ऋषि: - स्वस्त्यात्रेय ऋषिः देवता - अश्व्यादयो देवताः छन्दः - कृतिः स्वरः - षड्जः
होता॑ यक्ष॒द् वन॒स्पति॑म॒भि हि पि॒ष्टत॑मया॒ रभि॑ष्ठया रश॒नयाधि॑त। यत्रा॒श्विनो॒श्छाग॑स्य ह॒विषः॑ प्रि॒या धामा॑नि॒ यत्र॒ सर॑स्वत्या मे॒षस्य॑ ह॒विषः॑ प्रि॒या धामा॑नि॒ यत्रेन्द्र॑स्यऽऋष॒भस्य॑ ह॒विषः॑ प्रि॒या धामा॑नि॒ यत्रा॒ग्नेः प्रि॒या धामा॑नि॒ यत्र॒ सोम॑स्य प्रि॒या धामा॑नि॒ यत्रेन्द्र॑स्य सु॒त्राम्णः॑ प्रि॒या धामा॑नि॒ यत्र॑ सवि॒तुः प्रि॒या धामा॑नि॒ यत्र॒ वरु॑णस्य प्रि॒या धामा॑नि यत्र॒ वन॒स्पतेः॑ प्रि॒या पाथा॑सि॒ यत्र॑ दे॒वाना॑माज्य॒पानां॑ प्रि॒या धामा॑नि॒ यत्रा॒ग्नेर्होतुः॑ प्रि॒या धामा॑नि॒ तत्रै॒तान् प्र॒स्तुत्ये॑वोप॒स्तुत्ये॑वो॒पाव॑स्रक्ष॒द् रभी॑यसऽइव कृ॒त्वी कर॑दे॒वं दे॒वो वन॒स्पति॑र्जु॒षता॑ ह॒विर्होत॒र्यज॑॥४६॥
विषय - फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ -
हे (होतः) देनेहारे! जैसे (होता) लेने हारा सत्पुरुष (पिष्टतमया) अति पिसी हुई (रभिष्ठया) अत्यन्त शीघ्रता से बढ़नेवाली वा जिस का बहुत प्रकार से प्रारम्भ होता है, उस वस्तु और (रशनया) रश्मि के साथ (यत्र) जहां (अश्विनोः) सूर्य्य और चन्द्रमा के सम्बन्ध से पालित (छागस्य) घास को छेदने-खाने हारे बकरा आदि पशु और (हविषः) देने योग्य पदार्थ सम्बन्धी (प्रिया) मनोहर (धामानि) उत्पन्न होने-ठहरने की जगह और नाम वा (यत्र) जहां (सरस्वत्याः) नदी (मेषस्य) मेंढ़ा और (हविषः) ग्रहण करने पदार्थ-सम्बन्धी (प्रिया) मनोहर (धामानि) जन्म, स्थान और नाम वा (यत्र) जहां (इन्द्रस्य) ऐश्वर्ययुक्त जन के (ऋषभस्य) प्राप्त होने और (हविषः) देने योग्य पदार्थ के (प्रिया) प्यारे मन के हरने वाले (धामानि) जन्म, स्थान और नाम वा (यत्र) जहां (अग्नेः) प्रसिद्ध और बिजुलीरूप अग्नि के (प्रिया) मनोहर (धामानि) जन्म स्थान और नाम वा (यत्र) जहां (सोमस्य) ओषधियों के (प्रिया) मनोहर (धामानि) जन्म, स्थान और नाम वा (यत्र) जहां (सुत्राम्णः) भलीभांति रक्षा करने वाले (इन्द्रस्य) ऐश्वर्ययुक्त उत्तम पुरुष के (प्रिया) मनोहर (धामानि) जन्म, स्थान और नाम वा (यत्र) जहां (सवितुः) सब को प्रेरणा देने हारे पवन के (प्रिया) मनोहर (धामानि) उत्पन्न होने-ठहरने की जगह और नाम वा (यत्र) जहां (वरुणस्य) श्रेष्ठ पदार्थ के (प्रिया) मनोहर (धामानि) जन्म, स्थान और नाम वा (यत्र) जहां (वनस्पतेः) वट आदि वृक्षों के (प्रिया) उत्तम (पाथांसि) अन्न अर्थात् उन के पीने के जल वा (यत्र) जहां (आज्यपानाम्) गति अर्थात् अपनी कक्षा में घूमने से जीवों के पालने वाले (देवानाम्) पृथिवी आदि दिव्य लोकों का (प्रिया) उत्तम (धामानि) उत्पन्न होना उनके ठहरने की जगह और नाम वा (यत्र) जहां (होतुः) उत्तम सुख देने और (अग्नेः) विद्या से प्रकाशमान होने हारे अग्नि के (प्रिया) मनोहर (धामानि) जन्म स्थान और नाम हैं, (तत्र) वहां (एतान्) इन उक्त पदार्थों की (प्रस्तुत्येव) प्रकरण से अर्थात् समय-समय से चाहना सी कर और (उपस्तुत्येव) उनकी समीप प्रशंसा सी करके (उपावस्रक्षत्) उनको गुण-कर्म-स्वभाव से यथायोग्य कामों में उपार्जन करे अर्थात् उक्त पदार्थों का संचय करे (रभीयस इव) बहुत प्रकार से अतीव आरम्भ के समान (कृत्वी) करके कार्य्यों के उपयोग में लावे (एवम्) और उस प्रकार (करत्) उनका व्यवहार करे वा जैसे (वनस्पतिः) सूर्य आदि लोकों की किरणों की पालना करने हारा और (देवः) दिव्यगुणयुक्त अग्नि (हविः) संस्कार किये अर्थात् उत्तमता से बनाये हुए पदार्थ का (जुषताम्) सेवन करे और (हि) निश्चय से (वनस्पतिम्) वट आदि वृक्षों को (अभि, यक्षत्) सब ओर से पहुंचे अर्थात् बिजुली रूप से प्राप्त हो और (अधित) उनका धारण करे, वैसे तू (यज) सब व्यवहारों की संगति किया कर॥४६॥
