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न्याय दर्शन भाष्यकार स्वामी दर्शनानंद सरस्वती

 न्याय दर्शन भाष्यकार 

स्वामी दर्शनानंद सरस्वती

प्रथम अध्याय प्रथम आह्निक


सूत्र :प्रमाणप्रमेयसंशयप्रयोजनदृष्टान्तसिद्धान्तावयवतर्कनिर्णयवादजल्पवित-ण्डाहेत्वाभासच्छलजातिनिग्रहस्थानानां तत्त्वज्ञानान्निःश्रेयसाधिगमः II1/1/1

सूत्र संख्या :1


अर्थ : प्रश्न-न्याय किसे कहते हैं? उत्तर-प्रमाणों से किसी वस्तु का निर्णय करना न्याय कहलाता है। प्रश्न-प्रमाण किसे कहते है? उत्तर-अर्थ के यथार्थ ज्ञान को प्रमाण कहते हैं। और प्रमाण के वास्ते आत्मा को जिन कारणों की आवश्यकता होती है वह प्रमाण कहलाते हैं। प्रश्न-प्रमाण के क्या लाभ है? उत्तर-बिना प्रमाण के किसी वस्तु का ज्ञान नहीं हो सकता और बिना ज्ञान के किसी काम करने और छोडने में मनुष्य परिश्रम नहीं कर सकता, इस कारण कार्य में प्रवृति कराने वाला प्रमाण है। प्रश्न-प्रमाण से ज्ञान प्राप्त करने के वास्ते किन वस्तुओं की आवश्यकता है? उत्तर-प्रत्येक अर्थ के जानने के वास्ते चार वस्तु होती हैं प्रथम प्रमाता अर्थात वस्तु को जानने वाला दूसरा प्रमाण जिसके द्वारा वस्तु को जान सकें। तीसरा प्रमेय अर्थात वह वस्तु तो प्रमाण के द्वारा जानी जावे। चौथे प्रमिति अर्थात् वह ज्ञान जो प्रमाता प्रमाण और प्रमेय के सम्बन्ध से उत्पन्न हो। प्रश्न-अर्थ किसे कहते हैं। उत्तर-जो सुख में सुख का कारण और दुःख में दुःख का कारण हो उसे अर्थ कहते हैं। प्रश्न-प्रवृत्ति किसे कहते हैं? उत्तर-जब प्रमाता अर्थात् जानने वाला किसी को जान लेता है तो उसके त्यागने या प्राप्त करने के वास्ते जो परिश्रम करता है उस परिश्रम को प्रवृत्ति कहते हैं। प्रश्न-प्रमाण से चीजों की सत्ता का ज्ञान होता है, उसके अभाव के ज्ञान का क्या कारण है? उत्तर-जो प्रमाण विद्यमान वस्तुओं के अस्तीत्व को प्रकट प्रत्यक्ष करता है वही प्रमाण वस्तुओं के अभाव का ज्ञान कराता है। प्रश्न-न्याय दर्शन में कितने पदार्थ माने जाते हैं? प्रमाण, संशय प्रयोजन, दृष्टान्त सिद्धान्त, अवयव, तर्क, निर्णय, जल्प, वह बाद जो हार जीत के लिये युक्ति शून्य हो, वितन्डा वह बहस जिसमें एक पक्ष वाला अपना कोई सिद्धान्त न रखता हो केवल दूसरों के सिद्धान्तों का खण्डन करे, हेत्वा भास छल अर्थात् धोखा, जाती अर्थात् निग्रह स्थान हारने का चिन्ह इन सोलह पदार्थों के तत्व ज्ञान से मनुष्य मुक्ति को प्राप्त कर लेता हैं।

व्याख्या :प्रश्न-ज्ञान सदा प्रमेय का होगा और उसी से मुक्ति होगी शेष सब कारण उसके साधन हैं इस वास्ते सब से पीछे प्रमेय का वर्णन करना चाहिए था कि जिसके ज्ञान से मुक्ति प्राप्त हो प्रमाण का पहिले वर्णन करना हमारी सम्मति में ठीक नहीं है। उत्तर-क्योंकि सदा सोना खरीदने से पहिले कसोटी का पास होना आवश्यक है और बिना कसोटी के सोने के खरे, खोटे होने का ज्ञान नहीं हो सकता। इसी प्रकार प्रमाण के बिना प्रमेय का ज्ञान नहीं हो सकता ऐसे ही प्रमाण के बिना यह ज्ञान नहीं हो सकता और न यह ज्ञान है कि ये प्रमेय आत्मा के लिये लाभदायक है अथवा हानिकारक है।इस कारण सबसे पूर्व प्रमाण का वर्णन किया है। प्रश्न-प्रमाण और प्रमेय के बिना अन्य पदार्थों के मानने की कोई आवश्यकता नहीं। क्योंकि सम्पूर्ण पदार्थ जो संसार में विद्यमान हैं वे सब प्रमेय के अन्तर्गत आ जाते हैं। उत्तर-क्योंकि संसार में दुःख और सुख का अनुभव मन को होता है।इसलिये किसी वस्तु के देखने से पहले यह ज्ञान उत्पन्न होता है कि यह वस्तु सुख अथवा दुःख का कारण है और ऐसा ही ज्ञान संशयक होता है अतएव संशय का वर्णन आवश्यक है उसके निवृत्यर्थ निर्णय की आवश्यकता है। प्रश्न-पुनः प्रयोजन क्यों कहा ! उत्तर-यदि निर्णय करने का कोई प्रयोजन नहीं हो तो कोई बुद्धिमान तो क्या कोई मूर्ख भी इतना परिश्रम नहीं करेगा। मनुष्य से प्रत्येक कर्म कराने वाला प्रयोजन ही सबसे मुख्य है जब मनुष्य दुःख से छुटना और सुख को प्राप्त करना अपना प्रयोजन नियत कर लेता है तब उसके कारण की खोज करता है जब प्रयोजन ही न तो किसके पूर्ण करने के लिये विद्यार्थीपन का कष्ट सहन किया जाय। इसी प्रकार प्रत्येक वस्तु निर्णयार्थ आवश्यक थी उसका वर्णन महात्मा गौतम जी ने न्याय दर्शन में कर दिया है। इन पदार्थों का विभाग और वर्णन भली प्रकार इस ग्रन्थ में आ जाएगा महात्मा गौतम जी के न्याय दर्शन का प्रथम सूत्र मूल और शेष सब सूत्र उसकी व्याख्या हैं जो मनुष्य इस दर्शन को पढ़ना चाहें उनको इन तीन बातों का ध्यान करना उचित है। प्रथम तो उद्धेश्य, अर्थात किसी वस्तु को बतलाया जाता है तरनन्तर उसका लक्षण किया जाता है पुनः लक्षण की परीक्षा करी जाती है, अर्थात लक्ष्य में लक्षण घटता है अथवा नहीं। और यह भी ध्यान रखना चाहिए कि जब परीक्षा की जाती है तब उसमें तीन प्रकार के सूत्र आते हैं। 1. पूर्वपक्ष, 2. उत्तर पक्ष, 3. सिद्धान्त। प्रश्न-उद्धेश्य किसे कहते हैं। उत्तर-जब किसी वस्तु का नाम बतलाया जाए उसे उद्धेश्य कहते हैं, जैसे किसी ने कहा कि पृथ्वी है ? प्रश्न-लक्षण किसको कहते हैं। उत्तर-जो गुण एक वस्तु दूसरी वस्तु से पृथक कर दे अथवा दूसरों को इससे विभिन्न कर दे वह लक्षण कहाता है। प्रश्न-परीक्षा किसे कहते हैं। उत्तर-किसी वस्तु का लक्षण उस वस्तु में विद्यमानता कि लिये (जांच) की जाती है और यह देखा जाता है कि इस लक्षण में कोई दोष तो नहीं ? उसे परीक्षा कहते हैं। प्रश्न- लक्षण में जो दोष होते हैं वे कितने प्रकार के होते हैं। उत्तर-तीन प्रकार के , प्रथम 1 अतिव्याप्ति अर्थात् वह गुण जो कि अन्य वस्तुओं मे भी देखा जाय। जैसे किसी से कहा गौ किसे कहते हैं दूसरे ने कहा-सींग वाले व्यक्ति में वर्तमान हैं। अतः यह लक्षण अति व्याप्ति हो गया अर्थात् लक्ष व्यक्ति से अन्यों में भी चला गया। द्वितीय अव्यप्ति अर्थात् वह गुण जो गुणी में विद्यमान न हो, जैसे कोई मनुष्य पूछे अग्नि किसे कहते हैं, उत्तर मिले कि जो भारी गुरू हो क्यांकि अग्नि में गुरूत्व नहीं, अतः यह लक्षण भी उचित नहीं ! तृतीय(3) असम्भव जैसे किसी ने पूछा कि अग्नि किसे कहते हैं तो दूसरे ने कहा कि जिसमें शीतलता हो क्योंकि अग्नि में शैत्य नहीं होता अतः यह लक्षण भी युक्त नहीं। इन तीन(3) प्रकार के दोषों में कोई भी लक्षण में हो तो वह लक्षण ठीक नहीं होगा। प्रश्न-तत्व ज्ञान और दुःख में कोई विपरीतता नहीं तो तत्व ज्ञान से मुक्ति किस प्रकार से हो सकती है और तत्व ज्ञान के होते ही मुक्ति हो जाती है अथवा कुछ काल के पश्चात्-


