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मृत्यु नहीं अमर जीवन ही सत्य है,

मृत्यु नहीं अमर जीवन ही सत्य है

धर्मेध समाधि 

 

शु꣣म्भ꣡मा꣢ना ऋता꣣यु꣡भि꣢र्मृ꣣ज्य꣡मा꣢ना꣣ ग꣡भ꣢स्त्योः ।

 प꣡व꣢न्ते꣣ वा꣡रे꣢ अ꣣व्य꣡ये꣢ ॥१०३५॥ सामवेद

 

 

 

     सामवेद का यह मंत्र कुछ ऐसे विषय की तरफ इशारा करता है, जिसका संबंध योग से है, पहली बात इस मंत्र में जो की जा रही है, वह है, शुम्भमाना जिसका अर्थ शोभित करना किया है, वास्तविकता कुछ और अद्भुत है, शुम्भ अर्थात जब हमारे जीवन में शुभ और पवित्र कर्म बढ़ते हैं, या फिर जब शुभ सद्गुण का विकास होता है, तो हमारा मान सम्मान बढ़ता है, और यह मान सम्मान कोई साधारण जगत के मान सम्मान की बात नहीं है, यह मान सम्मान अर्थात जो इस जगत का रचना कार रूपी शक्ति है, जिसको हम सभी ईश्वर कहते हैं, वास्तव में ईश्वर कोई मानव जैसा नहीं है, और ना ही मानव के समान ही विचार करता है, ईश्वर वह जो जिसके नियम और सिद्धांत पर यह जगत विश्व ब्रह्मांड गति करता है, सच में कहा जाए तो वह इस सृष्टि का यथार्थ नियम है, जिस प्रकार से हम सभी जानते हैं, कि एक वृक्ष के उत्पन्न होने के लिए तीन वस्तु आवश्यक है, पहली वस्तु है, जमीन दूसरी वस्तु है सूर्य का प्रकाश तीसरी वस्तु है, जल यह तो आवश्यक है, इसके अतिरिक्त भी कुछ छोटी मोटी वस्तु की जरूरत पड़ती है, यदि वृक्ष जंगल में है तो वहां किसी संरक्षक की जरूरत नहीं पड़ती है, लेकिन जब वहीं वृक्ष किसी समाज में मानव स्ती के समीप है, तो वहां पर उसकी रक्षा के लिए भी प्रबंध करना होता है।

 

