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स्वप्नविज्ञावतंत्र 2

स्वप्नविज्ञावतंत्र 2

 अब अन्य प्रकार का श्रेष्ठ मंत्र बतलाया जा रहा है जिसे ब्रह्मवैवर्त पुराण मे कहा गया है । यह सद्यः फलदायक ओर अनुभवसिद्ध यानी प्रतीतिकारक है । ॐ हीं श्री क्ली, आदि मंत्र हे । पवित्र होकर मात्र दस बार जप करने से दुष्ट स्वप्न नही दिखते । सौ लाख (एक करोड) जप करने से मनुष्यों को यह मंत्र सिद्ध हो जाता है । जिसको यह मंत्र सिद्ध हो जाता है वह सभी वांछिति कार्यों को सिद्ध कर लेता है । 

अथापरः स्वप्नप्रदो मृत्युज्जयमन्त्र :- 

 गुतुज्जयाय स्वाहया // ”“ इमं मन्त्रं दशलक्षं जपित्वा मन्त्रसिद्धिः । 

दृष्ट्वा च मरणं स्वप्ने शतायुश्च भवेन्नरः । 

पूर्वोत्तरमुखो भूत्वा स्वप्नं प्राज्ञे प्रकाशयेत्‌ ।। ४१।। 

इति नानामन्त्रशास्त्राण्यालोङ्य स्वप्नमन्त्रकम्‌ । 

कत्वैकत्र कृतो ग्रन्थो लोकानां हितकाम्यया ।।४२।। 

"कलौ चतुर्गुणं प्रोक्तं" महर्षीणामिदं वचः । 

स्मृत्वा नरस्तथा कूर्याद्‌ विश्वस्तः फलकर्मणि ।।४२।। 

नाविश्वस्तस्य सिद्धिः स्यादित्युषीणो मतं मतम्‌ ।।४४।। 

स्वणफल को कहने वाले दूसरे मन्त्र मत्युज्जयमन्त्र को कह रहे है -- 


ॐ मृत्युञ्जयाय स्वाहा" मन्त्र का दशलाख जप करने से सिद्धि होती है । स्वन मे अपनी मृत्यु को देखकर व्यक्ति शतायु होता है ।पूर्व ओर उत्तर (ईशान) मुख होकर स्वप का निवेदन बुद्धिमान्‌ से करना चाहिए । यह नाना प्रकार के मन्त्र शास्त्र का आलोडन कर मन्त्रो को प्रकाशित करने वाला लोक कल्याण हेतु ग्रन्थ लिखा गया है । कलियुग मे कथित जप संख्या का चतुर्गुणित अधिक जप करने से सिद्धि होती है ऐसा महर्षियो का कहना है । अतः इसका विश्वास कर मन्त्रसिद्धि कसे से फल मिलता है ।अविश्वासी को मन्त्रसिद्धि होती ही नही--शंसयात्मा विनश्यति । ऐसा ऋषियों का निश्चित मत है । इस प्रथम कल्लोल में स्वणनफल विधायक तेरह मत्र दिये गये है । 


इति ज्योतिर्विच्छीधरसंगृहीतस्वणकमलाकरे । 

दैविकस्वणप्रकरणकथनं नाम प्रथमः कल्लोलः ।।१।। 


द्वितीयः कल्लोलः 



(स्वप्न कमलाकर के प्रथम कल्लोल मे स्वप्नसिद्धि के विविध मंत्र और उनकी प्रक्रिया का प्रति-पादन किया गया है । इन म॑त्रो के माध्यम से भूत-भविष्य-वर्तमान तीनों प्रकार के स्वप्नों का रहस्य जाना जा सकता है । द्वितीय कल्लोल में स्वप्न की प्रकृति और उसका कारण वर्णित है । इस कल्लोल में मात्र शुभस्वप्नो का ही फल कहा गया है ।) 



स्वपफलद्रष्टु्योग्यता :- 


अथ नानाविधान्‌ ग्रन्थान्‌ समालोच्यावलोङ्य च । 

अस्मिन्‌ द्वितीये कल्लोले शुभस्वपफलं ब्रुवे ।।१।। 


यस्य चित्तं स्थिरीभूतं समाधातुश्च यो नरः । 

तत्प्रार्थितं च बहुशः स्वप्ने कार्य प्रद्श्यते ।।२।। 


अनुक्रम प्राप्त द्वितीय कल्लोल में अनेक प्रकार के ग्रन्थों की समीक्षा कर तथा उनका आलोकन कर शुभस्वप्नों के शुभफल को कह रहा हू । जिस मनुष्य का चित्त स्थिर है तथा जिस मनुष्य का शरीर समधातु (वात-कफ-पित्त ओर कफ रूप त्रिधातु) यानी वात-पित्त ओर कफ की मात्रा संतुलित है । (स्वस्थ्य व्यक्ति में धातु सम होता है ।) उसके वारा इच्छित या प्रार्थित स्वप्न प्रायशः कार्य की सूचना दे देता है। आशय यह है कि स्वप्न में दैवी आदेश उसी व्यक्ति को मिलता है जिसकी चित्तवृत्ति ओर शरीर दोनों ही स्वस्थ हो । 

स्वकारणम्‌ :- 


स्वप्नप्रदा नव॒ भुवि भावाः पुंसा भवन्ति हि । 

श्रुतं. तथानुभूतं च दृष्टं तत्सदृशं तथा ।।३।। 

चिन्ता च प्रकृतिश्चैव विकृतिश्च तथा भवेत्‌ । 

देवाः पुण्यानि पापानीत्येवं जगतीतले ।।४।। 


मनुष्य के फल को प्रदर्शित करने वाले नौ भाव पृथ्वी पर प्रसिद्ध है, जेसे--(१) श्रुत (सुना हमा)२. अनुभूत (अनुभव किया हुआ) २. दुष्ट (देखा हआ) ४. चिन्ता (मानसिक हन्द से उभरी हई) ५. प्रकूति (स्वभाव के कारण उत्पन्न) &. विकृति (ज मूल का विलोम हो) ७. देव देवता से प्रित या दुष्ट) ८.पुण्य (जप, तप, धर्मादि से दष्ट) ९. षाप (हत्या, षड्यन्त्र एवं अपराध के कारण दुष्ट)। इन्ही नौ भावो के अनुरूप किसी भी मनुष्य को स्वपन दिखलाई पडते है । 