सूत्र :दुः-खजन्मप्रवृत्तिदोषमिथ्याज्ञानानामुत्तरोत्तरापाये तदनन्तरापायादपवर्गः II1/1/2

सूत्र संख्या :2

व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती

अर्थ : तत्वज्ञान से मिथ्या ज्ञान का नाश हो जाता है और मिथ्या ज्ञान के नाश से राग द्वेषादि दोषों का नाश हो जाता है, दोषों के नाश से प्रवृत्ति का नाश हो जाता है। प्रवृत्ति के नाश होने से कर्म बन्द हो जाते हैं। कर्म के न होने से प्रारम्भ का बनना बन्द हो जाता है, प्रारम्भ के न होने से जन्म-मरण नहीं होते और जन्म मरण ही न हुए तो दुःख-सुख किस प्रकार हो सकता है। क्योंकि दुःख तब ही तक रह सकता है जब तक मन है। और मन में जब तक राग-द्वेष रहते हैं तब तक ही सम्पूर्ण काम चलते रहते हैं। क्योंकि जिन अवस्थाओं में मन हीन विद्यमान हो उनमें दुःख सुख हो ही नहीं सकते । क्योंकि दुःख के रहने का स्थान मन है। मन जिस वस्तु को आत्मा के अनुकूल समझता है उसके प्राप्त करने की इच्छा करता है। इसी का नाम राग है। यदि वह जिस वस्तु से प्यार करता है यदि मिल जाती है तो वह सुख मानता है। यदि नहीं मिलती तो दुःख मानता है। जिस वस्तु की मन इच्छा करता है उसके प्राप्त करने के लिए दो प्रकार के कर्म होते हैं। या तो हिंसा व चोरी करता है या दूसरों का उपकार व दान आदि सुकर्म करता है। सुकर्म का फल सुख और दुष्कर्मों का फल दुःख होता है परन्तु जब तक दुःख सुख दोनों का भोग न हो तब तक मनुष्य शरीर नहीं मिल सकता !

व्याख्या :प्रश्न-इसमें क्या प्रमाण है कि जीवात्मा किसी समय में दुःख से मुक्त हो सकता है हम दुःख को जीवात्मा का स्वाभाविक धर्म नहीं । अतः जो स्वाभाविक धर्म नहीं उसका नाश होना सम्भव है। प्रश्न-जीव का स्वाभाविक धर्म दुःख क्यों नहीं।‘आत्मा’ के लक्षण क्या हैं ? उत्तर-इसलिए कि वह प्रति क्षण वर्तमान नहीं रहता क्योंकि जो स्वाभाविक है वह कभी भी दूर नहीं हो सकता है। प्रश्न-प्रमाण कितने प्रकार के होते हैं।


सूत्र :प्र-त्यक्षानुमानोपमानशब्दाः प्रमाणानि II1/1/3

सूत्र संख्या :3


अर्थ : प्रत्यक्ष, अर्थात जो इन्द्रियों के द्वारा अनुभव हो दूसरा अनुमान जो उपमान व सम्बन्ध से जाना जाय, तीसरा उपमान जो (मिसाल) दिखाकर सदृश्यता बताई जाय और चतुर्थ शब्द जो विद्वान (आप्त) मनुष्य के उपदेश से जाना जाय।

व्याख्या :प्रश्न-हम प्रत्यक्ष के अतिरिक्त किसी दूसरे प्रमाण को नहीं मानते, क्योंकि प्रत्यक्ष के बिना और प्रमाण ठीक नहीं मिलते, प्रायः (भ्रांति) भूल हो जाती है। यदि प्रत्यक्ष के अतिरिक्त किसी दूसरे प्रमाण को स्वीकार करोगे तो बहुत से पदार्थों का ज्ञान न हो सकेगा। यथा-वे पदार्थ जो कि अत्यन्त समीपहै जैसे आंख में सुर्मा और बहुत दूर के पदार्थों का ज्ञान नहीं हो सकता, इसलिए अन्य प्रमाणों का मानना आवश्यक है। यदि प्रत्यक्ष और अनुमान दो ही प्रमाण मान लिए जाएं तो क्या हानि है। उत्तर-अनुमान भी प्रत्यक्ष पदार्थों का होता है। अनुमान से साधारण मनुष्य कार्य कर सकते हैं। प्रत्यक्ष मनुष्य व पशुओं के लिए एक तुल्य समान है, इसलिए जो मनुष्य धर्म का निर्णय करना चाहते हैं उनके लिए तो यह दोनों प्रमाण व्यर्थ हैं, क्योंकि जीवात्मा मन, बुद्धि आदि इन्द्रियों से अनुभव न होने के कारण प्रत्यक्ष से नहीं माना जा सकता और प्रत्यक्ष न होने पर अनुमान भी नहीं हो सकता, इसलिए शब्द प्रमाण की आवश्यकता है। प्रश्न-’प्रत्यक्ष प्रमाण किसे कहते हैं और उनका क्या लक्षण है।

सूत्र :इन्द्रियार्थसंनिकर्षोत्पन्नं ज्ञानमव्यप-देश्यमव्यभिचारि व्यवसायात्मकं प्रत्यक्षम् II1/1/4

सूत्र संख्या :4


अर्थ : इन्द्रिय और अर्थ के सम्बन्ध से जो ज्ञान पैदा हो और जिसमें व्यभिचार दोष न हो और सन्देह भी न हो उसे प्रत्यक्ष कहते हैं।

