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आदि पर्व (सम्भव पर्व) अध्याय 96,97,98,99,100

 

आदि पर्व (संभव पर्व) अच्छाबेवाँ अध्याय

"महाभिषेक को ब्रह्मा जी का शाप तथा शापग्रस्त वसुओं के साथ गंगा की बातचीत"

वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! इक्ष्वाकुवंश में एकांतवादी महाभिष नाम से एक राजा हो गए थे, जो सपूतवादी होने के साथ ही सपूतपराक्रमी भी थे। एक हजार अश्वमेध और एक सौ राजसूय यज्ञ देवेश्वर इंद्र को मिले और उन यज्ञों के पुण्य से उन शक्तिशाली नरेशों ने स्वतंत्रता संग्रामलोक को प्राप्त किया। तदन सुन्दरर एक समय सभी देवता ब्रह्मा जी की सेवा में उनके निकट बैठे थे। वहाँ बहुत से राजर्षि तथा पूर्वोक्त राजा महाभिष भी उपस्थित थे। इसी समय नदियों में श्री गंगा ब्रह्मा जी के घाट आये। उस समय वायु के डूबे से उसके शरीर का मित्र के समान वस्त्र वस्त्र सहसा ऊपर की ओर उठ गया। यह देख सभी देवताओं ने तुरंत अपना मुंह नीचे की ओर कर लिया; मित्र राजर्षि महाभिष नि:शंक तारा देव की ओर देखते ही रह गये। तब भगवान ब्रह्मा ने महाभिष को शाप देते हुए कहा- 'दुर्मते! मनुश्यों में जन्म लेकर तुम फिर पुण्यलोकों में आओगे। जिस गंगा ने तेरे चित्त को चुराया है, वही मनुष्‍य लोक में तेरे विपरीत आचरण किया गया। जब तुम्हें गंगा पर गुस्सा आ जाएगा, तब तुम भी शाप से छूट जाओगे।'

वैशम नामायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! तब राजा महाभिष ने महानतेजस्वी राजा प्रताप को ही अपने पिता के योग्य बनाने के लिए अपनी पसंद बना लिया। महानदी गंगा राजा महाभिष को धैर्य खोते देख मन-ही-मन उनहें की आत्मा लौट आई। मार्ग से गयी हुई गंगा ने वासु देवताओं को देखा। उनका शरीर स्वतन्त्रतापूर्वक नीचे गिर रहा था। वे मोहा उत्कृष्टन्न एवं मालिन दिखायी दे रहे थे। इस रूप में देखने पर,,,

 नदियों में श्रेणियाँ गंगा ने पूछा ;- 'आप लोगों का समग्र रूप में वर्णन कैसे हुआ? देवता सकुशल तो हैं न?'

 तब देवताओं ने गंगा से कहा ;- 'महानदी! महामाया वैश्य ने सात्विक-से अपराध पर क्रोध में हमें शाप दे दिया है। पहली बात यह है कि एक दिन जब मधुमेह जी की प्रतिज्ञा में संध्योपासना कर रहे थे, हम मोहवश उनका उल्लंघन करके चले गये। इससे कुपिट स्टार्स ने हमें शाप दिया कि 'तुम लोग मनुष्‍य योनि में जन्‍म लो।' उन ब्रह्मवादी महर्षि ने जो बात कही है, वह टाल नहीं सकते; अत: हमारी प्रार्थना है कि तुम पृथ्वी पर मानव-पत्नी बनो हम वसुओं को अपने पुत्ररूप से अलौकिक करो। शुभे! हमें मानुषी फैन के उदर में एंट्री न करना पड़े, इसीलिये हमसे ये मांगी गई है।'

वसुओं के ऐसा दर्शन गंगाजी 'तथास्तु' पर यों बोलें।

 गंगाजी ने कहा ;- 'वसुओं! मर्फ़र्टलोक में ऐसे श्रेष्ठ पुरुष कौन हैं; 'जो तुम लोगों के पिता हो।' 

वसुगण बोले ;- प्रताप के पुत्र राजा शान्तनु लोक विख्यातात् साधु पुरुषहुगे। मनुष्‍य लोक में वे ही हमारे होंगे।' 

गंगाजी ने कहा ;- निष्पाप देवताओं! जैसा तुम कहते हो, वैसा ही मेरा विचार है। मैं राजा शाशविनु का प्रिय करूँ और तुम्हारे इस अभिष्ट कार्य की सिद्धि करूँ। 

वसुगण बोले ;- त्रिलोकों में प्रवाहित होने वाली गंगे! हम लोग जब तुम्हारे गर्भ से जन्म लेते हैं, तब तुम्हारा जन्म होता है हमारे जल में; जिससे शीघ्र ही हमारा मर्लोक से सूर्यास्त हो जाए।

 गंगाजी ने कहा;- हम सब लोग अपने तेज का एक-एक अष्टमांश देंगे। उस तेज से जो तेरा एक पुत्र होगा, वह उस राजा की इचैदा के नमूने होगा। अन्यत्र मरुअर्टलोक में उसका कोई संत नहीं होगा। अत: तुम्हारा वह पुत्र संतहीन होने के साथ ही अतुल्य चित्रात्मक होगा। इस प्रकार गंगा जी के साथ शर्त लगाकर वसुगण संकेत- अपनी इच्छा के अनुसार चलना छोड़ें।

(इस प्रकार महाभारत आदि पर्व के अंतर्गत संभावित पर्व महाभिषोपाख्यानविषयक गुडबेवाँ अध्याय पूरा हुआ)

आदि पर्व (सम्भव पर्व) सत्यनबेवाँ अध्याय

"राजा प्रताप का गंगा को पुत्रवधू के रूप में स्वैच्छिक बनाना और शबाबनु का जन्ममा, भोला अभिषेक और गंगा से मिलना"

वैशम्पायन जी कहते हैं ;- तदन ब्याजर इस पृथ्वी पर राजा प्रतीप की दोस्ती करने लगे। वे सदा समद पूर्ण मॅक्रेटिक के हित में जुड़े हुए थे। एक समय महाराज प्रताप गंगाद्वार हरिद्वार गए और कई वर्षों तक जप करते हुए एक आसन पर बैठे रहे। उस समय मनस्विनी गंगा सुदिन्द्ररूप और उत्तम गुणवत्ता से युक्त नदी रूप धारण करके जल सेकेटं और स्वेच्छाध्याय में लगे हुए राजर्षि प्रताप के शाल-समान विशाल उरु (जांघ) पर जा बसेरं। उस समय उनकी शीर्षक बड़ी किताब थी; रूप देवांगनाओं के समान था और अतुल्य अनमोल मनमोहक था। 

अपनी जॉच पर ऑनलाइन हुई उस यशस्विनी नारी से,,

 राजा प्रतीप ने पूछा ;- 'कल्यानि! मैं तुम्हारा कौन-सा प्रिय कार्य चयन? 'तुम्हारी वृद्धि बेहतर है?'

