ऋषि का तेज
महर्षि कश्यप धर्मशास्त्रों के अध्ययन में लगे रहते थे। वे अपने आश्रम में
रहनेवाले छात्रों को उपदेश दिया करते थे कि धर्म का स्वयं पालन करना चाहिए तथा यदि
कोई धर्म के विरुद्ध किसी व्यक्ति का उत्पीड़न करता है, तो उस दुष्ट से
उसकी रक्षा के लिए तत्पर रहना चाहिए । अन्याय सहन करना घोर पाप है ।
एक दिन महर्षि कश्यप के पुत्र महोत्कट काशी नरेश के पुत्र का विवाह संपन्न
कराने जा रहे थे। रास्ते में उन्होंने धूम्राक्ष राक्षस को एक दिव्य शस्त्र के साथ
देखा। धूम्राक्ष ने काशी क्षेत्र में आतंक फैला रखा था । वह निरपराध व्यक्तियों का
उत्पीड़न करता था और यज्ञ आदि के विध्वंस को तत्पर रहता था । ऋषि महोत्कट को पिता
का उपदेश याद आ गया । उन्होंने राक्षस धूम्राक्ष को चुनौती दे डाली तथा देव द्वारा
दिए गए शस्त्र छीनकर उन्हीं से उसका वध कर डाला। पता चलते ही धूम्राक्ष के पुत्र
जघन और मनु ने महोत्कट ऋषि को काशी नरेश के महल में पहुँचकर घेर लिया । ऋषि ने
अपने तेज से इन राक्षसों का भी वध कर डाला ।
काशी के एक विद्वान् पंडित ने ऋषि से कहा, आप ऋषि हैं । आपको धर्म - कर्म में ही रत रहना
चाहिए । आपको धूम्राक्ष से बैर मोल लेने की क्या आवश्यकता थी ?
महोत्कट ने कहा, साधु - संतों और ऋषियों का यह कर्तव्य भी होता है कि वे अधर्म
और अन्याय को मूक बने रहकर सहन न करें । मैंने राक्षसों का संहार कर धर्म का ही
पालन किया है । काशी नरेश के पुत्र का विवाह कराकर वे अपने आश्रम लौट गए ।
0 Comments
If you have any Misunderstanding Please let me know