व्याख्या :प्रश्न-इतना पर्याप्त है कि जो ज्ञान पदार्थ और इन्द्रियों के सम्बन्धी पैदा हो वह प्रत्यक्ष है, इसमें लक्षण को अधिक बढ़ाने की कोई आवश्यकता नहीं है ? उत्तर-यदि इतना कहा जावे कि जो ज्ञान इन्द्रिय और अर्थ के सम्बन्ध से पैदा हो वह प्रत्यक्ष है तो भ्रांति को भी प्रत्यक्ष मानना पड़ेगा जैसे कि दूर से बालू को पानी जान लेने में बालु और आंख का सम्बन्ध है दूर से आंख उसको पानी अनुभव करती है,किन्तु निकट जाने पर बालु ज्ञात होता है तो उस अनिश्चित ज्ञान(भ्रांति) को प्रत्यक्ष मानना पड़ेगा इस वास्ते बतला दिया कि वह ज्ञान व्यभि-चारादि दोष रहित हो। प्रश्न-इन्द्रिय और अर्थ के सम्बन्ध से जो ज्ञान पैदा होगा वह तो प्रमति कहलाएगा, प्रमाण कैसे हो सकता है ? उत्तर-इन्द्रिय और अर्थ के सम्बन्ध से जो ज्ञान पैदा होगा वह प्रत्यक्ष ज्ञान है और उसका कारण अर्थात् उसके होने का साधन इन्द्रियां प्रत्यक्ष प्रमाण है। पश्न-प्रत्यक्ष कितने प्रकार का होता है ? उत्तर-पांच ज्ञान इन्द्रियों के कारण से पांच प्रकार का प्रत्यक्ष होता है। चक्ष से होने वाला, प्रत्यक्ष जिससे वस्तु का आकार लम्बाई-चौड़ाई इत्यादि का ज्ञान होता है। द्वितीय क्षेत्र प्रत्यक्ष कानों के द्वारा होता है। जिसमें शब्द के अच्छे-बुरे और उसके भाव का ज्ञान होता है। तृतीय-घ्राण प्रत्यक्ष जो नासिका द्वारा होता है, इससे सुगन्ध-दुर्गन्ध का ज्ञान होता है। चतुर्थ रसना, जिहृा से जो प्रत्यक्ष होता है, जिसके द्वारा कड़वे-मीठे कटु इत्यादिक रसों का ज्ञान होता है। पंचम(त्वचा) जो प्रत्यक्ष खाल के द्वारा होता है, जिसे छूना कहते हैं, उससे गर्मी-सर्दी-नर्मी इत्यादिक का ज्ञान होता है। प्रश्न-क्या प्रत्यक्ष प्रमाण से जो ज्ञान होता है वह संदिग्ध भी होता है। जिससे यह लक्षण सिद्ध हो कि यह ज्ञान निश्चित है। उत्तर-दूर से किसी वृक्ष के ठुन्ट को देखकर बहुधा विचार होता है कि वह मनुष्य है या ठूँठ ? इसी प्रकार भ्रांति भी इन्द्रियों के सम्बन्ध ही से होती है, इसलिए जो ज्ञान निश्चित अर्थात निभ्रन्ति जिसमें भ्रांत का लेश न हो इन्द्रियों के द्वारा किसी वस्तु का होता है और उसमें फर्क नहीं पाया जाय और वह नाम सुनकर स्मृति सरीखा न हो तो उसे प्रत्यक्ष ज्ञान कहते हैं और इन्द्रियें प्रत्यक्ष प्रमाण कहलाती हैं। प्रश्न-अनुमान किसे कहते हैं, उसका लक्षण क्या है ?

सूत्र :अथ तत्पूर्वकं त्रिविधमनुमानं पूर्ववच्छेषवत्सामान्यतो दृष्टं च II1/1/5

सूत्र संख्या :5


अर्थ : जिस ज्ञान की वास्तविक दशा प्रत्यक्ष द्वारा परस्पर सम्बन्ध को जानकर, एक को देख कर दूसरे से जानी जाती है वह अनुमान कहलाता है।

व्याख्या :प्रश्न-अनुमान कितनी प्रकार का है ? उत्तर-अनुमान तीन प्रकार का होता है, पहला “पूर्ववत” जहां कारण द्वारा कार्य का ज्ञान प्राप्त किया जाय जैसे घनघोर मेधों को देखकर वृष्टि के होने का ज्ञान होता है अर्थात् “पहले जब इस प्रकार का मेघ आया था तो वृष्टि हुई थी; अब फिर वैसा ही बादल आया है अतः अब भी वर्षा होगी” यह जो वृष्टि होने का ज्ञान है यह पहले के बादल को देखकर किया गया था। अतएव ”पूर्ववत्-अनुमान” कहलाता है। द्वितीय ”शेषवत्” जहां कार्य को देखकर कारण का अनुमान किया जाय तथा नदी को बहुत वेग से तथा मटीले जल से बहती हुई को देखकर ज्ञान होता है कि ऊपर पर्वत में वर्षा हुई है। तृतीय ”सामान्यतो दृष्टम्“ किसी स्थान में दो वस्तुओं के सम्बन्ध को देखकर दूसरे स्थान पर उनमें से एक को देखकर दूसरे का अनुमान करना जैसे घर में आग से धुआं निकलता देखा है। वन में दूर से धुएं को निकलते देखकर यह जान लेना कि वहां आग है-इसी प्रकार ऐसी वस्तुएं जिनका कभी प्रत्यक्ष नहीं हुआ किन्तु सम्बन्ध द्वारा जानी जाती है, जैसे जो जो वस्तु संसार में परिणाम वाली (अर्थात् बदलने वाली) देखी जाती हैं, वे सब उत्पन्न हुई हैं यथा एक बालक उत्पन्न हुआ और वह पढ़ने लगा । तदन्तर मर गया । इससे पता लग गया कि जो वस्तु परिणामी है वह नाशवान है। अब इसी ज्ञान से संसार (जगत) के उत्पन्न होने और नाशवान् होने का अनुमान किया। यद्यपि जगत की उत्पत्ति को कहीं प्रत्यक्ष नहीं देखा तथापि यावत् वस्तु संसार में परिवर्तनशील हैं वे उत्पत्तिमान होती हैं, यह ज्ञान उत्पन्न वस्तुओं के परिवर्तन से कर लेते हैं और जगत् को परिवर्तन स्वभाव वाला देखकर इसी अनुमान से उत्पन्न और नाश वाला (नश्वर) मानते हैं अनुमान के सम्बन्ध में बहुत विवाद हो सकता है किन्तु ग्रन्थ विस्तार के भय से इतना ही पर्याप्त है। प्रश्न- उपमान किसे कहते हैं ?

सूत्र :प्रसिद्धसाधर्म्यात्साध्यसाधनमुपमानम् II1/1/6

सूत्र संख्या :6


अर्थ : स्पष्ट गुणों के मिलाने से जो एक वस्तु का ज्ञान प्राप्त होता है उसे ‘उपमान’ अर्थात् सादृश्य कहते हैं यथा किसी ने कहा कि गौ के तुल्य “नील गाय” होती है। जब वह पुरूष जंगल में गया तो नील गाय को गौ के सदृश देखकर जान लिया कि यह ‘नील गाय’ है। इस प्रकार बाह्य स्पष्ट गुणों की तुलना करना उपमान कहलाता है।

व्याख्या :प्रश्न-‘उपमान’ प्रमाण से क्या लाभ है ? उत्तर-संज्ञी (नामवाला) और संज्ञा (नाम) का सम्बन्ध इसी से पैदा होता है क्योंकि गाय के सदृश होने से नील गाय और माष के से पत्तों वाली होने से ‘माषपर्णी’ आदि सैकड़ो औषधियां ‘उपमान से ही जानी जाती हैं, इसी प्रकार और अवसरों पर भी उपमान से काम निकलता है। प्रश्न-शब्द किसे कहते हैं ?

सूत्र :आप्तोपदेशः शब्दः II1/1/7

सूत्र संख्या :7


अर्थ : ‘आप्त’ उस विद्वान् तथा सत्यवक्ता को कहते हैं जो पदार्थों के गुणों को जानकर और उनके रूप को यथावत् जानकर उसकी सत्ता और लाभों को वर्णन करे। अर्थात् जिस वस्तु को बुद्धि तथा विद्या सम्बन्धी अन्वीक्षण से जैसा जाना हैं। उसको वैसा ही बतलाने वाले का नाम ‘आप्त’ हैं। यह लक्षण ऋषि आर्य, म्लेच्छादि सबके लिए संगत हो सकता है। और सब उसी के अनुकूल आचरण करते हैं और संसार के हर एक पदार्थ की इन प्रमाणों से जानकर काम करना चाहिए । आप्त के उपदेश को शब्द प्रमाण कहते हैं।

व्याख्या :प्रश्न-शब्द कितने प्रकार का है ?

सूत्र :स द्विविधो दृष्टादृष्टार्थत्वात् II1/1/8

सूत्र संख्या :8


अर्थ : शब्द दो प्रकार का है। प्रथम वह जिसका अभिप्राय संसार में इन्द्रियों द्वारा जाना जा सकता है। द्वितीय वह जिसका अर्थ इन्द्रियों से नहीं जाना जा सकता । यह दोनों प्रकार के ‘शब्द’ प्रमाण कहलाते हैं। यथा किसी ने कहा कि जिसकी पुत्र की इच्छा हो वह यज्ञ करे। यहां यज्ञ द्वारा पुत्र का उत्पन्न होना या न होना इन्द्रियों के द्वारा ग्रहण हो सकता है। दूसरे किसी ने कहा कि जिसको स्वर्ग की कामना हो तो वह यज्ञ करे-सो स्वर्ग की प्राप्ति इन्द्रियों से नहीं जानी जा सकती । क्योंकि स्वर्ग सुख का नाम है और सुख किसी इन्द्रिय का विषय नहीं।

व्याख्या :प्रश्न- इन प्रमाणों से कौन -2 सी वस्तुएं जानी जा सकती हैं ?

