धनान्नदान प्रशंसा सूक्त
न वा उ॑ दे॒वाः क्षुध॒मिद्व॒धं द॑दुरु॒ताशि॑त॒मुप॑ गच्छन्ति मृ॒त्यव॑: । उ॒तो र॒यिः पृ॑ण॒तो नोप॑ दस्यत्यु॒तापृ॑णन्मर्डि॒तारं॒ न वि॑न्दते ॥ 1 ॥
विषय
इस सूक्त में दान का महत्त्व बताया है, दान लेने के अधिकारी या पात्र तथा दान अवश्य देना चाहिये, दान से धन क्षीण नहीं होता अपितु परमात्मा की प्राप्ति कही है।
पदार्थ
(देवाः) विद्वान् जन (क्षुधम्-इत्) केवल भूख-अन्न की अप्राप्ति को ही (वधं न-उ) मृत्यु नहीं (ददुः) धारण करते हैं-मानते हैं (आशितम्-उत) भोजन खाये हुए भरे पेट को भी (मृत्यवः-उप गच्छन्ति) मृत्युवें प्राप्त होती हैं अर्थात् अनेक प्रकार से, भूखे की तो एक ही प्रकार की मृत्यु होती है, अन्न के अभाव से (उत पृणतः) और दूसरे को तृप्त करते हुए का (रयिः-न-उप दस्यति) धन क्षीण नहीं होता है (अपृणन्) अन्य को तृप्त न करता हुआ (मर्डितारम्) सुख देनेवाले परमात्मा को (न-विन्दते) प्राप्त नहीं करता है ॥१॥
भावार्थ
भूखा ही मरता है अन्न के अभाव से, ऐसी बात नहीं, किन्तु भरे पेट बहुत अन्न धन सम्पत्ति रखते हुए के पास मृत्युवें अनेक प्रकार से जाती हैं अर्थात् मृत्युवें होती हैं, अन्न के अधिक खाने से रोगी होकर, अध्यशन-खाने पर खाना खाने से, विषमिश्रित, अन्न के अधिक खाने से और चोरादि के द्वारा हो जाती हैं, दूसरे को तृप्त करने से अन्नधन क्षीण नहीं होता है, अवसर पर फिर प्राप्त हो जाता है और जो दूसरों को तृप्त नहीं करता है, वह सुख देनेवाले परमात्मा को नहीं प्राप्त कर सकता है ॥१॥
विषय
क्षुधार्त व अतियुक्त
पदार्थ
[१] (देवा:) = सूर्य-चन्द्र आदि सब देव (क्षुधं इत्) = भूखे को ही [underfed को ही] (वधम्) = वध (न वा उ) = नहीं (ददुः) = देते हैं, (उत) = अपितु (आशितम्) = [overfed] खूब तृप्तिपूर्वक खानेवाले को भी (मृत्यवः) = रोग व मृत्यु (उपगच्छन्ति) = प्राप्त होते ही हैं। इसलिए 'आशित ' होने की अपेक्षा यही अच्छा है कि कुछ भोजन क्षुधार्त को दे दिया जाए जिससे क्षुधार्त भूखा मरने से बच जाए और आशित अतिभोजन से बचकर मृत्यु से बच जाए। [२] (उत) = और (उ) = निश्चय से (पृणतः) = दान देनेवाले का (रयिः) = धन (न उपदस्यति) = नष्ट नहीं होता है । सो 'दान देने से धन में कमी आ जाएगी' ऐसा न समझना चाहिए। [३] (उत) = और (अपृणन्) = दान न देनेवाला (मर्डितारम्) = उस सुख देनेवाले प्रभु को (न विन्दते) = नहीं प्राप्त करता। धन का लोभ प्रभु प्राप्ति में बाधक बन जाता है। धन मनुष्य को इस संसार से बद्ध कर देता है और इस प्रकार प्रभु से दूर रखता है ।
भावार्थ
भावार्थ- दान देने से - [क] क्षुधार्त का मृत्यु से बचाव होता है और अतियुक्त भी मरने से बच जाता है, [ख] दान देने से धन बढ़ता ही है, [ग] धनासक्ति न रहने से प्रभु की प्राप्ति होती है।
The devas have ordained death for mortals, but not for reasons of hunger alone, because death overtakes the rich and well provided too. The wealth of the generous giver of charity does not diminish while the uncharitable finds no grace, none to comfort him.
