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महाभारत आदिपर्व द्वितीय अध्याय पर्वसंग्रहपर्व 02

 

 

वारणावतयात्रायां मन्त्रो दुर्योधनस्य च ।

कूटस्य धार्तराष्ट्रेण प्रेषणं पाण्डवान् प्रति ।। १०२ ।।

हितोपदेशश्च पथि धर्मराजस्य धीमतः।

विदुरेण कृतो यत्र हितार्थम्लेच्छभाषया ।। १०३ ॥

 

लाक्षागृहदाहपर्वमें पाण्डवोंकी वारणावत-यात्राके प्रसंगमें दुर्योधनके गुप्त षड्यन्त्रका वर्णन है। उसका पाण्डवोंके पास कूटनीतिज्ञ पुरोचनको भेजनेका भी प्रसंग है। मार्गमें | विदुरजीने बुद्धिमान् युधिष्ठिरके हितके लिये म्लेच्छभाषा में जो हितोपदेश किया, उसका भी वर्णन है ।। १०२-१०३ ॥

 

विदुरस्य च वाक्येन सुरङ्गोपक्रमक्रिया।

निषाद्याः पञ्चपुत्रायाः सुप्ताया जतुवेश्मनि ।। १०४ ।।

पुरोचनस्य चात्रैव दहनं सम्प्रकीर्तितम्।

पाण्डवानां वने घोरे हिडिम्बायाश्च दर्शनम् ।। १०५ ।।

तत्रैव च हिडिम्बस्य वधो भीमान्महाबलात् ।

घटोत्कचस्य चोत्पत्तिरत्रैव परिकीर्तिता ।। १०६ ।।

 

फिर विदुरकी बात मानकर सुरंग खुदवानेका कार्य आरम्भ किया गया। उसी लाक्षागहमें अपने पाँच पुत्रोंके साथ सोती हुई एक भीलनी और पुरोचन भी जल मरे–यह | सब कथा कही गयी है। हिडिम्बवधपर्वमें घोर वनके मार्गसे यात्रा करते समय पाण्डवोंको हिडिम्बाके दर्शन, महाबली भीमसेनके द्वारा हिडिम्बासुरके वध तथा घटोत्कचके जन्मकी कथा कही गयी है ।। १०४-१०६।।

 

महर्षेर्दर्शनं चैव व्यासस्यामिततेजसः ।

तदाजयकचक्रायां ब्राह्मणस्य निवेशने ।। १०७ ।।

अज्ञातचर्यया वासो यत्र तेषां प्रकीर्तितः।

बकस्य निधनं चैव नागराणां च विस्मयः ।। १०८।।

 

अमिततेजस्वी महर्षि व्यासका पाण्डवोंसे मिलना और उनकी आज्ञासे एकचक्रा नगरीमें ब्राह्मणके घर पाण्डवोंके गुप्त निवासका वर्णन है। वहीं रहते समय उन्होंने बकासुरका वध किया, जिससे नागरिकोंको बड़ा भारी आश्चर्य हुआ ।। १०७-१०८।।

 

सम्भवश्चैव कृष्णाया धृष्टद्युम्नस्य चैव ह।

ब्राह्मणात् समुपश्रुत्य व्यासवाक्यप्रचोदिताः ।। १०९ ।।

 

द्रौपदी प्रार्थयन्तस्ते स्वयंवरदिदृक्षया।

पञ्चालानभितो जग्मुर्यत्र कौतूहलान्विताः ॥११०॥

 

इसके अनन्तर कृष्णा (द्रौपदी) और उसके भाई धृष्टद्युम्नकी उत्पत्तिका वर्णन है। जब | पाण्डवोंको ब्राह्मणके मुखसे यह संवाद मिला. तब वे महर्षि व्यासकी आज्ञासे द्रौपदीकी प्राप्तिके लिये कौतूहलपूर्ण चित्तसे स्वयंवर देखने पांचालदेशकी ओर चल पड़े।। १०९-११०॥

 

अङ्गारपर्ण निर्जित्य गङ्गाकूलेऽर्जुनस्तदा।

सख्यं कृत्वा ततस्तेन तस्मादेव च शुश्रुवे ॥१११ ।।

तापत्यमथ वासिष्ठमौर्व चाख्यानमुत्तमम्।

भ्रातृभिः सहितः सर्वैः पञ्चालानभितो ययौ ।। ११२ ।।

पाञ्चालनगरे चापि लक्ष्य भित्त्वा धनंजयः।।

द्रौपदीं लब्धवानत्र मध्ये सर्वमहीक्षिताम् ।। ११३ ।।

भीमसेनार्जुनौ यत्र संरब्धान् पृथिवीपतीन् ।

शल्यकर्णी च तरसा जितवन्तौ महामृधे ।।११४ ।।

चैत्ररथपर्वमें गंगाके तटपर अर्जुनने अंगारपर्ण गन्धर्वको जीतकर उससे मित्रता कर ली और उसीके मुखसे तपती, वसिष्ठ और और्वके उत्तम आख्यान सुने। फिर अर्जुनने वहाँसे अपने सभी भाइयोंके साथ पांचालकी ओर यात्रा की। तदनन्तर अर्जुनने पांचालनगरके बड़े-बड़े राजाओंसे भरी सभामें लक्ष्यवेध करके द्रौपदीको प्राप्त किया-यह कथा भी इसी पर्वमें है। वहीं भीमसेन और अर्जुनने रणांगणमें युद्धके लिये संनद्ध क्रोधान्ध राजाओंको तथा शल्य और कर्णको भी अपने पराक्रमसे पराजित कर दिया ।। १११-११४ ।।

 

दृष्ट्वा तयोश्च तद्वीर्यमप्रमेयममानुषम्।

शङ्कमानी पाण्डवांस्तान् रामकृष्णौ महामती ।। ११५ ।।

जग्मतुस्तैः समागन्तुं शाला भार्गववेश्मनि ।

पञ्चानामेकपत्नीत्वे विमर्शो द्रुपदस्य च ।। ११६ ।।

 

महामति बलराम एवं भगवान् श्रीकृष्णने जब भीमसेन एवं अर्जुनके अपरिमित और अतिमानुष बल-वीर्यको देखा, तब उन्हें यह शंका हुई कि कहीं ये पाण्डव तो नहीं हैं। फिर | वे दोनों उनसे मिलनेके लिये कुम्हारके घर आये। इसके पश्चात् द्रुपदने 'पाँचों पाण्डवोंकी एक ही पत्नी कैसे हो सकती है। इस सम्बन्धमें विचार-विमर्श किया ।। ११५-११६ ।।

 