भावार्थ - इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। जो मनुष्य ईश्वर के उत्पन्न किये हुए पदार्थों के गुण, कर्म और स्वभावों को जान कर इन को कार्य की सिद्धि के लिए भलीभांति युक्त करें तो वे अपने चाहे हुए सुखों को प्राप्त होवें॥४६॥
ऋषि: - स्वस्त्यात्रेय ऋषिः देवता - अश्व्यादयो देवताः छन्दः - भुरिगाकृतिः स्वरः - पञ्चमः
होता॑ यक्षद॒ग्निꣳ स्वि॑ष्ट॒कृत॒मया॑ड॒ग्नि॒र॒श्विनो॒श्छाग॑स्य ह॒विषः॑ प्रि॒या धामा॒न्यया॒ट् सर॑स्वत्या मे॒षस्य॑ ह॒विषः॑ प्रि॒या धामा॒न्यया॒डिन्द्र॑स्यऽऋष॒भस्य॑ ह॒विषः॑ प्रि॒या धामा॒न्यया॑ड॒ग्नेः प्रि॒या धामा॒न्यया॒ट् सोम॑स्य प्रि॒या धामा॒न्यया॒डिन्द्र॑स्य सु॒त्राम्णः॑ प्रि॒या धामा॒न्यया॑ट् सवि॒तुः प्रि॒या धामा॒न्यया॒ड् वरु॑णस्य प्रि॒या धामा॒न्यया॒ड् वन॒स्पतेः॑ प्रि॒या पाथा॒स्यया॑ड् दे॒वाना॑माज्य॒पानां॑ प्रि॒या धामा॑नि॒ यक्ष॑द॒ग्नेर्होतुः॑ प्रि॒या धामा॑नि॒ यक्ष॒त् स्वं म॑हि॒मान॒माय॑जता॒मेज्या॒ऽइषः॑ कृ॒णोतु॒ सोऽअ॑ध्व॒रा जा॒तवे॑दा जु॒षता॑ ह॒विर्होत॒र्यज॑॥४७॥
विषय - फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ -
हे (होतः) देने हारे! जैसे (होता) लेने हारा (स्विष्टकृतम्) भलीभांति चाहे हुए पदार्थ से प्रसिद्ध किये (अग्निम्) अग्नि को (यक्षत्) प्राप्त और (अयाट्) उस की प्रशंसा करे वा जैसे (अग्निः) प्रसिद्ध आग (अश्विनोः) पवन बिजुली (छागस्य) बकरा आदि पशु (हविषः) और लेने योग्य पदार्थ के (प्रिया) मनोहर (धामानि) जन्म, स्थान और नाम को (अयाट्) प्राप्त हो वा (सरस्वत्याः) वाणी (मेषस्य) सींचने वा दूसरे के जीतने की इच्छा करने वाले प्राणी (हविषः) और ग्रहण करने योग्य पदार्थ के (प्रिया) प्यारे मनोहर (धामानि) जन्म, स्थान और नाम की (अयाट्) प्रशंसा करे वा (इन्द्रस्य) परमैश्वर्य्ययुक्त (ऋषभस्य) उत्तम गुण, कर्म और स्वभाव वाले राजा और (हविषः) ग्रहण करने योग्य पदार्थ के (प्रिया) मनोहर (धामानि) जन्म, स्थान और नाम की (अयाट्) प्रशंसा करे वा (अग्नेः) बिजुली रूप अग्नि के (प्रिया) मनोहर (धामानि) जन्म, स्थान और नाम की (अयाट्) प्रशंसा करे वा (सोमस्य) ऐश्वर्य्य के (प्रिया) मनोहर (धामानि) जन्म, स्थान और नाम की (अयाट्) प्रशंसा करे वा (सुत्राम्णः) भलीभांति रक्षा करने वाले (इन्द्रस्य) सेनापति के (प्रिया) मनोहर (धामानि) जन्म, स्थान और नाम की (अयाट्) प्रशंसा करे वा (सवितुः) समस्त ऐश्वर्य्य के उत्पन्न करने हारे उत्तम पदार्थज्ञान के (प्रिया) मनोहर (धामानि) जन्म स्थान और नाम की (अयाट्) प्रशंसा करे वा (वरुणस्य) सब से उत्तम जन और जल के (प्रिया) मनोहर (धामानि) जन्म, स्थान और नाम की (अयाट्) प्रशंसा करे वा (वनस्पतेः) वट आदि वृक्षों के (प्रिया) तृप्ति कराने याले (पाथांसि) फलों को (अयाट्) प्राप्त हो वा (आज्यपानाम्) जानने योग्य पदार्थ की रक्षा करने और रस पीने वाले (देवानाम्) विद्वानों के (प्रिया) प्यारे मनोहर (धामानि) जन्म, स्थान और नाम का (यक्षत्) मिलाना व सराहना करे वा (होतुः) जलादिक ग्रहण करने और (अग्नेः) प्रकाश करने वाले सूर्य्य के (प्रिया) मनोहर (धामानि) जन्म, स्थान और नाम की (यक्षत्) प्रशंसा करे (स्वम्) अपने (महिमानम्) बड़प्पन का (आ, यजताम्) ग्रहण करे वा जैसे (जातवेदाः) उत्तम बुद्धि को (एज्याः) अच्छे प्रकार संग योग्य उत्तम क्रियाओं और (इषः) चाहनाओं को (कृणोतु) करे (सः) वह (अध्वरा) न छोड़ने न विनाश करने योग्य यज्ञों का और (हविः) संग करने योग्य पदार्थ का (जुषताम्) सेवन करे, वैसे तू (यज) सब व्यवहारों की संगति किया कर॥४७॥
भावार्थ - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो मनुष्य अपने चाहे हुए को सिद्ध करने वाले अग्नि आदि संसारस्थ पदार्थों को अच्छे प्रकार जानकर प्यारे मन से चाहे हुए सुखों को प्राप्त होते हैं, वे अपने बड़प्पन का विस्तार करते हैं॥४७॥