सूत्र :आत्मशरीरेन्द्रिया-र्थबुद्धिमनःप्रवृत्तिदोषप्रेत्यभावफलदुःखापवर्गास्तु प्रमेयम् II1/1/9

सूत्र संख्या :9


अर्थ : यह बारह वस्तु ‘प्राप्य’ अर्थात् प्रमाणों से जानी जानी जा सकती हैं, प्रथम ‘आत्मा’ दो प्रकार का है एक तो वह जो सारे संसार में व्याप्त है और सर्वज्ञ है, दूसरे वह जो कर्मों का फल भोगने वाला है। जिसके भोग का आयतन (मकान) यह शरीर है और भोग के साधन रूप ‘इन्द्रियें हैं, और भोग्य पदार्थ’ अर्थात जो इन्द्रियों के विषय हैं, वे हैं जो इन्द्रियों द्वारा अनुभव किये जाते हैं और भोग (बुद्धि अर्थात्) ‘ज्ञान’ है। सब पदार्थ इन्द्रियों से नहीं जाने जा सकते अतः परोक्ष पदार्थों का अनुभव कराने वाला ‘मन’ है और मन में राग-द्वेष दो प्रकार के द्वेष उत्पन्न होते हैं, जिनसे प्रवृत्ति अर्थात् किसी पदार्थ के त्याग वा अंगीकार करने का प्रयत्न उत्पन्न होता है। ‘प्रेत्य भाव’ जन्म मरण को कहते हैं, अच्छे बुरे कर्मों का उपभोग ‘फल’ कहलाता है। फल दो प्रकार का होता है, एक ‘दुख’ जिसे बन्धन कहते हैं द्वितीय ‘अपवर्ग’ जिसे मुक्ति कहते हैं, इन पर अधिक वाद-विवाद आगे सूत्रों में आयेगी। प्रश्न- ‘आत्मा’ के लक्षण क्या हैं ?

सूत्र :इच्छाद्वेषप्रयत्न-सुखदुःखज्ञानान्यात्मनो लिङ्गम् II1/1/10

सूत्र संख्या :10


अर्थ : आत्मा के यह लिंग (चिन्ह) हैं, इच्छा, द्वेष, सुख-दुःख प्रयत्न और ज्ञान यह छः(आत्मा) के लिंग अर्थात् प्रत्यापक हैं।

व्याख्या :प्रश्न-‘इच्छा’ किसे कहते हैं। उत्तर-जिस प्रकार की वस्तु से पहले सुख मिला था, उसी प्रकार की वस्तु को देखकर प्राप्त करने के विचार को ‘इच्छा’ कहते हैं। प्रश्न-द्वेष किसे कहते हैं ? उत्तर-जिस प्रकार की वस्तु से पहले कष्ट हुआ था उसी प्रकार की वस्तु को देखकर , दूर ही से अपनयन का विचार द्वेष कहलाता हैं। प्रश्न-प्रयत्न किसे कहते हैं ? उत्तर-दुःख के कारणों को दूर और सुख के कारणों को प्राप्त करने की क्रिया को प्रयत्न कहते हैं। प्रश्न-ज्ञान किसे कहते हैं ? उत्तर-आत्मा के अनुकूल और प्रतिकूल पदार्थों को पृथक-पृथक जानना ज्ञान कहलाता है। शेष सुख, दुःख का कारण लक्षण तत्त सूत्रों में ही वर्णन करेंगे। प्रश्न-शरीर किसे कहते हैं ?

सूत्र :चेष्टेन्द्रियार्थाश्रयः शरीरम् II1/1/11

सूत्र संख्या :11


अर्थ : हां बैठकर इन्द्रिय पदार्थ के लिए चेष्ट करते हैं, उसे शरीर कहते हैं।

व्याख्या :प्रश्न- ‘चेष्टा’ किसे कहते हैं ? उत्तर- इष्ट या अनिष्ट वस्तु की प्राप्ति व त्याग के प्रयत्न का नाम ‘चेष्टा’ हैं। प्रश्न-इन्द्रियों को आश्रम क्यों कहा ? उत्तर-जिसके कृपाकटाक्ष से अनुगृहीत होकर अपने विषयों को इन्द्रियां प्राप्त करती हैं वह उनका ‘आश्रय अर्थात् अवलम्ब है और वही शरीर है। प्रश्न-आश्रय या अवलम्ब किसे कहते हैं ? उत्तर-इन्द्रिय और पदार्थ के सम्बन्ध से उत्पन्न हुआ सुख और सुख का जो ज्ञान परस्पर सम्बन्ध है उनका वही सहारा है और वही शरीर है। प्रश्न-इन्द्रिय किसे कहते हैं ?

सूत्र :घ्राण-रसनचक्षुस्त्वक्श्रोत्राणीन्द्रियाणि भूतेभ्यः II1/1/12

सूत्र संख्या :12


अर्थ : जिससे गन्ध, रूप, रस, स्पर्श और शब्द का ज्ञान होता है, वे क्रमशः घ्राण (कान) कहलाते हैं।

व्याख्या :प्रश्न-इन्द्रिय का लक्षण कहो ? उत्तर-जो अपने विषय को ग्रहण कर सके। प्रश्न - यह इन्द्रियां किन से उत्पन्न होती हैं ? उत्तर-पच्च भूत से अर्थात् अग्नि से आंख, पृथ्वी से नाक, वायु से खाल, पानी से रसना और आकाश से कान उत्पन्न हैं और यह पांचो इन्द्रियां अपने-अपने विषय ग्रहण करते हैं। प्रश्न-भूत किसे कहते हैं या कौन से हैं ?

सूत्र :पृथिव्यापस्तेजो वायुराका-शमिति भूतानि II1/1/13

सूत्र संख्या :13


अर्थ : भूमि, जल, अग्नि, वायु और आकाश यह पांच भूत हैं। प्रश्न-इन भूतों के कौन से गुण हैं, जिनको इन्द्रियां ग्रहण करती हैं ?

सूत्र :गन्धरसरूपस्पर्शशब्दाः पृथिव्यादिगुणास्तदर्थाः II1/1/14

सूत्र संख्या :14


अर्थ : पृथिव्यादि के गुण इन्द्रियों के अर्थ कहलाते हैं, पृथ्वी का गुण गन्ध है, वह (गन्ध) पार्थिवेन्द्रिय, घ्राण(नाक) का अर्थ है, जल का गुण रस है, वह जलेन्द्रिय, रसना(जिह्य) का अर्थ है, तेज अर्थात् वायु अग्नि का गुण रूप है वह तेज इन्द्रिय, नेत्र का अर्थ है। वायु-वीयेन्द्रिय त्वचा अर्थ स्पर्श है जो कि वायु का गुण है। शब्द आकाश का गुण है अतः आकाश के इन्द्रिय श्रोत्र(कान) का अर्थ है। (यहां ‘अर्थ’ का अर्थ ‘विषय’ है)। प्रश्न-बुद्धि किसे कहते हैं ?

सूत्र :बुद्धिरुपलब्धिर्ज्ञानमित्यनर्थान्तरम् II1/1/15

सूत्र संख्या :15


अर्थ : अर्थ-बुद्धि, उपलब्धि और ज्ञान यह अलग-अलग वस्तु नहीं है किन्तु यह एक ही हैं।

व्याख्या :प्रश्न-क्या बुद्धि भूतों से बनी हुई नहीं ? उत्तर-यदि भूतों से उत्पन्न होती तो जड़ और आत्मा का कारण (साधन होती और जड़ रूप कारण को ज्ञान होना असम्भव है यदि कहा जाय कि द्वितीय चेतन वस्तु है तो भी युक्त नहीं क्योंकि शरीर त्वचादि इन्द्रिय के संधात् (समुदाय) से एक ही चेतन है(?) यदि बुद्धि चेतन के गुण अर्थात् ज्ञान ही का नाम है। प्रश्न-मन किसे कहते हैं ?