विषयः
अस्मिन् सूक्ते दानस्य महत्त्वं वर्ण्यते, दानमवश्यं कर्तव्यम्, दानस्याधिकारिणः के सन्तीत्यपि वर्ण्यते। दानेन धनं न क्षीयतेऽपि तु तेन परमात्मप्राप्तिर्भवतीति वर्ण्यते।
पदार्थः
(देवाः क्षुधम्-इत् वधं न-उ ददुः) विद्वांसः खलु क्षुधं बुभुक्षामन्नाप्राप्तिमेव वधं मृत्युं न धारयन्ति “अत्र दा धातुर्धारणेऽर्थे दण्डो ददतेर्धारयतिकर्मणः-अक्रूरो ददते मणिम्” [निरु० २।२] (आशितम्-उत मृत्यवः-उप गच्छन्ति) भोजनमाशितवन्तं भुक्तवन्तम् “आशितः कर्त्ता” [अष्टा० ६।१।२०] अपि विविधप्रकारेण बहुविधा मृत्यवः-प्राप्नुवन्ति ‘क्षुधार्तस्य तु मृत्युरेकप्रकारकोऽन्नाभावः’ बहुभक्षकस्य-प्रचुरान्नरक्षकस्य तु बहुविधा मृत्यवो भवन्ति-अधिकभोजनम्, अध्यशनम्, अन्यद्वारापहरणं राजभयम्, इत्येवमादयः (उत-पृणतः-रयिः-न-उप दस्यति) धनेनान्यान् तर्पयतो जनस्य धनं न क्षीयते (अपृणन् मर्डितारं न विन्दते) अपि च-अन्यं न पृणन् सुखयितारं सुखदातारं परमात्मानं न प्राप्नुवन्ति ॥१॥
य आ॒ध्राय॑ चकमा॒नाय॑ पि॒त्वोऽन्न॑वा॒न्त्सन्र॑फि॒तायो॑पज॒ग्मुषे॑ । स्थि॒रं मन॑: कृणु॒ते सेव॑ते पु॒रोतो चि॒त्स म॑र्डि॒तारं॒ न वि॑न्दते ॥ 2 ॥
(यः) जो अन्नवाला होता हुआ (आध्राय) दरिद्र के लिये (पित्वः-चकमानाय) अन्न को चाहनेवाले भूखे के लिये (रफिताय) पीड़ित के लिये (उप जग्मुषे) शरणागत के लिये (मनः स्थिरं कृणुते) मन को स्थिर करता है, ढीठ बनाता है, देने को नहीं सोचता है (पुरा सेवते) उससे पहले उसके देखते हुए स्वयं खाता है (उत-उ-सः) ऐसा वह (मर्डितारं न विन्दते) सुख देनेवाले परमात्मा को नहीं प्राप्त करता है ॥२॥
भावार्थ
अन्नवाला होकर के मनुष्य दरिद्र के लिये, भूखे के लिये, पीड़ित के लिये, शरणागत के लिये अवश्य भोजन दे, जो इनको न देकर स्वयं खाता है, वह पापी है, वह सुख देनेवाले परमात्मा को प्राप्त नहीं करता है ॥२॥
विषय
क्रूरता की पराकाष्ठा
पदार्थ
[१] (यः) = जो (अन्नवान् सन्) = खूब अन्नवाला होता हुआ भी (आध्राय) = आधार देने योग्य, अर्थात् अपाहिज के लिए, (पित्वः चकमानाय) = अन्न की याचना करनेवाले के लिए, (रफिताय) = भूखे मर रहे [हिंसित] के लिए, (उपजग्मुषे) = अन्न मिलने की आशा से समीप आये हुए के लिए (मनः स्थिरं कृणुते) = मन को बड़ा पक्का करता है, उसमें नैसर्गिक करुणा को भी मारने का प्रयत्न करके न देने का निश्चय करता है । (उत उ) = और मन को केवल दृढ़ करके ही रुक जाए ऐसा न करके (पुरा चित् सेवते) = उसके सामने ही अन्नों का [ मजे से] सेवन करता है (सः) = वह (मर्डितारम्) = उस सुख देनेवाले प्रभु को (न विन्दते) = कभी प्राप्त नहीं करता । [२] आधार देने योग्य अपाहिज को, अन्न की याचना करनेवाले को, भूख से मरे जाते हुए को तथा अन्न की आशा से समीप आये हुए को अन्न देना ही चाहिए। 'इनकार कर देना' उन याचकों के दिल को तोड़ देता है उनके सामने खाने का मजा लेने लगना तो क्रूरता की पराकाष्ठा ही है। मनुष्यता के साथ इतनी दिल की क्रूरता का विरोध है। इस क्रूर - हृदय ने प्रभु को क्या पाना ? उस भूखे के रूप में प्रभु ने ही उसे सेवा का मौका दिया, पर इस नासमझ ने उस अवसर से लाभ न लिया ।
भावार्थ
भावार्थ - भूखे को रोटी न देकर, उसके सामने स्वाद से खाते जाना मानवता नहीं है ।
पदार्थः
(यः-अन्नवान् सन्) यो जनोऽन्नवान् सन् (आध्राय) दरिद्राय “आध्रः-आढ्यालुर्दरिद्रः” [निरु० १२।२४] (पित्वः-चकमानाय) अन्नं कामयमानाय बुभुक्षिताय (रफिताय) पीडिताय (उपजग्मुषे) शरणागताय (मनः स्थिरं कृणुते) मनो धृष्टं करोति दातुं न भावयति (पुरा सेवते) तस्य-पश्यतः पूर्वं सेवते स्वयं भुङ्क्ते (उत-उ-सः-मर्डितारं न विन्दते) अपि च स सुखयितारं परमात्मानं न प्राप्नोति ॥२॥
Meaning
The man of means in plenty who does not give in charity to the poor, needy, hunger afflicted supplicant that comes to his door but hardens his heart and, further, himself enjoys the fruits of his riches in his very presence, finds no grace, no comfort, none to console him.
स इद्भो॒जो यो गृ॒हवे॒ ददा॒त्यन्न॑कामाय॒ चर॑ते कृ॒शाय॑ । अर॑मस्मै भवति॒ याम॑हूता उ॒ताप॒रीषु॑ कृणुते॒ सखा॑यम् ॥ 3 ॥
पदार्थ
(सः-इत्) वह ही मनुष्य (भोजः) अन्यों को भोजन करानेवाला है या पालनेवाला है (यः) जो (गृहवे) अन्न के ग्राहक पात्र के लिये तथा (अन्नकामाय) अन्न इच्छुक के लिये (चरते) विचरण करते हुए आगन्तुक के (कृशाय) क्षीण शरीरवाले के लिये (ददाति) अन्न देता है (अस्मै) इस अन्नदाता के लिये (यामहूतौ) समय की पुकार पर तथा आवश्यकता के अवसर पर (अरं भवति) पर्याप्त हो जाता है (उत) और (अपरीषु) अन्य प्रजाओं में (सखायं-कृणुते) अपने को उनका मित्र बना लेता है ॥३॥