   स्त्री बोली ;- राजन! मैं आपको ही चाहता हूँ। आपका प्रति मेरा अनुराग है, अत: आप सदस्य बनें; ज्वालामुखी के काम के स्वामित्व में आपके पास हुई हुई साधू का परित्याग साधु पुरुष ने निन्दित माना है।

प्रतीप ने कहा ;-सुन्दरी! मैं कामवश परायी स्त्री के साथ समागम नहीं कर सकता। जो अपने वर्ण की न हो, उसे भी मैं समबंध नहीं रख सकता। कल्याणी! यह मेरा धर्मानुकूल व्रत है।

स्त्री बोली ;- राजन! मैं अशुभ या मंगल करने वाली नहीं हूं, समागम के अयोग्यता भी नहीं हूं और ऐसी भी नहीं हूं कि कभी मुझे कोई कलंक लगा दूं। मैं आपकी प्रति अनुरक्षित हुई आई हुई दी परिसंपत्ति कनान्या एवं सुंद्री महिला हूं। अत: आप सदस्यता लें।

प्रतीप ने कहा ;-सुन्दरी! तुम जिस प्रिय मनोरथ की नियुक्ति के लिए मुझे प्रेरित कर रही हो, उसकी रुचि भी तुम्हें ही हो गई। यदि मैं धर्म के विपरीत तुम धर्म का विरोध कर लूं तो धर्म का यह विनाश मेरा भी नाश कर डालेगा। वरांगने! तुम मेरी दाहिनी जमीन पर हो। भीरू! तुम्हीं प्रमुख कलाकार हैं कि यह पुत्र, पुत्री और पुत्रवधू का आसन है। पुरुषों की बायीं इच्छा ही कामिनी के उपभोक्ता के योग्य है; यूक्रेन ने अपना स्टूडियो कर दिया है। अत: वरांगने! मैं तुम्हारे प्रति कामयुक्त आचरण नहीं करूंगा। सुश्रोणि! तुम मेरी पुत्रवधू हो जाओ। मैं अपने बेटे के लिए तुम्हारा उत्तर देता हूं; वभोर! यहाँ मेरा मतलब वही है जो पुत्रवधू के पक्ष में है।

स्त्री बोली ;- धर्मज्ञ नरेश! जैसा आप कहते हैं, वैसा ही आदर्श भी हो सकता है। मैं आपके बेटे के साथ संयुक्त होऊंगी। आपकी प्रति जो मेरी भक्ति है, उसके कारण मैं भरतवंश का दर्शन करता हूँ। पृथ्वी पर यात्री राजा हैं, उन सबके बीच आप लोग उत्तम आश्रय हैं। वर्षों में भी आप लोगों के अनुपात का वर्णन नहीं कर सकते। आपके कुल में जो विख्यात राजा हो गए हैं, उनकी साधुता सर्वोपरी है। धर्मज्ञ! मैं एक शर्त के साथ आपकी बेटी से शादी करना चाहता हूं। प्रभो! मैं जो कुछ भी आचरण प्रस्तुत करता हूं वह सब आपके पुत्रों की नियुक्ति करता हूं। वे उनके विषय में कभी कुछ विचार न करें। इस शर्त पर कायम है मैं आपकी बेटी के प्रति अपना प्रेम बढ़ाऊंगी। मेरे जो पुन्यबिटमा एवं प्रिय पुत्र एकांतपन्नहोगे, उनके द्वारा आपके पुत्र कोस्वर्गलोक की प्राप्ति होगी।

वैशम्पायन जी कहते हैं;- जनमेजय राजा प्रतीप ने 'तथास्तु' कहकर अपनी शर्त स्वीकार कर ली। तत्पशात् वह कहीं न कहीं अंतर्धान हो गया। इसके बाद पुत्र के जन्ममा की प्रतीक्षा करते हुए राजा प्रताप ने अपनी बात याद रखी। कुरुनुन्दन! इन दिनों क्षत्रियों में श्रेष्ठ प्रताप अपनी पत्नी को लेकर पुत्र के साथ तपस्या करने लगे। प्रताप की पत्नी की कुक्षी में एक तेजश्वी गर्भ का आभास हुआ, जो शरद ॠतु के शुक्ल पक्ष में परम कान्तिमन् चन्द्रमा की भाँति प्रतिदिन बढ़ने लगा। तदन प्रभु दसवां मास प्राप्त होने पर प्रताप की महारानी ने एक देवपम पुत्र को जन्म दिया, जो सूर्य के समान प्रकाशमान था। उन अब्बास राजमपति के यहाँ पूर्वोक्त राजा महाभिष ही पुत्ररूप में एकान्त पन्न हुऐ। शा वफादार पिता की संतान से शांतनु कहलाये। शक्तिशाली राजा प्रताप ने उस बालक के चमत्कारिक कृत्य (संस्कार) करवाये। ब्राह्मण पुरोहितों ने अपने जाट-कर्मचारी आदि समनुदेशकों द्वारा वेदाक्त कार्य शुरू किये।

  जनमेजय! तदन एबिश्नर बहुत-से ब्राह्मणों ने सामूहिक वेदोक्त अभ्यावेदन के अनुसार शानू का जन्मस्थान-संस्कार भी किया। तत्पश्चात् बड़े होने पर राजकुमार शा शेयरनु लोकरक्षा का कार्य करने लगे। वे धर्मज्ञों में श्रेष्ठ थे। राक्षस धनुर्वेद में उत्तम योगयोग्यता प्राप्त करके वेदाध्ययन भी प्राप्त करें। स्ट्रेंथ में सर्वश्रेष्ठ वे राजकुमार धीरे-धीरे-दारा युवाव में पहुंच गए। अपने सत्कर्मों के द्वारा उपार्जित अक्षय पुण्यात्मालोकों का अंतिम संस्कार करके कुरुश्रेष्ठ शनानु सदा पुण्यकर्मों के अनुष्ठान में ही लगे रहते थे। युवावस्तु में शामिल हुए राजकुमार शाबस्टनु को राजा प्रताप ने दिया आदेश,

राजा प्रताप बोले ;- 'शाशनशनो! पूर्वकाल में मेरे सामने एक दी कहानी आई थी। उनका आगमन तुम्हारे कल्याण के लिए ही हुआ था। बेटा! यदि वह सुंदरी कभी एका चित्रित में तुम्हारे पास आवे, तुम्हारे प्रति कामभाव से युक्त हो और चित्रमय पुत्र पाने की अच्छी कहानी हो, तो तुम उत्तम रूप से सुशोभित उस दी संपूर्ण नारी से अंगने! तुम कौन हो? किसकी बेटी हो? आई इमेज आदि मीटिंग न करना। अनघ! वह जो काम करे, उसके विषय में भी तुम कुछ प्रश्न-ताच नहीं करना। यदि वह तुम्‍हें दुख देता है, तो मेरी आज्ञा से उसे अपनी पत्‍नी बना लेती है।' ये बातें राजा प्रताप ने अपने पुत्र से कहीं कही।

वेशम नामायन जी कहते हैं ;- अपने पुत्र सा बदनु को ऐसा आदेश देने वाले राजा प्रताप ने उसी समय अपने साथियों पर अभिषिक्त कर दिया और स्वेच्छा से वन में प्रवेश कर लिया। बुद्धिमान राजा शशविनु देवराज इंद्र के समन तेजसवी थे। वे हिंसक कैमरे को मारने के उदेश्य से जंगल में सत्य रहते थे। प्रधानों में श्रेष्ठ शाश्रवंतु हिंसक दृश्य और जंगली भैसों को खोदकर सिद्ध किया गया और चारणों से सेवित गंगा जी के तट पर अकेले ही विचरण करते थे। महाराज जनमेजय! एक दिन अख्तर एक परमसुन्दरी नारी दर्शन, जो अपने तेजतर्रार शरीर से ऐसी प्रकाशित हो रही थी, मानो साक्षात् लक्ष्मी माँ ही दूसरा शरीर धारण करके आ गई हो। उनके सारे अंग परम सुंदर और असंगत थे। दांत तो और भी सुंदर थे। वह दी एटेलियट आभूषणों से विभूषित थी। उसके शरीर पर महीन सजावट शोभा पा रही थी और कमल के अंदरूनी भाग के समान उसकी कांती थी, वह सो रही थी। उसे देखते ही राजा शनैश्चनु के शरीर में रोमांस हो आया, वे उसके रूप-सम्पत्ति से आश्चर्यचकित हो गए और दोनों उत्सवों द्वारा उसके सौन्दर्य-सुधा का पान करते-से तृप्त नहीं हुए थे। वह भी वहां विचारते हुए महातेजसवी राजा शा ब्याजनु को देखते ही मुङो शहीद हो गए। उनके दिल में स्मारक का उदय हो गया। वह विलासिनी राजा को देखते-देखते तृप्त नहीं होता था।

तब राजा शास्तुनु ने उन्हें सन्तवना देते हुए मधुर वाणी में कहा-

राजा शशवंतु बोले ;- 'सुमधम्यमे! देवी तुम, दानवी, गंधर्वी, अपरा, यक्षी, नागकन्या या मानवी, कुछ भी स्त्रियां न होओ; देवकन्याओं के समान सुशोभित होने वाली सुन्दरी! मैं हैरान याचना करता हूं कि मेरी पत्नी हो जाओ।