१२ स्वप्नकमलाकरः 



तन्मध्य आद्यं षट्कं तु शिवं वाशिवमप्यथ । 

अन्त्यं त्रिकं तथा नृणामचिरात्फलदर्शकम्‌ ।।५।। 

प्रासेन पुरूषेणेहावश्यं ज्ञेयः स्वचेतसि । 

स्वप्नो विचार्यस्तस्यार्थस्तथा चैकाग्रचेतसा ।।६।। 

इनमें से प्रारम्भ के ६: संख्या तक के स्वभाव शुभ या अशुभ दोनों प्रकार के फल देते है । अंतिम तीन स्वप्नभाव मनुष्यों के लिए यथाशीघ्र फलदायक होते है । बुद्धिमान्‌ मनुष्य को एकाग्र चित्त होकर अपने मन में दष्ट स्वप्न ओर उसके भविष्यत्‌ अर्थं को गंभीरतापूर्वक अवश्य विचारना चाहिए । 

व्यर्थस्वपः-- 

रतेहसिाच्च शोकाच्च भयान्मूत्रपुरीषयोः । 

प्रणष्टवस्तुचिन्तातो जातः स्वप्नो वृथा भवेत्‌ ।।७।। 

रति (भेथुन), हास्य, शोक, भय, मलमूत्र ओर प्रणष्ट (चोरी गयी वस्तु की चिन्ता से उत्पन स्वप्न व्यर्थं चला जाता है ; अर्थात्‌ उस समय स्वप्न का कोई तात्विक अर्थ नही रहता । 

धातुक्षोभजनितस्वप्मफलम्‌ :- 

कफप्लुतशरीरस्तु पश्येद्‌ बहुजलाशयान्‌ । 

नद्यः प्रभूतसलिला नलिनानि सरांसि च ।।८।। 

जिस शरीर में कफ की अधिकता हो वह स्वर्ण में जलाशयो को देखता है । प्रभूत (अधिक) जल वाली नदियों तथा कमल से युक्त सरोवर को देखता है। 


स्फटिक रचितं सौधं तथा श्वेतं च गहरम्‌ । 

तारागणं च चन्द्रं च तोयदानां च मण्डलम्‌ ।।९।। 

रसाश्च मधुरान्‌ दिव्यान्‌ फलानि विविधानि च । 

आज्यं यज्ञोपकरणं यज्ञमण्डपमुत्तमम्‌ ।। १0०।। 

कफाधिक्य से युक्त शरीर को स्फटिक के बने भव्य भवन, उज्ज्वल गुफाये, तारागण, चन्रमा ओर मेघो की प॑कितयौ दिखलाई देती है । अनेक प्रकार के मधुर रस, दिव्य विविध प्रकार के फल, घृत, यज्ञ की सामग्री तथा उत्तम यज्ञमण्डप दिखलाई पड़ता है । 

शुभलङ्कारशालिन्यः पृथुलस्तनमण्डलाः । 

सुलोचनाः पीनशक्िथपरिशोभितमध्यमाः ।।११।। 

श्वेतवस्त्ैः श्वेतामाल्यैर्विकासन्त्यश्च योषितः । 

पित्तप्रक्तिको यश्च॒ सोऽग्निमिद्धं प्रपश्यति ।।१२।। 



स्वप्कमलाकरः १३ 



(कफ प्रकृति वाले पुरूष को शुभ अलंकारो से युक्त गृहिणि दिखती है; जिनके स्तनमण्डल प्रशस्त होते है । वे सुन्दर ओंखो वाली होती है ओर उनके भरपूर मांसल जांघे होते है एवं सुन्दर कटिभाग से जो सुशोभित हो रही हो व दिखलाई देती है ।) अपने श्वेत वस्त्रों ओर श्वेत मालाओं से प्रकाश फलाती महिलाये दिखलाई पडती है । पित्त प्रकृति वाला शरीर (व्यक्त) प्रज्वलित अग्नि देखता हे । 

विद्युल्लतायाश्च तेजस्तथा पीतां वसुन्धराम्‌ । 

निशितानि च शस्त्राणि दिशो दावानलार्दिताः ।।१२।। 

फूल्लास्त्वशोकतरवो गांगेय चापि निर्मलम्‌ । 

किञ्च प्ररूढकोपः संघातपातादिकाः क्रियाः ।।१४।। 

विद्युल्लता (आकाशीय तथा कूत्रिम) का तेज तथा पीली पृथ्वी, अत्यन्त तीण शस्त्र, दवानल से व्याप्त दिशायै (पित्त प्रकूति वालं को) दिखलाई पडती है। प्रफुल्ल अशोक के वृक्ष, गङ्गा से सम्बन्धित निर्मल भूमि, तयदि अथवा क्रोध से आविष्ट तथा संघात (चोट चपेट) के कारण स्वयं को ऊँचाई से गिरना दिखलाई देता है; पित्त प्रधान व्यक्ति को । 

करोत्यात्मैवेति पश्येज्जलं चापि पिबेद्‌ बहु । 

वातप्रकृतिको यश्च॒ स परश्ये्तुङ्गरोहणम्‌ ।। १५।। 

तुङ्गदहूमाश्च विविधान्‌ पवनेन प्रकम्पितान्‌ । 

वेगगामितुरदगाश्च  पञ्षिभिर्गमनं स्वयम्‌ ।।१६।। 

बहुत मात्रा में जल का .पीना, जल देखना, पित्त प्रक्ति वाला व्यक्ति स्वप्न में देखता है । जो वात प्रकृति वाला व्यक्ति होता है वह स्वयं को ऊंचे स्थल पर चढ़ता हुआ देखता है । उच्च विविध वृक्षों को हवा से प्रकम्पित होता देखता है । वेगशाली घोड़ो को देखता है तथा पक्षियो के साथ स्वयं का गमन (उड्ना) देखता है । 