भावार्थ
भोजन खानेवाला, खिलानेवाला या पालक वह ही है, उसे ही कहना चाहिये, जो अन्न के ग्राहक, अन्न के चाहनेवाले-विचरण करते हुए आगन्तुक और कृश शरीर के लिये देता है, इस ऐसे दाता के लिये समय की पुकार पर पर्याप्त हो जाता है, मिल जाता है, उसके पास कमी नहीं रहती, दूसरे विरोधी जनों का भी वह मित्र बन जाता है, सब उसकी प्रशंसा करते हैं ॥३॥
विषय
'भोज' [का लक्षण]
पदार्थ
[१] (सः इत्) = वह ही (भोजः) = अपना पालन करनेवाला है, (यः) = जो (गृहवे) = भिक्षा को ग्रहण करनेवाले, (अन्नकामाय) = अन्न की कामनावाले, (चरते) = यत्र-तत्र विचरण करते हुए (कृशाय) = [enuneiated] दुर्बल के लिए (ददाति) = अन्न को देता है। वस्तुतः इस प्रकार औरों के लिए देकर हुए को खानेवाला ही प्रभु का प्रिय होता है, यह विषय-वासनाओं का शिकार न होकर वस्तुतः बचे अपना पालन करनेवाला होता है । [२] (अस्मै) = इसके लिए यामहूतौ [यामाः गन्तारो देवा: हूयन्ते यत्र ] यज्ञों में, [याम - प्रहर] उस-उस समय की पुकार में उस-उस समय की आवश्यकता की पूर्ति के लिए (अरं भवति) = पर्याप्त होता है, अर्थात् इसे किसी कार्य के लिए धन की कमी नहीं रहती। [३] (उत) = और (अपरीषु) = परायों में भी, शत्रु प्रजाओं में भी (सखायं कृणुते) = मित्र को करता है। शत्रु प्रजाएँ भी इसके लिए सहायक होती हैं। शत्रु भी इसके मित्र बन जाते हैं ।
भावार्थ
भावार्थ - अन्न की कामना से विचरण करनेवाले के लिए जो अन्न को देता है, वही वस्तुतः अपना भी वस्तुतः पालन करता है। किसी भी आवश्यक कार्य के लिए इसे धन की कमी नहीं होती । शत्रु भी इसके मित्र बन जाते हैं ।
विषय
दाता की सद्गति।
भावार्थ
(यः गृहवे ददाति) जो ग्रहण करने वाले उत्तम पात्र को अन्न आदि देता है और (यः) जो (अन्न-कामाय चरते ददाति) अन्न की अभिलाषा से भिक्षा आचरण करने वाले को अन्नदान करता है और जो (कृशाय) कृश, भूखे, निर्बल को अन्न देता है, (अस्मै यामहूतौ) उसको यज्ञ के निमित्त (अरं भवति) बहुत अधिक प्राप्त होता है, (सः इत् भोजः) वही सच्चा रक्षक है (उत) और वह (अपरीषु सखायं कृणुते) परायों में वा शत्रु आदि की प्रजाओं में भी अपना सहायक प्राप्त कर लेता है।
पदार्थः
(सः-इत्-भोजः) सः पुरुषो हि भोजयिताऽन्येभ्यो भोजनदाताऽस्ति (यः-गृहवे) योऽन्नग्रहणकर्त्रे (अन्नकामाय) अन्नमिच्छुकाय (चरते) विचरते-आगन्तुकाय (कृशाय) अपुष्टशरीराय (ददाति) अन्नं ददाति (अस्मै यामहूतौ-अरं भवति) अस्मै दात्रे यामस्य समयस्य-हूतौ-आहूतौ-आवश्यकतायाः समये-इति यावत् पर्याप्तं भवति (उत) अपि च (अपरीषु सखायं कृणुते) अन्यासु प्रजासु तासामात्मानं सखायं करोति स दाता ॥३॥
Meaning
Bounteous blest is he who gives to the needy seeker desirous of food and to the wanderer in search, gone feeble. Amplitude comes to him at his call for his purpose, and he creates friendly alliances even among those who once opposed him.
न स सखा॒ यो न ददा॑ति॒ सख्ये॑ सचा॒भुवे॒ सच॑मानाय पि॒त्वः । अपा॑स्मा॒त्प्रेया॒न्न तदोको॑ अस्ति पृ॒णन्त॑म॒न्यमर॑णं चिदिच्छेत् ॥ 4 ॥
पदार्थ
(सः-न सखा) वह मित्र नहीं है (यः) जो (सचाभुवे) सहयोगी (सचमानाय) सेवा करनेवाले (सख्ये) मित्र के लिये (पित्वः) अन्न (न ददाति) नहीं देता है (अस्मात्-अप प्र इयात्) इस अन्न देनेवाले के पास से अलग हो जाता है (तत्-ओकः) वह रहने का स्थान (न-अस्ति) नहीं है-वह समागम का स्थान नहीं है, ऐसा मानता हुआ (अन्यं पृणन्तम्) अन्य को तृप्त करते हुए (अरणं चित्) पर मनुष्य को भी (इच्छेत्) चाहता है ॥४॥
भावार्थ
जो मित्र अपने को कहता है, वह सहयोगी सेवा करनेवाले मित्र के लिये नहीं देता है, तो वह मित्र नहीं कहलाता है, वह रहने का स्थान नहीं, ऐसा समझकर उसका मित्र साथ छोड़ देता है। अन्य तृप्त करनेवाले के पास चला जाता है, फिर बिना मित्र के असहाय रह जाता है, इसलिये सम्पन्न जन को अपने मित्र की सहायता करनी चाहिये ॥४॥
पदार्थः
(सः-न सखा) स जनः सखा नास्ति (यः सचाभुवे सचमानाय सख्ये पित्वः-न ददाति) यः सहभाविने सहयोगिने सेवमानाय सख्येऽन्नस्य भागं न ददाति (अस्मात्-अप प्र इयात्) अस्मात् खल्वपगच्छेत् पृथग् भवति (तत्-ओकः-न-अस्ति) तत् समागमस्थानं नास्तीति मत्वा (अन्यं पृणन्तम्-अरणं-चित्-इच्छेत्) अन्यं तर्पयन्तं परं जनमपि खल्विच्छति ॥४॥
Meaning
No friend is he who gives no help and sustenance to the friend, the assistant and the associate. Denied, the friend goes away from him. No home is this house of the miser mean, if the friend in need has to knock at another door, the house of a generous helpful person.
