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कटोरा भर खून (उपन्यास) : देवकीनन्दन खत्री

 कटोरा भर खून (उपन्यास) :

 देवकीनन्दन खत्री


कटोरा भर खून : खंड-1


लोग कहते हैं कि नेकी का बदला नेक और बदी का बदला बद से मिलता. है मगर नहीं, देखो, आज मैं किसी नेक और पतिव्रता स्त्री के साथ बदी किया चाहता हूँ। अगर मैं अपना काम पूरा कर सका तो कल ही राजा का दीवान हो जाऊँगा। फिर कौन कह सकेगा कि बदी करने वाला सुख नहीं भोग सकता या अच्छे आदमियों को दुःख नहीं मिलता ? बस मुझे अपना कलेजा मजबूत कर रखना चाहिये, कहीं ऐसा न हो कि उसकी खूबसूरती और मीठी-मीठी बातें मेरी हिम्मत.. (रुक कर) देखो, कोई आता है !


रात आधी से ज्यादे जा चुकी है। एक तो अंधेरी रात, दूसरे चारों तरफ से घिर आने वाली काली-काली घटा ने मानो पृथ्वी पर स्याह रंग की चादर बिछा दी है। चारों तरफ सन्नाटा छाया हुआ है। तेज हवा के झपेटों से कांपते हुए पत्तों की खड़खड़ाहट के सिवाय और किसी तरह की आवाज़ कानों में नहीं पड़ती।


एक बाग के अन्दर अंगूर की टट्टियों में अपने को छिपाये हुए एक आदमी ऊपर लिखी बातें धीरे-धीरे बुदबुदा रहा है। इस आदमी का रंग-रूप कैसा है, इसका कहना इस समय बहुत ही कठिन है, क्योंकि एक तो उसे अंधेरी रात ने अच्छी तरह छिपा रक्खा है, दूसरे उससे अपने को काले कपड़ों से ढक लिया है, तीसरे अंगूर की घनी पत्तियों ने उसके साथ उसके ऐबों पर भी इस समय पर्दा डाल रक्खा है। जो हो, आगे चल कर तो इसकी अवस्था किसी तरह छिपी न रहेगी, मगर इस समय तो यह बाग के बीचोबीच वाले एक सब्ज बंगले की तरफ देख-देख कर दांत पीस रहा है।


यह मुख्तसर-सा बंगला सुन्दर लताओं से ढका हुआ है और इसके बीचोबीच में जलने वाले एक शमादान की रोशनी साफ दिखला रही है कि यहाँ एक मर्द और एक औरत आपस में कुछ बातें और इशारे कर रहे हैं। यह बंगला बहुत छोटा था, दस-बारह आदमियों से ज्यादे इसमें नहीं बैठ सकते थे। इसकी बनावट अठपहली थी, बैठने के लिए कुर्सीनुमा आठ चबूतरे बने हुए थे, ऊपर बांस की छावनी जिस पर घनी लता चढ़ी हुई थी। बंगले के बीचोबीच एक मोढ़े पर मोमी शमादान जल रहा था। एक तरफ चबूतरे पर ऊदी चिनियांपोत की बनारसी साड़ी पहिरे एक हसीन औरत बैठी हुई थी, जिसकी अवस्था अठारह वर्ष से ज्यादे की न होगी। उसकी खूबसूरती और नजाकत की जहाँ तक तारीफ की जाये थोड़ी है। मगर इस समय उसकी बड़ी-बड़ी रसीली आंखों से गिरे हुए मोती-सरीखे आँसू की बूंदें उसके गुलाबी गालों को तर कर रही थीं। उसकी दोनों नाजुक कलाइयों में स्याह चूड़ियाँ, छन्‍द और जड़ाऊ कड़े पड़े हुए थे, बाएँ हाथ से कमर बन्द और दाहिने हाथ से उस हसीन नौजवान की कलाई पकड़े सिसक-सिसक कर रो रही है, जो उसके सामने खड़ा हसरत-भरी निगाहों से उसके चेहरे की तरफ देख रहा था और जिसके अन्दाज से मालूम होता था कि वह कहीं जाया चाहता है, मगर लाचार है, किसी तरह उन नाजुक हाथों से अपना पल्ला छुड़ा कर भाग नहीं सकता। उस नौजवान की अवस्था पच्चीस वर्ष से ज्यादे की न होगी, खूबसूरती के अतिरिक्त उसके चेहरे से बहादुरी और दिलावरी भी जाहिर हो रही थी। उसके मजबूत और गठीले बदन पर चुस्त बेशकीमती पोशाक बहुत ही भली मालूम होती थी।


औरत : नहीं, मैं जाने न दूँगी।


मर्द : प्यारी ! देखो, तुम मुझे मत रोको, नहीं तो लोग ताना मारेंगे और कहेंगे कि बीरसिह डर गया और एक जालिम डाकू की गिरफ्तारी के लिए जाने से जी चुरा गया। महाराज की आँखों से भी मैं गिर जाऊँगा और मेरी नेकनामी में धब्बा लग जाएगा।


औरत : वह तो ठीक है, मगर क्या लोग यह न कहेंगे कि तारा ने अपने पति को जान-बूझ कर मौत के हवाले कर दिया?


बीर० : अफसोस! तुम वीर-पत्नी होकर ऐसा कहती हो?


तारा : नहीं, नहीं, मैं यह नहीं चाहती कि आपके वीरत्व में धब्बा लगे, बल्कि आपकी बहादुरी की तारीफ लोगों के मुंह से सुन कर मैं प्रसन्न हुआ चाहती हूँ, मगर अफसोस! आप उन बातों को फिर भी भूले जाते हैं, जिनका जिक्र मैं कई दफे कर चुकी हूँ और जिनके सबब से मैं डरती हूँ और चाहती हूँ कि आप अपने साथ मुझे भी ले चल कर इस अन्यायी राजा के हाथ से मेरा धर्म बचावें। इसमें कोई शक नहीं कि उस दुष्ट की नीयत खराब हो रही है और यह भी सबब है कि वह आपको एक ऐसे डाकू के मुकाबले में भेज रहा है जो कभी सामने होकर नहीं लड़ता बल्कि छिप कर लोगों की जान लिया करता है।


बीर० : (कुछ देर तक सोच कर) जहाँ तक मैं समझता हूँ, जब तक तुम्हारे पिता सुजनसिह मौजूद हैं, तुम पर किसी तरह का जुल्म नहीं हो सकता।


तारा : आपका कहना ठीक है, और मुझे अपने पिता पर बहुत-कुछ भरोसा है, मगर जब उस ‘कटोरा-भर खून’ की तरफ ध्यान देती हूँ, जिसे मैंने अपने पिता के हाथ में देखा था तब उनकी तरफ से भी नाउम्मीद हो जाती हूँ और सिवाय इसके कोई दूसरी बात नहीं सूझती कि जहाँ आप रहें मैं आपके साथ रहूँ और जो कुछ आप पर बीते उसमें आधे की हिस्सेदार बनूँ।


बीर० : तुम्हारी बातें मेरे दिल में खुपी जाती हैं और मैं भी यही चाहता हूँ कि यदि महाराज की आज्ञा न भी हो तो भी तुम्हें अपने साथ लेता चलूँ, मगर उन लोगों के तानों से शर्माता और डरता हूँ, जो सिर हिला कर कहेंगे कि ‘लो साहब, बीरसिह जोरू को साथ लेकर लड़ने गये हैं!


तारा : ठीक है, इन्हीं बातों को सोच कर आप मुझ पर ध्यान नहीं देते और मुझे मेरे उस बाप के हवाले किये जाते हैं, जिसके हाथ में उस दिन खून से भरा हुआ चाँदी का कटोरा.. (काँप कर) हाय हाय! जब वह बात याद आती है, कलेजा काँप उठता है, बेचारी कैसी खूबसूरत.. ओफ ! !


बीर० : ओफ! बड़ा ही गजब है, वह खून तो कभी भूलने वाला नहीं—मगर अब हो भी तो क्या हो ? तुम्हारे पिता लाचार थे, किसी तरह इनकार नहीं कर सकते थे ! (कुछ सोच कर) हाँ खूब याद आया, अच्छा सुनो, एक तरकीब सूझी है।


यह कह कर बीरसिंह तारा के पास बैठ गए और धीरे-धीरे बातें करने लगे।


उधर अंगूर की टट्टियों में छिपा हुआ वह आदमी, जिसके बारे में हम इस बयान के शुरू में लिख आए हैं, इन्हीं दोनों की तरफ एकटक देख रहा था। यकायक पत्तों की खड़खड़ाहट और पैर की आहट ने उसे चौंका दिया। वह होशियार हो गया और पीछे फिर कर देखने लगा, एक आदमी को अपने पास आते देख धीरे-से बोला, “कौन है, सुजनसिह?” इसके जवाब में “हाँ” की आवाज आई और सुजनसिह उस आदमी के पास जाकर धीरे-से बोला, “भाई रामदास, अगर तुम मुझे यहाँ से चले जाने की आज्ञा दे देते तो मैं जन्म-भर तुम्हारा अहसान मानता!”


रामदास : कभी नहीं, कभी नहीं !


सुजन० : तो क्या मुझे अपने हाथ से अपनी लड़की तारा का खून करना पड़ेगा?


रामदास : बेशक, अगर वह मंजूर न करेगी तो।


सुजन० : नहीं नहीं, ऐसा कैसे हो सकता है! अभी से मेरा हाथ काँप रहा है और कटार गिरी पड़ती है।


रामदास : झख मार के तुम्हें ऐसा करना होगा!


सुजन० : मेरे हाथों की ताकत तो अभी से जा चुकी है, मैं कुछ न कर सकूँगा।


रामदास : तो क्या वह ‘कटोरा-भर खून” वाली बात मुझे याद दिलानी पड़ेगी?


सुजन० : (काँप कर) ओफ! गजब है!! (रामदास के पैरों पर गिर कर) बस-बस, माफ करो, अब फिर उसका नाम न लो। मैं करूँगा और बेशक वही करूँगा जो तुम कहोगे। अगर मंजूर न करे तो अपने हाथ से अपनी लड़की तारा को मारने के लिए मैं तैयार हूँ, मगर अब उस बात का नाम न लो! हाय, लाचारी इसे कहते हैं!!


रामदास : अच्छा, अब हम लोगों को यहाँ से निकल कर फाटक की तरफ चलना चाहिए।


सुजन० : जो हुक्म।


राम० : मगर नहीं, क्या जाने ये लोग उधर न जाये। हाँ देखो, वे दोनों उठे। मैं बीरसिह के पीछे जाऊँगा, तारा तुम्हारे हवाले की जाती है।


इधर बंगले में बैठे हुए बीरसिंह और तारा की बातचीत समाप्त हुई। इस जगह हम यह नहीं कहा चाहते कि उन दोनों में चुपके-चुपके क्या बातें हुईं, मगर इतना जरूर कहेंगे कि तारा अब प्रसन्न मालूम होती है, शायद बीरसिह ने कोई बात उसके मतलब की कही हो या जो कुछ तारा चाहती थी उसे उन्होंने मंजूर किया हो !


बीरसिंह और तारा वहाँ से उठे और एक तरफ जाने के लिए तैयार हुए।


बीर० : तो अब मैं तुम्हारी लौंडियों को बुलाता हूँ और तुम्हें उनके हवाले करता हूँ।


तारा : नहीं, मैं आपको फाटक तक पहुँचा कर लौटूँगी, तब उन लोगों से मिलूँगी।


बीर० : जैसी तुम्हारी मर्जी।


हाथ में हाथ दिये दोनों वहाँ से रवाने हुए और बाग के पूरब तरफ, जिधर फाटक था, चले। जब फाटक पर पहुँचे तो बीरसिंह ने तारा से कहा, “बस अब तुम लौट जाओ।”


तारा : अब आप कितनी देर में आवेंगे?


बीर० : मैं नहीं कह सकता मगर पहर-भर के अन्दर आने की आशा कर सकता हूँ।


तारा : अच्छा जाइये मगर महाराज से न मिलियेगा।


बीर० : नहीं, कभी नहीं।


बीरसिह आगे की तरफ रवाना हुआ और तारा भी वहाँ से लौटी, मगर कुछ दूर उसी बंगले की तरफ आकर मुड़ी और दक्खिन तरफ घूमी, जिधर एक संगीन सजी हुई बारहदरी थी और वहाँ आपुस में कुछ बातें करती हुई कई नौजवान औरतें भी थीं जो शायद तारा की लौंडियाँ होंगी।


धीरे-धीरे चलती हुई तारा अंगूर की टट्टी के पास पहुँची। उसी समय उस झाड़ी में से एक आदमी निकला, जिसने लपक कर तारा को मजबूती से पकड़ लिया और उसे जमीन पर पटक छाती पर सवार हो बोला, “बस तारा! तेरे इस समय रोने या चिल्लाने की कोई जरूरत नहीं और न इससे कुछ फायदा है। बिना तेरी जान लिए अब मैं किसी तरह नहीं रह सकता!!”


तारा : (डरी हुई आवाज में) क्या मैं अपने पिता सुजनसिह को आवाज सुन रही हूँ?


सुजन० : हाँ, मैं ही कमबख्त तेरा बाप हूँ।


तारा : पिता! क्या तुम स्वयं मुझे मारने को तैयार हो?


सुजन० : नहीं, मैं स्वयम्‌ तुझे मार कर कोई लाभ नहीं उठा सकता, मगर क्या करूँ, लाचार हूँ .!


तारा: हाय! क्या कोई दुनिया में ऐसा है जो अपने हाथ से अपनी प्यारी लड़की को मारे?


सुजन० : एक अभागा तो मैं ही हूँ तारा! लेकिन अब तू कुछ मत बोल। तेरी प्यारी बातें सुन कर मेरा कलेजा काँपता है, रुलाई गला दबाती है, हाथ से कटार छूटा जाता है। बेटी तारा! बस तू चुप रह, मैं लाचार हूँ ! !


तारा : क्या किसी तरह मेरी जान नहीं बच सकती?


सुजन० : हाँ, बच सकती है अगर तू “हरी” वाली बात मंजूर करे।


तारा : ओफ, ऐसी बुरी बात का मान लेना तो बहुत मुश्किल है! खैर, अगर मैं वह भी मंजूर कर लूँ तो?


सुजन० : तो तू बच सकती है, मगर मैं नहीं चाहता कि तू उस बात को मंजूर करे।


तारा : बेशक, मैं कभी नहीं मंजूर कर सकती, यह तो केवल इतना जानने के लिए बोल बैठी कि देखूँ तुम्हारी क्या राय है?


सुजन० : नहीं, मैं उसे किसी तरह मंजूर नहीं कर सकता बल्कि तेरा मरना मुनासिब समझता हूँ। लेकिन हाय अफसोस! आज मैं कैसा अनर्थ कर रहा हूँ ! !


तारा : पिता, बेशक मेरी जिन्दगी तुम्हारे हाथ में है। क्या और नहीं तो केवल एक दफे किसी के चरणों का दर्शन कर लेने के लिए तुम मुझे छोड़ सकते हो ?


सुजन० : यह भी तेरी भूल है, जिससे तू मिलना चाहती है, वह भी घण्टे-भर के अन्दर ही इस दुनिया से कूच कर जाएगा, अब शायद दूसरी दुनिया में ही तेरी और उसकी मुलाकात हो ! !


तारा : हाय ! अगर ऐसा है तो मैं पति के पहिले ही मरने के लिए तैयार हूँ, बस अब देर मत करो। हैं! पिता! तुम रोते क्यों हो ? अपने को सम्हालो और मेरे मारने में अब देर मत करो ! !


सुजन० : (आंसू पोंछ कर) हाँ हाँ, ऐसा ही होगा, ले अब सम्हल जा ! !


कटोरा भर खून : खंड-2

बीरसिंह तारा से विदा होकर बाग के बाहर निकला और सड़क पर पहुंचा। इस सड़क के किनारे बड़े-बड़े नीम के पेड़ थे, जिनकी डालियों के ऊपर जाकर आपस में मिले रहने के कारण, सड़क पर पूरा अंधेरा था। एक तो अंधेरी रात, दूसरे बदली छाई हुई, तीसरे दुपट्टी घने पेड़ों की छाया ने पूरा अन्धकार कर रक्खा था।


मगर बीरसिंह बराबर कदम बढ़ाये चला जा रहा था। जब बाग की हद से दूर निकल गया तो यकायक पीछे किसी आदमी के आने की आहट पाकर रुका और फिर कर देखने लगा। मगर कुछ मालूम न पड़ा, लाचार पुनः आगे बढ़ा परन्तु चौकन्ना रहा, क्योंकि उसे दुश्मन के पहुंचने और धोखा देने का पूरा गुमान था।


आखिर थोड़ी दूर और आगे बढ़ने पर वैसा ही हुआ। बायें तरफ से झपटता हुआ एक आदमी आया और उसने अपनी तलवार से बीरसिंह का काम तमाम करना चाहा, मगर न हो सका, क्योंकि वह पहिले ही से सम्हला हुआ था। हाँ एक हलका- सा घाव जरूर लगा जिसके साथ ही उसने भी तलवार खेंच कर सामना किया और ललकारा। मगर अफसोस, उसके ललकार की आवाज ने उलटा ही असर किया अर्थात्‌ दो आदमी और निकल आये जो थोड़ी ही दूर पर एक पेड़ की आड़ में छिपे हुए थे। अब तीन आदमियों से उसे मुकाबला करता पड़ा।


बीरसिंह बेशक बहादुर आदमी था तथा उसके अंगों में ताकत के साथ-ही-साथ चुस्ती और फुर्ती भी थी। तलवार, बाँक, पटा और खंजर इत्यादि चलाने में वह पूरा ओस्ताद था। खराब-से-खराब तलवार भी उसके हाथ में पड़कर जौहर दिखाती थी और दो-एक दुश्मन को जमीन पर गिराये बिना न रहती थी।


इस समय उसकी जान लेने पर तीन आदमी मुस्तैद थे। तीनों आदमी तीन तरफ से तलवार चला रहे थे, मगर वह किसी तरह न सहमा और बेधड़क तीनों आदमियों की तलवारों को खाली देता और अपना वार करता था। थोड़ी ही देर में उसकी तलवार से जख्मी होकर एक आदमी जमीन पर गिर पड़ा। अब केवल दो आदमी रह गये पर उनमें से भी एक बहुत ही सुस्त और कमजोर हो रहा था। लाचार वह अपनी जान बचाकर सामने से भाग गया। अब सिर्फ एक आदमी उसके मुकाबले में रह गया। बेशक यह लड़ाका था और इसने आधे घण्टे तक अच्छी तरह से बीरसिंह का मुकाबला किया, बल्कि इसके हाथ से बीरसिंह के बदन पर कई जख्म लगे, मगर आखिर को बीरसिंह के अंतिम वार ने उसका सर धड़ से अलग करके फेंक दिया और वह हाथ-पैर पटकता हुआ जमीन पर दिखाई देने लगा।


अपने दुश्मन के मुकाबले में फतह पाने से बीरसिंह को खुश होना था मगर ऐसा न हुआ। हरारत मिटाने के लिए थोड़ी देर को वह एक पेड़ के नीचे बैठ गया ओर जब दम का फूलना बन्द हुआ तो यह कहता हुआ उठ खड़ा हुआ—“इन्हीं तीनों पर मामला खतम नहीं है, जरूर कोई भारी आफत आने वाली है। अब मैं आगे न बढ़ूँगा, बल्कि लौट चलूँगा, कहीं ऐसा न हो कि मेरी तरह बेचारी तारा को भी दुश्मनों ने घेर लिया हो !”


बीरसिंह जिधर जा रहा था, उधर न गया बल्कि तारा से मिलने के लिए फिर उसी बाग की तरफ लौटा, जहाँ से रवाना हुआ था। थोड़ी ही देर में वह बाग के अन्दर जा पहुँचा और तब सीधे उस बारह॒दरी में चला गया, जिसमें तारा की लौंडियाँ और सखियां बैठी आपस में बातें कर रही थीं। बीरसिंह को आते देख सब उठ खड़ी हुईं और तारा को उसके साथ न देख कर उसकी एक सखी ने पूछा, “मेरी तारा बहिन को कहाँ छोड़ा?”


बीर० : उसी से मिलने के लिए तो मैं आया हूँ, मुझे विश्वास था कि वह इसी जगह होगी।


सखी : वह तो आप के साथ थीं, यहाँ कब आई?


बीर०: अफसोस!


सखी : कुछ समझ में नहीं आता कि क्या मामला हुआ, आपने उन्हें कहाँ छोड़ा?


बीर० : इस समय कुछ कहने का मौका नहीं है, एक रोशनी लेकर मेरे साथ आओ ओर चारों तरफ बाग में खोजो कि वह कहाँ है।


बीरसिंह के यह कहने से उन औरतों में खलबली पड़ गई और वे सब घबड़ा कर इधर-उधर दौड़ने लगीं। दो लौंडियाँ लपक कर एक तरफ गई और जल्दी से दो मशाल जला कर ले आईं, बीरसिंह ने उन दोनों मशाल-वालियों के अतिरिक्त और भी कई लौंडियों को साथ लिया और बाग में चारों तरफ तारा को खोजने लगा मगर उसका कहीं पता न लगा।


बीरसिंह तारा को ढूँढ़ता और घूमता हुआ उसी अंगूर की टट्टी के पास पहुँचा और एकाएक जमीन पर एक लाश देख कर चौंक पड़ा। उसे विश्वास हो गया कि यह तारा की लाश है। बीरसिंह को रुकते देख लौंडियों ने मशाल को आगे किया और वह बड़े गौर से उस लाश की तरफ देखने लगा।


बीरसिंह ने समझ लिया था कि यह तारा की लाश है, मगर नहीं, वह तो एक कमसिन लड़के की लाश थी, जिसकी उम्र दस वर्ष से ज्यादे की न होगी। लाश का सिर न था जिससे पहिचाना जाता कि कौन है, मगर बदन के कपड़े बेशकीमती थे, हाथ में हीरे का जड़ाऊ कड़ा पड़ा हुआ था; उंगलियों में कई अंगूठियाँ भी थीं, गर्दन के नीचे जमीन पर गिरी हुई मोती की एक माला भी मौजूद थी।


बीर० : चाहे इसका सिर मौजूद न हो मगर गहने और कपड़े की तरफ खयाल करके मैं कह सकता हूँ कि यह हमारे महाराज के छोटे लड़के सूरज सिंह की लाश है।


एक लौंडी : यह क्या हुआ ? कुंअर साहब यहाँ क्योंकर आये और उन्हें किसने मारा?


बीर० : कोई गजब हो गया है, अब किसी तरह हम लोगों की जान नहीं बच सकती। जिस समय महाराज को खबर होगी कि कुंअर साहब की लाद बीरसिंह के बाग में पाई गई तो बेशक मैं खूनी ठहराया जाऊंगा। मेरी बेकसूरी किसी तरह साबित नहीं हो सकेगी और दुश्मनों को भी बात बढ़ाने और दुःख देने का मौका मिल जायेगा। हाय ! अब हमारे साथ हमारे रिश्तेदार लोग भी फांसी दे दिये जायेंगे। हे ईश्वर । धर्म पथ पर चलने का क्या यही बदला है ! !


अपनी-अपनी जान की फिक्र सभी को होती है, चाहे भाई-बन्द, रिश्तेदार हों या नौकर, समय पर काम आवे वही आदमी है, वही रिश्तेदार है, और वही भाई है। कुंअर साहब की लाश देख और बीरसिंह को आफत में फंसा जान धीरे-धीरे लौंडियों ने खिसकना शुरू किया, कई तो तारा को खोजने का बहाना करके चली गईं, कई ‘देखें इधर कोई छिपा तो नहीं है” कहकर आड़ में हो गई और मौका पा अपने घर में जा छिपी, और कोई बिना कुछ कहे चीख मार कर सामने से हट गईं और पीछा देकर भाग गई।


अगर किसी दूसरे की लाश होती तो शायद किसी तरह बचने की उम्मीद भी होती मगर यहाँ तो महाराज के लड़के की लाश थी—नामालूम इसके लिए कितने आदमी मारे जाएंगे, ऐसे मौके पर मालिक का साथ देना बड़े जीवट का काम है। हाँ, अगर मर्दों की मण्डली होती तो शायद दो-एक आदमी रह भी जाते मगर औरतों का इतना बड़ा कलेजा कहाँ? अब उस लाश के पास केवल बेचारा बीरसिंह रह गया। वह आधे घण्टे तक उस जगह खड़ा कुछ सोचता रहा, आखिर उस लाश को उठा कर उस तरफ चला, जिधर के दरख्त बहुत ही घने और गुंजान थे और जिधर लोगों की आमदरफ्त बहुत कम होती थी।


बीरसिंह ने उस गुंजान और भयानक जगह पर पहुंच कर उस लाश को एक जगह रख दिया और वहाँ से लौट कर उस तरफ गया, जिधर मालियों के रहने के लिए एक कच्चा मकान फूस की छावनी का बना हुआ था। अब बिजली चमकने और छोटी-छोटी बूंदें भी पड़ने लगीं।


बीरसिंह एक माली की झोपड़ी में पहुँचा। माली को गहरी नींद में पाया। एक तरफ कोने में दो-तीन कुदाल और फरसे पड़े हुए थे। बीरसिंह ने एक कुदाल उठा लिया और फिर उस जगह गया जहाँ लाश छोड़ आया था। इस समय तक वर्षा अच्छी तरह होने लगी थी और चारों तरफ अन्धकारमय हो रहा था। कभी-कभी बिजली चमकती थी तो जमीन दिखाई दे जाती, नहीं तो एक पैर भी आगे रखना मुश्किल था।


बीरसिंह को उस लाश का पता लगाना कठिन हो गया, जिसे उस जगह रख गया था। वह चाहता था कि उस लाश के पास पहुंच कर कुदाल से जमीन खोदे ओर जहाँ तक जल्द हो सके उसे जमीन में गाड़ दे, मगर न हो सका, क्योंकि इस अंधेरी रात में हजार ढूँढ़ने और सर पटकने पर भी वह लाश न मिली। जब-जब बिजली चमकती, वह उस निशान को अच्छी तरह पहिचानता, जिसके पास उस लाश को छोड़ गया था मगर ताज्जुब की बात थी कि लाश उसे दिखाई न पड़ी।


पानी ज्यादा बरसने के कारण बीरसिंह को कष्ट उठाना पड़ा, एक तो तारा की फिक्र ने उसे बेकाम कर दिया था दूसरे कुंअर साहब की लाश न पाने से वह अपनी जिन्दगी से भी नाउम्मीद हो गया था और अपने को तारा का पता लगाने लायक नहीं समझता था। बेशक, उसे अपने मालिक महाराज और कुंअर साहब की बहुत मुहब्बत थी, मगर इस समय वह यही चाहता था कि कुंअर साहब की लाश छिपा दी जाये और असल खूनी का पता लगाने के बाद ही यह भेद सभों पर खोला जाये। लेकिन यह न हो सका, क्योंकि कुंअर साहब की लाश जब तक वह कुदाल लेकर आवे इसी बीच में आश्चर्य रूप से गायब हो गई थी।


बीरसिंह हैरान और परेशान उस लाश को चारों तरफ खोज रहा था, पानी से उसकी पोशाक बिल्कुल तर हो रही थी। यकायक बाग के फाटक की तरफ उसे कुछ रोशनी नजर आई और वह उसी तरफ देखने लगा। वह रोशनी भी उसी की तरफ आ रही थी। जब बाग के अन्दर पहुँची, तो मालूम हुआ कि दो मशालों की रोशनी में कई आदमी मोमजामे का छाता लगाये और मशालों को भी छाते की आड़ में लिए बारहदरी की तरफ जा रहे है।


मुनासिब समझ कर बीरसिंह वहाँ से हटा और उन आदमियों के पहिले ही बारहदरी में जा पहुंचा। बारहदरी के पीछे की तरफ तोशेखाना था। वह उसमें चला गया और गीले कपड़े उतार दिये। सूखे कपड़े पहिनने की नौबत नहीं आई थी कि रोशनी लिये वे लोग बारहदरी में आ पहुंचे।


बीरसिंह केवल सूखी धोती पहिर कर उन लोगों के सामने आया। सभी ने झुक कर सलाम किया । इन आदमियों में दो महाराज करनसिंह के मुसाहब थे ओर बाकी के आठ महाराज के खास गुलाम थे। महाराज करनसिंह के यहाँ बीरसिंह की अच्छी इज्जत थी। यही सबब था कि महाराज के मुसाहब लोग भी इनका अदब करते थे। बीरसिंह की इज्जत और मिलनसारी तथा नेकियों का हाल आगे चलकर मालूम होगा।।


बीर० : [दोनों मुसाहबों की तरफ देख कर) आप लोगों को इस समय ऐसे आंधी-तूफान में यहाँ आने की जरूरत क्यों पड़ी?


एक मुसाहब : महाराज ने आपको याद किया है।


बीर० : कुछ सबब भी मालूम है?


मुसाहब : जी हाँ, कुंअर साहब के दुश्मनों की निस्बत सरकार ने कुछ बुरी खबर सुनी है इससे बहुत ही बेचैन हो रहे हैं।


बीर० : ( चौंक कर ) बुरी खबर? सो क्या?


मुसाहब : (ऊँची सांस लेकर) यही कि उनकी जिन्दगी शायद नहीं रही।


बीर० : (कांप कर) क्या ऐसी बात है?


