अध्याय III, खंड IV, अधिकरण X
अधिकरण सारांश: जिसने आजीवन ब्रह्मचर्य (संन्यास) का व्रत ले लिया है, वह अपने जीवन की पूर्व अवस्थाओं में वापस नहीं लौट सकता
ब्रह्म सूत्र 3,4.40
तद्भूतस्य तु नातद्भावः, जैमिनेरपि, नियमात्रूपाभावेभ्यः ॥ 40॥
तद्भूतस्य - उस (परम आश्रम ) को प्राप्त हुए पुरुष के लिए; तु -परन्तु; न -नहीं; अतद्भावः -उससे विरत होना; जैमिनिः -जैमिनी का (यह मत है); अपि -भी; नियम -अतद्रूप-अभावेभ्यः -ऐसे विवर्तन को निषिद्ध करने वाले प्रतिबंधों के कारण।
40. किन्तु जो व्यक्ति सर्वोच्च आश्रम ( अर्थात संन्यास ) तक पहुँच गया है, उसके लिए (पूर्ववर्ती आश्रमों में) लौटना संभव नहीं है, क्योंकि ऐसे लौटने का निषेध करने वाले प्रतिबन्ध हैं। जैमिनी का भी यही मत है।
इस प्रश्न पर चर्चा की जाती है कि क्या संन्यास ग्रहण करने वाला व्यक्ति पिछले आश्रम में वापस जा सकता है। यह सूत्र कहता है कि वह ऐसा नहीं कर सकता, क्योंकि श्रुति स्पष्ट रूप से इसकी मनाही करती है। "उसे जंगल में जाना है, उसे वहाँ से वापस नहीं लौटना है।" लेकिन उच्च आश्रमों में जाने की अनुमति देने वाले नियमों की तरह कोई नियम वापसी की अनुमति नहीं देते हैं । यह स्वीकृत रीति-रिवाज के भी विरुद्ध है। इसलिए कोई व्यक्ति संन्यास से वापस नहीं लौट सकता।
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