(इस प्रकार महाभारत आदि पर्व के अंतर्गत संभावित पर्व शान्तनुपाख्यानविषयक सत्यनबेवाँ अध्याय पूरा हुआ)

पर्व (सम्भव पर्व) अट्ठानबेवाँ अध्याय आदि

"शाश्विनु और गंगा का कुछ पुत्रों के साथ सम्बन्ध, वसुओं का जनम और शाप से तथ भीष्म माँ की आधिपत्य"

वैशम नामायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! राजा शान्तनु की मधुर मुस्कान, मनमोहक वचन से प्रसन्न यशस्विनी गंगा उनके ऐश्वर्य-भव्य के लिए उनके पास आईं। तत् पर विचारते हुए उन नृपश्रेष्ठ को देखकर सती साधवी गंगा को वसुओं को दिए गए वचन का स्मरण हो आया। साथ ही राजा प्रताप की बात भी याद आ गई। तब यही उपयुक्त समय है, ऐसा मंगलमय वसुओं को मिले हुए शाप से प्रेरित हो वेवियां संतोत्त्पादन की इचछा से पृथ्वीपति महाराज शबसुरनु के उठे चले आए और अपनी मधुर वाणी से महाराज के मन को आनंदिंद ने प्रदान की बोलीं

साधवी बोली गंगा ;- 'भूपाल! मैं आपका महारानी बन गया हूँ और आपका स्मारक बना हुआ हूँ। (परन्तु एक शर्त है-) राजन! मैं अच्छा हूँ या बुरा जो कुछ भी निर्दिष्ट करता हूँ, उसके लिए मुझे कोई गुण नहीं है और मैं कभी आपको अच्छा वचन भी नहीं कहता हूँ। पृथ्वीपते! ऐसा ही एक मकसद करने पर ही मैं आपका भूत हूं। यदि आपने कभी मुझे किसी कार्य से उद्धरण या शानदार वचन कहा हो तो मैं निश्चित रूप से आपका साथ छोड़ दूँ।

भरतश्रेष्ठ! उस समय 'बहुत अछा' राजा ने जब अपनी शर्त मान ली, तब उन नृपश्रेष्ठ को पतिरूप में प्राप्त करके उस देवी को अनुपम आनंद मिला। तब राजा सा कंचनु देवी गंगा को रथ पर बिठाकर उनके साथ अपनी राजधानी को चले गये। साक्षात दूसरी लक्ष्मी माँ के समान सुशोभित होने वाली गंगादेवी शानु के साथ गयीं। इन्द्रियों को वश में रखने वाले राजा शाशनानु उस देवी को अपने इच्युअर उपभोक्ता उपभोग करने लगे। पिता का यह आदेश था कि उससे कुछ पूछा जाए; राजा ने उनसे कोई बात नहीं पूछी। उनके उत्तम शील-असवभाव, सदाचार, रूप, उदारता, सद्गुण और एका बेजुबान सेवा से महाराज शा बेजुनु बहुत प्रसन्न रहते थे। त्रिपथगामिनी दी अस्थरूपिणी देवी गंगा ही अपवित्र भगवन् सुदिन्दर मनुष्‍य-देह धारण करके देव इन्द्र के समान तेजस्‍वी नृपशिरोमणि महाराज शान्तरूपिणी देवी को, जिन्‍हें भाग्‍य से इच्‍यर्थ असुख सुख अपने-आपको मिल रहा था, सुंद्रि पत्‍नी के रूप में प्राप्त हुई थी।

गंगा देवी हव-भाव से युक्त समभोग-चातुरी और प्रणय चातुर्य राजा को जैसी-जैसी रमातीं, उसी-उसी प्रकार वे उनके साथ रमण करते थे। उस दिन असतनारी के उत्तम दर्जे ने चित्त को चुरा लिया था; अत: वे राजा अपने साथ रति-भोग में असक्त हो गये। जिस वर्ष भी ऋतु और मास अस्तित हो गया, उस वर्ष भी असाख्ता आ गया, क्योंकि राजा को कुछ पता नहीं चला। उनके साथ इचेचेल एसोसिएट रामन करते हुए महाराज शनाशनु ने अपने गर्भ से देवताओं के समान तेजसवी आठ पुत्र एकांत पन्न की। भारत! जो- वह जो एकांतिकपन्न होता है, उसे गंगाजी के जल में रखते हैं और कहते हैं- '(वेट हिला! इस प्रकार शाप से मुक्त करके) मैं तुम्हें प्रसन्न कर रहा हूं।' ऐसा अनोखा गंगा प्रक्षेपक बच्चों को धारा में डुबोता था। पत्नी की यह अस्तिवहार राजा शा की पत्नी को अच्छा नहीं लगता था, तब भी वे उस समय कुछ नहीं कहते थे। राजा को यह डर सताने लगा कि वह मुझे छोड़कर कहीं चला न जाए।

तदन राजवंशेर जब आठवां पुत्र एकान्त पन्न हुआ, तब हंसती हुई-सी अपनी स्त्री से राजा ने अपने पुत्र का प्राण त्याग दिया, इछा से दुःख:खातुर ने कहा 

राजा शशवंतु ने कहा ;- 'अरी! इस बच्चे का वध न कर, तू कौन सा है? कौन है? अपने ही बेटों को मार डालती है। पुत्रघातिनी! चौथा पुत्र हत्‍याटा का यह अमूल्य अधूरा निंदित और भारी पाप लगा है'।

स्त्री बोली ;- पुत्र की इच्छा बनाए रखने वाले नरेश! तुम पुत्रवानों में हो। मैं तुम्हारे इस बेटे को नहीं मारूंगी; परन्तु यहाँ मेरे रहने का समय अब ​​समाप्त हो गया है; जैसे कि पहले ही शर्त हो गई है। मैं जह्नु की पुत्री और महारानी सेवित गंगा हूं। देवताओं का कार्य सिद्ध करने के लिए तुम्हारे साथ रह रही थी। ये तुम्हारे आठ पुत्र महातेजसवी महाभाग वसु देवता हैं। वसिष्ठ जी के शाप-दोष से ये मनुष्य योनि में आये थे। तुम्हारे सागर द्वितीय कोई राजा इस पृथ्वी पर ऐसा नहीं था, जो उन वसुओं का जेन हो सके। इसी प्रकार इस जगत में मेरी-जैसी दूसरी कोई मानवी नहीं हैं, जो गर्भ में धारण कर सकती हैं। अत: इन वसुओं की जननी होने के लिए मैं मानव शरीर धारण करके आया था। राजन! आठ वसुओं को जनम डेरेक अक्षय लोक जीत के लिए मिलते हैं।

वासु देवताओं की यह शर्त थी और मैंने उसे पूर्ण करने की प्रतिज्ञा का ली थी कि जो-जो वासु जन्म देता है, उसे मैं जनमते ही मनुष्योगोम्य-योनि से साकार रूप देता हूं। इसलिए अब वे वसु महातमा आपव (वसिष्ठ) के शाप से मुक्त हो गए हैं। तुम्हारा कल्याण हो, जब मैं जाऊंगी। तुम इस महान व्रतधारी पुत्र का पालन करो। यह तुम्हारा पुत्र सब वसुओं के लक्षण से समन लक्ष्यन अभिनय आपके कुल का आनंद वृद्धि के लिए प्रकट हुआ है। इसमें कोई संदेह नहीं है कि यह बाल बल और संभावित रूप से अन्य सभी लोगों में से एक होगा। यह बालक वसुओं के अंशों से एक-एक अंश का आश्रय है- समपूर्ण वसुओं के अंशों से इसका प्रभाव पड़ा है, मैंने तुम्हारे लिए वसुओं की अंतिम प्रार्थना की थी कि 'राजा का एक पुत्र जीवित रह रहा है।' यह मेरा बच्चा है और इसका नाम 'गंगादत्त' रखना है।

