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दुःखों का सामना कीजिए

 


दुःखों का सामना कीजिए

 

एक ओर मनुष्य ज्यों-ज्यों सभ्यता की ओर बढ़ता और सुख- सुविधा के साधन जुटाता गया, त्यों-त्यों उसमें कष्ट सहन करने की क्षमता कम और दुःख अनुभूत करने की दुर्बलता अधिक बढ़ती गई है। जहाँ दुःखानुभूति की वृद्धि हुई है, वहाँ इससे यह लाभ भी हुआ है कि मनुष्य-मस्तिष्क सुख की अधिकाधिक खोज करता हुआ परमानंद तक पहुँच गया है।

सामान्यतः जन-साधारण उस परमानंद तक नहीं पहुँच सकता, फिर भी दिन-प्रतिदिन सिर पर खड़े हुए दुःखों से बचाव करने का उपाय तो करता ही होगा। किसी बात का निराकरण करने के लिए उसके मूल को समझना होगा। जिस प्रकार किसी रोग के उपचार के लिए वैद्य को सबसे पहले रोग का निदान करके उसके उत्पन्न होने के कारण को खोजना और समझना पड़ता है, उसी प्रकार दुःख के निराकरण के लिए उसके स्वरूप और कारण को समझना होगा ।

दुःख क्या है, उसकी उत्पत्ति कैसे होती है, उससे क्या अहित है और उसका निराकरण किस प्रकार हो सकता है, इन सब बातों पर गहराई से विचार करने की आवश्यकता है ।

आकाश की भाँति दुःख भी कोई स्थूल वस्तु नहीं है, वह भी एक निराकार अनुभूति मात्र है। यह अनुभूति मात्र है । यह अनुभूति जितनी तीव्र होगी दुःख का अनुभव भी उतना ही प्रचंड होगा । दुःख यदि असुविधापूर्ण परिस्थिति विशेष पर निर्भर होता तो अधिक सुविधाएँ वाले हर व्यक्ति को सुखी होना चाहिए और असुविधापूर्ण जीवन व्यतीत करने वाले को दुःख से दबकर मर जाना चाहिए । संसार में सुख-सुविधाओं के साधन उतने नहीं हैं जितनी कि जनसंख्या । इस अनुपात से तो यदि दुःख का कारण असुविधापूर्ण परिस्थितियाँ ही होतीं, तो संसार का दो तिहाई जन-समुदाय हर समय रोता- कलपता ही दृष्टिगोचर होता। किंतु होता ऐसा नहीं । जहाँ सुविधासंपन्न व्यक्ति प्रसन्न दीखते हैं वहाँ असुविधाग्रस्त व्यक्ति भी और जहाँ असुविधाग्रस्त लोग व्यग्र एवं विकल होते देखे जाते हैं, वहाँ सुविधासंपन्न व्यक्ति भी कम परेशान नहीं होते। इस न्याय से तो यही सिद्धांत निकलता है कि सुख-दुःख का अस्तित्व सुविधा - असुविधापूर्ण परिस्थितियों पर निर्भर नहीं है, बल्कि इनका कोई अन्य कारण है ।

दुःख-सुख का मूल बाह्य परिस्थितियों में नहीं, मनुष्य की अपनी मनःस्थिति में है, उनकी न्यूनाधिकता का होना उसकी संवेदनशीलता की तीव्रता पर निर्भर करता है। हर समय देखा जा सकता है कि एक ही समान परिस्थिति में रहने वाले दो व्यक्तियों में से एक दुखी दीखता है और दूसरा प्रसन्न । कभी-कभी यह भी देखा जाता है कि किसी एक ही परिस्थिति में एक ही व्यक्ति कभी प्रसन्न और कभी खिन्न होने लगता है।

एक समय ऐसा भी था जब संसार में किसी प्रकार की सुविधा का कोई छोटा-मोटा साधन भी नहीं था। मनुष्य प्राकृतिक साधनों पर निर्भर रहकर भी प्रसन्न रहा करता था। यदि असुविधाएँ ही दुःख का कारण होतीं तो उस समय से अब तक मनुष्य को जीवित न रहना चाहिए था। आज भी देखा जा सकता है कि मनुष्य की अपेक्षा पशु- पक्षियों के पास साधनों की कमी ही नहीं पूर्णरूपेण अभाव है, तब भी वे मनुष्यों से अधिक प्रसन्न दीखते हैं। मनुष्य की भाँति कोई भी पशु- पक्षी रोते- कलपते नजर नहीं आते। वे एक नैसर्निक जीवन यापन करते हुए भी प्रमुदित एवं प्रसन्न रहते हैं ।

पशु-पक्षी ही क्यों सभ्य मानव संसार को ही ले लिया जाए । आज भी ऐसे देश, द्वीप और भूमंडल हैं जिनके निवासियों को सुख- सुविधाओं के साधन नहीं के बराबर ही उपलब्ध हैं। कोई जातियाँ रेगिस्तान के बीच रहती हैं, कोई पानी के नीचे तो कोई बरफ से घिरी हुई रहती हैं, किंतु वे भी हँसती खेलती और प्रसन्न होती हैं। एक किसान और साहूकार की ही तुलना कर ली जाए कि जिस कड़ाके की सरदी में किसान अपने खेत में गाता हुआ हल जोतता है, उसी सरदी में कोई अमीर आदमी लिहाफ में लिपटा हुआ अँगीठियों के बीच भी कष्ट अनुभव करता है। किसी एक ही व्यक्ति को ले लीजिए कि जाड़ों में जो प्रातः काल लिहाफ से मुँह नहीं निकालता, वहीं अपने किसी प्रियजन को लेने के लिए प्रसन्नतापूर्वक दौड़ा-दौड़ा स्टेशन जाता है ।