उच्वसौधान्‌ विवादं च कलहं च॒ तथात्मनः । 

आरोहणं च डयनमिति प्रकृतितो भवेत्‌ ।। १७।। 

स्वप्नमिष्टं च दुष्ट्वा यः पुनः स्वपिति मानवः । 

तदुत्यनं शुभफलं स॒ नाप्नोतीति निश्चितम्‌ ।।१८।। 

स्वप्न में ऊँचा भवन, कलह,अपने से सम्बन्धित विवाद, (शिखरो पर) चदन, उडना आदि पितत प्रति के कारण दिखलाई देता है । अभीष्ट स्वप्न को देखकर जो व्यकित पुनः सो जाता है तो दुष्ट स्व का फल उसे प्राप्त नही होता । ऐसा निश्चित मत है । 

१४ स्वप्नकमलाकरः 



अतो दष्ट्वा शुभस्वप्नं सुधिया मानवेन वै । 

सूर्यसंस्तवनैरनेयावशिष्टा रजनी पुनः ।।१९।। 

देवानां च गुरूणां च पूजनानि विधाय सः । 

शभाोर्नमस्क्रियो कूर्यात्‌ प्रार्थयेच्च शुभं प्रति ।।२०।। 

अतः बुद्धिमान्‌ मनुष्य को निश्चित रूप से शुभस्वप्न देखने के बाद शेष रात्रि जागरण पूर्वक तथा सूर्य संस्तवन पूर्वक व्यतीत करनी चाहिए । शुभस्वप्न देखने के पश्चात्‌ उस व्यक्ति को देवताओं तथा गुरूजनो की पूजा करनी चाहिए। भगवान्‌ शिव को विधिवत्‌ प्रणाम कर शुभ फल की प्राप्ति हेतु प्रार्थना करनी चाहिए। 

ततस्तु स्थविराग्रे वै कथयेत्‌ स्वप्नमुत्तमम्‌ । 

दृष्ट्वा पूर्वमनिष्टं तु पश्चाच्च शुभमेव चेत्‌ ।।२१।। 

यः पश्येत्‌ स पुमोस्तस्मात्‌ शुभस्वणफलं भजेत्‌ । 

अनिष्टं प्रथमं दृष्ट्वा तत्यश्चात्स॒ स्वपेत्पुमान्‌ ।।२२।। 

इसके बाद उत्तम स्वप्नो को वृद्ध व्यकितयो के सामने निवेदित करे । पहले अनिष्टकारी स्वप्न को देखकर बाद मे शुभस्वप्न को यदि देखता है तो वह व्यक्ति शुभस्वप्न के ही फल को प्राप्त करता है; अशुभ का नहीं । यदि अनिष्ट स्वप्न पहले दिखलाई पड़े तो व्यक्ति को दुबारा सो जाना चाहिए । 

रात्रौ वा कथयेदन्यं ततो नाप्नोति तत्फलम्‌ । 

अथवा प्रातरुत्थाय नमस्कृत्य महेश्वरम्‌ ।।२३।। 

तुलस्या अग्रतः प्रच्य प्रप्युयात्‌ न हि तत्फलम्‌ । 

देवानां च गुरूणां च स्मृतिर्दुःस्वप्ननाशिनी ।।२४।। 

अथवा अशुभ स्वप्न को रात्रि को ही किसी दूसरे व्यक्ति से कह .देना चाहिये । ऐसा करने के बाद उसका अशुभ फल नहीं मिलता । तुलसी के पौधे के आगे स्वप्न को कहने से अशुभ फल नहीं मिलता। देवताओं ओर गुरुओं का स्मरण दुःस्वप्न का नाशक होता है । 

तस्माद्रत्रौ स्वापकाले विष्णुं कृष्णं रमापतिम्‌ । 

अगस्ति माधवं चैव॒ मुचुकुन्दं महामुनिम्‌ ।। २५।। 

कपिलं चास्तिकमुनिं स्मृत्वा स्वस्थः सुधीर्जनः। 

शयीत तेन दुःस्वप्नं न कदाचित्प्रपश्यति ।। २६।। 

इसीलिए रात्रि मे सोते समय भगवान्‌ विष्णु, कृष्ण; लक्ष्मीपति, अगस्त ऋषि, माधव, महामुनि मुचुकन्द, कपिल मुनि, आस्तिक मुनि प्रभृति का स्मरण करना चाहिए । इनका स्मरण कर स्वस्थ बुद्धिमान्‌ व्यक्ति शयन करें तो इसके प्रभाव से कभी भी दुःस्वप्न नही देखता । 

शुभस्वपफलम्‌ :- । 

स्वप्नमध्ये पुमान्‌ यश्च सिंहाश्वगजधेनुजैः । 

युक्तं रथं समारोहेत्‌ स॒ भवेत्‌ पृथवीपतिः ।। २७।। 

श्वेतेन दक्षिणकरे फणिना दृष्यते च यः । 

पंचरात्रे भवेत्तस्य धनं दशसहस्रकम्‌ ।। २८।। 

स्वप्न में जो व्यक्ति अपने को सिंह, घोड़ा, हाथी, बेल से युक्त रथ पर चढ़ा हुआ देखता है वह राजत्व को प्राप्त करता है । जिस व्यक्ति के दक्षिण हाथ में सर्प काटता है वह पांच रात्रि के अन्दर दश हजार धन प्राप्त करता है । 

{ यहौ दशसहस्नकम्‌ उपलक्षण है जिसका अर्थं है विपुल धन ) 

मस्तकं यस्य वै स्वप्ने यश्च स्वप्नेऽथ मानवः । 

स॒ च राज्यं समाप्नोति च्छिद्यते वा छिनत्ति वा ।।२९।। 

लिङ्गच्छेदे च पुरूषो योषिद्धनमवाप्नुयात्‌ । 

योनिच्छेदे कामिनी च पुरूषाद्धनमाप्नुयात्‌ ।।२०।। 

जो मनुष्य स्वप्न मे मस्तक काटे या जिसका मस्तक काटा जाये वे दोनो ही राज्य प्राप्त करते है । स्वपन मे यदि पुरूष लिङ्गा को कटता देखे तो वह स्त्रीधन प्राप्त करता है । यदि स्त्री योनि भंग देखे तो पुरूष धन (या पुरूष से धन) प्राप्त करती है । 