(इस प्रकार महाभारत आदि पर्व के अंतर्गत संभावित पर्व भीष्मोत्पत्तिविषयक अट्ठानबेवाँ अध्याय पूरा हुआ)

पर्व (संभव पर्व)  निन्यानबेवाँ अध्याय आदि

"महर्षि वसिष्ठ द्वारा वसुओं को श्राप प्राप्त होने की कथा"

शान्तनु ने पूछा ;- देवी! ये आपके नाम के महातमा कौन हैं? और वसुओन का उद्भव अपराध था, जिससे आप का शाप उन एसएसओ मनुष्योयोनि में आना पड़ा। और तुम्हारे कहे अनुसार इस पुत्र ने ऐसा कौन सा कर्म किया है, जिससे यह मनुष्य लोक में निवास करता है। जाह्न्वी! वसु तो समस्त लोकों के अधिश्वर हैं, वे कैसे मनुष्य लोक में आधिपत्य पाए हुए हैं? यह सब बात मुझे बताओ।

वैशम नामायन जी कहते हैं;-नरश्रेष्ठ जन्मेजय! अपने पति राजा शान्तनु के इस प्रकार जह्न-पुत्री गंगा देवी ने अपने इस प्रकार कहे। 

   गंगा बोली ;- भरतश्रेष्ठ! पूर्वकाल में वरुण ने जिनहें पुत्ररूप प्राप्त किया था, वे वसिष्ठ नामक मुनि ही 'आपव' नाम से विख्यात हैं। गिरिराज मेरु के पार्श्वभाग में उनका पवित्र आश्रम है; जो मृग और पक्षी से भरा रहता है। सभी ॠतुओं में विकसित होने वाले फूल उस आश्रम की शोभा की मूर्तियां वाले हैं। भरतवंश शिरोमणि! उस वन में स्वतंत्रतादिष्ठ फल, मूल और जल की सुविधा थी, पुण्यवानों में श्रेष्ठ वरुणानन्दन महर्षि वसिष्ठ उसी में तपसत्य करते थे। महाराज! दक्ष प्रजापति की पुत्री ने, जो देवी सुरभि नाम से प्रसिद्ध है, कशमोती जी के सहवास से एक गौ को जन्म दिया।

   वह परम जगत पर अनुग्रह करने के लिए प्रकट हुआ था और समस्त कामनाओं को अपने अनुयायियों में श्रेष्ठ मानता था। वरुण पुत्र धर्मसत्तामा वसिष्ठ ने उस गौ को अपनी होमधेनु के रूप में प्राप्त किया। वह गौ मुनियों द्वारा सेवित उस पवित्र एवं रामनिय तापस वन में रहती है सब ओर निर्भय चरती थी। भरतश्रेष्ठ! एक दिन देवर्षि सेवित वन में पृथु आदि वसु तथा समपूर्ण देवता पधारे। वे अपने सहयोगियों के साथ उपवन में चारों ओर विचरने और रामनिय पार्टों और वनों में रामन करने लगे। इंद्र के समान मकरी महीपाल! उन वसुओं में से एक की सुंद्री पत्नी ने उस वन साये समय उस गौ को देखा। राजेन्द्र! संपूर्ण कामनाओं को छोड़ने वालों में उत्तम नंदिनी नाम वाली उस गाय को देखकर उसकी शॉल समपत्ति से वह वसु पत्नी आश्चर्यचकित हो गई।

   वृषभ के समान भव्य उत्सव वाले महाराज! उस देवी ने द्यो नामक वासु को वह शुभ गायि दिखायी, जो भली-भाँति हृष्ट-पुष्ट थी। दूध से निकले उसके तन बड़े सुिंदर थे, पूंछ और खुर भी बहुत अच्छे थे। वह सुन्दर गाय सभी सद्गुणों से सम संकेतन और उत्तम शील-समभाव से युक्त थी। पुरुवंश का आनंदानंद बढ़ाने वाले सम्राट! इस प्रकार पूर्वकाल में वासु का आनंद बढ़ाने वाली देवी ने अपने पति वासु को ऐसे सद्गुणों वाली गौ का दर्शन कराया। गजराज के समान रूपी महाराज! द्यो ने उस गाय को देखकर ही उसके रूप और गुण का वर्णन करते हुए अपनी पत्नी से कहा- 'ये कजारारे उत्सवों वाली उत्तम गुरु दी हुई है। वरारोहे! यह उन वरुणानंदन महर्षि वसिष्ठ की गाय है, यह उत्तम तपोवन है। समधम्नमयमे! जो मनुष्‍यवत्‍सम अध्‍यक्ष दूध पीता है, वह दस हजार साल तक जीवित रहेगा और उसके युवावस्‍तु का समय स्थिर रहेगा।' नृपश्रेष्ठ! सुन्दर कटि-प्रदेश और विकलांगों वाली इस देवी ने यह बात सुनकर अपने तेजस्विनी पति से बोली- 'प्राणनाथ! इंसान लोक में एक राजकुमारी मेरी सखी है।

   उनका नाम जीववती है। वह सुिंदर रूप और युवा विचारधारा से सुशोभित हैं। सपूत प्रतिज्ञ बुद्धि राजर्षि उशीनर की बेटी है। रूप समपत्ति की दृष्टि से मनुष्यलोक में उसकी बड़ी ख़्याति है। महाभाग! उसी के लिए शेल्डे सहित यह गाय लेने की मेरी बड़ी इचछा है। सुरश्रेष्ठ! आप पुण्य की वृद्धि करने वाले हैं। इस गाय को जल्दी ले आओ। मनद! जिससे दूध पीकर मेरी यह सखी मनुष्यलोक में दर्शन ही जराव विचारधारा एवं रोग-असाधि से बिक रहे हैं। महाभाग! आप निन्दा अनुपयोगी हैं; मेरे इस मनोरथ को पूर्ण जानकारी। मेरे लिए किसी भी तरह का विरोध प्रिय या प्रिय वस्तु नहीं दिखता है।' उस देवी के इस वचन से उनकी प्रियतमा की इच्छा पूरी हुई, द्यो नामक वसु ने पृथु आदि को अपने शिष्यों की सहायता से उस गौ का अपहरण कर लिया। राजन! कमलदल के समान भव्य उत्सवों वाली पत्नी से प्रेरित होकर द्यो ने गौ का रिश्ता तो कर लिया; परंतु उस समय महर्षि वसिष्ठ की तीव्र तपस्या के प्रभाव की ओर वे दृष्टिपात नहीं कर सके और न यही सोच सके कि ऋषि के कोप से मेरा स्वतन्त्रता संग्राम से पतन हो जाएगा।

   कुछ समय बाद वरुणानंदन वसिष्ठ जी फल-मूल आश्रम पर आये; परंतु उस सुंदर कानन में छात्र ने अपना गाना नहीं दिखाया। तब तपोधन वसिष्ठ जी उस वन में गाय की खोज करने लगे; लेकिन खो जाने पर भी वे उदार बुद्धि महर्षि उस गाय को न पा सके। टैब एसिटाम दी एस्ट व्यू से देखा और यह जान गया कि वसुओन ने अपना खुलासा किया है। तो वे क्रोध के वशीभूत हो गए और तत्काल वसुओं को श्राप दे दिया- 'वसुओं ने फिर सुिंदर टेल वाली मेरी कामधेनु गाय का अंतिम संस्कार किया है, इसलिए वे सबके-सब मनुष्‍य-योनी में जन माधुर्य, इसमें संशय नहीं है'। भरतर्षभ! इस प्रकार मुनिवर भगवान वसिष्ठ ने क्रोध के आवेश में उन वसुओं को श्राप दिया। नामांकित व्यक्ति उन महाभाग महराज ने फिर से तपस्या में ही मन लगाया। राजन! तपसित्या के धनी महर्षि वसिष्ठ का प्रभाव बहुत बड़ा है। इसीलिये नागालैंड में इलेक्ट्रोड देवता होने पर भी उन आठों वसुओं को श्राप दे दिया।

