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न्याय दर्शन प्रथम अध्याय द्वितिय आह्निक भाष्यकार स्वामी दर्शनानंद सरस्वती

 व्याख्या :प्रथमोऽध्यायः द्वितीय आह्निकः

सूत्र :प्रमाणतर्कसाधनोपालम्भः सिद्धान्ताविरुद्धः पञ्चावयवोपपन्नः पक्षप्रतिपक्ष-परिग्रहो वादः II1/2/42

सूत्र संख्या :42


अर्थ : एक पदार्थ के विरोधी धर्मों को लेकर प्रमाण-तर्क साधन और अशुद्धियां दिखलाने से तत्व के विरूद्ध न होकर पक्षादि (प्रतिज्ञादि वा ) अनुमान के पाच्चों अवयवों को लिए हुए जो प्रश्नोत्तर करना है उसे वाद कहते हैं जो पुरूष प्रमाण देने के बिना ही बात-चीत करता है वह वाद करना नहीं जानता जैसे किसी ने कहा आत्मा है प्रतिपक्षी कहता है कि आत्मा नहीं है अब इस पर दोनो ओर से प्रमाण और युक्ति द्वारा प्रश्नोत्तर करना ‘वाद‘ है परन्तु जहां भिन्न वस्तुओं में दो विरूद्ध धर्म वर्णन किये जायें वह वाद नहीं कहाती ।जैसे किसी ने कहा आत्मा नित्य है दूसरा कहता है शब्द अनित्य है- यस्मात् नित्यत्व और अनित्य दो भिन्न वस्तुओं में विद्यमान है अतः यहां पर वाद नहीं हो सकता क्योंकि एक वस्तु में परस्पर विरूद्ध दो धर्म नहीं रह सकते जहां दो दृष्टि पड़े-उनमें से एक ठीक होगा दूसरा असम्भव-असम्भव को सम्भव से पृथक करने के लिए वाद किया जाता है परन्तु भिन्न- भिन्न दो वस्तुओं में दो विरूद्ध धर्म रह सकते हैं । अतः वहां पर असम्भवता की सम्भवता नहीं वहां वाद की भी आवश्यकता नहीं ।

व्याख्या :प्रश्न-सिद्धान्त के विरूद्ध न हो यह क्यों कहा ? उत्तर-अपने सिद्धान्त की अपेक्षा न कर उसके विरूद्ध जल्प वितण्डा हो जाता है वाद नहीं कहला सकता । प्रश्न-जल्प किसे कहते हैं ?

सूत्र :यथोक्तोपपन्नश्छलजातिनिग्रहस्थानसाधनोपालम्भो जल्पः II1/2/43

सूत्र संख्या :43


अर्थ : प्रमाण, तर्कादि साधनों से युक्त छल, जाति और निग्रह स्थानों के आक्षेप से वाद करने का नाम जल्प है। क्योंकि वाद में हार-जीत (जय-पराजय) नहीं होती। उसमें केवल सत्यासत्य का निर्णय करना उद्धेश्य होता है । परन्तु जय-पराजय उद्धेश्य होता है तो वहां कहीं छल से काम लिया जाता है कहीं निग्रह स्थानों पर विवाद किया जाता है।

व्याख्या :प्रश्न-जल्प और वाद में क्या भेद है ? उत्तर-प्रथम तो इन दोनो प्रकार के विवादों में उद्धेश्य ही पृथक-पृथक होते हैं -अर्थात् वाद का उद्धेश्य वस्तु के तत्व का अनुसन्धान करना होता है। और जल्प से जय प्राप्ति अभिप्रेत होती है-द्वितीय वाद में छल आदि से काम नहीं लिया जाता और जल्प में यह भी काम आते हैं क्योंकि छलादि से बात-चीत करने वाला वस्तु के तत्व ज्ञान की इच्छा पूरी नहीं कर सकता-परन्तु जय का काड्क्षी छल से काम ले सकता है इसलिए तत्वान्वोक्षण के प्रयोजन से वार्तालाप का नाम वाद और जय-पराजय काड्क्षया जो वात्र्ता की जाती है वह जल्प कहाती है। प्रश्न-वितण्डा किसे कहते हैं ?

