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ईशा वास्योपनिषद मंत्र -8 हिन्दी भाष्य सहित

 स पर्यगाच्छुक्रमकायमव्रण—मस्नाविरं शुद्धमपापविद्धम् । कविर्मनीषी परिभूः स्वयम्भूर्याथातथ्यतो—ऽर्थान्व्यदधाच्छाश्वतीभ्यः समाभ्यः ॥ ८ ॥ 
स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती
प्र० क्र० – (स) वह (ईश्वर) । (परि) सब ओर से । (आगात्) विद्यमान है । (शुक्रम्) जगत् को उत्पन्न करने वाला । (अकायम्) शरीर-रहित । (अव्रणम्) रन्ध्र रहित। (आस्नाविरम्) नस-नाड़ियों के बन्धन से बाहर । (शुद्धम) पवित्र । (अपापविद्धम्) पापो से मुक्त । (कविः) ज्ञानी । (मनीषी) मन को भीतरी भावो का ज्ञाता । (परिभूः) सर्वव्यापक । (स्वयम्भूः) जन्म रहित (याथातथ्यत) ठीक-ठीक । (अर्थात्) वस्तुओं को । (व्यदधात्) भले प्रकार उपदेश करता है । (शाश्वतीभ्य समाभ्य) सदैव नित्य जीवों के लिये । अर्थ- वह परमात्मा, जिसकी आज्ञानुसार कर्म करने से मनुष्य दुःख से छूट जाता है, सर्वव्यापक है । उसका न कोई प्रतिनिधि है, न सांसारिक राजाओ के समान मन्त्री, जागीरदार और सैनिक है । इन सब की आवश्यकता केवल एकदेशीय और शरीर-धारी के लिये ही होती है । परमात्मा शरीर रहित है और शरीर-धारी न होने से रन्ध्र (रोम कूप) इत्यादि से रहित है । जो किसी प्रकार भी क्षत-विक्षत हो नही सकता , क्योंकि वह शरीर और नाड़ियो के बन्धन में ही नही । वह सब प्रकार की अपवित्रताओं से रहित होने से शुद्ध है, क्योकि अशुद्धता सदा स्थूल पदार्थों में घर करती है । अतः परमात्मा सबसे अधिक सूक्ष्म है, अतः वह तीनों काल में शुद्ध है और पाप के फल (दुःख) से भी रहित है , क्योकि परमात्मा की आज्ञा के विरुद्ध चलने का नाम पाप है । वह परमात्मा अपने विरुद्ध कभी नहीं वर्तता, एवं सर्वज्ञ होने से प्रत्येक भेद को , जो जीवों की आँख ओझल है, जानते है । प्रत्येक वस्तु का उन्हें ज्ञान है, प्रत्येक मन के भीतर भाव उनको ज्ञात है; इसीलिये संसार में बिना ज्ञान के काम करने से जीवों को हानि पहुँचती है । इसी कारण परमात्मा ने प्रत्येक वस्तु का ठीक-ठीक ज्ञान जीवों को सुख और शान्ति के निमित्त उपदेश किया है । प्रश्न- परमात्मा ने किस प्रकार जीवों को ज्ञान का उपदेश किया है और वह ज्ञान कौन-सा है ? उत्तर- वह ज्ञान वेदों मे है, जिसमें जीव को मुक्ति लाभ के निमित्त परमात्मा ने उपदेश किया है । प्रश्न- निराकार परमात्मा विशेष कर वेदों की रचना और उसका किस प्रकार उपदेश कर सकता है ? उपदेश करना वाणी से ही होता है और जिसके वाणी न हो, वह किस प्रकार उपदेश कर सकता है ? यद्यपि किसी-किसी अवसर पर शरीर और इन्द्रियादि से भी उपदेश किया जा सकता है; परन्तु जिसके शरीर ही न हो, वह किस प्रकार उपदेश कर सकता है ? अतः निराकार का वेदों के द्वारा उपदेश करना सर्वथा असम्भव है । उत्तर- शरीर और जिह्वा तो केवल बारहवालों को उपदेश हेतुक आवश्यक है । परन्तु जो हमारे भीतर है वह हमको तो बिना शरीर और जिह्वा के ही उपदेश कर सकता है । जैसे, जब किसी मनुष्य का मन बुरे कार्य की ओर जाता है, तो आत्मा उससे भय, लज्जा