मुसाहब : जी हाँ।


बीर० : मैं अभी चलता हूँ।


कपड़े पहिरने के लिए बीरसिंह तोशेखाने में गया । इस समय यहाँ कोई भी लौंडी मौजूद न थी जो कुछ काम करती। बीरसिंह की परेशानी का हाल लिखना इस किस्से को व्यर्थ बढ़ाना है। तो भी पाठक लोग ऊपर का हाल पढ़ कर जरूर समझ गये होंगे कि उसके लिए यह‌ समय कैसा कठिन और भयानक था। बेचारे को इतनी मोहलत भी न मिली कि अपनी स्त्री तारा का पता तो लगा लेता, जिसे वह अपनी जान से भी ज्यादे चाहता और मानता था।


बीरसिंह कपड़े पहिर कर महाराज के मुसाहबों और आदमियों के साथ रवाना हुआ। इस समय पानी का बरसना बिल्कुल बन्द हो गया था और रात एक पहर से भी कम रह गई थी। बीरसिंह खास महल की तरफ जा रहा था मगर तरह-तरह के खयालों ने उसे अपने आपे से बाहर कर रक्खा था अर्थात्‌ वह अपने विचारों में ऐसा लीन हो रहा था कि तन-बदन की सुध न थी, केवल मशाल की रोशनी में महाराज के आदमियों के पीछे चले जाने की खबर थी।


बीरसिंह कभी तो तारा के खयाल में डूब जाता और सोचने लगता कि वह यकायक कहाँ गायब हो गई या किस आफत में फंस गई? और कभी उसका ध्यान कुंअर साहब की लाश की तरफ जाता और जो-जो ताज्जुब की बातें हो चुकी थीं, उन्हें याद कर और उनके नतीजे के साथ अपने और अपने रिश्तेदारों पर भी आफत आई हुई जान उसका मजबूत कलेजा कांप जाता, क्योंकि बदनामी के साथ अपनी जान देना वह बहुत ही बुरा समझता था और लड़ाई में वीरता दिखाने के समय वह अपनी जान की कुछ भी कदर नहीं करता था। इसी के साथ-साथ वह जमाने की चालबाजियों पर भी ध्यान देता था और अपनी लौंडियों की बेमुरौवती याद कर क्रोध के मारे दांत पीसने लगता था। कभी-कभी वह इस बात को भी सोचता कि आज महाराज ने इतने आदमियों को भेजकर मुझे क्यों बुलवाया ?


इस काम के लिये तो एक अदना नौकर काफी था। खैर इस बात का तो यों जवाब देकर अपने दिल को समझा देता कि इस समय महाराज पर आफत आई हुई है, बेटे के गम में उनका मिजाज बदल गया होगा, घबराहट के मारे बुलाने के लिए इतने आदमियों को उन्होंने भेजा होगा।


इन्हीं सब बातों को सोचते हुए महाराज के आदमियों के पीछे-पीछे बीरसिंह जा रहा था। जब उस अंगूर की टट्टी के पास पहुंचा जिसका जिक्र कई दफे ऊपर आ चुका है या जिस जगह अपने निर्दयी बाप के हाथ में बेचारी तारा ने अपनी जान सौंप दी थी या जिस जगह कुंअर सूरज सिंह की लाश पाई गई थी तो यकायक दोनों मशालची रुके और चौंक कर बोले, “हैं! देखिए तो सही यह किसकी लाश है?”


इस आवाज ने सभी को चौंका दिया। दोनों मुसाहबों के साथ बीरसिंह भी आगे बढ़ा और पटरी पर एक लाश पड़ी हुई देख ताज्जुब करने लगा ! चाहे यह लाश बिना सिर की थी, तो भी बीरसिंह के साथ-ही-साथ महाराज के आदमियों ने भी पहिचान लिया कि कुंअर साहब की लाश है। अब बीरसिंह के ताज्जुब का कोई ठिकाना न रहा, क्योंकि इसी लाश को उठा कर वह गाड़ने के लिए एकान्त में ले गया था और जब माली की झोंपड़ी में से कुदाल लेकर आया तो वहाँ से गायब पाया था। देर तक ढूँढने पर भी जो लाश उसे न मिली, अब यकायक उसी लाश को फिर उसी ठिकाने देखता है, जहाँ पहिले देखा था या जहाँ से उठा कर गाड़ने के लिए एकान्त में ले गया था।


महाराज के आदमियों ने इस लाश को देख कर रोना और चिल्लाना शुरू किया। खूब ही गुल-शोर मचा। अपनी-अपनी झोंपड़ियों में बेखबर सोए हुए माली भी सब जाग पड़े और उसी जगह पहुंच कर रोने और चिल्लाने में शरीक हुए।


थोड़ी देर तक वहाँ हाहाकार मचा रहा, इसके बाद बीरसिंह ने अपने दोनों हाथों पर उस लाश को उठा लिया तथा रोता और आंसू गिराता महाराज की तरफ रवाना हुआ।


कटोरा भर खून : खंड-3

आसमान पर सुबह की सुफेदी छा चुकी थी जब लाश लिए हुए बीरसिंह किले में पहुंचा । वह अपने हाथों पर कुंअर साहब की लाश उठाये हुए था। किले के अन्दर की रिआया तो आराम में थी, केवल थोड़े-से बुड्ढे, जिन्हें खांसी ने तंग कर रक्खा था, जाग रहे थे और इस उद्योग में थे कि किसी तरह बलगम निकल जाए और उनकी जान को चैन मिले। हाँ, सरकारी आदमियों में कुछ घबराहट-सी फैली हुई थी और वे लोग राह में जैसे-जैसे बीरसिंह मिलते जाते उसके साथ होते जाते थे, यहाँ तक कि दीवानखाने की ड्योढ़ी पर पहुँचते-पहुँचते पचास आदमियों की भीड़ बीरसिंह के साथ हो गई, मगर जिस समय उसने दीवानखाने के अन्दर पैर रक्खा, आठ-दस आदमियों से ज्यादा न रहे। कुंअर साहब की मौत की खबर यकायक चारों तरफ फल गई और इसलिए बात-की-बात में वह किला मातम का रूप हो गया और चारों तरफ हाहाकार मच गया।


दीवानखाने में अभी तक महाराज करनसिंह गद्दी पर बैठे हुए थे । दो-तीन दीवारगीरों में रोशनी हो रही थी, सामने दो मोमी शमादान जल रहे थे। बीरसिंह तेजी के साथ कदम बढ़ाते हुए महाराज के सामने जा पहुंचा और कुंअर साहब की लाश आगे रख अपने सर पर दुहत्थड़ मार रोने लगा।


जैसे ही महाराज की निगाह उस लाश पर पड़ी उनकी तो अजब हालत हो गई। नजर पड़ते ही पहिचान गए कि यह लाश उनके छोटे लड़के सूरजसिह की है। महाराज के रंज और गम का कोई ठिकाना न रहा। वे फूट-फूट कर रोने लगे और उनके साथ-साथ और लोग भी हाय-हाय करके रोने और सर पीटने लगे।


हम उस समय के गम की हालत और महल में रानियों की दशा को अच्छी तरह लिख कर लेख को व्यर्थ बढ़ाना नहीं चाहते, केवल इतना लिख देना बहुत होगा कि घण्टे-भर दिन चढ़ने तक सिवाय रोने-धोने के महाराज का ध्यान इस तरफ नहीं गया कि कुंअर साहब की मौत का सबब पूछें या यह मालूम करें कि उनकी लाश कहाँ पाई गई। आखिर महाराज ने अपने दिल को मजबूत किया और कुंअर साहब की मौत के बारे में बीरसिंह से बातचीत करने लगे।


महा० : हाय, मेरे प्यारे लड़के को किसने मारा?


बीर० : महाराज, अभी तक यह नहीं मालूम हुआ कि यह अनर्थ किसने किया।


महाराज ने उन दोनों मुसाहबों में से एक की तरफ देखा जो बीरसिंह को लेने के लिए खिदमतगारों के साथ बाग में गए थे।


महा० : क्यों हरीसिंह, तुम्हें कुछ मालूम है?


हरी० : जी कुछ भी नहीं, हाँ इतना जानता हूँ कि जब हुक्म के मुताबिक हम लोग बीरसिंह को बुलाने गये तो इन्हें घर न पाया, लाचार पानी बरसते ही में इनके बाग में पहुँचे और इन्हें वहाँ पाया। उस समय ये नंगे बदन हम लोगों के सामने आये। इनका बदन गीला था, इससे मुझे मालूम हो गया कि ये कहीं पानी में भीग रहे थे और कपड़े बदलने को ही थे कि हम लोग जा पहुँचे। खैर, हम लोगों ने सरकारी हुक्म सुनाया और ये भी जल्द कपड़े पहिन हम लोगों के साथ हुए। उस समय पानी का बरसना बिल्कुल बन्द था। जब हम लोग बाग के बीचोबीच अंगूर की टट्टियों के पास पहुँचे तो यकायक इस लाश पर नजर पड़ी।


महा० : (कुछ सोच कर) हम कह तो नहीं सकते, क्योंकि चारों तरफ लोगों में बीरसिंह नेक, ईमानदार और रहमदिल मशहूर हैं, मगर जैसाकि तुम बयान करते हो अगर ठीक है तो हमें बीरसिंह के ऊपर शक होता है !


हरी० : ताबेदार की क्या मजाल कि महाराज के सामने झूठ बोले! बीरसिंह मौजूद हैं, पूछ लिया जाये कि मैं कहाँ तक सच्चा हूँ।


बीर० : (हाथ जोड़कर) हरीसिंह ने जो कुछ कहा, वह बिल्कुल सच है—मगर महाराज, यह कब हो सकता है कि मैं अपने अन्नदाता और ईश्वर-तुल्य मालिक पर इतना बड़ा जुल्म करूँ!


महा० : शायद ऐसा ही हो, मगर यह तो कहो कि मैंने तुमको एक मुहिम पर जाने के लिए हुक्म दिया था और ताकीद कर दी थी कि आधी रात बीतने के पहिले ही यहाँ से रवाना हो जाना, फिर क्या सबब है कि तीन पहर बीत जाने पर भी तुम अपने बाग ही में मौजूद रहे और तिस पर भी वैसी हालत में जैसा कि हरीसिंह ने बयान किया? इसमें कोई भेद जरूर है!


बीर० : इसका सबब केवल इतना ही है कि बेचारी तारा के ऊपर एक आफत आ गई और वह किसी दुश्मन के हाथ में पड़ गई, मैं उसी को चारों तरफ ढूंढ़ रहा था, इसी में देर हो गई। जब तक मैं ढूँढ़ता रहा, पानी बरसता रहा, इसी से मेरे कपड़े भी गीले हो गए और मैं उस हालत में पाया गया जैसाकि हरीसिंह ने बयान किया है।


महा० : ये सब बातें बिल्कुल फजूल हैं। अगर तारा का गायब हो जाना ठीक है तो यह कोई ताज्जुब की बात नहीं, क्योंकि वह बदकार औरत है, बेशक, किसी के साथ कहीं चली गई होगी और उसका ऐसा करना तुम्हारे लिए एक बहाना हाथ लगा।


‘तारा बदकार औरत है’ यह बात बीरसिंह को गोली के समान लगी क्योंकि वे खूब जानते थे कि तारा पतिव्रता है और उन पर उसका प्रेम सच्चा है। मारे क्रोध के बीरसिंह की आँखें लाल हो गईं और बदन काँपने लगा, मगर इस समय क्रोध करना सभ्यता के बाहर जान चुप हो रहें और अपने को सँभाल कर बोले :


बीर० : महाराज, तारा के विषय में ऐसा कहना अनर्थ करना है!


हरी० : महाराज ने जो कुछ कहा, ठीक है ! (महाराज की तरफ देखकर ) बीरसिंह पर शक करने का ताबेदार को और भी मौका मिला है।


महा० : वह क्या?


हरी० : कुंवर साहब जिन तीन आदमियों के साथ यहाँ से गये थे उनमें से दो आदमियों को बीरसिंह ने जान से मार डाला और सिर्फ एक भाग कर बच गया। जब हम लोग बीरसिंह को बुलाने के लिये उनके बाग की तरफ जा रहे ये उस समय यह हाल उसी की जुबानी मालूम हुआ था। इस समय वह आदमी भी जिसका नाम रामदास है, ड्यौढ़ी पर मौजूद है।


महा० : हा ! क्या ऐसी बात है?


हरी० : मैं महाराज के कदमों की कसम खाकर कहता हूँ कि यह हाल खुद रामदास ने मुझसे कहा है।


जिस समय हरीसिंह ये बातें कह रहा था, महाराज की निगाह कुंअर साहब की लाश पर थी। यकायक कलेजे में कोई चीज नजर आई, महाराज ने हाथ बढ़ा- कर देखा तो मालूम हुआ, छुरी का मुट्ठा है, जिसका फल बिलकुल कलेजे के अन्दर घुसा हुआ था। महाराज ने छुरी को निकाल लिया और पोंछ कर देखा। कब्जे पर ‘राजकुमार बीरसिंह’ खुदा हुआ था।


अब महाराज की हालत बिलकुल बदल गई, शोक के बदले क्रोध की निशानी उनके चेहरे पर दिखाई देने लगी और होंठ काँपने लगे। बीरसिंह ने चौंक कर कहा, “बेशक, यह मेरी छुरी है, आज कई दिन हो गये, चोरी गई थी। मैं इसकी खोज में था मगर पता नहीं लगता था।“


महा० : बस, चुप रह नालायक! अब तू किसी तरह अपनी बेकसूरी साबित नहीं कर सकता! हाय, क्या इसी दिन के लिए मैंने तुझे पाला था? अब मैं इस समय तेरी बातें नहीं सुनना चाहता! (दरवाजे की तरफ देख कर) कोई है? इस हरामजादे को अभी ले जाकर कैदखाने में बन्द करो, हम अपने हाथ से इसका और इसके रिश्तेदारों का सिर काट कर कलेजा ठंडा करेंगे! (हरीसिंह की तरफ देख कर) तुम सौ सिपाहियों को लेकर जाओ, इस कम्बखत का घर घेर लो और सब औरत-मर्दों को गिरफ्तार करके कैदखाने में डाल दो।


फौरन महाराज के हुक्म की तामील की गई और महाराज उठकर महल में चले गये।


कटोरा भर खून : खंड-4

ऊपर लिखी वारदात के तीसरे दिन आधी रात के समय बीरसिंह के बाग में उसी अंगूर की टट्टी के पास एक लंबे कद का आदमी स्याह कपड़े पहिरे इधर-से-उधर टहल रहा है। आज इस बाग में रौनक नहीं, बारहदरी में लौंडियों और सखियों की चहल-पहल नहीं, सजावट को तो जाने दीजिये, कहीं एक चिराग तक नहीं जलता; मालियों की झोंपड़ी में भी अंधेरा पड़ा है। बल्कि यों कहता चाहिए कि चारों तरफ सन्नाटा छाया हुआ है। वह लंबे कद का आदमी अंगूर की टट्टियों से लेकर बारहदरी और उसके पीछे तोशेखाने तक जाता है और लौट आता है मगर अपने को हर तरह छिपाये हुए है, जरा-सा भी खटका होने से या एक पते के भी खड़कने से वह चौकन्ना हो जाता हैं और अपने को किसी पेड़ या झाड़ी की आड़ में छिपा कर देखने लगता है!


इस आदमी को टहलते हुए दो घण्टे बीत गये, मगर कुछ मालूम न हुआ कि वह किस नीयत से चक्कर लगा रहा है या किस धुन में पड़ा हुआ है। थोड़ी देर और बीत जाने पर बाग में एक आदमी के आने की आहट मालूम हुई। लंबे कद वाला आदमी एक पेड़ की आड़ में छिप कर देखने लगा कि यह कौन है और किस काम के लिए आया है।


वह आदमी जो अभी आया है सीधे बारहदरी में चला गया! कुछ देर तक वहाँ ठहर कर पीछे वाले तोशेखाने में गया और ताला खोलकर तोशेखाने के अन्दर घुस गया। थोड़ी देर बाद एक छोटा-सा डिब्बा हाथ में लिए हुए निकला और ताला बन्द करके बाग के बाहर की तरफ चला। वह थोड़ी ही दूर गया था के उस लंबे कद के आदमी ने जो पहिले ही से घात में लगा हुआ था, पास पहुँच कर पीछे से उसके दोनों बाजू मजबूत पकड़ लिये और इस जोर से झटका दिया कि वह सम्हल न सका और जमीन पर गिर पड़ा। लंबे कद का आदमी उसकी छाती पर चढ़ बैठा और बोला, “सच बता, तू कौन है, तेरा क्या नाम है, यहाँ क्यों आया, और क्या लिये जाता है?”


यकायक जमीन पर गिर पड़ने और अपने को बेबस पाने से वह आदमी बदहवास हो गया और सवाल का जवाब न दे सका। उस लंबे कद के आदमी ने एक घूँसा उसके मुँह पर जमा कर फिर कहा, “जो कुछ मैंने पूछा है उसका जवाब जल्द दे, नहीं तो अभी गला दबा कर तुझे मार डालूँगा!”


आखिर लाचार हो और अपनी मौत छाती पर सवार जान उसने जवाब दिया: “मैं बीरसिंह का नौकर हूँ, मेरा नाम श्यामलाल है, मुझे मालिक ने अपनी मोहर लाने के लिए यहाँ भेजा था, सो लिए जाता हूँ। मैंने कोई कसूर नहीं किया, मालूम नहीं आप मुझे क्यों….”


इससे ज्यादे वह कहने नहीं पाया था कि उस लंबे कद के आदमी ने एक घूँसा और उसके मुँह पर जमा कर कहा, “हरामजादे के बच्चे, अभी कहता है कि मैंने कोई कसूर नहीं किया! मुझी से झूठ बोलता है? जानता नहीं, मैं कौन हूँ? ठीक॑ है, तू क्योंकर जान सकता है कि मैं कौन हूँ? अगर जानता तो मुझसे झूठ कभी न बोलता। मैं बोली ही से तुझे पहिचान गया कि तू बीरसिंह का आदमी नहीं है, बल्कि उस बेईमान राजा करनसिंह का नौकर है, जो एक भारी जुल्म और अँधेर करने पर उतारू हुआ है। तेरा नाम बच्चनसिंह है। मैं तुझे इस झूठ बोलने की सजा देता और जान से मार डालता, मगर नहीं, तेरी जुबानी उस बेईमान राजा को एक संदेशा कहला भेजना है, इसलिए छोड़ देता हूँ। सुन और ध्यान देकर सुन, मेरा ही नाम नाहरसिंह है, मेरे ही डर से तेरे राजा की जान सूखी जाती है, मेरे ही नाम से यह हरिपुर शहर काँप रहा है, और मुझी को गिरफ्तार करने के लिए तेरे बेईमान राजा ने बीरसिंह को हुक्म दिया था, लेकिन वह जाने भी न पाया था कि बेचारे को झूठा इल्जाम लगाकर गिरफ्तार कर लिया! ( मोहर का डिब्बा बच्चनसिंह के हाथ से छीन कर) राजा से कह दीजियो कि मोहर का डिब्बा नाहरसिंह ने छीन लिया, तू नाहरसिंह को गिरफ्तार करने के लिए वृथा ही फौज भेज रहा है। न मालूम तेरी फौज कहाँ जाएगी और किस जगह ढूंढ़ेगी, वह तो हर दम इसी शहर में रहता है, देख सम्हल बैठ, अब तेरी मौत आ पहुँची, यह न समझियो कि कटोरा भर खून का हाल नाहरसिंह को मालूम नहीं है ! !


बच्चन० : कटोरा भर खून कैसा?


नाहर० : (एक मुक्का और जमाकर) ऐसा, तुझे पूछने से मतलब? जो मैं कहता हूँ, जाकर कह दे और यह भी कह दीजियो कि अगर बन पड़ा और फुरसत मिली तो आज के आठवें दिन सनीचर को तुझसे मिलूँगा। बस जा! हाँ, एक बात और याद आई, कह दीजियो कि जरा कुंअर साहब को अच्छी तरह बन्द करके रक्खें, जिसमें भण्डा न फूटे ! !


नाहरसिंह डाकू ने बच्चन को छोड़ दिया और मोहर का डिब्बा लेकर न-मालूम कहाँ चला गया। नाहरसिंह के नाम से बच्चन यहाँ तक डर गया था कि उसके चले जाने के बाद भी घण्टे-भर तक वह अपने होश में न आया। बच्चन क्या, इस हरिपुर में कोई भी ऐसा नहीं था जो नाहरसिंह डाकू का नाम सुनकर काँप न जाता हो।


थोड़ी देर बाद जब बच्चनसिंह के होश-हवास दुरुस्त हुए, वहाँ से उठा और राजमहल की तरफ रवाना हुआ। राजमहल यहाँ से बहुत दूर न था तो भी आध कोस से कम न होगा। दो घण्टे से भी कम रात बाकी होगी, जब बच्चनसिंह राजमहल की कई ड्योढ़ियाँ लांघता हुआ दीवानखाने में पहुँचा और महाराज करनसिंह के सामने जाकर हाथ जोड़ खड़ा हो गया। इस सजे हुए दीवानखाने में मामूली रोशनी हो रही थी, महाराज किमखाब की ऊँची गद्दी पर, जिसके चारों तरफ मोतियों की झालर लगी हुई थी, विराज रहे थे, दो मुसाहब उनके दोनों तरफ बैठे थे, सामने कलम-दवात-कागज और कई बन्द कागज के लिखे हुए और सादे भी मौजूद थे।


इस जगह पर पाठक कहेंगे कि महाराज का लड़का मारा गया है, इस समय वह सूतक में होंगे, महाराज पर कोई निशानी गम की क्यों नहीं दिखाई पड़ती?


इसके जवाब में इतना जरूर कह देना मुनासिब है कि पहिले जो गद्दी का मालिक होता था, प्रायः वह मुर्दे को आग नहीं देता था और न स्वयं क्रिया-कर्म करने वालों की तरह सिर मुंडा अलग बैठता था, अब भी कई रजवाड़ों में ऐसा ही दस्तूर चला आता है। इसके अतिरिक्त यहाँ तो कुंअर साहब के मरने का मामला ही विचित्र था, जिसका हाल आगे चलकर मालूम होगा।


बच्चन ने रुक कर सलाम किया और हाथ जोड़ सामने खड़ा हो गया। नाहरसिंह डाकू के ध्यान से डर के सारे वह अभी तक काँप रहा था।


महा० : मोहर लाया?


बच्चन० : जी.. लाया तो था.. .. मगर राह में नाहरसिंह डाकू ने छीन लिया।


महा० : (चौंक कर) नाहरसिंह डाकू ने?


बच्चन० : जी हाँ।


महा० : क्या वह आज इसी शहर में आया हुआ है?


बच्चन० : जी हाँ, बीरसिंह के बाग में ही मुझे मिला था।


महा० : साफ-साफ कह जा, क्या हुआ?


बच्चन ने बीरसिंह के तोशेखाने से मोहर लेकर चलने का और उसी बाग में नाहरसिंह के मिलने का हाल पूरा-पूरा कहा। जब बह संदेशा कहा, जो डाकू ने महाराज को दिया था, तो थोड़ी देर के लिए महाराज चुप हो गए और कुछ सोचने लगे, आखिर एक ऊँची सांस लेकर बोले—


महा० : यह शैतान डाकू न-मालूम क्यों मेरे पीछे पड़ा हुआ, है और किसी तरह गिरफ्तार भी नहीं होता। मुझे बीरसिंह की तरफ से छुट्टी मिल जाती तो कोई-न-कोई तरकीब उसके गिरफ्तार करने की जरूर करता। कुछ समझ में नहीं आता कि मेरी उन कार्रवाइयों का पता उसे क्योंकर लग जाता है, जिन्हें मैं बड़ी होशियारी से छिपा कर करता हूँ। (हरीसिंह की तरफ देख कर) क्यों हरीसिंह, तुम इस बारे में कुछ कह सकते हो?


हरी० : महाराज! उसकी बातों में अक्ल कुछ भी काम नहीं करती! मैं क्या कहूँ?


महा० : अफसोस! अगर मेरी रिआया बीरसिंह से मुहब्बत न रखती, तो मैं उसे एकदम मार कर ही बखेड़ा तय कर देता, मगर जब तक बीरसिंह जीता है, मैं किसी तरह निश्चिंत नहीं हो सकता। खैर, अब तो बीरसिंह पर एक भारी इल्जाम लग चुका है, परसों मैं आम दरबार करूँगा। रिआया के सामने बीरसिंह को दोषी ठहरा कर फाँसी दूँगा, फिर उस डाकू से समझ लूँगा, आखिर वह हरामजादा है क्या चीज!


महाराज ने आखिरी शब्द कहा ही था कि दरवाजे की तरफ से यह आवाज आई, “बेशक, वह डाकू कोई चीज नहीं है, मगर एक भूत है, जो हरदम तेरे साथ रहता हैं और तेरा सब हाल जानता है, देख इस समय यहाँ भी आ पहुँचा!”


यह आवाज सुनते ही महाराज काँप उठे, मगर उनकी हिम्मत और दिलाबरी ने उन्हें उस हालत में देर तक रहने न दिया; म्यान से तलवार खैंच कर दरवाजे की तरफ बढ़े, दोनों मुलाजिम लाचार साथ हुए, मगर दरवाजे में बिलकुल अंधेरा था, इसलिए आगे बढ़ने की हिम्मत न हुई, आखिर यह कहते हुए पीछे लौटे कि ‘नालायक ने अंधेरा कर दिया!


कटोरा भर खून : खंड-5

बेचारे बीरसिंह कैदखाने में पड़े सड़ रहे हैं। रात की बात ही निराली है, इस भयानक कैदखाने में दिन को भी अंधेरा ही रहता है; यह कैदखाना एक तहखाने के तौर पर बना हुआ है, जिसके चारों तरफ की दीवारें पक्की और मजबूत हैं। किले से एक मील की दूरी पर जो कैदखाना था और जिनमें दोषी कैद किए जाते थे, उसी के बीचोबीच यह तहखाना था, जिसमें बीरसिंह कैद थे। लोगों में इसका नाम ‘आफत का घर’ मशहूर था। इसमें वे ही कैदी कैद किए जाते थे, जो फाँसी देने के योग्य समझे जाते या बहुत ही कष्ट देकर मारने योग्य ठहराये जाते थे। इस कैदखाने के दरवाजे पर पचास सिपाहियों का पहरा पड़ा करता था।


नीचे उतरकर तहखाने में जाने के लिए पाँच मजबूत दरवाजे थे और हर एक दरवाजे में मजबूत ताला लगा रहता था। इस तहखाने में न-मालूम कितने कैदी सिसक-सिसक कर मर चुके थे। आज बेचारे बीरसिंह को भी हम इसी भयानक तहखाने में देखते हैं। इस समय इनकी अवस्था बहुत ही नाजुक हो रही है। अपनी बेकसूरी के साथ-ही-साथ बेचारी तारा की जुदाई का गम और उसके मिलने की नाउम्मीदी इन्हें मौत का पैगाम दे रही है। इसके अतिरिक्त न-मालूम और कैसे-कैसे खयालात इनके दिल में काँटे की तरह खटक रहे हैं। तहखाना बिलकुल अन्धकारमय है, हाथ को हाथ नहीं सूझता और यह भी नहीं मालूम होता कि दरवाजा किस तरफ है और दीवार कहाँ है?


इस जगह कैद हुए इन्हें आज चौथा दिन है। इस बीच में केवल थोड़ा-सा सूखा चना खाने के लिए और गरम जल पीने के लिए इन्हें मिला था, मगर बीरसिंह ने उसे छुआ तक नहीं और एक लम्बी साँस लेकर लौटा दिया था। इस समय गर्मी के मारे दुखित हो तरह-तरह की बातों को सोचते हुए बेचारे बीरसिंह, जमीन पर पड़े, ईश्वर से प्रार्थना कर रहे हैं। यह भी नहीं मालूम कि इस समय दिन है या रात।


यकायक दीवार की तरफ कुछ खटके की आवाज हुई, यह चैतन्य होकर उठ बैठे और सोचने लगे कि शायद कोई सिपाही हमारे लिए अन्न या जल लेकर आता है–मगर नहीं, थोड़ी ही देर में कई दफे आवाज आने से इन्हें गुमान हुआ, शायद कोई आदमी इस तहखाने की दीवार तोड़ रहा है या सेंध लगा रहा है।


आखिर उनका सोचना सही निकला और थोड़ी देर बाद दीवार के दूसरी तरफ रोशनी नजर आई। साफ मालूम हुआ कि बगल वाली दीवार तोड़ कर किसी ने दो हाथ के पेटे का रास्ता बना लिया है। अभी तक उन्हें इस बात का गुमान भी न था कि उनसे मिलने के लिए कोई आदमी इस तरह दीवार तोड़ कर आवेगा। उस सेंध के रास्ते हाथ में रोशनी लिए एक लम्बे कद का आदमी स्याह पोशाक पहिरे मुँह पर नकाब डाले उनके सामने आ खड़ा हुआ और बोला :


आदमी : मैं तुम्हें छुड़ाने के लिए यहाँ आया हूँ, उठो और मेरे साथ यहाँ से निकल चलो।


बीर० : इसके पहिले कि तुम मुझे यहाँ से छुड़ाओ, मैं जानना चाहता हूँ कि तुम्हारा नाम क्या है और मुझ पर मेहरबानी करने का क्या सबब है?