   तदन साक्षात् हमें शाप मिला हुआ है, यह जानकर वे वसु पुन: महामना वसिष्ठ के आश्रम पर आए और उन महर्षियों को मोहित करने की चेष्ठा करने लगे। नृपश्रेष्ठ! महर्षि आपव समस्त धर्मों के ज्ञान में रुचि रखते थे। महाराज! वे वसु उन मुनिश्रेष्ठ से भी उनकी कृपा प्रसाद न पा सके। उस समय धर्मात्मा वसिष्ठ ने कहा था- 'मैंने आदि तुम सभी वसुओं को श्राप दे दिया है; लेकिन तुम लोग तो प्रति वर्ष एक-एक करके सबका अभिशाप से मुक्त हो जाओ। अन्य यह द्यो, क्योंकि तुम्हारा अभिशाप मिला है, मनुष्यलोक में अपने कर्म से दीर्घकाल तक निवास करना। मैंने गुस्से में तुम लोगों से जो कुछ कहा है, वैसा नहीं करना चाहता। ये महामना जो मनुष्यलोक में संत की सत्ता नहीं पायेगा। और धर्मशास्त्र तथा सभी शास्त्रों में विद्वान विद्वान होंगे; 'पिता के प्रिय एवं हित में निकटता से स्त्री-सम्‍बन्‍धी भोगों का परित्याग कर देंगे।'

   उन सब वसुओं से ऐसी जादूगरनी वहां से चली बात। तब वे सब वसु एक साथ मेरे पास आये। राजन! उस समय साकीत मिर्ज़ा याचना की और मैंने उसे पूरा किया। उनकी याचना इस प्रकार थी- 'गंगे! 'हम जम्यों-ज्यों जनमा लें, तुम हमें अपना जल डाल देना'। राजशिरोमने! इस प्रकार उन शापग्रस्त वसुओं को इस मनुष्यलोक से मुक्त करने के लिए मैंने यथावत् प्रयास किया है। भारत! नृपश्रेष्ठ! यह एकमात्र द्यो ही महर्षि श्राप से दीर्घकाल तक मनुष्यलोक में निवास करेगा। राजन! यह पुत्र देवव्रत और गंगादत्त- नक्षत्र से विख्यात होगा। आपके बच्चों के भोजन में आपसे भी अपेक्षा होगी। (अच्छी तरह से, अब जा रहा हूँ) आपका यह बेटा अभी भी शिशु-अवस्था में है। बड़ा होने पर फिर आपके पास आ जाएगा और आप जब मुझे बुलाएंगे तो मैं आपके सामने उपस्थित हो जाऊंगी।

वैशम नामायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! ये सब बातें बताइए कर गंगा देवी उस नवजात शिशु को साथ ले गई जहां एक भयावहता हो गई और अपनी अभी भी सगाई को चला गई। उस बालक का नाम हुआ देवव्रत। कुछ लोग गांगेय भी कहते थे। द्यु नाम वाले वासु शा कंचनु के पुट लक्षण में उनकी भी वृद्धि हो गई। इधर शा अविनाशीनु शोक से आतुर हो पुन: अपने नगर को लौट आया। शा इंफ्रास्ट्रक्चरु ने उत्तम गुणवत्ता का विवरण नीचे दिया है। उन भरतवंशियों महात्म्य नरेश के महान सौभाग्य का भी वर्णन मिलेगा, पुनर्जीवित इतिहास 'महाभारत' नाम से विख्यात है।

(इस प्रकार महाभारत आदि पर्व के अंतर्गत संभावित पर्व में आपवोपाख्यानविषयक निन्यानबेवाँ अध्याय पूरा हुआ)

आदि पर्व (सम्भव पर्व)  सौवाँ अध्याय

"शाशवंतु के रूप, गुण और सदाचार की प्रशंसा, गंगा जी के सुशिक्षित पुत्र की प्राप्ति और देवव्रत की भीष्म-प्रतिज्ञा"

वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! राजा शान्तनु बड़े बुद्धिमान थे; देवता तथा राजर्षि भी उनके सत्कार थे। वे धर्मसत्तामा नरेश समदपूर्ण जगत में साध्वियों के रूप में विख्यात थे। उन महाबली नरश्रेष्ठ शा कंचनु में इंद्रियसंयम, दान, क्षमा, बुद्धि, लज्जा, धैर्य तथा उत्तम तेज आदि सद्गुण सदा आकर्षित थे। इस प्रकार सर्वोत्तम गुणों से समरूपता एवं धर्म एवं अर्थ के साधन में कुशल राजा शान्तनु भरत-वंश का पालन एवं समपूर्ण प्रजा की रक्षा करते थे। उनकी सोलोविएल शंक के समान सोभा हवेली थी। कंधे विशाल थे. वे मतवाले हाथी के समान संभावित थे। वे सभी राजोचित्त शुभलक्षण पूर्ण सार्थकता से निवास करते थे। उन यशस्वी महाराज के धर्मपूर्ण सदाचार को देखने के लिए सभी मनुष्योमय सदा यही निश्चित थे कि काम और अर्थ से धर्म ही श्रेष्ठ है। महान शक्तिशाली पुरुष श्रेष्ठ शाशबीनु में ये सभी सदगुण देवता थे। उनका समान धर्म अहंकार शासन करने वाला दूसरा कोई राजा नहीं था। वे धर्म में सदा रहने वाले और समपूर्ण धर्मात्माओं में श्रेष्ठ थे; अत: समस्त राजवंश ने सामूहिक राजा शाशनु को राजराजेश्वर (सम्राट) के पद पर अभिषिक्त कर दिया।

जनमेजय! जब सब राजवंश ने शानू को अपना स्वैच्छिक और रक्षक बना लिया, तब किस को शोक, भय और मानसिक संताप नहीं रहा। सब लोग सुख से सोने और जगने लगे। इंद्र के समान तेजस्तवी और कीर्तिशाली शा बंटुनु के शासन में अदीक्षित राजा लोग भी दान और यज्ञ कर्मों में स्वतंत्रताभावत: प्रवृत होने लगे। उस समय शा ब्यूटेनु प्रधान राजा द्वारा सुरक्षित जगत में सभी वर्णों के लोगों के नियम निर्भयता के आधार पर धर्म को ही प्रधानता दे दी गई। क्षत्रिय लोग ब्राह्मणों की सेवा करते हैं, वैश्य, ब्राह्मण और क्षत्रियों में अनुरक्त रहते हैं तथा शूद्र ब्राह्मण और क्षत्रियों में अनुराग बाएहें वैश्यों की सेवा में तत्पर रहते थे। महाराज शा कंचनु कुरुवंश की रमणीय राजधानी हस्तिनापुर में समुद्र तट पर निवास करते थे, शत्रु पृथ्वी का शासन और पालन करते थे। वे देवराज इंद्र के समान थे, धार्मिक, धर्मज्ञ, सपूतवादी और सरल। दान, धर्म और तपस सत्य के योग से उनमें आस्तिकता की वृद्धि हो रही थी। उन्हें न राग था न द्वेश। चन्द्रमा की भाँति उनका दर्शन साष्टांग पियात्यारा लगता है। वे तेज से सूर्य और वेग से वायु के समान जान थे; क्रोध में यमराज और क्षमा में पृथ्वी की भलाई होती थी।

जनमेजय! महाराज शा धनंजयनु के इस पृथ्वी का पालन-पोषण करते समय समुद्र, वराहों, मृगों और पक्षियों का वध नहीं हुआ था। उनके सहयोगियों में ब्रह्म और धर्म की प्रधानता थी। महाराज शा अविनाशनु बड़े विनयशील और काम-राग आदि दोषों से दूर रहने वाले थे। वे सब आतंकवादियों के समान व्यवहार से शासन करते थे। उन दिनों देवयज्ञ, ऋषियज्ञ तथा पितृयज्ञ के लिये कर्मों का अर्म्भ होता था। अधर्म के भय के कारण किसी भी प्राणी का वध नहीं किया गया। दु:खों, अनाथों एवं पशु-पक्षियों की योनि में पड़े हुए जीव- इन सभी प्राणियों का ही वे राजा सा अविनाशी पिता के समान पालन-पोषण करते थे।