और शंका उत्पन्न कराके रोकने का उपदेश करती है अर्थात् यह विचार उत्पन्न होता कि सम्भव है कि यदि कोई देख ले तो क्या न हो जाय और सफलता हो अथवा न हो । अतः जो सबके भीतर विद्यमान है, उसको उपदेश करने के लिये शरीर धारण की आवश्यकता नही । प्रश्न- निराकार बिना शरीर के जगत् को कैसे बना सकता है, क्योंकि हर एक वस्तु के बनाने के लिये हाथ-पाँव की आवश्यकता है । यदि हाथ-पाँव और साधन (यंत्र) न हों, तो यह नाना प्रकार का जगत् किस प्रकार बन सकता है ? उत्तर- हाथ-पाँव या यंत्र की आवश्यकता भी एकदेशी को होती है, जो सर्वव्यापक हो, उसे हाथ-पाँव आदि किसी भी अंग की आवश्यकता नहीं । पेड़ो पर भिन्न-भिन्न प्रकार की चित्रकारी हाथ-पाँव के बिना बन जाती है, फूलों की पंखुडियाँ, फूलो का रूप, मनुष्य का शरीर, संक्षेपतः लाखो वस्तुएँ बिना हाथ-पाँव के ही तो बनी है, जिससे प्रतीत होता है कि बिना हाथ-पाँव के उसके द्वारा बनना संभव है । केवल एकदेशी जीवात्मा को हाथ-पाँव की आवश्यकता होती है, सर्वव्यापक परमात्मा को बनाने के लिये हाथ-पाँव आदि किसी साधन की आवश्यकता नहीं । इसके सिवाय हाथ-पाँव वाला सब कामों को कर भी नही सकता, क्योंकि कोई ऐसा मनुष्य दिखाई नही देता, जो परमाणु को पकड़ सके और न इस समय तक कोई ऐसा यंत्र आविष्कार ही हुआ विद्यमान है कि जिसके द्वारा परमाणु को पकड़ सके । परमाणु के देखने-योग्य भी कोई सूक्ष्मदर्शक यंत्र इस समय तक नहीं बना, जिससे प्रतीत होता है कि सृष्टि कर्ता वही हो सकता है कि जिसके हाथ-पाँव और शरीर न हों, किन्तु वह परमाणु से भी अधिक सूक्ष्म और सर्वव्यापी हो ।
आचार्य राजवीर शास्त्री
पदार्थः—(सः) परमात्मा (परि) सर्वतः (अगात्) व्याप्तोऽस्ति (शुक्रम्) आशुकरं=सर्वशक्तिमत् (अकायम्) स्थूलसूक्ष्मकारणशरीररहितम् (अव्रणम्) अच्छिद्रमच्छेद्यम् (अस्नाविरम्) नाड्यादिसम्बन्धबन्धरहितम् (शुद्धम्) अविद्यादिदोषरहितत्वात्सदा पवित्रम् (अपापविद्धम्) यत् पापयुक्तं पापकारि पापप्रियं कदाचिन्न भवति तत् (कविः) सर्वज्ञ (मनीषी) सर्वेषां जीवानां मनोवृत्तीनां वेत्ता (परिभूः) यो दुष्टान् पापिनः परि भवति=तिरस्करोति सः (स्वयम्भूः) अनादिस्वरूपो, यस्य संयोगे- नोत्पत्तिर्वियोगेन विनाशो, मातापितरौ, गर्भवासो, जन्मवृद्धिक्षयौ च न विद्यन्ते (याथातथ्यतः) यथार्थतया (अर्थान्) वेदद्वारा सर्वान् पदार्थान् (वि) विशेषेण (अदधात्) विधत्ते (शाश्वतीभ्यः) सनातनीभ्योऽनादिस्वरूपाभ्यः स्वस्वरूपेणोत्पत्तिविनाशरहिताभ्यः (समाभ्यः) प्रजाभ्यः ॥८॥ अन्वयः—हे मनुष्याः ! यद्ब्रह्म शुक्रमकायमव्रणमस्नाविरं शुद्धमपापविद्धं पर्यगाद्यः कविर्मनीषी परिभूः स्वयम्भूः परमात्मा शाश्वतीभ्यः समाभ्यो याथातथ्यतोऽर्थान् व्यदधात् स एव युष्माभिरुपासनीयः ॥८॥ सपदार्थान्वयः— हे मनुष्याः ! यद् ब्रह्म शुक्रम् आशुकरं सर्वशक्तिमद् अकायं स्थूलसूक्ष्म- कारणशरीररहितम् अव्रणम् अच्छिद्र- मच्छेद्यम् अस्नाविरं नाड्यादि- सम्बन्धबन्धरहितं शुद्धम् अविद्यादि- दोषरहितत्वात्सदा पवित्रम् अपापविद्धं यत् पापयुक्तं पापकारि पापप्रियं कदाचिन्न भवति तत् परि+अगात् सर्वतः व्याप्तोऽस्ति; यः कविः सर्वज्ञः मनीषी सर्वेषां जीवानां मनोवृत्तीनां वेत्ता परिभूः यो दुष्टान्=पापिनः परिभवति=तिरस्करोति सः स्वयम्भूः= परमात्मा अनादिस्वरूपो यस्य संयोगे- नोत्पत्तिर्वियोगेन विनाशो माता-पितरौ, गर्भवासो, जन्मवृद्धिक्षयौ च न विद्यन्ते शाश्वतीभ्यः सनातनीभ्योऽनादि- स्वरूपाभ्यः स्वस्वरूपेणोत्पत्ति-विनाशरहिताभ्यः समाभ्यः प्रजाभ्यः याथातथ्यतः यथार्थतया अर्थान् वेदद्वारा सर्वान् पदार्थान् वि+अदधात् विशेषेण विधत्ते । सः परमात्मा एव युष्माभिरुपासनीयः ॥४०।८॥ भाषार्थ—हे मनुष्यो ! जो ब्रह्म (शुक्रम्) शीघ्रकारी, सर्वशक्ति- मान् (अकायम्) स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीर से रहित है, (अव्रणम्) छिद्र रहित एवं जिसके दो टुकड़े नहीं हो सकते, (अस्नाविरम्) नाड़ी आदि के बन्धन से रहित है, (शुद्धम्) अविद्या आदि दोषों से रहित होने से सदा पवित्र है, (अपापविद्धम्) जो कभी भी पाप से युक्त, पाप करने वाला और पाप से प्रेम करने वाला नहीं है, वह (परि+अगात्) सर्वत्र व्यापक है; जो (कविः) सर्वज्ञ, (मनीषी) सब जीवों की मनोवृत्तियों को जानने वाला, (परिभूः) दुष्ट पापियों का तिरस्कार करने वाला, (स्वयम्भूः) अनादिस्वरूप वाला, जिसकी संयोग से उत्पत्ति और वियोग से विनाश नहीं होता, जिसके माता-पिता कोई नहीं और जिसका गर्भवास, जन्म, वृद्धि और क्षय नहीं होते हैं, वह परमात्मा (शाश्वतीभ्यः) सनातन, अनादि स्वरूप वाली, अपने स्वरूप की दृष्टि से उत्पत्ति और विनाश से रहित (समाभ्यः) प्रजा के लिए (याथातथ्यतः) यथार्थता से (अर्थान्) वेद के द्वारा सब पदार्थों का (व्यदधात्) अच्छी तरह से उपदेश करता है । (सः) वह परमात्मा ही तुम्हारे लिए उपासना करने योग्य है ॥४०।८॥ भावार्थः—हे मनुष्याः ! यद्यनन्तशक्तिमदजं, निरन्तरं, सदामुक्तं, न्यायकारिणं निर्मलं, सर्वज्ञं, सर्वस्य साक्षि, नियन्तृ, अनादिस्वरूपं ब्रह्म कल्पादौ जीवेभ्यः स्वोक्तैर्वेदैः शब्दार्थ-सम्बन्धविज्ञापिकां विद्यां नोपदिशेत्तर्हि कोऽपि विद्वान् न भवेत्; न च धर्मार्थकाममोक्षफलं प्राप्तुं शक्नुयात् । तस्मादिदमेव सदैवोपा- ध्वम् ॥४०।८॥ भावार्थ—हे मनुष्यो ! यदि अनन्त शक्तिशाली, अजन्मा, अखण्ड, सदा से मुक्त, न्यायकारी, पापरहित, सर्वज्ञ, सब का द्रष्टा, नियन्ता और अनादिस्वरूप वाला ब्रह्म सृष्टि के आदि में स्वयं प्रोक्त वेदों के द्वारा शब्द, अर्थ और सम्बन्ध को बतलाने वाली विद्या का उपदेश न करे तो कोई भी विद्वान् न बन सके; और न धर्म, अर्थ काम, मोक्ष रूप फल को प्राप्त कर सके। इसलिए इस ब्रह्म की उपासना सदा करो ॥४०।८॥ भा॰ पदार्थः—शुक्रम्=अनन्तशक्तिमत् (ब्रह्म) । अकायम्=अजम् (ब्रह्म) । अव्रणम्=निरन्तरं (अखण्डम्) । अस्नाविरम्=सदा मुक्तम् । शुद्धम्=निर्मलम् । अपापविद्धम्=न्यायकारि । मनीषी=सर्वस्य साक्षी । परिभूः=नियन्तृ । स्वयम्भूः=अनादिस्वरूपं (ब्रह्म) । समाभ्यः=जीवेभ्यः । अर्थान्=स्वोक्तैर्वेदैः शब्दार्थसम्बन्धविज्ञापिकां विद्याम् व्यदधात्=उपदिशेत् ब्रह्म । सः=इदमेव ॥८॥ भाष्यसार—परमेश्वर कैसा है—जो ब्रह्म—शीघ्रकारी, सर्वशक्तिमान्, स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीर से रहित, छिद्र रहित एवं अखण्ड, नाड़ी आदि के बन्धन से रहित, अविद्यादि दोषों से रहित होने से सदा पवित्र या जो कभी पापयुक्त, पापकारी और पापप्रिय नहीं है; वह सर्वत्र व्यापक है । वह सर्वज्ञ, सब जीवों की मनोवृत्तियों का ज्ञाता, दुष्ट पापी जनों का तिरस्कार करने वाला, स्वयम्भू अर्थात् अनादि है, उसकी संयोग से उत्पत्ति और वियोग से विनाश नहीं होता । उसके माता-पिता कोई नहीं । वह कभी गर्भवास नहीं करता । वह जन्म, वृद्धि और क्षय से रहित है । अनन्त शक्ति वाला, अज, निरन्तर, सदा मुक्त, न्यायकारी, निर्मल, सर्वज्ञ, सब का साक्षी, नियन्ता, अनादि स्वरूप ब्रह्म—सृष्टि के आदि में सनातन, अनादि स्वरूप, अपने स्वरूप से उत्पत्ति और विनाश से रहित जीवों के लिए यथार्थ रूप में वेद के द्वारा सब पदार्थों का उपदेश करता है । यदि ब्रह्म स्वयं प्रोक्त वेदों के द्वारा शब्द, अर्थ, सम्बन्ध की विज्ञापक विद्या का उपदेश न करे तो कोई भी मनुष्य विद्वान् न हो सके और न कोई धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष रूप फल को प्राप्त कर सके । अतः सब मनुष्य मन्त्रोक्त ब्रह्म की ही उपासना करें ॥४०।८॥ अन्यत्र व्याख्यात—(क) ‘स पर्यगाच्छु०’ ॥ ईश्वर की स्तुति—वह परमात्मा सब में व्यापक, शीघ्रकारी और अनन्त बलवान् जो शुद्ध, सर्वज्ञ, सब का अन्तर्यामी, सर्वोपरि विराजमान, सनातन, स्वयं सिद्ध परमेश्वर अपनी जीवरूप सनातन अनादि प्रजा को अपनी सनातन विद्या से यथावत् अर्थों का बोध वेद द्वारा कराता है । यह सगुण स्तुति अर्थात् जिस-जिस गुण सहित परमेश्वर की स्तुति करना वह सगुण; (अकाय) अर्थात् वह कभी शरीर धारण वा जन्म नहीं लेता, जिसमें छिद्र नहीं होता, नाड़ी आदि के बन्धन में नहीं आता और कभी पापाचरण नहीं करता, जिसमें क्लेश, दुःख, अज्ञान कभी नहीं होता; इत्यादि जिस-जिस राग, द्वेषादि गुण से पृथक् मानकर परमेश्वर की स्तुति करना है, वह निर्गुण स्तुति है । इससे अपने गुण, कर्म, स्वभाव भी करना, जैसे वह न्यायकारी है तो आप भी न्यायकारी होवे, और जो केवल भांड के समान परमेश्वर के गुण-कीर्तन करता जाता है और अपने चरित्र नहीं सुधारता उसका स्तुति करना व्यर्थ है ॥ (सत्यार्थप्रकाश सप्तम समुल्लास) (ख) स्वयम्भूर्याथातथ्यतोऽर्थान् व्यदधाच्छाश्वतीभ्यः समाभ्यः (यजु० ४०।८) ॥ जो स्वयम्भू, सर्वव्यापक, शुद्ध, सनातन, निराकार परमेश्वर है वह सनातन जीव रूप प्रजा के कल्याणार्थ यथावत् रीतिपूर्वक वेद द्वारा सब विद्याओं का उपदेश करता है । (सत्यार्थप्रकाश, सप्तम समु०) (ग)—“शाश्वतीभ्यः समाभ्यः” (अर्थात् अनादि सनातन जीवरूप प्रजा के लिए वेद द्वारा परमात्मा ने सब विद्याओं का बोध किया है । (सत्यार्थप्रकाश, अष्टम समुल्लास) (घ)—“अज एकपात्” “अकायम्” इत्यादि विशेषणों से परमेश्वर को जन्म, मरण और शरीर धारण रहित वेदों में कहा है । (सत्यार्थप्रकाश, एकादश समुल्लास) (ङ)—“स पर्यगाच्छु०” जो परमेश्वर—(कविः) सब का जानने वाला, (मनीषी) सब के मन का साक्षी, (परिभूः) सब