आदमी : इस समय यहाँ पर इसके पूछने की कोई जरूरत नहीं, क्योंकि समय बहुत कम है। यहाँ से निकल चलने पर मैं अपना पता तुम्हें दूँगा, इस समय इतना ही कहे देता हूँ कि तुम्हें बेकसूर समझ कर छुड़ाने के लिए आया हूँ।


बीर० : सब आदमी जानते हैं कि मुझ पर कुंअर साहब का खून साबित हो चुका है, तुम मुझे बेकसूर क्यों समझते हो?


आदमी : मैं खूब जानता हूँ कि तुम बेकसूर हो।


बीर० : खैर, अगर ऐसा भी हो तो यहाँ से छूट कर भी मैं महाराज के हाथ से अपने को क्योंकर बचा सकता हूँ?


आदमी : मैं इसके लिए भी बन्दोबस्त कर चुका हूँ।


बीर० : अगर तुमने मेरे लिए इतनी तकलीफ उठाई है तो क्या मेहरबानी करके इसका बन्दोबस्त भी कर सकोगे कि निर्दोषी बन कर लोगों को अपना मुँह दिखाऊँ और कुँअर साहब का खूनी गिरफ्तार हो जाये? क्योंकि यहाँ से निकल भागने पर लोगों को मुझ पर और भी सन्देह होगा, बल्कि विश्वास हो जाएगा कि जरूर मैंने ही कुँअर साहब को मारा है।


आदमी : तुम हर तरह से निश्चित रहो, इन सब बातों को मैं अच्छी तरह सोच चुका हूँ, बल्कि मैं कह सकता हूँ कि तुम तारा के लिए भी किसी तरह की चिन्ता मत करो।


बीर० : (चौंककर) क्या तुम मेरे लिए ईश्वर होकर आए हो! इस समय तुम्हारी बातें मुझे हद से ज्यादा खुश कर रही हैं!


आदमी : बस इससे ज्यादा मैं कुछ नहीं कहा चाहता ओर हुक्म देता हूँ कि तुम उठो और मेरे पीछे-पीछे आओ।


बीरसिंह उठा और उस आदमी के साथ-साथ सुरंग की राह तहखाने के बाहर हो गया। अब मालूम हुआ कि कैदखाने की दीवारों के नीचे-नीचे से यह सुरंग खोदी गई थी।


बाहर आने के बाद बीरसिंह ने सुरंग के मुहाने पर चार आदमी और मुस्तैद पाये जो उस लम्बे आदमी के साथी थे। ये छः आदमी वहाँ से रवाना हुए और ठीक घण्टे-भर चलने के बाद एक छोटी नदी के किनारे पहुँचे। वहाँ एक छोटी सी डोंगी मौजूद थी, जिस पर आठ आदमी हल्की-हल्की डांड लिए मुस्तैद थे।


अपने साथी के कहे मुताबिक बीरसिंह उस किश्ती पर सवार हुए और किश्ती बहाव की तरफ छोड़ दी गई। अब बीरसिंह को मौका मिला कि अपने साथियों की ओर ध्यान दे और उनकी आकृति को देखे। लंबे कद के आदमी ने अपने चेहरे से नकाब हटाई और कहा, “बीरसिंह ! देखो और मेरी सूरत हमेशा के लिए पहिचान लो!”


बीरसिंह ने उसकी सूरत पर ध्यान दिया। रात बहुत थोड़ी बाकी थी तथा चन्द्रमा भी निकल आया था, इसलिए बीरसिंह को उसको पहिचानने ओर उसके अंगों पर ध्यान देने का पूरा-पूरा मौका मिला।


उस आदमी की उम्र लगभग पैंतीस वर्ष की होगी। उसका रंग गोरा, बदन साफ सुडौल और गठीला था, चेहरा कुछ लंबा, सिर के बाल बहुत छोटे और घुंघराले थे। ललाट चौड़ा, भौंहें काली और बारीक थीं, आँखें बड़ी-बड़ी और नाक लंबी, मूँछ के बाल नर्म मगर ऊपर की तरफ चढ़े हुए थे। उसके दाँतों की पंक्ति भी दुरुस्त थी। उसके दोनों होंठ नर्म मगर नीचे का कुछ मोटा था। उसकी गरदन सुराहीदार और छाती चौड़ी थी। बाँह लम्बी और कलाई मजबूत थी तथा बाजू और पिण्डलियों की तरफ ध्यान देने से बदन कसरती मालूम होता था। हर बातों पर गौर करके हम कह सकते हैं कि वह एक खूबसूरत और बहादुर आदमी था। बीरसिंह को उसकी सूरत दिल से भाई, शायद इस सबब से कि वह बहुत ही खूबसूरत और बहादुर था, बल्कि अवस्था के अनुसार कह सकते हैं कि बीरसिंह की बनिस्बत उसकी खूबसूरती बढ़ी-चढ़ी थी, मगर देखा चाहिए, नाम सुनने पर भी बीरसिंह की मुहब्बत उस पर उतनी ही रहती है या कुछ कम हो जाती है।


बीर० : आपकी नेकी और अहसान की तारीफ मैं कहाँ तक करूँ! आपने मेरे साथ वह बर्ताव किया है जो प्रेमी भाई भाई के साथ करता है, आशा है कि अब आप अपना नाम भी कह कर कृतार्थ करेंगे।


आदमी : (चेहरे पर नकाब डालकर) मेरा नाम नाहरसिंह है।


बीर० : (चौंक कर) नाहरसिंह! जो डाकू के नाम से मशहूर है!


नाहर० : हाँ।


बीर० : (उसके साथियों की तरफ देख कर और उन्हें मजबूत और ताकतवर समझ कर) मगर आपके चेहरे पर कोई भी निशानी ऐसी नहीं पाई जाती, जो आपका डाकू या जालिम होना साबित करे। मैं समझता हूँ कि शायद नाहरसिंह डाकू कोई दूसरा ही आदमी होगा।


नाहर० : नहीं नहीं, वह मैं ही हूँ, मगर सिवाय महाराज के और किसी के लिए मैं बुरा नहीं। महाराज ने तो मेरी गिरफ्तारी का हुक्म दिया था न?


वीर० : ठीक है, मगर इस समय तो मैं ही आपके अधीन हूँ।


नाहर० : ऐसा न समझो; अगर तुम मुझे गिरफ्तार करने के लिए कहीं जाते और मेरा सामना हो जाता, तो भी मैं तुम से आज ही की तरह मिल बैठता। बीरसिंह, तुम यह नहीं जानते कि यह राजा कितना बड़ा शैतान और बदमाश है! बेशक, तुम कहोगे कि उसने तुम्हारी परवरिश की और तुम्हें बेटे की तरह मान कर एक ऊंचा मर्तबा दे रक्खा है, मगर नहीं, उसने अपनी खुशी से तुम्हारे साथ ऐसा बर्ताव नहीं किया, बल्कि मजबूर होकर किया। मैं सच कहता हूँ कि वह तुम्हारा जानी दुश्मन है। इस समय शायद तुम मेरी बात न मानोगे, मगर मैं विश्वास करता हूँ कि थोड़ी ही देर में तुम खुद कहोगे कि जो मैं कहता था, सब ठीक है।


बीर० : (कुछ सोच कर) इसमें तो कोई शक नहीं कि राजाओं में जो-जो बातें होनी चाहिये, वे उसमें नहीं हैं मगर इस बात का कोई सबूत अभी तक नहीं मिला कि उसने मेरे साथ जो कुछ नेकी की, लाचार होकर की।


नाहर० : अफसोस कि तुम उसकी चालाकी को अभी तक नहीं समझे, यद्यपि कुंअर साहब की लाश की बात अभी बिल्कुल ही नई है!


बीर० : कुंअर साहब की लाश से क्या तात्पर्य? मैं नहीं समझा।


नाहर० : खैर, यह भी मालूम हो जाएगा, पर अब मैं तुमसे पूछना चाहता हूँ कि तुम मुझ पर सच्चे दिल से विश्वास कर सकते हो या नहीं? देखो, झूठ मत बोलना, जो कुछ कहना हो साफ-साफ कह दो।


बीर० : बेशक, आज की कार्रवाई ने मुझे आपका गुलाम बना दिया है, मगर में आपको अपना सच्चा दोस्त या भाई उसी समय समझूँगा, जब कोई ऐसी बात दिखला देंगे, जिससे साबित हो जाये कि महाराज मुझसे खुटाई रखते हैं।


नाहर० : बेशक, तुम्हारा यह कहना बहुत ठीक है और जहाँ तक हो सकेगा मैं आज ही साबित कर दूँगा कि महाराज तुम्हारे दुश्मन हैं और स्वयं तुम्हारे ससुर सुजनसिंह के हाथ से तुम्हें तबाह किया चाहते हैं।


बीर०: यह बात आपने और भी ताज्जुब की कही!


जाहर० : इसका सबूत तो तुमको तारा ही से मिल जाएगा। ईश्वर करे, वह अपने बाप के हाथ से जीती बच गई हो!


बीर० : [चौंक कर) अपने बाप के हाथ से?


नाहर०: हाँ, सिवाय सुजनसिह के ऐसा कोई नहीं है, जो तारा की जान ले। तुम नहीं जानते कि तीन आदमियों की जान का भूखा राजा करनसिंह कैसी चालबाजियों से काम निकाला चाहता है।


बीर० : (कुछ सोच कर) आपको इन बातों की खबर क्योंकर लगी? मैंने तो सुना था कि आपका डेरा नेपाल की तराई में है और इसी से आपकी गिरफ्तारी के लिए मुझे वहीं जाने का हुक्म हुआ था!


नाहर० : हाँ, खबर तो ऐसी ही है कि नेपाल की तराई में रहता हूँ मगर नहीं, मेरा ठिकाना कहीं नहीं है और न कोई मुझे गिरफ्तार ही कर सकता है। खैर, यह बताओ, तुम कुछ अपना हाल भी जानते हो कि तुम कौन हो?


बीर० : महाराज की जुबानी मैंने सुना था कि मेरा बाप महाराज का दोस्त था और वह जंगल में डाकुओं के हाथ से मारा गया, महाराज ने दया करके मेरी परवरिश की और मुझे अपने लड़के के समान रक्खा।


नाहर० : झूठ। बिल्कुल झूठ! (किनारे की तरफ देख कर) अब वह जगह बहुत ही पास है, जहाँ हम लोग उतरेंगे।


नाहरसिंह और बीरसिंह में बातचीत होती जाती थी और नाव तीर की तरह बहाव की तरफ जा रही थी, क्योंकि खेने वाले बहुत मजबूत और मुस्तैद आदमी थे। यकायक नाहरसिंह ने नाव रोक कर किनारे की तरफ ले चलने का हुक्म दिया। माँझियों ने वैसा ही किया। किश्ती किनारे लगी और दोनों आदमी जमीन पर उतरे। नाहरसिंह ने एक माँझी की कमर से तलवार लेकर बीरसिंह के हाथ में दी और कहा कि इसे तुम अपने पास रक्खो, शायद जरूरत पड़े। उसी समय नाहरसिंह की निगाह एक बहते हुए घड़े पर पड़ी जो बहाव की तरफ जा रहा था। वह एकटक उसी तरफ देखने लगा। घड़ा बहते-बहते रुका और किनारे की तरफ आता हुआ मालूम पड़ा। नाहरसिंह ने बीरसिंह की तरफ देखकर कहा–“इस घड़े के नीचे कोई बला नजर आती है!


बीर० : बेशक, मेरा ध्यान भी उसी तरफ है, क्या आप उसे गिरफ्तार करेंगे?


नाहर० : अवश्य!


बीर० : कहिये तो मैं किश्ती पर सवार होकर जाऊँ और उसे गिरफ्तार करूँ?


नाहर०: नहीं नहीं, वह किश्ती को अपनी तरफ आते देख निकल भागेगा, देखो, मैं जाता हूँ।


इतना कह कर नाहरसिंह ने कपड़े उतार दिए, केवल उस लंगोट को पहरे रहा जो पहिले से उसकी कमर में था! एक छुरा कमर में लगाया और माँझियों को इशारा कर जल में कूद पड़ा। दूसरे गोते में उस घड़े के पास जा पहुँचा, साथ ही मालूम हुआ कि जल में दो आदमी हाथाबांहीं कर रहे हैं। माँझियों ने तेजी के साथ किश्ती उस जगह पहुँचाई और बात-की-बात में उस आदमी को गिरफ्तार कर लिया जो सर पर घड़ा औंधे अपने को छिपाये हुए जल में बहा जा रहा था।


सब लोग आदमी को किनारे लाये, जहाँ नाहरसिंह ने अच्छी तरह पहिचान कर कहा, “अख्आह, कौन! रामदास! भला बे हरामजादे, खूब छिपा-छिपा फिरता था! अब समझ ले कि तेरी मौत आ गई और तू नाहरसिंह डाकू के हाथ से किसी तरह नहीं बच सकता!”


नाहरसिंह का नाम सुनते ही रामदास के तो होश उड़ गए, मगर नाहरसिंह ने उसे बात करने की भी फुरसत न दी और तुरन्त तलाशी लेना शुरू किया। मोमजामे में लपेटी हुई एक चीठी और खंजर उसकी कमर से निकला, जिसे ले लेने के बाद हाथ-पैर बाँध नाव पर माँझियों को हुक्म दिया, “इसे नाहरगढ़ में ले जाकर कैद करो, हम परसों आवेंगे, तब जो कुछ मुनासिब होगा, किया जायेगा।”


माँझियों ने वैसा ही किया और अब किनारे पर सिर्फ ये ही दोनों आदमी रह गए।


कटोरा भर खून : खंड-6

किनारे पर जब केवल नाहरसिंह और बीरसिंह रह गए तब नाहरसिंह ने वह चीठी पढ़ी, जो रामदास की कमर से निकली थी। उसमें यह लिखा हुआ था:


मेरे प्यारे दोस्त,


अपने लड़के के मारने का इल्जाम लगा कर मैंने बीरसिंह को कैदखाने में भेज दिया। अब एक-ही-दो दिन में उसे फांसी देकर आराम की नींद सोऊँगा। ऐसी अवस्था में मुझे रिआया भी बदनाम न करेगी। बहुत दिनों के बाद यह मौका मेरे हाथ लगा है। अभी तक मुझे मालूम नहीं हुआ कि रिआया बीरसिंह की तरफदारी क्यों करती है और मुझसे राज्य छीन कर बीरसिंह को क्यों दिया चाहती है? जो हो, अब रिआया को भी कुछ कहने का मौका न मिलेगा। हाँ, एक नाहरसिंह डाकू का खटका मुझे बना रह गया, उसके सबब से मैं बहुत ही तंग हूँ। जिस तरह तुमने कृपा करके बीरसिंह से मेरी जान छुड़ाई, आशा है कि उसी तरह से नाहरसिंह की गिरफ्तारी की भी तरकीब बताओगे।


तुम्हारा सच्चा दोस्त,


करनसिंह।


इस चीठी के पढ़ने से बीरसिंह को बड़ा ही ताज्जुब हुआ और उसने नाहरसिंह की तरफ देख कर कहा :


बीर० : अब मुझे निश्चय हो गया कि करनसिंह बड़ा ही बेईमान और हरामजादा आदमी है। अभी तक मैं उसे अपने पिता की जगह समझता था और उसकी मुहब्बत को दिल में जगह दिए रहा। आज तक मैंने उसकी कभी कोई बुराई नहीं की, फिर भी न-मालूम क्यों वह मुझसे दुश्मनी करता है। आज तक मैं उसे अपना हितू समझे हुए था मगर..


नाहर० : तुम्हारा कोई कसूर नहीं, तुम नहीं जानते कि तुम कौन हो, करनसिंह कौन है! जिस समय तुम यह सुनोगे कि तुम्हारे पिता को करनसिंह ने मरवा डाला तो और भी ताज्जुब करोगे और कहोगे कि वह हरामजादा तो कुत्तों से नुचवाने लायक है।


वीर० : मेरे बाप को करनसिंह ने मरवा डाला!


नाहर० : हाँ।


बीर० : वह क्योंकर और किस लिये?


नाहर० : यह किस्सा बहुत बड़ा है, इस समय मैं कह नहीं सकता, देखो, सवेरा हो गया और पूरब तरफ सूर्य की लालिमा निकली आती है। इस समय हम लोगों का यहाँ ठहरना मुनासिब नहीं है। मैं उम्मीद करता हूँ कि तुम मुझे अपना सच्चा दोस्त या भाई समझोगे और मेरे घर चल कर दो-तीन दिन आराम करोगे। इस बीच में जितने छिपे हुए भेद हैं, सब तुम्हें मालूम हो जाएँगे।


बीर० : बेशक, अब मैं आपका भरोसा रखता हूँ, क्योंकि आपने मेरी जान बचाई और बेईमान राजा की बदमाशी से मुझे सचेत किया। अफसोस इतना ही है कि तारा का हाल मुझे कुछ भी मालूम न हुआ।


नाहर० : मैं वादा करता हूँ कि तुम्हें बहुत जल्द तारा से मिलाऊँगा और तुम्हारी उस बहिन से भी तुम्हें मिलाऊँगा, जिसके बदन में सिवाय हड्डी के और कुछ नहीं बच गया है।


बीर० : (ताज्जुब से) क्या मेरी कोई बहिन भी है?


नाहर० : हाँ हैं, मगर अब ज्यादा बातचीत करने का मौका नहीं है। उठो और मेरे साथ चलो, देखो ईश्वर क्या करता है।


बीर० : करनसिंह ने वह चिट्ठी जिसके पास भेजी थी, उसे क्या आप जानते हैं?


नाहर० : हाँ, मैं जानता हूँ, वह भी बड़ा ही हरामजादा और पाजी आदमी है, पर जो भी हो, मेरे हाथ से वह भी नहीं बच सकता।


दोनों आदमी वहाँ से रवाने हुए और लगभग आध कोस जाने के बाद एक पीपल के पेड़ के नीचे पहुँचे, जहाँ दो साईस दो कसे-कसाये घोड़े लिए मौजूद थे। नाहरसिंह ने बीरसिंह से कहा, “अपने साथ तुम्हारी सवारी का भी बन्दोबस्त करके मैं तुम्हें छुड़ाने के लिए गया था, लो इस घोड़े पर सवार हो जाओ और मेरे साथ चलो।”


दोनों आदमी घोड़ों पर सवार हुए और तेजी के साथ नेपाल की तराई की तरफ चल निकले। ये लोग भूखे-प्यासे पहर-भर दिन बाकी रहे तक बराबर घोड़ा फेंके चले गए। इसके बाद एक घने जंगल में पहुँचे और थोड़ी हर तक उससें जाकर एक पुराने खण्डहर के पास पहुँचे। नाहरसिंह ने घोड़े से उतर कर बीरसिंह को भी उतरने के लिए कहा और बताया कि यही हमारा घर है।


यह मकान जो इस समय खण्डहर मालूम होता है, पाँच-छः बिगहे के घेरे में होगा। खराब और बर्बाद हो जाने पर भी अभी तक इसमें सौ-सवा सौ आदमियों के रहने की जगह थी। इसकी मजबूत, चौड़ी और संगीन दीवारों से मालूम होता था कि इसे किसी राजा ने बनवाया होगा और बेशक यह किसी समय में दुलहिन को तरह सजा कर काम में लाया जाता होगा। इसके चारों तरफ की मजबूत दीवारें अभी तक मजबूती के साथ खड़ी थीं, हाँ भीतर की इमारत खराब हो गई थी, तो भी कई कोठरियाँ और दालान दुरुस्त थे, जिनमें इस समय नाहरसिंह और उसके साथी लोग रहा करते थे। बीरसिंह ने यहाँ लगभग पचास बहादुरों को देखा, जो हर तरह से मजबूत और लड़ाके मालूम होते थे।


बीरसिंह को साथ लिए हुए नाहरसिंह उस खण्डहर में घुस गया और अपने खास कमरे में जाकर उन्हें पहर-भर तक आराम करके सफर की हरारत मिटाने के लिए कहा।


कटोरा भर खून : खंड-7

दूसरे दिन शाम को खण्डहर के सामने घास की सब्जी पर बैठे हुए बीरसिंह और नाहरसिंह आपस में बातें कर रहे हैं! सूर्य अस्त हो चुका है, सिर्फ उसकी लालिमा आसमान पर फैली हुई है। हवा के झोंके बादल के छोटे-छोटे टुकड़ों को आसमान पर उड़ाये लिए जा रहे हैं। ठंडी-ठंडी हवा जंगली पत्तों को खड़खड़ाती हुई इन दोनों तक आती और हर खण्ड की दीवार से टक्कर खाकर लौट जाती है। ऊँचे-ऊँचे सलई के पेड़ों पर बैठे हुए मोर आवाज लड़ा रहे हैं और कभी-कभी पपीहे की आवाज भी इन दोनों के कानों तक पहुँच कर समय की खूबी और मौसिम के बहार का सन्‍देशा दे रही है। मगर ये चीजें बीरसिंह और नाहरसिंह को खुश नहीं कर सकतीं। वे दोनों अपनी धुन में न-मालूम कहाँ पहुँचे हुए और क्या सोच रहे हैं।


यकायक बीरसिंह ने चौंक कर नाहरसिंह से पूछा–


बीर० : खैर, जो भी हो, आप उस करनसिंह का किस्सा तो अब अवश्य कहें, जिसके लिए रात वादा किया था।


नाहर० : हाँ, सुनो, मैं कहता हूँ, क्योंकि सबके पहले उस किस्से का कहना ही मुनासिब समझता हूँ।


करनसिंह का किस्सा


पटने का रहने वाला एक छोटा-सा जमींदार, जिसका नाम करनसिंह था, थोड़ी-सी जमींदारी में खुशी के साथ अपनी जिंदगी बिताता और बाल-बच्चों में रह कर सुख भोगता था। उसके दो लड़के और एक लड़की थी। हम उस समय का हाल कहते हैं, जब उसके बड़े लड़के की उम्र बारह वर्ष की थी। इत्तिफाक से दो साल की बरसात बहुत खराब बीती और करनसिंह के जमींदारी की पैदावार बिल्कुल ही मारी गई। राजा की मालगुजारी सिर पर चढ़ गई, जिसके अदा होने की सूरत न बन पड़ी। वहाँ का राजा बहुत ही संगदिल और जालिम था। उसने मालगुजारी में से एक कौड़ी भी माफ न की और न अदा करने के लिए कुछ समय ही दिया। करनसिंह की बिल्कुल जायदाद जब्त कर ली, जिससे वह बेचारा हर तरह से तबाह और बर्बाद हो गया।


करनसिंह का एक गुमाश्ता था, जिसको लोग करनसिंह राठू या कभी-कभी सिर्फ राठू कह कर पुकारते थे। लाचार होकर करनसिंह ने स्त्री का जेवर बेच पाँच सौ रुपये का सामान किया। उसमें से तीन सौ अपनी स्त्री को देकर उसे करनसिंह राठू की हिफाजत में छोड़ा और दो सौ आप लेकर रोजगार की तलाश में पटने से बाहर निकला। उस समय नेपाल की गद्दी पर महाराज नारायणसिंह बिराज रहे थे, जिनकी नेकनामी और रिआयापरवरी की धूम देशान्तर में फैली हुई थी। करनसिंह ने भी नेपाल ही का रास्ता लिया। थोड़े ही दिन में वहाँ पहुँच कर वह दरबार में हाजिर हुआ और पूछने पर उसने अपना सच्चा-सच्चा हाल राजा से कह सुनाया। राजा को उसके हाल पर तरस आया और उसने करनसिंह को मजबूत, ताकतवर और बहादुर समझ कर फौज में भरती कर लिया।


उन दिनों नेपाल की तराई में दो-तीन डाकुओं ने बहुत ही जोर पकड़ रखा था, करनसिंह ने स्वयं उनकी गिरफ्तारी के लिए आज्ञा मांगी, जिससे राजा बहुत ही प्रसन्न हुआ और दो सौ आदमियों को साथ देकर करनसिंह को डाकुओं की गिरफ्तारी के लिए रवाने किया। छ: महीने के अरसे में एकाएकी करके करनसिंह ने तीनों डाकुओं को गिरफ्तार किया, जिससे राजा के यहाँ उसकी इज्जत बहुत बड़ गई और उन्होंने प्रसन्न होकर हरिपुर का इलाका उसे दे दिया, जिसकी आमदनी मालगुजारी देकर चालीस हजार से कम न थी, साथ ही उन्होंने एक आदमी को इस काम के लिए तहसीलदार मुकर्रर करके हरिपुर भेज दिया कि वह वहाँ की आमदनी वसूल करे और मालगुजारी देकर जो कुछ बचे, करनसिंह को दे दिया करे।


अब करनसिंह की इज्जत बहुत बढ़ गई और वह नेपाल की फौज का सेनापति मुकर्रर किया गया। अपने को ऐसे दर्जे पर पहुँचा देख करनसिंह ने पटने से अपनी जोरू और लड़के-लड़कियों को करनसिंह राठू के सहित बुलवा लिया और खुशी से दिन बिताने लगा।


दो वर्ष का जमाना गुजर जाने के बाद तिरहुत के राजा ने बड़ी धूमधाम से नेपाल पर चढ़ाई की जिसका नतीजा यह निकला कि करनसिंह ने बड़ी बहादुरी से लड़कर तिरहुत के राजा को अपनी सरहद के बाहर भगा दिया और उसको ऐसी शिकस्त दी कि उसने नेपाल को कुछ कौड़ी देना मंजूर कर लिया। नेपाल के राजा नारायणसिंह ने प्रसन्न होकर करनसिंह की नौकरी माफ कर दी और पुश्तहापुश्त के लिए हरिपुर का भारी परगना लाखिराज करनसिंह के नाम लिख दिया और एक परवाना तहसीलदार के नाम इस मजमून का लिख दिया कि वह परगने हरिपुर पर करनसिंह को दखल दे दे और खुद नेपाल लौट आवे।


नेपाल से रवाने होने के पहले ही करनसिंह की स्त्री ने बुखार की बीमारी से देह-त्याग कर दिया, लाचार करनसिंह ने अपने दोनों लड़कों और लड़की तथा करनसिंह राठू को साथ ले हरिपुर का रास्ता लिया।


करनसिंह राठू की नीयत बिगड़ गई। उसने चाहा कि अपने मालिक करनसिंह को मार कर राजा नेपाल के दिए परवाने से अपना काम निकाले और खुद हरिपुर का मालिक बन बैठे। उसको इस बात पर भरोसा था कि उसका नाम भी करनसिंह है मगर उम्र में वह करनसिंह से सात वर्ष छोटा था।


करनसिंह राठू को अपनी नीयत पूरी करने में तीन मुश्किलें दिखाई पड़ीं। एक तो यह कि हरिपुर का तहसीलदार अवश्य पहिचान लेगा कि यह करनसिंह सेनापति नहीं है। दूसरे यह करनसिंह सेनापति का लड़का जिसकी उम्र पन्द्रह वर्ष की हो चुकी थी, इस काम में बाधक होगा और नेपाल में खबर कर देगा, जिससे जान बचनी मुश्किल हो जाएगी। तीसरे, खुद करनसिंह की मुस्तैदी से वह और भी काँपता था।


जब करनसिंह रास्ते ही में थे तब ही खबर पहुँची कि हरिपुर का तहसीलदार आ गया । एक दूत यह खबर लेकर नेपाल जा रहा था जो रास्ते में करनसिंह सेनापति से मिला। करनसिंह ने राठू के बहकाने से उसे वहीं रोक लिया और कहा कि अब नेपाल जाने की जरूरत नहीं है।


अब करनसिंह राठू की बदनीयती ने और भी जोर मारा और उसने खुद हरिपुर का मालिक बनने के लिए यह तरकीब सोची कि करनसिंह सेनापति के साथियों को बड़े-बड़े ओहदे और रुपये के लालच से मिला ले और करनसिंह को मय उसके लड़कों और लड़की के किसी जंगल में मारकर अपने ही को करनसिंह सेनापति मशहूर करे और उसी परवाने के जरिये से हरिपुर का मालिक बन बैठे, मगर साथ ही इसके यह भी खयाल हुआ कि करनसिंह के दोनों लड़कों और लड़की के एक साथ मरने की खबर जब नेपाल पहुँचेगी तो शायद वहाँ के राजा को कुछ शक हो जाये। इससे बेहतर यही है कि करनसिंह सेनापति और उसके बड़े लड़के को मार कर अपना काम चलावे और छोटे लड़के और लड़की को अपना लड़का और लड़की बनावे, क्योंकि ये दोनों नादान हैं, इस पेचीले मामले को किसी तरह समझ नहीं सकेंगे और हरिपुर की रिआया भी इनको नहीं पहिचानती, उन्हें तो केवल परवाने और करनसिंह नाम से मतलब है।


आखिर उसने ऐसा ही किया और करनसिंह सेनापति के साथी सहज ही में राठू के साथ मिल गए। करनसिंह राठू ने करनसिंह सेनापति को तो जहर देकर मार डाला और उसके बड़े लड़के को एक भयानक जंगल में पहुँचकर जख्मी करके एक कुएँ में डाल देने के बाद खुद हरिपुर की तरफ रवाना हुआ। रास्ते में उसने बहुत दिन लगाए, जिसमें करनसिंह सेनापति का छोटा लड़का उससे हिल-मिल जाए।


हरिपुर में पहुँच कर उसने सहज ही में वहाँ अपना दखल जमा लिया। करनसिंह सेनापति के लड़के और लड़की को थोड़े दिन तक अपना लड़का और लड़की मशहूर करने के बाद फिर उसने एक दोस्त का लड़का और लड़की मशहूर किया । उसके ऐसा करने से रिआया के दिल में कुछ शक पैदा हुआ मगर वह कुछ कर न सकी क्योंकि करनसिंह साल में पाँच-छ: मर्तबे अच्छे-अच्छे तोहफे नेपाल भेजकर वहाँ के राजा को अपना मेहरबान बनाये रहा। यहाँ तक कि कुछ दिन बाद नेपाल का राजा, जिसने करनसिंह को हरिपुर की सनद दी थी, परलोक सिधारा और उसका भतीजा गद्दी पर बैठा। तब से करनसिंह राठू और भी निश्चिंत हो गया और रिआया पर भी जुल्म करने लगा। वही करनसिंह राठू आज हरिपुर का राजा है, जिसके पंजे में तुम फँसे हुए थे। कहो, ऐसे नालायक राजा के साथ अगर मैं दुश्मनी करता हूँ तो क्या बुरा करता हूँ?