कुरुवंश नरेशों में श्रेष्ठ राजा राजेश्वर शांतनु के शासन काल में राक्षस वाणी के देवता थे- सभी का योगदान था और सभी को मन दान एवं धर्म में माना जाता था। राजा शा नौकरानी सेल; आठ; चार और आठ कुल छत्तीस वर्ष तक महिला विषयक अनुराग का अनुभव न करते हुए वन में रहे। वसु के अवतार भूत गांगेय उनके पुत्र थे, जिनका नाम देवव्रत था, उनके पिता के समान ही रूप, आचार, अस्तिवहार और विद्या से समन्न थे। सभी प्रकार के अस्त्र-शास्त्रों की कला में वे पारंगत थे। उनके बल, सचित्र (धैर्य) और वीर्य (पराक्रम) महान थे। वे महारथी वीर थे। एक समय किसी हिंसक जानवर को बाण से बांधकर राजा शा विश्रामु उसका पीछा करते हुए भागीरथी गंगा के तट पर आये। यथार्थ ने देखा कि गंगा जी में बहुत छोटा जल रह गया है। उसे देखने वाले पुरुषों में श्रेष्ठ महाराज शा धनंजयु इस चिन में डूब गए कि यह सागरों में श्रेष्ठ देव नदी आज पहले की तरह की चट्टानें नहीं बह रही है।

तदन भगवान महामना नरेश ने इसके कारण का पता लगाया, जब आगे देखा गया, तब असफल हुआ कि एक परममंदिर मनमोहक रूप से समन्न मूर्ति कुमार देवराज इनदाद्र के समान नक्षत्र का अभिन्यास कर रहा है और अपने पौराणिक बाणों से सामुद्रिक गंगा की धारा को रोक कर खड़ा है। राजा ने अपने निकट की गंगा नदी को अपने बाणों से व्याप्त देखा। उस बालक का यह अलौकिक कर्म देखकर आश्चर्यचकित रह गया। शाबुनु ने अपने पुत्र को पहले जन्म के समय ही देखा था; अत: उस समय उस बुद्धिमान नरेश को उसकी याद नहीं आई; इसीलिये वे अपने ही बेटे को पहचान नहीं सकते। बच्चे ने अपने पिता को देखकर साज़िश माया से मोहित कर दिया और मोहित द्वारा शीघ्र ही अप्रतिबंधित हो गया। इस अद्भुत बात को देखकर राजा शान्तनु को कुछ संदेह हुआ और गुड़िया गंगा से अपने पुत्र को कहा गया। तब गंगा जी परम सुंदरी रूप धारण करके अपनी पुत्र दाहिना हाथ पकड़ सामने आई और दिभु अस्थ वस्त्राभूषणों से विहित कुमार देवव्रत को दिखाया। गंगा दी अटेली आभूषणों से अलंकृत होस्वच्छता-सुंदर बेरोजगारी पहिने हुए थे। ऐसा होने पर उनके अनुपम सौन्दर्य की इतनी वृद्धि हुई थी कि पहले राजा शा रंजनु की पहचान न हो सकी।

गंगा जी ने कहा ;- महाराज! पूर्व काल में आपने अपने जिस जिप्सम पुत्र को मेरा गर्भ प्राप्त किया था, यह वही है। पुरुषसिंह! यह संपूर्ण अस्त्रवेत्ताओं में अचूक ढांचा उत्तम है। राजन! मैंने इसे पाल-पोस्कर बड़ा कर दिया है। अब आप अपने इस बेटे को ग्रहण करें। नरश्रेष्ठ! पसंदीदा! इसे घर ले जाओ। आपका यह बलवान पुत्र महर्षि ईसा से छह वेदों सहित वेदों का अधम्ययन कर चुका है। यह राज अस्त्र-विद्या का भी पंडित है, महान धनुर्धर है और युद्ध में देव इंद्र के समान है। भारत! देवता और असुर भी सदा सम्मान करते हैं। शुक्राचार्य जिस नीति शास्त्र को जानते हैं, उसका भी पूर्ण रूप से परिचय है। इसी प्रकार के अंगिरा के पुत्र देव-दानव वंदित बृहस्पति जिस शास्त्र को जानते हैं, वह भी आपके इस महावाहु महात्तमा पुत्र के अंग और उपांगों में पूर्णरूप से प्रतिष्ठित है। जो शास्त्र से परास्त नहीं होते, वे प्रतापी महर्षि जमदग्निन्दन परशुराम जिस अस्त्र-विद्या को जानते हैं, वह भी मेरे इस पुत्र में प्रतिष्ठित है। वीरवर महाराज! यह कुमार राजधर्म और अर्थशास्त्र के महान पंडित हैं। मेरे कहे हुए इस महाधनुर्धर वीर पुत्र को आप घर ले जाइए।'

वैशम्पायन जी कहते हैं ;- ऐसा कहकर महाभागा गंगा देवी वहीं अन्‍तर्धान हो गयीं। गंगा जी के इस प्रकार आज्ञा देने पर महाराज शान्तनु सूर्य के समान प्रकाशित होने वाले अपने पुत्र को लेकर राजधानी में आये। उनका हस्तिनापुर इन्‍द्र नगरी अमरावती के समान सुन्‍दर था। पूरूवंशी राजा शान्‍तनु पुत्र सहित उसमें जाकर अपने आपको सम्‍पूर्ण कामनाओं से सम्‍पन्न एवं सफल मनोरथ मानने लगे। तदनन्‍तर उन्‍होंने सबको अभय देने वाले महात्‍मा एवं गुणवान् पुत्र को राजकाज में सहयोग करने के लिये समस्‍त पौरवों के बीच में युवराज पद पर अभिषिक्त कर दिया।

जनमेजय! शान्‍तनु के उस महायशस्‍वी पुत्र ने अपने आचार-व्‍यवहार से पिता को, पौरव समाज को तथा समूचे राष्ट्र को प्रसन्न कर लिया। अमित पराक्रमी राजा शान्‍तनु ने वैसे गुणवान् पुत्र के साथ आनन्‍दपूर्वक रहते हुए चार वर्ष व्‍यतीत किये। एक दिन वे यमुना नदी के निकटवर्ती वन में गये। वहाँ राजा को अवर्णीय एवं परम उत्तम सुगन्‍ध का अनुभव हुआ। वे उसके उद्गम स्‍थान का पता लगाते हुए सब ओर विचरने लगे। घूमते-घूमते उन्‍होंने मल्लाओं की एक कन्‍या देखी, जो देवांगनाओं के समान रुपवती थी। श्‍याम नेत्रों वाली उस कन्‍या को देखते ही,,

 राजा ने पूछा ;- ‘भीरु! तू कौन है, किसी पुत्री है और क्‍या करना चाहती है?’ वह बोली- राजन्! आपका कल्‍याण हो। मैं निषाद कन्‍या हूँ और अपने पिता महामना निषादराज की आज्ञा से धर्मार्थ नाव चलाती हूँ।’

राजा शान्‍तनु ने रुप, माधुर्य तथा सुगन्‍ध से युक्त देवांगना के तुल्‍य उसके पिता के समीप जाकर उन्‍होंने उसका वरण किया। 

उन्‍होंने उसके पिता से पूछा ;- ‘मैं अपने लिये तुम्‍हारी कन्‍या चाहता हूँ।' यह सुनकर निषादराज ने राजा शान्‍तनु को यह उत्तर दिया,,

निषादराज ने कहा ;- ‘जनेश्वर! जब से इस सुन्‍दरी कन्‍या का जन्‍म हुआ है, तभी से मेरे मन में यह चिन्‍ता है कि इसका किसी श्रेष्ठ वर के साथ विवाह करना चाहिये; किंतु मेरे हृदय में एक अभिलाषा है, उसे सुन लीजिये। पापरहित नरेश! यदि इस कन्‍या को अपनी धर्मपत्नी बनाने के लिये आप मुझसे मांग रहे हैं, तो सत्‍य को सामने रखकर मेरी इच्‍छा पूर्ण करने की प्रतिज्ञा कीजिये; क्‍योंकि आप सत्‍यवादी हैं। राजन! मैं इस कन्‍या को एक शर्त के साथ आपकी सेवा में दूंगा। मुझे आपके समान दूसरा कोई श्रेष्ठ वर कभी नहीं मिलेगा’।