पृ॒णी॒यादिन्नाध॑मानाय॒ तव्या॒न्द्राघी॑यांस॒मनु॑ पश्येत॒ पन्था॑म् । ओ हि वर्त॑न्ते॒ रथ्ये॑व च॒क्रान्यम॑न्य॒मुप॑ तिष्ठन्त॒ राय॑: ॥ 5 ॥
पदार्थ
(तव्यान्) धनसमृद्ध जन (नाधमानाय) अधिकार माँगनेवाले के लिये उसे (पृणीयात्) भोजनादि से तृप्त करे (द्राघीयांसम्) अतिदीर्घ लम्बे उदार (पन्थाम्) मार्ग को (अनु पश्येत) देखे-समझे (रायः) सम्पत्तियाँ (रथ्या चक्रा-इव) रथ के चक्रों पहियों की भाँति (आ वर्तन्ते-उ हि) आवर्तन किया करती हैं, भिन्न-भिन्न स्थानों में घूमा करती हैं (अन्यम्-अन्यम्-उप तिष्ठन्त) भिन्न-भिन्न स्थान को आश्रित करती हैं ॥५॥
भावार्थ
धनसम्पन्न मनुष्य अपने अन्न धन सम्पत्ति से अधिकार माँगनेवाले को तृप्त करे, इस प्रकार उदारता के मार्ग को अनुभव करे, क्योंकि धन सम्पत्तियाँ सदा एक के पास नहीं रहती हैं, वे तो गाड़ी के पहियों की भाँति घूमा करती हैं, आती-जाती रहती हैं ॥५॥
विषय
(विविध खण्ड) धन चक्रवत् घूमता है
शब्दार्थ
(तव्यान्) धनवान् को (नाधमानाय) दुःखी, पीड़ित, याचक के लिए (पृणीयात् इत्) देना ही चाहिए । मनुष्य (द्राघीयांसम् पन्थाम्) अतिदीर्घ जीवन के मार्ग को (अनुपश्येत) विचारपूर्वक देखें (हि) क्योंकि (राय:) धन (उ) निश्चय ही (रथ्या चक्रा इव) रथ के पहिए के समान (आ वर्तन्ते) घूमते रहते हैं और (अन्यम् अन्यम्) एकदूसरे के समीप (उपतिष्ठन्त) पहुँचा करते हैं ।
भावार्थ
लक्ष्मा बड़ी चञ्चला है । यह रथ के पहियों की भाँति निरन्तर घूमती रहती है। आज एक व्यक्ति के पास है तो कल दूसरे के पास चली जाती है । जो व्यक्ति एक दिन राजा होता है वह दूसरे दिन दर-दर का भिखारी बन जाता है। प्रत्येक मनुष्य को धन के इस स्वरूप को समझना चाहिए और समझकर - १. धनवान् को चाहिए कि वह निर्धनों की, दीन और दुखियों की, पीड़ितों की सहायता करके उन्हें प्रसन्न करे । बलवानों को चाहिए कि वे निर्बलों, अनाथों और अबलाओं की रक्षा करें । २. यह कहा जा सकता है कि हमें किसीकी सहायता करने की क्या आवश्यकता है ? वेद इसका बहुत ही सुन्दर उत्तर देता है । वेद कहता है जीवन का मार्ग बहुत विस्तृत है, अतः मनुष्य को दीर्घदृष्टि से काम लेना चाहिए, दुःख-आपत्तियाँ और संकट सभी पर आ सकते हैं । यदि धन और बल के नशे में चूर होकर हमने किसीकी सहायता नही की तो यह निश्चित है कि हमारी सहायता भी कोई नहीं करेगा, अतः याचक को प्रसन्न करना ही चाहिए ।
विषय
रथचक्र की तरह चलायमान 'धन'
पदार्थ
[१] (तन्यान्) = धनों के दृष्टिकोण से बढ़ा हुआ पुरुष (नाधमानाय) = माँगनेवाले के लिए (पृणीयात् इत्) = दे ही जिस समय कोई माँगनेवाला आये, तो इनकार करने की अपेक्षा (द्राघीयांसं पन्थाम्) = इस लम्बे मार्ग को (अनुपश्येत) = देखे । इस अतिविस्तृत समय में पता नहीं किसी का कब कैसा समय आ जाए ? [२] ये (रायः) = धन तो (रथ्या चक्रा इव) = रथ के पहियों की तरह हि (उ) = निश्चय से (आवर्तन्ते) = आवृत हो रहे हैं । (अन्यं अन्यं) = दूसरे दूसरे के पास (उपतिष्ठन्ते) = ये धन उपस्थित होते हैं। जैसे रथ के पहिये का एक भाग जो ऊपर है, वह थोड़ी देर के बाद नीचे हो जाता है उसी प्रकार आज एक व्यक्ति धन के दृष्टिकोण से खुद उन्नत है, जितना चाहे दे सकता है । कल वही निर्धन अवस्था में होकर माँगनेवालों में भी शामिल हो सकता है। इसलिए सामर्थ्य के होने पर देना ही चाहिए।
भावार्थ
भावार्थ- धन अस्थिर हैं। कल हमारे पास भी सम्भवतः न रहें। सो शक्ति के होने पर माँगनेवाले के लिए देना ही चाहिए ।
पदार्थः
(तव्यान्) तवीयान् प्रवृद्धः समृद्धो जनः “तु वृद्धौ” [अदादि०] (नाधमानाय पृणीयात्) याचमानाय “नाथृ नाधृ याच्ञोपतापैश्वर्याशीःषु” [भ्वादि०] भोजनानि दद्यात् (द्राघीयांसं पन्थाम्-अनु पश्येत) दीर्घतममुदारताया मार्गमनुपश्येत्-अनुभवेत् (रायः) सम्पत्तयः (आ वर्त्तन्ते-उ हि रथ्या चक्रा-इव) रथचक्राणीव-आवर्तन्ते नैकत्र तिष्ठन्ति किन्तु भिन्नभिन्न-स्थानेषु चलन्ति हि (अन्यम्-अन्यम्-उप तिष्ठन्त) भिन्नं भिन्नमाश्रयन्ति ॥५॥
Meaning
The rich man should give for the poor seeker, he should see the paths of life in the long run. Riches move like wheels of the chariot: Now they are at one place, now they move to another.