बीर० : (कुछ देर चुप रहने के बाद) बेशक, वह बड़ा मक्कार और हरामजादा है। ऐसों के साथ नेकी करना तो मानो नेकों के साथ बदी करना है ! !


नाहर० : बेशक, ऐसा ही है।


बीर० : मगर आपने यह नहीं कहा कि अब करनसिंह सेनापति के लड़के कहाँ हैं और क्या कर रहे हैं?


नाहर० : क्या इस भेद को भी मैं अभी खोल दूं?


बीर०: हाँ, सुनने को जी चाहता है।


नाहर० : करनसिंह सेनापति के छोटे लड़के तो तुम ही हो मगर तुम्हारी बहिन का हाल नहीं मालूम। पारसाल तक तो उसकी खबर मालूम थी, मगर इधर साल-भर से न-मालूम वह मार डाली गई या कहीं छिपा दी गई।


इतना हाल सुनकर बीरसिंह रोने लगा, यहाँ तक कि उसकी हिचकी बँध गई। नाहरसिंह ने बहुत-कुछ समझाया और दिलासा दिया। थोड़ी देर बाद बीरसिंह ने अपने को संभाला और फिर बातचीत करने लगा।


बीर० : मगर कल आपने कहा था कि तुम्हारी उस बहिन से मिला देंगे, जिसके बदन में सिवाय हड्डी के और कुछ नहीं रह गया है। क्या वह मेरी वही बहिन है, जिसका हाल आप ऊपर के हिस्से में कह गए हैं?


नाहर० : बेशक वही है।


बीर० : फिर आप कैसे कहते हैं कि साल-भर से उसका पता नहीं है?


नाहर० : यह इस सबब से कहता हूँ कि उसका ठीक पता मुझे मालूम नहीं है, उड़ती-सी खबर मिली थी कि वह किले ही के किसी तहखाने में छिपाई गई है और सख्त तकलीफ में पड़ी है। मैं कल किले में जाकर उसी भेद का पता लगाने वाला था, मगर तुम्हारे ऊपर जुल्म होने की खबर पाकर वह काम न कर सका और तुम्हारे छुड़ाने के बन्दोबस्त में लग गया।


बीर० : उसका नाम क्या है?


नाहर० : सुंदरी।


तीर०: तो आपको उम्मीद है कि उसका पत्ता जल्द लग जाएगा?


नाहर० : अवश्य।


बीर० : अच्छा, अब मुझे एक बात और पूछना है।


नाहर० : वह क्या?


बीर० : आप हम लोगों पर इतनी मेहरबानी क्यों कर रहे हैं और हम लोगों के सबब राजा के दुश्मन क्यों बन बैठे हैं?


नाहर० : (कुछ सोचकर ) खैर, इस भेद को भी छिपाए रहना अब मुनासिब नहीं है। उठो, मैं तुम्हें अपने गले लगाऊँगा तो कहूँ।(बीरसिंह को गले गला कर) तुम्हारा बड़ा भाई मैं ही हूँ, जिसे राठू ने जख्मी करके कुएं में डाल दिया था! ईश्वर ने मेरी जान बचाई और एक सौदागर के काफिले को वहाँ पहुँचाया, जिसने मुझे कुएँ से निकाला। असल में मेरा नाम विजयसिंह है। राजा से बदला लेने के लिए इस ढंग से रहता हूँ। मैं डाकू नहीं हूँ और सिवाय राजा के किसी को दुःख भी नहीं देता, केवल उसी की दौलत लूट कर अपना गुजारा करना हूँ।


बीरसिंह को भाई के मिलने की खुशी हद से ज्यादा हुई और घड़ी-घड़ी उठ कर कई दफे उन्हें गले लगाया। थोड़ी देर और बातचीत करने के बाद वे दोनों उठ कर खंडहर में चले गए और अब क्या करता चाहिए यह सोचने लगे।


कटोरा भर खून (उपन्यास) : देवकीनन्दन खत्री

कटोरा भर खून : खंड-8

घटाटोप अंधेरी छाई हुई है, रात आधी से ज्यादा जा चुकी है, बादल गरज रहे हैं, बिजली चमक रही है, मूसलाधार पानी बरस रहा है, सड़क पर बित्ता-बित्ता-भर पानी चढ़ गया है, राह में कोई मुसाफिर चलता हुआ नहीं दिखाई देता। ऐसे समय में एक आदमी अपनी गोद में तीन वर्ष का लड़का लिए और उसे कपड़े से छिपाए, छाती से लगाए, मोमजामे के छाते से आड़ किये किले की तरफ लपका चला जा रहा हैं। जब कहीं रास्ते में आड़ की जगह मिल जाती है, अपने को उसके नीचे ले जाकर सुस्ता लेता है और तब न बन्द होने वाली बदली की तरफ कोई ध्यान न देकर पुन: चल पड़ता है।


यह आदमी जब किले के मैदान में पहुँचा, तो बाएँ तरफ मुड़ा जिधर एक ऊँचा शिवालय था। यह बेखौफ उस शिवालय में घुस गया और कुछ देर सभा-मण्डप में सुस्ताने का इरादा किया, मगर उसी समय वह लड़का रोने और चिल्लाने लगा, जिसकी आवाज सुनकर वहाँ का पुजारी उठा और बाहर निकल कर उस आदमी के सामने खड़ा होकर बोला, “कौन है, बाबू साहब?”


बाबू साहब : हाँ।


पुजारी : बहुत अच्छा किया जो आप आ गए। चाहे यह समय कैसा ही टेढ़ा क्यों न हो, मगर आपके लिए बहुत अच्छा मौका है।


बाबू साहब : (लड़के को चुप करा के) केवल इस लड़के की तकलीफ का ख्याल है।


पुजारी : कोई हर्ज नहीं, अब आप ठिकाने पहुँच गए। आइये, हमारे साथ चलिये।


उस शिवालय की दीवार किले की दीवार से मिली हुई थी और यह किला भी नाम ही को किला था, असल में तो इसे एक भारी इमारत कहना चाहिये, मगर दीवारें इसकी बहुत मजबूत और चौड़ी थीं। इसमें छोटे-छोटे कई तहखाने थे। यहाँ का राजा करनसिंह राठू बड़ा ही सूम और जालिम आदमी था, खजाना जमा करने और इमारत बनाने का इसे हद से ज्यादा शौक था। खर्च के डर से वह थोड़ी ही फौज से अपना काम चलाता और महाराज नेपाल के भरोसे किसी को कुछ नहीं समझता था, हाँ, नाहरसिंह ने इसे तंग कर रक्खा था, जिसके सबब से इसके खजाने में बहुत-कुछ कमी हो जाया करती थी।


वह पुजारी पानी बरसते हो में कम्बल ओढ़ कर बाबू साहब को साथ लिए किले के पिछवाड़े वाले चोर दरवाजे पर पहुँचा और दो-तीन दफे कुंडी खटखटाई। एक आदमी ने भीतर से किवाड़ खोल दिया और ये दोनों अन्दर घुसे। भीतर से दरवाजा खोलने वाला एक बुड्ढा चौकीदार था, जिसने इन दोनों को भीतर लेकर फिर दरवाजा बन्द कर दिया। पुजारी ने बाबू साहब से कहा, “अब आप आगे जाइये और जल्द लौट कर आइये, मैं जाता हूँ।”


बाबू साहब ने छाता उसी जगह रख दिया, क्योंकि उसकी अब यहाँ कुछ जरूरत न थी और लड़के को छाती से लगाये बाईं तरफ के एक दालान में पहुँचे जहाँ से होते हुए एक सहन में जाकर पास की बारहदरी में होकर छत पर चढ़ गए। ऊपर इन्हें दो लौंडियाँ मिली जो शायद पहिले ही से इनकी राह देख रही थीं। दोनों लौंडियों ने इन्हें अपने साथ लिया और दूसरी सीढ़ी की राह से एक कोठरी में उतर गईं, जहाँ एक ने बाबू साहब से कहा, “अब बिना रामदीन खवास की मदद के हम लोग तहखाने में नहीं जा सकते। आज उसको राजी करने के लिए बड़ी कोशिश करनी पड़ी। वह बेचारा नेक और रहमदिल है इसलिए काबू में आ गया, अगर कोई दूसरा होता तो हमारा काम कभी न चलता। अच्छा, अब आप यहीं ठहरिये मैं जाकर उसे बुला लाती हूँ।” इतना कह वह लौंडी वहाँ से चली गई और थोड़ी ही देर में उस बुड्ढे खवास को साथ लेकर लौट आई।


इस बुड्ढे खवास की उम्र सत्तर वर्ष से कम न होगी। हाथ में पीतल की एक जालीदार लालटेन लिए वहाँ आया और बाबू साहब के सामने खड़ा होकर बोला, “देखिए बाबू साहब, मैं तो आपके हुक्म की तामील करता ही हूँ मगर अब मेरी इज्जत आपके हाथ में हैं। मुझे मोतबर समझ कर इस चोर दरवाजे की ताली सुपुर्द की गई है। एक हिसाब से आज मैं मालिक की नमकहरामी करता हूँ कि इस राह से आपको जाने देता हूँ। मगर नहीं, सुन्दरी दया के योग्य है। उसकी अवस्था पर ध्यान देने से मुझे रुलाई आती है, और इस बच्चे की हालत सोच कर कलेजा फटा जाता है जो आपकी गोद में है। बेशक, मैं एक अन्यायी राजा का अन्न खा रहा हूँ। लाचार हूँ, गरीबी जान मारती है, नहीं तो आज ही नौकरी छोड़ने के लिए तैयार हूँ।”


बाबू साहब : रामदीन, बेशक तुम बड़े ही नेक और रहमदिल आदमी हो। ईश्वर तुम्हें इस नेकी का बदला देवे। अभी तुम नौकरी मत छोड़ो, नहीं तो हम लोगों का काम मिट्टी हो जाएगा। वह दिन बहुत करीब है कि इस राज्य का सच्चा राजा गद्दी पर बैठे और रिआया को जुल्म के पंजे से छुड़ावे।


रामदीन : ईश्वर करे ऐसा ही हो। अच्छा आप जरा-सा और ठहरें और इसी जगह बेखौफ बैठे रहें, मैं घण्टे-भर में लौट कर आऊँगा, तब ताला खोल कर तहखाने में जाने के लिए कहूँगा, क्योंकि महाराज अभी तहखाने में गये हुए हैं। वे निकल कर जा लें तब मैं निश्चिंत होऊँ। इस तहखाने में जाने के लिए तीन दरवाजे हैं, जिनमें एक तो सदर दरवाजा है, यद्यपि अब वह ईंटों से चुन दिया गया है, मगर फिर भी वहाँ हमेशा पहरा पड़ा करता है। दूसरे दरवाजे की ताली महाराज के पास रहती है, और एक तीसरी छोटी-सी खिड़की है, जिसकी ताली मेरे पास रहती है, और इसी राह से लौंडियों को आने-जाने देना मेरा काम है।


बाबू साहब : हाँ, यह हाल मैं जानता हूँ मगर यह‌ तो कहो तुम तो जाकर घण्टे-भर बाद लौटोगे, तब तक यहाँ आकर मुझे कोई देख न लेगा?


रामदीन : जी नहीं, आप बेखौफ रहें, अब यहाँ आने वाला कोई नहीं है, बल्कि इस बच्चे के रोने से भी किसी तरह का हर्ज नहीं है, क्योंकि किले का यह हिस्सा बिल्कुल ही सन्नाटा रहता है।


इतना कह रामदीन वहाँ से चला गया और घण्टे-भर तक बाबू साहब को उन दोनों लौंडियों से बातचीत करने का मौका मिला। यों तो घण्टे-भर तक कई तरह की बातचीत होती रही, मगर उनमें से थोड़ी बातें ऐसी थीं जो हमारे किस्से से सम्बन्ध रखती हैं, इसलिए उन्हें यहाँ पर लिख देता मुनासिब मालूम होता है।


बाबू साहब : क्या महाराज कल भी आये थे?


एक लौंडी : जी हाँ, मगर वह किसी तरह नहीं मानती, अगर पाँच-सात दिन यही हालत रही तो जान जाने में कोई शक नहीं। ऊपर से बीरसिंह की गिरफ्तारी का हाल सुनकर वह और भी बदहवास हो रही है।


बाबू साहब : मगर बीरसिंह तो कैदखाने से भाग गए।


एक लौंडी : कब?


बाबू साहब : अभी घण्टा-भर भी नहीं हुआ।


एक लौंडी : आपको कैसे मालूम हुआ ?


बाबू साहब : इसके पूछने की कोई जरूरत नहीं!


एक लौंडी : तब तो आप एक अच्छी खुशखबरी लेकर आये हैं। आपसे कभी बीरसिंह से मुलाकात हुई है कि नहीं?


बाबू साहब : हाँ मुलाकात तो कई मर्तबे हुई है मगर बीरसिंह मुझे पहचानते नहीं। मैं बहुत चाहता हूँ कि उनसे दोस्ती पैदा करूँ, मगर कोई सबब ऐसा नहीं मिलता जिससे वह मेरे साथ मुहब्बत करें, हाँ मुझे उम्मीद है कि तारा की बदौलत बेशक उनसे मुहब्बत हो जाएगी।


एक लौंडी : कल पंचायत होने वाली थी, सो क्या हुआ?


बाबू साहब : हाँ, कल पंचायत हुई थी, जिसमें यहाँ के बड़े-बड़े पन्द्रह जमींदार शरीक थे। सभी को निश्चय हो गया कि असल में यह गद्दी बीरसिंह की है। बीरसिंह यदि लड़ने के लिए मुस्तैद हों तो वे लोग उनकी मदद करने को तैयार हैं।


एक लौंडी : आपने भी कोई बन्दोबस्त किया है या नहीं?


बाबू साहब : हाँ, मैं भी इसी फिक्र में पड़ा हुआ हूँ। मगर लो देखो, रामदीन आ पहुँचा।


रामदीन ने पहुँच कर खबर दी कि महाराज चले गए अब आप जायें। रामदीन ने उस कोठरी में एक छोटी-सी खिड़की खोली, जिसकी ताली उसकी कमर में थी और तीनों को उसके भीतर करके ताला बन्द कर दिया और आप बाहर बैठा रहा । बाबू साहब ने दोनों लौंडियों के साथ खिड़की के अन्दर जाकर देखा कि हाथ में चिराग लिए एक लौंडी इनके आने की राह देख रही है। यहाँ से नीचे उतरने के लिए सीढ़ियाँ बनी हुई थीं। लौंडियों के साथ बाबू साहब नीचे उत्तर गए और एक कोठरी में पहुँचे, जिसमें से होकर थोड़ी दूर तक एक सुरंग में जाने के बाद एक गोल गुमटी में पहुँचे। वहाँ से भी और नीचे उतरने के लिए सीढ़ियाँ बनी हुई थीं। बाबू साहब फिर से नीचे उतरे, यहाँ की जमीन सर्द और कुछ तर थी। पुनः एक कोठरी में पहुँच कर लौंडी ने दरवाजा खोला और बाबू साहब को साथ लिए एक बारहदरी में पहुँची। इस बारहदरी में एक दीवारगीर और एक हाँडी के अतिरिक्त एक मोमी शमादान भी जल रहा था। जमीन पर फर्श बिछा हुआ था, बीच में एक मसहरी पर बारीक चादर ओढ़े एक औरत सोई हुई थी। पायताना की तरफ दो लौंडियाँ पंखा झल रही थीं, पलंग के सामने एक पीतल की चौकी पर चाँदी की तीन सुराही, एक गिलास और एक कटोरा रक्खा हुआ था। उसके बगल में चाँदी की एक दूसरी चौकी थी, जिस पर खून से भरा हुआ चाँदी का एक छोटा-सा कटोरा, एक नश्तर और दो सलाइयाँ पड़ी हुई थीं।


वह औरत जो मसहरी पर लेटी हुई थी, बहुत ही कमजोर और दुबली मालूम होती थी। उसके बदन में सिवाय हड्डी के माँस या लहू का नाम ही नाम था, मगर चेहरा उसका अभी तक इस बात की गवाही देता था कि किसी वक्त में यह निहायत खूबसूरत रही होगी। गोद में लड़का लिए हुए बाबू साहब उसके पास जा खड़े हुए और डबडबाई हुई आँखों से उसकी सूरत देखने लगे। उस औरत ने बाबू साहब की ओर देखा ही था कि उसकी आँखों से आँसू की बूँदें गिरने लगीं। हाथ बढ़ाकर उठाने का इशारा किया, मगर बाबू साहब ने तुरन्त उसके पास जा और बैठ कर कहा, “नहीं नहीं, उठने की कोई जरूरत नहीं, तुम आप कमजोर हो रही हो। हाय! दुष्ट के अन्याय का कुछ ठिकाना है ! ! लो यह तुम्हारा बच्चा तुम्हारे सामने है, इस देखो और प्यार करो। घबड़ाओ मत, दो-ही-चार दिन में यहाँ की काया पलट हुआ चाहती है!


बाबू साहब ने उस लड़के को पलंग पर बैठा दिया। उस औरत ने बड़ी मुहब्बत से उस लड़के का मुँह चूमा। ताज्जुब की बात थी कि वह लड़का जरा भी न तो रोया और न हिचका, बल्कि उस औरत के गले से लिपट गया, जिसे देख बाबू साहब, लौंडियाँ और उस औरत का भी कलेजा फटने लगा और उन लोगों ने बड़ी मुश्किल से अपने को सँभाला। उस औरत ने बाबू साहब की तरफ देखकर कहा, “प्यारे, क्या मैं अपनी जिंदगी का कुछ भी भरोसा कर सकती हूँ? क्या मैं तुम्हारे घर में बसने का खयाल ला सकती हूँ? क्या मैं उम्मीद कर सकती हूँ कि दस आदमी के बीच में इस लड़के को लेकर खिलाऊंगी? हाय ! एक बीरसिंह की उम्मीद थी सो दुष्ट राजा उसे भी फांसी दिया चाहता है!


बाबू साहब : प्यारी, तुम चिंता न करो। मैं सच कहता हूँ कि सवेरा होते-होते इस दुष्ट राजा की तमाम खुशी खाक में मिल जायेगी और वह अपने को मौत के पंजे में फँसा हुआ पावेगा। क्या उस आदमी का कोई कुछ बिगाड़ सकता है, जिसका तरफदार नाहरसिंह डाकू हो? देखो अभी दो घण्टे हुए हैं कि वह कैदखाने से बीरसिंह को छुड़ाकर ले गया।


औरत : (चौंककर) नाहरसिंह डाकू बीरसिंह को छुड़ाकर ले गया! मगर वह तो बड़ा भारी बदमाश और डाकू है! बीरसिंह के साथ नेकी क्यों करने लगा? कहीं कुछ दुःख न दे ! !


बाबू साहब : तुम्हें ऐसा न सोचना चाहिये । शहर-भर में जिससे पूछोगी कोई भी न कहेगा कि नाहरसिंह ने सिवाय राजा के किसी दूसरे को कभी कोई दुःख दिया, हाँ, वह राजा को बेशक दुःख देता है और उसकी दौलत लूटता है। मगर इसका कोई खास सबब जरूर होगा। मैंने कई दफा सुना है कि नाहरसिंह छिपकर इस शहर में आया, कई दुखियों और कंगालों को रुपये की मदद की और कई ब्राह्मणों के घर में, जो कन्यादान के लिए दुःखी हो रहे थे, रुपये की थैली फेंक गया। मुख्तसर यह है कि यहाँ की कुल रिआया नाहरसिंह के नाम से मुहब्बत करती है और जानती है कि वह सिवाय राजा के और किसी को दुःख देने वाला नहीं।


औरत : सुना तो मैंने भी ऐसा ही है। अब देखें वह बीरसिंह के साथ क्या नेकी करता है और राजा का भण्डा किस तरह फूटता है। मुझे वर्ष-भर इस तहखाने में पड़े हो गये मगर मैंने बीरसिंह और तारा का मुँह नहीं देखा, यों तो राजा के डर से लड़कपन ही से आज तक मैं अपने को छिपाती चली आई और बीरसिंह के सामने क्या किसी और के सामने भी न कहा कि मैं फलानी हूँ या मेरा नाम सुंदरी है, मगर साल-भर की तकलीफ ने.. (रो कर) हाय! न-मालूम मेरी मौत कहाँ छिपी हुई है ! !


बाबू साहब : (उस खून से भरे हुए कटोरे की तरफ देखकर) हाँ, यह खून-भरा कटोरा कहता है कि मैं किसी के खून से भरा हुआ कटोरा पीऊँगा!


सुन्दरी : (लड़के को गले लगाकर) हाय, हम लोगों की खराबी के साथ इस बच्चे की भी खराबी हो रही है ! !


बाबू साहब : ईश्वर चाहता है तो इसी सप्ताह में लोगों को मालूम हो जावेगा कि तुम कुंआरी नहीं हो और यह बच्चा भी तुम्हारा ही है।


सुन्दरी : परमेश्वर करे, ऐसा ही हो! हाँ उन पंचों का क्या हाल है?


बाबू साहब : पंचों में जोश बढ़ता ही जाता है, अब वे लोग बीरसिंह की तरफदारी पर पूरी मुस्तैदी दिखा रहे हैं।


सुन्दरी : नाहरसिंह का कुछ और भी हाल मालूम हुआ है?


बाबू साहब : और तो कुछ मालूम नहीं हुआ, मगर एक बात नई जरूर सुनने में आई है।


सुन्दरी : वह क्या ?।


बाबू साहब : तारा के मारने के लिए उसका बाप सुजनसिंह मजबूर किया गया था।


सुन्दरी : (लम्बी साँस लेकर) हाय, इसी कमबख़्त ने तो मेरे बड़े भाई बिजयसिंह को मारा है!


बाबू साहब : मैं एक बात तुम्हारे कान में कहा चाहता हूँ।


सुन्दरी : कहो।


बाबू साहब ने झुककर उसके कान में कोई बात कही, जिसके सुनते ही सुंदरी का चेहरा बदल गया और खुशी की निशानी उसके गालों पर दौड़ आई।


उसने चौंककर पूछा, “क्या तुम सच कह रहे हो?”


बाबू साहब : (सुन्दरी के सिर पर हाथ रख के) तुम्हारी कसम सच कहता हूँ।


एक लौंडी : मालूम होता है कि कोई आ रहा है।


सुन्दरी : (लड़के को लौंडी के हवाले करके) हाय, यह क्या गजब हुआ! क्या किस्मत अब भी आराम न लेने देगी?


इतने ही में सामने का दरवाजा खुला और हाथ में नंगी तलवार लिये हरीसिंह आता हुआ दिखाई दिया, जिसे देखते ही बेचारी सुन्दरी और कुल लौंडियाँ काँपने लगीं। बाबू साहब के चेहरे पर भी एक दफे तो उदासी आई, मगर साथ ही वह निशानी पलट गई और होंठों पर मुस्कुराहट मालूम होने लगी। हरीसिंह मसहरी के पास आया और बाबू साहब को देखकर ताज्जुब से बोला, तू कौन है?


बाबू साहब : तैं मेरा नाम पूछ कर क्या करेगा?


हरीसिंह : तू यहाँ क्यों आया है? (लौंडियों की तरफ देख कर) आज तुम सभी की मक्कारी खुल गई!!


बाबू साहब : अबे तू मेरे सामने हो और मुझसे बोल! औरतों को क्या धमकाता है?


हरीसिंह : तुझसे मैं बातें नहीं किया चाहता, तुझे तो गिरफ्तार कर के सीधे महाराज के पास ले जाऊँगा, वहीं जो कुछ होगा देखा जाएगा।


बाबू साहब : मैं तुझे और तेरे महाराज को तिनके के बराबर भी नहीं समझता, तेरी क्या मजाल कि मुझे गिरफ्तार करे!!


इतना सुनना था कि हरीसिंह गुस्से से काँप उठा। बाबू साहब के पास आकर उसने तलवार का एक वार किया। बाबू साहब ने फुर्ती से उठकर उसका हाथ खाली दिया और घूम कर उसकी कलाई पकड़ ली तथा इस जोर से झटका दिया कि तलवार उसके हाथ से दूर जा गिरी। अब दोनों में कुश्ती होने लगी। थोड़ी ही देर में बाबू साहब ने उसे उठा कर दे मारा। इत्तिफाक से हरीसिंह का सिर पत्थर की चौखट पर इस ज़ोर से जाकर लगा कि फटकर खून का तरारा बहने लगा। साथ ही इसके एक लौंडी ने लपक कर हरीसिंह के हाथ की गिरी हुई तलवार उठा ली और एक ही वार में हरीसिंह का सिर काट कलेजा ठंढा किया।


बाबू साहब : हाय, तुमने यह क्या किया?


लौंडी : इस हरामजादे का मारा ही जाना बेहतर था, नहीं तो यह बड़ा फसाद मचाता!


बाबू साहब : खैर, जो हुआ, अब मुनासिब है कि हम इसे उठा कर बाहर ले जावें और किसी जगह गाड़ दें कि किसी को पता न लगे।


बाबू साहब पलट कर सुन्दरी के पास आए और उसे समझा-बुझा कर बाहर जाने की इजाजत ली! एक लौंडी ने लड़के को गोद में लिया, बाबू साहब ने उसी जगह से एक कम्बल लेकर हरीसिंह की लाश बाँध पीठ पर लादी और जिस तरह से इस तहखाने में आये थे, उसी तरह बाहर की तरफ रवाना हुए। जब उस खिड़की तक पहुँचे, जिसे रामदीन ने खोला था, तो भीतर से कुंडा खटखटाया।


रामदीन बाहर मौजूद था, उसने झट दरवाजा खोल दिया और ये दोनों बाहर निकल गये।


रामदीन बाबू साहब की पीठ पर गट्ठर देख चौंका और बोला, “आप यह क्या गजब करते हैं। मालूम होता है, आप सुन्दरी को लिये जाते हैं! नहीं, ऐसा न होगा, हम लोग मुफ्त में फाँसी पावेंगे! इतना ही बहुत है कि मैं आपको सुन्दरी के पास जाने देता हूँ।


बाबू साहब ने गठरी खोलकर हरीसिंह की लाश दिखा दी और कहा रामदीन, तुम ऐसा न समझो कि हम तुम्हारे ऊपर किसी तरह की आफत लावेंगे। यह कोई दूसरा ही आदमी है, जो उस समय सुन्दरी के पास आ पहुँचा जिस समय मैं वहाँ पर मौजूद था, लाचार यह समझ कर इसे मारता ही पड़ा कि मेरा आना-जाना किसी को मालूम न हो और तुम लोगों पर आफत न आवे।


लौंडी : अजी, यह वही हरामजादा हरीसिंह हैं, जिसने मुद्दत से हम लोगों को तंग कर रक्खा था।


रामदीन : हाँ, अगर यह ऐसे समय में सुन्दरी के पास पहुँच गया तो इसका मारा जाना ही बेहतर था, मगर इसे किसी ऐसी जगह गाड़ना चाहिये कि पता न लगे।


बाबू साहब : इससे तुम बेफिक्र रहो, मैं सब बन्दोबस्त कर लूँगा।


बाबू साहब जिस तरह इस किले के अन्दर आए थे, वह हम ऊपर लिख जाये हैं, उसे दोहराने की कोई जरूरत नहीं है। सिर्फ इतना लिख देना बहुत है कि पीठ पर गट्ठर लादे वे उसी तरह किले के बाहर हो गये और मैदान में जाते हुए दिखाई देने लगे। सिर्फ अब की दफा इनके साथ गोद में लड़के को उठाए एक लौंडी मौजूद थी। पानी का बरसना बिल्कुल बन्द था और आसमान पर तारे छिटके हुए दिखाई देने लगे थे।


बाबू साहब ने शिवालय की तरफ न जाकर दूसरी ही तरफ का रास्ता लिया। मगर जब वह सन्नाटे खेत में निकल गये तो हाथ में गंडासा लिए दो आदमियों ने इन्हें घेर लिया और डाँट कर कहा, “खबरदार, आगे कदम न बढ़ाइयो! गट्ठर मेरे सामने रख और बता तू कौन है! बेशक किसी की लाश लिए जाता है।”


बाबू साहब : हाँ हाँ, बेशक, इस गट्ठर में लाश है और उस आदमी की लाश है, जिसने यहाँ की कुल- रिआया को तंग कर रक्खा था! जहाँ तक मैं ख्याल करता हूँ, इस राज्य में कोई आदमी ऐसा न होगा जो इस कमबख़्त का मरना सुन खुश न होगा।


प० आ० : मगर तुम कैसे समझते हो कि हम भी खुश होंगे?