के ऊपर विराजमान और (स्वयम्भूः) अनादि स्वरूप है, जो अपनी अनादि स्वरूप प्रजा को अन्तर्यामी रूप से और वेद के द्वारा सब व्यवहारों का उपदेश किया करता है । (स पर्यगात्) सो सब में व्यापक (शुक्रम्) अत्यन्त पराक्रम वाला, (अकायं) सब प्रकार के शरीर से रहित (अव्रणं) कटना और सब रोगों से रहित (अस्नाविरं) नाड़ी आदि के बन्धन से पृथक्, (शुद्धं) सब दोषों से अलग और (अपापविद्धं) सब पापों से न्यारा इत्यादि लक्षणयुक्त परमात्मा है; वही सब को उपासना के योग्य है । ऐसा ही सब को मानना चाहिए; क्योंकि इस मन्त्र से भी शरीरधारण करके जन्म-मरण होना इत्यादि बातों का निषेध परमेश्वर विषय में पाया ही गया । इससे इसकी पत्थर आदि की मूर्ति बनाकर पूजना किसी प्रमाण वा युक्ति से सिद्ध नहीं हो सकता। (ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, ग्रन्थप्रामाण्याप्रामाण्यविषय) (च)—“स, पर्यगात्” वह परमात्मा आकाश के समान सब जगह में परिपूर्ण (व्यापक) है, “शुक्रम्” सब जगत् का करने वाला वही है “अकायम्” और वह कभी शरीर (अवतार) नहीं धारण करता, क्योंकि वह अखण्ड और अनन्त, निर्विकार है, इससे देहधारण कभी नहीं करता, उससे अधिक कोई पदार्थ नहीं है, इससे ईश्वर का शरीर धारण करना कभी नहीं बन सकता । “अव्रणम्” वह अखण्डैकरस, अच्छेद्य, अभेद्य, निष्कम्प और अचल है इससे अंशांशीभाव भी उसमें नहीं है, क्योंकि उसमें छिद्र किसी प्रकार से नहीं हो सकता, “अस्नाविरम्” नाड़ी आदि का प्रतिबन्ध (निरोध) भी उसका नहीं हो सकता, अतिसूक्ष्म होने से ईश्वर का कोई आवरण नहीं हो सकता, “शुद्धम्” वह परमात्मा सदैव निर्मल अविद्यादि जन्म, मरण, हर्ष, शोक, क्षुधा, तृष्णादि दोषोपाधियों से रहित है, शुद्ध की उपासना करने वाला शुद्ध ही होता है और मलिन का उपासक मलिन ही होता है, “अपापविद्धम्” परमात्मा कभी अन्याय नहीं करता क्योंकि वह सदैव न्यायकारी ही है, “कविः” त्रैकालज्ञ (सर्ववित्) महाविद्वान् जिसकी विद्या का अन्त कोई कभी नहीं ले सकता, “मनीषी” सब जीवों के मन (विज्ञान) का साक्षी सब के मन का दमन करने वाला है, “परिभूः” सब दिशा और सब जगह में परिपूर्ण हो रहा है, सब के ऊपर विराजमान है, “स्वयम्भूः” जिसका आदिकारण माता, पिता, उत्पादक कोई नहीं किन्तु वही सब का आदिकारण है । “याथातथ्यतोऽर्थान् व्यदधाच्छाश्वतीभ्यः समाभ्यः ।” उस ईश्वर ने अपनी प्रजा को यथावत् सत्य, सत्यविद्या जो चार वेद उनका सब मनुष्यों के परमहितार्थ उपदेश किया है । उस हमारे दयामय पिता परमेश्वर ने बड़ी कृपा से अविद्यान्धकार का नाशक, वेदविद्यारूप सूर्य प्रकाशित किया है और सब का आदिकारण परमात्मा है, ऐसा अवश्य मानना चाहिए । ऐसे विद्यापुस्तक का भी आदिकारण ईश्वर को ही निश्चित मानना चाहिए । विद्या का उपदेश ईश्वर ने अपनी कृपा से किया है, क्योंकि हम लोगों के लिए उसने सब पदार्थों का दान दिया है तो विद्यादान क्यों न करेगा ? सर्वोत्कृष्ट विद्यापदार्थ का दान परमात्मा ने अवश्य किया है तो वेद के विना अन्य कोई पुस्तक संसार में ईश्वरोक्त नहीं है । जैसा पूर्ण विद्यावान् और न्यायकारी ईश्वर है वैसा ही वेद पुस्तक भी है । अन्य कोई पुस्तक ईश्वरकृत वेदतुल्य वा अधिक नहीं है । अधिक विचार इस विषय का “सत्यार्थप्रकाश” और “ऋग्वेदादि- भाष्यभूमिका” मेरे किये ग्रन्थों में देख लेना । (आर्याभिविनय २।