ऋषि: - स्वस्त्यात्रेय ऋषिः देवता - सरस्वत्यादयो देवताः छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
दे॒वं ब॒र्हिः सर॑स्वती सुदे॒वमिन्द्रे॑ऽअ॒श्विना॑।तेजो॒ न चक्षु॑र॒क्ष्योर्ब॒र्हिषा॑ दधुरिन्द्रि॒यं वसु॒॑वने॑ वसु॒धेय॑स्य व्यन्तु॒ यज॑॥४८॥
विषय - अब विद्वान् कैसे अपना वर्त्ताव वर्त्तें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ -
हे विद्वन्! जैसे (सरस्वती) प्रशंसित विज्ञानयुक्त स्त्री (इन्द्रे) परमैश्वर्य के निमित्त (देवम्) दिव्य (सुदेवम्) सुन्दर विद्वान् पति की (बर्हिः) अन्तरिक्ष (अश्विना) पढ़ाने और उपदेश करने वाले तथा (चक्षुः) आंख के (तेजः) तेज के (न) समान (यज) प्रशंसा वा संगति करती है और जैसे विद्वान् जन (वसुधेयस्य) जिस में धन धारण करने योग्य हो, उस व्यवहार सम्बन्धी (वसुवने) धन की प्राप्ति कराने के लिए (अक्ष्योः) आंखों के (बर्हिषा) अन्तरिक्ष अवकाश से अर्थात् दृष्टि से देख के (इन्द्रियम्) उक्त धन को (दधुः) धारण करते और (व्यन्तु) प्राप्त होते हैं, वैसे इसको तू धारण कर॥४८॥
भावार्थ - इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। हे मनुष्यो! जैसे विदुषी ब्रह्मचारिणी कुमारी कन्या अपने लिए मनोहर पति को पाकर आनन्द करती है, वैसे विद्या और संसार के पदार्थ का बोध पाकर तुम लोगों को भी आनन्दित होना चाहिए॥४८॥
ऋषि: - स्वस्त्यात्रेय ऋषिः देवता - अश्व्यादयो देवताः छन्दः - ब्राह्म्युष्णिक् स्वरः - ऋषभः
दे॒वीर्द्वारो॑ऽअ॒श्विना॑ भि॒षजेन्द्रे॒ सर॑स्वती।प्रा॒णं न वी॒र्य्यं न॒सि द्वारो॑ दधुरिन्द्रि॒यं व॑सु॒वने॑ वसु॒धेय॑स्य व्यन्तु॒ यज॑॥४९॥
विषय - फिर विद्वानों का उपदेश कैसा होता है, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ -
हे विद्वन्! जैसे (अश्विना) पवन और सूर्य्य वा (सरस्वती) विशेष ज्ञान वाली स्त्री और (भिषजा) वैद्य (इन्द्रे) ऐश्वर्य के निमित्त (देवीः) अतीव दीपते अर्थात् चमकाते हुए (द्वारः) पैठने और निकलने के अर्थ बने हुए द्वारों को प्राप्त होते हुए प्राणियों की (नसि) नासिका में (प्राणम्) जो श्वास आती उस के (न) समान (वीर्य्यम्) बल और (द्वारः) द्वारों अर्थात् शरीर के प्रसिद्ध नव छिद्रों को (दधुः) धारण करें (वसुवने) वा धन का सेवन करने के लिए (वसुधेयस्य) धनकोश के (इन्द्रियम्) धन को विद्वान् जन (व्यन्तु) प्राप्त हों, वैसे तू (यज) सब व्यवहारों की संगति किया कर॥४९॥
भावार्थ - इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। जैसे सूर्य्य और चन्द्रमा का प्रकाश द्वारों से घर को पैठ घर के भीतर प्रकाश करता है, वैसे विद्वानों का उपदेश कानों में प्रविष्ट होकर भीतर मन में प्रकाश करता है, ऐसे जो विद्या के साथ अच्छा यत्न करते हैं, वे धनवान् होते हैं॥४९॥
ऋषि: - स्वस्त्यात्रेय ऋषिः देवता - अश्व्यादयो देवताः छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
दे॒वीऽउ॒षासा॑व॒श्विना॑ सु॒त्रामेन्द्रे॒ सर॑स्वती।बलं॒ न वाच॑मा॒स्यऽउ॒षाभ्यां॑ दधुरिन्द्रि॒यं व॑सु॒वने॑ वसु॒धेय॑स्य व्यन्तु॒ यज॑॥५०॥
विषय - फिर मनुष्य कैसे वर्त्तें, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ -
हे विद्वन्! जैसे (देवी) निरन्तर प्रकाश को प्राप्त (उषासौ) सायंकाल और प्रातःकाल की सन्धिवेला वा (सुत्रामा) भलीभांति रक्षा करने वाले (सरस्वती) विशेष ज्ञान की हेतु स्त्री (अश्विना) सूर्य और चन्द्रमा (वसुवने) धन की सेवा करने वाले के लिए (वसुधेयस्य) जिस में धन धरा जाय उस व्यवहारसम्बन्धी (इन्द्रे) उत्तम ऐश्वर्य में (न) जैसे (बलम्) बल को वैसे (आस्ये) मुख में (वाचम्) वाणी को वा (उषाभ्याम्) सायंकाल और प्रातःकाल की वेला से (इन्द्रियम्) धन को (दधुः) धारण करें और सब को (व्यन्तु) प्राप्त हों, वैसे तू (यज) सब व्यवहारों की संगति किया कर॥५०॥