     जिस प्रकार से किसी जंगल के वृक्ष की रक्षा का प्रबंध नहीं करना पड़ता है उनकी रक्षा स्वयं प्रकृति ही करती है, लेकिन जब वह मानव के समाज या किसी वस्ती में होता है, तो वहां पर उसके लिए खतरा होता है, इसलिए उसकी रक्षा की जरूरत होती है, यहीं बात मानव पर भी लागू होती है, जब मानव अकेला होता है, जिसके पास कोई मानव वस्ती या समाज नहीं होता है, जैसा की हमारे प्राचीन ऋषि महर्षि प्रायः अरण्य में रहते थे, और उनका संपर्क मानव समाज और उनकी वस्ती से बहुत ही कम या ना के समान होता था। उस स्थिति में वह सारे ईश्वर उपलब्धि के नियम वह स्वयं जगत के नियम से ही समझ लेते थे, लेकिन जब मानव समाज में रहता है, तो वह स्वयं यह नियम जो ईश्वर को उपलब्ध करने के हैं, नहीं समझ पाता क्योंकि वह जगत के जंजाल में इतना अधिक फंसा होता है, जिससे वह सृष्टि के गुढ़ नियम को समझने में सर्वथा समर्थ नहीं होता है। जिसके कारण ही उसके जीवन में स्वयं के अस्तित्व के प्रती ना ही उतनी अधिक श्रद्धा होती है और ना ही उतनी अधिक सात्विक्ता ही होती है। जिसके कारण वह स्वयं को प्राप्त करने में सर्वथा असमर्थ पाता है, इसलिए ही उसे गुरु की जरूरत पड़ती है, तो यहां मंत्र में जिस मानव की बात हो रही है वह मानव कोई साधारण मानव समाज में रहने वाला नहीं है यद्यपि वह साधक और योगी है, जो साधना में रत रहता है, और वह जगत से स्वयं भिन्न जगत के रचयिता उस नियम या मार्ग पर चलता है, जिसको हम सब ईश्वर कहते हैं, जैसा की मैंने पहले कहा कि ईश्वर कोई व्यक्ति नहीं है, वह एक शाश्वत नियम है, और यही मानव जिसको योगी कहते हैं, यह गुरु है, जिसको शुम्भमाना कहा जा रहा जिसने स्वयं के मान अर्थात स्वयं के जीवन का जो मुख्य अंश है, शुभ और पवित्र है, सद्गुण का जो प्रमुख श्रोत है, आत्मा है, वह अपने मान अर्थात अपनी कीमत को अपनी बहुमूल्यता को  जानता है, वह साधारण समाज में रहने वाले मानव का गुरु है, क्योंकि वह संसार के संग्राम को अपने ऋत अर्थात अपनी आत्मा की शक्ति से जित लिया है, जिसके लिए ही इस मंत्र का दूसरा शब्द कहता है, ऋतायुध अर्थात जिसने अपने आत्मज्ञान से शरीर को पूर्ण रूप से अपने वश में कर लिया है, जो शरीर को वश में करने का जो नियम है उस पर सिद्ध हो चुका है, अर्थात जो अपने शरीर पर आरुढ़ है, जिस प्रकार से हम सभी किसी कार में सवार होते हैं और कार को पूर्णतः अपने नियंत्रण में रखते हैं, उसी प्रकार से यहां पर जो मानव अपनी शरीर को पूर्ण रूप से नियंत्रित कर लिया है वह ऋतायुध है, अर्थात वह जगत का सृजन करने वाला बन गया है, जगत में उसके नियम चलते हैं, वह जगत पर अधिकार करता है, उसके अधिकार में सिर्फ उसकी शरीर ही नहीं होती है, यद्यपि यह भौतिक जगत जिसमें सूर्य और पृथ्वी हवा पानी सूर्य आदि हैं वह उसके सहयोग उसके इसारे पर गति करते हैं, या वह उसके सहयोग में हमेशा रहते हैं, वह साक्षात उस अदृश्य ईश्वर का ही दृश्य रूप होता है, लेकिन उसके इस स्वयं के सामर्थ्य शक्ति संपदा प्रतिष्ठा के प्रति अहंकार नहीं होता है वह स्वयं को इस जगत का एक हिस्सा मानता और जानता है, जिससे वह कभी भी ऐसा कार्य नहीं करता है, जिससे जगत में जो क्रिया व्यापार है वह कभी भी बाधित नहीं होता है, यद्यपि वह हमेशा इसके सहयोग के लिए होता है। आगे मंत्र का तीसरा शब्द इसी बात की तरफ इशारा करता है, गभस्त्यो अर्थात वह स्वयं गर्भ है, जिससे यह जगत का निर्वाण होता है, जिसकी सहायता के लिए मन बुद्धि से युक्त पृथ्वी और सूर्य हैं, अर्थात इस मानव शरीर में सूर्य पृथ्वी और मन बुद्धि है, जिसका मतलब है, की सूर्य के समान जीवन की गर्मी को देने वाली आत्मा वह स्वयं है, पृथ्वी के समान उसकी शरीर है, और बुद्धि और मन चंद्रमा के समान है, इसलिए मन को भी चंद्रमा कहते हैं, जिस प्रकार से चंद्रमा के दो पक्ष होते हैं, एक कृष्ण और दूसरा श्वेत उसी प्रकार से इस मन के भी दो रूप है, एक तो यह संसार में विषयों के ज्ञान से प्रकाशित करने में समर्थ होता है, दूसरा यह स्वयं के स्वामी अपनी चेतना अर्थात आत्मा का भी साक्षात्कार करने में समर्थ होता है, जिससे यह आत्मा का साक्षात्कार करने में समर्थ होता है, वह बुद्धि है, जो मन का ही परिष्कृत रूप है, इस मन में अहंकार और चित्त भी हैं। मन से मनुष्य बनता है, मन अर्थात जो विचार को ग्रहण करता है, और विचार के माध्यम से चीजों को व्यक्त करने में भी समर्थ होता है। इसलिए इसको गभस्त्यो कहते हैं, क्योंकि यह किसी का गर्भ है, जिसमें कोई जन्म लेता है, और वह जन्म लेने वाला है जो मृज्यमाना है, अर्थात मृत में से ज्ञान के माध्यम से जो सृजित होता है, वह मृज्यमाना है, अर्थात मृत संसार शरीर में अमृत आत्मा का जन्म इस मन बुद्धि के द्वारा होता है, जब मन को इसका ज्ञान होता है, अर्थात जब यह संसार के बाहर से आने वाले प्रकाश सूर्य के अतिरिक्त जो इसके अंदर से आने वाले आत्मा के प्रकाश को अपनी बुद्धि के माध्यम से पहचाना जाता है। तब यह स्वयं मृत्यु के अज्ञान से मुक्त हो कर ब्रह्मज्ञान से ब्रह्मानंद में प्रवेश कर जाता है, जिससे इसको अपार आनंद का अनुभव होता है, जिसकी तुलना संसार के किसी वस्तु से नहीं की जा सकती है। क्योंकि वह नाश रहित शरीर में रह कर अविनाशी को प्राप्त कर लेता है, और  वह जान जाता है, की जो मृत्यु का अज्ञान दोष है, इसको दूर कर दिया गया है, और ज्ञान का प्रकाश निरंतर अब प्रकाशित होने लगा है, जिस प्रकार से सूर्य का प्रकाश निरंतर जगत के प्राणियों को जीवन देता है, लेकिन यह जीवन मृत्यु से आच्छादित है, यद्यपि जो अंदर का सूर्य आत्मा है, वह अमरता के जीवन प्रवाह को फैलाने वाला है।    