सूत्र :युगपज्ज्ञानानुत्पत्तिर्मनसो लिङ्गम् II1/1/16

सूत्र संख्या :16


अर्थ : एक काल में दो ज्ञान कान पैदा होना यह मन का लिंग (लक्षण) है ।

व्याख्या :प्रश्न-मन के मानने की क्या आवश्यकता है सब काम इन्द्रियों से ही चल जाएगा ? उत्तर-स्मृति स्मरण आदि किसी इन्द्रिय का विषय नहीं है परन्तु उनकी सत्ता अवश्य है अतः उनका ग्रहण करने वाला कोई अन्य (साधन) इन्द्रिय अवश्य होना चाहिए जो बाह्येन्द्रियों से भिन्न हो और वह मन है क्योंकि किसी बाह्य इन्द्रिय का विषय स्मरण नहीं है अपरंच जब हम विचार में मग्न होते हैं उस समय जो पदार्थ हमारे सामने से गुजर जाते हैं, हमें उनका तनिक भी ज्ञान नहीं होता इससे स्पष्ट प्रतीत होता है कि जब मन इन्द्रियों से सम्बन्ध रखता है तभी ज्ञान होता है और जब नहीं रखता तब ज्ञान भी नहीं होता यदि मन कोई पृथक न होता तो केवल इन्द्रियों से ज्ञान होता और एक काल में पांचों इन्द्रियों के विषयों का ज्ञान भी हुआ करता पर ऐसा होता नहीं अतः मन को मानना पड़ता है। प्रश्न-प्रवत्ति किसे कहते हैं ?

सूत्र :प्रवृत्तिर्वाग्बुद्धिशरीरारम्भः II1/1/17

सूत्र संख्या :17


अर्थ : इस सूत्र में बुद्धि से ‘मन’ अभिप्रेत है मन, इन्द्रिय और शरीर का काम में लगना प्रवृत्ति कहलाती है। यदि मन अकेला काम करता है तो वह कर्म मानसिक कहलाता है, यदि मन और वाणी दोनों मिल कर उस काम को करते है तो वह वाचक कर्म कहलाता है यदि मन इन्द्रिय और शरीर मिलकर काम में लगते हैं तो वह शारीरिक कर्म कहलाता है।

व्याख्या :प्रश्न-प्रवृत्ति किस काम में होती है ? उत्तर-पुण्य या पाप में ,अर्थात् जो भी कर्म किया जाएगा, उससे पुण्य या पाप अवश्य होगा । प्रश्न-पुण्य किसे कहते हैं ? उत्तर-जिसका फल अत्यन्त को सुख हो अर्थात् भावी सुख के कारण का नाम पुण्य है। प्रश्न-पाप किसे कहते हैं ? उत्तर-जिसको फल आगे को दुःख हो । प्रश्न-दोष किसे कहते हैं ?

सूत्र :प्रवर्तनालक्षणा दोषाः II1/1/18

सूत्र संख्या :18


अर्थ : प्रवृत्ति के कारण अर्थात् प्रवृत्ति के कराने वाले को दोष कहते हैं।

व्याख्या :प्रश्न-प्रवृत्ति को कौन करवाते हैं ? उत्तर-राग, द्वेष और मोह यह तीनों जीव की प्रवृत्ति को करवाते हैं, यही दोष है। प्रश्न-प्रेत्य भाव का लक्षण क्या है ?

सूत्र :पुनरुत्पत्तिः प्रेत्यभावः II1/1/19

सूत्र संख्या :19


अर्थ : इन्द्रिय और मन का शरीर के साथ जो सम्बन्ध है उसके टूट जाने का नाम ‘प्रेत’ है और प्रेत के दोबारा जन्म लेने को ‘प्रेत्य भाव’ (मरकर जन्मना) कहते हैं। अर्थात् सूक्ष्म शरीर के साथ जीव का एक शरीर से निकलना ‘प्रयाण’ कहलाता है। प्रयाण जो करता है उसे ‘प्रेत’ कहते हैं और उस प्रेत का अन्य शरीर के साथ जो सम्बन्ध का पैदा करना है वह ‘प्रेत्यभाव’ (आवागमन) कहलाता है। सो यह अनादि जन्म से लेकर मुक्ति की अवस्था तक बराबर लगा रहता है।

व्याख्या :प्रश्न-प्रत्यभाव के होने में क्या प्रमाण है ? उत्तर-बुद्धि के संस्कार और कर्मों का भिन्न-भिन्न प्रकार का भोग । क्योंकि जीव का स्वभाव इस प्रकार का है कि यह संग (संसर्ग) से संस्कृत होता है अतः जैसे जन्म में जीव रहता है उसी प्रकार के स्वभावों के संस्कार मन पर अंकित हो जाते हैं जो कि बालकों की स्मरण शक्ति और आकृतिक (स्वाभाविक) वैचिच्य पर विचार करने से स्पष्ट अनुभूत हो सकते हैं। अधिक विवाद परीक्षा प्रकरण में आयेगा। प्रश्न- फल किसे कहते हैं ?

सूत्र :प्रवृत्तिदोषजनितोऽर्थः फलम् II1/1/20

सूत्र संख्या :20


अर्थ : प्रवृत्ति और दोष से उत्पन्न जो सुख दुःख का ज्ञान है वह फल कहलाता है। सुख तथा दुःख कर्म का विपाक अर्थात् (शुभाशुभ) परिणाम हैं और यह (अर्थात् सुख और दुःख ) शरीर, इन्द्रिय, इन्द्रिय के विषय और मन की सत्ता में होते हैं। अतएव शरीरादि के द्वारा ही फल मिलता है। यह जो हमें सुख दुःख तथा मानापमानादि सहन करने पड़ते हैं यह सब फल रूप हैं, अब “यह फल हमें प्राप्त करना चाहिए और इसे त्यागना चाहिए“ इसके लिए फल के पैदा होने से पहले विचार करना चाहिए। प्रश्न-दुःख किसे कहते हैं ?

सूत्र :बाधनालक्षणं दुःखम् II1/1/21

सूत्र संख्या :21


अर्थ : स्वतन्त्रता का न होना और विकल्प का होना दुःख कहलाता है अर्थात् मन को जिस वस्तु की इच्छा हो उसके न मिलने का नाम दुःख है।

व्याख्या :प्रश्न-स्वतन्त्रता से और दुःख से क्या सम्बन्ध है ? उत्तर-जब मनुष्य को भूख लगे और खाना उपस्थित हो तो वह क्षधा दुःख नहीं कहलाती {प्रत्युत खाने (भोजन) की सत्ता में क्षुधा का न्यून होना दुःख का कारण होता है ।} परन्तु जब वह भोजन विद्यमान न हो तब भूख अत्यन्त दुःखदायिका प्रतीत होती है। द्वितीय जैसे मजदूर (कर्मकार) लोग अपने घर में रहते हैं, उन्हें कुछ कष्ट प्रतीत नहीं होता परन्तु यदि उनको उस घर से बाहर जाने का निषेध कर दिया जाये तो वह घर उनको कष्ट का घर हो जायेगा। प्रश्न-यदि स्वतन्त्रता का न होना ही दुःख है तो जीव कदापि मुक्त नहीं हो सकता क्योंकि परमात्मा के नियमों में बंधा हुआ है। उत्तर-परमात्मा जीव के भीतर बाहर विद्यमान है अतः उससे सुख प्राप्ति के लिए जीव को किसी साधन (सामग्री) की आवश्यकता नहीं अतः वह नियमित नहीं, परन्तु प्राकृतिक सुख की प्राप्ति के लिए मन इन्द्रिय और भोग्य सामग्री की आवश्यकता है । उनमें से एक की भी न्यूनता से अत्यन्त दुःख प्रतीत होता है। प्रश्न-मुक्ति क्या वस्तु है ?