पञ्चेन्द्राणामुपाख्यानमत्रैवाद्भुतमुच्यते।

द्रौपद्या देवविहितो विवाहश्चाप्यमानुषः ॥ ११७ ॥

 

इसी वैवाहिकपर्वमें पाँच इन्द्रोंका अद्भुत उपाख्यान और द्रौपदीके देवविहित तथा मनुष्य-परम्पराके विपरीत विवाहका वर्णन हुआ है ।। ११७ ।।

 

क्षत्तुश्च धृतराष्ट्रेण प्रेषणं पाण्डवान् प्रति।

विदुरस्य च सम्प्राप्तिदर्शनं केशवस्य च ॥ ११८ ॥

 

इसके बाद धृतराष्ट्रने पाण्डवोंके पास विदुरजीको भेजा है. विदुरजी पाण्डवोंसे मिले हैं तथा उन्हें श्रीकृष्णका दर्शन हुआ है ।। ११८॥

 

खाण्डवप्रस्थवासश्च तथा राज्यार्धसर्जनम्।

नारदस्याज्ञया चैव द्रौपद्याः समयक्रिया ।। ११९ ।।

 

इसके पश्चात् धृतराष्ट्रका पाण्डवोंको आधा राज्य देना, इन्द्रप्रस्थमें पाण्डवोंका निवास करना एवं नारदजीकी आज्ञासे द्रौपदीके पास आने-जानेके सम्बन्धमें समय-निर्धारण आदि विषयोंका वर्णन है ।। ११९ ॥

 

सुन्दोपसुन्दयोस्तद्वदाख्यानं परिकीर्तितम्।

अनन्तरं च द्रौपद्या सहासीनं युधिष्ठिरम् ।। १२० ॥

अनुप्रविश्य विप्रार्थे फाल्गुनो गृह्य चायुधम् ।

मोक्षयित्वा गृहं गत्वा विप्रार्थ कृतनिश्चयः ॥ १२१ ।।

समयं पालयन् वीरो वनं यत्र जगाम ह।

पार्थस्य वनवासे च उलूप्या पथि संगमः ।।१२२ ॥

 

इसी प्रसंगमें सुन्द और उपसुन्दके उपाख्यानका भी वर्णन है। तदनन्तर एक दिन धर्मराज युधिष्ठिर द्रौपदीके साथ बैठे हुए थे। अर्जुनने ब्राह्मणके लिये नियम तोड़कर वहाँ प्रवेश किया और अपने आयुध लेकर ब्राह्मणकी वस्तु उसे प्राप्त करा दी और दढ़ निश्चय करके वीरताके साथ मर्यादापालनके लिये वनमें चले गये। इसी प्रसंगमें यह कथा भी कही गयी है कि वनवासके अवसरपर मार्गमें ही अर्जुन और उलूपीका मेल-मिलाप हो गया ।। १२०-१२२ ।।

 

पुण्यतीर्थानुसंयानं बभ्रुवाहनजन्म च ।

तत्रैव मोक्षयामास पञ्च सोऽप्सरसःशुभाः ।। १२३ ।।

शापाद् ग्राहत्वमापन्ना ब्राह्मणस्य तपस्विनः ।

प्रभासतीर्थे पार्थेन कृष्णस्य च समागमः ।। १२४ ।।

 

इसके बाद अर्जुनने पवित्र तीर्थोंकी यात्रा की है। इसी समय चित्रांगदाके गर्भसे बभ्रुवाहनका जन्म हुआ है और इसी यात्रामें उन्होंने पाँच शुभ अप्सराओंको मुक्तिदान किया, जो एक तपस्वी ब्राह्मणके शापसे ग्राह हो गयी थीं। फिर प्रभासतीर्थमें श्रीकृष्ण और अर्जुनके मिलनका वर्णन है ।। १२३-१२४ ॥

 

द्वारकायां सुभद्रा च कामयानेन कामिनी।

वासुदेवस्यानुमते प्राप्ता चैव किरीटिना ।। १२५ ।।

 

तत्पश्चात् यह बताया गया है कि द्वारकामें सुभद्रा और अर्जुन परस्पर एक-दूसरेपर आसक्त हो गये, उसके बाद श्रीकृष्णकी अनुमतिसे अर्जुनने सुभद्राको हर लिया ।। १२५ ।।

 

गहीत्वा हरणं प्राप्ते कृष्णे देवकिनन्दने।

अभिमन्योः सुभद्रायां जन्म चोत्तमतेजसः ।। १२६ ।।

 

तदनन्तर देवकीनन्दन भगवान् श्रीकृष्णके दहेज लेकर पाण्डवोंके पास पहुँचनेकी और सुभद्राके गर्भसे परम तेजस्वी वीर बालक अभिमन्युके जन्मकी कथा है ।। १२६ ।।

 

द्रौपद्यास्तनयानां च सम्भवोऽनुप्रकीर्तितः।

विहारार्थ च गतयोः कृष्णयोर्यमुनामनु ।। १२७ ।। सम्प्राप्तिश्चक्रधनुषोः खाण्डवस्य च दाहनम्।

मयस्य मोक्षो ज्वलनाद् भुजङ्गस्य च मोक्षणम् ।। १२८ ।।

 

इसके पश्चात् द्रौपदीके पुत्रोंकी उत्पत्तिकी कथा है। तदनन्तर जब श्रीकृष्ण और अर्जुन यमुनाजीके तटपर विहार करनेके लिये गये हुए थे, तब उन्हें जिस प्रकार चक्र और धनुषकी | प्राप्ति हुई. उसका वर्णन है। साथ ही खाण्डववनके दाह, मयदानवके छुटकारे और अग्निकाण्डसे सर्पके सर्वथा बच जानेका वर्णन हआ है ।। १२७-१२८ ।।

 

महर्षेन्दिपालस्य शाङ्गा तनयसम्भवः।

इत्येतदादिपर्वोक्तं प्रथमं बहुविस्तरम् ।। १२९ ॥

 

इसके बाद महर्षि मन्दपालका शाी पक्षीके गर्भसे पुत्र उत्पन्न करनेकी कथा है। इस प्रकार इस अत्यन्त विस्तृत आदिपर्वका सबसे प्रथम निरूपण हुआ है ।। १२९ ।।

 

अध्यायानां शते द्वे तु संख्याते परमर्षिणा।

सप्तविंशतिरध्याया व्यासेनोत्तमतेजसा ।। १३० ।।

 

परमर्षि एवं परम तेजस्वी महर्षि व्यासने इस पर्वमें दो सौ सत्ताईस (२२७) अध्यायोंकी रचना की है ।। १३०॥

 

