आपत्तियों से डरिए नहीं, लड़िए
परिवर्तन संसार का स्वाभाविक गुण है ।
यह एकरस कदापि नहीं रह सकता। ऋतुओं का परिवर्तन, रात-दिन, धूप-छाँह
की अदल- बदल यही प्रकट करते हैं कि संसार की शोभा भी इसके परिवर्तनशील होने में
है। हर परिवर्तन एक नवीन जिंदगी लेकर आता है। जब संसार ग्रीष्म में तपकर व्याकुल
हो उठता है, तब बरसात उसका ताप दूर करके एक नवजीवन ‘नए सुख' का संचार करती है। बरसात से जब नदियाँ बढ़
जाती हैं, रास्ते बंद हो जाते हैं, पानी
गँदला हो जाता है, कीड़े-मकोड़े बढ़ जाते हैं, तब इनका निवारण करने के लिए शरद ऋतु आती है और बरसात से ऊबा हुआ मनुष्य
पुनः एक नवीन जीवन का अनुभव करता है। इसी प्रकार जब जाड़ा प्राणलेवा बन जाता है,
तब पुनः शीतरहित ऋतु का आगमन होता है । आशय यह कि एक सी स्थिति में
रहते संसार के प्राणी ऊबकर विरक्त न होने लगें, इसलिए
परमात्मा ने संसार में परिवर्तन का एक अनिवार्य नियम बना दिया है ।
संसार का एक अंग होने से मनुष्य का
जीवन भी परिवर्तनशील है । बचपन, जवानी, बुढ़ापा आदि का परिवर्तन;
तृषा, तृप्ति, काम,
आराम, निद्रा, जागरण तथा
जीवन-मरण के अनेक परिवर्तन मानव जीवन से जुड़े हुए हैं। इसी प्रकार सफलता-असफलता
तथा सुख-दुःख भी इसी परिवर्तनशील मानव जीवन के अभिन्न अंग हैं ।
परिवर्तन जीवन का चिह्न है । अपरिवर्तन
जड़ता का लक्षण है । जो जीवित है, उसमें परिवर्तन आएगा ही । इस परिवर्तन में ही रुचि का भाव
रहता है। एकरसता हर क्षेत्र में अरुचि उत्पन्न कर देती है ।
कठिनाइयों का आगमन भी इसी
परिवर्तनशीलता के ही अंतर्गत हुआ करता है । मानव जीवन संघर्षपूर्ण प्रक्रिया है।
अधिकतर लोग संघर्ष को बुरा मानते हैं, उससे बचने का प्रयत्न करते हैं । किंतु यह
संघर्ष ही मनुष्य जीवन के विकास एवं सफलता का कारण है । यदि संघर्ष न हो तो कोई
शक्तिशाली, विद्वान, पुरुषार्थी अथवा
परिश्रमी बनने का प्रयत्न ही न करे। स्पर्द्धारूपी संघर्ष ही मनुष्य को एकदूसरे से
ऊँचा कलाकार, कार्यकर्त्ता तथा शिल्पकार बनने की प्रेरणा
देता है। यदि मनुष्य को बिना श्रम किए भोजन मिल जाया करे, प्रकृति
की कठोरता से संघर्ष किए बिना उसकी आवश्यकताएँ पूरी हो जाया करतीं तो मनुष्य कितना
काहिल और कितना निकम्मा होता, इसका अनुमान लगा सकना कठिन है।
प्राकृतिक कठोरताओं के संघर्ष से ही प्रेरित
होकर मनुष्य जीवन में सुख-सुविधाओं के रूप में बड़ी-बड़ी सभ्यताओं एवं संस्कृतियों
का निर्माण कर डाला है। प्रकृति से छिड़े हुए संघर्ष ने ही संसार में आश्चर्यचकित
कर देने वाले शिल्पों को जन्म दिया है। संघर्ष संसार की न केवल स्वाभाविक
प्रक्रिया है बल्कि परिवर्तन की तरह यह आवश्यक भी है। इसके बिना मनुष्य का विकास
रुक जाता, भौचक्के
कर देने वाले विज्ञान की भी प्रगति न होती ।
किंतु कितना आश्चर्य है कि मानव विकास
की इस अनिवार्य आवश्यकता से न जाने मनुष्य क्यों डरता है ? परिवर्तन से डरना और
संघर्ष से कतराना मनुष्य की बहुत बड़ी कायरता है ।
मनुष्य जब तक जीवित है, उसे परिवर्तनपूर्ण
उतार-चढ़ाव और बनने-बिगड़ने वाली अनुकूल एवं प्रतिकूल परिस्थितियों का सामना करना
ही होगा । दुःख-सुख, हानि-लाभ, सफलता-असफलता,
सुविधा एवं कठिनाइयों के बीच से गुजरना ही होगा। लाख चाहने और प्रयत्न
करने पर भी वह इनको आने से नहीं रोक सकता । यह आएँगी ही और मनुष्य को इनसे जूझना
ही होगा ।
यह बात दूसरी है कि कोई कायर इनकी मार
खाकर रोता- चिल्लाता हुआ इनको पार करता है और कोई साहसी अपने आत्मबल एवं पुरुषार्थ
के संबल का सहारा लेकर या तो इनको अपने अनुकूल बना लेता है या इनका मुख मोड़ देता
है ।
रोना-धोना, शोक, चिंता और विषाद करने से कोई परिस्थिति नहीं बदलती, कोई