छिन्ना भवेदस्य जिह्ा स्वपे स ॒पुरूषोऽचिरात्‌ । 

क्षत्रियः सार्वभौमत्वमितरो मण्डलेशताम्‌ ।।२१।। 

श्वेतदन्तिनमारूह्य नदीतीरे च यः पुमान्‌ । 

शाल्योदनं प्रभुङ्क्ते वे स॒ भुङ्क्ते निखिलां महीम्‌ ।।२२।। 

जिस व्यक्ति की स्व मे जिह कट जाये तो वह पुरूष (यदि) क्षत्रिय है शीघ्र ही सार्वभौमराजत्व को प्रत करता है । क्षत्रिय से इतर वर्णं का व्यक्ति मण्डलेशा बनता है (छिनजिहा के दर्शन से) । उजले हाथी पर चढ्कर जो व्यक्ति नदीतट पर दूध भात खाता है वह समग्र पृथवी का भोग करता है अर्थात्‌ राजत्व प्राप्त करता है । 

सूर्याचन्द्रमसार्बिम्बं समग्रं ग्रसते च यः । 

स प्रसह्य प्रभुङ्क्ते वै सकलां सार्णवां महीम्‌ ।।३३।। 

यः स्वदेहोत्थितं मांसं परदेहोत्थितं च वा । 

स्वप्ने प्रभुङ्क्ते मनुजः स साम्राज्यं समश्नुते ।।३४।। 


जो व्यक्ति स्वप्न में सूर्य ओर चन्द्रमा का संपूर्णं विम्ब ग्रस लेता है वह बल पूर्वक समुद्र सहित समग्र पृथ्वी का भोग करता है । जो व्यक्ति स्वप्न में अपने शरीर का मांस अथवा दूसरे के शरीर का मांस खाता है वह साम्राज्य को संप्राप्त करता है । 

प्रासाद शृङ्गमासादयास्वाद्य चान्नं स्वलंकृतम्‌ । 

अगाधेऽम्भसि यस्तीर्यात्स भवेत्‌ पृथिवीपतिः ।। २५।। 

छर्दिं पुरीषमथवा यः स्वदेन्न विमानयेत्‌ । 

राज्यं प्राप्नोति स पुमानत्र नास्त्येव संशयः ।।२६।। 

राजभवन के उच्च शर्ग (चौरी) पर चढ़ कर जो व्यक्ति उत्तम पक्वान्न को खाता है अथवा जो व्यक्ति स्वप्न में अगाध जल मे तैरता दिखलाई देता है वह पुथिवीपति यानि राजा होता है, स्वप्न मे जो व्यक्ति वमन ओर विष्ठा को स्वाद लेकर खाता है, उसकी अभक्ष्य मानकर अवज्ञा नही करता वह व्यक्ति राज्य को प्राप्त करता है । इसमे संदेह का अवसर नही है । 

मूत्रं रेतः शोणितं च स्वप्ने खादति यो नरः । 

तैरङ्गाभ्यज्जनं यश्च करुते धनवान्‌ हि सः ।।३७।। 

नलिनीदलशय्याया निषण्णः पायसाशनम्‌ । 

यः करोति नरः सोऽत्र प्राज्यं राज्यं समश्नुते ।।२८।। 

जो व्यक्ति स्वप्न में मूत्र, रेत (वीर्य या रज) एवं रक्त को खाता है तथा शरीर के अंगो मे उबटन या तेल लगाता है वह धनवान्‌ होता है । कमल के पत्रों पर बैठकर जो व्यक्ति खीर को खाता है वह प्रकृष्ट एवं विशाल राज्य को प्राप्त करता है । 

फलानि च प्रसूनानि यः खादति च पश्यति । 

स्वपे तस्याङ्गणे लक्मीर्लुटत्यव न संशयः ।।३९।। 

यः स्वप्ने चापसंयोगः बाणस्य करुते सुधीः । 

सर्वं शत्रुबलं हन्यात्तस्य राज्यमकण्टकम्‌ ।।४0।। 

स्वप्न मे जो व्यक्ति फलो ओर फूलो को खाता है या देखता है उसके ओँगन में लक्ष्मी लोटती हैँ ।इसमे संदेह नही करना चहिए । स्वप्न में जो व्यक्ति धनुष की डोरी पर बाण का संधान करता है वह अपने शत्रुओं को मारकर निष्कंटक राज्य प्राप्त करता है । 

स्वप्ने परस्य योऽसूयां वधं बन्धनमेव च । 

यः करोति पुमान्‌ लोके धनवान्‌ जायते तु सः ।।४१।। 

स्वप्ने यस्य जयो वै स्याद्विपृणां च पराजयः । ` 

स॒ चक्रवर्तीं राजा स्यादत्र नास्त्येव संशयः ।।४२।। 

जो दूसरे से द्वेष करता है, बध या बन्धन करता है वह धनवान्‌ होता है । स्वप्न में जीत हो व शत्रु की हार तो निश्चय ही व्यक्ति चक्रवर्तीं राजा बनता है । 

रौप्ये वा काञ्चने पात्रे पायसं यः स्वदेन्नरः । 

तस्य स्यात्‌ पार्थिवपदं वृक्षे शैलेऽथवा स्थिरः ।।४३।। 

शैलग्रामवनैर्युक्तां भुजाभ्यां यो मही तरेत्‌ । 

अचिरेणैव कालेन स स्याद्राजेति निश्चितम्‌ ।।४४।।

 

चौदी या सोने के पात्र मे जो व्यक्ति खीर का आस्वाद लेता है वह राज्यत्व को प्राप्त करता है। ठीक यही फल (राज्यत्व) वृक्ष या पर्वत पर स्वप्न मे चढने का होता है । पर्वत-जंगल से युक्त पृथ्वी को अपनी भुजाओं से तैरकर जो व्यक्ति पार करता है वह शीघ्र ही राज्यत्व को प्राप्त करता है । 