अष्टौ श्लोकसहस्राणि अष्टौ श्लोकशतानि च ।

श्लोकाश्च चतुराशीतिर्मुनिनोक्ता महात्मना ।। १३१ ।।

 

महात्मा व्यास मुनिने इन दो सौ सत्ताईस (२२७) अध्यायोंमें आठ हजार आठ सी चौरासी (८.८८४) श्लोक कहे हैं ।। १३१ ।।

 

द्वितीयं तु सभापर्व बहुवृत्तान्तमुच्यते ।

सभाक्रिया पाण्डवानां किङ्कराणां च दर्शनम् ।। १३२ ।। लोकपालसभाख्यानं नारदाद् देवदर्शिनः ।

राजसूयस्य चारम्भो जरासन्धवधस्तथा ।। १३३ ।।

गिरिव्रजे निरुद्धानां राज्ञां कृष्णेन मोक्षणम्। त

था दिग्विजयोऽत्रैव पाण्डवानां प्रकीर्तितः ।। १३४ ।।

 

दूसरा सभापर्व है। इसमें बहुत-से वृत्तान्तोंका वर्णन है। पाण्डवोंका सभानिर्माण, किंकर नामक राक्षसोंका दीखना, देवर्षि नारदद्वारा लोकपालोंकी सभाका वर्णन, राजसूययज्ञका आरम्भ एवं जरासन्धवध, गिरिजजमें बंदी राजाओंका श्रीकृष्णके द्वारा छुड़ाया जाना और पाण्डवोंकी दिग्विजयका भी इसी सभापर्वमें वर्णन किया गया है ।। १३२-१३४ ॥

 

राज्ञामागमनं चैव सार्हणानां महाक्रतौ।

राजसूयेऽर्घसंवादे शिशुपालवधस्तथा ।। १३५ ।।

 

राजसूय महायज्ञमें उपहार ले-लेकर राजाओंके आगमन तथा पहले किसकी पूजा हो इस विषयको लेकर छिड़े हुए विवादमें शिशुपालके वधका प्रसंग भी इसी सभापर्वमें आया है।। १३५ ॥

 

यज्ञे विभूतिं तां दृष्ट्वा दुःखामर्षान्वितस्य च । दुर्योधनस्यावहासो भीमेन च सभातले ।। १३६ ।।

 

यज्ञमें पाण्डवोंका यह वैभव देखकर दुर्योधन दुःख और ईर्ष्यासे मन-ही-मनमें जलने लगा। इसी प्रसंगमें सभाभवनके सामने समतल भूमिपर भीमसेनने उसका उपहास किया ।। १३६॥

 

यत्रास्य मन्युरुद्भूतो येन द्यूतमकारयत्।

यत्र धर्मसुतं द्यूते शकुनिः कितवोऽजयत् ।। १३७ ।।

 

उसी उपहासके कारण दुर्योधनके हृदयमें क्रोधाग्नि जल उठी। जिसके कारण उसने | जूएके खेलका षड्यन्त्र रचा। इसी जूएमें कपटी शकुनिने धर्मपुत्र युधिष्ठिरको जीत लिया ।। १३७ ॥

 

यत्र द्यूतार्णवे मग्नां द्रौपदी नौरिवार्णवात ।

धृतराष्ट्रो महाप्राज्ञः स्नुषां परमदुःखिताम् ।। १३८ ।। तारयामास तांस्तीर्णान् ज्ञात्वा दुर्योधनो नृपः ।

पुनरेव ततो द्यूते समायत पाण्डवान् ।। १३९ ।।

 

जैसे समुद्रमें डूबी हुई नौकाको कोई फिरसे निकाल ले, वैसे ही द्यूतके समुद्रमें डूबी हुई परमदुःखिनी पुत्रवधू द्रौपदीको परम बुद्धिमान् धृतराष्ट्रने निकाल लिया। जब राजा दुर्योधनको जूएकी विपत्तिसे पाण्डवोंके बच जानेका समाचार मिला, तब उसने पुनः उन्हें (पितासे आग्रह करके) जूएके लिये बुलवाया ।। १३८-१३९ ।।

 

जित्वा स वनवासाय प्रेषयामास तांस्ततः।

एतत् सर्वं सभापर्व समाख्यातं महात्मना ।। १४० ।।

 

दुर्योधनने उन्हें जूएमें जीतकर वनवासके लिये भेज दिया। महर्षि व्यासने सभापर्वमें यही सब कथा कही है।। १४०॥

 

अध्यायाः सप्तति यास्तथा चाष्टौ प्रसंख्यया ।

श्लोकानां द्वे सहस्रे तु पञ्च श्लोकशतानि च ।। १४१ ।। श्लोकाश्चैकादश ज्ञेयाः पर्वण्यस्मिन् द्विजोत्तमाः ।

अतः परं तृतीयं तु ज्ञेयमारण्यकं महत् ।। १४२ ।।

 

श्रेष्ठ ब्राह्मणो! इस पर्वमें अध्यायोंकी संख्या अठहत्तर (७८) है और श्लोकोंकी संख्या दो हजार पाँच सौ ग्यारह (२,५११) बतायी गयी है। इसके पश्चात् महत्त्वपूर्ण वनपर्वका आरम्भ होता है।। १४१-१४२ ॥

 

वनवासं प्रयातेषु पाण्डवेषु महात्मसु ।

पौरानुगमनं चैव धर्मपुत्रस्य धीमतः ।। १४३ ॥

 

जिस समय महात्मा पाण्डव वनवासके लिये यात्रा कर रहे थे, उस समय बहुत-से पुरवासी लोग बुद्धिमान् धर्मराज युधिष्ठिरके पीछे-पीछे चलने लगे ।। १४३ ।।

 

अन्नौषधीनां च कृते पाण्डवेन महात्मना।

द्विजानां भरणार्थं च कृतमाराधनं रवेः ॥ १४४ ॥

 

महात्मा युधिष्ठिरने पहले अनुयायी ब्राह्मणोंके भरण-पोषणके लिये अन्न और ओषधियाँ प्राप्त करनेके उद्देश्यसे सूर्यभगवानकी आराधना की ।। १४४ ।।

 

धौम्योपदेशात् तिग्मांशुप्रसादादन्नसम्भवः।

हितं च ब्रुवतः क्षत्तुः परित्यागोऽम्बिकासुतात् ।। १४५ ।।

त्यक्तस्य पाण्डुपुत्राणां समीपगमनं तथा।

पुनरागमनं चैव धृतराष्ट्रस्य शासनात् ।। १४६ ।। कर्णप्रोत्साहनाच्चैव धार्तराष्ट्रस्य दुर्मतेः ।