सूत्र :तदत्यन्तविमोक्षोऽपवर्गः II1/1/22

सूत्र संख्या :22


अर्थ : उस (दुःख) के पंजा (चंगुल) से सर्वथा छूट जाने का नाम अपवर्ग अर्थात् मुक्ति है।

व्याख्या :प्रश्न-क्या दुःख के अत्यन्ता भाव का नाम मुक्ति है ? उत्तर-यदि दुःख के अत्यन्ता भाव को मुक्ति माना जाये तो वह मुक्ति चैतन्य जीवात्मा की नहीं हो सकती परन्तु जड़ वस्तुओं का धर्म है क्योंकि जड़ वस्तुओं में मन के न होने से कभी दुःख का नाममात्र भी नहीं होता । अतः दुःख होकर सर्वथा दूर हो जाना मुक्ति कहलाती है। प्रश्न-यदि दुःख का होकर छूट जाना मुक्ति है ऐसा माना जाय तो सुषुप्ति काल में जाग्रतावस्था के दुःख छूट जाते हैं अतः मुक्ति कहलायेगी । उत्तर-सुषुप्तावस्था का नाम मुक्ति नहीं हो सकता किन्तु मुक्ति के लिए एक दृष्टान्त हो सकता है क्योंकि सुषुप्तावस्था में दुःखों का बीज सूक्ष्म शरीर विद्यमान है और मुक्ति की दशा में सूक्ष्म शरीर नहीं रहता है। प्रश्न-मुक्ति में दःख का नाश हो जाता है तो संसार में सब लोग मुक्त हो जाने चाहिएं । उत्तर-अतएव तो ऋषि ने सर्वथा दुःख से पृथक होना मुक्त कहा अन्यथा दुःख के नाश को मुक्ति बतलाते । प्रश्न-क्या एक बार दुःख से छूटकर फिर बन्धन में तो जीव नहीं आता । उत्तर-आता है क्योंकि साधनों से निष्पन्न मुक्ति नित्य नहीं हो सकती । प्रश्न-जब दुःख का लेशमात्र भी सम्बन्ध न रहा और मिथ्या ज्ञान जो दुःखोत्पत्ति का कारण था नष्ट हो गया तो फिर दुःख क्योंकर उत्पन्न हो सकता है। उत्तर-मिथ्या ज्ञान को नष्ट करने वाला जो वेद द्वारा ज्ञात तत्वज्ञान है जब मुक्ति में वेदों की शिक्षा का अभ्यास बन्द हो गया तो जीव का ज्ञान हृासभाव को प्राप्त होता गया और अन्ततः अपने स्वाभाविक ज्ञान की सीमा तक पहुंच गया जिससे फिर बन्धन में आना सम्भव हो गया। अधिक विवाद आगे आयेगा। प्रश्न-संशय अर्थात् सन्देह किसे कहते हैं ?

सूत्र :समानानेकधर्मोपपत्तेर्विप्रतिपत्तेरुपलब्ध्यनु-पलब्ध्यव्यवस्थातश्च विशेषापेक्षो विमर्शः संशयः II1/1/23

सूत्र संख्या :23


अर्थ : जहां सामान्य गुण तो मिल जाएं और विशेष धर्मों (गुणों) को जानने के लिए जो विचार उत्पन्न होता है वह संशय कहलाता है जैसे किसी पुरूष ने दूर से स्थाणु (सूखे वृक्ष का ठूँठ) को देखा और पुरूष के समान स्थूल और ऊँचा देखकर यह सन्देह उत्पन्न हुआ कि यह पुरूष है या ठूँठ है इस पर समीक्षा आरम्भ की कि यदि मनुष्य होता तो उसके हाथ-पांव अवश्य हिलते, अतः जानना चाहिए ।

व्याख्या :प्रश्न-इस दृष्टान्त के समान धर्म कौन से हैं ? उत्तर-स्थूलता और ऊंचाई साधारण धर्म हैं और कर चरणादि के चालनादि विशेष धर्म हैं जो मनुष्य में है और स्थाणु में नहीं। प्रश्न-संशय किस दशा में होता है ? उत्तर-जब तक पदार्थ का तात्विक ज्ञान नहीं होता तथा जो नर आत्मा के गुणों से अनभिज्ञ है , उसको इस बात का संदेह है या नहीं परन्तु जब उसको आत्मा के गुणों का ज्ञान होता है तब उसको सन्देह नहीं होता । प्रश्न-जबकि मनुष्य को मुक्ति के लिए ही परिश्रम करना चाहिए और कामों में आयु व्यतीत करना व्यर्थ है तो क्यों इतने व्यर्थ के झगड़े करे । उत्तर-आत्मा का प्राकृतिक पदार्थों से किसी न किसी समय सम्बन्ध अवश्य पड़ता है जिससे आत्मा को संशय उत्पन्न होता है कि क्या यह वस्तु मेरे लिए लाभकारक है या हानिकारक । यदि लाभदायक प्रतीत होगी तो उसकी प्राप्ति की अवश्य इच्छा होगी। और यदि अनिप्टोत्पादक होगी तो उसके त्याग का यत्न होगा अतः मानुष को सन्दिग्ध विचार से सर्वथा दूर कर देना चाहिए जिसका उपाय तत्वज्ञान बिना नहीं हो सकता । प्रश्न-प्रयोजन किसे कहते हैं ?

सूत्र :यमर्थमधिकृत्य प्रवर्तते तत्प्रयोजनम् II1/1/24

सूत्र संख्या :24


अर्थ : अर्थ-जिस वस्तु को आत्मानुकूल या प्रतिकूल जानकर उसको ग्रहण करने का या त्याग करने का विचार जिस लिए उत्पन्न होता है वही प्रयोजन या उद्धेश्य कहलाता है । प्रश्न-दृष्टान्त किसे कहते हैं ?

सूत्र :लौकिकपरीक्षकाणां यस्मिन्नर्थे बुद्धिसाम्यं स दृष्टा-न्तः II1/1/25

सूत्र संख्या :25


अर्थ : जो लोग साधारण रूप से किसी बात को मानते हैं वे लौकिक कहलाते हैं और जो लोग हर एक पदार्थ के गुणों को बुद्धि तथा तर्क द्वारा जानकर निर्णीत करते हैं वे परीक्षिक कहलाते हैं। जिस पदार्थ को लौकिक और परीक्षक एक सा समझते हैं, उसी को दृष्टान्त कहते हैं। दृष्टान्त के विरोध से ही प्रतिपक्षियों के सिद्धान्त खण्ड़न किये जाते हैं और दृष्टान्त के ठीक होने से अपने अंगीकृत सिद्धांन्तों को पुष्ट(दृढ़) किया जाता है। प्रश्न-सिद्धांन्त किसे कहते हैं ?

सूत्र :तन्त्राधिकरणाभ्युपगमसंस्थितिः सिद्धान्तः II1/1/26

सूत्र संख्या :26


अर्थ : सिद्धान्त तीन प्रकार के होते हैं, प्रथम तन्त्र सिद्धांत द्वितीय अधिकरण सिद्धांत तृतीय अभ्युपगम सिद्धांत । और तन्त्र सिद्धांत दो प्रकार का होता है। प्रश्न-तन्त्र किसे कहते हैं ?

व्याख्या :उत्तर-तन्त्र उसे कहते हैं कि बहुत से ऐसे पदार्थों का जिसमें एक का दूसरे से सम्बन्ध हो और वर्णन आये उसको तन्त्र कहते हैं। शास्त्रों को जिसमें हर एक आवश्यक बात का जो मनुष्य को मुक्त करने के लिए आवश्यक है वर्णन और परीक्षा विद्यमान है। प्रश्न-दो प्रकार के तन्त्र सिद्धांत कौन से हैं ?

सूत्र :स चतुर्विधः सर्वतन्त्रप्रतितन्त्राधिकरणाभ्युपगमसंस्थित्यर्थान्तरभावात् II1/1/27

सूत्र संख्या :27


अर्थ : अर्थ-एक तो सर्वतन्त्र सिद्धांत किसे कहते हैं ? प्रश्न- सर्वतन्त्र सिद्धांत किसे कहते हैं ?