मोघ॒मन्नं॑ विन्दते॒ अप्र॑चेताः स॒त्यं ब्र॑वीमि व॒ध इत्स तस्य॑ । नार्य॒मणं॒ पुष्य॑ति॒ नो सखा॑यं॒ केव॑लाघो भवति केवला॒दी ॥ 6 ॥
पदार्थ
(अप्रचेताः) अप्रकृष्ट बुद्धिवाला-बेसमझ मनुष्य (मोघम्) व्यर्थ (अन्नं विन्दते) अन्नादि धन को प्राप्त करते हैं (सत्यं ब्रवीमि) मैं सत्य कहता हूँ (तस्य) उसका (सः) वह धन वैभव (वधः-इत्) वधक है-घातक ही है (अर्यमणम्) उस अन्नादि से ज्ञानदाता विद्वान् को (न पुष्यति) नहीं पालता है (न-उ सखायम्) और न ही समानधर्मी समानवंशी सम्बन्धी को पालता है-घोषित करता है, वह ऐसा (केवलादी) अकेला खानेवाला (केवलाघः) केवल पापी होता है ॥६॥
भावार्थ
जो मनुष्य अन्न धन सम्पत्ति का स्वामी बनकर उससे किसी ज्ञान देनेवाले विद्वान् का पोषण नहीं करता न किसी वंशीय सम्बन्धी का पोषण करता है, उसका अन्नधन सम्पत्ति पाना व्यर्थ है-घातक है, वह केवल अकेले खाकर पापी बनकर संसार से चला जाता है ॥६॥
विषय
केवलाघः = केवलादी
पदार्थ
[१] (अप्रचेता:) = गत मन्त्र में वर्णित तत्त्व को न समझनेवाला, धनों की अस्थिरता का विचार न करनेवाला (अन्नं मोघं विन्दते) = अन्न को व्यर्थ ही प्राप्त करता है। प्रभु कहते हैं कि (सत्यं ब्रवीमि) = मैं यह सत्य ही कहता हूँ कि (स) = वह अन्न व धन (तस्य) = उसका (इत्) = निश्चय से (वधः) = वध का कारण होता है। यह अदत्त अन्न व धन उसकी विलास वृद्धि का हेतु होकर उसका विनाश कर देता है। [२] यह (अप्रचेताः) = नासमझ व्यक्ति (न) = न तो (अर्यमणम्) = [अरीन् यच्छति] राष्ट्र के शत्रुओं का नियमन करनेवाले राजा को (पुष्यति) = पुष्ट करता है, नो और ना ही (सखायम्) = मित्र को । यह कृपण व्यक्ति राष्ट्र रक्षा के लिए राजा को भी धन नहीं देता और ना ही इस धन से मित्रों की मदद करता है । [३] यह दान न देकर (केवलादी) = अकेला खानेवाला व्यक्ति (केवलाघः भवति) = शुद्ध पाप ही पाप हो जाता है। यज्ञों को न करनेवाला यह (मलिम्लुच) = चोर ही कहलाता है। अदानशील पुरुष भौतिक वृत्तिवाला बनकर भोगों का शिकार हो जाता है। लोभ के बढ़ जाने से पापवृत्तिवाला हो जाता है।
भावार्थ
भावार्थ- दान न देनेवाला धनी पुरुष भोगसक्त होकर अपना ही विनाश कर बैठता है और उसकी पापवृत्ति बढ़ती जाती है। ऋषि
पदार्थः
(अप्रचेताः-मोघम्-अन्नम्-विन्दते) अप्रकृष्टचेतस्को जनो व्यर्थमन्नं प्राप्नोति (सत्यं ब्रवीमि वधः-इत् सः-तस्य) सत्यं कथयामि वधक एव च तस्य (अर्यमणं न पुष्यति न-उ सखायम्) तेनान्नेन ज्ञानदातारं विद्वांसं न पोषयति न च समानधर्माणं समानवंशं वा पोषयति (केवलादी केवलाघः-भवति) एकाकी भुञ्जानः केवलपापवान् भवति ॥६॥
Meaning
The man of no knowledge and short vision gets food in vain and prosperity for nothing. Verity I say that prosperity is his min, his very death in life. He prospers not who helps neither the friend nor the wise, eating all by himself he eats nothing but sin.
कृ॒षन्नित्फाल॒ आशि॑तं कृणोति॒ यन्नध्वा॑न॒मप॑ वृङ्क्ते च॒रित्रै॑: । वद॑न्ब्र॒ह्माव॑दतो॒ वनी॑यान्पृ॒णन्ना॒पिरपृ॑णन्तम॒भि ष्या॑त् ॥ 7 ॥
पदार्थ
(कृषन्-इत्) खेती करता हुआ-खेत जोतता हुआ ही (फालः) फालवान्-हलवाला किसान (आशितं कृणोति) अपने को अन्नभोक्ता बनाता है (चरित्रैः-यन्) चलने के साधनों से चलता हुआ (अध्वानम्) मार्ग को (अपवृङ्क्ते) पार करता है-तै करता है, न कि बैठा हुआ (ब्रह्मा वदन्) ब्राह्मण प्रवचन करता हुआ (अवदतः) न बोलनेवाले-न प्रवचन करनेवाले से (वनीयान्) अधिक सम्भजनीय है, सत्सङ्ग करने योग्य है (आपिः) समीपवर्ती सम्बन्धी जन (पृणन्) अन्नादि से तृप्त करता हुआ (अपृणन्तम्) न तृप्त करते हुए न देते हुए को (अभिष्यात्) अभिभव करता है, नीचे कर देता है ॥७॥
भावार्थ
