तब उसने मातासे पुनः इस प्रकार कहा–'मैंने कोई अपराध नहीं किया है। न तो उनकें हविष्यकी ओर देखा और न उसे चाटा ही है ।।६।।
तच्छ्रुत्वा तस्य माता सरमा पुत्रदुःखार्ता तत् सत्रमुपागच्छद् यत्र स जनमेजयः सह भ्रातृभिर्दीर्घ-सत्रमुपास्ते ॥ ७॥
यह सुनकर पुत्रके दुःखसे दुःखी हुई उसकी माता सरमा उस सत्रमें आयी, जहाँ जनमेजय अपने भाइयोंके साथ दीर्घकालीन सत्रका अनुष्ठान कर रहे थे ।। ७ ।।
सतया क्रुद्धया तत्रोक्तोऽयं मे पुत्रो न किंचिदपराध्यति नावेक्षते हवींषि नावलेढि किमर्थमभिहत इति ॥८॥
वहाँ क्रोधमें भरी हुई सरमाने जनमेजयसे कहा-'मेरे इस पुत्रने तुम्हारा कोई अपराध नहीं किया था, न तो इसने हविष्यकी ओर देखा और न उसे चाटा ही था, तब तुमने इसे क्यों मारा?' ॥८॥
न किञ्चिदुक्तवन्तस्ते सा तानुवाच यस्मादयमभिहतोऽनपकारी तस्माददृष्टं त्वां भयमागमिष्यतीति ॥९॥
किंतु जनमेजय और उनके भाइयोंने इसका कुछ भी उत्तर नहीं दिया। तब सरमाने उनसे कहा, 'मेरा पुत्र निरपराध था, तो भी तुमने इसे मारा है; अतः तुम्हारे ऊपर अकस्मात् ऐसा भय उपस्थित होगा, जिसकी पहलेसे कोई सम्भावना न रही हो' ।। ९ ।।
जनमेजय एवमुक्तो देवशुन्या सरमया भृशं सम्भ्रान्तो विषण्णश्चासीत् ।। १०।।
देवताओंकी कुतिया सरमाके इस प्रकार शाप देनेपर जनमेजयको बड़ी घबराहट हुई और वे बहुत दुःखी हो गये ।। १०॥
स तस्मिन् सो समाप्ते हास्तिनपुरं प्रत्येत्य पुरोहितमनुरूपमन्विच्छमानः परं यत्नमकरोद्यो मे पापकृत्यां शमयेदिति ॥११॥
उस सत्रके समाप्त होनेपर वे हस्तिनापुरमें आये और अपनेयोग्य पुरोहितकी खोज करते हुए इसके लिये बड़ा यत्न करने लगे। पुरोहितके ढूँढ़नेका उद्देश्य यह था कि वह मेरी इस शापरूप पापकृत्याको (जो बल, आयु और प्राणका नाश करनेवाली है) शान्त कर दे।। ११ ।।
स कदाचिन्मृगयां गतः पारीक्षितो जनमेजयः कस्मिंश्चित् स्वविषय आश्रममपश्यत् ।। १२ ।।
एक दिन परीक्षितपुत्र जनमेजय शिकार खेलनेके लिये वनमें गये। वहाँ उन्होंने एक आश्रम देखा, जो उन्हींके राज्यके किसी प्रदेशमें विद्यमान था ।। १२ ।।
तत्र कश्चिदृषिरासांचक्रे श्रुतश्रवा नाम ।
तस्य तपस्यभिरतः पुत्र आस्ते सोमश्रवा नाम ।। १३ ॥
उस आश्रममें श्रुतश्रवा नामसे प्रसिद्ध एक ऋषि रहते थे। उनके पुत्रका नाम था सोमश्रवा। सोमश्रवा सदा तपस्यामें ही लगे रहते थे।। १३ ।।
तस्य तं पुत्रमभिगम्य जनमेजयः पारीक्षितः पौरोहित्याय बने ।। १४ ।।
परीक्षितकुमार जनमेजयने महर्षि श्रुतश्रवाके पास जाकर उनके पुत्र सोमश्रवाका पुरोहितपदके लिये वरण किया ।। १४ ॥
स नमस्कृत्य तमृषिमुवाच भगवन्नयं तव पुत्रो मम पुरोहितोऽस्त्विति ।। १५ ।।
राजाने पहले महर्षिको नमस्कार करके कहा-'भगवन्! आपके ये पुत्र सोमश्रवा मेरे पुरोहित हों ॥ १५ ॥ ___
स एवमुक्तः प्रत्युवाच जनमेजयं भो जनमेजय पत्रोऽयं मम सा जातो महातपस्वी स्वाध्याय-सम्पन्नो मत्तपोवीर्यसम्भतो मच्छुक्रं पीतवत्यास्तस्याः कुक्षी जातः ।। १६ ॥
उनके ऐसा कहनेपर श्रुतश्रवाने जनमेजयको इस प्रकार उत्तर दिया-'महाराज जनमेजय! मेरा यह पुत्र सोमश्रवा सर्पिणीके गर्भसे पैदा हुआ है। यह बड़ा तपस्वी और स्वाध्यायशील है। मेरे तपोबलसे इसका भरण-पोषण हुआ है। एक समय एक सर्पिणीने मेरा वीर्यपान कर लिया था, अतः उसीके पेटसे इसका जन्म हुआ है ।। १६ ।।
समाऽयं भवतः सर्वाः पापकत्याः शमयितु-मन्तरेण महादेवकत्याम ।। १७ ।।
यह तुम्हारी सम्पूर्ण पापकृत्याओं (शापजनित उपद्रवों)-का निवारण करनेमें समर्थ है। केवल भगवान् शंकरकी कृत्याको यह नहीं टाल सकता ।। १७॥
अस्य त्वेकमुपांशुव्रतं यदेनं कश्चिद् ब्राह्मणः कंचिदर्थमभियाचेत् तं तस्मै दद्यादयं यद्येतदुत्सहसे ततो नयस्वैनमिति ।। १८ ॥
किंतु इसका एक गुप्त नियम है। यदि कोई ब्राह्मण इसके पास आकर इससे किसी वस्तुकी याचना करेगा तो यह उसे उसकी अभीष्ट वस्तु अवश्य देगा। यदि तुम उदारतापूर्वक इसके इस व्यवहारको सहन कर सको अथवा इसकी इच्छापूर्तिका उत्साह दिखा सको तो इसे ले जाओ' ।। १८ ॥
तेनैवमुक्तो जनमेजयस्तं प्रत्युवाच भगवंस्तत् तथा भविष्यतीति ।। १९ ।।
श्रुतश्रवाके ऐसा कहनेपर जनमेजयने उत्तर दिया-'भगवन्! सब कुछ उनकी रुचिके अनुसार ही होगा' ।। १९॥