यः शैलशृङ्गमारूद्योत्तरति श्रममन्तरा । 

स॒ सर्वकूतकृत्यः सन्‌ पुनरायाति वेश्मनि ।।४५।। 

विषं पीत्वा मृतिं गच्छेत्‌ स्वप्ने यः पुरुषोत्तमः । 

स भोगैर्बहुभिर्युक्तः क्लेशाद्‌ रोगाद्‌ विमुच्यते ।।४६।। 

जो व्यक्ति पर्वत के शिखरो पर चदकर विना परिश्रम के उतर आता हे वह सभी कार्यों को सम्पन्न कर सकुशल घर लौट आता है । स्वप्न मे जो व्यक्ति विष पीकर मर जाता है वह उत्तम पुरुष अनेक प्रकार के भोतिक सुखो से युक्त तथा क्लेश ओर रोग से मुक्त होता है । 

यः कूकूमेनरक्ताङ्गः स्वपे सोद्वाहमीक्षते । 

जगन्मध्ये धनैरधान्येर्युक्तः सुखमवाप्नुयात्‌ ।। ४७।। 

यः शोणितस्य नद्यां वै स्नायाद्रक्तं पिबेच्च वा । 

यस्याङ्गादरधिरस्रावो धनवान्‌ स॒ भवेद्‌ भ्रुवम्‌ ।।४८।। 

स्वप्न में जो व्यक्ति कुंकुम (रोली) से शरीर रंग कर अपना विवाह देखता है बह संसार में धनधान्य से परिपूर्णं होकर सुख प्राप्त करता है । जो व्यक्ति स्वप्न मे खून की नदी मँ स्नान करता है या खून पीता है, अथवा जिसके अंग से खून बहता है वह निश्चित ही धनी होता है । 

यः स्वप्नेऽन्यशिरश्न्द्याद्यस्य वाछिद्यते शिरः । 

स॒ सहस्रधनं प्राप्य विविधं सुखमश्नुते ।।४९।। 

जिह्ाया यस्य वै स्वप्ने यश्च वान्यस्य लेखयेत्‌ । 

विद्या तस्य प्रसन्ना स्याद्राजा भवति धार्मिकः ।। ५01 । 

जो व्यक्ति स्वप्न मे दूसरे का सिर काट देता है अथवा उसका सिर कोई दूसरा काटता है वह एक हजार स्वर्ण मद्रा प्राप्त कर सुख पूर्वक रहता है । स्वप्न में जिसकी जिह्वा पर कोई लिखे या स्वयं वह व्यक्ति किसी की जिह्वा पर लिखे उसके ऊपर सरस्वती प्रसन्न होती है तथा वह धार्मिक राजा बनता है । 

नारी या पौरुषं रूपं नरः स्त्रीरूपमप्यथ । 

पश्येत्स्वस्यैव चेत्स्वप्ने द्वयोः स्यात्प्रीतिरुत्तमा ।।५१।। 

आरूह्योन्मत्तकरिणं पुरुषं वा प्रजागुयात्‌ । 

विभीयान्न च यः स्वप्नेऽतुलं तस्य भवेद्धनम्‌ ।।५२।। 

यदि कोई व्यक्ति स्वप्न मे अपना ही स्वरूप स्त्री रूप में देखे या कोई स्त्री अपने को पुरुष रूप में देखे तो उन दोनों में परस्पर उत्तम प्रेम बढ़ता है । यदि कोई पुरुष अपने को उन्मत्त हाथी पर स्वप्न में चढ़ा हुआ देखे ओर जाग जाए साथ ही वह डरे नहीं तो उसके पास अतुल सम्पत्ति होती है । 

अश्वारूढः क्षीरपानं जलपानमथापि वा । 

स्वप्ने कूर्यात्‌ यः पुमोश्व स राजा भवति धुवम्‌ ।।५३।। 

स्वपे राजा भवेद्यश्च यश्च चौरो भवेत्पुनः । 

पुनः स्वामी भवेत्‌ यश्च॒ स राजा स्यादसंशयः ।।५४।। 

जो पुरुष स्वप्न मे घोडे पर चढकर दूध पीये या घोडे पर चढ़ा हुआ ` जलपान करे वह सुनिश्चित ही राजा होता है । जो पुरुष स्वप्न में पहले राजा बने पुनः चोर बने, बाद में चोर हो कर स्वामी बन जाये वह निश्चय हीराजा या राजतुल्य होता है । 

मूत्रैः पुरीषैर्लिप्ताङ्गः श्मशाननिलयो नरः । 

खादेन्मूत्रं पुरीषं च॒ स भवेत्पृथिवीपतिः ॥।५५।। 

गौरानडत्समायुक्तं यानमारूहय यो नरः । 

उदीचीमथवा प्राचीं दिशं गच्छेत्स भूपतिः ।।५६।। 

जो पुरुष स्वप्न मे अपने अङ्गो मे मूत्र या विष्ठा लिपटा हुआ देखता है अथवा श्मशान मे अपना घर देखता है या मूत्र ओर विष्ठा को पीता-खाता देखे तो वह राजा होता है । सफेद वैल से जुते हुए यान (गाड़ी) पर चढ़ कर जो पुरुष उत्तर दिशा या पूर्व दिशा की ओर जाता है वह राजा बनता है । 

स्वप्नमध्ये यस्य देहः कशैर्विरहितो भवेत्‌ । 

तमथो नरशार्दूलं लक्ष्मीरायाति दासीवत्‌ ।। ५७।। 

स्वप्नमध्ये स्वस्य गेहं पातयित्वा पुनर्नवम्‌ । 

निबध्नाति पुमास्तस्य व्यसनं लयमाप्नुयात्‌ ।।५८।। 


जो पुरूष स्वप्न के बीच में अपने शरीर को बाल रहित देखता है उस पुरूष व्याघ्र को निश्चित ही दासी की तरह लक्ष्मी घर में आती है । स्वप्न के बीच मे जो व्यक्ति अपना पुराना घर ढहाकर नया घर बनाता है उस पुरूष के सारे व्यसन (रोग) नष्ट हो जाते है । 