शान्‍तनु ने कहा ;- निषाद! पहले तुम्‍हारे अभी फि‍र वर को सुन लेने पर मैं उसके विषय में कुछ निश्चय कर सकता हूँ। यदि देने योग्‍य होगा, तो दूंगा और देने योग्‍य नहीं होगा, तो कदापि नहीं दे सकता। 

निषाद बोला ;- पृथ्‍वीपते! इसके गर्भ से जो पुत्र उत्‍पन्न हो, आपके बाद उसी का राजा के पद पर अभिषेक किया जाय, अन्‍य किसी राजकुमार का नहीं।

 वैशम्‍पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! राजा शान्‍तनु प्रचण्‍ड कामाग्नि से जल रहे थे, तो भी उनके मन में निषाद को वह वर देने की इच्‍छा नहीं हुई। काम की वेदना से उनका चित्त चंचल था। वे उस निषाद कन्‍या का ही चिन्‍तन करते हुए उस समय हस्तिनापुर को लौट गये। तदनन्‍तर एक दिन राजा शान्‍तनु ध्‍यानस्‍थ होकर कुछ सोच रहे थे- चिन्‍ता में पड़े थे। इसी समय उनके पुत्र देवव्रत अपने पिता के पास आये और इस प्रकार बोले।

देवव्रत बोले ;- 'पिताजी! आपका तो सब ओर से कुशल-मंगल है, भू-मंडल के सभी राष्ट्र आपके अधीनस्थ हैं; फ़िर किसलिए आप निरर्थक शोकग्रस्त शोक और ठुड्डी में डूबे हुए रहते हैं। राजन! आप इस तरह से मौन बैठे रहते हैं, मानो किसी का वॉयस कर रहे हो; मेरी कोई बातचीत तक नहीं। घोड़े पर सवार हो कहीं बाहर भी नहीं। आपकी कान्ति मालिन होती जा रही है। आप पीले और डबले हो गए हैं। 'कौन-सा रोग लग गया है, मैं उसे ढूंढ़ना चाहता हूं, जिससे उसका प्रतीक पता चल सके।' बेटे के ऐसा बयान पर शानु ने उत्तर दिया-

शानु बिश्नु ने कहा ;- 'बेटा! इसमें कोई संदेह नहीं है कि मैं चीन में डूबा हुआ हूं। वह चीन का लैपटॉप कैसा है, सो बताता हूं, सुनो। भारत! तुम इस विशाल वंश में मेरे एक ही पुत्र हो। तुम भी सदा अस्त्र-शास्त्रों के अभ्यास में लगे रहो और पुरुषार्थ के लिए सदैव उद्यत रहो। बेटा! मैं इस जगत् की अनिता को लेकर नीर भूखा शोक ग्रस्ट एवं चिन्तित रहता हूँ। गंगानन्दन! यदि किसी प्रकार आपकी कोई विपत्ति आई, तो उसी दिन हमारा यह वंश समाप्त हो जाएगा। इसमें सन्देह न करना, कि तुम अकेले हो, मेरे लिये सौ पुत्रों से भी सहन करना। मैं पुन: एकार्थ विवाह नहीं करना चाहता; एक्टर हमारी वंशावली परम सितारा का लोप न हो, इसी के लिए मुझे पुन: पत्नी की कामना हुई है। तुम्हारा कल्याण हो। धर्मवादी विद्वानों का कहना है कि एक पुत्र का संत होना अत्यावश्यक है। भारत! एक या एक आँख अगर है, तो वह भी किसी के बराबर नहीं है। दृष्टि का नाश पर मनो शरीर का ही नाश होता है, इसी प्रकार पुत्र के नष्ट होने पर कुल-परम शरीर का ही नाश होता है। अग्निहोत्र, त्रिवेद और ऋषियोग्य-प्रशिष्योग्य के क्रम से चलने वाले विद्याजनित वंश के अक्षय परम लक्ष्यरा- ये सब मिलकर भी जन्म से होने वाली संतान की सातवीं कला के बराबर नहीं हैं।

भारत! महाप्रज्ञ! इस तनिक में भी सन्देह नहीं कि संत, कर्म और विद्या- ये तीन ज्ञानोतियाँ हैं; ये भी है जो संत, उनका महत्व सबसे अधिक है। यही वेदत्रयी पुराण तथा देवताओं का भी सनातन मत है। तात्! मेरी चिन डॉक्यूमेंट्री का जो कारण है, वह सब तुम्हें बताते हैं। भारत! तुम शूरवीर हो। तुम कभी किसी की बात सहन नहीं कर सकते और सदा शास्त्र-शास्त्रों के अभ्यास में ही लगे रहते हो; एटी: युद्ध के सागर और किसी भी कारण से कभी भी तुम्हारी मृत्यु का समभाव नहीं होता है। इसलिए मुझे इस बात का संदेह था कि तुम्हारे सा शेयर हो जाने पर इस राजवंश में परम उपाधि का निर्वाह कैसे होगा? तात्! यही मेरे दु:ख का कारण है; वह सब-का-सब तुम्हें बताते हैं।' वैशम नामायन जी कहते हैं- जनमेजय! राजा के दु:ख का सारा कारण जानने के लिए परमबुद्धिमान देवव्रत ने अपनी बुद्धि से भी उस पर विचार किया। ताडन डेस्टिनेशन वे उसी समय तुरंत अपने पिता के हितैषी बाबा मंत्री के पास गए और पिता के शोक का कारण तेजी से बढ़ गया, इसका विषय उनकी जिज्ञासा में था।

भरतश्रेष्ठ! कुरुवंश के श्रेष्ठ पुरुष देवव्रत के भली-भांति पद पर वृद्ध मंत्री ने बताया कि महाराज एक कन्या कन्या से विवाह करना चाहते हैं। उसके बाद भी दुखी देवव्रत ने पिता के सारथी को बुलाया। राजकुमारी की आज्ञा से कुरुराज शा बदनु का सारथी उनके पास आया। तब महाप्रज्ञ भीष्म ने पिता के सारथी से पूछा। 

भीष्म बोले ;- सारथे! तुम मेरे पिता के साखा हो, उनके रथ जोतने वाले हो, तुम्हें पता है कि महाराज का अनुराग किस स्त्री में है? मेरे चयन पर तुम जैसा कहोगे, वैसा ही जाओगे, उसके विपरीत नहीं।

सुत बोला ;- नरश्रेष्ठ! एक प्रेमी की कन्‍या है, उसी के प्रति आपके पिता का अनुराग हो गया है। महाराज ने धीरे से उस कन्या को भी मांगा था, लेकिन उस समय। यह शर्त रखी कि 'उसके गर्भ से जो पुत्र हो, वही तुम्हारे बाद राजा बने।' आपके कल्पित के मन में धीवर को ऐसा वर देने की इच्छी नहीं हुई। यहां उनका यह भी पक्का है कि यह शर्तस्वार्थी के बिना मैं अपना कॅनिट्या नहीं रखूंगा। वीर! यही वृत्तान्त है, जो मुझसे विनती है। इसके बाद आप जैसा स्वीकार करें। इससे आहत होकर कुमार देवव्रत ने कहा कि उस समय क्षत्रिय क्षत्रियों के साथ निषादराज के पास पात्रताएं आने के लिए पिता के लिए उनके कनान्या के पात्र थे। भारत! उस समय निषाद ने अपनी बड़ी सत्यता बताई और स्केट के साथ पूजा करके आसन पर बैठे क्षत्रियों की मंडली में दाशराज ने अपनी बात कही।