भावार्थ - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो पुरुषार्थी मनुष्य सूर्य-चन्द्रमा सांयकाल और प्रातःकाल की वेला के समान नियम के साथ उत्तम उत्तम यत्न करते हैं तथा सायंकाल और प्रातःकाल की वेला में सोने और आलस्य आदि को छोड़ ईश्वर का ध्यान करते हैं, वे बहुत धन को पाते हैं॥५०॥
ऋषि: - स्वस्त्यात्रेय ऋषिः देवता - अश्व्यादयो देवताः छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
दे॒वी जोष्ट्री सर॑स्वत्य॒श्विनेन्द्र॑मवर्धयन्।श्रोत्रं॑ न कर्ण॑यो॒र्यशो॒ जोष्ट्री॑भ्यां दधुरिन्द्रि॒यं व॑सु॒वने॑ वसु॒धेय॑स्य व्यन्तु॒ यज॑॥५१॥
विषय - फिर मनुष्य कैसे होते हैं, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ -
हे विद्वन्! जैसे (देवी) प्रकाश देने वाली (जोष्ट्री) सेवने योग्य (सरस्वती) विशेष ज्ञान की निमित्त सायंकाल और प्रातःकाल की वेला तथा (अश्विना) पवन और बिजुलीरूप अग्नि (इन्द्रम्) सूर्य को (अवर्धयन्) बढ़ाते अर्थात् उन्नति देते हैं वा मनुष्य (जोष्ट्रीभ्याम्) संसार को सेवन करती हुई उक्त प्रातःकाल और सायंकाल की वेलाओं से (कर्णयोः) कानों में (यशः) कीर्ति को (श्रोत्रम्) जिस से वचन को सुनता है, उस कान के ही (न) समान (दधुः) धारण करते हैं वा (वसुधेयस्य) जिस में धन धरा जाय उस कोशसम्बन्धी (वसुवने) धन को सेवन करने वाले (इन्द्रियम्) धन को (व्यन्तु) विशेषता से प्राप्त होते हैं, वैसे तू (यज) सब व्यवहारों की संगति किया कर॥५१॥
भावार्थ - इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। जो सूर्य के कारणों को जानते हैं, वे यशस्वी होकर धनवान्, कान्तिमान् शोभायमान होते हैं॥५१॥
ऋषि: - स्वस्त्यात्रेय ऋषिः देवता - अश्व्यादयो देवताः छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
दे॒वीऽऊ॒र्जा॑हुती॒ दुघे॑ सु॒दुघेन्द्रे॒ सर॑स्वत्य॒श्विना॑ भि॒षजा॑वतः। शु॒क्रं न ज्योति॒ स्तन॑यो॒राहु॑ती धत्तऽइन्द्रि॒यं व॑सु॒वने॑ वसु॒धेय॑स्य व्यन्तु॒ यज॑॥५२॥
विषय - फिर मनुष्यों को कैसे अपना वर्त्ताव वर्त्तना चाहिये, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ -
हे विद्वानो! तुम लोग जैसे (देवी) मनोहर (दुघे) उत्तमता पूरण करने वाली प्रातः सायं वेला वा (इन्द्रे) परम ऐश्वर्य के निमित्तम (ऊर्ज्जाहुती) अन्न की आहुति (सरस्वती) विशेष ज्ञान कराने हारी स्त्री वा (सुदुघा) सुख पूरण करने हारे (भिषजा) अच्छे वैद्य (अश्विना) वा पढ़ाने और उपदेश करने हारे विद्वान् (शुक्रम्) शुद्ध जल के (न) समान (ज्योतिः) प्रकाश की (अवतः) रक्षा करते हैं, वैसे (स्तनयोः) शरीर में स्तनों की जो (आहुती) ग्रहण करने योग्य क्रिया है, उनको (धत्त) धारण करो और (वसुधेयस्य) जिस में धन धरा हुआ उस संसार के बीच (वसुवने) धन के सेवन करने वाले के लिए (इन्द्रियम्) धन को धारण करो, जिससे उन उक्त पदार्थों को साधारण सब मनुष्य (व्यन्तु) प्राप्त हों। हे गुणों के ग्रहण करने हारे जन! वैसे तू सब व्यवहारों की (यज) संगति किया कर॥५२॥
भावार्थ - इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। जैसे अच्छे वैद्य अपने और दूसरों के शरीरों की रक्षा करके वृद्धि करते कराते हैं, वैसे सब को चाहिए कि धन की रक्षा करके उस की वृद्धि करें, जिससे इस संसार में अतुल सुख हो॥५२॥
ऋषि: - स्वस्त्यात्रेय ऋषिः देवता - अश्व्यादयो देवताः छन्दः - भुरिगतिजगती स्वरः - निषादः
दे॒वा दे॒वानां॑ भि॒षजा॒ होता॑रा॒विन्द्र॑म॒श्विना॑। व॒ष॒ट्का॒रैः सर॑स्वती॒ त्विषिं न हृद॑ये म॒तिꣳ होतृ॑भ्यां दधुरिन्द्रि॒यं व॒सु॒वने॑ वसु॒धेय॑स्य व्यन्तु॒ यज॑॥५३॥
विषय - फिर मनुष्यो को कैसे वर्त्तना चाहिये, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ -
हे विद्वानो! आप लोग जैसे (देवानाम्) सुख देने हारे विद्वानों के बीच (होतारौ) शरीर के सुख देने वाले (देवा) वैद्यविद्या से प्रकाशमान (भिषजा) वैद्यजन (अश्विना) विद्या में रमते हुए (वषट्कारैः) श्रेष्ठ कामों से (इन्द्रम्) परमैश्वर्य्य को धारण करें (सरस्वती) प्रशंसित विद्या और अच्छी शिक्षायुक्त वाणी वाली स्त्री (त्विषिम्) प्रकाश के (न) समान (हृदये) अन्तःकरण में (मतिम्) बुद्धि को धारण करे, वैसे (होतृभ्याम्) देने वालों के साथ उक्त सद्वैद्य और वाणीयुक्त स्त्री को वा (वसुधेयस्य) कोश के (वसुवने) धन को बांटने वाले के लिए (इन्द्रियम्) शुद्ध मन को (दधुः) धारण करें और (व्यन्तु) प्राप्त हों। हे जन! वैसे तू भी (यज) सब व्यवहारों की संगति किया कर॥५३॥
भावार्थ - इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। जैसे विद्वानों में विद्वान्, अच्छे वैद्य श्रेष्ठ क्रिया से सब को नीरोग कर कान्तिमान् धनवान् करते हैं वा जैसे विद्वानों की वाणी विद्यार्थियों के मन में उत्तम ज्ञान की उन्नति करती है, वैसे साधारण मनुष्यों को विद्या और धन इकट्ठे करने चाहिए॥५३॥
ऋषि: - स्वस्त्यात्रेय ऋषिः देवता - अश्व्यादयो देवताः छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
दे॒वीस्ति॒स्रस्ति॒स्रो दे॒वीर॒श्विनेडा॒ सर॑स्वती। शूषं॒ न मध्ये॒ नाभ्या॒मिन्द्रा॑य दधुरिन्द्रि॒यं व॑सु॒वने॑ वसु॒धेय॑स्य व्यन्तु॒ यज॑॥५४॥
विषय - फिर माता पिता अपने सन्तानों को कैसे करें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ -
हे विद्यार्थी! जैसे (तिस्रः) माता, पढ़ाने और उपदेश करने वाली ये तीन (देवीः) निरन्तर विद्या से दीपती हुई स्त्री (वसुधेयस्य) जिसमें धन धरने योग्य है, उस संसार के (मध्ये) बीच (वसुवने) उत्तम धन चाहने वाले (इन्द्राय) जीव के लिये (तिस्रः) उत्तम, मध्यम, निकृष्ट तीन (देवीः) विद्या से प्रकाश को प्राप्त हुई कन्याओं को (दधुः) धारण करें वा (अश्विना) पढ़ाने और उपदेश करने हारे मनुष्य (इडा) स्तुति करने हारी स्त्री और (सरस्वती) प्रशंसित विज्ञानयुक्त स्त्री (नाभ्याम्) तोंदी में (शूषम्) बल वा सुख के (न) समान (इन्द्रियम्) मन को धारण करें वा जैसे ये सब उक्त पदार्थों को (व्यन्तु) प्राप्त हों, वैसे तू (यज) सब व्यवहारों की संगति किया कर॥५४॥
भावार्थ - इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। जैसे माता, पढ़ाने और उपदेश करने हारी ये तीन पण्डिता स्त्री कुमारियों को पण्डिता कर उनको सुखी करती हैं, वैसे पिता, पढ़ाने और उपदेश करने वाले विद्वान् कुमार विद्यार्थियों को विद्वान् कर उन्हें अच्छे सभ्य करें॥५४॥
ऋषि: - स्वस्त्यात्रेय ऋषिः देवता - अश्व्यादयो देवताः छन्दः - स्वराट् शक्वरी स्वरः - धैवतः
दे॒वऽइन्द्रो॒ नरा॒शꣳस॑स्रिवरू॒थः सर॑स्वत्या॒श्विभ्या॑मीयते॒ रथः॑। रेतो॒ न रू॒पम॒मृतं॑ ज॒नित्र॒मिन्द्रा॑य॒ त्व॒ष्टा दध॑दिन्द्रि॒याणि॑ वसु॒वने॑ वसु॒धेय॑स्य व्यन्तु॒ यज॑॥५५॥
विषय - फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ -
हे विद्वन्! जैसे (त्रिवरूथः) तीन अर्थात् भूमि, भूमि के नीचे और अन्तरिक्ष में जिस के घर हैं, वह (इन्द्रः) परमैश्वर्य्यवान् (देवः) विद्वान् (सरस्वत्या) अच्छी शिक्षा की हुई वाणी से (नराशंसः) जो मनुष्यों को भलीभांति शिक्षा देते हैं, उनको (अश्विभ्याम्) आग और पवन से जैसे (रथः) रमणीय रथ (ईयते) पहुंचाया जाता, वैसे अच्छे मार्ग में पहुंचाता है वा जैसे (त्वष्टा) दुःख का विनाश करने हारा (जनित्रम्) उत्तम सुख उत्पन्न करने हारे (अमृतम्) जल और (रेतः) वीर्य्य के (न) समान (रूपम्) रूप को तथा (वसुधेयस्य) संसार के बीच (वसुवने) धन की सेवा करने वाले (इन्द्राय) जीव के लिए (इन्द्रियाणि) कान, आंख आदि इन्द्रियों को (दधत्) धारण करे वा जैसे उक्त पदार्थों को ये सब (व्यन्तु) प्राप्त हों, वैसे तू (यज) सब व्यवहारों की संगति किया कर॥५५॥