हल आदि साधन रखनेवाला किसान खेत जोतता हुआ खेती करता हुआ अपने को अन्न का भोक्ता बनाता है। हलादि साधन होते हुए खेती न करता हुआ किसान अपने को अन्नवान् नहीं बनाता है, चलने के साधन रखता हुआ-उनसे मार्ग को तै करता है-पार करता है न कि चलने के साधन होते हुए न चलते हुए पार करता है, विद्वान् प्रवचन करता हुआ न प्रवचन करनेवाले से श्रेष्ठ और सत्सङ्ग करने योग्य है, इसी प्रकार सम्बन्धी समीपी-जन अपने अन्नादि से तृप्त करता हुआ, न तृप्त करनेवाले के ऊपर हो जाता है-सम्मान का पात्र बन जाता है-अर्थात् अन्न धनादि होते हुए उससे दूसरों को तृप्त करना चाहिये ॥७॥
विषय
अदान-नदान
पदार्थ
[१] (कृषन् इत्) = भूमि को जोतता हुआ ही (फालः) = फल का हल का अग्रभाग (आशितम्) = [आ अशितं] समन्तात् भोजन को (कृणोति) = करता है। अलमारी में पड़े हुए फाल से यह 'कृषन् फाल' सदा उत्कृष्ट है। [२] (यन्) = गति करता हुआ पुरुष (चरित्रैः) = कदमों से (अध्वानम्) = मार्ग को (अपवृङ्क्ते) = [finish] समाप्त कर लेता है, रास्ते को काट लेता है, तप कर लेता है। इसीलिए बैठे हुए या लेटे हुए पुरुष से यह चलनेवाला पुरुष श्रेष्ठ है । [३] (वदन्) = ज्ञानोपदेश देता हुआ ब्रह्मा-ज्ञानी (अवदतः) = ज्ञानोपदेश न देनेवाले से (वनीयान्) = अधिक सम्भजनीय, उपासनीय है । [४] ठीक इसी प्रकार (पृणन् आपिः) = सदा देता हुआ मित्र (अपृणन्तम्) = न देते हुए को (अभिष्यात्) = अभिभूत कर लेता है । अर्थात् देनेवाला, न देनेवाले से अच्छा ही है ।
भावार्थ
भावार्थ-न देने से देना सदा अच्छा है। दान प्रेम को स्थिर करनेवाला है ।
विषय
फाली और पैरों के दृष्टान्त से सत्कार्य करने वालों की प्रशंसा। ज्ञानादि का दाता अदाता से कहीं अच्छा है।
भावार्थ
(कृषन् फालः इत् आशितं कृणोति) जो फाली भूमि में गहरा खनती है वही खाने योग्य अन्न उत्पन्न करती है, और (अध्वानं यन्) जो मार्ग पर गमन करता है वह (चरित्रैः) अपने पैरों से ही (अप वृङ्क्ते) बहुत दूर तक चला जाता है, वह संकट से छूट जाता या लक्ष्यतक पहुंचता है। (वदन्) उपदेश देता हुआ ही (ब्रह्मा) वेदज्ञ ब्राह्मण (अवदतः) न उपदेश करने वाले से (वनीयान्) अधिक सेवा करने योग्य है। (पृणन् आपिः) इच्छा पूर्ति करने वाला बन्धु, दाता पुरुष ही, (अपृणन्तम्) न देने वाले से (अभि स्यात्) कहीं बढ़ कर हो जाता है।
मन्त्रार्थ
(कृषन्-इत् फाल: आशितं कृणोति) खेत जोतता हुआ फाल-फालयुक्त हल किसान को अन्न भोक्ता करता है या फालवान् किसान कृषि करता हुआ अपने को अन्नभोक्ता अन्न खाने में अधिकारी समर्थ बनाता है अपने अन्न को उपजाता है (यन् चरित्रैः अध्वानम्-अपवृक्ते) चलता हुआ मनुष्य चलनक्रमों-कदमों तथा चलने के साधनों से-मार्ग को लांघता है - यात्रा समाप्त करता है- रास्ता तय करता है (वदन् ब्रह्मा-अवदतः-वनीयान्) प्रवचन करता हुआ ब्राह्मण न बोलने वाले से सम्भजनीय है- प्रिय है- सत्करणीय है । एवं (पृणन्-आपिः-अपृणन्तम्-अभिष्यात्) अन्नादि से तृप्त करता हुआ प्राप्त जन-समीपी जन न तृप्त करते हुए न देते हुए पर अभिभूत हो जाता है ॥७॥
टिप्पणी
"अर्यमा सप्तहोतॄणां होता' ( तै० २|३|५|६) स्वामिनमीश्वरं मिमते मन्यते जानातीति वा "( उणादि० १।१५९)'
विशेष
ऋषिः- भिक्षुः परमात्म सत्सङ्ग का भिक्षु गौणरूप में अन्न का भी भिक्षु परमात्मसत्सङ्गार्थ ही भिक्षु [(अन्न का भिक्षु)] देवता- धनान्नदान प्रशंसा, इन्द्रश्च (धनान्नदान की प्रशंसा और भिक्षाचर्या में अभीष्ट परमात्मा)
पदार्थः
(कृषन्-इत् फालः-आशितं-कृणोति) कृषिं कुर्वन् फालवान् हलवान् कृषक आत्मानमन्नभोक्तारं करोति न तु ऋषिमकुर्वन् (यन्-चरित्रैः-अध्वानम्-अपवृङ्क्ते) गच्छन् जनश्च चलनसाधनैर्मार्गमप पारयति न तु खल्वगच्छन् (वदन् ब्रह्मा-अवदतः-वनीयान्) प्रवचनं कुर्वन् ब्राह्मणः न प्रवचनमकुर्वतो सम्भजनीयः सङ्गमनीयः (पृणन्-आपिः-अपृणन्तम्-अभि स्यात्) अन्नादिना तर्पयन् समीपवर्ती सम्बन्धी जनो न तर्पयन्तमभिभवति ॥७॥
Meaning
The ploughman ploughing the land produces food for the hungry, the traveller while moving crosses the path to destination, the vocal sage is better than the silent, and the giving friend and brother is better than the non-giving.
