अध्याय IV, खंड I, अधिकरण X
अधिकरण सारांश: ब्रह्मज्ञानी पर भी अच्छे कर्मों का प्रभाव समाप्त हो जाता है।
ब्रह्म सूत्र 4,1.14
इतरस्याप्येवमसंश्लेषः, जोत तु॥ 14॥
इतरस्य – दूसरे का; अपि – भी; एवम् – इस प्रकार; असंश्लेषः – आसक्ति न करना; पाते – मृत्यु पर; तु – परन्तु।
14. इस प्रकार दूसरे ( अर्थात् सद्गुण) से भी आसक्ति नहीं रहती; किन्तु मृत्यु होने पर (मुक्ति अर्थात् विदेहमुक्ति निश्चित है)।
ब्रह्मज्ञानी को चूंकि अपने कर्तापन का बोध नहीं होता, इसलिए वह अच्छे कर्मों से भी प्रभावित नहीं होता। वह पाप और पुण्य से परे चला जाता है। "वह दोनों पर विजय प्राप्त कर लेता है" (बृह्म् 4. 4. 22)। और चूंकि ज्ञान प्राप्ति के बाद उसे पाप या पुण्य का स्पर्श नहीं होता, तथा चूंकि उसके पिछले पाप ज्ञान द्वारा नष्ट हो जाते हैं, इसलिए मृत्यु के समय उसकी मुक्ति निश्चित है।
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