सतं पुरोहितमुपादायोपावृत्तो भ्रातृनुवाच मयायं वृत उपाध्यायो यदयं ब्रूयात् तत् कार्यमविचारयद्भिर्भवद्भिरिति । तेनैवमुक्ता भ्रातरस्तस्य तथा चक्रुः । स तथा भ्रातृन् संदिश्य तक्षशिला प्रत्यभिप्रतस्थे तं च देशं वशे स्थापयामास ।। २० ॥
फिर वे सोमश्रवा पुरोहितको साथ लेकर लौटे और अपने भाइयोंसे बोले-'इन्हें मैंने अपना उपाध्याय (पुरोहित) बनाया है। ये जो कुछ भी कहें, उसे तुम्हें बिना किसी सोच विचारके पालन करना चाहिये।' जनमेजयके ऐसा कहनेपर उनके तीनों भाई पुरोहितकी प्रत्येक आज्ञाका ठीक-ठीक पालन करने लगे। इधर राजा जनमेजय अपने भाइयोंको पूर्वोक्त आदेश देकर स्वयं तक्षशिला जीतनेके लिये चले गये और उस प्रदेशको अपने अधिकारमें कर लिया ॥२०॥
एतस्मिन्नन्तरे कश्चिदृषिगुम्यो नामायोदस्तस्य शिष्यास्त्रयो
बभूवुरुपमन्युरारुणिर्वेदश्चेति ।। २१ ॥
गुरुकी आज्ञाका किस प्रकार पालन करना चाहिये, इस विषयमें आगेका प्रसंग कहा जाता है-) इन्हीं दिनों आयोदधौम्य नामसे प्रसिद्ध एक महर्षि थे। उनके तीन शिष्य हुए उपमन्यु, आरुणि पांचाल तथा वेद ॥२१॥
स एकं शिष्यमारुणिं पाञ्चाल्यं प्रेषयामास गच्छ केदारखण्डं बधानेति ।। २२ ।।
एक दिन उपाध्यायने अपने एक शिष्य पांचालदेशवासी आरुणिको खेतपर भेजा और कहा-'वत्स! जाओ, क्यारियोंकी टुटी हुई मेड़ बाँध दो ॥ २२ ॥
स उपाध्यायेन संदिष्ट आरुणिः पाञ्चाल्यस्तत्र गत्वा तत् केदारखण्डं बद्धं नाशकत् । स क्लिश्यमानोऽपश्यदुपायं भवत्वेवं करिष्यामि ।। २३ ।।
उपाध्यायके इस प्रकार आदेश देनेपर पांचालदेशवासी आरुणि वहाँ जाकर उस धानकी क्यारीकी मेड़ बाँधने लगा; परंतु बाँध न सका। मेड़ बाँधनेके प्रयत्नमें ही परिश्रम करते-करते उसे एक उपाय सूझ गया और वह मन-ही-मन बोल उठा-'अच्छा; ऐसा ही करूँ' || २३ ।।
सतत्र संविवेश केदारखण्डे शयाने च तथा तस्मिंस्तदुदकं तस्थौ ।। २४ ।।
वह क्यारीकी टूटी हुई मेड़की जगह स्वयं ही लेट गया। उसके लेट जानेपर वहाँका बहता हुआ जल रुक गया ।। २४ ।।
ततः कदाचिदुपाध्याय आयोदो धौम्यः शिष्यानपच्छत् क्व आरुणिः पाञ्चाल्यो गत इति ।। २५ ॥
फिर कुछ कालके पश्चात् उपाध्याय आयोदधौम्यने अपने शिष्योंसे पूछा -'पांचालनिवासी आरुणि कहाँ चला गया?' ॥२५॥
ते तं प्रत्यूचुर्भगवंस्त्वयैव प्रेषितो गच्छ केदारखण्डं बधानेति ।
स एवमुक्तस्ताञ्छिष्यान् प्रत्युवाच तस्मात् तत्र सर्वे गच्छामो यत्र स गत इति ।। २६ ।।
शिष्योंने उत्तर दिया-'भगवन! आपहीने तो उसे यह कहकर भेजा था कि 'जाओ, | क्यारीकी टूटी हुई मेड़ बाँध दो।' शिष्योंके ऐसा कहनेपर उपाध्यायने उनसे कहा-'तो चलो. हम सब लोग वहीं चलें, जहाँ आरुणि गया है ।।२६।।
स तत्र गत्वा तस्याहानाय शब्दं चकार ।
भो आरुणे पाञ्चाल्य क्वासि वत्सैहीति ।। २७॥ -
वहाँ जाकर उपाध्यायने उसे आनेके लिये आवाज दी-'पांचालनिवासी आरुणि! कहाँ हो वत्स! यहाँ आओ' ।। २७॥
स तच्छत्वा आरुणिरुपाध्यायवाक्यं तस्मात् केदारखण्डात् सहसोत्थाय तमुपाध्यायमुपतस्थे ॥२८॥
उपाध्यायका यह वचन सुनकर आरुणि पांचाल सहसा उस क्यारीकी मेड़से उठा और उपाध्यायके समीप आकर खड़ा हो गया ।। २८॥
प्रोवाच चैनमयमस्म्यत्र केदारखण्डे निःसरमाणमुदकमवारणीय संरोद्धं संविष्टो भगवच्छब्दं श्रुत्वैव सहसा विदार्य केदारखण्डं भवन्तमुपस्थितः ।। २९ ।।
फिर उनसे विनयपूर्वक बोला-'भगवन्! मैं यह हूँ, क्यारीकी टूटी हुई मेड़से निकलते हुए अनिवार्य जलको रोकनेके लिये स्वयं ही यहाँ लेट गया था। इस समय आपकी आवाज सुनते ही सहसा उस मेड़को विदीर्ण करके आपके पास आ खड़ा हुआ ।। २९ ।।
तदभिवादये भगवन्तमाज्ञापयतु भवान् कमर्थ करवाणीति ।। ३०॥ ___
"मैं आपके चरणोंमें प्रणाम करता हूँ, आप आज्ञा दीजिये, मैं कौन-सा कार्य करूँ?' ।। ३०॥
स एवमुक्त उपाध्यायः प्रत्युवाच यस्माद् भवान् केदारखण्ड विदार्योत्थितस्तस्मादुद्दालक एव नाम्ना भवान् भविष्यतीत्युपाध्यायेनानुगृहीतः ॥ ३१ ॥
आरुणिके ऐसा कहनेपर उपाध्यायने उत्तर दिया-'तुम क्यारीके मेड़को विदीर्ण करके उठे हो, अतः इस उद्दलनकर्मके कारण उद्दालक नामसे ही प्रसिद्ध होओगे।' ऐसा कहकर उपाध्यायने आरुणिको अनुगृहीत किया ।।३१।।