वनस्थान् पाण्डवान् हन्तुं मन्त्रों दुर्योधनस्य च ।। १४७ ।।

 

महर्षि धौम्यके उपदेशसे उन्हें सूर्यभगवान्की कृपा प्राप्त हुई और अक्षय अन्नका पात्र मिला। उधर विदुरजी धृतराष्ट्रको हितकारी उपदेश कर रहे थे, परंतु धतराष्ट्रने उनका परित्याग कर दिया। धृतराष्ट्रके परित्यागपर विदुरजी पाण्डवोंके पास चले गये और फिर धृतराष्ट्रका आदेश प्राप्त होनेपर उनके पास लौट आये। धृतराष्ट्रनन्दन दुर्मति दुर्योधनने कर्णके प्रोत्साहनसे वनवासी पाण्डवोको मार डालनेका विचार किया ।। १४५-१४७ ।।

 

तं दुष्टभावं विज्ञाय व्यासस्यागमनं द्रुतम् ।

निर्याणप्रतिषेधश्च सुरभ्याख्यानमेव च ॥ १४८ ॥

 

दुर्योधनके इस दूषित भावको जानकर महर्षि व्यास झटपट वहाँ आ पहुँचे और उन्होंने दुर्योधनकी यात्राका निषेध कर दिया। इसी प्रसंगमें सुरभिका आख्यान भी है ।। १४८ ।।

 

मैत्रेयागमनं चात्र राज्ञश्चैवानुशासनम।

शापोत्सर्गश्च तेनैव राज्ञो दुर्योधनस्य च ।। १४९ ।।

 

 

मैत्रेय ऋषिने आकर राजा धृतराष्ट्रको उपदेश किया और उन्होंने ही राजा दुर्योधनको शाप दे दिया ।। १४९ ।।

 

किर्मीरस्य वधश्चात्र भीमसेनेन संयुगे।

वृष्णीनामागमश्चात्र पञ्चालानां च सर्वशः ।। १५० ।।

 

इसी पर्वमें यह कथा है कि युद्धमें भीमसेनने किर्मीरको मार डाला। पाण्डवोंके पास वृष्णिवंशी और पांचाल आये। पाण्डवोंने उन सबके साथ वार्तालाप किया ।। १५० ।।

 

श्रुत्वा शकुनिना द्यूते निकृत्या निर्जितांश्च तान् । कुद्धस्यानुप्रशमनं हरेश्चैव किरीटिना ।। १५१॥

 

जब श्रीकृष्णने यह सुना कि शकुनिने जुएमें पाण्डवोंको कपटसे हरा दिया है. तब वे अत्यन्त क्रोधित हुए; परंतु अर्जुनने हाथ जोड़कर उन्हें शान्त किया ।। १५१ ।।

 

 परिदेवनं च पाञ्चाल्या वासुदेवस्य संनिधौ।

आश्वासनं च कृष्णेन दुःखार्तायाः प्रकीर्तितम् ।। १५२ ।।

 

द्रौपदी श्रीकृष्णके पास बहुत रोयी-कलपी। श्रीकृष्णने दुःखार्त द्रौपदीको आश्वासन दिया। यह सब कथा वनपर्वमें है । १५२ ॥

 

तथा सौभवधाख्यानमत्रैवोक्तं महर्षिणा।

सुभद्रायाः सपुत्रायाः कृष्णेनद्वारकां पुरीम् ।।१५३ ।।

नयनं द्रौपदेयानां धृष्टद्युम्नेन चैव ह।

प्रवेशः पाण्डवेयानां रम्ये द्वैतवने ततः ॥१५४ ।।

 

इसी पर्वमें महर्षि व्यासने सौभवधकी कथा कही है। श्रीकृष्ण सुभद्राको पुत्रसहित द्वारकामें ले गये। धृष्टद्युम्न द्रौपदीके पुत्रोंको अपने साथ लिवा ले गये। तदनन्तर पाण्डवोंने परम रमणीय द्वैतवनमें प्रवेश किया ।। १५३-१५४ ॥

 

धर्मराजस्य चात्रैव संवादः कृष्णया सह।

संवादश्च तथा राज्ञा भीमस्यापि प्रकीर्तितः ।।१५५ ।।

 

इसी पर्वमें युधिष्ठिर एवं द्रौपदीका संवाद तथा युधिष्ठिर और भीमसेनके संवादका भलीभाँति वर्णन किया गया है ।। १५५ ।।

 

समीपं पाण्डुपुत्राणां व्यासस्यागमनं तथा ।

प्रतिस्मृत्याथ विद्याया दानं राज्ञो महर्षिणा ।। १५६ ।।

 

महर्षि व्यास पाण्डवोंके पास आये और उन्होंने राजा युधिष्ठिरको प्रतिस्मृति नामक मन्त्रविद्याका उपदेश दिया ।। १५६ ॥

 

गमनं काम्यके चापि व्यासे प्रतिगते ततः।

अस्त्रहेतोर्विवासश्च पार्थस्यामिततेजसः ॥१५७॥

 

व्यासजीके चले जानेपर पाण्डवोंने काम्यकवनकी यात्रा की। इसके बाद अमिततेजस्वी अर्जुन अस्त्र प्राप्त करनेके लिये अपने भाइयोंसे अलग चले गये ।। १५७ ।।

 

महादेवेन युद्धं च किरातवपुषा सह।

दर्शनं लोकपालानामस्त्रप्राप्तिस्तथैव च ।। १५८ ।।

 

वहीं किरातवेशधारी महादेवजीके साथ अर्जुनका युद्ध हुआ, लोकपालोंके दर्शन हुए और अस्त्रकी प्राप्ति हुई ।।१५८॥

 

महेन्द्रलोकगमनमस्त्रार्थे च किरीटिनः।

यत्र चिन्ता समुत्पन्ना धृतराष्ट्रस्य भूयसी ।। १५९ ।। __

 

इसके बाद अर्जुन अस्त्रके लिये इन्द्रलोकमें गये यह सुनकर धृतराष्ट्रको बड़ी चिन्ता हुई ।। १५९ ।।

 

दर्शनं बृहदश्वस्य महर्षे वितात्मनः।

युधिष्ठिरस्य चार्तस्य व्यसनं परिदेवनम् ।। १६० ।।

 

इसके बाद धर्मराज युधिष्ठिरको शुद्धहृदय महर्षि बृहदश्वका दर्शन हुआ। युधिष्ठिरने आर्त होकर उन्हें अपनी दुःखगाथा सुनायी और विलाप किया ।। १६० ।।

 