बाबू साहब : इसलिए कि तुम राजा के तरफदार नहीं मालूम पड़ते।


दू० आ० : खैर जो हो, हम यह जानना चाहते हैं कि यह लाश किसकी है और तुम्हारा क्या नाम है?


बाबू सा० : (गट्ठर जमीन पर रख कर) यह लाश हरीसिंह की है, मगर मैं अपना नाम तब तक नहीं बताने का, जब तक तुम्हारा नाम न सुन लूँ।


प० आ० : बेशक, यह सुन कर कि यह लाश हरीसिंह की है, मुझे भी खुशी हुई और मैं अब यह कह देना उचित समझता हूँ कि मेरा नाम नाहरसिंह है। मैं उम्मीद करता हूँ कि तुम हमारे पक्षपाती हो, लेकिन अगर न भी हो तो मैं किसी तरह तुमसे डर नहीं सकता!


बाबू सा० : मुझे यह सुनकर बड़ी खुशी हुई कि आप नाहरसिंह हैं। बहुत दिनों से मैं आपसे मिला चाहता था, मगर पता न जानने से लाचार था। अहा, क्या ही अच्छा होता, अगर इस समय बीरसिंह से भी मुलाकात हो जाती!


दू० आ० : बीरसिंह से मिलकर तुम क्या करते?


बाबू सा०: उसे होशियार कर देता कि राजा तुम्हारा दुश्मन है और कुछ हाल उसकी बहिन सुन्दरी का भी बताता जिसका उसे ख्याल भी नहीं है और यह भी कह देता कि तुम्हारी स्त्री तारा बच गई, मगर अभी तक मौत उसके सामने नाच रही है। (नाहरसिंह की तरफ देख कर) आपकी कृपा होगी तो मैं बीरसिंह से मिल सकूँगा क्योंकि आज ही आपने उन्हें कैद से छुड़ाया है।


नाहर० : अहा, अब मैं समझ गया कि आपका नाम बाबू साहब है, नाम तो कुछ दूसरा ही है, मगर दो-चार आदमी आपको बाबू साहब के नाम से ही पुकारते हैं, क्यों है न ठीक?


बाबू साहब : हाँ है तो ऐसा ही।


नाहर० : मैं आपका पूरा-पूरा हाल नहीं जानता, हाँ जानने का उद्योग कर रहा हूँ, अच्छा अब हमको भी साफ-साफ कह देना मुनासिब है कि मेरा नाम नाहरसिंह नहीं है, हम दोनों उनके नौकर हैं, हाँ यह सही है कि वे आज बीरसिंह को छुड़ा के अपने घर ले गए हैं, जहाँ आप चाहें तो नाहरसिंह और बीरसिंह से मिल सकते हैं।।


बाबू साहब : मैं जरूर उनसे मिलूँगा।


प० आ० : और यह आपके साथ लड़का लिए कौन है?


बाबू साहब : इसका हाल तुम्हें नाहरसिंह के सामने ही मालूम हो जायेगा।


प० आ० : तो क्या आप अभी वहाँ चलने के लिए तैयार हैं?


बाबू साहब : बेशक!


प० आ० : अच्छा तो आप इस गट्ठर को मेरे हवाले कीजिए, मैं इसे इसी जगह खपा डालता हूँ। केवल इसका सिर मालिक के पास ले चलूँगा, इस लड़के को गोद में लीजिए और इस लौंडी को बिदा कीजिए। चलिए सवारी भी तैयार है।


बाबू साहब ने उस लौंडी को बिदा कर दिया। एक आदमी ने उस गट्ठर को पीठ पर लादा, बाबू साहब ने लड़के को गोद में लिया और उन दोनों के पीछे रवाने हुए, मगर थोड़ी ही दूर गए थे कि पीछे से तेजी के साथ दौड़ते हुए आने वाले घोड़े के ठापों की आवाज इन तीनों के कानों में पड़ी । बाबू साहब ने चौंक कर कहा, “ताज्जुब नहीं कि हम लोगों को गिरफ्तार करने के लिए सवार आते हों!”


कटोरा भर खून : खंड-9

आधी रात का समय है। चारों तरफ अंधेरी छाई हुई है। आसमान पर काली घटा रहने के कारण तारों की रोशनी भी जमीन तक नहीं पहुँचती। जरा-जरा बूंदा-बूंदी हो रही है, मगर वह हवा के झपेटों के कारण मालूम नहीं होती। हरिपुर में चारों तरफ सन्नाटा छाया हुआ है। ऐसे समय में दो आदमी स्याह पोशाक पहिरे, नकाब डाले (जो इस समय पीछे की तरफ उल्टी हुई है) तेजी से कदम बढ़ाये एक तरफ जा रहे हैं। ये दोनों सदर सड़क को छोड़ गली-गली जा रहे हैं और तेजी से चल कर ठिकाने पहुँचने-की कोशिश कर रहे हैं, मगर गजब की फैली हुई अंधेरी इन लोगों को एक रंग पर चलने नहीं देती, लाचार जगह-जगह रुकना पड़ता है, जब बिजली चमक कर दूर तक का रास्ता दिखा देती है तो फिर ये कदम चलते हैं।


ये दोनों गली-गली चल कर एक आलीशान मकान के पास पहुँचे जिसके फाटक पर दस-बारह आदमी नंगी तलवारें लिए पहरा दे रहे थे। दोनों ने नकाब ठीक कर ली और एक ने आगे बढ़ कर कहा, “महादेव!” इसके जवाब में उन सभों ने भी “महादेव!” कहा। इसके बाद एक सिपाही ने जो शायद सभी का सरदार था, आगे बढ़ कर उस आदमी से, जिसने ‘महादेव’ कहा था, पूछा, “आज आप अपने साथ और भी किसी को लेते आए हैं? क्या ये भी अन्दर जायेंगे?”


आगन्तुक : नहीं, अभी तो मैं अकेला ही अन्दर जाऊँगा और ये बाहर रहेंगे, लेकिन अगर सरदार साहब इनको बुलायेंगे तो ये भी चले जायेंगे।


सिपाही : बेशक, ऐसा ही होना चाहिए। अच्छा, आप जाइए।


इन दोनों में से एक तो बाहर रह गया और इधर-उधर टहलने लगा और एक आदमी ने फाटक के अन्दर पैर रक्खा। इस फाटक के बाद नक़ाबपोश को और तीन दरवाजे लाँघने पड़े, तब वह एक लम्बे-चौड़े सहन में पहुँचा, जहाँ एक फर्श पर लगभग बीस के आदमी बैठे आपुस में कुछ बातें कर रहे थे। बीच में दो मोमी शमादान जल रहे थे और उसी के चारों तरफ वे लोग बैठे हुए थे। ये सब रोआबदार, गठीले और जवान आदमी थे तथा सभों ही के सामने एक-एक तलवार रक्खी हुई थी। उन लोगों की चढ़ी हुई मूंछों और तनी हुई छाती, बड़ी-बड़ी सुर्ख आँखें कहे देती थीं कि ये सब तलवार के जौहर के साथ अपना नाम रोशन करने वाले बहादुर हैं। ये लोग रेशमी चुस्त मिरजई पहिरे, सर पर लाल पगड़ी बाँधे, रक्‍त-चन्दन का त्रिपुण्ड लगाए, दोपट्टी आमने-सामने वीरासन पर बैठे बातें कर रहे थे। ऊपर की तरफ बीच में एक कम-उम्र बहादुर नौजवान बड़े ठाठ के साथ जड़ाऊ कब्जे की तलवार सामने रक्खे बैठा हुआ था। उसकी बेशकीमती- मछली टकी हुई सुर्ख मखमल की चुस्त पोशाक साफ-साफ कह रही थी कि वह किसी ऊँचे दर्जे का आदमी, बल्कि किसी फौज का अफसर है, मगर साथ ही इसके उसकी चिपटी नाक रहे-सहे भ्रम को दूर करके निश्चय करा देती थी कि वह नेपाल का रहने वाला है बल्कि यों कहना चाहिए कि वह नेपाल का सेनापति या किसी छोटी फौज का अफसर है। चार आदमी बड़े-बड़े पंखे लिए इन सभों को हवा कर रहे हैं।


यह नकाबपोश उस फर्श के पास जाकर खड़ा हो गया और तब वीरों को एक दफे झुक कर सलाम करने के बाद बोला, “आज मैं सच्चे दिल से महाराजा नेपाल को धन्यवाद देता हूँ, जिन्होंने हम लोगों का अर्थात्‌ हरिपुर की रिआया का दुःख दूर करने के लिए अपने एक सरदार को यहाँ भेजा है। मैं उस सरदार को भी इस कमेटी में मौजूद देखता हूँ, जिसमें यहाँ के बड़े क्षत्री जमींदार, वीर और धर्मात्मा लोग बैठे हैं। अस्तु, प्रणाम करने बाद (सर झुका कर) निवेदन करता हूँ कि वे उन जुल्मों की अच्छी तरह जाँच करें जो राजा करनसिंह की तरफ से हम लोगों पर हो रहे हैं। हम लोग इसका सबूत देने के लिए तैयार हैं कि यहाँ का राजा करनसिंह बड़ा ही जालिम, संगदिल और बेईमान है!


उस नकाबपोश की बात सुन कर नेपाल के सरदार ने, जिसका नाम खड़गसिंह था, एक क्षत्री वीर की तरफ देख कर पूछा—-


खड़ग० : अनिरुद्ध सिंह, यह कौन है?


अनिरुद्ध० : (हाथ जोड़ कर) यह उस नाहरसिंह का कोई साथी है जिसे यहाँ के राजा ने डाकू के नाम से मशहूर कर रक्खा है। अकसर हम लोगों की पंचायत में यह शरीक हुआ करता है। इसका नाम सोमनाथ है।


खड़ग० : मगर क्या तुम उस नाहरसिंह डाकू के साथी को अपना शरीक बनाते हो, जिसने हरिपुर की रिआया को तंग कर रक्खा है और जिसकी दबंगता और जुल्म की कहानी नेपाल तक मशहूर हो रही है?


सोम० : नाहरसिंह को केवल यहाँ के बेईमान राजा ने बदनाम कर रक्खा है, क्योंकि वह उन्हीं के साथ बुरी तरह पेश आता है, उन्हीं का खजाना लूटता हैं, और उन्हीं की कैद से बेचारे बेकसूरों को छुड़ाता है। सिवाय राजकर्मचारियों के हरिपुर का एक अदना आदमी भी नहीं कह सकता कि नाहरसिंह जालिम है या किसी को सताता है।


खड़ग० : (अनिरुद्ध की तरफ देख कर) क्या यह सच है?


अनिरुद्ध : बेशक, सच है। नाहरसिंह बड़ा ही नेकमर्द, रहमदिल, धर्मात्मा और वीर पुरुष है। वह किसी को तंग नहीं करता, बल्कि वह महीने में हजारों रुपये यहाँ की गरीब प्रजा में गुप्त रीति से बाँटता, दरिद्रों का दुख दूर करता, और ब्राह्मणों की सहायता करता है। हाँ राजा करनसिंह को अवश्य सताता है, उनकी दौलत लूटता है, और उनके सहायकों की जानें लेता है।


खड़ग० : अगर ऐसा है तो हम बेशक नाहरसिंह को बहादुर और धर्मात्मा कह सकते हैं (सोमनाथ की तरफ देख कर) मगर राजा करनसिंह नाहरसिंह की बहुत बुराई करता है और उसे जालिम कहता है, सबूत में हाल ही की यह नई बात दिखलाता है कि नाहरसिंह नमकहराम बीरसिंह को कैद से छुड़ा ले गया, जिस पर राजकुमार का खून हर तरह से साबित हो चुका था और तोप के सामने रख कर उड़ा देने के योग्य था। नाहरसिंह इसका क्या जवाब रखता है?


अनिरुद्ध : सोमनाथ बराबर हम लोगों की पंचायत में मुँह पर नकाब डाल कर आया करते हैं। हम लोग इस बात की जिद नहीं करते कि वे अपनी सूरत दिखाएँ बल्कि कसम खा चुके हैं कि इनके साथ कभी दगा न करेंगे। जिस दिन से नाहरसिंह ने बीरसिंह को छुड़ाया है, उस दिन से आज ही मुलाकात हुई है। हम लोग खुद इस बात का जवाब इनसे लिया चाहते थे कि उस आदमी की मदद नाहरसिंह ने क्यों की, जिसने राजा के लड़के को मार डाला? नाहरसिंह से ऐसी उम्मीद हम लोगों को न थीं। हम लोग बेशक राजा के दुश्मन हैं, मगर इतने बड़े नहीं कि उसके लड़के के खूनी को भगा दें। मगर हम लोगों को सब से ज्यादा ताज्जुब इस बात का है कि बीरसिंह के हाथ से ऐसा काम क्योंकर हुआ! वह बड़ा ही नेक, धर्मात्मा और सच्चा आदमी है। राजा से भी ज्यादा हम लोग उसे मानते हैं और उससे मुहब्बत रखते हैं, क्योंकि इस राज्य में या कर्मचारियों में एक बीरसिंह ही ऐसा था, जिसकी बदौलत रिआया आराम पाती थी या जो रिआया को अपने लड़के के समान मानता था, मगर ताज्जुब है कि……


सोम० : इस बाते का जवाब मैं दे सकता हूँ और निश्चय करा सकता हूँ कि नाहरसिंह ने कोई बुरा काम नहीं किया और बीरसिंह बिल्कुल बेकसूर है।


खड़ग० : अगर नाहरसिंह और बीरसिंह की बेकसूरी साबित होगी तो हम बेशक उनके साथ कोई भारी सलूक करेंगे। सुनो सोमनाथ, राजा के खिलाफ यहाँ की रिआया तथा नाहरसिंह की अर्जियाँ पाकर महाराजा नेपाल ने खास इस बात की तहकीकात करने के लिए मुझे यहाँ भेजा है और मैं अपने मालिक का काम सच्चे दिल से धर्म के साथ किया चाहता हूँ। (बहादुरों की तरफ इशारा करके) ये लोग मुझे भली प्रकार जानते हैं और मुझ पर प्रेम रखते हैं, तभी मैं इन लोगों की गुप्त पंचायत में आ सका हूँ और ये लोग भी अपने दिल का हाल साफ-साफ मुझसे कहते हैं। हाँ, बीरसिंह की बेकसूरी के बारे में तुम क्या कहना चाहते हो कहो?


सोम० : बीरसिंह कौन है और आप लोगों को कहाँ तक उसकी इज्जत करनी चाहिए, यह फिर कभी कहूँगा, इस समय केवल उसकी बेकसूरी साबित करता हूँ।


बीरसिंह ने महाराज के लड़के को नहीं मारा। यह महाराज ने जाल किया है। महाराज का लड़का अभी तक जीता-जागता मौजूद है, और महाराज ने उसे छिपा रक्खा है, मैं आपको अपने साथ ले जाकर राजकुमार को दिखा सकता हूँ।


खड़ग० : हैं ! राजा का लड़का सूरजसिंह जीता-जागता मौजूद है!


सोम० : जी हाँ।


खड़ग० : ज्यादा नहीं, केवल एक इसी बात का विश्वास हो जाने से हम यहाँ के रिआया की दरखास्त सच्ची समझेंगे और राजा करनसिंह को गिरफ्तार करके नेपाल ले जायेंगे।


सोम० : केवल यही नहीं, राजा ने बीरसिंह के कई रिश्तेदारों को मार डाला है, जिसका खुलासा हाल सुन कर आप लोगों के रोंगटे खड़े होंगे। बेचारा बीरसिंह अभी तक चुपचाप बैठा है।


खड़ग० : (तलवार के कब्जे पर हाथ रख के) अगर यह बात सही है तो हम लोग बीरसिंह का साथ देने के लिए इसी वक्त से तैयार हैं, मगर नाहरसिंह को खुद हमारे सामने आना चाहिए।


इतना सुनते ही खड़गसिंह के साथ अन्य सरदारों और बहादुरों ने भी तलवारें स्थान से निकाली और धर्म की साक्षी देकर कसम खाई कि हम लोग नाहरसिंह के साथ दगा न करेंगे, बल्कि उनके साथ दोस्ताना बर्ताव करेंगे। उन सभों को कसम खाते देख सोमनाथ ने अपने चेहरे से नकाब उलट दी और तलवार म्यान से निकाल, सर के साथ लगा, गरज कर बोला, “आप लोगों के सामने खड़ा हुआ नाहरसिंह भी कसम खाता है कि अगर वह झूठा निकला तो दुर्गा की शरण में अपने हाथ से अपना सिर अर्पण करेगा। मेरा ही नाम नाहरसिंह है। आज तक मैं अपने को छिपाये हुए था और अपना नाम सोमनाथ जाहिर किए था।


शमादान की रोशनी एकदम नाहरसिंह के खूबसूरत चेहरे पर दौड़ गई। उसकी सूरत, आवाज और उसके हियाब ने सभों को मोहित कर लिया, यहाँ तक कि खड़गसिंह ने उठ कर नाहरसिंह को गले लगा लिया और कहा, “बेशक, तुम बहादुर हो! ऐसे मौके पर इस तरह अपने को जाहिर करना तुम्हारा ही काम है! भगवती चाहे तो अवश्य तुम सच्चे निकलोगे, इसमें कोई शक नहीं। (सरदारों और जमींदारों की तरफ देख कर) उठो और ऐसे बहादुर को गले लगाओ, इन्हीं के हाथ से तुम लोगों का कष्ट दूर होगा! ”


सभों ने उठ कर नाहरसिंह को गले लगाया और खड़गसिंह ने बड़ी इज्जत के साथ उसे अपने बगल में बिठाया।


नाहर० : बीरसिंह को मैं बाहर दरवाजे पर छोड़ आया हूँ।


खड़ग० : क्या आप उन्हें अपने साथ लाए थे?


नाहर० : जी हाँ।


खड़ग० : शाबाश ! तो अब उनको यहाँ बुला लेना चाहिए! (एक सरदार की तरफ देख कर) आप ही जाइए।


सरदार: बहुत अच्छा।


सरदार उठा और बीरसिंह को लिवा लाने ड्योढ़ी पर गया, मगर उनके लौटने में देरी अन्दाज से ज्यादे हुई, इसलिए जब वह बीरसिंह को साथ लिए लौट आया तो खड़गसिंह ने पूछा, “इतनी देर क्यों लगी?


सरदार : (बीरसिंह की तरफ इशारा कर के) ये टहलते हुए कुछ दूर निकल गए थे।


नाहर० : बीरसिंह, तुम इधर आओ और अपने चेहरे से नकाब हटा दो, क्योंकि आज हमने अपना पर्दा खोल दिया।


यह सुन कर बीरसिंह ने सिर हिलाया, मानो उसे ऐसा करना मंजूर नहीं है।


नाहर०: ताज्जुब है कि तुम नकाब हटाने से इन्कार करते हो? जरा सोचो तो कि मेरी जुबानी तुम्हारा नाम इन लोगों ने सुन लिया तो पर्दा खुलने में फिर क्या कसर रह गई? क्या तुम्हारी सूरत इन लोगों से छिपी है? बीरसिंह, हम तुम्हें बहादुर और शेरदिल समझते थे। यह क्या बात है?


बीरसिंह ने फिर सर हिला कर नकाब हटाने से इन्कार किया, बल्कि दो-तीन कदम पीछे की तरफ हट गया। यह बात नाहरसिंह को बहुत बुरी मालूम हुई। वह उछल कर बीरसिंह के पास पहुँचा तथा उसकी कलाई पकड़ क्रोध से भर उसकी तरफ देखने लगा। कलाई पकड़ते ही नाहरसिंह चौंका और एक निगाह सिर से पैर तक बीरसिंह पर डाल, खड़गसिंह की तरफ देख कर बोला, “मुमकिन नहीं कि बीरसिंह इतना बुजदिल और कमहिम्मत हो! यह हो ही नहीं सकता कि बीरसिंह मेरा हुक्म न माने! देखिए कितनी बड़ी चालाकी खेली गई! बेईमान राजा ने हम लोगों को कैसा धोखा दिया! हाय अफसोस, बेचारा बीरसिंह किसी आफत में फँसा मालूम होता है!!”


इतना कह नाहरसिंह ने बीरसिंह के चेहरे से नकाब खेंच कर फेंक दी। अब सभों ने उसे पहिचाना कि यह राजा का प्यारा नौकर बच्चनसिंह है।


खड़ग० : नाहरसिंह, यह क्या मामला है?


नाहर० : भारी चालबाजी की गई, यह इस उम्मीद में यहाँ बेखौफ चला आया कि चेहरे से नकाब न हटानी पड़ेगी, शायद इसे यह मालूम हो गया था कि मैं यहाँ आकर चेहरे से नकाब नहीं हटाता। मैं नहीं कह सकता कि इसके साथ हमारे दुश्मनों को और कौन-कौन-सा भेद हम लोगों का मालूम हो गया। यही पाजी बीरसिंह के कैद होने के बाद उसके बाग में बीरसिंह की मोहर चुराने गया था जो वहाँ मेरे मौजूद रहने के सबब इसके हाथ न लगी, न-मालूम मोहर लेकर राजा नया-क्या जाल बनाता!


इतना सुनते ही खड़गसिंह उठ खड़े हुए और नाहरसिंह के पास पहुँच कर बोले :


खड़ग० : बेशक, हम लोग धोखे में डाले गए। इसमें कोई शक नहीं कि इस कमेटी का बहुत-कुछ हाल करनसिंह को मालूम हो गया, इन सब सरदारों में से जो यहाँ बैठे हैं, जरूर कोई राजा का पक्षपाती है और जाल करके इस कमेटी में मिला है।


नाहर० : खैर, क्या हर्ज है, बूझा जायेगा, इस समय बाहर चल कर देखना चाहिए कि बीरसिंह कहाँ है और पता लगाना चाहिए कि उस बेचारे पर क्या गुजरी। मगर इस दुष्ट को किसी हिफाजत में छोड़ना मुनासिब है।


इस मामले के साथ ही कमेटी में खलबली पड़ गई, सब उठ खड़े हुए, क्रोध के मारे सभों की हालत बदल गई। एक सरदार ने बच्चनसिंह के पास पहुँच कर उसे एक लात मारी और पूछा, “सच बोल, बीरसिंह कहाँ है और उसे क्या धोखा दिया गया, नहीं तो अभी तेरा सिर काट डालता हूँ!!”


इसका जवाब बच्चनसिंह ने कुछ न दिया, तब वह सरदार खड़गसिंह की तरफ देख कर बोला, “आप इसे मेरी हिफाजत में छोड़िए और बाहर जाकर बीरसिंह का पता लगायें, मैं इस हरामजादे से समझ लूँगा!!


खड़गसिंह ने इशारे से नाहरसिंह से पूछा कि “तुम्हारी क्या राय है?”


नाहरसिंह ने झुककर खड़गसिंह के कान में कहा, “मुझे इस सरदार पर भी शक है, जो इन सब सरदारों से बढ़ कर हमदर्दी दिखा रहा है।”


खड़ग० : (जोर से) बेशक, ऐसा ही है!


खड़गसिंह ने उस सरदार को, जिसका नाम हरिहरसिंह था और बच्चनसिंह को, दूसरे सरदारों के हवाले किया और कहा, “राजा की बेईमानी अब हम पर अच्छी तरह जाहिर हो गई, इस समय ज्यादे बातचीत का मौका नहीं है। तुम इन दोनों को कैद करो, हम किसी और काम के लिए बाहर जाते हैं।“


खड़गसिंह ने अपने साथी तीन बहादुरों को अपने साथ आने का हुक्म दिया और नाहरसिंह से कहा, “अब देर मत करो, चलो!” ये पाँचों आदमी उस मकान के बाहर हुए और फाटक पर पहुँचकर रुके। नाहरसिंह ने पहरे वालों से पूछा कि जिस आदमी को हम यहाँ छोड़ गए थे, वह हमारे जाने के बाद इसी जगह रहा या कहीं गया था?


पहरे० : वह इधर-उधर टहल रहे थे, एक आदमी आया और उन्हें दूर बुला ले गया, हम लोग नहीं जानते कि वे कहाँ तक गए थे, मगर बहुत देर के बाद लौटे, इसके बाद हुक्म के मुताबिक एक सरदार आकर उन्हें भीतर ले गया।


नाहर० : (खड़गसिंह से) देखिये, मामला खुला न!


खड़ग० : खैर, आगे चलो।


नाहर० : अफसोस! बेचारा बीरसिंह!!


खड़ग० : तुम चिन्ता मत करो, देखो, अब हम क्या करते हैं।


पाँचों आदमी वहाँ से आगे बढ़े, आगे-आगे हाथ में लालटेन लिए एक पहरे वाले को चलने का हुक्म हुआ। नाहरसिंह ने अपने चेहरे पर नकाब डाल ली। थोड़ी दूर जाने के बाद सड़क पर एक लाश दिखाई दी, जिसके इधर-उधर की जमीन खूनाखून हो रही थी।


कटोरा भर खून : खंड-10

हरिपुर गढ़ी के अन्दर राजा करनसिंह अपने दीवानखाने में दो मुसाहबों के साथ बैठा कुछ बातें कर रहा है। सामने हाथ जोड़े हुए दो जासूस भी खड़े महाराज के चेहरे की तरफ देख रहे हैं। उन दोनों मुसाहबों में से एक का नाम शंभूदत और दूसरे का नाम सरूपसिंह है।


राजा : रामदास के गायब होने का तरद्दुद तो था ही मगर हरीसिंह का पता लगने से और भी जी बेचैन हो रहा है।।


शंभू० : रामदास तो भला एक काम के लिए भेजे गए थे, शायद वह काम अभी तक नहीं हुआ, इसलिए अटक गए होंगे। मगर हरीसिंह तो कहीं भेजे भी नहीं गए।


सरूप० : जितना बखेड़ा है, सब नाहरसिंह का किया हुआ है।


राजा : बेशक, ऐसा ही है, न-मालूम हमने उस कमबख़्त का क्या बिगाड़ा है, जो हमारे पीछे पड़ा है। वह ऐसा शैतान है कि हरदम उसका डर बना रहता है और वह हर जगह मौजूद मालूम होता है। बीरसिंह को कैदखाने से छुड़ा ले जाकर उसने हमारी महीनों की मेहनत पर मिट्टी डाल दी, और बच्चन के हाथ से मोहर छीन कर बनी-बनाई बात बिगाड़ दी, नहीं तो रिआया के सामने बीरसिंह को दोषी ठहराने का पूरा बन्दोबस्त हो चुका था, उस मुहर के जरिए बड़ा काम निकलता और बहुत सच्चा जाल तैयार होता।


सरूप० : सो सब तो ठीक है मगर कुंअर साहब को आप कब तक छिपाए रहेंगे, आखिर एक-न-एक दिन भेद खुल ही जायेगा।


राजा : तुम बेवकूफ हो, जिस दिन सूरजसिंह को जाहिर करेंगे, उस दिन अफसोस के साथ कह देंगे कि भूल हो गई और बीरसिंह को कत्ल करने का महीनों अफसोस कर देंगे, मगर वह किसी तरह हाथ लगे भी तो! अभी तो नाहरसिंह उसे छुड़ा ले गया।


सरूप० : यहाँ की रिआया बीरसिंह से बहुत ही मुहब्बत रखती है, उसे इस बात का विश्वास होना मुश्किल है कि बीरसिंह ने कुमार सूरजसिंह को मार डाला!