स्वपे यो नीलवर्णां गां धनुर्वा पादरक्षणम्‌ । 

प्रापनुयात्स प्रवासादै सत्वरं स्वगृहं विशेत्‌ ।।५९।। 

अपानद्वारतो यश्च॒ जलपानं करोति वै । 

स्वप्ने तस्य धनधान्यं विपुलं जायते ध्रुवम्‌ ।। ६0।। 

जो व्यक्ति स्वप्न मे नीले रग की गाय अथवा धनुष या जूता प्राप्त करता है वह विदेश जाकर शीघ्र घर लोट आता है । जो पुरूष स्वप्न मे अपानमार्ग (गुदामार्ग) से जलपान करता है उसको निश्चित विपुल धन धान्य 

की प्राप्ति होती हे। 

अपादमस्तकं यश्च॒ निगडैर्बध्यते नरः । 

पुत्ररत्नं प्रपश्येत्स धरुवं तत्र॒ न संशयः ।।६१।। 

यो ग्रामं नगरं वापि स्वप्ने यो वेष्टयेन्नरः । 

मंडलाधिपतिः स स्याद्ग्राममुख्योऽथवा भवेत्‌ ।।६२।। 

स्वप्न मे जो व्यक्ति पैर से मस्तक तक बेदियो मे बंधा जाता है वह निशिचित रूप से पुत्ररत्न को प्राप्त करता है । इसमे सन्देह नही है । जो व्यक्ति स्वप्न मे गांव या नगर को घेरता (आक्रमण करता) है वहमण्डलाधिपति या ग्राम प्रमुख होता है । 

निम्नायामथ भूम्यां यः पतित्वा पुनरुत्पतेत्‌ । 

बुद्धिस्तस्य प्रसन्ना स्याद्धनं धान्यं समश्नुते ।।६३।। 

यस्योत्सङ्गः फलै्धन्यैः प्रसूनैर्वापि पूर्यते । 

तस्य लक्ष्मीः प्रतिदिनं वृद्धिमेव समाप्नुयात्‌ ।।६४।। 

जो व्यक्ति स्वप्न में खाई में गिर कर पुनः उठ खड़ा होता है उसकी बुद्धि निर्मल होती है ओर धन धान्य को प्राप्त करता है । स्वप्न में जिसकी गोद फल या फूल से भर जाती है उसकी लक्ष्मी प्रतिदिन वृद्धि को ही प्राप्त करती है । 

स्वप्ने यं मक्षिका दंशा मशकाश्चापि मत्कृणाः। 

खादन्ति वा वेष्टयन्ति स स्त्रीमाप्नोत्यनुत्तमाम्‌ ।।६५।। 

यः स्वपे शोकसंतप्तः सरितः कमलानि च । 

आरामान्पर्वताश्चैव पश्येच्छोकात्‌ स मुच्यते ।।६६।। 

स्वप्न में जिस पुरूष को मक्खी, मच्छर या खटमल काटते है या चारो तरफ से घेर लेते है वह व्यक्ति सर्वगुण सम्पन पत्नी को प्राप्त करता है । जो व्यक्ति स्वप्न मे शोक से ग्रस्त होकर नदी, कमल, उद्यान या पर्वत को देखता है वह शोक से मुक्त हो जाता है । 

फलं. पीतं तथा पुष्यं रक्तं वा यस्य दीयते । 

सुवर्णलाभस्तस्य स्यात्पद्मरागं च वा लभेत्‌ ।। ६७।। 

स्वपे यः कमलामूर्तिं शुद्धवस्त्रां प्रपश्यति । 

लक्ष्मीः सरस्वती वाथ प्रसन्ना तस्य जायते ।।६८।। 

जो पुरूष स्वप मे पीलाफल, लाल फूल, जिसको देता है उसको सुवर्ण लाभ होता है अथवा पद्मरागमणि को पाता है, जो स्वप्न मे श्वेत वस्त्र धारिणी लक्ष्मी को देखता है उसके ऊपर लक्ष्मी या सरस्वती प्रसन्न होती है । 

शुभ्रागरागवसनैः परिभूषितविग्रहा। 

आलिङ्छाति च यं नारी तस्य श्रीविश्वतोमुखी ।।६९।। 

श्रोत्रयोः कण्डलयुगं मुक्ताहारो गले तथा । 

मस्तके मुकय यस्य स राजा भवति रुवम्‌ ।।७0।। 

शुभ्र लेप एवं वस्त्र से समुन्नति विग्रह वाली नारी जिसका आलिंगन करती है उसकी लक्ष्मी विश्वतोमुखी होती है यानि वह विश्व के धनिको मे गिना जाता है। जो स्वप्न मे दोनो कानों मे कुण्डल तथा गले मे मोती की माला एवं मस्तक पर मुकुट देखता है वह निश्चय ही राजा बनता है । 

स्वप्ने यस्य भवेच्छोको परिदेवयते च यः । 

रोदिति म्रियते यश्च तस्य स्यात्सर्वतः सुखम्‌ ।।७१।। 

गृहांगणे यस्य॒ पुंसः कुमुदानि करजलौ । 

गृहीत्यीपहतिं कूर्यात्तस्य स्याद्राज्यमुत्तमम्‌ ।।७२।। 

स्वप्न मे जो शोक को, परिताप को प्राप्त करती है अथवा स्वप्न मे ` मुत्यु एवं रूदन देखता है वह चतुर्मुखी सुखो से घिर जाता है । जिस व्यक्ति के घर के आंगन मे. अंजली मे कमलिनी फूल कोई एकत्र करें वह उत्तम राज्य प्राप्त करता है । 

रत्युक्तं च॒ पर्यद्कं शयनं यः करोति वै । 

सिंहासनेऽथवा तिष्ठेत्तस्य राज्यमकण्टकम्‌ ।।७३।। 

सुवेषधारिभिः पुंभिः पूज्यते यः पुमानिह । 

धनैरधान्यैः समायुक्तः स॒ भवेन्मानवो भुवि ।।७४।। 

रतन जित शय्या पर जो शयन करता है अथवा सिंहासन पर बैठता हे वह अकण्टकं राज्य को प्राप्त करता है । जो स्वप्न में सुन्दर वेषधारी पुरूषो के द्वारा पूजा जाता है वह धनधान्य से युक्त होकर पृथ्वी. पर श्रेष्ठ मानव बनता है । 

पाणौ वीणा समादाय जागृयाद्यो नरोत्तमः । 

कन्यां कुलीनां मान्यां च लभते नात्र संशयः ।॥७५।। 

स्वदेहवसितं वस्त्रं शयनं सौध एव च । 

यस्य स्वप्नेऽग्निना दग्धं तस्यश्रीः सर्वतोमुखी ।।७६।। 

जो पुरूष स्वप्न मे हाथ मे वीणा लेकर जागता है वह कुलीन एवं मान्य स्त्री को प्राप्त करता है । इसमे कोई संशय नही है । अपने शरीर पर धारण किया हुआ वस्त्र, शयन स्थान, भव्य मकान आदि. स्वप्न मे.अग्नि से भस्म हो जाये तो उस व्यक्ति को सर्वतोमुखी लक्ष्मी की प्राप्ति होती है । 

घनवस््रैरवेष्टितो यः शुभररदह्येत चाग्निना । . 