नलोपाख्यानमत्रैव धर्मिष्ठं करुणोदयम्।

दमयन्त्याः स्थितिर्यत्र नलस्य चरितं तथा ।। १६१ ।।

 

इसी प्रसंगमें नलोपाख्यान आता है, जिसमें धर्मनिष्ठाका अनुपम आदर्श है और जिसे पढ़-सुनकर हृदयमें करुणाकी धारा बहने लगती है। दमयन्तीका दढ़ धैर्य और नलका चरित्र यहीं पढ़नेको मिलते हैं ।। १६१॥

 

तथाक्षहृदयप्राप्तिस्तस्मादेव महर्षितः।

लोमशस्यागमस्तत्र स्वर्गात् पाण्डुसुतान् प्रति ।। १६२ ।।

वनवासगतानां च पाण्डवानां महात्मनाम् ।

स्वर्गे प्रवृत्तिराख्याता लोमशेनार्जुनस्य वै ।। १६३ ।।

 

उन्हीं महर्षिसे पाण्डवोंको अक्षहृदय (जूएके रहस्य)-की प्राप्ति हुई। यहीं स्वर्गसे महर्षि लोमश पाण्डवोंके पास पधारे। लोमशने ही वनवासी महात्मा पाण्डवोंको यह बात बतलायी कि अर्जुन स्वर्गमें किस प्रकार अस्त्र-विद्या सीख रहे हैं ।। १६२-१६३ ।।

 

संदेशादर्जुनस्यात्र तीर्थाभिगमनक्रिया।

तीर्थानां च फलप्राप्तिः पुण्यत्वं चापि कीर्तितम् ।। १६४ ।।

 

इसी पर्वमें अर्जुनका संदेश पाकर पाण्डवोंने तीर्थयात्रा की। उन्हें तीर्थयात्राका फल प्राप्त हुआ और कौन तीर्थ कितने पुण्यप्रद होते है इस बातका वर्णन हुआ है ।। १६४ ।।

 

पुलस्त्यतीर्थयात्रा च नारदेन महर्षिणा।

तीर्थयात्रा च तत्रैव पाण्डवानां महात्मनाम् ।। १६५ ॥

कर्णस्य परिमोक्षोऽत्र कुण्डलाभ्यां पुरन्दरात् ।

तथा यज्ञविभूतिश्च गयस्यात्र प्रकीर्तिता ।।१६६ ॥

 

इसके बाद महर्षि नारदने पुलस्त्यतीर्थकी यात्रा करनेकी प्रेरणा दी और महात्मा पाण्डवोंने वहॉकी यात्रा की। यहीं इन्द्रके द्वारा कर्णको कुण्डलोंसे वंचित करनेका तथा राजा गयके यज्ञवैभवका वर्णन किया गया है ।। १६५-१६६ ।।

 

आगस्त्यमपि चाख्यानं यत्र वातापिभक्षणम्। लोपामुद्राभिगमनमपत्यार्थमषेस्तथा ।। १६७ ।। -

 

इसके बाद अगस्त्य-चरित्र है. जिसमें उनके वातापिभक्षण तथा संतानके लिये लोपामुद्राके साथ समागमका वर्णन है ।। १६७ ॥

 

ऋष्यशृङ्गस्य चरितं कौमारब्रह्मचारिणः।

जामदग्न्यस्य रामस्य चरितं भूरितेजसः ।।१६८।।

 

इसके पश्चात् कौमार ब्रह्मचारी ऋष्यशृंगका चरित्र है। फिर परम तेजस्वी जमदग्निनन्दन परशुरामका चरित्र है।। १६८॥

 

कार्तवीर्यवधो यत्र हैहयानां च वर्ण्यते ।

प्रभासतीर्थे पाण्डूनां वृष्णिभिश्च समागमः ।। १६९ ।।

 

इसी चरित्र में कार्तवीर्य अर्जुन तथा हैहयवंशी राजाओंके वधका वर्णन किया गया है। प्रभासतीर्थमें पाण्डवों एवं यादवोंके मिलनेकी कथा भी इसीमें है ।। १६९ ।।

 

सीकन्यमपि चाख्यानं च्यवनो यत्र भार्गवः।

शर्यातियज्ञे नासत्यौ कृतवान् सोमपीतिनौ ।।१७० ।।

 

इसके बाद सुकन्याका उपाख्यान है। इसी में यह कथा है कि भगुनन्दन च्यवनने शर्यातिके यज्ञमें अश्विनीकुमारोंको सोमपानका अधिकारी बना दिया ।। १७० ।।

 

ताभ्यां च यत्र स मुनियौवनं प्रतिपादितः। मान्धातुश्चाप्युपाख्यानं राज्ञोऽत्रैव प्रकीर्तितम् ।। १७१ ।।

 

उन्हीं दोनोंने च्यवन मुनिको बूढ़ेसे जवान बना दिया। राजा मान्धाताकी कथा भी इसी | पर्वमें कही गयी है ।। १७१।।

 

जन्तूपाख्यानमत्रैव यत्र पुत्रेण सोमकः।

पुत्रार्थमयजाजा लेभे पुत्रशतं च सः ।। १७२ ।।

 

यहीं जन्तूपाख्यान है। इसमें राजा सोमकने बहुत-से पुत्र प्राप्त करनेके लिये एक पुत्रसे | यजन किया और उसके फलस्वरूप सौ पुत्र प्राप्त किये ।। १७२ ।।

 

ततः श्येनकपोतीयमुपाख्यानमनुत्तमम् ।

इन्द्राग्नी यत्र धर्मस्य जिज्ञासार्थ शिबिं नृपम् ।। १७३ ।।

 

इसके बाद श्येन (बाज) और कपोत (कबूतर)-का सर्वोत्तम उपाख्यान है। इसमें इन्द्र और अग्नि राजा शिबिके धर्मकी परीक्षा लेनेके लिये आये हैं ।। १७३ ।।

 

अष्टावक्रीयमत्रैव विवादो यत्र बन्दिना।

अष्टावक्रस्य विप्रर्जनकस्याध्वरेऽभवत् ।। १७४ ।।

नैयायिकानां मुख्येन वरुणस्यात्मजेन च।

पराजितो यत्र बन्दी विवादेन महात्मना ।।१७५॥

विजित्य सागरं प्राप्तं पितरं लब्धवानृषिः ।

यवक्रीतस्य चाख्यानं रैभ्यस्य च महात्मनः ।

गन्धमादनयात्रा च वासो नारायणाश्रमे ।। १७६ ।।

 