सूत्र :स प्रतिपक्षस्थापनाहीनो वितण्डा II1/2/44

सूत्र संख्या :44


अर्थ : विवाद जब इस प्रकार का हो कि कोई पक्षी अपना कोई सिद्धान्त न रक्खे परन्तु अन्य के पक्ष का खण्डन करना ही अपना काम समझे तो उसे वितण्डा कहते हैं और इस प्रकार की वार्ता से वस्तु का यथार्थ ज्ञान कभी नहीं हो सकता ।

व्याख्या :प्रश्न-क्या वितण्डा करने से पदार्थ तत्व का यथात्मय बोध नहीं हो सकता । उत्तर-न तो इस प्रकार विवाद करने वालों का यह उद्धेश्य होता है कि हमें तत्व की वास्तविक दशा का ज्ञान हो और न ही इस उपाय से इच्छा पूर्ण हो सकती है , क्योंकि तत्वानुसन्धान उभय पक्ष स्थापना द्वारा हो सकता है जिस प्रकार तुला के दोनों पलडों से तो हर वस्तु की तोल जानी जा सकती है किन्तु एक पलड़े से कभी तोल मालूम नहीं हो सकती। वितण्डा करने वाले किसी वस्तु के यथार्थ रूप को सिद्ध करने के वास्ते समुद्यत नहीं होते, प्रत्युत प्रतिपक्षी के पक्ष की कुट्टी करना ही उनका उद्द्धेश्य होता है। प्रश्न-हेत्वाभास किसे कहते हैं ?

सूत्र :सव्यभिचारविरुद्धप्रकरणसमसाध्य-समकालातीता हेत्वाभासाः II1/2/45

सूत्र संख्या :45


अर्थ : पाँच प्रकार के हेत्वाभास होते हैं, (जो वस्तुतः हेतु तो न हों परन्तु हेत्वाकार प्रतीत होते हों, वे हेत्वाभास कहलाते हैं) प्रथम सव्यभिचार, द्वितीय विरूद्ध, तृतीय प्रकरणसम, चतुर्थ साध्य सम, पंचमकालातीत । प्रश्न-सव्यभिचार किसे कहते हैं ?

सूत्र :अनैकान्तिकः सव्यभिचारः II1/2/46

सूत्र संख्या :46


अर्थ : सव्यभिचार उसे कहते हैं जो एक स्थान पर स्थिर न रहे, प्रतिज्ञा की सिद्धि के लिए ऐसा हेतु देना जो प्रतिज्ञा को छोड़कर और स्थान पर भी चला जाए सो व्यभिचारी कहलाता है जैसे किसी ने कहा कि शब्द नित्य है, जब प्रमाण पूछा तो बोला कि स्पर्शाभाववान होने से दृष्टान्त में कहा कि क्योंकि अनित्य (घाट) घड़े में स्पर्शवत्व देखते हैं, अब नित्यत्व सिद्धि के लिए जो स्पर्शाभाववाद हेतु है यह व्याभिचारी है क्योंकि विरूद्ध चीजों में भी पाया जाता है, जैसे कि दुःख-सुख स्पर्शाभाव वाले होने पर भी अनित्य हैं और परमाण स्पर्शवान होने पर भी नित्य है। अतएव ऐसे हेतु को सव्यभिचार हेत्वाभास कहते हैं। यस्मात् आत्मादि नित्य होने पर भी स्पर्शवाले नहीं और सुख-दुखादि अनित्य होने पर भी स्पर्शवाले नहीं अतः स्पर्शाभाववत्व हेतु अनित्यत्व का साधक कभी नहीं हो सकता, एवं स्पर्शवत्व हेतु नित्यत्व का भी साधक नहीं हो सकता । जो हेतु पक्ष और प्रतिपक्ष दोनों ही में पाया जाय वह हेतु ही नहीं परन्तु हेतु का आभास (प्रतिबिम्ब) है। प्रश्न-विरूद्ध हेत्वाभास किसे कहते हैं ?