स॒ श्रेयो भाजनं लोके भवत्येव न संशयः ।।७७।। 

ऋतुकालोदभवं पुष्पं फलं वा- भक्षयेच्च यः । 

विपत्तौ तस्य लक्ष्मीः स्यातपरसन्ना नात्र संशयः ॥।७८।। 

उज्ज्वल सान्द्र वस्त्र से धिरा हुआ व्यक्ति यदि अग्नि से जल जाये तो संसार मे वह निःसन्देह श्रेय (कल्याण) का पात्र होता है । ऋतुकाल मे उत्पन्न फूल एवं फल को जो स्वप्न में खाता है विपत्ति मे भी उसके ऊपर लक्ष्मी हमेशा प्रसन्न रहती है । इसमे सन्देह नहीं है । 

बहुवृष्टिनिपातं यः पश्येत्स्वप्ने समाहितः । 

ज्वलन्तमनलं वापि तस्य लक्षमर्वशंगता ।।७९।। ` 

पशुं वा पश्षिणं वापि हस्तेनास्पृश्य यो नरः, । 

विबुध्येत सुकन्या तं वृणुयान्नात्र संशयः ।। ८०।। 

जो पुरूष स्वप्न मे एकाग्रचित्त होकर सघनं वर्षा को देखता है अथवा प्रज्वलित अग्नि को देखता है तो भी लक्ष्मी उसके वश में होती है । स्वप्न में जो व्यक्ति पशु या पक्षी को अपने हाथ से खिला कर जागता है उसे सुंदर कन्या मिलती है । इसमें सन्देह नहीं है । 

गोवृषं मानुषं सौधं पिणं कूज्जरं गिरिम्‌ । 

समारुह्य पिवेत्तोयनिधिं -स ` नृपतिभवित्‌ ।।८१।। 

स्वमस्तकोपरितनं गृहं यस्य प्रपश्यतः । 

प्रदह्मते सप्तरात्रे स ` साप्राज्यमवाप्नुयात्‌ ।।८२।। 

गाय, वेल, मनुष्य, महल, पक्षी, हाथी या पर्वत पर चढ़कर स्वप्न में जो समुद्र के जल का पान करता है वह राजा बनता है । अपने मस्तक के ऊपर का गृह भाग जिसके देखते देखते जल उठता है वह सात रात्रि के अन्दर साम्राज्य प्राप्त करता है । 

स्वप्ने पितृन्‌ यः प्रपश्येतस्य गोत्रं प्रवर्ति । 

हिरण्यं च प्रसादश्च नृपतेर्नास्ति संशयः ।।८३।। 

शीते पयसि यः स्नानं जलक्रीडामथापि वा। 

कुरुते तस्य सौभाग्यं वर्धते हि दिने दिने ।।८४।। 

जो व्यक्ति स्वप्न मे अपने पितरो को देखता है उसका गोत्र बढता है यानि पुत्र प्राप्ति होती है, स्वर्ण एवं राजा की कृपा प्राप्ति होती है । इसमे सन्देह नही है । जो स्वप्न मे ठण्डे जल मे स्नान या जलक्रीडा करता है उसका सौभाग्य निश्चित ही दिन प्रतिदिन अभिवृद्ध होता है । 

मातरं पितरं देवान्साधून्भक्त्या प्रपश्यति । 

तस्य रोगः प्रणष्टः स्यादन्यथा रोगभाग्भवेत्‌ ।। ८५।। 

श्वेतं विहगं तुरगं मातंगं सदनं च वा । 

अधिरोहेत्प्रपश्येद्रा साप्राज्यं स समश्नुते ।।८६।। 

माता-पिता, देवता तथा साधुगण को जो भक्ति पूर्वक स्वप्न में देखता है उसके रोग नष्ट हो जाते है । जो भक्ति पूर्वक नहीं देखता है उसे रोग प्राप्त होता है । उज्ज्वल पक्षी, उज्ज्वल घोड़ा, हाथी या मकान को जो स्वल मे देखता है या उस पर चढता है वह साग्राज्य का भोग करता है । 

धान्यराशिं गिरेः शृङ्गं फलितं वा वनस्पतिम्‌ । 

अधिरुह्य च यः स्वप्ने जागृयात्तस्य सम्पदः ।। ८७।। 

स्वपे क्षीरमयं वृक्षं समारुह्य प्रजागृयात्‌ । 

धनधान्य-समृद्धिर्हि तस्य स्यान्नात्र संशयः ।।८८।। 

धान्य राशि के ऊपर, शिखर पर अथवा फले हुए वृक्षो पर चढ़कर स्वप्न मे जो जाग जाता है उसको सम्पत्ति मिलती है । स्वप्न में दुग्धवाले वृक्ष पर चढ़कर जो जाग जाता है उसकी धन धान्य समृद्धि निश्चित ही बढती है । 

इन्द्रायुधं सूर्यरथं मंदिरं शंकरस्य च । 

यः प्रपश्येत्स्वप्नमध्ये धनं तस्य॒ समृध्नुयात्‌ ।। ८९।। 

प्राकारं तोरणं श्वेतच्छत्रं यः स्व ईक्षते । 

धनं धान्यं संततिश्च तस्य वृद्धिमवाप्नुयात्‌ ।। ९0।। 


जो व्यक्ति स्वप्न के बीच मे इन्द्रधनुष, सूर्यरथ तथा भगवान्‌ शंकर के मंदिर को देखता है उसका धन अभिवृद्ध होता है । जो व्यक्ति स्वप्न में परकोटा, ध्वजा तथा छत्र को देखता है उसका धन-धान्य तथा संतति अभिवृद्ध होती है । 