इसी पर्वमें अष्टावक्रका चरित्र भी है। जिसमें बन्दीके साथ जनकके यज्ञमें ब्रह्मर्षि अष्टावक्रके शास्त्रार्थका वर्णन है। वह बन्दी वरुणका पुत्र था और नैयायिकोंमें प्रधान था। उसे महात्मा अष्टावक्रने वाद-विवादमें पराजित कर दिया। महर्षि अष्टावक्रने बन्दीको हराकर समुद्रमें डाले हुए अपने पिताको प्राप्त कर लिया। इसके बाद यवक्रीत और महात्मा रैभ्यका उपाख्यान है। तदनन्तर पाण्डवोंकी गन्धमादनयात्रा और नारायणाश्रममें निवासका वर्णन है ।। १७४-१७६॥

 

नियुक्तो भीमसेनश्च द्रौपद्या गन्धमादने।

व्रजन् पथि महाबाहुर्दृष्टवान् पवनात्मजम् ।। १७७ ।।

कदलीखण्डमध्यस्थं हनूमन्तं महाबलम् ।

यत्र सौगन्धिकार्थेऽसौ नलिनी तामधर्षयत् ।। १७८ ।।

 

द्रौपदीने सौगन्धिक कमल लानेके लिये भीमसेनको गन्धमादन पर्वतपर भेजा। यात्रा करते समय महाबाहु भीमसेनने मार्गमें कदलीवनमें महाबली पवननन्दन श्रीहनुमानजीका दर्शन किया। यहीं सौगन्धिक कमलके लिये भीमसेनने सरोवरमें घुसकर उसे मथ डाला ।। १७७-१७८ ॥

 

यत्रास्य युद्धमभवत् सुमहद् राक्षसैः सह ।

यक्षैश्चैव महावीर्यैर्मणिमत्प्रमुखैस्तथा ।। १७९ ॥

 

वहीं भीमसेनका राक्षसों एवं महाशक्तिशाली मणिमान् आदि यक्षोंके साथ घमासान युद्ध हुआ ।। १७९ ॥

 

जटासुरस्य च वधो राक्षसस्य वृकोदरात् ।

वृषपर्वणश्च राजर्षस्ततोऽभिगमनं स्मृतम् ।। १८०।।

आर्टिषेणाश्रमे चैषां गमनं वास एव च।

प्रोत्साहनं च पाञ्चाल्या भीमस्यात्र महात्मनः ।। १८१ ।।

कैलासारोहणं प्रोक्तं यत्र यक्षैलोत्कटैः ।

युद्धमासीन्महाघोरं मणिमत्प्रमुखैः सह ।। १८२ ॥

 

तत्पश्चात् भीमसेनके द्वारा जटासुर राक्षसका वध हुआ। फिर पाण्डव क्रमशः राजर्षि वृषपर्वा और आर्टिषेणके आश्रमपर गये और वहीं रहने लगे। यहीं द्रौपदी महात्मा भीमसेनको प्रोत्साहित करती रही। भीमसेन कैलासपर्वतपर चढ़ गये। यहीं अपनी शक्तिके नशेमें चूर मणिमान् आदि यक्षोंके साथ उनका अत्यन्त घोर युद्ध हुआ ।। १८०-१८२ ।।

 

समागमश्च पाण्डूनां यत्र वैश्रवणेन च ।

समागमश्चार्जुनस्य तत्रैव भ्रातृभिः सह ।। २८३ ।।

 

यहीं पाण्डवोंका कुबेरके साथ समागम हुआ। इसी स्थानपर अर्जुन आकर अपने भाइयोंसे मिले ।। १८३ ॥

 

अवाप्य दिव्यान्यस्त्राणि गुर्वर्थ सव्यसाचिना। निवातकवचैर्युद्धं हिरण्यपुरवासिभिः ।। १८४ ।।

 

इधर सव्यसाची अर्जुनने अपने बड़े भाईके लिये दिव्य अस्त्र प्राप्त कर लिये और हिरण्यपुरवासी निवातकवच दानवोंके साथ उनका घोर युद्ध हुआ ।। १८४ ।।

 

निवातकवचैरिनिवैः सुरशत्रुभिः।

पौलोमैः कालकेयैश्च यत्र युद्ध किरीटिनः ॥ १८५ ॥

वधश्चैषां समाख्यातों राज्ञस्तेनैव धीमता।

अस्त्रसंदर्शनारम्भो धर्मराजस्य संनिधौ ।। १८६ ।।

 

 

वहाँ देवताओंके शत्रु भयंकर दानव निवातकवच, पौलोम और कालकेयोंके साथ अर्जुनने जैसा युद्ध किया और जिस प्रकार उन सबका वध हुआ था, वह सब बुद्धिमान् अर्जुनने स्वयं राजा युधिष्ठिरको सुनाया। इसके बाद अर्जुनने धर्मराज युधिष्ठिरके पास अपने अस्त्र-शस्त्रोंका प्रदर्शन करना चाहा ।। १८५-१८६॥

 

पार्थस्य प्रतिषेधश्च नारदेन सुरर्षिणा।।

अवरोहणं पुनश्चैव पाण्ड्रनां गन्धमादनात् ।।१८७॥

 

इसी समय देवर्षि नारदने आकर अर्जुनको अस्त्र-प्रदर्शनसे रोक दिया। अब पाण्डव गन्धमादन पर्वतसे नीचे उतरने लगे। १८७॥

 

भीमस्य ग्रहणं चात्र पर्वताभोगवर्मणा।

भुजगेन्द्रेण बलिना तस्मिन् सुगहने वने ।। १८८ ॥

 

फिर एक बीहड़ वनमें पर्वतके समान विशाल शरीरधारी बलवान् अजगरने भीमसेनको पकड़ लिया ।। १८८ ।।

 

अमोक्षयद्यत्र चैनं प्रश्नानुक्त्वा युधिष्ठिरः ।

काम्यकागमनं चैव पुनस्तेषां महात्मनाम् ।। १८९ ।।

 

धर्मराज युधिष्ठिरने अजगर-वेशधारी नहुषके प्रश्नोंका उत्तर देकर भीमसेनको छुड़ा लिया। इसके बाद महानुभाव पाण्डव पुनः काम्यकवनमें आये ।। १८९ ।।

 

तत्रस्थांश्च पुनर्द्रष्टुं पाण्डवान् पुरुषर्षभान्। वासुदेवस्यागमनमत्रैव परिकीर्तितम् ।।१९० ॥

 

जब नरपुंगव पाण्डव काम्यकवनमें निवास करने लगे, तब उनसे मिलनेके लिये वसुदेवनन्दन श्रीकृष्ण उनके पास आये-यह कथा इसी प्रसंगमें कही गयी है ।। १९० ।।

 