 

    सरल शब्दों में मंत्र का अर्थ कुछ इस प्रकार से कर सकते हैं, पहला शब्द शुम्भमाना का मतलब है, जिसने स्वयं को स्वयं के आश्रित कर दिया हो, वह व्यक्ति ऋतायुध है, अर्थात उसने अपनी शरीर को भौतिक जगत के अज्ञान को परास्त करके अभौतिक जगत की सत्ता पर स्वयं को स्थित कर लिया है, अर्थात जो चेतनस्थ हो चुका है, क्योंकि उसने अपने मन के साधन बुद्धि के द्वारा उसके स्वयं गर्भ में विद्यमान स्वयं के अमर अस्तित्व आत्मा जो उसका स्वयं का निज स्वरूप है, उसको उत्पन्न करने में अर्थात जैसे कोई वीज छिपा था मिट्टि के अनंत गहराई में उसका सृजन कर लिया खेत के स्वामी ने, अर्थात उपयुक्त साधन जिससे वीज को उत्पन्न होने में सुलभता हुई वह कार्य किसान ने किया, उसी प्रकार से यहां पर साधक ने अपने मन में विद्यमान अपनी चेतना को अपनी बुद्धि को परिष्कृत करके, उसको पहचान लिया, अगली बात जो मंत्र कहता है, वह मृत वस्तुओं के द्वारा अमृत को प्राप्त कर लिया मृज्यमाना, जो (अव्यये) अविनाशी है, जिसको प्राप्त करते ही, जो अमर जीवन को प्राप्त करने में जो दोष और रुकावटें थी (वारे) वह सब समाप्त हो गई, जिस प्रकार से अस्वस्थ व्यक्ति स्वस्थ हो जाता है, अर्थात जो अपनी स्थिति से अपने स्थान से दूर हो गया था, जो अपने अधिकार से हटा दिया गया था, उस पर पुनः उसका अधिकार हो जाता है। और फिर वह अपने आत्मा के साम्राज्य का विस्तार करता है, अर्थात वह आत्मावान लोगों को अपने साथ जोड़ता है, या जिसको ज्ञान नहीं नहीं उसको वह उनका ज्ञान कराता है, और इस प्रकार से उसका संसार निरंतर विकसित होता है, जिसमें अमर लोग होते हैं, जिन्होंने मृत शरीर का उपयोग करके अमृत को प्राप्त कर लिया होता है। इस प्रकार से अमरता का साम्राज्य निरंतर इस मृत्यु लोक में बढ़ता फलता फूलता रहता है, वह कभी मरता नहीं है, इसलिए यह एक अमर सत्य हैं की मृत्यु नहीं है, यह इस दुनिया में भयंकर अज्ञान का द्योतक है, अमरता ही हमारा वास्तविक स्वरूप है।        

 

पदार्थान्वयभाषाः -

 

(शुम्भमानाः) शोभित होते हुए, (ऋतायुभिः) अध्यात्म-यज्ञ के अभिलाषियों द्वारा (गभस्त्योः) मन, बुद्धि-रूप द्यावापृथिवियों में (मृज्यमानाः) अलङ्कृत किये जाते हुए ब्रह्मानन्द-रूप सोमरस (अव्यये) अविनाशी (वारे) दोषों के निवारक अन्तरात्मा में (पवन्ते) प्रवाहित हो रहे हैं ॥२॥

 

भावार्थभाषाः -

 

धर्ममेघ-समाधि में जब योगी के अन्तरात्मा में ब्रह्मानन्द के झरने झरते हैं, तब उसके मन, बुद्धि, प्राण, इन्द्रिय आदि सभी रस से सिंचे हुए के सदृश हो जाते हैं ॥२॥

 

मनोज पाण्डेय

 

 अध्यक्ष ज्ञान विज्ञान ब्रह्मज्ञान

 

GVB The University of Veda


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