एक॑पा॒द्भूयो॑ द्वि॒पदो॒ वि च॑क्रमे द्वि॒पात्त्रि॒पाद॑म॒भ्ये॑ति प॒श्चात् । चतु॑ष्पादेति द्वि॒पदा॑मभिस्व॒रे स॒म्पश्य॑न्प॒ङ्क्तीरु॑प॒तिष्ठ॑मानः ॥ 8 ॥
पदार्थ
(एकपात्) एकभाग धनादि साधनवाला मनुष्य उपयोग करता हुआ (द्विपदः) द्विगुण साधनवाले मनुष्य से (भूयः-वि चक्रमे) अधिक विक्रम करता है (द्विपात्) दो भाग साधनवाला उसका उपयोग करता हुआ (त्रिपादम्) तीन भाग साधनवाले जन को-मनुष्य को (पश्चात्) पीछे (अभि एति) धकेल देता है-कर देता है (चतुष्पात्) चार धनादिभाग रखनेवाला (उपतिष्ठमानः) बैठा हुआ-उपयोग न करता हुआ (द्विपदाम्) दो भाग साधनवालों की (पङ्क्तीः) पादरेखाओं पगडण्डियों या पदचिह्नों को (सम्पश्यन्) देखता हुआ (अभिस्वरे) उनके आदेश पर (एति) चलता है ॥८॥
भावार्थ
धनादि साधन का एक भाग रखनेवाला मनुष्य उसका सदुपयोग करता हुआ द्विगुण साधनवाले से अधिक विक्रम और सफलता प्राप्त करता है, दो भाग साधनवाला उसका उपयोग करता हुआ तीन भाग साधनवाले को पीछे ढकेल देता है। चार भाग साधनवाला केवल बैठा हुआ कुछ न करता हुआ दो भाग साधनवाले उपयोग करते हुए मनुष्यों की पादरेखाओं को देखता हुआ उनके आदेश पर चलता है-चला करता है ॥८॥
विषय
दान धन के अनुपात में नहीं
पदार्थ
[१] दान धन की न्यूनाधिकता पर निर्भर नहीं है, यह तो मन की उदारता व संकुचितता के साथ सम्बद्ध है । उदार मनवाला एकपाद्- 'एक भाग' धनवाला पुरुष (द्विपदः) = संकुचित मनवाले 'द्विभाग धन' वाले पुरुष से (भूयः विचक्रमे) = अधिक पराक्रम करनेवाला होता है । एक भाग धनवाला द्विभाग धनवाले से अधिक दान दे देता है । [२] (द्विपात्) = द्विभाग धनवाला पुरुष (त्रिपादम्) = त्रिभाग धनवाले (पश्चात्) = पुरुष के पीछे-पीछे (अभ्येति) = आनेवाला होता है । अर्थात् जैसे कई बार पच्चीस रुपयेवाला पचास रुपयेवाले से अधिक दान दे देता है, इसी प्रकार पचास रुपयेवाला, उदारता के होने पर, पचहत्तर रुपयेवाले के बराबर दान देनेवाला बनता है। [३] (चतुष्पाद्) = चार भाग धनवाला, अर्थात् सौ रुपयेवाला (द्विपदाम्) = दो भाग धनवालों के पचास रुपये वालों के (अभिस्वरे) = नामोच्चारण में (एति) = आता है, अर्थात् जितना द्विपदों का दान सुनाया जाता है उतना ही इस चतुष्पात् का दान होता है। यह चतुष्पात् उन द्विपदों को (संपश्यन्) = देखता हुआ पंक्ती (उपतिष्ठमानः) = उनकी पंक्तियों का उपस्थान करता है, उनके समीप उपस्थित हुआ हुआ दिल में उनका आदर ही करता है कि 'मेरे से आधी सम्पत्तिवाले होते हुए भी ये मेरे बराबर देनेवाले हुए हैं'। इस प्रकार दान की न्यूनाधिकता धन पर आश्रित न होकर हृदय की विशालता पर आश्रित है।
भावार्थ
भावार्थ- हम विशाल हृदय होंगे तो अधिक दान देनेवाले होंगे। अधिक दान देने से हृदय को विशाल व पवित्र बना पाएँगे ।
विषय
साधनों के सिवाय सामर्थ्य, दानशीलता का महत्त्व।
भावार्थ
(एक-पात् भूयः) एक आश्रय वाला भी (द्वि-पदः) दौ पैर वाले अनेक मनुष्यों से (भूयः वि चक्रमे) बहुत अधिक विक्रमशील होता है। और (द्वि-पात्) दो चरण वाला मनुष्य भी (त्रि-पादम्) तीन चरण वाले, ज्ञानी पुरुष के (पश्चात् अभि एति) पीछे २ आता है। और (पंक्तीः) पद पंक्तियों को (सम्पश्यन्) देखता हुआ (उप-तिष्ठमानः) उपस्थित होकर (चतुष्पात्) चार पैर वाला पशु भी (द्विपदाम् अभिस्वरे) दो पाये मनुष्यों के स्थान में (एति) प्राप्त हो जाता है । इसलिये न्यूनाधिक पदों या साधनों या आश्रयों के ऊपर समृद्धि नहीं, प्रत्युत सामर्थ्य और दानशीलता पर ही उत्तमता निर्भर है।
पदार्थः
(एकपात्-द्विपदः-भूयः-वि चक्रमे) एकधनादिसाधनवान् पुरुषो द्विगुणसाधनवतो पुरुषात्खल्वधिकं विक्रमं करोति तदुपयोगं कुर्वन् (द्विपात्-त्रिपादं पश्चात्-अभि एति) द्विपात्-द्विसाधनवान् तदुपयोगं कुर्वन् त्रिपादं-त्रिपादवन्तं पश्चात् प्रेरयति (चतुष्पात्-उपतिष्ठमानः) चतुर्गुण-साधनवान् केवलमुपतिष्ठमानस्तदुपयोगं न कुर्वाणः (द्विपदां-पङ्क्तीः सम्पश्यन्-अभिस्वरे-एति) द्विसाधनभागवतां तदुपयोगं कुर्वतां पङ्क्तीः पादरेखाः पश्यन् तेषामादेशे “स्वृ शब्दे” [भ्वादि०] चलति ॥८॥
Meaning
In the process of evolution and mutual exhortation, the man of the first order of wealth looks up to the man of double order of wealth and, if he be active and generous, may even surpass the doubly rich person. Similarly, the man of double order of wealth looks up to the man of triple wealth and may even surpass him. Later, the man of triple wealth looks up to the man of fourfold wealth and may overtake and even surpass him. Thus in evolution, competition, cooperation and mutual exhortation, the generous man of initiative goes on and on, watching and abiding in the line of the progressive evolution of humanity.