२) समीक्षा—ईशावास्योपनिषत् के आठवें मन्त्र में परमात्मा के स्वरूप का वर्णन किया गया है । शङ्कराचार्य तथा स्वामी दयानन्द, दोनों के भाष्यों में परमात्मा के स्वरूप के विषय में प्रायः समानता है । जैसे— मन्त्रगत पद महर्षि दयानन्दकृत पदार्थ श्रीशंकराचार्यकृत पदार्थ सः परमात्मा आत्मा पर्यगात् सर्वतो व्याप्तोऽस्ति समन्ताद् गतवान् आकाशवद् व्यापी शुक्रम् सर्वशक्तिमत् शुद्धं ज्योतिष्मद्दीप्तिमान् अकायम् स्थूलसूक्ष्मकारणशरीररहितम् अशरीरो लिङ्गशरीरवर्जितः अव्रणम् अच्छिद्रमछेद्यम् अक्षतम् अस्नाविरम् नाड्यादिसम्बन्धरहितम् स्नावाः शिरा यस्मिन् विद्यन्ते, अव्रणमस्नाविरमित्याभ्यां स्थूलशरीरप्रतिषेधः । शुद्धम् अविद्यादिदोषरहितत्वात् निर्मलविद्यामलरहितम् इति सदा पवित्रम् कारणशरीरप्रतिषेधः अपापविद्धम् यत् पापयुक्तं पापकारि धर्माधर्मादिपापवर्जितम् पापप्रियं कदाचिन्न भवति कविः सर्वज्ञः क्रान्तदर्शी सर्वदृक् मनीषी सर्वेषां जीवानां मनोवृत्तीनां मनस ईषिता सर्वज्ञ ईश्वर वेत्ता परिभूः यो दुष्टान् पापिनः परि- सर्वेषामुपरि भवति भवति तिरस्करोति स्वयम्भूः अनादिस्वरूपः यस्य संयोगे- स्वयमेव भवति येषामुपरि नोत्पत्तिर्वियोगेन विनाशो भवति यश्चोपरि स सर्वः मातापितरौ गर्भवासो जन्म- स्वयमेव भवति । वृद्धिक्षयौ च न विद्यन्ते । याथातथ्यतः यथार्थतया यथाभूतकर्मफलसाधनतः अर्थान् वेदद्वारा सर्वान् पदार्थान् कर्त्तव्यपदार्थान् व्यदधात् विशेषेण विधत्ते विहितवान् यथानुरूपं व्यभजद् शाश्वतीभ्यः उत्पत्तिविनाशरहिताभ्यः नित्याभ्यः समाभ्यः प्रजाभ्यः (जीवेभ्यः) संवत्सराख्येभ्यः प्रजापतिभ्यः उपर्युद्धृत दोनों भाष्यकारों के मत में परमात्मा सर्वत्र व्यापक, स्थूलादि त्रिविध शरीर रहित, अविद्यादि दोषों से रहित, सर्वशक्तिमान्, ईशावास्योपनिषद् 75 प्रकाशस्वरूप, अच्छेद्य, सर्वविध पापों से शून्य, सर्वद्रष्टा, सर्वज्ञ, मनोवृत्तियों का ज्ञाता, पापकर्म करने वालों का शासक तथा अनादिस्वरूप अर्थात् उत्पत्तिविनाशरहित है । इस प्रकार परमात्मा के स्वरूप के विषय में दोनों के एकमत होते हुए भी शाङ्कर-भाष्य में निम्न-दोष तथा अद्वैतमत के प्रतिपादन में मिथ्याग्रह किया गया है— मन्त्र में परमात्मा को अविद्यादि दोषरहित होने से ‘शुद्ध’ कहा है। विद्या और अविद्या का सम्बन्ध जीवात्मा से है, भौतिक शरीर से नहीं, किन्तु शाङ्कर-भाष्य में ‘शुद्धम्’ का अर्थ ‘कारण शरीर रहित’ किया है। तीनों प्रकार के शरीर प्रकृति के ही विकार होते हैं । विद्या ज्ञान को कहते हैं, इसका सम्बन्ध अचेतन शरीरों से कैसे सम्भव है । और ‘अपापविद्धम्’ का अर्थ ‘धर्माधर्मादि पाप रहित’ करना भी अनुचित है। क्योंकि अधर्म तो पाप है, इससे परमात्मा रहित है, किन्तु धर्म को पाप नहीं कहा जा सकता । ‘पाप’ शब्द का धर्म और अधर्म दोनों अर्थ कैसे सम्भव हैं? धर्म का श्री