इनके अतिरिक्त ऐसे भी व्यक्ति पाए जाते हैं जो सुख-सुविधाओं को त्यागकर असुविधापूर्ण जीवन अपना कर प्रसन्न रहते हैं । साधक तथा तपस्वी इसी श्रेणी के व्यक्ति हैं । यदि साग्रह अपनाया हुआ उनका असुविधापूर्ण जीवन दुःख का कारण होता तो प्रथम तो वे उसे अपनाने की गलती ही नहीं करते अन्यथा पहले से अधिक प्रसन्न, स्वस्थ और तेजवान दीखने के स्थान पर दुर्बल, असंतुष्ट, खिन्न एवं दीन-हीन दीखते ।

इस प्रकार हम देख सकते हैं कि दुःख-सुख का कारण बाह्य परिस्थितियाँ नहीं बल्कि मनुष्य की मनःस्थिति ही है ।

जिसका मन बलवान है, जिसकी बुद्धि ठीक-ठीक क्रियाशील है और जिसकी संवेदनशीलता छुई-मुई की तरह सुकुमार नहीं है, वह मनुष्य अपेक्षाकृत दुःख का अनुभव कम ही करेगा। जिस विवेकशील ने दुःख के अस्तित्व में विश्वास नहीं किया हुआ है, जो कष्टों और आपत्तियों को उद्बोधन, सतर्कता, सावधानी और कर्मठता का हेतु मानता है, वह सुखों से अधिक दुःखों से लाभ उठाता है।

सुख-सुविधापूर्ण परिस्थितियों में मनुष्य प्रायः निकम्मा, आलसी और सुकुमार हो जाता है, जिससे मन-बुद्धि के साथ उसकी सारी इंद्रियाँ निस्तेज तथा निर्जीव हो जाती हैं। उन पर उसी प्रकार विकारों का मोरचा लग जाता है जिस प्रकार बेकार पड़ी हुई मशीन पर। चलती हुई मशीन के सारे पुरजे जिस प्रकार चमकदार और चिकने बने रहते हैं, ठीक उसी प्रकार संघर्षरत मनुष्यों की सारी क्षमताएँ एवं अवयव तेजस्वी बने रहते हैं ।

आपत्तिकाल में जो मनुष्य दुःख से दबकर निश्चेष्ट हो जाता है, उसके संपूर्ण जीवन को एक छोटी सी विपत्ति भी अमरबेलि की तरह घेरकर सुखा देती है और जो दुःख को एक चुनौती की तरह स्वीकार करता है, एक बीज की तरह धरती का पर्त चीरकर पल्लवित हो उठता है ।

"संसार दुःखों का सागर है" - यह उक्ति केवल उन्हीं पर चरितार्थ होती है जो दुःखों से भयभीत और प्रत्येक क्षण सुख के लिए लालायित रहते हैं । सुख-सुविधा की अतिशय चाह भी दुःख का एक विशेष कारण है । इस निरंतर परिवर्तनशील और कष्ट प्रधान जगत में जो सदा अपने मनोनुकूल परिस्थितियों की अपेक्षा करता है, उसके लिए संसार की लघु से लघु प्रतिकूलता भी एक बड़ा दुःख बन जाती है । हम क्यों चाहते हैं कि हमें केवल शीतल मंद सुगंध समीर ही प्राप्त होती रहे, गरम वायु का कोई झोंका हमारे पास होकर न निकले। ऐसा किस प्रकार संभव हो सकता है? जब संसार में दोनों प्रकार की वायु चलती हैं तो क्रम से वे हमारे पास आएँगी ही। यदि हम छाँह की कामना करते हैं तो धूप सहन ही करनी होगी ।

इसके अतिरिक्त यदि यह संभाव्य भी मान लिया जाए कि मनुष्य के मनोनुकूल परिस्थितियाँ संचित की जा सकती हैं और किसी प्रकार दुःख को पास नहीं भी आने दिया जा सकता है तब भी कुछ ही समय में एकरसता के कारण सुख-सुविधा की व्यवस्था भी दुःखदायी बन जाएगी। एक जैसी स्थिति में रहते-रहते मनुष्य का मन ऊब उठता है और तब वह प्रिय वातावरण में भी नीरसता का अनुभव करने लगता है। जिस प्रकार वियोग-संयोग सुख का उद्दीपक है उसी प्रकार सुखानुभूति को पुलकपूर्ण बनाए रहने के लिए दुःख का पुट भी आवश्यक है । कोई वस्तु किसी को कितनी ही प्रिय क्यों न हो, यदि वह उसे निरंतर ही खाने-पीने को दी जाती रहे तो शीघ्र ही उस व्यक्ति को अपनी वह प्रिय वस्तु भी अरुचिकर लगने लगेगी।

विश्वास रखिए कि दुःख का कोई अपना अस्तित्व नहीं है, यह आपकी अपनी मनोदशा का विकृत स्वरूप है। दुःख की दवा रोना नहीं मुस्कराना ही है । दुःख को देखकर मुस्कराइए, इसे स्थिति का छल समझकर हँसिए । यदि आप दुःख की दशा में हाथ-पैर छोड़कर बैठ जाएँगे, उसके प्रति आत्मसमर्पण कर देंगे तो यह काल्पनिक प्रेत आपको विनष्ट कर देगा । दुखी होने वाला व्यक्ति न कभी स्वस्थ रह सकता है और न वह कोई उन्नति कर सकता है और न विकास । दुःखशील प्रवृत्ति के व्यक्ति के मन-मस्तिष्क निष्क्रिय और आत्मा निस्तेज होकर पतित हो जाती है ।

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