मार्कण्डेयसमास्यायामुपाख्यानानि सर्वशः।

पृथोर्वेन्यस्य यत्रोक्तमाख्यानं परमर्षिणा ।। १९१ ।।

 

पाण्डवोंका महामुनि मार्कण्डेयके साथ समागम हुआ। वहाँ महर्षिने बहुत-से उपाख्यान सुनाये। उनमें वेनपुत्र पथका भी उपाख्यान है।। १९१ ।।

 

संवादश्च सरस्वत्यास्तायर्षः सुमहात्मनः । मत्स्योपाख्यानमत्रैव प्रोच्यते तदनन्तरम् ।। १९२ ।।

 

इसी प्रसंगमें प्रसिद्ध महात्मा महर्षि तार्क्ष्य और सरस्वतीका संवाद है। तदनन्तर मत्स्योपाख्यान भी कहा गया है। १९२ ॥

 

मार्कण्डेयसमास्या च पुराणं परिकीर्त्यते ।

ऐन्द्रद्युम्नमुपाख्यानं धौन्धुमारं तथैव च ।। १९३ ।।

 

 

इसी मार्कण्डेय-समागममें पुराणोंकी अनेक कथाएँ, राजा इन्द्रद्युम्नका उपाख्यान तथा धुन्धुमारकी कथा भी है ।। १९३ ।।

 

पतिव्रतायाश्चाख्यानं तथैवाङ्गिरसं स्मृतम् ।

द्रौपद्याः कीर्तितश्चात्र संवादः सत्यभामया ॥ १९४ ।।

 

पतिव्रताका और आंगिरसका उपाख्यान भी इसी प्रसंगमें है। द्रौपदीका सत्यभामाके साथ संवाद भी इसीमें है ।। १९४ ॥

 

पुनद्वैतवनं चैव पाण्डवाः समुपागताः ।

घोषयात्रा च गन्धर्वैर्यत्र बद्धः सुयोधनः ॥१९५ ।।

 

तदनन्तर धर्मात्मा पाण्डव पुनः द्वैतवनमें आये। कौरवोंने घोषयात्रा की और गन्धर्वोने दुर्योधनको बन्दी बना लिया ।। १९५ ।।

 

ह्रियमाणस्तु मन्दात्मा मोक्षितोऽसौ किरीटिना।

धर्मराजस्य चात्रैव मृगस्वप्ननिदर्शनम् ।। १९६ ।।

 

वे मन्दमति दुर्योधनको कैद करके लिये जा रहे थे कि अर्जुनने युद्ध करके उसे छुड़ा लिया। इसके बाद धर्मराज युधिष्ठिरको स्वप्नमें हरिणके दर्शन हुए ।। १९६ ।।

 

काम्यके कानन श्रेष्ठे पुनर्गमनमुच्यते। व्रीहिद्रौणिकमाख्यानमत्रैव बहुविस्तरम् ।। १९७ ॥

 

इसके पश्चात् पाण्डवगण काम्यक नामक श्रेष्ठ वनमें फिरसे गये। इसी प्रसंगमें अत्यन्त | विस्तारके साथ व्रीहिद्रौणिक उपाख्यान भी कहा गया है ।। १९७ ।।

 

दुर्वाससोऽप्युपाख्यानमत्रैव परिकीर्तितम्।

जयद्रथेनापहारो द्रौपद्याश्चाश्रमान्तरात् ।।१९८ ॥

 

इसीमें दुर्वासाजीका उपाख्यान और जयद्रथके द्वारा आश्रमसे द्रौपदीके हरणकी कथा भी कही गयी है ।। १९८ ॥

 

यौनमन्वयाद् भीमो वायुवेगसमो जवे।

चक्रे चैनं पञ्चशिखं यत्र भीमो महाबलः ।। १९९ ।।

 

उस समय महाबली भयंकर भीमसेनने वायुवेगसे दौड़कर उसका पीछा किया था तथा जयद्रथके सिरके सारे बाल मुंडकर उसमें पाँच चोटियाँ रख दी थीं ।। १९९ ।।

 

रामायणमुपाख्यानमत्रैव बहुविस्तरम् ।

यत्र रामेण विक्रम्य निहतो रावणो युधि ।। २०० ।।

 

वनपर्वमें बड़े ही विस्तारके साथ रामायणका उपाख्यान है, जिसमें भगवान् श्रीरामचन्द्रजीने युद्धभूमिमें अपने पराक्रमसे रावणका वध किया है ।। २०० ।।

 

सावियाश्चाप्युपाख्यानमत्रैव परिकीर्तितम् ।

कर्णस्य परिमोक्षोऽत्र कुण्डलाभ्यां पुरन्दरात् ।। २०१ ।।

इसके बाद ही सावित्रीका उपाख्यान और इन्द्रके द्वारा कर्णको कुण्डलोंसे वंचित कर देनेकी कथा है ।। २०१ ।।

 

यत्रास्य शक्तिं तुष्टोऽसावदादेकवधाय च ।

आरणेयमुपाख्यानं यत्र धर्मोऽन्वशात् सुतम् ।। २०२ ।।।

 

इसी प्रसंगमें इन्द्रने प्रसन्न होकर कर्णको एक शक्ति दी थी, जिससे कोई भी एक वीर मारा जा सकता था। इसके बाद है आरणेय उपाख्यान, जिसमें धर्मराजने अपने पुत्र युधिष्ठिरको शिक्षा दी है।। २०२।।

 

जग्मुर्लब्धवरा यत्र पाण्डवाः पश्चिमां दिशम् ।

एतदारण्यकं पर्व तृतीयं परिकीर्तितम् ।। २०३ ।।

 

अत्राध्यायशते द्वे तु संख्यया परिकीर्तिते।

एकोनसप्ततिश्चैव तथाध्यायाः प्रकीर्तिताः ।। २०४ ।।

 

और उनसे वरदान प्राप्तकर पाण्डवोंने पश्चिम दिशाकी यात्रा की। यह तीसरे वनपर्वकी | सूची कही गयी। इस पर्वमें गिनकर दो सौ उनहत्तर (२६९) अध्याय कहे गये हैं ।। २०३-२०४ ॥

 

एकादशसहस्राणि श्लोकानां षट् शतानि च । चतुःषष्टिस्तथाश्लोकाः पर्वण्यस्मिन् प्रकीर्तिताः ।। २०५ ।।

 

ग्यारह हजार छ: सौ चौंसठ (११.६६४) श्लोक इस पर्वमें हैं ।। २०५ ।।

 