सूत्र :सर्वतन्त्रावि-रुद्धस्तन्त्रेऽधिकृतोऽर्थः सर्वतन्त्रसिद्धान्तः II1/1/28

सूत्र संख्या :28


अर्थ : जिस बात के विरूद्ध किसी शास्त्र में प्रमाण न मिले और उसको एक शास्त्र ने उपपादन किया हो उसे सर्वतन्त्र सिद्धांत (सर्वदेशी) कहते हैं। यथा नासिका (नाक) आदि इन्द्रियों से गन्धादि का ज्ञान होता है इसके विरूद्ध किसी शास्त्र में प्रमाण नहीं मिलेगा। या पृथ्वी आदि पांच भूत हैं इत्यादि। हर एक बात को प्रमाण द्वारा जांच कर स्वीकार करना चाहिए। प्रश्न-प्रतितन्त्र सिद्धांत किसे कहते हैं ?

सूत्र :समानतन्त्रसिद्धः परतन्त्रासिद्धः प्रतितन्त्रसिद्धान्तः II1/1/29

सूत्र संख्या :29


अर्थ : जो किसी विचार की पुस्तकों में तो सिद्ध हो और दूसरे विचार के शास्त्र वाले उसका खण्डन करें तो वह प्रतितन्त्र सिद्धांत अर्थात् एकदेशी सिद्धांत कहलाता है । यथा नैयायिक लोग संसार की उत्पत्ति अपने ही कर्मों से मानते हैं और सांख्य वाले उसके विरूद्ध कार्य को नित्य मानते हैं । प्रश्न-अधिकरण सिद्धान्त किसे कहते हैं ?

सूत्र :यत्सिद्धावन्यप्रकरणसिद्धिः सोऽधिकरणसिद्धान्तः II1/1/30

सूत्र संख्या :30


अर्थ : जिस बात के सिद्ध हो जाने से अन्य बातें स्वयं सिद्ध हो जाएं और उसके सिद्ध न हों अर्थात् जिसकी सिद्धि अन्य की सिद्धि पर ही निर्भर हो तो जिसकी सिद्धि स्वीकृत होने से और बातें स्वतः सिद्ध हो जाएं वह अधिकरण सिद्धान्त है, यथा - शरीर, इन्द्रियों से जानने वाला आत्मा पृथक है क्योंकि दर्शन या स्पर्शन से एक ही वस्तु को जानने से प्रतीत होता है कि यदि आत्मा शरीर तथा इन्द्रियों से पृथक न होता तो इन्द्रियों को अपने नियत विषय का ज्ञान तो होता परन्तु जिस अर्थ को दूसरे इन्द्रिय ने ग्रहण किया है उसका ज्ञान न होता जैसे एक वस्तु बूढ़े को आंख से देखती है और हाथ से पकड़ कर कहता है कि जिसको देखा था उसे उठाता हूं, यदि शरीर तथा इन्द्रियें ही आत्मा होती तों ऐसा ज्ञान नहीं होना चाहिए था क्योंकि दिखाई तो आंख से दिया था और उठाया गया हाथ से और कहता है कि जिसको मैनें देखा था उसे उठाता हूं। अतः यह सिद्ध हूआ कि हर एक इन्द्रियादि द्वारा से जानने वाला कोई और है इसी का नाम अधिकरण सिद्धान्त हैं।

व्याख्या :प्रश्न-नियत विषय किसे कहते हैं ? उत्तर-ज्ञाता और ज्ञान से भिन्न किसी द्रव्य में रहने वाले जो गुण हैं , वे नियत विषय हैं। यह सब विषय आत्मा के शुद्ध होने से शुद्ध हो सकते हैं अन्यथा नहीं । प्रश्न-अभ्युपगम सिद्धांत किसे कहते हैं ?

सूत्र :अपरीक्षिताभ्युपगमात्तद्विशेषपरीक्षणमभ्युपगमसिद्धान्तः II1/1/31

सूत्र संख्या :31


अर्थ : साधारण रूप से किसी वस्तु का ज्ञान होने के पश्चात् उसके धर्मों की परीक्षा का आरम्भ कर दिया जाए तो वह अभ्युपगम सिद्धांत कहलाता है यथा “शब्द द्रव्य है” ऐसा मान कर यह परीक्षा करना कि शब्द रूप द्रव्य नित्य है वा अनित्य है । शब्द की सत्ता को स्वीकार करके उसके नित्यत्व और अनित्य का विचार करना अभ्युपगम सिद्धान्त कहलाता है(?) । प्रश्न-अवयव किसे कहते हैं ?

सूत्र :प्रतिज्ञाहेतूदा-हरणोपनयनिगमनान्यवयवाः II1/1/32

सूत्र संख्या :32


अर्थ : प्रतिज्ञा, हेतु, उदाहरण, अपनयन और निगमन यह पंच अवयव हैं कि जो अनुमान प्रमाण में प्रयुक्त किये जाते हैं या इन पांचो के समुदाय को अनुमान कहते हैं । किन्तु कोई-कोई नैनायिक दश अवयव अनुमान के मानते हैं वह पांच यह हैं , यथा जिज्ञासा , संशय शक्यप्राप्ति , प्रयोजन और संशयाभ्युदास अर्थात् संदेह के अपाकरण का विचार । प्रश्न-प्रतिज्ञा किसे कहते हैं ?

सूत्र :साध्यनिर्देशः प्रतिज्ञा II1/1/33

सूत्र संख्या :33


अर्थ : ज्ञेय (जानने योग्य) धर्म से धर्मों को निर्देंश करना प्रतिज्ञा कहलाती है, यथा कहा जाय कि शब्द अनित्य है, अथवा आत्मा चैतन्य है इत्यादि । प्रश्न-हेतु किसे कहते हैं ?

सूत्र :उदाहरणसाध-र्म्यात्साध्यसाधनं हेतुः II1/1/34

सूत्र संख्या :34


अर्थ : उदाहरण के साधर्म्य अर्थात् सादृश्य से साध्य को सिद्ध करना हेतु अर्थात् युक्ति कहलाती है और जो धर्म साध्य हों उसी धर्म को उदाहरण में दिखला कर उस धर्म को सिद्ध करने की यही युक्ति है जैसे प्रतिज्ञा में कहा था कि शब्द अनित्य है उसकी युक्ति यह बतलाना कि उत्पत्तिमान् होने से है क्योंकि जो वस्तु उत्पत्ति वाला है वह सब नाश वाली देखी जाती है। प्रश्न-क्या हेतु उदाहरण की सदृशता से होता है ।

सूत्र :तथा वैधर्म्यात् II1/1/35

सूत्र संख्या :35


अर्थ : उदाहरण के विरोध से भी यदि किसी वस्तु का प्रमाण वर्णन किया जाय तो वह भी हेतु अर्थात् युक्ति कहलाती हैं। यथा शब्द क्यों अनित्य है ?

व्याख्या :उत्तर-उत्पत्तिमान् होने से इसके विरोध से पाया जाता है कि जो उत्पत्तिमान नहीं है वह अनित्य नहीं है जैसे आत्मादि हैं। प्रश्न-उदाहरण किसे कहते हैं ?

सूत्र :साध्यसाधर्म्यात्तद्धर्मभावी दृष्टान्त उदाहरणम् II1/1/36

सूत्र संख्या :36


अर्थ : साघ्य के सदृश धर्म वाला होने से उन दोनों के धर्म की समता करना उदाहरण है और साध्य दो प्रकार के होते हैं एक गुणी दूसरे गुण -जैसे किसी ने कहा कि शब्द में अनित्यत्व है अर्थात् वह नाश होने वाला है दूसरे शब्द अनित्य है। हर एक वस्तु में अनित्यत्व दिखाई पड़ता है।

व्याख्या :प्रश्न-अनित्य किसे कहते हैं ? उत्तर-सत्तावान् (जिसकी सत्ता सम्भव हो) को जिसका उत्पन्न होना और नाश होना आवश्यक हो । प्रश्न-अनित्यत्व क्या वस्तु है ? उत्तर-उत्पत्ति का होना -अब जो वस्तु उत्पन्न हुई-हुई होगी । उसमें अनित्यत्व के उपस्थित होने से उसका अनित्य होना आवश्यक है जहां उत्पत्ति का अभाव होगा वहां अनित्यत्व का भी अभाव होगा अर्थात् कोई पैदा हुई-हुई वस्तु शेष नहीं रह सकती और न कोई अनादि वस्तु अनित्य हो सकती है। प्रश्न-क्या उदाहरण धर्मों के समान होने में ही दिया जा सकता है या कोई अन्य दशा भी है ?

