं बहुज्ञ ब्राह्मणको प्रतिदिन सी गौएँ दान देता है और जो केवल महाभारत-कथाका श्रवणमात्र करता है. इन दोनों से प्रत्येकको बराबर ही फल मिलता है ।। ३९५ ।। 

आख्यानं तदिदमनुत्तमं महाथविज्ञेयं महदिह पर्वसंग्रहेण। 
श्रुत्वादी भवति नृणां सुखावगाहं विस्तीर्ण लवणजलं यथा प्लवेन ॥३९६ ॥


 यह महान् अर्थसे भरा हुआ परम उत्तम महाभारत-आख्यान यहाँ पर्वसंग्रहाध्यायके द्वारा समझना चाहिये। इस अध्यायको पहले सुन लेनेपर मनुष्योंके लिये महाभारत-जैसे महासमुद्र में प्रवेश करना उसी प्रकार सुगम हो जाता है जैसे जहाजकी सहायतासे अनन्त जल-राशिवाले समुद्रमें प्रवेश सहज हो जाता है ।। ३९६ ।।

इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि पर्वसंग्रहपर्वणि द्वितीयोऽध्यायः ।। २ ।। 

इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत पर्वसंग्रहपर्वमें दूसरा अध्याय पूरा हुआ ॥२॥

1, अधिक नीचा-ऊँचा होना, कॉटेदार वृक्षोंसे व्याप्तहोना तथा कंकड़-पत्थरों की अधिकताका होना आदि भूमिसम्बन्धी दोष माने गये हैं।
२. समन्त नामक क्षेत्र पाँच कुण्ड या सरोवर होनेसे उस क्षेत्र और उसके समीपवर्ती प्रदेशका भी समतपंचक नाम हुआ। परंतु उसका समन्त नाम क्यों पड़ा, इसका कारण इस श्लोकमें बता रहे:-'समेतानाम् अन्तो यस्मिन् स रागन्तः'-समागत सेनाओंका अन्त हुआ हो जिस स्थानपर, उसे समन्त कहते हैं। इसी व्युत्पत्तिके अनुसार वह क्षेत्र समन्त कहलाता है।
घर छोड़कर निराहार रहते हुए, स्वेच्छासे मृत्युका वरण करने के लिये निकल जाना और विभिन्न दिशाओंमें भ्रमण करते हुए अन्तर्मे उत्तर दिशा-हिमालयकी ओर जाना-महाप्रस्थान कहलाता है-पाण्डवोंने ऐसा ही किया।



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