यस्माच्च त्वया मद्वचनमनुष्ठितं तस्माच्छ्रेयोऽवाप्स्यसि ।
सर्वे च ते वेदाः प्रतिभास्यन्ति सर्वाणि च धर्मशास्त्राणीति ॥ ३२॥
साथ ही यह भी कहा कि, 'तुमने मेरी आज्ञाका पालन किया है, इसलिये तुम | कल्याणके भागी होओगे। सम्पूर्ण वेद और समस्त धर्मशास्त्र तुम्हारी बुद्धिमें स्वयं प्रकाशित | हो जायँगे' ।। ३२।।
स एवमुक्त उपाध्यायेनेष्टं देशं जगाम ।
अथापरः शिष्यस्तस्यैवायोदस्य धौम्यस्योपमन्यु म ।। ३३ ।।
उपाध्यायके इस प्रकार आशीर्वाद देनेपर आरुणि कृतकृत्य हो अपने अभीष्ट देशको चला गया। उन्हीं आयोदधौम्य उपाध्यायका उपमन्यु नामक दूसरा शिष्य था ।। ३३ ।।
तं चोपाध्यायः प्रेषयामास वत्सोपमन्यो गा रक्षस्वेति ।। ३४ ।।
उसे उपाध्यायने आदेश दिया-'वत्स उपमन्यु! तुम गौओंकी रक्षा करो' ।। ३४ ।। स उपाध्यायवचनादरक्षद् गाः; स चाहनि गा रक्षित्वा दिवसक्षये गुरुगृहमागम्योपाध्यायस्याग्रतः स्थित्वा नमश्चक्रे ।। ३५॥
उपाध्यायकी आज्ञासे उपमन्यु गौओंकी रक्षा करने लगा। वह दिनभर गौओंकी रक्षामें रहकर संध्याके समय गुरुजीके घरपर आता और उनके सामने खड़ा हो नमस्कार करता ।। ३५ ॥
तमुपाध्यायः पीवानमपश्यदुवाच चैनं वत्सोपमन्यो केन वृत्तिं कल्पयसि पीवानसि दृढमिति ॥ ३६॥
उपाध्यायने देखा उपमन्यु खूब मोटा-ताजा हो रहा है, तब उन्होंने पूछा-'बेटा उपमन्यु! तुम कैसे जीविका चलाते हो, जिससे इतने अधिक हृष्ट-पुष्ट हो रहे हो?' ।। ३६ ।।
स उपाध्यायं प्रत्युवाच भो भैक्ष्यण वृत्तिं कल्पयामीति ।। ३७।।
उसने उपाध्यायसे कहा-'गुरुदेव! मैं भिक्षासे जीवन-निर्वाह करता हूँ'।।३७ ।।
तमुपाध्यायः प्रत्युवाच मय्यनिवेद्य भैक्ष्यं नोपयोक्तव्यमिति ।
स तथेत्युक्त्वा भैक्ष्यं चरित्वोपाध्यायाय न्यवेदयत् ।। ३८॥
यह सुनकर उपाध्याय उपमन्युसे बोले-'मुझे अर्पण किये बिना तुम्हें भिक्षाका अन्न अपने उपयोगमें नहीं लाना चाहिये।' उपमन्युने 'बहुत अच्छा' कहकर उनकी आज्ञा स्वीकार कर ली। अब वह भिक्षा लाकर उपाध्यायको अर्पण करने लगा ।। ३८ ।।
स तस्मादुपाध्यायः सर्वमेव भैक्ष्यमगह्वात् ।
स तथेत्युक्त्वा पुनररक्षद् गाः ।
अहनि रक्षित्वा निशामुखे गुरुकुलमागम्य गुरोरग्रतः स्थित्वा नमश्चक्रे ।। ३९ ।।
उपाध्याय उपमन्युसे सारी भिक्षा ले लेते थे। उपमन्यु 'तथास्तु' कहकर पुनः पूर्ववत् गौओंकी रक्षा करता रहा। वह दिनभर गौओंकी रक्षा में रहता और (संध्याके समय) पुनः गुरुके घरपर आकर गुरुके सामने खड़ा हो नमस्कार करता था ।। ३९ ।। -
तमुपाध्यायस्तथापि पीवानमेव दृष्ट्वोवाच वत्सोपमन्यो सर्वमशेषतस्ते भेक्ष्य गृह्णामि केनेदानी वृत्तिं कल्पयसीति ।। ४०॥
उस दशामें भी उपमन्युको पूर्ववत् हृष्ट-पुष्ट ही देखकर उपाध्यायने पूछा-'बेटा उपमन्यु! तुम्हारी सारी भिक्षा तो मैं ले लेता हूँ, फिर तुम इस समय कैसे जीवन-निर्वाह करते हो?' || ४०॥
स एवमुक्त उपाध्यायं प्रत्युवाच भगवते निवेद्य पूर्वमपरं चरामि तेन वृत्तिं कल्पयामीति ।। ४१ ।।
उपाध्यायके ऐसा कहनेपर उपमन्युने उन्हें उत्तर दिया-'भगवन्! पहलेकी लायी हई भिक्षा आपको अर्पित करके अपने लिये दूसरी भिक्षा लाता हूँ और उसीसे अपनी जीविका चलाता हूँ ।। ४१ ।।
तमुपाध्यायः प्रत्युवाच नैषा न्याय्या गुरुवृत्तिरन्येषामपि भक्ष्योपजीविनां वृत्त्युपरोधं करोषि इत्येवं वर्तमानो लुब्धोऽसीति ।। ४२ ॥
यह सुनकर उपाध्यायने कहा-'यह न्याययुक्त एवं श्रेष्ठ वृत्ति नहीं है। तुम ऐसा करके दूसरे भिक्षाजीवी लोगोंकी जीविकामें बाधा डालते हो; अतः लोभी हो तुम्हें दुबारा भिक्षा नहीं लानी चाहिये ॥ ४२ ॥
स तथेत्युक्त्वा गा अरक्षत् ।
रक्षित्वा च पुनरुपाध्यायगृहमागम्योपाध्यायस्याग्रतः स्थित्वा नमश्चक्रे ।। ४३ ॥
उसने 'तथास्तु' कहकर गुरुकी आज्ञा मान ली और पूर्ववत् गौओंकी रक्षा करने लगा। एक दिन गायें चराकर वह फिर (सायंकालको) उपाध्यायके घर आया और उनके सामने खड़े होकर उसने नमस्कार किया ॥४३॥
तमुपाध्यायस्तथापि पीवानमेव दृष्ट्वा पुनरुवाच वत्सोपमन्यो अहं ते सर्व भैक्ष्य गहामि न चान्यच्चरसि पीवानसि भृशं केन वृत्तिं कल्पयसीति ।। ४४ ।।। -