भावार्थ - इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। हे मनुष्यो! यदि तुम लोग धर्मसम्बन्धी व्यवहार से धन को इच्छा करो तो जल और आग से चलाये हुए रथ के समान शीघ्र सब सुखों को प्राप्त होओ॥५५॥
ऋषि: - स्वस्त्यात्रेय ऋषिः देवता - अश्व्यादयो देवताः छन्दः - निचृदत्यष्टिः स्वरः - गान्धारः
दे॒वो दे॒वैर्वन॒स्पति॒र्हिर॑ण्यपर्णोऽअ॒श्विभ्या॒ सर॑स्वत्या सुपिप्प॒लऽइन्द्रा॑य पच्यते॒ मधु॑। ओजो॒ न जू॒ति॑र्ऋ॑ष॒भो न भामं॒ वन॒स्पति॑र्नो॒ दध॑दिन्द्रि॒याणि॑ वसु॒वने॑ वसु॒धेय॑स्य व्यन्तु॒ यज॑॥५६॥
विषय - फिर मनुष्य कैसे वर्त्तें, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ -
हे विद्वन्! जैसे (अश्विभ्याम्) जल और बिजुली रूप आग से (देवैः) प्रकाश करनेवाले गुणों के साथ (देवः) प्रकाशमान (हिरण्यवर्णः) तेजःस्वरूप (वनस्पतिः) किरणों की रक्षा करने वाला सूर्यलोक वा (सरस्वत्या) बढ़ती हुई नीति के साथ (सुपिप्पलः) सुन्दर फलों वाला पीपल आदि वृक्ष (इन्द्राय) प्राणी के लिए (मधु) मीठा फल जैसे (पच्यते) पके वैसे पकता और सिद्ध होता वा (जूतिः) वेग (ओजः) जल को (न) जैसे (भामम्) तथा क्रोध को (ऋषभः) बलवान् प्राणी के (न) समान (वनस्पतिः) वट वृक्ष आदि (वसुधेयस्य) सब के आधार संसार के बीच (नः) हम लोगों के लिए (वसुवने) वा धन चाहने वाले के लिए (इन्द्रियाणि) धनों को (दधत्) धारण कर रहा है, जैसे इन सब उक्त पदार्थों को ये सब (व्यन्तु) व्याप्त हों, वैसे तू सब व्यवहारों की (यज) संगति किया कर॥५६॥
भावार्थ - इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। हे मनुष्यो! तुम जैसे सूर्य वर्षा से और नदी अपने जल से वृक्षों की भलीभांति रक्षा कर सब ओर से मीठे-मीठे फलों को उत्पन्न कराती है, वैसे सब के अर्थ सब वस्तु उत्पन्न करो और जैसे धार्मिक राजा दुष्ट पर क्रोध करता, वैसे दुष्टों के प्रति अप्रीति कर अच्छे उत्तम जनों में प्रेम को धारण करो॥५६॥
ऋषि: - स्वस्त्यात्रेय ऋषिः देवता - अश्व्यादयो देवताः छन्दः - अतिशक्वरी स्वरः - पञ्चमः
दे॒वं ब॒र्हिर्वारि॑तीनामध्व॒रे स्ती॒र्णम॒श्विभ्या॒मूर्णम्रदाः॒ सर॑स्वत्या स्यो॒नमि॑न्द्र ते॒ सदः॑। ई॒शायै॑ म॒न्युꣳ राजा॑नं ब॒र्हिषा॑ दधुरिन्द्रि॒यं व॑सु॒वने॑ वसु॒धेय॑स्य व्यन्तु॒ यज॑॥५७॥
विषय - फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ -
हे (इन्द्र) अपने इन्द्रिय के स्वामी जीव! जिस (ते) तेरा (सरस्वत्या) उत्तम वाणी के साथ (स्योनम्) सुख और (सदः) जिस में बैठते वह नाव आदि यान है और जैसे (ऊर्णम्रदाः) ढांपने वाले पदार्थों से शिल्प की वस्तुओं को मीजते हुए विद्वान् जन (अश्विभ्याम्) पवन और बिजुली से (अध्वरे) न विनाश करने योग्य शिल्पयज्ञ में (वारितीनाम्) जिन की जल में चाल है, उन पदार्थों के (स्तीर्णम्) ढांपने वाले (देवम्) दिव्य (बर्हिः) अन्तरिक्ष को वा (ईशायै) जिस क्रिया से ऐश्वर्य को मनुष्य प्राप्त होता, उस के लिए (मन्युम्) विचार अर्थात् सब पदार्थों के गुण-दोष और उन की क्रिया सोचने के (राजानम्) प्रकाशमान राजा के समान वा (बर्हिषा) अन्तरिक्ष से (वसुधेयस्य) पृथिवी आदि आधार के बीच (वसुवने) पृथिवी आदि लोकों की सेवा करनेहारे जीव के लिए (इन्द्रियम्) धन को (दधुः) धारण करें और इन को (व्यन्तु) प्राप्त हों, वैसे तू सब पदार्थों की (यज) संगति किया कर॥५७॥
भावार्थ - इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। यदि मनुष्य आकाश के समान निष्कम्प निडर आनन्द देने हारे एकान्त स्थानयुक्त और जिनकी आज्ञा भंग न हो ऐसे पुरुषार्थी हों, वे इस संसार के बीच धनवान् क्यों न हों?॥५७॥
ऋषि: - स्वस्त्यात्रेय ऋषिः देवता - अश्व्यादयो देवताः छन्दः - आद्यस्याऽत्यष्टिः स्वरः - गान्धारः