स्वपे यस्य भवेत्स्पर्श उल्कानों भगणस्य च । 

तडितां तोयदानां च शुभं तस्य भवेद्धुवम्‌ ।।९१।। 

जलधीनां नदीनां च यानमापूपपाचनम्‌ । 

स्वप्ने यः करुते तस्य धनं वृद्धिमवाप्नुयात्‌ ।।९२।। 


स्वप्न मे जिसका स्पर्श धूमकेतु अथवा नक्षत्र से होता है या विद्युत व मेघो से होता है उसका निश्चित ही शुभ होता है । समुद्र या नदी को जो यान दवारा तैरता है अथवा अपूर्व (मालपुआ, मिष्ठनन) को खाता है उसका धन वद्धि को प्राप्त होता है । 


स्वप्ने मृण्मयभाण्डानां धेनूनां वा चतुष्पदाम्‌ । 

भूमण्डले च साम्राज्यं राज्यं तस्य भवेद्‌ श्वम्‌ ।।९२३।। 

स्वप्ने यस्य मुखे दोहो धेनोः स्याच्छन्नुनाशनम्‌। 

वीणां च वादयेद्यो वै धनं तस्य समृध्नुयात्‌ ।।९४।। 


स्वप्न में मिद्री के भाण्डं को, गायों या चौपायों को जो देखता है उसका भूमण्डल पर विशाल साम्राज्य खडा होता है । स्वप्न मे जिसके मुख मे उष्णगो- दूध की धारा गिरती है उसके शत्रुओं का नाश होता है । स्वप्न मे जो वीणा बजाता है उसके धन की वृद्धि होती है । 


कृष्णागरु च कर्परकस्तूरी चंदनांबुदाः । 

यस्य दृष्टिपथं यान्ति लिप्यन्ते वा स मानभाक्‌ ।। ९५।। 

मित्राणामथ बन्धूनामलंकूतशरीरिणाम्‌ । 

बधूनां कमलानां च दशनं शुभदायकम्‌ ।।९६।। 


स्वप्न मे काला अगर, कर्पूर, कस्तूरी, चन्दन या मेघ जिसकी दृष्टिपथ मे आते है या शरीर मे लिपटते है वह सम्मान का पात्र होता हं यानि उसे शीघ्रसम्मान मिलता है । स्वप्न मे मित्रो का, भाईयों का, सुसज्जित व्यक्तियों का, बन्धुओं का या कमल पुष्पौ का दर्शन शुभदायक होता है । 


कलविंकं नीलकण्ठं चाषं सारसमेव च । 

दृष्ट्वा स्वप्ने जागृयाद्यः स भार्यां लभते ध्रुवम्‌ ।।९७।। 

धेनोर्दोहनभाण्डे यः सफनं क्षीरमुत्तमम्‌ । 

स्थितं पिबति यः स्वप्ने सोमपस्तस्य मङ्गलम्‌ ।।९८।। 


जो कलविंक (धन्बादार पक्षी), नीलकण्ठ, खंजन एवं सारस को स्वप्न में देखकर जाग जाता है वह निश्चित ही पत्नी को प्राप्त करता है । जो पुरूष गो दोहन वाले पात्र मे फेन युक्तं उत्तम दुग्ध को पीता है तथा जो स्वप्न मे सोमरस (आसव) पान करता है उसका मंगल होता है । 


गोधूमानां यस्य लाभो दर्शनं वा भवेद्यदि । 

यवानां सर्षपाणां च तस्य विद्यागमो भवेत्‌ ।।९९।। 

राजानो ब्राह्मणा गावो देवाश्च पितरस्तथा । 

स्वपने ब्रूयर्यच्च यस्य॒ तत्तत्स्यानैव संशयः ।। १00।। 


- जिसे स्वप्न में गेहूं का दर्शन या लाभ होता है अथवा जौ या सरसो का दर्शन या लाभ होता है उसको विद्या की प्राप्ति होती है । राजागण, ब्राह्मणो, गौवो, देवो तथा पितरों का स्वप्न मे दिया हा आदेश उसी रूप मे फलीभूत होता है इसमे सन्देह नहीं है । 


यो भुजायांध्वजं पश्येन्नाभौ वल्लीं तरुं तथा । 

स्याल्लक्ष्मीस्तस्य वै दासी तिलमात्रं न संशयः ।। १०९१।। 

य आत्मानं स्वप्नमध्ये पिबन्तं धूममीक्षते । 

तस्य लक्ष्मीः प्रसन्ना स्यादत्र नास्त्येव संशयः ।। १०२।। 

 जो स्वप्न मे अपनी बाह मे ध्वजा को, नाभि मे लता को उत्पन्न देखता है लक्ष्मी उसकी दासी बनती है । इसमे तनिक भी सन्देह नहीं है । जो स्वप्न में अपने को दूध पीते देखता है उसके ऊपर लक्ष्मी प्रसन्न होती है । इसमें किसी प्रकार का सन्देह नहीं है । 


धूमज्वाला विरहितं वहिं यो गाहते नरः । 

ग्रसते वा स्वप्नमध्ये तस्य लक्ष्मीभ्विदृढा ।। ९१०३।। 

अगम्य योषिति गतावभक्ष्यस्य च भक्षणे । 

शकाविरहितं पुंसां भवन्ति शतशो रमाः ।। १0४।। 


स्वप्न मे जो व्यक्ति धूम से या लपट से अग्नि स्नान करता है या ऐसी अग्नि को खाता है उसकी लक्ष्मी सदा स्थिर होकर निवास करती है । स्वप्न में अगम्य (जिससे शारीरिक सम्बन्ध किसी कारण विशेष से वर्ण हो) स्त्री के पास जाकर अभक्ष्य (अखाद्य) पदार्थ में शंका बुद्धि न रखकर भक्षण करे उसे सेकड़ों स्त्रियौ प्राप्त होती है। 


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