उपाध्यायने उसे फिर भी मोटा-ताजा ही देखकर पूछा-'बेटा उपमन्यु! मैं तुम्हारी सारी भिक्षा ले लेता हूँ और अब तुम दुबारा भिक्षा नहीं माँगते, फिर भी बहुत मोटे हो। आजकल कैसे खाना-पीना चलाते हो?' ।। ४४ ।।
स एवमुक्तस्तमुपाध्यायं प्रत्युवाच भो एतासां गवां पयसा वृत्तिं कल्पयामीति । तमुवाचोपाध्यायो नैतन्न्याय्यं पय उपयोक्तुं भवतो मया नाभ्यनुज्ञातमिति ।। ४५ ।।
इस प्रकार पूछनेपर उपमन्युने उपाध्यायको उत्तर दिया-'भगवन्! मैं इन गौओंके दूधसे जीवन-निर्वाह करता हूँ।' (यह सुनकर) उपाध्यायने उससे कहा-'मैंने तुम्हें दूध पीनेकी आज्ञा नहीं दी है, अतः इन गौओके दूधका उपयोग करना तुम्हारे लिये अनुचित | है ।। ४५ ।।
- स तथेति प्रतिज्ञाय गा रक्षित्वा पुनरुपाध्यायग्रहमेत्य गुरोरग्रतः स्थित्वा नमश्चक्रे ।। ४६ ।।
उपमन्युने 'बहुत अच्छा' कहकर दूध न पीनेकी भी प्रतिज्ञा कर ली और पूर्ववत् गोपालन करता रहा। एक दिन गोचारणके पश्चात् वह पुनः उपाध्यायके घर आया और उनके सामने खड़े होकर उसने नमस्कार किया ।। ४६ ।।
तमुपाध्यायः पीवानमेव दृष्ट्वोवाच वत्सोपमन्यो भैक्ष्यं नानासि न चान्यच्चरसि पयो न पिबसि पीवानसि भृशं केनेदानीं वृत्तिं कल्पयसीति ।। ४७ ॥
उपाध्यायने अब भी उसे हृष्ट-पुष्ट ही देखकर पूछा-'बेटा उपमन्यु! तुम भिक्षाका अन्न नहीं खाते. दुबारा भिक्षा भी नहीं माँगते और गौओंका दूध भी नहीं पीते; फिर भी बहुत मोटे हो। इस समय कैसे निर्वाह करते हो?' ।। ४७ ॥
स एवमुक्त उपाध्यायं प्रत्युवाच भोः फेनं पिबामि यमिमे वत्सा मातृणां स्तनात् पिबन्त उगिरन्ति ।। ४८॥
इस प्रकार पूछनेपर उसने उपाध्यायको उत्तर दिया-'भगवन्! ये बछड़े अपनी माताओंके स्तनोंका दूध पीते समय जो फेन उगल देते हैं. उसीको पी लेता हूँ ।। ४८॥
तमुपाध्यायः प्रत्युवाच-एते त्वदनुकम्पया गुणवन्तो वत्साः प्रभूततरं फेनमुगिरन्ति । तदेषामपि वत्सानां वृत्त्युपरोधं करोष्येवं वर्तमानः । फेनमपि भवान् न पातुमर्हतीति । स तथेति प्रतिश्रुत्य पुनररक्षद् गाः ।। ४९ ।।
यह सुनकर उपाध्यायने कहा-'ये बछडे उत्तम गणोंसे युक्त हैं, अतः तुमपर दया करके बहुत-सा फेन उगल देते होंगे। इसलिये तुम फेन पीकर तो इन सभी बछड़ोंकी जीविकामें बाधा उपस्थित करते हो, अतः आजसे फेन भी न पिया करो।' उपमन्युने 'बहुत अच्छा' कहकर उसे न पीनेकी प्रतिज्ञा कर ली और पूर्ववत् गौओंकी रक्षा करने लगा ।। ४९ ॥
तथा प्रतिषिद्धो भैक्ष्यं नानाति न चान्यच्चरति पयो न पिबति फेनं नोपयङक्ते। स कदाचिदरण्ये क्षुधार्तोऽर्कपत्राण्यभक्षयत् ।। ५० ॥
इस प्रकार मना करनेपर उपमन्यु न तो भिक्षाका अन्न खाता, न दुबारा भिक्षा लाता, न गौओंका दूध पीता और न बछड़ोंके फेनको ही उपयोगमें लाता था (अब वह भूखा रहने लगा)। एक दिन वनमें भूखसे पीड़ित होकर उसने आकके पत्ते चबा लिये ।। ५०।।
स तैरर्कपत्रभक्षितैः क्षारतिक्तकटुरूक्षैस्तीक्ष्णविपाकैश्चक्षुष्युपहतोऽन्धो बभूव । ततः सोऽन्धोऽपि चक्रम्यमाणः कूपे पपात ।। ५१ ॥
आकके पत्ते खारे, तीखे, कड़वे और रूखे होते हैं। उनका परिणाम तीक्ष्ण होता है (पाचनकालमें वे पेटके अंदर आगकी ज्वाला-सी उठा देते हैं); अतः उनको खानेसे उपमन्युकी आँखोंकी ज्योति नष्ट हो गयी। वह अन्धा हो गया। अन्धा होनेपर भी वह इधरउधर घूमता रहा; अतः कुएँमें गिर पड़ा ।। ५१।।
अथ तस्मिन्ननागच्छति सूर्ये चास्ताचलावलम्बिनि उपाध्यायः शिष्यानवोचत्नायात्युपमन्युस्त ऊचुर्वनं गतो गा रक्षितुमिति ।। ५२ ।।
तदनन्तर जब सूर्यदेव अस्ताचलकी चोटीपर पहुँच गये, तब भी उपमन्यु गुरुके घरपर नहीं आया, तो उपाध्यायने शिष्योंसे पूछा-'उपमन्यु क्यों नहीं आया?' वे बोले-'वह तो गाय चरानेके लिये वनमें गया था' ।। ५२ ॥ ___
तानाह उपाध्यायो मयोपमन्युः सर्वतः प्रतिषिद्धः स नियतं कुपितस्ततो नागच्छति चिरं ततोऽन्वेष्य इत्येवमुक्त्वा शिष्यैः सार्धमरण्यं गत्वा तस्याहानाय शब्दं चकार भो उपमन्यो क्वासि वत्सैहीति ।। ५३ ॥
तब उपाध्यायने कहा-'मैंने उपमन्युकी जीविकाके सभी मार्ग बंद कर दिये हैं. अतः निश्चय ही वह रूठ गया है। इसीलिये इतनी देर हो जानेपर भी वह नहीं आया, अतः हमें चलकर उसे खोजना चाहिये। ऐसा कहकर शिष्योंके साथ वनमें जाकर उपाध्यायने उसे बुलानेके लिये आवाज दी-'ओ उपमन्यु! कहाँ हो बेटा! चले आओ' ।। ५३ ।।