कठिनाई दूर नहीं होती। बल्कि वे कमजोर मनोभूमि पाकर और भी विकराल रूप में अपना
तांडव करती हुई कायर के भय से अपना मनोरंजन किया करती हैं । जहाँ उनके ठहरने का
समय दिन दो दिन होता है, वहाँ वे महीनों वर्षों के लिए अपना
टिकाव लगा देती हैं। रोना- झींकना, भयभीत होना अथवा भागना एक
प्रकार से कठिनाइयों एवं अपत्तियों के प्रति आत्मसमर्पण करना है और किसी शत्रु के
सम्मुख आत्मसमर्पण करने का जो फल होता है, वही उसे भोगना
पड़ता है। ऐसे दुर्बल व्यक्ति का आत्मसमर्पण पाकर आपत्तियाँ उसका सर्वस्व हरण कर
लेती हैं। उसकी मानसिक शक्तियों, आत्मिक बल, प्रसन्नता, आशा, उल्लास आदिक
संपत्तियों को हड़प कर नितांत दरिद्र बना देती हैं ।
परिवर्तन के नियम और संघर्ष में
प्रबलता के कारण जब जीवन में कठिनाइयों, परेशानियों और आपत्तियों का आना अनिवार्य ही है,
तब रोने-धोने, भागने, भयभीत
होने के स्थान पर उनसे लड़ना और टकराना ही उचित मालूम होता है।
बिना कठिनाइयों के मनुष्य का पुरुषार्थ
नहीं खिलता, उसके आत्मबल का विकास नहीं होता, उसके साहस और
परिश्रम के पंख नहीं लगते, उसकी कार्य-क्षमता का विकास नहीं
होता। यदि कठिनाइयाँ न आएँ तो मनुष्य साधारण रूप से रेलगाड़ी के पहिये की तरह
निरुत्साह के साथ ढुलकता चला जाए। उसकी अलौकिक शक्तियों, उसकी
दिव्य क्षमताओं, उसकी अद्भुत बुद्धि और शक्तिशाली विवेक के
चमत्कारों को देखने का अवसर ही न मिले। उसकी सारी विलक्षणताएँ, अद्भुत कलाएँ और विस्मयकारक योग्यताएँ धरती के गर्भ में पड़े रत्नों की
तरह ही पड़ी पड़ी निरुपयोगी हो जातीं ।
निस्संदेह यह आपत्तियों तथा कठिनाइयों
की कृपा है जो मनुष्य अपनी शक्तियों तथा अपने स्वरूप को पहचान सका है। कठिनाइयाँ
ही मनुष्य के मस्तिष्क को जगाती, उसकी आत्मा को प्रबुद्ध करती और उसे विकास के पथ पर अग्रसर
करती हैं। मनुष्य को आपत्तियों से घृणा नहीं बल्कि प्रेम करना चाहिए, उनका आभार मानना चाहिए, उन्हें धन्यवाद देना चाहिए।
मनुष्य के ज्ञानवर्द्धन में कठिनाइयों
का बहुत हाथ है। आपत्ति के समय ही मनुष्य को ठोस अनुभव होते हैं। आपत्तिकाल में ही
उसे अपने-परायों की, मनुष्यता एवं पशुता की परख होती है। कठिनाइयाँ तथा आपत्तियाँ ही संसार के
वास्तविक रूप को उसके सामने प्रकट करती हैं। कठिनाइयाँ ही मनुष्य को अपने प्रति
बहुत से भ्रमों को दूर कर देती हैं। आपत्ति के बीच अपनी दशा देखकर ही मनुष्य ठीक-
ठीक समझ पाता है कि वह कितने पानी में है । बड़े-बड़े साहसी अपने को कायर और कमजोर
समझने वाले देखते हैं कि उनमें तो काफी साहस है । इस प्रकार कठिनाइयाँ मनुष्य के
लिए हर प्रकार से सहायक तथा उपयोगी ही होती हैं।
किंतु किसके लिए? क्या उसके लिए जो उनको
देखते ही दुम दबाकर भागते या रोते-चिल्लाते हैं ? क्या
आपत्तियों में जिनकी बुद्धि विकल एवं भ्रष्ट हो जाती है, मन
का सारा साहस कूँच कर जाता है? क्या उनके किए जो भीरु हैं,
सुकुमार हैं, असहिष्णु अथवा सुखलिप्सु हैं?
नहीं, कठिनाइयों का सहन कर सकना निर्बल हृदय
व्यक्ति के वश की बात नहीं है और जो उनको सहन नहीं कर सकता, वह
सिद्धि पाना तो दूर, उनसे लाभ उठाना तो क्या, उलटे उनमें जलकर भस्म ही हो जाएगा। आपत्तियों का झंझावात जहाँ नरसिंहों को
झकझोर उनका प्रमाद दूर करके पुरुषार्थ के लिए खड़ा कर देता है, वहाँ शृगाल - शशकों को भयभीत करके जीवन - रण में परास्त कर देता है ।
आपत्तियाँ संसार का स्वाभाविक धर्म है
। वे आती हैं और सदा आती रहेंगी। उनसे न तो भयभीत होइए और न भागने की कोशिश करिए, बल्कि अपने पूरे
आत्मबल, साहस और शूरता से उनका सामना कीजिए, उन पर विजय प्राप्त कीजिए और जीवन में बड़े से बड़ा लाभ उठाइए ।
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