सूत्र :सिद्धान्त-मभ्युपेत्य तद्विरोधी विरुद्धः II1/2/47

सूत्र संख्या :47


अर्थ : जो हेतु अपने साध्य के प्रमाण में उपस्थित होकर उसी का विरोधी हो वह विरूद्ध हेतु कहलाता है । जिस वस्तु को सिद्ध करना हो उसके विरूद्ध हेतु देना विरूद्ध कहलाता है। जैसे किसी ने कहा, पर्वत में आग है, पूछा क्या प्रमाण है ? तो उत्तर दिया कि स्त्रोत वाला होने से चूंकि पर्वत के स्त्रोत से पानी आ रहा है इसलिए पहाड़ में आग है। चूंकि यह युक्ति अनित्य को सिद्ध करने की अपेक्षा उसके अभाव को सिद्ध करती है। अतः इसके विरूद्ध हेतु हैं। प्रश्न- प्रकरण सम हेत्वाभास किसे कहते हैं ?

सूत्र :यस्मात्प्रकरणचिन्ता स निर्णयार्थमपदिष्टः प्रकरणसमः II1/2/48

सूत्र संख्या :48


अर्थ : जिस कारण से वस्तु की जिज्ञासा की आवश्यकता हो यदि उसी के सिद्ध करने में हेतु दिया जाय तो ‘प्रकरणसम’अर्थात् जिज्ञास्य के साधन में अस्वीकृत हेतु और उसके अनुरूप हेतु देना अर्थात् जिस वस्तु के सत्यत्व पर पूरा विश्वास न हो और विवाद का विषय भी वही वस्तु हो, उसी को हेतु के स्थान में देना ‘प्रकरणसम’ कहलाता है।

व्याख्या :प्रश्न-प्रकरण किसे कहते हैं ? उत्तर-ऐसे विषय को जिसका अनुसन्धान करना उद्धेश्य हो और जिसके गुणों में परस्पर विरूद्ध मति होने के कारण एक प्रकार निश्चित ज्ञान न हो प्रत्युत संदेह हो और वह परीक्षा के प्रयोजन से उपस्थित होने पर प्रकरण कहलाता है। प्रश्न-चिन्ता किसे कहते हैं ? उत्तर-संदिग्ध विषय को संदेह शून्य बनाने की इच्छा से जो प्रश्नोत्तर किये जाते हैं, चाहे वे अपने ही मन में हों या दूसरे के साथ वह चिन्ता या विचार कहलाती है । अब प्रकरणसम का दृष्टान्त देते हैं , जैसे किसी ने कहा, शब्द अनित्य है और उसके अनित्य होने की युक्ति उत्पत्ति वाला होना और सादि तथा शान्त द्रव्य के गुणों का न होना है। अर्थात् जितनी वस्तुएं जन्य हैं सब नश्वर हैं, क्योंकि घट (घड़ा) आदि जन्य पदार्थ सब अनित्य हैं। यह प्रत्यक्ष प्रतीत होता है और इसके साथ ही यह विचार उत्पन्न होना कि जिस प्रकार आत्मादि आकृति शून्य पदार्थ नित्य हैं । शब्द भी आकृति रहित होने से नित्य हो सकता है अतः शब्द का नित्य या अनित्य न होना विवाद गोचर है और नित्यत्व की विशेषता को न मानना युक्ति नहीं किन्तु मिथ्या हेतु है। इसलिए जो हेतु दोनों ओर घट जावे वह प्रकरण सम कहलाता है। प्रश्न-साध्यसम हेत्वाभास किसे कहते हैं ?