स उपाध्यायवचनं श्रुत्वा प्रत्युवाचोच्चैरयमस्मिन् कूपे पतितोऽहमिति तमुपाध्यायः प्रत्युवाच कथं त्वमस्मिन् कूपे पतित इति ।। ५४ ।।
उसने उपाध्यायकी बात सुनकर उच्च स्वरसे उत्तर दिया-'गुरुजी! मैं कुएँमें गिर पड़ा हूँ।' तब उपाध्यायने उससे पूछा-'वत्स! तुम कुएँमें कैसे गिर गये?' ।। ५४ ॥
स उपाध्यायं प्रत्युवाच-अर्कपत्राणि भक्षयित्वान्धीभूतोऽस्म्यतः कूपे पतित इति ।। ५५॥
उसने उपाध्यायको उत्तर दिया-'भगवन्! मैं आकके पत्ते खाकर अन्धा हो गया हूँ; इसीलिये कुएँमें गिर गया ॥ ५५॥
तमुपाध्यायः प्रत्युवाच-अश्विनौ स्तुहि ।
तौ देवभिषजी त्वां चक्षुष्मन्तं कर्ताराविति ।
स एवमुक्त उपाध्यायेनोपमन्युरश्विनौ स्तोतमपचक्रमे देवावश्विनी वाग्भिर्ऋग्भिः ।। ५६ ॥
तब उपाध्यायने कहा-'वत्स! दोनों अश्विनीकुमार देवताओंके वैद्य हैं। तुम उन्हींकी स्तुति करो। वे तुम्हारी आँखें ठीक कर देंगे।' उपाध्यायके ऐसा कहनेपर उपमन्युने अश्विनीकुमार नामक दोनों देवताओंकी ऋग्वेदके मन्त्रोंद्वारा स्तुति प्रारम्भ की ।। ५६ ।।।
प्रपूर्वगौ पूर्वजौ चित्रभानू गिरा वाऽऽशंसामि तपसा ह्यनन्तौ।
दिव्यौ सुपर्णी विरजौ विमाना वधिक्षिपन्तौ भुवनानि विश्वा ।। ५७ ॥
हे अश्विनीकुमारो! आप दोनों सृष्टिसे पहले विद्यमान थे। आप ही पूर्वज हैं। आप ही चित्रभानु हैं। मैं वाणी और तपके द्वारा आपकी स्तुति करता हूँ; क्योंकि आप अनन्त हैं। दिव्यस्वरूप हैं। सुन्दर पंखवाले दो पक्षीकी भाँति सदा साथ रहनेवाले हैं। रजोगुणशून्य तथा अभिमानसे रहित हैं। सम्पूर्ण विश्व में आरोग्यका विस्तार करते हैं ।। ५७ ।।
हिरण्मयौ शकुनी साम्परायौ नासत्यदस्रौ सुनसौ वैजयन्तौ।
शुक्लं वयन्तौ तरसा सुवेमा वधिव्ययन्तावसितं विवस्वतः ।। ५८ ॥
सुनहरे पंखवाले दो सुन्दर विहंगमोंकी भाँति आप दोनों बन्धु बड़े सुन्दर हैं। पारलौकिक उन्नतिके साधनोंसे सम्पन्न हैं। नासत्य तथा दस-ये दोनों आपके नाम हैं। आपकी नासिका बड़ी सुन्दर है। आप दोनों निश्चितरूपसे विजय प्राप्त करनेवाले हैं। आप ही विवस्वान् (सूर्यदेव)-के सुपुत्र हैं: अतः स्वयं ही सूर्यरूपमें स्थित हो दिन तथा रात्रिरूप काले तन्तुओंसे संवत्सररूप वस्त्र बुनते रहते हैं और उस वस्त्रद्वारा वेगपूर्वक देवयान और पितृयान नामक सुन्दर मार्गोको प्राप्त कराते हैं ।। ५८ ।।
ग्रस्तां सुपर्णस्य बलेन वर्तिका ममुञ्चतामश्विनौ सौभगाय।
तावत् सुवृत्तावनमन्त माययावसत्तमा गा अरुणा उदावहन् ।। ५९॥
परमात्माकी कालशक्तिने जीवरूपी पक्षीको अपना ग्रास बना रखा है। आप दोनों अश्विनीकुमार नामक जीवन्मुक्त महापुरुषोंने ज्ञान देकर कैवल्यरूप महान् सौभाग्यकी प्राप्तिके लिये उस जीवको कालके बन्धनसे मुक्त किया है। मायाके सहवासी अत्यन्त अज्ञानी जीव जबतक राग आदि विषयोंसे आक्रान्त हो अपनी इन्द्रियोंके समक्ष नत-मस्तक | रहते हैं, तबतक वे अपने-आपको शरीरसे आबद्ध ही मानते हैं ।। ५९ ।।
षष्टिश्च गावस्त्रिशताश्च धेनवएकं वत्सं सुवते तं दुहन्ति।
नानागोष्ठा विहिता एकदोहना स्तावश्विनौ दुहतो घर्ममुक्थ्यम् ।। ६०॥
दिन एवं रात-ये मनोवांछित फल देनेवाली तीन सौ साठ दुधारू गौएँ हैं। वे सब एक | ही संवत्सररूपी बछड़ेको जन्म देती और उसको पुष्ट करती हैं। वह बछड़ा सबका उत्पादक और संहारक है। जिज्ञासु पुरुष उक्त बछड़ेको निमित्त बनाकर उन गौओंसे विभिन्न फल देनेवाली शास्त्रविहित क्रियाएँ दुहते रहते हैं; उन सब क्रियाओंका एक | (तत्त्वज्ञानकी इच्छा) ही दोहनीय फल है। पूर्वोक्त गौओंको आप दोनों अश्विनीकुमार ही | दुहते हैं ।। ६०।।
एकां नाभिं सप्तशता अराः श्रिताः प्रधिष्वन्या विंशतिरर्पिता अराः ।
अनेमि चक्रं परिवर्ततेऽजरं मायाश्विनी समनक्ति चर्षणी ।। ६१॥
हे अश्विनीकुमारो! इस कालचक्रकी एकमात्र संवत्सर ही नाभि है, जिसपर रात और दिन मिलाकर सात सौ बीस अरे टिके हुए हैं। वे सब बारह मासरूपी प्रधियों (अरोंको थामनेवाले पुट्ठों)-में जुड़े हुए हैं। अश्विनीकुमारो! यह अविनाशी एवं मायामय कालचक्र बिना नेमिके ही अनियत गतिसे घूमता तथा इहलोक और परलोक दोनों लोकोंकी । प्रजाओंका विनाश करता रहता है ।। ६१ ।।