सूत्र :तद्विपर्ययाद्वा विपरीतम् II1/1/37

सूत्र संख्या :37


अर्थ : बहुत से अवसरों पर गुणों के वैधम्र्म से भी उदाहरण दिया जाता है जैसे किसी ने कहा शब्द अनित्य है उत्पत्ति वाला होने से जो उत्पत्ति वाला नहीं है वह अनित्य नहीं जैसे आत्मा परमात्मा आदि। यह आत्मादि का दुष्टान्त विरूद्ध धर्मों से दिया गया है क्योंकि शब्द को अनित्य सिद्ध करना था जिसके लिए उत्पत्ति वाला होने युक्ति देकर उदाहरण के समय बतलाया कि जो उत्पन्न हुआ-हुआ नहीं वह अनित्य नहीं जैसे आत्मादि इस उदाहरण से सिद्ध किया कि उत्पन्न हुई-हुई चीजें (वस्तुएं) अनित्य हैं उसका कारण स्पष्ट यह है कि एक किनारा वाला नद संसार में दृष्टि नहीं आता इस दृष्टान्त में उत्पत्ति का अभाव ही अनित्य होने से पृथक् रखने वाला बताया गया । उत्पत्ति और नाश यह दो किनारे हर एक सत्तावान् कार्य द्रव्य के हैं अतः एक किनारा वाला कोई हो नहीं सकता यह जानकर ऊपर लिखा उदाहरण दिया गया। अतः जहां उदाहरण साध्य वस्तु के विरूद्ध धर्मों में दी जाय जैसे उत्पत्तिमान को अनित्य बतलाने के लिए अनादि वस्तु को शिष्यमाण (नित्य) बतलाया और जहां सधर्म्य लेकर किसी पदार्थ का उदाहरण देकर उसके अनुकूल धर्म को सिद्ध किया। अतः दोनों प्रकार के उदाहरण अर्थात् दृष्टान्त हो सकते हैं ? प्रश्न-उपनय किसे कहते हैं ?

सूत्र :उदाहरणापेक्षस्तथे-त्युपसंहारो न तथेति वा साध्यस्योपनयः II1/1/38

सूत्र संख्या :38


अर्थ : जहां उदाहरण में साध्य वस्तु के गुणों का सादृश्य दिखा कर यह कहा जाता है यथा स्थाली आदि उत्पन्न हुई हुई वस्तुएं अनित्य देखी हैं इसी प्रकार उत्पन्न हुई हुई थाली के सदृश शब्द को भी उत्पन्न हुआ हुआ जाना है इसलिए यह कहना कि जिस प्रकार थाली आदि उत्पन्न वस्तुएं अनित्य हैं इसी प्रकार जन्य शब्द भी अनित्य है इसी प्रकार जहां आत्मादि अनादि वस्तुओं को नश्वर न देखकर यह विचार करना कि शब्द अनादि नहीं इसलिए यह नित्य नहीं अनुमान के पांचों अवयवों की ठीक बहस आगे लिखी जायगी। प्रश्न-निगमन किसे कहते हैं ?

सूत्र :हेत्वपदेशात्प्रतिज्ञायाः पुनर्वचनं निगमनम् II1/1/39

सूत्र संख्या :39


अर्थ : जहां साधर्म्य या वैधम्र्म से पक्ष को सिद्ध करके फिर दुहराना है उसे निगमन कहते हैं जैसे किसी ने पक्ष स्थापना की कि पर्वत में अग्नि है जब इस प्रतिज्ञा के लिए हेतु मांगा तो कहा धुएं के होने से जाना जाता है जब फिर उदाहरण पूछा कि क्या प्रमाण है जहां धुआं हो वहां आग होगी तब उत्तर मिलता है कि रसोई धर में आग से धुआँ निकलता देखा हैं। अतः पर्वत में भी आग से धुआं निकलता है जहाँ धुआँ होगा वहीं आग होगी अतः पर्वत में अवश्य ही आग है।

व्याख्या :प्रश्न-प्रतिज्ञा को पृथक् बतलाइए ? उत्तर-पर्वत में आग है यह प्रतिज्ञा है (धूमवत्वात्) धूमवाला होने से यह हेतु है। रसोईधर में आग से धुएं का निकलना उदाहरण है। और जहाँ-जहाँ धुआं होगा वहीं आग होगी यह उपनयन है ऐसे ही पहाड़ में यह आग है यह निगमन है। प्रश्न-तर्क किसे कहते हैं ?

सूत्र :अविज्ञाततत्त्वेऽर्थे कारणोपपत्तितस्तत्त्वज्ञानार्थमूहस्तर्कः II1/1/40

सूत्र संख्या :40


अर्थ : जिस वस्तु के तत्व को ठीक तौर पर न जानते हों उसके जानने की इच्छा का नाम जिज्ञासा है अर्थात मैं उस वस्तु के तत्व को जान लूं और जिस वस्तु के जानने की इच्छा है उसके गुणों को अलग-अलग करके विचार करना कि क्या यह पदार्थ इस प्रकार का है या उस प्रकार का और पदार्थ के तत्व के विचार करने में जो रूकावटें पैदा होती हैं जिससे ख्याल हो सकता है कि ऐसा हो सकता या नहीं इस प्रकार के बार-बार के सन्देह पैदा करने का नाम तर्क है। यह जो जानने वाला जानने योग्य वस्तु को जानता है फिर उसमें विचार करता है कि क्या यह वस्तु जन्य है या अनादि है इस प्रकार जिस विशेषण का ठीक न हो उसमें विचार करना कि यदि यह जन्य है तो ऐसे किये हुए कर्मों का फल भोगने के लिए पैदा होता है या कोई और सबब (कारण) है।

व्याख्या :प्रश्न-तर्क करने का प्रयोजन क्या है ? उत्तर-वस्तु के वास्तविक रूप को जानना क्योंकि जिस वस्तु की तात्विक स्थिति को ठीक नहीं जानते उससे प्रायः अनिष्ट होता है । प्रश्न-तर्क कितने प्रकार का है ? उत्तर-पांच प्रकार का आत्मश्रय, अन्योन्याश्रय, चकिकाश्रय, अनवस्था , तदन्यवाधता प्रसंग। प्रश्न-आत्माश्रय किसे कहते हैं ? उत्तर-स्वंय ही पक्ष हो स्वयं ही हेतु-अर्थात् अपनी प्रतिज्ञा को सिद्ध करने के लिये उस प्रतिज्ञा को प्रमाण बताना -उदाहरण किसी ने पूछा कि कुरान के ईश्वरीय वचन होने में क्या प्रमाण है- उत्तर दिया कुरआन में लिखा है। प्रश्न-अन्योन्याश्रय किसे कहते है ? उत्तर-जहां दो वस्तुओं की सिद्धि एक-दूसरे के बिना सिद्ध न हो सके -जैसे किसी ने कहा खुदा की सत्ता में क्या प्रमाण है-उत्तर-दिया कुरआन का लेख, अब प्रश्न हुआ कि कुरआन के सच्चा होने का क्या प्रमाण है-कलाम इलाही होना -इस प्रकार बातचीत ठीक नहीं हो सकती एक विश्वस्त साक्षी अपनी साक्ष्य से दूसरे को विश्वस्त सिद्ध कर सकता है और दो अविश्वस्त एक दूसरे को विश्वस्त सिद्ध करने से श्रद्धेय नहीं हो सकते । प्रश्न-किस प्रकार विवेचना हो सकती है ?

सूत्र :विमृश्य पक्षप्रतिपक्षाभ्यामर्थावधारणं निर्णयः II1/1/41

सूत्र संख्या :41


अर्थ : अपने पक्ष के सिद्ध करने के लिए प्रमाणादि साधनों को काम में लाना और दूसरे के पक्ष को दूषित करके खंड़न करना यह शैली विवेचना की है और जिन हेतुओं से अपने पक्ष की सिद्धि का प्रमाण और दूसरे के पक्ष का खंड़न करना है वह निर्णय कहलाता है।

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