सूत्र :साध्याविशिष्टः साध्यत्वात्साध्यसमः II1/2/49

सूत्र संख्या :49


अर्थ : वह हेतु जो स्वंय हेत्वन्तर की अपेक्षा रखता हो और उभय पक्षासम्मत हो किसी का हेतु नहीं हो सकता, क्योंकि सन्देह के निराश करने के लिए विश्वास होना आवश्यक हैं और ऐसे हेतुओं से जो स्वंय प्रमाणान्तर चाहते हों सन्देह के हृास के स्थान पर उसकी वृद्धि होती है।जैसे किसी ने कहा, छाया द्रव्य है। हेतु कहा कि गतिमान होने से अब छाया गति मती वस्तु है या नहीं यह स्वंय प्रमाणान्तर की अपेक्षा रखती है। जब तक यह सिद्ध न हो ले कि छाया चलती है या पुरूष । तब तक इस हेतु से छाया का द्रव्य होना सिद्ध नहीं होता । प्रथम तो छाया के द्रव्यत्व में संशय था अब छाया के गतिमत्वागतिमत्व विषयक विवादान्तर आरम्भ हो गया, और यह बात प्रसिद्ध है कि जितना प्रकाश और वस्तु के मध्य अवरोध होता है उतनी ही छाया होती है। अतः छाया का चलना भी भ्रम है और जो हेतु भ्रामक हो वही आभास रूप है। प्रश्न-कालातीत हेत्वाभास किसे कहते हैं ?

सूत्र :कालात्ययापदिष्टः कालातीतः II1/2/50

सूत्र संख्या :50


अर्थ : जिस हेतु में काल का अन्तर हो जावे या काल का अभाव सिद्ध हो तो वह युक्ति ‘कालातीत’ कहलाती है। जैसे किसी ने कहा कि शब्द नित्य है और उसमें युक्ति यह दी कि जिस प्रकार नेत्र और प्रकाश के साथ सम्बन्ध होने से घट का प्रत्यक्ष होता है और प्रकाश के अभाव में घड़े का ज्ञान नहीं होता परन्तु प्रकाशाभाव काल में घड़ा अविद्यमान नहीं होता इसी प्रकार शब्द भी नित्य है। जब बाणी से बोलते हैं तब उसका प्रादुर्भाव होता है तदनन्तर नहीं । इस दलील से शब्द को नित्य सिद्ध किया, परन्तु यह युक्ति युक्त नहीं क्योंकि रूप का ज्ञान प्रकाश के साथ ही होता है परन्तु शब्द निकलने के पश्चात् कालान्तर में दूर के मनुष्यों को शब्द सुनाई देता है। इसलिए यह हेतु कालातीत हेत्वाभास है। क्योंकि जैसा शब्द दुन्दुभी और काष्ठ के संयोग से उत्पन्न होता है वैसा शब्द वियोग से उत्पन्न नहीं होता अतः शब्द संयोग काल में नहीं उत्पन्न होता परन्तु उस काल को अतीत करती है। कारण यह है कि कारण के होने से कार्य उत्पन्न नहीं हो सकता । अतः उदाहरण में सादृश्य न होने से यह हेतु हेत्वाभास कहलाया, बहुत से लोग यह आक्षेप करते हैं कि अनुमान के अवयवों को उलटे प्रकार से आगे-पीछे वर्णन करने का नाम कालातीत है। परन्तु यह विचार ठीक नहीं क्योंकि जिसका जिसके साथ सम्बन्ध होता है दूर होने पर भी बना रहता है। चाहे मध्य में कोई अवरोध आ जावे परन्तु सम्बन्ध दूर नहीं हो सकता और जिनका वस्तुतः सम्बन्ध नहीं वह क्रमशः और निकट होने पर भी युक्त नहीं हो सकता । यदि दृष्टान्त और हेतु के मध्य में कोई अवयवान्तर आ जावे तो हेतु का हेतुत्व नष्ट नहीं हो सकता । अतः अवयवों को आगे-पीछे रखने से कालातीत हेत्वाभास नहीं हो सकता । प्रश्न-छल करना या धोखा देना किसे कहते हैं ?