एकं चक्रं वर्तते द्वादशारं षण्णाभिमेकाक्षमृतस्य धारणम् ।
यस्मिन् देवा अधि विश्वे विषक्ता स्तावश्विनौ मुञ्चतं मा विषीदतम् ।। ६२॥
अश्विनीकुमारो! मेष आदि बारह राशियाँ जिसके बारह अरे, छहों ऋतुएँ जिसकी छः नाभियाँ हैं और संवत्सर जिसकी एक धुरी है, वह एकमात्र कालचक्र सब ओर चल रहा है। यही कर्मफलको धारण करनेवाला आधार है। इसी में सम्पूर्ण कालाभिमानी देवता स्थित हैं। आप दोनों मुझे इस कालचक्रसे मुक्त करें, क्योंकि मैं यहाँ जन्म आदिके दुःखसे अत्यन्त । कष्ट पा रहा हूँ।। ६२ ।।
अश्विनाविन्दुममतं वृत्तभूयौ तिरोधत्तामश्विनौ दासपत्नी।
हित्वा गिरिमश्विनौ गा मुदा चरन्तौ तवृष्टिमहा प्रस्थितौ बलस्य ॥ ६३ ॥
हे अश्विनीकुमारो! आप दोनोंमें सदाचारका बाहुल्य है। आप अपने सुयशसे चन्द्रमा, | अमृत तथा जलकी उज्ज्वलताको भी तिरस्कृत कर देते हैं। इस समय मेरु पर्वतको छोड़कर आप पृथ्वीपर सानन्द विचर रहे हैं। आनन्द और बलकी वर्षा करनेके लिये ही आप दोनों भाई दिनमें प्रस्थान करते हैं ।। ६३ ॥
युवां दिशो जनयथो दशाग्रेसमानं मूर्ध्नि रथयानं वियन्ति।
तासां यातमृषयोऽनुप्रयान्ति देवा मनुष्याः क्षितिमाचरन्ति ।। ६४ ॥
हे अश्विनीकुमारो! आप दोनों ही सृष्टिके प्रारम्भकालमें पूर्वादि दसों दिशाओंको प्रकट | करते-उनका ज्ञान कराते हैं। उन दिशाओंके मस्तक अर्थात् अन्तरिक्ष-लोकमें रथसे यात्रा करनेवाले तथा सबको समानरूपसे प्रकाश देनेवाले सूर्यदेवका और आकाश आदि पाँच भूतोंका भी आप ही ज्ञान कराते हैं। उन-उन दिशाओंमें सूर्यका जाना देखकर ऋषिलोग भी | उनका अनुसरण करते हैं तथा देवता और मनुष्य (अपने अधिकारके अनुसार) स्वर्ग या मर्त्यलोककी भूमिका उपयोग करते हैं ।। ६४ ।।
युवां वर्णान् विकुरुथो विश्वरूपां स्तेऽधिक्षियन्ते भुवनानि विश्वा ।
ते भानवोऽप्यनुसृताश्चरन्ति देवा मनुष्याः क्षितिमाचरन्ति ।। ६५ ।।
हे अश्विनीकुमारो! आप अनेक रंगकी वस्तुओंके सम्मिश्रणसे सब प्रकारकी ओषधियाँ तैयार करते हैं, जो सम्पूर्ण विश्वका पोषण करती हैं। वे प्रकाशमान ओषधियाँ सदा आपका । अनुसरण करती हुई आपके साथ ही विचरती हैं। देवता और मनुष्य आदि प्राणी अपने अधिकारके अनुसार स्वर्ग और मर्त्यलोककी भूमिमें रहकर उन ओषधियोंका सेवन करते हैं ।। ६५ ॥
तौ नासत्यावश्विनौ वां महेऽहंस्रजं च यां बिभृथः पुष्करस्य।
तौ नासत्यावमृतावृतावृधावृते देवास्तत्प्रपदेन सूते ॥६६॥
अश्विनीकुमारो! आप ही दोनों 'नासत्य' नामसे प्रसिद्ध हैं। मैं आपकी तथा आपने जो | कमलकी माला धारण कर रखी है, उसकी पूजा करता हूँ। आप अमर होनेके साथ ही सत्यका पोषण और विस्तार करनेवाले हैं। आपके सहयोगके बिना देवता भी उस सनातन सत्यकी प्राप्तिमें समर्थ नहीं हैं ।। ६६ ॥
मुखेन गर्भ लभेतां युवानौगतासुरेतत् प्रपदेन सूते।
सद्यो जातो मातरमत्ति गर्भस्तावश्विनी मुञ्चथो जीवसे गाः ॥ ६७॥
युवक माता-पिता संतानोत्पत्तिके लिये पहले मुखसे अन्नरूप गर्भ धारण करते हैं। | तत्पश्चात् पुरुषोंमें वीर्यरूपमें और स्त्रीमें रजोरूपसे परिणत होकर वह अन्न जड शरीर बन | जाता है। तत्पश्चात् जन्म लेनेवाला गर्भस्थ जीव उत्पन्न होते ही माताके स्तनोंका दूध पीने लगता है। हे अश्विनीकुमारो! पूर्वोक्त रूपसे संसार-बन्धनमें बँधे हुए जीवोंको आप तत्त्वज्ञान देकर मुक्त करते हैं। मेरे जीवन-निर्वाहके लिये मेरी नेत्रेन्द्रियको भी रोगसे मुक्त करें ।। ६७।।
स्तोतुं न शक्नोमि गुणैर्भवन्तौचक्षुर्विहीनः पथि सम्प्रमोहः ।
दुर्गेऽहमस्मिन् पतितोऽस्मि कूपे युवां शरण्यौ शरणं प्रपद्ये ।। ६८ ॥
अश्विनीकुमारो। मैं आपके गुणोंका बखान करके आप दोनोंकी स्तुति नहीं कर सकता। | इस समय नेत्रहीन (अन्धा) हो गया हूँ। रास्ता पहचाननेमें भी भूल हो जाती है; इसीलिये इस दुर्गम कूपमें गिर पड़ा हूँ। आप दोनों शरणागतवत्सल देवता हैं: अतः मैं आपकी शरण लेता हूँ।। ६८।।
इत्येवं तेनाभिष्टुतावश्विनावाजग्मतुराहतुश्चैनं प्रीतौ स्व एष तेऽपूपोऽशानैनमिति ।। ६९ ।।
इस प्रकार उपमन्युके स्तवन करनेपर दोनों अश्विनीकुमार वहाँ आये और उससे बोले -'उपमन्यु! हम तुम्हारे ऊपर बहुत प्रसन्न है। यह तुम्हारे खानेके लिये पूआ है, इसे खा लो' ।। ६९ ।।
