अध्याय III, खंड III, अधिकरण VIII
अधिकरण सारांश: आत्मा और परमात्मा
अधिकरण VIII - ऐत. 1.1 में उल्लिखित आत्मा ही परम आत्मा है, अतः अन्य स्थानों में दिए गए आत्मा के गुणों को इस ऐतरेयक ध्यान में सम्मिलित किया जाना चाहिए।
ब्रह्म-सूत्र 3.3.16:
आत्मगृहीतिरवत्, उत्तरात् ॥ 16॥
आत्मगृहीति - परमात्मा अभिप्रेत है; इतरवत् - जैसा कि अन्य ग्रन्थों में (सृष्टि से सम्बन्धित) है; उत्तरात् - बाद की योग्यता के कारण।
16. (ऐतरेव उपनिषद् 1.1 में) अन्य ग्रन्थों (सृष्टि से सम्बन्धित) की भाँति, परवर्ती योग्यता के कारण, इसमें भी परमात्मा का ही अर्थ लिया गया है।
"वास्तव में आरंभ में यह सब केवल एक ही आत्मा थी, अन्य कुछ भी नहीं था" आदि (ऐत. 1. 1.)। क्या यहाँ 'आत्मा' शब्द का तात्पर्य परम आत्मा से है या हिरण्यगर्भ से ? इसका तात्पर्य परम आत्मा से है, जैसे सृष्टि से संबंधित अन्य ग्रंथों में 'आत्मा' शब्द का तात्पर्य उसी से है, हिरण्यगर्भ से नहीं: "आत्मा से आकाश उत्पन्न हुआ" (तैत्तिरीय 2. 1)। क्यों? क्योंकि ऐतरेय के बाद के ग्रंथ में हम पाते हैं, "उसने सोचा, 'क्या मैं लोकों को उत्पन्न करूँ?' उसने इन लोकों को उत्पन्न किया" (ऐत. 1. 1-2)। यह योग्यता, अर्थात कि 'उसने सृष्टि से पहले सोचा', अन्य श्रुति ग्रंथों में प्राथमिक अर्थ में ब्रह्म पर लागू होती है । तो इससे हम सीखते हैं कि आत्मा का तात्पर्य परम आत्मा से है, हिरण्यगर्भ से नहीं।
ब्रह्म-सूत्र 3.3.17: ।
अन्वयदिति चेत्, स्यात् सिद्धांतत् ॥ 17 ॥
अन्वयात् - प्रसंग के कारण; इति चेत् - यदि ऐसा कहा जाए; स्यात् - ऐसा हो सकता है; अवधारणात् - निश्चित कथन के कारण।
17. यदि ऐसा कहा जाए कि प्रसंग के कारण (परमात्मा अभिप्रेत नहीं है, बल्कि हिरण्यगर्भ है), (हमारा उत्तर है कि) ऐसा ही है (अर्थात् परमात्मा अभिप्रेत है) इस निश्चित कथन के कारण (कि प्रारम्भ में केवल आत्मा ही विद्यमान थी)।
ऐतरेय उपनिषद् 1.1 में आत्मा को चारों लोकों का रचयिता कहा गया है। किन्तु तैत्तिरीय तथा अन्य ग्रंथों में आत्मा ने आकाश, जल आदि पंचतत्वों का निर्माण किया है। अब यह सर्वविदित है कि लोकों का निर्माण हिरण्यगर्भ ने परमात्मा द्वारा निर्मित तत्वों की सहायता से किया है। अतः ऐतरेय में आत्मा का अर्थ परमात्मा नहीं, बल्कि हिरण्यगर्भ हो सकता है। सूत्र इसका खंडन करते हुए कहता है कि "वास्तव में आदि में यह सब आत्मा ही था, केवल एक" (ऐत. 1.1) कथन के कारण, जो यह घोषित करता है कि केवल एक था, दूसरा नहीं, इसका संदर्भ केवल परमात्मा से ही हो सकता है, हिरण्यगर्भ से नहीं। इसलिए हमें यह मानना होगा कि परमात्मा ने अन्य सखाओं में वर्णित तत्वों का निर्माण करने के पश्चात चारों लोकों का निर्माण किया।
सूत्र 16 और 17 का उद्देश्य यह स्थापित करना है कि अन्य स्थानों में दिए गए परमात्मा के गुणों को ऐतरेयक ध्यान में संयोजित किया जाए।
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