सूत्र :वचनविघातोऽर्थविकल्पोपपत्त्या छलम् II1/2/51

सूत्र संख्या :51


अर्थ : विवाद करने वाले विपक्षों के शब्दों के उल्टे अर्थ करके उसके अभिप्राय से सर्वथा विरूद्धार्थ निकालना छल कहलाता है उसका व्याख्यान अगले सूत्रों के अर्थों में वर्णन किया जायगा और बहुत से उदाहरण भी दिये जायेंगे। प्रश्न-छल कितने प्रकार का होता है ?

सूत्र :तत्त्रिविधं वा-क्छलं सामान्यच्छलमुपचारच्छलं च II1/2/52

सूत्र संख्या :52


अर्थ : तीन प्रकार का होता है, वाक् छल (शब्दों का धोखा), सामान्य छल और उपचार छल। प्रश्न-‘वाक्छल’ किसे कहते हैं ?

सूत्र :अविशेषाभिहितेऽर्थे वक्तुरभिप्राया-दर्थान्तरकल्पना वाक्छलम् II1/2/53

सूत्र संख्या :53


अर्थ : जहां एक शब्द के दो अर्थ हों, वहां वक्ता के अभिप्राय के विरूद्ध अर्थों को लेकर उसका खण्डन करना वाक्छल कहलाता है। जैसे किसी ने कहा कि यह लड़का नव कम्बल वाला है। नव शब्द के दो अर्थ हैं एक तो नूतन, और और दूसरे नौ (संख्या) अब कहने वाले का अभिप्राय तो यह था कि इस लड़के का कम्बल नूतन है, तो विपक्षी ने खण्डन के लिए कहा कि इसके पास तो एक कम्बल है, नौ नहीं है। इसलिए तुम्हारा कहना असत्य है। यहां पर नव शब्द के दो अर्थ होने के कारण वक्ता के विरूद्ध अभिप्राय का तिरोधान करके धोखा दिया गया और विरोधी का धोखा देना स्पष्ट अनुचित है यही वाक्छल कहलाता है इस प्रकार की और बहुत-सी मिसालें हैं जो अधिकतया विवादों में सुनने में आई है। बहुत से वादी ठीक उदाहरण को अपने मत के प्रतिकूल देखकर मिथ्या सिद्ध करने के लिए इसी प्रकार के वाक्छल का प्रयोग किया करते हैं जिससे उनकी निर्बलता का ज्ञान विलक्षण लोगों पर तो हो जाता है परन्तु साधारण लोग उनकी धूत्र्तता के धोखे में आ जाते हैं क्योंकि जब लड़के के पास एक ही कम्बल है तो उसका ‘नव’ शब्द से नूतन को छोड़कर और क्या अभिप्राय हो सकता है। इस बात को समझ कर भी ‘नव’ के नौ अभिप्राय हो सकता है। इस बात को समझकर भी ‘नव’ के नौ (संख्या) अर्थ को लेकर आक्षेप करना नितान्त छल नहीं तो और क्या है। इसी प्रकार के धोखे को वाक्छल कहते है। प्रश्न-सामान्य छल किसे कहते हैं ?