दाशराज बोला ;- याचकों में श्रेष्ठ राजकुमार! इस कन्‍या को देने में मेरे साथी को ही शुल्‍लाक रखा गया है। इसके गर्भ से जो पुत्र अलौकिक पन्न हो, उसी पिता के बाद राजा हो। भरतर्षभ! राजा शा बदनु के पुत्र अकेले ही आपके ही स्वामित्व में हैं। शस्त्र शस्त्रों में आप सबसे श्रेष्ठ समझे जाते हैं; लेकिन तो भी मैं अपनी बात आपके सामने रखूंगा। ऐसे मनुकुल और कृतज्ञता उत्तम विवाह-सम्बन्ध को अस्वीकारकर कौन ऐसा मनुश्य होगा जिसके मन में सन्ताप न हो? खैर ही वह साक्षात इंद्र ही ट्रैक्यों न हो। यह कन्या कन्या एक आर्य पुरुष की संतान है, जो गुण में आप लोगों के ही समान है और वीर्य से सुंद्री सवती का जन्म हुआ है।

तात्! सलाह कई बार मेरे पिता के विषय में चर्चा की थी। वे कहते हैं, सवती को ब्याहने के योगज्ञ तो केवल धर्मज्ञ राजा शा कमजोरनु ही हैं। महान कीर्ति वाले राजर्षि शशनु सत्यवती से पहले भी बहुत आग्रह माँगा करते हैं; उनके दोस्त पर भी मैंने उनकी असवीकार कर दी थी बात। उँ! मैं कनान्या के पिता के कारण आपसे कुछ भी कहता हूं। आपके यहां जो संबंध हो रहा है, उसमें मुझे केवल एक दोष दिखाई देता है, बलवान के साथ शत्रुता। परन्तप! आप जिस शत्रु होंगे, वह गन्धर्व हो या असुर, आपका कुपित होने पर कभी चिरजीवी नहीं हो सकता। पृथ्वीनाथ! बस, विवाह में इतना ही दोष है, दूसरा कोई नहीं। परन्तप! आपका कल्याण हो, किसी को देना या न देना में केवल यही दोष विचार है; इस बात को आप अच्छी तरह से समझ लें।

वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! गंगानंदन देवव्रत ने पिता के मनोरथ को पूरा करने के लिए कहा, सभी संतों के कथन-सुनेते यह उत्तर दिया,,

देवव्रत बोले ;- 'सावनों में श्रेष्ठ निषादराज! मेरी यह सच्ची प्रतिज्ञा सुनो और सुनो करो। ऐसी बात कह सकने वाला कोई मनुष्‍य न अब तक पैदा हुआ है और न आगे पैदा होगा। लो, तुम जो कुछ चाहते हो या कहते हो, स्पीच ही जाओगे। इस सप्तवती के गर्भ से जो उत्पन्न हुआ, वही हमारा राजा बनेगा'। भरतवंश जनमेजय! देवव्रत! ऐसा ही एक बयान पर नोकझोंक ने कहा। वह सहयोगी के तौर पर अपनी कोई दशमांश प्रतिज्ञा करना चाहता था।

उसने कहा ;- ‘अमित तेजस्‍वी युवाराज! आप ही महाराज शान्‍तनु की ओर से मालिक बनकर यहाँ आये हैं। धर्मात्‍मन्! इस कन्‍या पर भी आपका पूरा अधिकार है। आप जिसे चाहें, इसे दे सकते हैं। आप सब कुछ करने समर्थ हैं। परंतु सौम्‍य! इस विषय में मुझे आपसे कुछ और कहना है और वह आवश्‍यक कार्य है; अत: आप मेरे इस कथन को सुनिये। शत्रुदमन! कन्‍याओं में प्रति स्‍नेह रखने वाले सगे-सम्‍बन्धियों का जैसा स्‍वभाव होता है, उसी से प्रेरित होकर मैं आपसे कुछ निवेदन करूंगा। सत्‍यधर्म पारायण राजकुमार! आपने सत्‍यवती के हित के लिये इन राजाओं के बीच में जो प्रतिज्ञा की है, वह आपके ही योग्‍य है। महाबाहो! वह टल नहीं सकती; उसके विषय में मुझे कोई संदेह नहीं है, परंतु आपका जो पुत्र होगा, वह शायद इस प्रतिज्ञा पर दृढ़ न रहे, यही हमारे मन में बड़ा भारी संशय है’।

वैशम्‍पायन जी कहते हैं ;- राजन्! निषादराज के इस अभिप्राय को समझकर सत्‍यधर्म में तत्‍पर रहने वाले कुमार देवव्रत ने उस समय पिता का प्रिय करने की इच्‍छा से यह कठोर प्रतिज्ञा की।

भीष्‍म ने कहा ;- नरश्रेष्ठ निषादराज! मेरी यह बात सुनो। जो-जो ऋषि एवं अन्‍तरिक्ष के प्राणी यहाँ हों, वे सब भी सुनें। मेरे समान वचन देने वाला दूसरा नहीं है। निषाद! मैं सत्‍य कहता हूं, पिता के हित के लिये सब भूमिपालों के सुनते हुए मैं जो कुछ कहता हूं, मेरी इस बात को समझो। राजाओं! राज्‍य तो मैंने पहले ही छोड़ दिया है; अब संतान के लिये भी अटल निश्चय कर रहा हूँ। निषादराज! आज से मेरा आजीवन अखण्‍ड ब्रह्मचर्य व्रत चलता रहेगा। मेरे पुत्र न होने पर भी स्‍वर्ग में मुझे अक्षय लोक प्राप्त होंगे। मैंने जन्‍म से लेकर अब तक कोई झूठ बात नहीं कही है। जब तक मेरे शरीर में प्राण रहेंगे, तब तक मैं संतान नहीं उत्‍पन्न करूंगा। तुम पिताजी के लिये अपनी कन्‍या दे दो। काश! मैं राज्‍य तथा मैथुन का सर्वथा परित्‍याग करूंगा और उर्ध्‍वरेता (नैष्ठिक ब्रह्मचारी) होकर रहूंगा- यह मैं तुमसे सत्‍य कहता हूँ।

वैशम्‍पायन जी कहते हैं ;- देवव्रत का यह वचन सुनकर धर्मात्‍मा निषादराज के रोंगटे खड़े हो गये। उसने तुरंत उत्तर दिया,,

 निषादराज बोले ;- ‘मैं यह कन्‍या आपके पिता के लिये अवश्‍य देता हूं’। उस समय अन्‍तरिक्ष में अप्‍सरा, देवता तथा ऋषिगण फूलों की वर्षा करने लगे और बोल उठे- ‘ये भयंकर प्रतिज्ञा करने वाले राजकुमार भीष्‍म हैं (अर्थात भीष्‍म के नाम से इनकी ख्‍याति होगी)।’

तत्‍पश्चात भीष्म पिता के मनोरथ की सिद्धि के लिये उस यशस्विनी निषाद कन्‍या से बोले,,

भीष्म बोले ;- ‘माता जी! इस रथ पर बैठिये। अब हम लोग अपने घर चलें’।

वैशम्‍पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! ऐसा कहकर भीष्‍म ने उस भामिनी को रथ पर बैठा लिया और हस्तिनापुर आकर उसे महाराज शान्तनु को सौंप दिया। उनके इस दुष्‍कर कर्म की सब राजा लोग एकत्र होकर और अलग-अलग भी प्रशंसा करने लगे। सबने एक स्‍वर से कहा, ‘यह राजकुमार वास्‍तव में भीष्‍म है’। भीष्‍म के द्वारा किये हुए उस दुष्‍कर कर्म की बात सुनकर राजा शान्‍तनु बहुत संतुष्ट हुए और उन्‍होंने उन महात्‍मा भीष्‍म को स्‍वच्‍छन्‍द मृत्‍यु का वरदान दिया।

राजा शान्‍तनु बोले ;- ‘मेरे निष्‍पाप पुत्र! तुम जब तक यहाँ जीवित रहना चाहोगे, तब तक मृत्‍यु तुम्‍हारे ऊपर अपना प्रभाव नहीं डाल सकती। तुमसे आज्ञा लेकर ही मृत्यु तुम पर अपना प्रभाव प्रकट कर सकती है’।

(इस प्रकार महाभारत आदि पर्व के अंतर्गत सम्भव पर्व में सत्यवतीलाभोपाख्यान-विषयक सौवाँ अध्याय पूरा हुआ)

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