राजा : इसी विश्वास को दृढ़ करने के लिए तो मोहर चुराने का बन्दोबस्त किया गया था, मगर वह काम ही नहीं हुआ।


शंभू० : यहाँ की रिआया ने बड़ी धूम मचा रखी है, एक बेचारा हरिहरसिंह आपका पक्षपाती है, जो रिआया की कमेटी का हाल कहा करता है, अगर आप बड़े-बड़े सरदारों और जमींदारों का जो आपके खिलाफ कमेटी कर रहे हैं, बन्दोबस्त न करेंगे, तो जरूर एक दिन वे लोग बलवा मचा देंगे।


राजा : उनका क्या बन्दोबस्त हो सकता है? अगर उन लोगों पर बिना कुछ दोष लगाये जोर दिया जाए, तो भी तो गदर होने का डर है! हाय, यह सब खराबी नाहरसिंह की बदौलत है! अफसोस, अगर लड़कपन ही में हम बीरसिंह को खतम करा दिये होते तो काहे को यह नौबत आती! क्या जानते थे कि वह लोगों का इतना प्रेमपात्र बनेगा? उसने तो हमारी कुल रिआया को मुट्ठी में कर लिया है। अब नेपाल से खड़गसिंह तहकीकात करने आये हैं, देखें वे क्या करते हैं। हरिहर की जुबानी तो यही मालूम हुआ कि यहाँ के रईसों ने उन्हें अपनी तरफ मिला लिया।


सरूप० : आज की कमेटी से पूरा-पूरा हाल मालूम हो जायेगा।


राजा : बच्चनसिंह बीस-पचीस आदमियों को साथ लेकर उसी तरफ गया हुआ है, देखें वह क्या करता है।


सरूप० : खड़गसिंह तीन-चार सौ आदमियों के साथ हैं, अगर अकेले-दुकेले होते तो खपा दिये जाते।


राजा : (हँस कर) तो क्या अब हम उन्हें छोड़ देंगे? अजी महाराज नेपाल तो दूर हैं, खड़गसिंह के साथियों तक को तो पता लगेगा ही नहीं कि वह कहाँ गया या क्या हुआ। महाराज नेपाल को लिख देंगे कि हमारी रिआया को भड़का कर भाग गया। हाँ, सुजनसिंह के बारे में भी अब हमको पूरी तरह सोच-विचार कर लेना चाहिए।


सलाह-विचार करते-करते रात का ज्यादा हिस्सा बीत गया और केवल घण्टे-भर रात बाकी रह गई। महाराज की बातें खतम भी न हुई थीं कि सामने का दरवाजा खुला और एक लाश उठाए हुए चार आदमी कमरे के अन्दर आते हुए दिखाई पड़े।


कटोरा भर खून : खंड-11

अब हम थोड़ा-सा हाल तारा का लिखते हैं, जिसे इस उपन्यास के पहले ही बयान में छोड़ आये हैं। तारा बिल्कुल ही बेबस हो चुकी थी, उसे अपनी जिन्दगी की कुछ भी उम्मीद न रही थी। उसका बाप सुजनसिंह उसकी छाती पर बैठा जान लेने को तैयार था और तारा भी यह सुनकर कि उसका पति बीरसिंह अब जीता न बचेगा, मरने के लिए तैयार थी, मगर उसकी मौत अभी दूर थी। यकायक दो आदमी वहाँ जा पहुँचे, जिन्होंने पीछे से जाकर सुजनसिंह को तारा की छाती पर से खेंच लिया। सुजनसिंह लड़ने के लिए मुस्तैद हो गया और उसने वह हर्बा, जो तारा की जान लेने के लिए हाथ में लिए हुए था, एक आदमी पर चलाया।


उस आदमी ने भी हर्बे का जवाब खंजर से दिया और दोनों में लड़ाई होने लगी। इतने ही में दूसरे आदमी ने तारा को गोद में उठा लिया और लड़ते हुए अपने साथी से विचित्र भाषा में कुछ कह कर बाग के बाहर का रास्ता लिया। इस कशमकश में बेचारी तारा डर के मारे एक दफे चिल्ला कर बेहोश हो गई और उसे तनबदन की सुध न रही। जब उसकी आँख खुली, उसने अपने को एक साधारण कुटी में पाया, सामने मन्द-मन्द धूनी जल रही थी और उसके आगे सिर से पैर तक भस्म लगाये बड़ी-बड़ी जटा और लंबी दाढ़ी में गिरह लगाये एक साधु बैठा था, जो एकटक तारा की तरफ देख रहा था। उस साधु की पहली आवाज जो तारा के कान में पहुँची, यह थी, “बेटी तारा, तू डर मत, अपने को संभाल और होशहवास दुरुस्त कर।”


यह आवाज ऐसी नम और ढाढ़स देने वाली थी कि तारा का अभी तक धड़कने वाला कलेजा ठहर गया और वह अपने को संभाल कर उठ बैठी।


साधु : तारा, क्या सचमुच तेरा नाम तारा ही है या मुझे धोखा हुआ?


तारा : (हाथ जोड़कर) जी हाँ, मेरा नाम तारा ही है।


साधु ने अपनी झोंपडी के कोने में से बड़े-बड़े दो आम निकाले और तारा के हाथ में देकर कहा, “पहिले तू इन्हें खा, फिर बात-चीत होगी।”


तारा का जी बहुत ही बेचैन था, तरह-तरह के खयालों ने उसे अपने आपे से बाहर कर दिया था, और इस विचार ने कि उसके पति बीरसिंह पर जरूर कोई आफत आई होगी, उसे अधमूआ कर दिया था। वह सोच रही थी कि अगर मैं अपने बाप के हाथ से सार डाली गई होती तो अच्छा था, क्योंकि इन सब बखेड़ों से और अपने पति के बारे में बुरी खबरों के सुनने से तो बचती। तारा ने आम खाने से इन्कार किया, मगर साधु महाशय के बहुत जिद करने और समझाने से लाचार हुई और आम खाना ही पड़ा। हाथ धोने के लिए जब वह कुटी के बाहर निकली, तब उसे मालूम हुआ कि यह कुटी एक नदी के किनारे पर बनी हुई है और चारों तरफ जहाँ तक निगाह काम करती है, मैदान और सन्नाटा ही दिखाई पड़ता है। समय दोपहर का था, बल्कि धूप कुछ ढल चुकी थी जब तारा हाथ-मुँह धोकर बैठी और यों बात-चीत होने लगी :


साधु : हाँ तारा, अब मैं उम्मीद करता हूँ कि तू अपना सच्चा-सच्चा हाल मुझसे कहेगी।


तारा : बेशक, मैं आपसे जो कुछ कहूँगी, सच कहूँगी, क्योंकि मुझे आपसे अपनी भलाई की बहुत-कुछ उम्मीद होती है।


साधु : मेरे सामने अग्नि जल रही है, मैं इसे साक्षी देकर कहता हूँ कि तू मुझसे सिवाय भलाई के बुराई की उम्मीद जरा भी मत रख। हाँ, अब कह, तू कौन है और तुझ पर क्या आफत आई है?


तारा : मैं राजा करनसिंह के खजांची सुजनसिंह की लड़की हूँ।


साधु : वही लड़की जिसकी शादी बीरसिंह के साथ हुई है?


तारा : जी हाँ।


साधु : तेरा बाप है तो क्या हुआ मगर मैं यह कहने से बाज न आऊँगा कि सुजनसिंह बड़ा ही बेईमान नमकहराम और खुदगर्ज आदमी है। साथ ही इससे बीरसिंह की वीरता, लायकी और रिआया-पर्वरी मुझसे अपनी तारीफ कराये बिना नहीं रहती। बीरसिंह बड़ा ही धर्मात्मा और साहसी है। हाँ तारा, जब तू सुजनसिंह की लड़की है, तो जरूर राजा के यहाँ भी आती-जाती होगी?


तारा : जी हाँ, पहिले तो मैं महीनों राजा ही के यहाँ रहा करती थी, मगर अब नहीं। अब तो राजा और पिता दोनों ही के यहाँ का आना-जाना बन्द हो गया।


साधु : सो क्यों?


तारा : क्योंकि दोनों मेरी जान के ग्राहक हो गए!


साधु : खैर, दोनों जगह का आना-जाता बन्द होने का सबब पीछे सुनूँगा, पहिले बता कि तेरा पिता सुजनसिंह ‘कटोरा भर खून’ के नाम से क्यों डरता और काँपता है ? इसमें क्या भेद है?


तारा : (काँप कर) ओफ्! याद करके कलेजा काँपता है, वह बड़ा ही भयानक दृश्य था ! खैर, मैं कहूँगी, मगर यह बड़ी ही नाजुक बात है।


साधु : मैं कसम खाकर कह चुका कि तू मुझसे सिवाय भलाई के बुराई की उम्मीद कभी मत रख, फिर क्या डरती है?


तारा : मैं कहूँगी ओर जरूर कहूँगी, मेरा दिल गवाही देता है कि आप मेरे खैरख्वाह हैं, न-मालूम क्यों मुझे आपके चरणों में मुहब्बत होती है।


तारा के ऐसा कहने से साधु की आँखें डबडबा आईं, उसने धूनी में से थोड़ी-सी राख उठा कर अपनी आँखों पर मली और इस तरकीब से आँसू सुखा कर बोला :


साधु : खैर, तारा, यह तो ईश्वर की कृपा है। हाँ, तू वह भेद कह, मेरा जी उसे सुनने के लिए बेचैन है।


तारा : मगर इसके साथ मुझे अपना भी बहुत-सा किस्सा कहना पड़ेगा!


साधु : कोई हर्ज नहीं, मैं सब-कुछ सुनने के लिए तैयार हूँ।


तारा : अच्छा तो मैं कहती हूँ, सुनिए। मैं लड़कपन से राजा के यहाँ आती-जाती थी और कई-कई दिनों तक वहाँ रहा करती थी। महल में एक और लड़की भी रहा करती, जिसका नाम अहिल्या था। उसकी उम्र मुझसे बहुत ज्यादा थी, मगर तो भी मैं उससे मुहब्बत करती थी और वह भी मुझे दिल से चाहती और प्यार करती थीं। मुझे यह न मालूम हुआ कि अहिल्या के माता-पिता कौन और कहाँ हैं और उसका कोई रिश्तेदार है या नहीं। मैंने कई दफे अहिल्या से पूछा कि तेरे माता-पिता कौन और कहाँ हैं, मगर इसके जवाब में उसने केवल आँसू गिरा दिया और मुँह से कुछ न कहा। मेरी और बीरसिंह की जान-पहचान लड़कपन ही से थी। वह महल में बराबर राजा के साथ आया करते थे, अक्सर अहिल्या के पास भी जाकर कुछ देर बैठा करते थे और वह उन्हें भाई के समान मानती थी। मैं अहिल्या को बीबी कह कर पुकारती थी। अहिल्या और बीरसिंह दोनों ही को राजा माना करते थे, बल्कि अहिल्या ही के कहने से मेरी शादी बीरसिंह के साथ हुई।


साधु : अहिल्या का नाम अहिल्या ही था या कोई और नाम भी उसका था?


तारा : उसका कोई दूसरा नाम कभी सुनने में नहीं आया, मगर एक दिन एक भयानक घटता के समय मुझे मालूम हो गया कि उसका एक दूसरा नाम भी है।


साधु : वह क्या नाम है?


तारा : सो मैं आगे चल कर कहूँगी, अभी आप सुनते जाइये।


साधु : अच्छा, कहो।


तारा : महारानी ने राजा से कई दफे कहा कि अहिल्या बहुत बड़ी हो गई है, इसकी शादी कहीं कर देनी चाहिए, मगर राजा ने यह बात मंजूर न की। थोड़े दिन बाद राजा के बर्ताव से महारानी तथा और कई औरतों को मालूम हो गया कि अहिल्या के ऊपर राजा की बुरी निगाह पड़ती है और इसी सबब से वे उसकी शादी नहीं करते।


साधु : हरामजादा, पाजी, बेईमान कहीं का! हाँ तब क्या हुआ?


तारा : यह बात रानी को बहुत बुरी लगी और इसके सबब कई दफे राजा से झगड़ा भी हुआ, आखिर एक दिन राजा ने खुल्लमखुल्ला कह दिया कि अहिल्या की शादी कभी न की जायेगी।


साधु : अच्छा, तब क्या हुआ?


तारा : यह बात रानी को तीर के समान लगी और अहिल्या का चेहरा भी सूख गया और उसने डर के मारे राजा के सामने जाना बन्द कर दिया। तीन-चार दिन के बाद अहिल्या यकायक महल से गायब हो गई। राजा ने बहुत उधम मचाया, कई लौंडियों को मारा-पीटा, कितनों ही को महल से निकाल दिया, रानी से भी बोलना छोड़ दिया, मगर अहिल्या का पता न लगा।


साधु : क्या अभी तक अहिल्या का पता नहीं है?


तारा : आप सुने चलिये, मैं सब कुछ कहती हूँ। कई वर्ष के बाद एक दिन किसी लौंडी से चुपके-चुपके रानी को यह कहते मैंने सुन लिया कि ‘अब तो अहिल्या को दूसरा लड़का भी हुआ, पहिली लड़की तीन वर्ष की हो चुकी, ईश्वर करे उसका पति जीता रहे। सुनते हैं, बड़ा ही लायक है और अहिल्या को बहुत चाहता है।’


अहिल्या के सामने ही मेरी शादी बीरसिंह से हो चुकी थी और मैं अपने ससुराल में रहने लग गई थी। अहिल्या के गायब होने का रंज मुझे और बीरसिंह को भी हुआ था और इसी से मैंने महल में आना-जाना बहुत कम कर दिया था, मगर जिस दिन रानी की जुबानी ऊपर वाली बात सुनी, मुझे एक तरह की खुशी हुई। मैंने यह हाल बीरसिंह से कहा, वह भी सुनकर बहुत खुश हुए और समझ गये कि रानी ने उसे कहीं भेजवा कर उसकी शादी करा दी थी। उसके बाद यह भेद भी खुल गया कि रानी ने उसे अपने नैहर भेज दिया था।


साधु : तुम्हारे ससुराल में कौन-कौन है?


तारा : नाम ही को ससुराल है, असल में मेरा सच्चा रिश्तेदार वहाँ कोई भी नहीं, हाँ, पाँच-सात मर्द और औरतें हैं, हमारे पति उनमें से किसी को चाचा, किसी को मौसा, किसी को चाची इत्यादि कह के पुकारा करते हैं। असल में उनका कोई भी नहीं है। उनके माँ-बाप उनके लड़कपन ही में मर गए थे और राजा ने उन्हें पाला था। राजा उन्हें बहुत मानते थे, मगर फिर भी वे कहा करते थे कि राजा बड़ा ही बेईमान है, एक-न-एक दिन हमसे और उससे बेतरह बिगड़ेगी।


साधु : खैर, तब क्या हुआ?


तारा: बहुत दिन बीत जाने पर एक दिन रानी ने मिलने के लिए मुझे महल में बुलाया। मैं गई और तीन-चार दिन तक वहाँ रही। इसी बीच में एक दिन रात को मैं महल में लेटी हुई थी, मेरा पलंग रानी की मसहरी के पास ही बिछा हुआ था, इधर-उधर कई लौंडियाँ भी सोई हुई थीं, रानी भी नींद में थीं, मगर मुझे नींद नहीं आ रही थी। यकायक यह आवाज मेरे कान में पड़ी–“हाय, आखिर बेचारी अहिल्या फँस ही गई। चलो दीवानखाने के ऊपर वाले छेद से झाँक कर देखें कि किस तरह बेचारी की जान ली जाती है, फिर आकर रानी को उठावें?


इस आवाज को सुनते ही मैं चौंक पड़ी, कलेजा धकधक करने लगा। बेताबी ने मुझे किसी तरह दम न लेने दिया। मैं चारपाई पर से उठ बैठी और कुछ सोच-विचार कर ऊपर की छत पर चली गई और धीरे-धीरे उस पाटन की तरफ चली जो दीवानखाने की छत से मिली हुई थी। कमर-भर ऊँची दीवार फाँद कर वहाँ पहुँची। वहाँ छोटे-छोटे कई सूराख ऐसे थे, जिनमें से झाँक कर देखने से दीवानखाने की कुल कैफियत मालूम हो सकती थी। मेरे जाने के पहिले ही दो औरतें वहाँ पहुँची हुई थीं।


साधु: वे दोनों कौन थीं?


तारा: दोनों रानी साहिबा की लौंडियाँ थीं, मुझे देखते ही मेरे पास पहुँचीं और हाथ जोड़ कर बोलीं—“ईश्वर के वास्ते आप कोई ऐसा काम न करें, जिसमें हम लोगों की और आपकी भी जान जाये। अगर राजा जान जायेगा या किसी ने देख लिया तो बिना जान से मारे न छोड़ेगा!” इसके जवाब में मैंने कहा—“तुम खातिर जमा रक्खो, किसी को कुछ भी खबर न होगी।”


यह दीवानखाना पुराना था, जब से राजा ने अपने लिए दूसरा दीवानखाना बनवाया, तब से वर्षों हुए यह खाली ही पड़ा रहता था, इसमें कभी चिराग भी नहीं जलता था। लोगों का खयाल था कि इसमें भूत-प्रेत रहते हैं, इसलिए कोई उस तरफ जाता भी न था। मैंने सूराख में से झाँक कर देखा, सामने ही बेचारी अहिल्या सिर झुकाए बैठी आँसू गिरा रही थी, एक तरफ कोने में पाँच-चार कुदाल जमीन खोदने वाले पड़े थे। दूसरी तरफ मिट्टी के बीस-पच्चीस घड़े जल से भरे पड़े हुए थे। अहिल्या के सामने राजा खड़ा उसी की तरफ देख रहा था, राजा के पीछे मेरा बाप सुजनसिंह, रामदास और हरीसिंह राजा के मुसाहब खड़े थे। मेरे बाप की गोद में एक लड़की थी, जिसकी उम्र लगभग तीन वर्ष की होगी। हाय, उसकी सूरत याद पड़ने से रोंगटे खड़े हो जाते हैं! उसकी सूरत किसी तरह भुलाये नहीं भूलती। राजा ने अहिल्या से कहा–“सुन्दरी, तू मेरी बात न मानेगी? तू मेरी होकर न रहेगी?”


साधु : क्या नाम लिया, सुन्दरी!


तारा : जी हाँ, सुन्दरी। उसी समय मुझे मालूम हुआ कि उसका नाम सुन्दरी भी है।


साधु : हाय, अच्छा तब क्या हुआ?


तारा : सुन्दरी ने सिर हिला कर इनकार किया।


साधु : तब?


तारा : राजा ने कहा, “सुन्दरी, अगर तू मेरी बात न मानेगी तो पछताएगी। मैं जबरदस्ती तुझे अपने कब्जे में करके अपनी ख्वाहिश पूरी कर सकता हूँ, मगर मैं चाहता हूँ कि एक दिन के लिए क्या हमेशा के लिए तू मेरी हो जा। अगर तेरी इच्छा है तो तेरे लिए रानी को भी मार डालने को मैं तैयार हूँ और तुझे अपनी रानी बना सकता हूँ!” इसके जवाब में सुन्दरी ने कहा, “अरे दुष्ट, तू बेहूदी बातें क्यों बकता है, अगर तू साक्षात् इन्द्र भी बन के आवे तो मेरे दिल को नहीं फेर सकता!”


साधु : शाबाश, अच्छा तब क्या हुआ?


तारा : राजा ने मेरे पिता की तरफ कुछ इशारा किया, उसने लड़की को जिसे वह गोद में लिए हुए था, चादर से बाँध खूँटों के साथ उलटा लटका दिया और खंजर निकाल सामने जा खड़ा हुआ। लड़की बेचारी चिल्लाने लगी और सुन्दरी की आँखों से भी आँसू की धारा बह चली। राजा ने फिर पुकार कर कहा, सुन्दरी, अब भी मान जा! नहीं तो तेरी इसी लड़की के खून से तुझे नहलाऊँगा।


“हाय, क्या मैं अपने पति के साथ दगा करूँ और उसकी होकर दूसरे की बनूँ? यह कभी नहीं हो सकता!!”


राजा ने हरीसिंह और मेरे पिता की तरफ कुछ इशारा किया। हरी सिंह ने एक कटोरा लड़की के नीचे रख दिया, मेरे पिता ने खंजर से लड़की का काम तमाम करना चाहा मगर न-मालूम कहाँ से उसके दिल में दया का संचार हुआ कि खंजर उसके हाथ से गिर पड़ा। राजा को उसकी यह अवस्था देख क्रोध चढ़ आया, तलवार खेंच कर मेरे पिता के पास जा पहुँचा और बोला, “हरामजादे! क्या मेरी बात तू नहीं सुनता! खबरदार, होशियार हो जा, इस लड़की का खून इस कटोरे में भर कर मुझे दे, मैं जबरदस्ती हरामजादी को पिलाऊँगा!!”


लाचार मेरे बाप ने फिर खंजर उठा लिया और उसका दस्ता (कब्जा) इस जोर से बेचारी चिल्लाती हुई लड़की के सर में मारा कि सर फूट की तरह फट गया और खून का तरारा बहने लगा। यह हाल देख बेचारी सुन्दरी चिल्लाई और “हाय” करके बेहोश हो गई। मेरे भी हवास जाते रहे और मैं भी बेहोश होकर जमीन पर गिर पड़ी। घण्टे-भर के बाद जब मुझे होश आया, मैं उठी और उसी सूराख की राह झाँक कर देखने लगी, मगर इस वक्त दूसरा ही समाँ नजर पड़ा। उस दीवानखाने में न तो सुन्दरी थी और न वह लटकती हुई लड़की ही। उसके बदले दूसरे दो आदमियों की लाश पड़ी हुई थी। राजा और उसके साथी जो-जो बातें करते थे साफ सुनाई देती थीं। राजा ने मेरे बाप की तरफ देख कर कहा, “ये दोनों हरामजादी लौंडियाँ छत पर चढ़ कर मेरी कारवाई देख रही थीं! इन्हें अपनी जान का कुछ भी खौफ न था! (हरीसिंह की तरफ देख कर) हरी, इन दोनों की लाश ऐसी जगह पहुँचाओ कि हजारों वर्ष बीत जाने पर भी किसी को इनके हाल की खबर न हो। (मेरे बाप की तरफ देख कर) तेंने बहुत बुरा किया जो तारा को छोड़ दिया, बेशक, अब वह भाग गई होगी, लेकिन तेरी जान तभी बचेगी जब तारा का सर मेरे सामने लाकर हाजिर करेगा, वह भी ऐसे ढब से कि किसी को कानोंकान खबर न हो कि तारा कहाँ गई और क्या हुई। बेशक, तारा यह हाल बीरसिंह से भी कहेगी, मुझे लाजिम है कि जहाँ तक जल्द हो सके बीरसिंह को भी इस दुनिया से उठा दूँ!”


यह सुनते ही मेरा कलेजा काँप उठा और यह सोचती हुई कि मैं अभी जाकर अपने पति को इस हाल की खबर करूँगी, जिससे वे अपनी जान बचा सकें, वहाँ से भागी और महल से एक लौंडी को साथ ले तुरन्त अपने घर चली आई।


साधु महाशय तारा के मुँह से इस किस्से को सुन कर काँप गए और देर तक गौर में पड़े रहने के बाद बोले, “यह राजा बड़ा ही दुष्ट और दगाबाज है, लेकिन ईश्वर चाहेगा तो बहुत जल्द अपने कर्मों का फल भोगेगा!!”


कटोरा भर खून : खंड-12

हम ऊपर लिख आये हैं कि जमींदारों और सरदारों को कमेटी में से अपने तीनों साथियों और नाहरसिंह को साथ ले बीरसिंह की खोज में खड़गसिंह बाहर निकले और थोड़ी दूर जाकर उन्होंने जमीन पर पड़ी हुई एक लाश देखी। लालटेन की रोशनी में चेहरा देख कर उन लोगों ने पहिचाना कि यह राजा का आदमी है।


नाहरसिंह : मालूम होता है, इस जगह राजा के आदमियों और बीरसिंह से लड़ाई हुई है।


खड़गसिंह : जरूर ऐसा हुआ है, ताज्जुब नहीं कि बीरसिंह को गिरफ्तार करके राजा के आदमी ले गए हों।


नाहरसिंह : अगर इस समय हम लोग महाराज के पास पहुँचें तो बीरसिंह को जरूर पावेंगे।


खड़गसिंह : मैं इस समय जरूर महाराज के पास जाऊँगा, क्या आप भी मेरे साथ वहाँ चल सकते हैं?


नाहरसिंह : चलने में हर्ज ही क्या है? मैं ऐसा डरपोक नहीं हूँ, और जब आप ऐसा मददगार मेरे साथ है तो मैं किसी को कुछ नहीं समझता! फिर मुझे वहाँ पहिचानता ही कौन है?


खड़गसिंह : शाबाश! आपकी बहादुरी में कोई शक नहीं, मगर मैं इस समय वहाँ जाने की राय आपको नहीं दे सकता, क्या जाने कैसा मामला हो। आप इसी जगह कहीं ठहरें, मैं जाता हूँ, अगर बीरसिंह वहाँ होंगे तो जरूर अपने साथ ले आऊँगा, (कुछ सोच कर) मगर आपका यहाँ अकेले रहना भी मुनासिब नहीं।


नाहरसिंह : इसकी चिन्ता आप न करें। मैं अकेला नहीं हूँ, मेरे साथी लोग इधर-उधर छिपे-लुके जरूर होंगे।


खड़गसिंह : अच्छा तो मैं अपने इन तीनों आदमियों को साथ लिए जाता हूँ।


अपने तीनों आदमियों को साथ ले खड़गसिंह राजमहल की तरफ रवाना हुए। वहाँ ड्योढ़ी पर के सिपाहियों ने राजा के हुक्म मुताबिक इन्हें रोका मगर खड़गसिंह ने किसी की कुछ न सुनी। ज्यादा हुज्जत करने का हौसला भी सिपाहियों को न हुआ, क्योंकि वे लोग जानते थे कि खड़गसिंह नेपाल के सेनापति हैं।


खड़गसिंह धड़धड़ाते हुए दीवानखाने में चले गए और ठीक उस समय वहाँ पहुँचे, जब राजा करनसिंह अपने दोनों मुसाहबों शम्भूदत्त और सरूपसिंह के साथ बातें कर रहा था और चार आदमी एक लाश उठाये हुए वहाँ पहुँचे थे। वह लाश बीरसिंह की ही थी और इस समय राजा के सामने रक्खी हुई थी। बीरसिंह मरा नहीं था, मगर बहुत ज्यादे जख्मी हो जाने के कारण बेहोश था।


यकायक खड़गसिंह को वहाँ पहुँचते देख राजा को ताज्जुब हुआ और वह कुछ हिचका, चेहरे पर खौफ की निशानी फैल गई। उसने बहुत जल्द अपने को सम्हाल लिया, उठ कर बड़ी खातिरदारी के साथ खड़गसिंह का इस्तकबाल किया और अपने पास बैठा कर बोला, “देखिए, बड़ी मेहनत और परेशानी से अपने प्यारे लड़के के खूनी बीरसिंह को, जिसे शैतान नाहरसिंह छुड़ा ले गया था, मैंने फिर पाया है।”


खड़गसिंह : खूनी के गिरफ्तार होने की मैं आपको बधाई देता हूँ। मैंने अच्छी तरह तहकीकात किया और निश्चय कर लिया कि बीरसिंह बड़ा ही शैतान और नमकहराम है। मैं अपने हाथ से इसका सिर काटूँगा। हाँ, मैं एक बात की और मुबारकबाद देता हूँ।


राजा : वह क्या?


खड़गसिंह : आपके भारी दुश्मन नाहरसिंह को भी इस समय मैंने गिरफ्तार कर लिया!


राजा : (खुश होकर) वाह-वाह, यह बड़ा काम हुआ! इसके लिए मैं जन्म-भर आपका अहसान मानूँगा, वह कहाँ है?


खड़गसिंह : सिपाहियों के पहरे में अपने लश्कर भेज दिया है। मैं मुनासिब समझता हूँ कि बीरसिंह को भी आप मेरे हवाले कीजिए और अपने आदमियों को हुक्म दीजिए कि इसे उठा कर मेरे डेरे में पहुँचा आवें। कल मैं एक दरबार करूँगा, जिसमें यहाँ की कुल रिआया को हाजिर होने का हुक्म होगा। उसी में महाराज नेपाल की तरफ से आपको एक पदवी दीं जाएगी और बिना कुछ ज्यादे पूछताछ किए इन दोनों को मैं अपने हाथ से मारूँगा। इसके सिवाय आपके दो-चार दुश्मन और भी हैं, उन्हें भी मैं उसी समय फाँसी का हुक्म दूँगा।


राजा: यह आपको कैसे मालूम हुआ कि मेरे और भी दुश्मन हैं?


खड़ग ० : महाराज नेपाल ने जब मुझको इधर रवाना किया तो ताकीद कर दी थी कि करनसिंह की मदद करना और खोज-खोज कर उनके दुश्मनों को मारना। हरिपुर की रिआया बड़ी बेईमान और चालबाज है, उन लोगों को चिढ़ाने के लिए मेरी तरफ से करनसिंह को यह पत्र और अधिराज की पदवी देना। उसी हुक्म के मुताबिक मैंने यहाँ पहुँच कर यहाँ के जमींदारों और सरदारों से मेल पैदा किया और उनकी गुप्त कमेटी में पहुँचा, जो आपके विपक्ष में हुआ करती है, बस फिर आपके दुश्मनों का पता लगाना क्या कठिन रह गया!


राजा : (हँस कर) आपने मेरे ऊपर बड़ी मेहरबानी की, मैं किसी तरह आपके हुक्म के खिलाफ नहीं कर सकता। आप मुझे अपना ताबेदार ही समझिए। क्या आप बता सकते हैं कि मेरे वे दुश्मन कौन हैं?