सूत्र :सम्भवतोऽर्थस्यातिसामान्ययोगादसम्भूतार्थ-कल्पना सामान्यच्छलम् II1/2/54

सूत्र संख्या :54


अर्थ : जो अर्थ शब्द के सामान्यतया सम्भव हों उनके संसर्ग से असम्भव कार्यों की कल्पना करके विवाद करना सामान्यछल कहलाता है अर्थात् एक शब्द के साधारण अर्थों को लेकर वक्ता के अभिप्राय के प्रतिकूल भिन्न स्थानों पर उसका अन्वेषण करना छल है, जैसे एक पुरूष कहता है कि ब्राह्मण विद्वान् है तो हर एक लड़के को विद्वान् होना चाहिए क्योंकि विद्वता ब्राह्मण का गुण मान लिया गया है। अब वक्ता के मनोभाव के विरूद्ध युक्ति उत्पन्न की गई क्योंकि वह अधीत विद्य ब्राह्मण को विद्वान बतलाता था। अब यह उसके प्रतिकूल हर एक ब्राह्मण वंशज में विद्वता का गुण ढ़ूंढते हैं जिससे वक्ता के तात्पर्य को सर्वथा मिथ्या बनाना अभिप्रत है। क्योंकि ब्राह्मण का सविद्य होना तो संभव है परन्तु हर एक ब्राह्मण का विद्वान होना असम्भव है। वक्ता ने तो युक्त बात कही थी जिसका होना सम्भव था। अब छल करने वाले ने सर्वथा उसके अभिप्राय के विरूद्ध परिणाम निकाला वह जिस गुण को ब्राह्मण में बतला रहा था।यह छल करने के लिए उस गुण को हर ब्राह्मण में ढूंढने लगा और इस धोखे से उसके वचन को असत्य सिद्ध करना चाहा, इस प्रकार के छल का नाम ‘सामान्य छल’ है। प्रश्न-उपचार छल किसे कहते हैं ?

सूत्र :धर्मविकल्पनिर्देशेऽर्थसद्भावप्रतिषेध उपचा-रच्छलम् II1/2/55

सूत्र संख्या :55


अर्थ : जहां किसी ने एक ऐसे शब्द को कहा कि जिसके दो अर्थ हों एक वह जो विशेष (प्रधान) अर्थ हों और दूसरे सामान्यार्थ हों । विशेष अर्थ को धर्म कहते हैं , वक्ता ने सामान्य (साधारण) अर्थों के प्रकट करने के लिए एक शब्द का प्रयोग किया। वहां उसकी विशेष धर्म (खास अर्थों को) वर्णन करके उसकी सत्ता का अभाव सिद्ध करना उपचार छल कहलाता है। जैसे एक पुरूष हमारे साथ रेल पर सवार है और वह मेरठ के समीप पहुंच कर यह कहता है कि मेरठ आ गया। अब उसका अभिप्राय मेरठ पहुंच जाने से है। हम उसकी बात को मिथ्या सिद्ध करने के वास्ते यह धोखा देते हैं कि शहर में ‘आना-जाना’ रूप (क्रियारूप) धर्म सम्भव नहीं , क्योंकि वह जड़ है इसलिए तुम्हारा यह कहना कि मेरठ आ गया सर्वथा झूठ है। प्रत्युत रेल में बैठ कर हम आ गये हैं वस्तुतः वक्ता का भी यही तात्पर्य था, क्योंकि संसार में विशेष धर्म को ही माना जाता है। परन्तु सम्बन्ध से भी किसी धर्म को मान लेना उपचार है। अथवा किसी ने कहा मचान पुकारते हैं। उसके उत्तर में कहा गया कि मचान तो जड़ है । उनमें पुकारने की शक्ति नहीं। किन्तु मचान पर बैठे हुए पुरूष पुकार रहे है।इसलिए तुम्हारा कहना ठीक नहीं। वास्तविक प्रयोजन धोखे का यही है कि वक्ता के अभिप्राय के विरूद्ध अर्थ निकाल कर उसके पक्ष का निराश करना। यद्यपि छल करने वाला इस प्रकार के साधनों द्वारा जो ऊपर के तीन सूत्रों में वर्णन किये गए हैं अपने विरोधी के पक्ष का खण्डन करता है, तथापि इस धोखे से पक्ष की सत्ता में कुछ भी अन्तर नहीं होता । यहां पर आक्षेपता आक्षेप करता है।