शङ्कराचार्य जी क्या स्वरूप मानते हैं, यहां यद्यपि स्पष्ट नहीं किया है, किन्तु कोई भी विद्वान् धर्म शब्द को पापार्थ में प्रयोग नहीं कर सकता । यदि ‘धारणाद् धर्म इत्याहुः’ धर्म का अर्थ किया जाता है तो भी परमात्मा के लिए असङ्गत नहीं होता है, क्योंकि वह समस्त लोक-लोकान्तरों को धारण किए हुए है । सृष्टिरचना, स्थिति और प्रलय करना परमात्मा के धर्म हैं । वह जीवों की भलाई के लिए सृष्टि-रचना करता है, यह उपकार करना धर्म है । उसने जीवों के लिए वेद का उपदेश दिया और वह कर्मानुसार फल प्रदाता है । यह न्यायाचरण धर्म है । अतः परमात्मा को धर्महीन कहना असङ्गत है । ‘परिभूः’ पद का ‘ऊपर होना’ तथा ‘स्वयम्भूः’ पद का ‘स्वयं ही होना’ अर्थ भी त्रुटिपूर्ण है । परमात्मा सर्वत्र व्यापक है, उसका ऊपर नीचे होना अथवा किसी स्थान विशेष में होना कैसे सम्भव है ? यदि भाष्यकार का आशय यह हो कि वह सब से उत्कृष्ट होने से सर्वोपरि है तो भी अद्वैतमत के विरुद्ध है । क्योंकि जब परमात्मा से भिन्न वे किसी अन्य वस्तु को स्वीकार ही नहीं करते तो किसकी अपेक्षा से उसे सर्वोत्कृष्ट कहोगे । और परिपूर्वक ‘भू’ धातु का प्रयोग ‘तिरस्कार’ अर्थ में ही उपयुक्त है । वह परमात्मा कर्म-फल व्यवस्था के अनुसार पापी व्यक्तियों को दण्ड देकर तिरस्कार करता है । 76 उपनिषद्-भाष्य और ‘स्वयम्भूः’ पद की व्याख्या में यह मानना—जिनके ऊपर है, और जो ऊपर है, वह सब स्वयं ही होता है, इसलिए उसे ‘स्वयम्भूः’ कहते हैं । यह कितना पूर्वनिर्धारित मिथ्याग्रह से युक्त तथा मन्त्रार्थ के भी विपरीत अर्थ है । अद्वैतमत वालों की यह मान्यता है कि जीव और प्रकृति की परमार्थ में कोई सत्ता ही नहीं है । वह परमात्मा ही सब प्राणियों में स्वयं ही कार्य कर रहा है । यदि मनुष्यादि के शरीरों में वह परमात्मा ही है तो वह स्थूल, सूक्ष्म तथा कारण शरीरों से रहित कैसे हो सकता है ? मनुष्यादि सब एकदेशी, अल्पज्ञ, पापविद्ध तथा शरीर वाले हैं, यदि यह परमात्मा ही है तो मन्त्रोक्त परमात्मा का सब स्वरूप मिथ्या ही मानना पड़ेगा, मनुष्यादि शरीरों में कार्य करने वाला आत्मा जन्म-मरण वाला तथा शरीरों वाला है, वह परमात्मा कदापि नहीं हो सकता, अतः मन्त्रार्थ में कथित ब्रह्मस्वरूप से शाङ्कर-मन्त्रव्याख्या विपरीत होने से कदापि मान्य नहीं हो सकती । और ‘अर्थान् व्यदधाच्छाश्वतीभ्यः’ के अर्थ में तो श्री शङ्कराचार्य जी ने मिथ्याग्रह की पराकाष्ठा दिखा दी है । क्योंकि इसके सत्यार्थ को स्वीकार करने से उनका अद्वैतवाद सर्वतः धराशायी हो जाता है । इसकी व्याख्या श्री शङ्कराचार्य जी ने यह की है—“उस नित्य ईश्वर ने सर्वज्ञ होने से यथाभूत कर्म, फल और साधन के अनुसार कर्त्तव्यपदार्थों का नित्य रहने वाले संवत्सर नामक प्रजापतियों के लिए विभाग किया ।” ये नित्य संवत्सर नामक प्रजापति कौन हैं ? यह शाङ्कर भाष्य में स्पष्ट नहीं है । किन्तु यदि उनका अभिप्राय काल से है तो उसके ‘शाश्वतीभ्यः’ का विशेषण होने से उसे नित्य मानना पड़ेगा । और काल को नित्य मानने वाले परमात्मा से भिन्न नित्यवस्तु को न