दे॒वोऽअ॒ग्निः स्वि॑ष्ट॒कृद्दे॒वान् य॑क्षद् यथाय॒थꣳ होता॑रा॒विन्द्र॑म॒श्विना॑ वा॒चा वा॒चꣳ सर॑स्वतीम॒ग्निꣳ सोम॑ स्विष्ट॒कृत् स्वि॑ष्ट॒ऽइन्द्रः॑ सु॒त्रामा॑ सवि॒ता वरु॑णो भि॒षगि॒ष्टो दे॒वो वन॒स्पतिः॒ स्विष्टा दे॒वाऽआ॑ज्य॒पाः स्वि॑ष्टोऽअ॒ग्निर॒ग्निना॒ होता॑ हो॒त्रे स्वि॑ष्ट॒कृद् यशो॒ न दध॑दिन्द्रि॒यमूर्ज॒मप॑चिति स्व॒धां व॑सु॒वने॑ वसु॒धेय॑स्य व्यन्तु॒ यज॑॥५८॥
विषय - फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ -
हे विद्वन्! जैसे (वसुधेयस्य) संसार के बीच में (वसुवने) ऐश्वर्य को सेवने वाले सज्जन मनुष्य के लिए (स्विष्टकृत्) सुन्दर चाहे हुए सुख का करने हारा (देवः) दिव्य सुन्दर (अग्निः) आग (देवान्) उत्तम गुण-कर्म-स्वभावों वाले पृथिवी आदि को (यथायथम्) यथायोग्य (यक्षत्) प्राप्त हो वा जैसे (होतारा) पदार्थों के ग्रहण करने हारे (अश्विना) पवन और बिजुलीरूप अग्नि (इन्द्रम्) सूर्य (वाचा) वाणी से (सरस्वतीम्) विशेष ज्ञानयुक्त (वाचम्) वाणी से (अग्निम्) अग्नि (सोमम्) और चन्द्रमा को यथायोग्य चलाते हैं वा जैसे (स्विष्टकृत्) अच्छे सुख का करने वाला (स्विष्टः) सुन्दर और सब का चाहा हुआ (सुत्रामा) भलीभांति पालने हारा (इन्द्रः) परमैश्वर्ययुक्त राजा (सविता) सूर्य (वरुणः) जल का समुदाय (भिषक्) रोगों का विनाश करने हारा वैद्य (इष्टः) संग करने योग्य (देवः) दिव्यस्वभाव वाला (वनस्पतिः) पीपल आदि (स्विष्टाः) सुन्दर चाहा हुआ सुख जिनसे होवे (आज्यपाः) पीने योग्य रस को पीने हारे (देवाः) दिव्यस्वरूप विद्वान् (अग्निना) बिजुली के साथ (स्विष्टः) (होता) देने वाला कि जिससे सुन्दर चाहा हुआ काम हो (स्विष्टकृत्) उत्तम चाहे हुए काम को करने वाला (अग्निः) अग्नि (होत्रे) देने वाले के लिए (यशः) कीर्ति करने हारे धन के (न) समान (इन्द्रियम्) जीव के चिह्न कान आदि इन्द्रियां (ऊर्जम्) बल (अपचितिम्) सत्कार और (स्वधाम्) अन्न को (दधत्) प्रत्येक को धारण करे वा जैसे उन उक्त पदार्थों को ये सब (व्यन्तु) प्राप्त हों, वैसे तू (यज) सब व्यवहारों की संगति किया कर॥५८॥
भावार्थ - इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। जो मनुष्य ईश्वर के बनाये हुए इस मन्त्र में कहे यज्ञ आदि पदार्थों को विद्या से उपयोग के लिए धारण करते हैं, वे सुन्दर चाहे हुए सुखों को पाते हैं॥५८॥
ऋषि: - स्वस्त्यात्रेय ऋषिः देवता - अग्न्यादयो देवताः छन्दः - अष्टिः स्वरः - मध्यमः
अ॒ग्निम॒द्य होता॑रमवृणीता॒यं यज॑मानः॒ पच॒न् पक्तीः॒ पच॑न् पुरो॒डाशा॑न् ब॒ध्नन्न॒श्विभ्यां॒ छाग॒ꣳ सर॑स्वत्यै मे॒षमिन्द्रा॑यऽऋष॒भꣳ सु॒न्वन्न॒श्विभ्या॒ सर॑स्वत्या॒ऽइन्द्रा॑य सु॒त्राम्णे॑ सुरासो॒मान्॥५९॥
विषय - फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ -
हे मनुष्यो! जैसे (अयम्) यह (पक्तीः) पचाने के प्रकारों को (पचन्) पचाता अर्थात् सिद्ध करता और (पुरोडाशान्) यज्ञ आदि कर्म में प्रसिद्ध पाकों को (पचन्) पचाता हुआ (यजमानः) यज्ञ करने हारा (होतारम्) सुखों के देने वाले (अग्निम्) आग को (अवृणीत) स्वीकार वा जैसे (अश्विभ्याम्) प्राण और अपान के लिए (छागम्) छेरी (सरस्वत्यै) विशेष ज्ञानयुक्त वाणी के लिए (मेषम्) भेड़ और (इन्द्राय) परम ऐश्वर्य के लिए (ऋषभम्) बैल को (बध्नन्) बांधते हुए वा (अश्विभ्याम्) प्राण, अपान (सरस्वत्यै) विशेष ज्ञानयुक्त वाणी और (सुत्राम्णे) भलीभांति रक्षा करने हारे (इन्द्राय) राजा के लिए (सुरासोमान्) उत्तम रसयुक्त पदार्थों का (सुन्वन्) सार निकालते हैं, वैसे तुम (अद्य) आज करो॥५९॥
भावार्थ - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे मनुष्यो! जैसे पदार्थों को मिलाने हारे वैद्य अपान के लिए छेरी का दूध, वाणी बढ़ने के लिए भेड़ का दूध, ऐश्वर्य के बढ़ने के लिए बैल, रोग निवारण के लिए औषधियों के रसों को इकट्ठा और अच्छे संस्कार किये हुए अन्नों का भोजन कर उससे बलवान् होकर दुष्ट शत्रुओं को बांधते हैं, वैसे वे परम ऐश्वर्य को प्राप्त होते हैं॥५९॥