स एवमुक्तः प्रत्युवाच नानृतमूचतुर्भगवन्तौ न त्वहमेतमपूपमुपयोक्तुमुत्सहे गुरवेऽनिवेद्येति ।। ७० ॥
उनके ऐसा कहनेपर उपमन्यु बोला-'भगवन्! आपने ठीक कहा है. तथापि मैं गुरुजीको निवेदन किये बिना इस पूएको अपने उपयोगमें नहीं ला सकता' ।। ७०।।
ततस्तमश्विनावूचतुः-आवाभ्यांपुरस्ताद्
भवत उपाध्यायेनेवमेवाभिष्टुताभ्यामपूपो दत्त उपयुक्तः स तेनानिवेद्य गुरवे त्वमपि तथैव कुरुष्व यथा कृतमुपाध्यायेनेति ।। ७१ ॥
तब दोनों अश्विनीकुमार बोले-'वत्स! पहले तम्हारे उपाध्यायने भी हमारी इसी प्रकार स्तुति की थी। उस समय हमने उन्हें जो पूआ दिया था. उसे उन्होंने अपने गुरुजीको निवेदन किये बिना ही काममें ले लिया था। तुम्हारे उपाध्यायने जैसा किया है, वैसा ही तुम भी करो' ।। ७१ ।।
स एवमुक्तः प्रत्युवाच एतत् प्रत्यनुनये भवन्तावश्विनी नोत्सहेऽहमनिवेद्य गुरवेऽपूपमुपयोक्तुमिति ।। ७२ ॥
उनके ऐसा कहनेपर उपमन्युने उत्तर दिया-'इसके लिये तो आप दोनों अश्विनीकुमारोंकी मैं बड़ी अनुनय-विनय करता हूँ। गुरुजीके निवेदन किये बिना में इस पूएको नहीं खा सकता' ।। ७२ ॥
तमश्विनावाहतुः प्रीती स्वस्तवानया गुरुभक्त्या उपाध्यायस्य ते काष्र्णायसा दन्ता भवतोऽपि हिरण्मया भविष्यन्ति चक्षुष्मांश्च भविष्यसीति श्रेयश्चावाप्स्यसीति ।। ७३ ॥
तब अश्विनीकुमार उससे बोले, 'तुम्हारी इस गुरु-भक्तिसे हम बड़े प्रसन्न हैं। तुम्हारे उपाध्यायके दाँत काले लोहेके समान हैं। तुम्हारे दाँत सुवर्णमय हो जायेंगे। तुम्हारी आँखें भी ठीक हो जायेंगी और तुम कल्याणके भागी भी होओगे' ।। ७३ ।।
स एवमुक्तोऽश्विभ्यां लब्धचक्षुरुपाध्यायसकाशमागम्याभ्यवादयत् ।। ७४ ।।
अश्विनीकुमारोंके ऐसा कहनेपर उपमन्युको आँखें मिल गयीं और उसने उपाध्यायके समीप आकर उन्हें प्रणाम किया ।। ७४ ।।
आचचक्षे च स चास्य प्रीतिमान् बभूव ।। ७५ ॥
तथा सब बातें गुरुजीसे कह सुनायीं। उपाध्याय उसके ऊपर बड़े प्रसन्न हुए ।। ७५ ।।
आह चैनं यथाश्विनावाहतुस्तथा त्वं श्रेयोऽवाप्स्यसि ।। ७६ ।।
और उससे बोले-'जैसा अश्विनीकुमारोंने कहा है, उसी प्रकार तुम कल्याणके भागी होओगे ।। ७६।। -
सर्वे च ते वेदाः प्रतिभास्यन्ति सर्वाणि च धर्मशास्त्राणीति । एषा तस्यापि परीक्षोपमन्योः ।। ७७॥
'तुम्हारी बुद्धिमें सम्पूर्ण वेद और सभी धर्मशास्त्र स्वतः स्फुरित हो जायँगे।' इस प्रकार यह उपमन्युकी परीक्षा बतायी गयी ।। ७७॥
___अथापरः शिष्यस्तस्यैवायोदस्य धौम्यस्य वेदो नाम तमुपाध्यायः समादिदेश वत्स वेद इहास्यतां तावन्मम गहे कंचित् कालं शुश्रूषणा च भवितव्यं श्रेयस्ते भविष्यतीति ।। ७८ ॥
उन्हीं आयोदधौम्यके तीसरे शिष्य थे वेद। उन्हें उपाध्यायने आज्ञा दी, 'वत्स वेद! तुम कुछ कालतक यहाँ मेरे घरमें निवास करो। सदा शुश्रूषा में लगे रहना, इससे तुम्हारा कल्याण होगा' ।। ७८ ।।
स तथेत्युक्त्वा गुरुकुले दीर्घकालं गुरुशुश्रूषणपरोऽवसद् गौरिव नित्यं गुरुणा धूर्षु नियोज्यमानः शीतोष्णक्षत्तृष्णादुःखसहः सर्वत्राप्रतिकूलस्तस्य महता कालेन गुरुः | परितोषं जगाम ।। ७९ ॥ __
वेद 'बहुत अच्छा' कहकर गुरुके घरमें रहने लगे। उन्होंने दीर्घकालतक गुरुकी सेवा की। गरुजी उन्हें बैलकी तरह सदा भारी बोझ ढोने में लगाये रखते थे और वेद सरदी-गरमी तथा भूख-प्यासका कष्ट सहन करते हुए सभी अवस्थाओंमें गुरुके अनुकूल ही रहते थे। इस प्रकार जब बहुत समय बीत गया, तब गुरुजी उनपर पूर्णतः संतुष्ट हुए ।। ७९ ।।
तत्परितोषाच्च श्रेयः सर्वज्ञतां चावाप । एषा तस्यापि परीक्षा वेदस्य ।। ८०।।
गुरुके संतोषसे वेदने श्रेय तथा सर्वज्ञता प्राप्त कर ली। इस प्रकार यह वेदकी परीक्षाका वृत्तान्त कहा गया ।। ८०॥
स उपाध्यायेनानुज्ञातः समावृतस्तस्माद् गुरुकुलवासाद् गृहाश्रमं प्रत्यपद्यत । तस्यापि स्वगृहे वसतस्त्रयः शिष्या बभूवुः स शिष्यान् न किंचिदुवाच कर्म वा क्रियता गुरुशुश्रूषा चेति । दुःखाभिज्ञो हि गुरुकुलवासस्य शिष्यान् परिक्लेशेन योजयितुं नेयेष ।। ८१ ।।