स॒मौ चि॒द्धस्तौ॒ न स॒मं वि॑विष्टः सम्मा॒तरा॑ चि॒न्न स॒मं दु॑हाते । य॒मयो॑श्चि॒न्न स॒मा वी॒र्या॑णि ज्ञा॒ती चि॒त्सन्तौ॒ न स॒मं पृ॑णीतः ॥ 9 ॥
पदार्थ
(समौ चित्) समान भी (हस्तौ) दोनों हाथ (समं न) किसी कार्य में समान नहीं (विविष्टः) प्रवेश करते हैं (सम्मातरा चित्) बच्चे का निर्माण करनेवाली पालन करनेवाली धायें भी (समं न) समान नहीं (दुहाते) दूध पिलाती हैं (यमयोः-चित्) सहजात दोनों मनुष्यों को भी (वीर्याणि) बल-पराक्रम (समा न) समान नहीं होते (ज्ञाती चित्) एक वंशवाले भी (सन्तौ) होते हुए (समं न) समान नहीं (पृणीतः) अपने अन्न धनादि से दूसरे को तृप्त करते हैं, दान में स्पर्धा या तुलना नहीं करना चाहिये, यह श्रद्धा से देना होता है-देना चाहिये ॥९॥
भावार्थ
मनुष्य के हाथ समान हैं, पर किसी कार्य में समान प्रवेश नहीं करते। बालक को पालनेवाली दो धाइयाँ बालक को समान दूध नहीं पिलाती, माता से उत्पन्न हुए जुडवाँ दो मनुष्यों के समान बल नहीं होते। वंशवाले दो बड़े मनुष्य अपने अन्न धनादि से किसी अधिकारी को समानरूप से तृप्त नहीं करते हैं, इसलिये दान को स्पर्धा या तुलना पर न छोड़ना चाहिये, किन्तु श्रद्धा से देना ही चाहिये ॥९॥
विषय
दानवृत्ति का वैषम्य
पदार्थ
[१] (समौ चित् हस्तौ) = दो हाथ एक ही शरीर में होते हुए भी (समम्) = समानरूप से (न विविष्ट:) = कार्यों में व्याप्त नहीं होते । दाहिना हाथ अधिक कार्य करता है, सामान्यतः बाँया कम । [२] इसी प्रकार (सम्मातरा चित्) = एक ही गाय से उत्पन्न हुई-हुई बछियाएँ बड़ी होकर (समं न दुहाते) = समान दूध नहीं देती। एक दस सेर दूध देनेवाली बन जाती है, तो दूसरी पाँच ही सेर देनेवाली होती है। [३] (यमयोः चित्) = जुड़वाँ [twins] उत्पन्न हुए-हुए बच्चों के भी (वीर्याणि समा न) = शक्तियाँ समान नहीं होती। एक स्वस्थ व सशक्त होता है, तो दूसरा अस्वस्थ व निर्बल ही रह जाता है । [४] इसी प्रकार (ज्ञाती चित् सन्तौ) = समीप के रिश्तेदार होते हुए भी (सं न पृणीत:) = बराबर दान देनेवाले नहीं होते। एक अत्यन्त उदार होता है तो कई बार दूसरा बड़ा कृपण प्रमाणित होता है ।
भावार्थ
भावार्थ-दानवृत्ति सर्वत्र समान नहीं होती । अन्य बातों की तरह इस वृत्ति में भी पुरुषों का वैषम्य है। जितना देंगे उतना ऊँचा उठेंगे। सारा सूक्त धन व अन्न दान की प्रशंसा कर रहा है। दान 'धन के अधिक होने पर ही होगा' ऐसी बात नहीं है। यह तो हृदय की उदारता पर निर्भर करता है । भौतिक वृत्तिवाला दान नहीं दे पाता। सो अगला सूक्त 'अमहीयु' के सन्तान 'आमहीयव' का है, अ-मही-यु-न भौतिक वृत्तिवाला । यह उरुक्षय:- विस्तृत गतिवाला बनता है [क्षि= गतौ] । इसका घर विशाल होता है, उसमें आये गये के लिए सदा स्थान होता है। लोकहित के उद्देश्य से यह अग्निहोत्र की वृत्तिवाला होता है । यह अग्नि इसके रोगकृमियों का भी संहार करनेवाला होता है। 'रक्षोहा अग्नि' ही सूक्त का देवता है -
विषय
दान-सामर्थ्यादि की विषमता।
भावार्थ
(समौ चित् हस्तौ) दोनों हाथ एक समान होकर भी (समं न विविष्टः) एक समान व्यापार नहीं करते। (सम् मातरा चित्) एक समान दो माताएं भी (न समं दुहाते) एक समान दूध नहीं देतीं। (यमयोः चित् वीर्याणि न समा) एक साथ उत्पन्न जोड़े पुत्रों के भी एक समान बल-सामर्थ्य नहीं होते। (ज्ञाती चित् सन्तौ) दोनों समान सम्बन्धी होकर भी (समं न पृणीतः) एक समान दान देने में समर्थ नहीं होते इति त्रयोविंशो वर्ग
पदार्थः
(समौ चित्-हस्तौ समं न विविष्टः) समानावपि हस्तौ कार्ये न समानं प्रवेश कुरुतः (सं मातरा चित्-न समं दुहाते) शिशोर्निर्माणकर्त्र्यो द्वौ धात्र्यौ समानं दुग्धं न पाययतः (यमयोः-चित्-न समा वीर्याणि) सहजातयोर्मनुष्ययोर्न समानि बलानि भवन्ति (ज्ञाती चित् सन्तौ न समं पृणीतः) एकवंशकौ पुरुषावपि धनादिना समानं न तर्पयतः दाने न स्पर्धा तुलना वा कार्या दानं तु स्वश्रद्धया देयम्-दातव्यमेव ॥९॥
Meaning
The two hands, howsoever alike, do not perform equally well, two mother cows, alike and equal otherwise, do not yield the same quality and quantity of milk, the power and performance of even twins is not equal and the same, and two persons may be closely related, still they are not equal and exactly alike in charity.

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