मानने से अद्वैतवाद की प्रतिज्ञा का निर्वाह नहीं कर सकते । और संवत्सरादि काल के परिमाण हैं । सूर्य से इनकी गणना होती है। जब सूर्य नहीं रहता, तब संवत्सरादि काल परिमाण कैसे होंगे ? फिर इनको शाश्वत=नित्य कैसे माना जा सकता है ? और यदि यही अर्थ यहां सङ्गति के अनुसार ठीक है तो इन संवत्सरों को चेतन या अचेतन मानना पड़ेगा । वह ईश्वर सर्वज्ञ होने से इनके कर्म-फल के अनुसार कर्तव्यों का विभाग करता है, इसकी सङ्गति संवत्सरों के साथ कैसे सङ्गत होगी ? इनके कर्म क्या हैं? और यह ईश्वर इनको किस रूप में फल देता है ? यथार्थ में इस मिथ्या ईशावास्योपनिषद् 77 व्याख्या का कारण पूर्वाग्रहमात्र ही है क्योंकि एक स्थान पर मिथ्या अर्थ करने पर व्याख्याता उसकी सङ्गति न पाकर सर्वत्र लड़खड़ाता रहता है। शाङ्कर-भाष्य की भी यही दशा है । यद्यपि श्री शङ्कराचार्य जी ने ‘द्वा सुपर्णा सयुजा०’ की व्याख्या में ईश्वर को कर्मफल-प्रदाता और जीवात्मा को भोक्ता स्पष्टरूप में स्वीकार किया है, किन्तु यहां मिथ्याग्रह के कारण सत्यार्थ नहीं कर सके, यह आश्चर्य की बात है । महर्षि दयानन्द कृत व्याख्या में ऐसी विसंगति कहीं भी नहीं है । श्री उव्वट ने इस मन्त्र के ‘अर्थान् व्यदधात्’ पदों की बहुत ही विचित्र व्याख्या की है । वे लिखते हैं—“अर्थात् विहितवान्’ त्यक्त- स्वस्वामिसम्बन्धैश्चेतनाचेतनैरुपभोगं कृतवान्।” अर्थात् अर्थान् व्यदधात्= पदार्थों को बनाया । उसका तात्पर्य यह है कि स्व-स्वामी सम्बन्ध से रहित चेतन और अचेतन पदार्थों से उपभोग किया ॥ समीक्षा—यहां ‘अर्थान् व्यदधात्’ पदों का जो तात्पर्यार्थ निकाला है, वह सर्वथा अशुद्ध तथा कल्पित है । यहां जो चेतन-अचेतन पदार्थों में स्व-स्वामी सम्बन्ध का निषेध किया है, वह प्रत्यक्ष विरुद्ध है । चेतन प्राणियों का अचेतन पदार्थों के साथ स्व-स्वामी सम्बन्ध प्रत्यक्ष देखा जाता है । प्रत्येक मनुष्य स्वकीय पदार्थों का स्वयं को स्वामी मानता है। क्या यह स्व-स्वामी सम्बन्ध नहीं है ? और ब्रह्म का चेतन-अचेतन पदार्थों से उपभोग करना भी सम्भव नहीं है । जिस ब्रह्म को मन्त्र में ‘अकायम्=शरीररहित’ कहा है, वह विना शरीर के उपभोग कैसे करेगा। और अन्यत्र उपनिषद् में स्पष्ट लिखा है—“अनश्नन्नन्योऽभिचाकशीति” (मुण्डक०) अर्थात् ब्रह्म भोग नहीं करता । अतः श्री उव्वट की व्याख्या प्रमत्त-प्रलाप मात्र ही है । कुछ विद्वानों ने इस मन्त्र के ‘समाभ्यः’ पद में पञ्चमी विभक्ति मानकर ‘अनादिकाल से’ अर्थ किया है । किन्तु कालवाची शब्दों में व्याकरण के नियम से पञ्चमी विभक्ति सर्वत्र नहीं होती । ‘सप्तमी-पञ्चम्यौ कारकमध्ये ।’ (अ० २।३।७) इस पाणिनि के सूत्र से कालवाची शब्दों में पञ्चमी विभक्ति वहां होती है, जहां कालवाची शब्द दो कारक-शक्तियों के मध्य में हो । प्रस्तुत मन्त्र में ‘समाः’ पद का दो कारक शक्तियों से सम्बन्ध नहीं है, प्रत्युत एक कर्तृकारक (ब्रह्म) से ही सम्बन्ध है । अतः यहां पञ्चमी विभक्ति मानकर अर्थ करना व्याकरणशास्त्रीय भूल है ।


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