तदनन्तर उपाध्यायकी आज्ञा होनेपर वेद समावर्तन-संस्कारके पश्चात् स्नातक होकर गुरुगृहसे लौटे। घर आकर उन्होंने गृहस्थाश्रममें प्रवेश किया। अपने घरमें निवास करते समय आचार्य वेदके पास तीन शिष्य रहते थे, किंतु वे 'काम करो अथवा गुरुसेवामें लगे रहो' इत्यादि रूपसे किसी प्रकारका आदेश अपने शिष्योंको नहीं देते थे; क्योंकि गुरुके घरमें रहनेपर छात्रोंको जो कष्ट सहन करना पड़ता है, उससे वे परिचित थे। इसलिये उनके मनमें अपने शिष्योंको क्लेशदायक कार्यमें लगानेकी कभी इच्छा नहीं होती थी ।। ८१ ।।
अथ कस्मिंश्चित् काले वेदं ब्राह्मणं जनमेजयः पौष्यश्च क्षत्रियावुपेत्य वरयित्वोपाध्यायं चक्रतुः ॥ ८२ ॥ स कदाचिद् याज्यकार्येणाभिप्रस्थित
उत्तङ्कनामानं शिष्यं नियोजयामास ।। ८३ ॥ भो यत् किंचिदस्मद्गृहे परिहीयते | तदिच्छाम्यहमपरिहीयमानं भवता क्रियमाणमिति स एवं प्रतिसंदिश्योत्तङ्क वेदः | प्रवासं जगाम ।। ८४ ॥ _
__एक समयकी बात है-ब्रह्मवेत्ता आचार्य वेदके पास आकर 'जनमेजय और पोष्य' नामवाले दो क्षत्रियोंने उनका वरण किया और उन्हें अपना उपाध्याय बना लिया। तदनन्तर एक दिन उपाध्याय वेदने यजमानके कार्यसे बाहर जानेके लिये उद्यत हो उत्तंक नामवाले शिष्यको अग्निहोत्र आदिके कार्यमें नियुक्त किया और कहा–'वत्स उत्तंक! मेरे घरमें मेरे बिना जिस किसी वस्तुकी कमी हो जाय, उसकी पूर्ति तुम कर देना, ऐसी मेरी इच्छा है।' उत्तंकको ऐसा आदेश देकर आचार्य वेद बाहर चले गये ।। ८२-८४ ।।
अथोत्तकः शुश्रूषुर्गुरुनियोगमनुतिष्ठमानो गुरुकुले वसति स्म । स तत्र वसमान | उपाध्यायस्त्रीभिः सहिताभिराहूयोक्तः ।। ८५॥
उत्तंक गुरुकी आज्ञाका पालन करते हुए सेवापरायण हो गुरुके घरमें रहने लगे। वहाँ रहते समय उन्हें उपाध्यायके आश्रयमें रहनेवाली सब स्त्रियों ने मिलकर बुलाया और कहा -||८५ ॥
उपाध्यायानी ते ऋतुमती, उपाध्यायश्च प्रोषितोऽस्या यथायमतर्वन्ध्यो न भवति तथा क्रियतामेषा विषीदतीति ।। ८६॥
तुम्हारी गुरुपत्नी रजस्वला हुई हैं और उपाध्याय परदेश गये हैं। उनका यह ऋतुकाल जिस प्रकार निष्फल न हो, वैसा करो: इसके लिये गुरुपत्नी बड़ी चिन्तामें पड़ी हैं ।। ८६ ।।
एवमुक्तस्ताः स्त्रियः प्रत्युवाच न मया स्त्रीणां वचनादिदमकार्य करणीयम् । न ह्यहमुपाध्यायेन संदिष्टोऽकार्यमपि त्वया कार्यमिति ।। ८७॥
यह सुनकर उत्तंकने उत्तर दिया-'मैं स्त्रियोंके कहनेसे यह न करनेयोग्य निन्द्य कर्म नहीं कर सकता। उपाध्यायने मुझे ऐसी आज्ञा नहीं दी है कि 'तुम न करनेयोग्य कार्य भी कर डालना' ।। ८७ ॥
तस्य पुनरुपाध्यायः कालान्तरेण गृहमाजगाम तस्मात् प्रवासात् । स तु तद् वृत्तं तस्याशेषमुपलभ्य प्रीतिमानभूत् ।। ८८॥
इसके बाद कुछ काल बीतनेपर उपाध्याय वेद परदेशसे अपने घर लौट आये। आनेपर उन्हें उत्तंकका सारा वृत्तान्त मालूम हुआ, इससे वे बड़े प्रसन्न हुए ।। ८८ ।।
उवाच चैनं वत्सोत्तङ्क किं ते प्रियं करवाणीति । धर्मतो हि शुश्रूषितोऽस्मि भवता तेन प्रीतिः परस्परेण नौ संवृद्धा तदनुजाने भवन्तं सर्वानेव कामानवाप्स्यसि गम्यतामिति ।। ८९ ॥
और बोले-'बेटा उत्तंक! तुम्हारा कौन-सा प्रिय कार्य करूँ? तुमने धर्मपूर्वक मेरी सेवा की है। इससे हम दोनोंकी एक-दूसरेके प्रति प्रीति बहुत बढ़ गयी है। अब मैं तुम्हें घर लौटनेकी आज्ञा देता हूँ-जाओ, तुम्हारी सभी कामनाएँ पूर्ण होंगी' ।। ८९ ।।
स एवमुक्तः प्रत्युवाच किं ते प्रियं करवाणीति, एवमाहुः ।। ९०।।
गुरुके ऐसा कहनेपर उत्तंक बोले-'भगवन्! मैं आपका कौन-सा प्रिय कार्य करूँ? वृद्ध पुरुष कहते भी हैं ।। ९०॥
यश्चाधर्मेण वै ब्रूयाद्यश्चाधर्मेण पृच्छति। तयोरन्यतरः प्रैति विद्वेषं चाधिगच्छति ॥ ९१॥
जो अधर्मपूर्वक अध्यापन या उपदेश करता है अथवा जो अधर्मपूर्वक प्रश्न या अध्ययन करता है. उन दोनोंमेंसे एक (गुरु अथवा शिष्य) मृत्यु एवं विद्वेषको प्राप्त होता है ।। ९१ ।।
सोऽहमनुज्ञातो भवतेच्छामीष्टं गुर्वर्थमुपहर्तुमिति । तेनैवमुक्त उपाध्यायः प्रत्युवाच वत्सोत्तक उष्यतां तावदिति ।। ९२ ॥
अतः आपकी आज्ञा मिलनेपर मैं अभीष्ट गुरुदक्षिणा भेंट करना चाहता हूँ।' उत्तंकके ऐसा कहनेपर उपाध्याय बोले-'बेटा उत्तंक! तब कुछ दिन और यहीं ठहरो' ।। ९२ ।।।
0 Comments
If you have any Misunderstanding Please let me know