सूत्र :वाक्छलमेवोपचारच्छलं तदविशेषात् II1/2/56

सूत्र संख्या :56


अर्थ : वाक् छल ही उपचार छल है क्योंकि इन दोनों में कोई विशेष गुणभेदोत्पादक नहीं है। वाक्छल में भी वक्ता के अभिप्राय के विरूद्ध शब्दों से परिणाम निकाला जाता है। ऐसा ही उपचार छल में वक्ता का अभिप्राय विपरीत ही निष्कर्ष प्रतिपादन कर धोखा देते हैं। इसका उत्तर महात्मा गौतम जी देते हैं।

सूत्र :न तदर्थान्तरभावात् II1/2/57

सूत्र संख्या :57


अर्थ : वाक्छल अर्थात शब्दिक छल और उपचार छल अर्थात् सम्बन्ध से धोका देना एक ही नहीं है क्योंकि उनमें बहुत अन्तर है। वाक्छल में नानार्थक शब्द के वक्ता के भाव के विपरीत अर्थों को लेकर उसके पक्ष का खण्डन किया जाता है और उपचार छल में दूसरे अर्थ नहीं किये जाते प्रत्युत वस्तु की सत्ता में जो विशेष सम्बन्ध रखने वाले गुण हैं। उनके द्वारा वस्तु की सत्ता का अभाव सिद्ध करके वक्ता के पक्ष का खण्डन किया जाता है। अब गौतम जी (सिद्धांत कहते हैं)

सूत्र :अविशेषे वा किञ्चित्साधर्म्यादेकच्छलप्रसङ्गः II1/2/58

सूत्र संख्या :58


अर्थ : यद्यपि छल की वात्र्ता में ऐकमत्य और किसी में वैपरीत्य है। अब ऐकमत्य को लेकर तीनों एक हो जायेंगे, तो विरोध को अवकाश न रहेगा । क्योंकि दो विरूद्ध गुणवाली वस्तुओं को एक नहीं कह सकते । यदि छल को दो प्रकार का माना जाय अर्थात् वाक्छल और सामान्य छल तो उसमें तो इनमें भी (?) कुछ मिलाप है, इसलिए छल तीन ही प्रकार का मानना युक्त है। एक या दो मानना ठीक नहीं । क्योंकि तीनों में कुछ न कुछ भेद पाया जाता है। और जहां परस्पर भेद हो उसे ठीक नहीं कह सकते क्योंकि संयोग और विभाग का होना गुणों का सादृश्य और असादृश्य पर अवलम्बित रहता है। अतएव जहां गुण वैचिच्य पाया जायगा। वह वस्तु के अन्यत्व में भी कोई सन्देह नही। चूंकि तीनों प्रकार के छलों में अन्तर प्रतीत होता है अतः तीनों एक नहीं है यही सिद्धान्त है। प्रश्न-जाति किसे कहते हैं ?

सूत्र :साधर्म्यवैधर्म्याभ्यां प्रत्यवस्थानं जातिः II1/2/59

सूत्र संख्या :59


अर्थ : हेतु देने में जो प्रसंग पैदा हो जाता है वह जाति कहाता है। प्रसंगानुरूप गुणवाला या विपरीत गुणों वाला बतलाने में जाति से ही काम लिया जाता है। अब साधर्म्य से और वैधर्म्य से जो दोष देना है वह जाति है क्योंकि साध्य (प्रतिज्ञा) के सिद्ध करने के लिए जहां प्रतिज्ञा के अनुकूल हेतु से काम लिया जाता है। वह साधमर्य वाला हेतु कहलाता है। और जहां प्रतिकूल हेतु से काम लिया जाता है वह वैधर्म्य हेतु कहलाता है। जाति को लेकर साधर्म्य और वैधर्म्य का ज्ञान होता है। इसका सविस्तार वर्णन तो परीक्षा के प्रकरण में आयगा। प्रश्न-निग्रह किसे कहते हैं ?