खड़गसिंह : इस समय मैं नाम न बताऊँगा, कल दरबार में आपके सामने ही सभों को कायल करके फाँसी का हुक्म दूँगा, वे लोग भी ताज्जुब करेंगे कि किस तरह उनके दिल का भेद ले लिया गया।


खड़गसिंह जब यकायक दीवानखाने में राजा के सामने जा पहुँचे, तो राजा बहुत ही घबड़ाया और डरा, मगर उसने तुरत अपने को सँभाला और जी में सोचा कि खड़गसिंह के साथ जाहिरदारी करनी चाहिए, अगर मौका देखूँगा तो इसी समय इन्हें भी खपा कर बखेड़ा तै करूँगा, किसी को कानोंकान खबर भी न होगी।


उधर खड़गसिंह के दिल में भी यकायक यही बात पैदा हुई। उसने सोचा कि मैं केवल तीन आदमी साथ लेकर यहाँ आ पहुँचा सो ठीक न हुआ। कहीं ऐसा न हो कि राजा मेरे साथ दगा करे, क्योंकि अभी थोड़ी ही देर हुई है, इस बात का पता लग चुका है कि कमेटी में एक आदमी राजा का पक्षपाती भी धोखा देकर घुसा हुआ है, उसकी जुबानी मेरी कुल कार्रवाई राजा को मालूम हो गई होगी। ताज्जुब नहीं कि वह इस समय दंगा करे। इन बातों को सोचकर बुद्धिमान खड़गसिंह ने फौरन अपना ढंग बदल दिया और मतलब-भरी बातों के फेर में राजा को ऐसा फँसा लिया कि वह चूँ तक न कर सका। उसे विश्वास हो गया कि खड़गसिंह मेरा मददगार है, इससे किसी तरह का उज्र करना मुनासिब नहीं।


उसने तुरन्त अपने आदमियों को हुक्म दिया कि बीरसिंह को उठाकर सेनापति खड़गसिंह के डेरे पर पहुँचा आओ। खड़गसिंह भी दीवानखाने के नीचे उतरे और सड़क पर पहुँच कर उन्होंने अपने साथी तीन बहादुरों में से दो को मरहम-पट्टी की ताकीद करके बीरसिंह के साथ जाने का हुक्म दिया तथा एक को अपने साथ लेकर उस तरफ बढ़े, जहाँ नाहरसिंह को छोड़ आए थे।


उस मकान से, जिसमें कमेटी हुई थी, थोड़ी दूर इधर ही खड़गसिंह ने नाहरसिंह को पाया। इस समय नाहरसिंह अकेला न था, बल्कि पांच आदमी और भी उसके साथ थे, जिन्हें देख खड़गसिंह ने पूछा, “कौन है, नाहरसिंह?”


इसके जवाब में नाहरसिंह ने कहा, “जी हाँ।”


खड़गसिंह : ये सब कौन हैं?


नाहरसिंह : मेरे साथियों में से जो इधर-उधर घूम रहे थे और इस इन्तजार में थे कि समय पड़ने पर मदद दें।


खड़गसिंह : इतने ही हैं या और भी?


नाहरसिंह : और भी हैं, यदि चाहूँ तो आधी घड़ी के अन्दर सौ बहादुर इकट्ठे हो सकते हैं।


खड़गसिंह : बहुत अच्छी बात है, क्योंकि आज यकायक लड़ाई हो जाना कोई ताज्जुब नहीं।


नाहरसिंह : बीरसिंह का पता लगा?


खड़गसिंह : हाँ, उन्हें जख्मी करके करनसिंह के आदमी ले गए थे, उसी समय मैं भी जा पहुँचा, फिर वह मुझसे क्योंकर छिपा सकता था? आखिर उन्हें अपने कब्जे में किया और अपने आदमियों के साथ अपने डेरे पर भिजवा दिया।


नाहरसिंह : बीरसिंह की कैसी हालत है?


खड़गसिंह : अच्छी हालत है, कोई हर्ज नहीं, जख्म लगे हैं, मालूम होता है, बहादुर ने लड़ने में कसर नहीं की। मेरे आदमियों ने पट्टी बाँध दी होगी। अब देर न करो चलो, सरदार लोग अभी तक बैठे मेरा इन्तजार कर रहे होंगे।


नाहरसिंह : जी हाँ, जब तक हम लोग न जायेंगे, वे लोग बेचैन रहेंगे। खड़ग सिंह के पीछे-पीछे अपने साथियों के साथ नाहरसिंह फिर उसी मकान में गया, जिसमें कमेटी बैठी थी। कुल सरदार और जमींदार अभी तक वहाँ मौजूद थे। खड़गसिंह को देख सब उठ खड़े हुए। खड़गसिंह ने बैठने के बाद अपनी बगल में नाहरसिंह को बैठाया और सब को बैठने का हुक्म दिया। नाहरसिंह ने अपने साथियों में से एक आदमी को अपने पास बैठाया, जो अपने चेहरे पर नकाब डाले हुए था।


अनिरुद्धसिंह : बीरसिंह का पता लगा ?


खड़गसिंह : हाँ, वह राजा के दगाबाज नौकरों के हाथ में फँस गया था, मैं वहाँ जाकर उसे छुड़ा लाया और अपने डेरे पर भेजवा दिया, अब बच्चनसिंह और हरिहरसिंह को भी पहरे के साथ हमारे लश्कर में भिजवा देना चाहिए।


तुरत हुक्म की तामील हुई, कई सिपाहियों को पहरे पर से बुलवा कर दोनों बेईमान उनके सुपुर्द किए गए और एक बहादुर सरदार उनके साथ पहुँचाने के लिए गया।


खड़गसिंह : (नाहरसिंह की तरफ देखकर) हाँ तो करनसिंह का लड़का जीता है? उसे तुम दिखा सकते हो?


नाहरसिंह : जी हाँ, उसके जीते रहने का एक सबूत तो मेरे पास इसी समय मौजूद है।


खड़गसिंह : वह क्या?


नाहरसिंह ने एक पत्र कमर से निकाल कर खड़गसिंह के हाथ में दिया और पढ़ने के लिए कहा। यह वही चिट्ठी थी जो नदी में तैरते हुए रामदास को गिरफ्तार करने बाद उसकी कमर से नाहरसिंह ने पाई थी। इसे पढ़ते ही गुस्से से खड़गसिंह की आंखें लाल हो गयीं।


खड़गसिंह : बेशक, यह कागज राजा के हाथ का लिखा हुआ है, फिर उसकी मोहर भी मौजूद है। इससे बढ़कर और किसी सबूत की हमें जरूरत नहीं। अब सूरजसिंह का पता न भी लगे तो कोई हर्ज नहीं। (अनिरुद्ध सिंह के हाथ में चीठी देकर) लो पढ़ो और बाकी सभी को भी पढ़ने को दो। एकाएकी वह चीठी सभों के हाथ में गई और सभी ने पढ़ कर इस बात पर अपनी प्रसन्नता प्रकट की कि बीरसिंह निर्दोष निकला।


अनिरुद्ध : (खड़गसिंह से) अब आपको मालूम हो गया कि हम लोगों की जो दरखास्त नेपाल गई थी, वह व्यर्थ न थी।


खड़गसिंह : बेशक, (नाहरसिंह की तरफ देख कर) हाँ, आपने कहा था कि बीरसिंह का असल हाल आप लोग नहीं जानते। वह कौन-सा हाल है, क्या आप कह सकते हैं?


नाहरसिंह : हाँ मैं कह सकता हूँ यदि आप लोग दिल लगा कर सुनें।


खड़गसिंह : जरूर सुनेंगे।


नाहरसिंह ने करनसिंह और करनसिंह राठू का हाल और अपने बचने का सबब जो बीरसिंह से कहा था, इस जगह खड़गसिंह और सब सरदारों के सामने कह सुनाया और इसके बाद बीरसिंह को कैद से छुड़ाने का हाल और अपनी बहिन सुन्दरी का भी वह पूरा हाल कहा जो तारा ने बाबाजी से बयान किया था। सुन्दरी का हाल बहुत-कुछ नाहरसिंह को पहिले से ही मालूम था, बाकी हाल जो तारा ने बीरसिंह से कहा था, वह बीरसिंह ने अपने बड़े भाई नाहरसिंह को सुनाया था। बीरसिंह यह नहीं जानता था कि उसकी स्त्री तारा ने जिस अहिल्या का हाल उससे कहा था, वह उसकी बहिन सुन्दरी ही थी। जब बीरसिंह और नाहरसिंह में मुलाकात हुई और अपनी बहिन सुन्दरी का नाम नाहरसिंह से सुना तब मालूम हुआ कि अहिल्या या सुन्दरी ही वह बहिन है।


नाहरसिंह की जुबानी करनसिंह का किस्सा सुनकर सभी का जी बेचैन हो गया। आँखों में आँसू भर कर सभों ने लम्बी सांसें लीं और बेईमान करनसिंह राठू को गालियाँ देने लगे। थोड़ी देर तक सभों के चेहरे पर उदासी छाई रही, मगर फिर क्रोध ने सभों का चेहरा लाल कर दिया और सभों ने दांत पीस कर कहा कि हम लोग ऐसे नालायक राजा की ताबेदारी नहीं कर सकते, हम लोग अपने हाथों से राजा को सजा देंगे और असली राजा करनसिंह के लड़के विजयसिंह (नाहरसिंह) को यहाँ की गद्दी पर बैठावेंगे, हम लोग चन्दा करके रुपये बटोरेंगे और फौज तैयार करके विजयसिंह और बीरसिंह को सरदार बनावेंगे इत्यादि-इत्यादि।


जोश में आकर बहुत-सी बातें सरदारों ने कही और इसी समय खड़गसिंह ने भी, अपनी फौज के सहित, जो नेपाल से साथ लाए थे, बीरसिंह और नाहरसिंह की मदद करना कबूल किया।


नाहरसिंह : मेरी बहिन सुन्दरी का हाल थोड़ा-सा और बाकी है, जिसे आप चाहें तो सुन सकते हैं, यह हाल मुझे इनकी (अपने बगल में बैठे हुए साथी की तरफ इशारा करके) जुबानी मालूम हुआ है।


सरदार: हाँ हाँ, जरूर सुनेंगे, ये कौन हैं?


नाहरसिंह : यह अपना हाल खुद आप-लोगों से बयान करेंगे।


खड़गसिंह : मगर इनको चाहिए कि अपने चेहरे से नकाब हटा दें।


नाहरसिंह के ये साथी महाशय जो उनके- बगल में बैठे हुए थे वे ही बाबू साहब थे जो गोद में एक लड़के-को लेकर, सुन्दरी से मिलने के लिए. किले के अन्दर तहखाने में गए थे। इन्हें पाठक अभी भूले न होंगे। खड़गसिंह के कहते ही बाबू साहब ने “कोई हर्ज नहीं” कहकर अपने चेहरे से. नकाब हटा दी और बेचारी सुन्दरी का बाकी-किस्सा कहने लगे. इन्हें इस शहर में कोई भी पहिचानता नहीं था।


बाबू साहब: सुन्दरी अहिल्या के नाम से बहुत दिनों तक इस नालायक राजा के यहाँ रही। राजा की पाप-भरी आँखों का अन्दाज रानी को मालूम हो गया और उसने चुपके-से सुन्दरी को अपने नैहर भेज कर बाप को कहला भेजा कि उसकी शादी करा दी जाये। सुन्दरी की शादी मेरे साथ को गई और वह बहुत दिनों तक मेरे घर में रही, एक लड़की और उसके बाद एक लड़का भी पैदा हुआ। तब तक राजा को सुन्दरी का पता न लगा मगर वह खोज लगाता ही रहा, आखिर मालूम होने पर उसने सुन्दरी को चुरा मंगाया और उसके साथ जिस तरह का बर्ताव किया आप बहादुर विजयसिंह की जुबानी सुन ही चुके हैं। बेचारी लड़की जिस तरह से मारी गई उसे याद करने से कलेजा फटता है। सुन्दरी को राजी करने के लिए राजा ने बहुत-कुछ उद्योग किया मगर उस बेचारी ने अपना धर्म न छोड़ा। आखिर राजा ने उसे गुप्त रीति से किले के अन्दर के एक तहखाने में बन्द किया और उसकी लड़की का खून एक कटोरे में भरकर और मसाले से जमा कर एक चौकी पर उसके सामने रख दिया जिसमें वह दिन-रात उसे देखा करे और कुढ़ा करे। आप लोग खूब समझ सकते हैं कि उस बेचारी की क्या हालत होगी और उस कटोरे-भर खून की तरफ देख-देख कर उसके दिल पर क्या गुजरती होगी, मगर वाह रे सुन्दरी! फिर भी उसने अपना धर्म न छोड़ा!!


बाबू साहब ने इतना ही कहा था कि सभों के मुँह से “वाह रे सुन्दरी, शाबाश, शाबाश! धर्म पर दृढ़ रहने वाली औरत तेरे ऐसी कोई काहे को होगी!” की आवाज आने लगी। बाबू साहब ने फिर कहना शुरू किया–


बाबू साहब० : जब सुन्दरी कैदखाने में बेबस की गई तो कई लौंडियाँ उसकी हिफाजत के लिए छोड़ी गयीं। उनमें से एक लौंडी सुन्दरी पर दया करके और अपनी जान पर खेल के वहाँ से निकल भागी। उसने मेरे पास पहुँच कर सब हाल कहा और अन्त में उसने सुन्दरी का यह संदेशा मुझे दिया कि लड़के को लेकर तुम्हें एक नजर देखने के लिए बुलाया है, जिस तरह बने आकर मिलो! सुन्दरी का हाल सुन मेरा कलेजा फट गया। मैं इस शहर में आया और उससे मिलने का उद्योग करने लगा इस फेर में बरस-भर से ज्यादा बीत गया, बहुत-सा रुपया खर्च किया और कई आदमियों को अपना पक्षपाती बनाया, आखिर दो ही चार दिन हुए हैं कि किसी तरह छोटे बच्चे को, जो नालायक राजा के हाथ से बच गया और मेरे पास था, लेकर किले के अन्दर तहखाने में गया और उससे मिला। कैदखाने में उसकी जैसी अवस्था मैंने देखी, कह नहीं सकता। इत्तिफाक से उसी दिन नाहरसिंह ने बीरसिंह को कैदखाने से छुड़ाया था और यह हाल मुझे मालूम था, बल्कि बीरसिंह के छुड़ाने की खबर कई पहरे वालों को भी लग गई थी, मगर वे लोग राजा के दुश्मन और बीरसिंह के पक्षपाती हो रहे थे, इसलिए नाहरसिंह के काम में विघ्न न पड़ा।


सुन्दरी जानती थी कि बीरसिंह उसका भाई है मगर राजा के जुल्म ने उसे हर तरह से मजबूर कर रखा था। बीरसिंह के कैद होने का हाल सुन कर सुन्दरी और भी बेचैन हुई, मगर जब मैंने उसके छूटने का हाल कहा तो कुछ खुश हुई। मैं तहखाने में सुन्दरी से बातचीत कर ही रहा था कि राजा का मुसाहब बेईमान हरीसिंह वहाँ जा पहुँचा। उस समय सुन्दरी मेरी और अपनी जिन्दगी से नाउम्मीद हो गई। आखिर हरीसिंह उसी समय मुझसे लड़ कर मारा गया और मैं उसकी लाश एक कम्बल में बाँध और लड़के को एक लौंडी की गोद में दे और उसे साथ ले तहखाने के बाहर निकला और मैदान में पहुँचा। वहाँ नाहरसिंह के दो आदमियों से मुलाकात हुई। मुझे नाहरसिंह तथा बीरसिंह से मिलने का बहुत शौक था और उन लोगों ने भी मुझे अपने साथ ले चलना मंजूर किया। आखिर हरीसिंह की लाश गाड़ दी गई, लौंडी वापस कर दी गई, और मैं लड़के को लेकर उन दो आदमियों के साथ नाहरसिंह की तरफ रवाना हुआ। उसी समय राजा के कई सवार भी वहाँ आ पहुँचे जो नाहरसिंह की खोज में घोड़ा फेंकते उसी तरफ जा रहे थे। हम लोगों को तो डर हुआ कि अब गिरफ्तार हो जायेंगे, मगर ईश्वर ने बचाया। एक पुल के नीचे छिप कर हम लोग बच गए और नाहरसिंह और बीरसिंह से मिलने की नौबत आई।


खड़गसिंह : लड़का अब कहाँ है?


बाबू साहब: (नाहरसिंह की तरफ इशारा कर के) इनके आदमियों के सुपुर्द है।


खड़गसिंह : तुम लोगों का हाल बड़ा ही दर्दनाक है, सुनने से कलेजा काँपता है। लेकिन अभी तक यह नहीं मालूम हुआ कि बेचारी तारा कहाँ है और उस पर क्या बीती?


नाहरसिंह: तारा का हाल मुझे मालूम है मगर मैंने अभी तक बीरसिंह से नहीं कहा।


एक सरदार : तो इस समय भी उसका कहना शायद आप मुनासिब न समझते हों।


नाहरसिंह : कहने में कोई हर्ज भी नहीं।


खड़गसिंह : तो कहिये।


नाहरसिंह : ऊपर के हाल से आपको इतना तो जरूर मालूम हो ही गया होगा कि बेईमान राजा ने तारा के बाप सुजनसिंह को इस बात पर मजबूर किया था कि वह तारा का सिर काट लावे।


खड़गसिंह : हाँ, इसलिए कि सुजनसिंह ने दीवानखाने की छत पर से लौंडियों को तो गिरफ्तार किया मगर तारा को छोड़ दिया था।


नाहरसिंह : ठीक है,राजा यह भी चाहता था कि तारा यदि राजा के साथ रहना स्वीकार करे तो उसकी जान छोड़ दी जाये। इस काम के लिए: समझाने-बुझाने पर हरीसिंह मुकर्रर किया गया था, मगर तारा ने कबूल न किया। जिस समय बीरसिंह के बाग में सुजनसिंह अपनी लड़की तारा की छाती पर सवार हो उसे मारा चाहता था, मैं भी वहाँ मौजूद था, उसी समय एक साधु महाशय भी वहाँ आ पहुँचे और उन्होंने मेरी मदद से तारा को छुड़ाया। इस समय तारा उन्हीं के यहाँ है।


खड़गसिंह : आपने एक साधु फकीर की हिफाजत में तारा को क्यों छोड़ दिया? उस साधु का क्या भरोसा?


नाहरसिंह : उस साधु का मुझे बहुत भरोसा है। वे बड़े ही महात्मा हैं। यह तो मैं नहीं जानता कि वे कहाँ के रहने वाले हैं. मगर वे किसी से बहुत मिलते-जुलते नहीं, निराले जंगल में रहा करते हैं, मुझ पर बड़ा ही प्रेम रखते हैं, मैंने सब हाल उनसे कह दिया है और अक्सर उन्हीं की राय से सब काम किया करता हूँ, उनके खाने-पीने का इन्तजाम भी मैं ही करता हूँ।


खड़गसिंह : क्या मैं उनसे मुलाकात कर सकता हूँ?


नाहरसिंह : इस बात को तो शायद वह नामंजूर करें। (आसमान की तरफ देख कर) अब तो सवेरा हुआ ही चाहता है, मेरा शहर में रहना मुनासिब नहीं।


खड़गसिंह : अगर आप मेरे यहाँ रहें तो कोई हर्ज भी नहीं है।


नाहरसिंह : ठीक है, मगर ऐसा करने से कुछ विशेष लाभ भी नहीं है, बीरसिंह को मैं आपके सुपुर्द करता हूँ और बाबू साहब को अपने साथ लेकर जाता हूँ फिर जब और जहाँ कहिये हाजिर होऊँ?


खड़गसिंह : खैर, ऐसा ही सही मगर एक बात और सुन लो।


नाहरसिंह : वह क्या?


खड़गसिंह : उस समय जब मैं बीरसिंह को छुड़ाने के लिए राजा के पास गया था तो समयानुसार मुनासिब समझ कर उसी के मतलब की बातें की थीं। मैं कह आया था कि कल एक आम दरबार करूँगा और तुम्हारे दुश्मनों तथा बीरसिंह को फाँसी का हुक्म दूँगा, उसी दरबार में महाराज नेपाल की तरफ से तुमको “अधिराज” की पदवी भी दी जायेगी। यह बात मैंने कई मतलबों से कही थी। इस बारे में तुम्हारी क्या राय है ?


नाहरसिंह : बात तो बहुत अच्छी है। इस दरबार में बड़ा मजा रहेगा, कई तरह के गुल खिलेंगे मगर साथ ही इसके फसाद भी खूब मचेगा, ताज्जुब नहीं कि राजा बिगड़ जाये और लड़ाई हो पड़े, इससे मेरी राय है कि कल का दिन आप टाल दें और लड़ाई का पूरा बन्दोबस्त कर लें, इस बीच मैं भी अपने को हर तरह से दुरुस्त कर लूँगा।


खड़गसिंह : (और सरदारों की तरफ देख कर) आप लोगों की क्या राय है?


सरदार : नाहरसिंह का कहना बहुत ठीक है, हम लोगों को लड़ाई के लिये तैयार हो कर ही दरबार में जाना चाहिए। हम लोग भी अपने सिपाहियों की दुरुस्ती करना चाहते हैं, कल का दिन टल जाये तभी अच्छा है।


खड़गसिंह : खैर, ऐसा ही सही।


गुप्त रीति से राय के तौर परे दो-चार बातें और करने के बाद दरबार बर्खास्त किया गया। बाबू साहब को साथ लेकर नाहरसिंह चला गया। सरदार लोग भी अपने-अपने घर की तरफ रवाने हुए, खड़गसिंह अपने डेरे पर आये और बीरसिंह को होश में पाया, उनसे सब हाल कहा-सुना और उनका इलाज कराने लगे।


कटोरा भर खून : खंड-13

खड़गसिंह जब राजा करनसिंह के दीवानखाने में गये और राजा से बातचीत करके बीरसिंह को छोड़ा लाये तो उसी समय अर्थात जब खड़गसिंह दीवानखाने से रवाने हुए, तभी राजा के मुसाहबों में सरूपसिंह चुपचाप खड़गसिंह के पीछे-पीछे रवाना हुआ वहाँ तक आया, जहाँ सड़क पर खड़गसिंह और नाहरसिंह में मुलाकात हुई थी और खड़गसिंह ने पुकार कर पूछा था, “कौन है, नाहरसिंह?”


सरूपसिंह उसी समय चौंका और जी में सोचने लगा कि खड़गसिंह दिल में राजा का दुश्मन है, क्योंकि राजा के सामने उसने कहा था कि नाहरसिंह को हमने गिरफ्तार कर लिया और कैद करके अपने लश्कर में भेज दिया है, मगर यहाँ मामला दूसरा ही नजर आता है, नाहरसिंह तो खुले मैदान घूम रहा है! मालूम होता है, खड़गसिंह ने उससे दोस्ती कर ली। लेकिन नाहरसिंह का नाम सुनते ही सरूपसिंह इतना डरा कि वहाँ एक पल भी खड़ा न रह सका, भागता और हाँफता हुआ राजा के पास पहुँचा।


राजा : क्यों क्या खबर है? तुम इस तरह बदहवास क्यों चले आ रहे हो? कहाँ गये थे?


सरूप० : खड़गसिंह के पीछे-पीछे गया था।


राजा : किसलिये ?


सरूप० : जिसमें मालूम करूँ कि वह कहाँ जाता है और सच्चा है या झूठा।


राजा: तो फिर क्या देखा ?


सरूप० : वह बड़ा ही भारी बेईमान और झूठा है, उसने आपको पूरा धोखा दिया और नाहरसिंह के गिरफ्तार करने की बात भी बिल्कुल झूठ कही। नाहरसिंह खुले मैदान घूम रहा है बल्कि खड़गसिंह और उसमें दोस्ती मालूम पड़ती है। जिस मकान में दुश्मनों की कमेटी होती है, उसके पास ही खड़गसिंह नाहरसिंह से मिला जो कई आदमियों को साथ लिए वहाँ खड़ा था और बातचीत करता हुआ उसके साथ ही कमेटी वाले मकान में चला गया।


राजा : तुमने कैसे जाना कि यह नाहरसिंह है?


सरूप० : खड़गसिंह ने नाम लेकर पुकारा और दोनों में बातचीत हुई।


राजा : क्या बीरसिंह को लिये हुए खड़गसिंह वहाँ गया था?


सरूप० : नहीं, उसने बीरसिंह को तो अपने आदमियों के साथ करके अपने डेरे पर भेज दिया और आप उस तरफ चला गया था।


राजा : तो बेईमान ने मुझे पूरा धोखा दिया!!


सरूप० : बेशक।


राजा : अफसोस! यहाँ अच्छे मौके पर आया था, अगर मैं चाहता तो उसी वक्त काम तमाम कर देता और किसी को खबर भी न होती।


सरूप० : इस समय खड़गसिंह नाहरसिंह को साथ लेकर उस मकान में गया है, जिसमें कमेटी हो रही है, अगर आप सौ आदमी मेरे साथ दें तो मैं अभी वहाँ जाकर दुश्मनों को गिरफ्तार कर लूँ।


राजा : पागल भया है! रिआया के दिल में जो कुछ थोड़ा-बहुत खौफ बना है, वह भी जाता रहेगा। इसी समय शहर में बलवा हो जायेगा और फिर कुछ करते-धरते न बन पड़ेगा। पहिले अपना पैर मजबूत कर लेना चाहिए। तुम तो चुपचाप बिना मुझसे कुछ कहे खड़गसिंह के पीछे-पीछे चले गए थे मगर मैंने खुद शम्भूदत्त को उसके पीछे भेजा है, देखें वह क्या खबर लाता है। वह आ ले तो कोई बात पक्की की जाये। अफसोस! मैं धोखे में आ गया!!


थोड़ी देर तक इन दोनों में बातचीत होती रही, सरूपसिंह के आधे घण्टे बाद शम्भूदत्त भी आ पहुँचा, वह भी बदहवास और परेशान था।


राजा : क्या खबर है?


शम्भू० : खबर क्या पूरी चालबाजी खेली गई, खड़गसिंह ने धोखा दिया। बीरसिंह को तो अपने आदमियों के साथ अपने डेरे पर भेज दिया और आप सीधे उस मकान में पहुँचा, जिसमें दुश्मनों की कमेटी हुई थी, नाहरसिंह रास्ते में मिला उसे अपने साथ लेता गया।


राजा : खैर, इतना हाल तो हमें सरूपसिंह की जुबानी मालूम हो गया, इससे ज्यादे तुम क्या खबर लाए?


शम्भू० : यह सरूपसिंह को कैसे मालूम हुआ?


राजा : सरूपसिंह खुद खड़गसिंह के पीछे गया था, जिसकी मुझे खबर न थी।


शम्भू० : अच्छा तो मैं एक खबर और भी लाया हूँ।


राजा : वह क्या?


शम्भू० : बच्चनसिंह गिरफ्तार हो गया और हरिहरसिंह के हाथ में भी हथकड़ी पड़ गई।


राजा : (चौंक कर) क्या ऐसी बात है?


झम्भू० : जी हाँ।


राजा : इतनी बड़ी ढिठाई किसने की?


झम्भू० : सिवाय खड़गसिंह के इतनी बड़ी मजाल किस की थी?


राजा : अब वे दोनों कहाँ हैं?


शम्भू० : खड़गसिंह के लश्कर में गए, उनके आदमी भी साथ थे, लश्कर के पास तक मैं पीछे-पीछे गया, फिर लौट आया।


राजा : अब तो बात हद से ज्यादा हो गई! (जोश में आकर) खैर, क्या हर्ज है, समझ लूँगा। उन कमबख़्तों को मैं कब छोड़ने वाला हूँ, अब तो खड़गसिंह पर भी खुल्लमखुल्ला इल्जाम लगाने का मौका मिला। अच्छा, सेनापति को बुलाओ, बहुत जल्द हाजिर करो।


शम्भू० : बहुत खूब।


राजा : नहीं नहीं, ठहरो, आने-जाने में देर होगी, मैं खुद चलता हूँ, तुम दोनों भी मेरे साथ चलो।


शम्भू० : जो हुक्म।


राजा ने अपने कपड़े दुरुस्त किए, हर्बे लगाए, और चल खड़ा हुआ। दोनों मुसाहब उसके साथ हुए।


वह सदर ड्योढ़ी पर पहुँचा, तीन सवारों के घोड़े ले लिये और उन्हीं पर सवार होकर तीनों आदमी उस तरफ रवाना हुए जिधर राजा की फौज रहती थी। घोड़े फेंकते हुए ये तीनों आदमी बहुत जल्द वहाँ पहुँचे और सेनापति के बँगले के पास आकर खड़े हो गए।


सेनापति को राजा के आने की खबर की गई, वह बेमौके रोजा के आने पर जो एक नई बात थी, ताज्जुब करके घबड़ाया हुआ बाहर निकल आया और हाथ जोड़ कर राजा के पास खड़ा हो गया। राजा और उसके मुसाहब घोड़े से नीचे उतरे और सेनापति के साथ बंगले के अन्दर चले गये; वहाँ के पहरे वालों ने घोड़ा थाम लिया।


घण्टे-भर तक ये लोग बंगले के अन्दर रहे, न-मालूम क्या-क्या बातें होती रहीं और किस-किस तरह का बन्दोबस्त इन लोगों ने विचारा। खैर, जो कुछ होगा मौके पर ही देखा जाएगा। घण्टे-भर बाद राजा बंगले के बाहर निकला और मुसाहबों के साथ अपने घर पहुँचा। सुबह की सुफेदी आसमान पर फैल चुकी थी। वह रात-भर का जागा हुआ था, आँखें भारी हो रही थीं, पलंग पर जाते ही नींद जा गई और पहर दिन चढ़े तक सोया रहा।


जब करनसिंह राठू की आँख खुली तो वह बहुत उदास था। उसके जी की बेचैनी बढ़ती ही जाती थी, रात की बातें एक पल के लिए उसके दिल से दूर न होती थीं! थोड़ी देर तक वह किसी सोच-विचार में बैठा रहा, आखिर उठा और जरूरी कामों से छुट्टी पा, स्नान-भोजन कर, दीवानखाने में जा बैठा। अपने मुसाहबों को, जो पूरे बेईमान और हरामजादे थे, तलब किया और जब वे लोग आ गये तो खड़गसिंह के नाम की एक चिट्ठी लिखी, जिसमें यह पूछा कि “आपने आज दरबार करने के लिए कहा था, सो किस समय होगा?”