अतः परं निबोधेदं वैराटं पर्व विस्तरम् ।

विराटनगरे गत्वा श्मशाने विपुलां शमीम् ।। २०६ ।।

दृष्ट्वा संनिदधुस्तत्र पाण्डवा ह्यायुधान्युत ।

यत्र प्रविश्य नगरं छद्मना न्यवसंस्तु ते ॥२०७॥

 

इसके बाद विराटपर्वकी विस्तृत सूची सुनो। पाण्डवोंने विराटनगरमें जाकर श्मशानके पास एक विशाल शमीका वृक्ष देखा। उसीपर उन्होंने अपने सारे अस्त्र-शस्त्र रख दिये। तदनन्तर उन्होंने नगरमें प्रवेश किया और छद्मवेशमें वहाँ निवास करने लगे ।। २०६-२०७॥

 

पाञ्चाली प्रार्थयानस्य कामोपहतचेतसः ।

दुष्टात्मनो वधो यत्र कीचकस्य वकोदरात् ।। २०८ ।।

 

कीचक स्वभावसे ही दुष्ट था। द्रौपदीको देखते ही उसका मन कामबाणसे घायल हो गया। वह द्रौपदीके पीछे पड़ गया। इसी अपराधसे भीमसेनने उसे मार डाला। यह कथा इसी पर्वमें है ।। २०८ ॥

 

पाण्डवान्वेषणार्थं च राज्ञो दुर्योधनस्य च ।

चाराः प्रस्थापिताश्चात्र निपुणाः सर्वतोदिशम् ।। २०९ ।।

 

राजा दुर्योधनने पाण्डवोका पता चलानेके लिये बहुत-से निपुण गुप्तचर सब ओर भेजे ।। २०९ ।।

 

न च प्रवृत्तिस्तैर्लब्धा पाण्डवानां महात्मनाम् ।

गोग्रहश्च विराटस्य त्रिगर्तेः प्रथमं कृतः ।। २१०॥

 

परंतु उन्हें महात्मा पाण्डवोंकी गतिविधिका कोई हालचाल न मिला। इन्हीं दिनों त्रिगतॊने राजा विराटकी गौओंका प्रथम बार अपहरण कर लिया ।। २१०।।

 

यत्रास्य युद्धं सुमहत् तैरासील्लोमहर्षणम्।

ह्रियमाणश्च यत्रासौ भीमसेनेन मोक्षितः॥२११॥

 

राजा विराटने त्रिगतोंके साथ रोंगटे खड़े कर देनेवाला घमासान युद्ध किया। त्रिगर्त विराटको पकड़कर लिये जा रहे थे: किंतु भीमसेनने उन्हें छुड़ा लिया ।। २११ ।।

 

गोधनं च विराटस्य मोक्षितं यत्र पाण्डवैः।

अनन्तरं च कुरुभिस्तस्य गोग्रहणं कृतम् ।। २१२ ॥

 

साथ ही पाण्डवोंने उनके गोधनको भी त्रिगतॊसे छुड़ा लिया। इसके बाद ही कौरवोंने विराटनगरपर चढ़ाई करके उनकी (उत्तर दिशाकी) गायोंको लूटना प्रारम्भ कर दिया ।। २१२ ॥

 

समस्ता यत्र पार्थेन निर्जिताः कुरवो युधि।

प्रत्याहृतं गोधनं च विक्रमेण किरीटिना ॥२१३ ।।

 

इसी अवसरपर किरीटधारी अर्जुन ने अपना पराक्रम प्रकट करके संग्रामभूमिमें सम्पूर्ण । कौरवोंको पराजित कर दिया और विराटके गोधनको लौटा लिया ।। २१३ ।।

 

विराटेनोत्तरा दत्ता स्नुषा यत्र किरीटिनः।

अभिमन्युं समुद्दिश्य सौभद्रमरिघातिनम् ।।२१४ ।।

 

(पाण्डवोंके पहचाने जानेपर) राजा विराटने अपनी पुत्री उत्तरा शत्रुघाती सुभद्रानन्दन अभिमन्युसे विवाह करनेके लिये पुत्रवधूके रूपमें अर्जुनको दे दी ।। २१४ ।।

 

चतुर्थमेतद् विपुलं वैराटं पर्व वर्णितम् ।

अत्रापि परिसंख्याता अध्यायाः परमर्षिणा ।। २१५ ।।

सप्तषष्टिरथो पूर्णा श्लोकानामपि मे शृणु।

श्लोकानां द्वे सहस्रे तु श्लोकाः पञ्चाशदेव तु ।। २१६ ।।

उक्तानि वेदविदुषा पर्वण्यस्मिन् महर्षिणा।

उद्योगपर्व विज्ञेयं पञ्चमं शृण्वतः परम् ।। २१७ ॥

 

इस प्रकार इस चौथे विराटपर्वकी सूचीका विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया। परमर्षि व्यासजी महाराजने इस पर्वमें गिनकर सड़सठ (६७) अध्याय रखे हैं। अब तुम मुझसे श्लोकोंकी संख्या सुनो। इस पर्वमें दो हजार पचास (२,०५०) श्लोक वेदवेत्ता महर्षि वेदव्यासने कहे हैं। इसके बाद पाँचवाँ उद्योगपर्व समझना चाहिये। अब तुम उसकी विषयसूची सुनो ।। २१५–२१७ ।।

 

उपप्लव्ये निविष्टेषु पाण्डवेषु जिगीषया।

दुर्योधनोऽर्जुनश्चैव वासुदेवमुपस्थितौ ।। २१८ ॥

 

जब पाण्डव उपप्लव्यनगरमें रहने लगे, तब दुर्योधन और अर्जुन विजयकी आकांक्षासे भगवान् श्रीकृष्णके पास उपस्थित हुए।। २१८॥

 

साहाय्यमस्मिन् समरे भवान् नौ कर्तुमर्हति।

इत्युक्ते वचने कृष्णो यत्रोवाच महामतिः ॥ २१९ ॥

 

दोनोंने ही भगवान श्रीकृष्णसे प्रार्थना की कि 'आप इस यद्धमें हमारी सहायता कीजिये।' इसपर महामना श्रीकृष्णने कहा- ।।२१९ ।।

 

अयुध्यमानमात्मानं मन्त्रिणं पुरुषर्षभौ।

अक्षौहिणीं वा सैन्यस्य कस्य किं वा ददाम्यहम् ।। २२० ।।

 

 'दुर्योधन और अर्जुन! तुम दोनों ही श्रेष्ठ पुरुष हो। मैं स्वयं युद्ध न करके एकका मन्त्री बन जाऊँगा और दूसरेको एक अक्षौहिणी सेना दे दूँगा। अब तुम्हीं दोनों निश्चय करो कि किसे क्या दूँ? ।। २२० ॥




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