सूत्र :विप्रतिपत्तिरप्रतिपत्तिश्च निग्रहस्थानम् II1/2/60

सूत्र संख्या :60


अर्थ : जहाँ कहने के अवसर पर अपने सिद्धान्त के अनुकूल युक्ति दी जाए उसे विप्रति पत्ति कहते हैं। या व्यर्थ और व्यस्त हेतुओं से काम लिया जाय, जिसका सम्बन्ध पदार्थ से कुछ भी न पाया जाय या हेतु कहने के समय हेतु न दिया जाय या बुद्धि उत्तर देने की शक्ति न रखती हो उसे अप्रति पत्ति कहते हैं। जब विवाद में यह दो अवस्थायें हो जाये कि युक्ति न दे सके। तो वह निग्रहीत हो जाता है। अर्थात् उसका पक्ष रह जाता है। और वह विजित समझा जाता है। निग्रह स्थानों के लक्षण और प्रकारों का वर्णन अगले अध्यायों में परीक्षा के साथ-साथ आएगा। अतः उसकी इस स्थान पर अधिक विवृत्ति नहीं की जाती । प्रश्न-निग्रह स्थान एक है या बहुत हैं ?

सूत्र :तद्वि- कल्पाज्जातिनिग्रहस्थानबहुत्वम् II1/2/61

सूत्र संख्या :61


अर्थ : उनके विरोध के कारण से अर्थात् साधर्म्य और वैधर्म्य के बहुत प्रकार की है भाव यह है कि हर एक वस्तु में बहुत प्रकार के होने से और युक्तियों के विरोध से निग्रह स्थान और जाति बहुत से गुण ऐसे है। जो दूसरों से मिलते हैं और बहुत से गुणों में प्रतिकूल्य होता है। इस विभाग के कारण जाति बहुत प्रकार की है। जैसे मनुष्य और पशुओं में प्राणित्व रूप गुण समान है परन्तु पशुबुद्धि शून्य प्राणी है। और मनुष्य बुद्धि युक्त प्राणी है। इसलिए पहले प्राणी होने के कारण दोनों प्राणी जाति में परिगणित हुए । फिर बुद्धि के कारण प्राणी बुद्धिमान और पशु निर्बुद्धि हो गए। इसी प्रकार पशुओं के अनेक प्रकार हो जाते है। अब निग्रह स्थानों का भी यही हाल है।

व्याख्या :इनका अधिक विस्तार पाँचवे अध्याय में आयगा। यहाँ तक महात्मा गौतम जी ने सौलह पदार्थों का उद्धेश्य और उनके लक्षण साधारण रूप से बतलाये। अर्थात् पहले यह बतलाया कि प्रमाणदि सोलह पदार्थों के तत्वज्ञान से मुक्ति होती है। फिर बतलाया प्रमाण चार प्रकार का है और प्रमेय बारह प्रकार का है। अर्थात् इस अध्याय में जानने के योग्य हर एक पदार्थ का वर्णन तो आ गया । अब उनकी परीक्षा की जायगी। जिससे हर एक मनुष्य को पूरा ज्ञान हो जावे कि जो लक्षण महात्मा गौतम ने पदार्थों का किया है वह ठीक है। क्योंकि गौतम जी का सिद्धान्त यह है कि बिना परीक्षा किए किसी बात को नहीं मानना चाहिए। अब यदि स्वयं वे अपने शास्त्र में केवल लक्षण ही वर्णन कर देते और उसकी परीक्षा न करते तो उन पर सिद्धान्त के विपरीत चलने का दोषारोपण होता इसलिए उन्होंने अच्छी प्रकार से हर एक लक्षण और उद्धेश्य की समीक्षा करना आवश्यक समझा जिसका मूल्य अगले अध्यायों से प्रतीत होगा। इति द्वितीय आह्निकः इति प्रथमोऽध्यायः न्याय दर्शन के उर्दू तजुमें के हिन्दी अनुवाद का पहला अध्याय पूरा हुआ। ओ३म् ब्रह्मणे नमः । ओ३म् नमो ब्रह्मणे।।


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