इस चिट्ठी का जवाब लाने के लिए सरूपसिंह को कहा और वह राजा से विदा हो खड़गसिंह की तरफ रवाना हुआ!


इस समय खड़गसिंह अपने डेरे में बैठे यहाँ के बड़े-बड़े रईसों और सरदारों से बातचीत कर रहे थे, जब दरबान ने हाजिर होकर अर्ज किया कि राजा का एक मुसाहब सरूपसिंह मिलने के लिए आया है। खड़गसिंह ने उसके हाजिर होने का हुक्म दिया। सरूपसिंह हाजिर हुआ तो रईसों और सरदारों को बैठे हुए देख कर कुढ़ गया। मगर लाचार था, क्योंकि कुछ कर नहीं सकता था। राजा की चिट्ठी खड़गसिंह के हाथ में दी और उन्होंने पढ़ कर यह जवाब लिखा :


“जहाँ तक मैं समझता हूँ, आज दरबार करना मुनासिब न होगा क्योंकि अभी तक इस बात की खबर शहर में नहीं की गई, इससे मैं चाहता हूँ कि दरबार का दिन कल मुकर्रर किया जाये और आज इस बात की पूरी मुनादी करा दी जाये। दरबार का समय रात को और स्थान आपका बड़ा बाग उचित होगा, दरबार में केवल यहाँ के रईस और सरदार लोग ही बुलाए जाएँ। खड़गसिंह चिट्ठी का जवाब लेकर सरूपसिंह राजा के पास हाजिर हुआ और जो कुछ वहाँ देखा था अर्ज करने के बाद खड़गसिंह की चिट्ठी राजा के हाथ में दी। चिट्ठी पढ़ने के बाद थोड़ी देर तक राजा चुपचाप रहा और फिर बोला :


राजा : अब तो खड़गसिंह के हर एक काम में भेद मालूम होता है, दरबार का दिन कल मुकर्रर किया गया, यह तो मेरे लिए भी अच्छा है, मगर समय रात का और स्थान बाग, इसका क्या सबब?


सरूप० : किसी के दिल का हाल क्योंकर मालूम हो? मगर यह तो साफ जानता हूँ कि उसकी नीयत खराब है, जरूर वह भी अपने लिए कोई बंदोबस्त करना चाहता है।


राजा : खैर, जो कुछ होगा, देखा जायेगा, मुनादी के लिए हुक्म दे दो, हम भी अपने को बहादुर लगाते हैं। यकायकी डरने वाले नहीं, हाँ, इतना होगा कि बाग में हमारी फौज न जा सकेगी—खैर, बाहर ही रहेगी।


सरूप० : उसने वहाँ एक सिंहासन भेजने के वास्ते भी कहा है। शायद पदवी देने के बाद आप उस पर बैठाये जायेंगे।


राजा : हाँ, उन सब चीजों का जाना तो बहुत ही जरूरी है, क्योंकि इस बात का निश्चय कोई भी नहीं कर सकता कि कल क्या होगा और उसकी तरफ से क्या-क्या रंग रचे जायेंगे, मगर इतना खूब समझे रखना कि करनसिंह उन शैतानों से नावाकिफ नहीं है और ऐसा कमजोर भोला या बुजदिल भी नहीं है कि जिसका जी चाहे यकायकी धोखा दे जाये या खम ठोक कर मुकाबला करके अपना काम निकाल ले!!


कटोरा भर खून : खंड-14

रात पहर-भर जा चुकी है। खड़गसिंह अपने मकान में बैठे इस बात पर विचार कर रहे हैं कि कल दरबार में क्या-क्या किया जाएगा। यहाँ के दस-बीस सरदारों के अतिरिक्त खड़गसिंह के पास ही नाहरसिंह, बीरसिंह और बाबू साहब भी बैठे हैं।


खड़गसिंह : बस यही राय ठीक है। दरबार में अगर राजा के आदमियों से हमारे खैरख्वाह सरदार लोग गिनती में कम भी रहेंगे तो कोई हर्ज नहीं।


नाहरसिंह : जिस समय गरज कर मैं अपना नाम कहूँगा, राजा की आधी जान तो उसी समय निकल जायेगी, फिर कसूरवार आदमी का हौसला ही कितना बड़ा? उसकी आधी हिम्मत तो उसी समय जाती रहती है, जब उसके दोष उसे याद दिलाये जाते हैं।


एक सरदार : हम लोगों ने भी यही सोच रक्खा है कि या तो अपने को हमेशा के लिए उस दुष्ट राजा की ताबेदारी से छुड़ायेंगे या फिर लड़कर जान ही दे देंगे।


नाहरसिंह : ईश्वर चाहे तो ऐसी नौबत नहीं आवेगी और सहज ही में सब काम हो जाएगा। राजा की जान लेना, यह तो कोई बड़ी बात नहीं, अगर मैं चाहता तो आज तक कभी का उसे यमलोक पहुँचा दिया होता, मगर मैं आज का-सा समय ढूँढ रहा था और चाहता था कि वह तभी मारा जाये जब उसकी हरमजदगी लोगों पर साबित हो जाये और लोग भी समझ जाएँ कि बुरे कामों का फल ऐसा ही होता है।


खड़गसिंह : (नाहरसिंह से) हाँ, आपने कहा था कि बाबाजी ने तुमसे मिलना मंजूर कर लिया, घण्टे-दो घण्टे में यहाँ जरूर आवेंगे, मगर अभी तक आए नहीं!


नाहरसिंह : वे जरूर आवेंगे॥


इतने ही में दरबान ने आकर अर्ज किया कि एक साधु बाहर खड़े हैं जो हाजिर हुआ चाहते हैं। इतना सुनते ही खड़गसिंह उठ खड़े हुए और सभों की तरफ देख कर बोले, “ऐसे परोपकारी महात्मा की इज्जत सभों को करनी चाहिए।”


सब-के-सब उठ खड़े हुए और आगे बढ़कर बड़ी इज्जत से बाबा जी को ले आये और सबसे ऊँचे दर्जे पर बिठाया।


बाबा : आप लोग व्यर्थ इतना कष्ट कर रहे हैं! मैं एक अदना फकीर, इतनी प्रतिष्ठा के योग्य नहीं हूँ।


खड़गसिंह : यह कहने की कोई आवश्यकता नहीं, आपकी तारीफ नाहरसिंह की जुबानी जो कुछ सुनी है मेरे दिल में है।”


बाबा : अच्छा, इन बातों को जाने दीजिए और यह कहिए कि दरबार के लिए जो कुछ बन्दोबस्त आप लोग किया चाहते थे वह हो गया या नहीं?


खड़गसिंह : सब दुरुस्त हो गया, कल रात को राजा के बड़े बाग में दरबार होगा।


बाबा: मेरी भी इच्छा होती है कि दरबार में चलूँ।


खड़गसिंह : आप खुशी से चल सकते हैं, रोकने वाला कौन है?


बाबा : मगर इस जटा, दाढ़ी-मूंछ और मिट्टी लगाए हुए बदन से वहाँ जाना बेमौके होगा।


खड़गसिंह : कोई बेमौके न होगा ।


बाबा : क्या हर्ज होगा अगर एक दिन के लिए मैं साधु का भेष छोड़ दूँ ओर सरदारी ठाठ बना लूँ।


खड़गसिंह : (हँस कर) इसमें भी कोई हर्ज नहीं! साधु और राजा समान ही समझे जाते हैं!!


बाबा : और तो कोई कुछ न कहेगा मगर नाहरसिंह से चुप न रहा जायेगा।


नाहरसिंह : (हाथ जोड़ कर) मुझे इसमें क्यों उज्र होगा?


बाबा : क्यों का सबब तुम नहीं जानते और न मैं कह सकता हूँ, मगर इसमें कोई शक नहीं कि जब मैं अपना सरदारी ठाठ बनाऊंगा तो तुमसे चुप न रहा जायेगा।


नाहरसिंह : न-मालूम आप क्यों ऐसा कह रहे हैं!


बाबा : (खड़गसिंह से) आप गवाह रहिये, नाहर कहता है कि मैं कुछ न बोलूँगा।


खड़गसिंह : मैं खुद हैरान हूँ कि नाहर क्यों बोलेगा!!


बाबा : अच्छा, फिर हजाम को बुलवाइये, अभी मालूम हो जाता है। लेकिन आप और नाहर थोड़ी देर के लिए मेरे साथ एकान्त में चलिए और हजाम को भी उसी जगह आने का हुक्म दीजिये।


आखिर ऐसा ही किया गया। बाबाजी, खड़गसिंह और नाहरसिंह एकान्त में गए, हजाम भी उसी जगह हाजिर हुआ। बाबाजी ने जटा कटवा डाली, दाढ़ी मुंड़वा डाली और मूंछों के बाल छोटे-छोटे कटवा डाले। नाहरसिंह और खड़गसिंह सामने बैठे तमाशा देख रहे थे।


बाबाजी के चेहरे की सफाई होते ही नाहरसिंह की सूरत बदल गई, चुप रहना उसके लिए मुश्किल हो गया, वह घबड़ाकर बाबाजी की तरफ झुका।


बाबा : हाँ हाँ, देखो ! मैंने पहिले ही कहा था कि तुमसे चुप न रहा जाएगा!!


नाहरसिंह : बेशक, मुझसे चुप न रहा जाएगा! चाहे जो हो मैं बिना बोले कभी न रह सकता!


खड़गसिंह : नाहरसिंह! यह क्या मामला है?


नाहरसिंह : नहीं नहीं, मैं बिना बोले-नहीं रह सकता!!


बाबा : यह तो मैं पहिले ही से समझे हुए था। खैर, हजाम को विदा हो लेने दो, केवल हम तीन आदमी रह जायें तो जो चाहे बोलना।


हजाम बिदा हुआ, दो खिदमतगार बुलाये गए, बाबाजी ने उसी समय सिर मल के स्नान किया और उनके लिए जो कपड़े खड़गसिंह ने मँगवाए थे, उन्हें पहन कर निश्चिन्त हुए, मगर इस बीच में नाहरसिंह के दिल की क्या हालत थी, सो वही जानता होगा। मुश्किल से उसने अपने को रोका और मौके का इन्तजार करता रहा। जब इन कामों से बाबाजी ने छुट्टी पाई, तीनों आदमी एकान्त में बैठे और बातें करने लगे।


न मालूम घण्टे-भर तक कोठरी के अन्दर बैठे उन तीनों में क्या-क्या बातें हुईं, हाँ बाबाजी, नाहरसिंह और खड़गसिंह तीनों के सिसक-सिसक कर रोने की आवाज कोठरी के बाहर कई दफे आई, जिसे हमने भी सुना और स्वप्न की तरह आज तक याद है।


कोठरी से बाहर निकल कर साधु महाशय मुँह पर नकाब डाल बिदा हुए और नाहरसिंह तथा खड़गसिंह उस अदालत में आ बैठे, जिसमें बाकी के सरदार लोग बैठे हुए थे। सरदारों ने पूछा कि बाबाजी कहाँ गए और उनकी ताज्जुब- भरी बातों का क्या नतीजा निकला? इसके जवाब में खड़गसिंह ने कहा कि बाबाजी इस समय तो चले गए, मगर कह गए हैं कि “मेरे पेट में जो-जो बातें भेद के तौर पर जमा हैं, वे कल दरबार में जाहिर हो जायेंगी, इसलिए मेरे साथ आप लोगों को भी उनका हाल कल ही मालूम होगा।


आधी रात तक ये लोग बैठे बातचीत करते रहे, इसके बाद अपने-अपने घर की तरफ रवाना हुए।


कटोरा भर खून : खंड-15

हरिपुर के राजा करनसिंह राठू का बाग बड़ी तैयारी से सजाया गया, रोशनी के सबब दिन की तरह उजाला हो रहा था, बाग की हर एक रविश पर रोशनी की गई थी, बाहर की रोशनी का इन्तजाम भी बहुत अच्छा था। बाग के फाटक से लेकर किले तक जो एक कोस के लगभग होगा, सड़क के दोनों तरफ गञ्ज की रोशनी थी, हजारों आदमी आ-जा रहे थे। शहर में हर तरफ इस दरबार की धूम थी। कोई कहता था कि आज महाराज नेपाल की तरफ से राजा को पदवी दी जाएगी, कोई कहता था कि नहीं नहीं, महाराज को यहाँ की रिआया चाहती है या नहीं, इस बात का फैसला किया जाएगा और इस राजा को गद्दी से उतार कर दूसरे को राजतिलक दिया जाएगा। अच्छा तो यही होगा कि बीरसिंह को राजा बनाया जाये। हम लोग- इसके लिए लड़ेंगे, धूम मचावेंगे और जान तक देने को तैयार रहेंगे।


इसी प्रकार तरह-तरह के चर्चे शहर में हो रहे थे, शहर-भर बीरसिंह का पक्षपाती मालूम होता था, मगर जो लोग बुद्धिमान थे, उनके मुँह से एक बात भी नहीं निकलती थी और वे लोग मन-ही-मन में न-मालूम क्या सोच रहे थे। आज के दरबार में जो कुछ होना है, इसकी खबर शहर के बड़े-बड़े रईसों ओर सरदारों को भी जरूर थी, मगर वे लोग जबान से इस बारे में एक शब्द भी नहीं निकालते थे।


बाग में एक आलीशान बारहदरी थी, उसी में दरबार का इन्तजाम किया गया। उसकी सजावट हद से ज्यादे बड़ी हुई थी। खड़गसिंह ने राजा को कहला भेजा था कि दरबार में एक सिंहासन भी रहना चाहिए, जिस पर पदवी देने के बाद आप बैठाए जायेंगे, इसीलिए बारहदरी के बीचोबीच में सोने का सिंहासन बिछा हुआ था, उसके दाहिनी तरफ राजा के लिए और बायीं तरफ नेपाल के सेनापति खड़गसिंह के लिए चांदी की कुर्सी रक्खी गई थी, और सामने की तरफ शहर के रईसों और सरदारों के लिए दुपट्टी मखमली गद्दी की कुर्सियां लगाई गयी थीं। सजावट का सामान जो राज दरबार के लिए मुनासिब था, सब दुरुस्त किया गया था।


चिराग जलते ही दरबार में लोगों की अवाई शुरू हो गई और पहर रात जाते-जाते दरबार अच्छी तरह भर गया। राजा करनसिंह और खड़गसिंह भी अपनी- अपनी जगह बैठ गए। नाहरसिंह, बीरसिंह और बाबू साहब भी दरबार में बैठे हुए थे, मगर बाबाजी अपने मुँह पर नकाब डाले एक कुर्सी पर बिराज रहे थे, जिनको देख लोग ताज्जुब कर रहे थे और राजा इस विचार में पड़ा हुआ था कि ये कौन हैं?


राजा या राजा के आदमी नाहरसिंह को नहीं पहिचानते थे पर बीरसिंह को बिना हथकड़ी-बेड़ी के स्वतन्त्र देखकर राजा की आँख क्रोध से कुछ लाल हो रही थीं, मगर यह मौका बोलने का न था, इसलिए चुप रहा। हाँ, राजा की दो हजार फौज चारों तरफ से बाग को घेरे हुए थी और राजा के मुसाहब लोग इस दरबार में कुर्सियों पर न बैठ के न-मालूम किस धुन में चारों तरफ घूम रहे थे।


सेनापति खड़गसिंह के भी चार सौ बहादुर लड़ाके जो नेपाल से साथ आए थे, बाग के बाहर चारों तरफ बँट कर फैले हुए थे और नाहरसिंह के सौ आदमी भी भीड़ में मिले-जुले चारों तरफ घूम रहे थे। बाग के अन्दर दो हजार से ज्यादा आदमी मौजूद थे, जिनमें पांच सौ राजा की फौज थी और बाकी रिआया।


जब दरबार अच्छी तरह भर गया, खड़गसिंह ने अपनी कुर्सी से उठ कर ऊँची आवाज में कहा : “मैं महाराज नेपाल का सेनापति जिस काम के लिए यहाँ भेजा गया हूँ, उसे पूरा करता हूँ। आज का दरबार केवल दो कामों के लिए किया गया है, एक तो इस राज्य के दीवान बीरसिंह का, जिसके ऊपर राजकुमार का खून साबित हो चुका है, फैसला किया जाये, दूसरे राजा करनसिंह को अधिराज की पदवी दी जाये। इस समय लोग इस विचार में पड़े होंगे कि बीरसिंह जिस पर राजकुमार के मारने का इल्जाम लग चुका है, बिना हथकड़ी-बेड़ी के यहाँ क्यों दिखाई देता है। इसका जवाब मैं यह देता हूँ कि एक तो बीरसिंह यहाँ के राजा का दीवान है, दूसरे इस भरे हुए दरबार में से वह किसी तरह भाग नहीं सकता, तीसरे, परसों राजा के आदमियों ने उसे बहुत जख्मी किया है, जिससे वह खुद कमजोर हो रहा है, चौथे बीरसिंह को इस बात का दावा है कि वह अपनी बेकसूरी साबित करेगा। अस्तु, बीरसिंह को हुक्म दिया जाता है कि उसे जो कुछ कहना हो कहे।”


इतना कह कर खड़गसिंह बैठ गए और बीरसिंह ने अपनी कुर्सी से उठ कर कहना शुरू किया :


“आप लोग जानते हैं और कहावत मशहूर है कि जिस समय आदमी अपनी जान से नाउम्मीद होता है, तो जो कुछ उसके जी में आता है कहता है और किसी से नहीं डरता। आज मेरी भी वही हालत है। यहाँ के राजा करनसिंह ने राजकुमार के मारने का बिल्कुल झूठा इल्जाम मुझ पर लगाया है। उसने अपने लड़के को तो कहीं छिपा दिया है और गरीब रिआया का खून करके मुझे फँसाना चाहता है। आप लोग जरूर कहेंगे कि राजा ने ऐसा क्यों किया? उसके जवाब में मैं कहता हूँ कि राजा करनसिंह असल में मेरे बाप का खूनी है। पहिले यह मेरे बाप का गुलाम था, मौका मिलने पर इसने अपने मालिक को मार डाला और अब उसके बदले में राज्य कर रहा है। पहिले तो राजा को मेरा डर न था, मगर जब से नाहरसिंह ने राजा को सताना शुरू किया है और यहाँ की रिआया मुझे मानने लगी है तभी से राजा को मेरे मारने की धुन सवार हो गई है। नाहरसिंह भी बेफायदा राजा को नहीं सताता, वह मेरा बड़ा भाई है और राजा से अपने बाप का बदला लिया चाहता है। (करनसिंह, करनसिंह राठू, नाहरसिंह, सुन्दरी, तारा और अपना कुल किस्सा जो हम ऊपर लिख आये हैं, खुलासा कहने के बाद) अब आप लोग उन दोनों बातों का अर्थात एक तो मुझ पर झूठा इल्जाम लगाने का और दूसरे मेरे पिता के मारने का सबूत चाहेंगे। इनमें से एक बात का सबूत तो मेरा बड़ा भाई नाहरसिंह देगा, जिसका असल नाम विजयसिंह है और जो इसी दरबार में मौजूद है तथा सिवाय राजा के और किसी का दुश्मन नहीं है, और दूसरी बात का सबूत कोई और आदमी देगा जो शायद यहीं कहीं मौजूद है।”


इन बातों को सुनते ही चारों तरफ से ‘त्राहि-त्राहि’ की आवाज आने लगी। राजा के तो होश उड़ गए। अब राजा को विश्वास हो गया कि यह दरबार केवल इसलिए लगाया गया है कि यहाँ की कुल रिआया के सामने मेरा कसूर साबित कर दिया जाये और मैं नालायक और बेईमान ठहराया जाऊँ। यह सिंहासन भी शायद इसलिए रखवाया गया है कि इस पर रिआया की तरफ से नाहरसिंह या बीरसिंह को बिठाया जाये। ओफ्, अब किसी तरह जान बचती नजर नहीं आती! मेरे कर्मों का फल आज पूरा हुआ चाहता है! अगर मैं अपनी फौज का इन्तजाम न करता तो मुश्किल ही हो चुकी थी, लेकिन अब तो एक दफे दिल खोल के लड़ूंगा। लेकिन जरा और ठहरना चाहिए, देखें वह अपनी दोनों बातों का सबूत क्या पेश करता है। नाहरसिंह कौन है? सबूत लेकर आगे बढ़े तो देखें उसकी सूरत कैसी है?


राजा इन सब बातों को सोचता ही रहा, उधर बीरसिंह की बात समाप्त होते ही नाहरसिंह जिसका नाम अब हम बिजयसिंह लिखेंगे, अपनी कुर्सी से उठा और वही चीठी जो उसने रामदास की कमर से पाई थी, खड़गसिंह के हाथ में यह कह कर दे दी कि ‘एक सबूत तो यह है’।


खड़गसिंह ने उस चिट्ठी को खड़े होकर जोर से सभों को सुना कर पढ़ा और चिट्ठी वाला हाथ ऊँचा करके कहा, “एक बात का सबूत तो बहुत पक्का मिल गया, इस चिट्ठी पर राजा के दस्तखत के सिवाय उसकी मुहर भी है, जिससे वह किसी तरह इन्कार नहीं कर सकता है।” चीठी को सुनते ही चारों तरफ से आवाज आने लगी, “लानत है ऐसे राजा पर। लानत है ऐसे राजा पर!!


खड़गसिंह अपनी कुर्सी पर बैठे ही थे कि बाबाजी उठ खड़े हुए। मुँह से नकाब हटा कर सिंहासन के पास चले गए, और जोर से बोले -“दूसरी बात का सबूत मैं हूँ! (सभा की तरफ देख कर) राजा तो मुझे देखते ही पहचान गया होगा कि मैं फलाना हूँ, मगर आप लोग यह सुन कर घबड़ा जायेंगे कि बीरसिंह का बाप करनसिंह जिसे राजा ने जहर दिया था और जिसका किस्सा अभी बीरसिंह आप लोगों को सुना चुका है मैं ही हूँ। मेरी जान बचाने वाले का भाई भी इस शहर में मौजूद है, हाँ यदि राजा का जोश कोई रोक सके तो मैं आप लोगों को अपना विचित्र हाल सुनाऊँ, मगर ऐसी आशा नहीं है। बेईमान राजा की जल्दबाजी आप लोगों को मेरा किस्सा सुनने न देगी। देखिए, देखिए, वह बेईमान कुर्सी से उठ कर मुझ पर वार किया चाहता है! नमकहराम और विश्वासघाती को अब भी शर्म नहीं मालूम होती और वह….!!”


बाबाजी की बातें क्योंकर पूरी हो सकती थीं! बेईमान राजा का दिल उसके काबू में न था और न वह यही चाहता था कि बाबाजी (करनसिंह) यहाँ रहें और उनकी बातें कोई सुने! वह बहुत कम देर तक बेखुद रहने बाद एकदम चीख उठा और नयाम (म्यान) से तलवार खींच कर अपने आदमियों को यह कहता हुआ कि “मारो इन लोगों को, एक भी बच के न जाने पावे” उठा और बाबाजी पर तलवार का वार किया। बाबाजी ने घूम कर अपने को बचा लिया मगर राजा के सिपाही और सरदार लोग बीरसिंह और उसके पक्षपातियों पर टूट पड़े। लड़ाई शुरू हो गई और फर्श पर खून-ही-खून दिखाई देने लगा पर बीरसिंह के पक्षपाती बहादुरों के सामने कोई ठहरता दिखाई न दिया।


राजा करनसिंह के बहुत-से आदमी वहाँ मौजूद थे और दो हजार फौज भी बाहर खड़ी थी, जिसका अफसर इसी दरबार में था, मगर बिल्कुल बेकाम। किसी ने दिल खोल कर लड़ाई न की, एक तो वे लोग राजा के जुल्मों की बात सुन पहिले ही बेदिल हो रहे थे, दूसरे, आज की वारदात, बीरसिंह और सुन्दरी का किस्सा, और राजा के हाथ की लिखी चिट्ठी का मजमून सुन कर और राजा को लाजवाब पाकर सभी का दिल फिर गया। सभी राजा के ऊपर दाँत पीसने लगे।


केवल थोड़े-से आदमी जो राजा के साथ-ही-साथ खुद भी अपनी जिन्दगी से नाउम्मीद हो चुके थे, जान पर खेल गए ओर रिआया के हाथों मारे गए। इस लड़ाई में बाबू साहब का और राजा करनसिंह राठू का सामना हो गया। बाबू साहब ने करनसिंह को उठा कर जमीन पर दे मारा और उंगली डाल कर उसकी दोनों आँखें निकाल लीं।


इस लड़ाई में सुजनसिंह, शम्भूदत्त और सरूपसिंह वगैरह भी मारे गये। यह लड़ाई बहुत देर तक न रही और फौज को हिलने की भी नौबत न आई। खड़गसिंह ने उसी समय बीरसिंह को जो जख्मी होने पर भी कई आदमियों को इस समय मार चुका था और खून से तर-ब-तर हो रहा था, उसी सोने के सिंहासन पर बैठा दिया और पुकार कर कहा:


“इस समय बीरसिंह, जिनको यहाँ की रिआया चाहती है, राज-सिंहासन पर बैठा दिए गए। राजा बीरसिंह का हुक्म है कि बस अब लड़ाई न हो और सभों की तलवारें म्यान में चली जायें।”


लड़ाई शान्त हो गई, बीरसिंह को रिआया ने राजा मंजूर किया, और अंधे करनसिंह को देख-देख कर लोग हंसने लगे।


कटोरा भर खून : खंड-16

दूसरे दिन यह बात अच्छी तरह से मशहूर हो गई कि वह बाबाजी जिन्हें देख करनसिंह राठू डर गया था, बीरसिंह के बाप करनसिंह थे। उन्हीं की जुबानी मालूम हुआ कि जिस समय राठू ने सुजनसिंह की मार्फत करनसिंह को जहर दिलवाया उस समय करनसिंह के साथियों को राठू ने मिला लिया था। मगर- चार-पाँच आदमी ऐसे भी थे, जो जाहिर में तो मौका देख कर मिल गए थे, पर दिल से उसकी तरफ न थे। जिस समय जहर के असर से करनसिंह बेहोश हो गए, उस समय जान निकलने के पहिले ही उनके मरने का गुल मचा कर राठू ने उन्हें जमीन में गड़वा दिया और तुरत वहाँ से कूच कर गया था। राठू के कूच करते ही धनीसिंह नामी एक राजपूत अपने नौकरों को साथ लेकर जान-बूझ के पीछे रह गया। उसने जमीन खोद कर करनसिंह को निकाला और उनकी जान बचाई।


जहर के असर ने पाँच बरस तक करनसिंह को चारपाई पर डाल रक्खा। वे पाँच बरस तक दूसरे शहर में रहे और फिर फकीर हो गये मगर राठू की फिक्र में लगे रहे। जब नाहरसिंह का नाम मशहूर हुआ तब हरिपुर के पास ही जंगल में आ बसे और नाहरसिंह से मुलाकात पैदा की मगर अपना नाम न बताया।


करनसिंह को बचाने वाला धनीसिंह तो मर गया था मगर उसका छोटा भाई अनिरुद्ध सिंह (रईसों और सरदारों की कमेटी में इसका नाम आ चुका है) इसी शहर में रहता है, जिसकी गिनती रईसों में है। उसको भी इनमें की बहुत-सी बातें मालूम हैं, और वह हमेशा बीरसिंह का पक्षपाती रहा, मगर समय पर ध्यान देकर करनसिंह का हाल उसने किसी से न कहा।


आज बड़ी खुशी का दिन है कि करनसिंह ने अपने दोनों लड़के, लड़की और दामाद को नाती सहित पाया और छोटे लड़के को राजसिंहासन पर देखा। इस जगह लोग पूछ सकते हैं कि करनसिंह सिंहासन पर क्यों नहीं बैठे या बड़े भाई के रहते छोटे भाई को गद्दी क्यों दी गई? इसके लिए थोड़ा-सा यह लिख देना जरूरी है कि जब करनसिंह, खड़गसिंह और बिजयसिंह एकान्त में मिले थे तो इस विषय की बातचीत हो, चुकी थी। करनसिंह ने राज्य करने से इन्कार किया था, बिजयसिंह ने भी कबूल नहीं किया और कहा कि अभी तक मेरी शादी नहीं हुई और न शादी करूँगा ही अस्तु यह बात पहिले ही से पक्की हो चुकी थी कि बीरसिंह को गद्दी दी जाये।


राजमहल से राठू के वे रिश्तेदार जिन्होंने बीरसिंह की शरण चाही, निकाल कर दूसरे मकान में रख दिए गए और उनके खाने-पीने का बन्दोबस्त कर दिया गया। अब राजमहल में वही सुन्दरी जो तहखाने के अन्दर कैद रह कर मुसीबत के दिन काटती थी और तारा जो असली करनसिंह (बाबाजी) के कब्जे में थी रहने लगीं, मगर राठू के लड़के सूरजसिंह का कहीं पता न लगा, न-मालूम वह किसके यहाँ भेज दिया गया था या किस जगह छिपा कर रक्खा गया था। रामदास ने आत्महत्या की। आँखों की तकलीफ से पांच ही सात दिन में राठू यमलोक की तरफ चल बसा और बीरसिंह ने बड़ी नेकनामी से राज्य चलाया।


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