ऋषि: - स्वस्त्यात्रेय ऋषिः देवता - लिङ्गोक्ता देवताः छन्दः - धृतिः स्वरः - ऋषभः
सू॒प॒स्थाऽअ॒द्य दे॒वो वन॒स्पति॑रभवद॒श्विभ्यां॒ छागे॑न॒ सर॑स्वत्यै मे॒षेणेन्द्रा॑यऽऋष॒भेणाक्षँ॒स्तान् मे॑द॒स्तः प्रति॑ पच॒तागृ॑भीष॒तावी॑वृधन्त पुरो॒डाशै॒रपु॑र॒श्विना॒ सर॑स्व॒तीन्द्रः॑ सु॒त्रामा॑ सुरासो॒मान्॥६०॥
विषय - फिर मनुष्यों को क्या करके क्या करना चाहिए, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ -
हे मनुष्यो! जैसे (अद्य) आज (सूपस्थाः) भलीभांति समीप स्थिर होने वाले और (देवः) दिव्य गुण वाला पुरुष (वनस्पतिः) वट वृक्ष आदि के समान जिस-जिस (अश्विभ्याम्) प्राण और अपान के लिए (छागेन) दुःख विनाश करने वाले छेरी आदि पशु से (सरस्वत्यै) वाणी के लिए (मेषेण) मेंढ़ा से (इन्द्राय) परम ऐश्वर्य्य के लिए (ऋषभेण) बैल से (अक्षन्) भोग करें - उपयोग लें (तान्) उन (मेदस्तः) सुन्दर चिकने पशुओं के (प्रति) प्रति (पचता) पचाने योग्य वस्तुओं का (अगृभीषत) ग्रहण करें (पुरोडाशैः) प्रथम उत्तम संस्कार किये हुए विशेष अन्नों से (अवीवृधन्त) वृद्धि को प्राप्त हों (अश्विना) प्राण, अपान (सरस्वती) प्रशंसित वाणी (सुत्रामा) भलीभांति रक्षा करनेहारा (इन्द्रः) परम ऐश्वर्य्यवान् राजा (सुरासोमान्) जो अर्क खींचने से उत्पन्न हों, उन औषधिरसों को (अपुः) पीवें, वैसे आप (अभवत्) होओ॥६०॥
भावार्थ - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो मनुष्य छेरी आदि पशुओं के दूध आदि प्राण-अपान की रक्षा के लिए, चिकने और पके हुए पदार्थों का भोजन कर उत्तम रसों के पीके वृद्धि को पाते हैं, वे अच्छे सुख को प्राप्त होते हैं॥६०॥
ऋषि: - स्वस्त्यात्रेय ऋषिः देवता - लिङ्गोक्ता देवताः छन्दः - भुरिग् विकृतिः स्वरः - मध्यमः
त्वाम॒द्यऽऋ॑षऽआर्षेयऽऋषीणां नपादवृणीता॒यं यज॑मानो ब॒हुभ्य॒ऽआ सङ्ग॑तेभ्यऽए॒ष मे॑ दे॒वेषु॒ वसु॒ वार्याय॑क्ष्यत॒ऽइति॒ ता या दे॒वा दे॑व॒ दाना॒न्यदु॒स्तान्य॑स्मा॒ऽआ च॒ शास्स्वा च॑ गुरस्वेषि॒तश्च॑ होत॒रसि॑ भद्र॒वाच्या॑य॒ प्रेषि॑तो॒ मानु॑षः सू॒क्तवा॒काय॑ सू॒क्ता ब्रू॑हि॥६१॥
विषय - फिर मनुष्य कैसे अपना वर्ताव वर्तें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ -
हे (ऋषे) मन्त्रों के अर्थ जानने वाले वा हे (आर्षेय) मन्त्रार्थ जानने वालों में श्रेष्ठ पुरुष! (ऋषीणाम्) मन्त्रों के अर्थ जानने वालों के (नपात्) सन्तान (यजमानः) यज्ञ करने वाला (अयम्) यह (अद्य) आज (बहुभ्यः) बहुत (संगतेभ्यः) योग्य पुरुषों से (त्वाम्) तुझको (आ, अवृणीत) स्वीकार करे (एषः) यह (देवेषु) विद्वानों में (मे) मेरे (वसु) धन (च) और (वारि) जल को स्वीकार करे। हे (देव) विद्वन्! जो (आयक्ष्यते) सब ओर से संगत किया जाता (च) और (देवाः) विद्वान् जन (या) जिन (दानानि) देने योग्य पदार्थों को (अदुः) देते हैं (तानि) उन सबों को (अस्मै) इस यज्ञ करने वाले के लिए (आ, शास्व) अच्छे प्रकार कहो और (प्रेषितः) पढ़ाया हुआ तू (आ, गुरस्व) अच्छे प्रकार उद्यम कर (च) और हे (होतः) देने हारे! (इषितः) सब का चाहा हुआ (मानुषः) तू (भद्रवाच्याय) जिस के लिए अच्छा कहना होता और (सूक्तवाकाय) जिस के वचनों में अच्छे कथन अच्छे व्याख्यान हैं, उस भद्रपुरुष के लिए (सूक्ता) अच्छी बोलचाल (ब्रूहि) बोलो (इति) इस कारण कि उक्त प्रकार से (ता) उन उत्तम पदार्थों को पाये हुए (असि) होते हो॥६१॥
भावार्थ - जो मनुष्य बहुत विद्वानों से अति उत्तम विद्वान् को स्वीकार कर वेदादि शास्त्रों की विद्या को पढ़कर महर्षि होवें, वे दूसरों को पढ़ा सकें और जो देनेवाले उद्यमी होवें, वे विद्या को स्वीकार कर जो अविद्वान् हैं, उन पर दया कर विद्याग्रहण के लिए रोष से उन मूर्खों को ताड़ना दें और उन्हें अच्छे सभ्य करें, वे इस संसार में सत्कार करने योग्य हैं॥६१॥
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