ईश्वर की स्तुति - प्रार्थना – उपासना के मंत्र
ॐ विश्वानि देव
सवितर्दुरितानि परासुव । यद् भद्रं तन्न आ सुव ॥१॥
मंत्रार्थ – हे सब सुखों के दाता ज्ञान के
प्रकाशक सकल जगत के उत्पत्ति कर्ता एवं समग्र ऐश्वर्ययुक्त परमेश्वर! आप हमारे
सम्पूर्ण दुर्गुणों, दुर्व्यसनों और दुखों को दूर कर दीजिए,
और जो कल्याणकारक गुण, कर्म, स्वभाव, सुख और पदार्थ हैं, उसको
हमें भलीभांति प्राप्त कराइये।
हिरण्यगर्भ:
समवर्त्तताग्रे भूतस्य जात: पतिरेक आसीत् ।
स दाधार पृथिवीं
द्यामुतेमां कस्मै देवाय हविषा विधेम ॥२॥
मंत्रार्थ – सृष्टि के उत्पन्न होने से पूर्व और सृष्टि रचना के आरम्भ में
स्वप्रकाशस्वरूप और जिसने प्रकाशयुक्त सूर्य, चन्द्र, तारे, ग्रह-उपग्रह आदि पदार्थों को उत्पन्न करके
अपने अन्दर धारण कर रखा है, वह परमात्मा सम्यक् रूप से
वर्तमान था। वही उत्पन्न हुए सम्पूर्ण जगत का प्रसिद्ध स्वामी केवल अकेला एक ही
था। उसी परमात्मा ने इस पृथ्वीलोक और द्युलोक आदि को धारण किया हुआ है, हम लोग उस सुखस्वरूप, सृष्टिपालक, शुद्ध एवं प्रकाश-दिव्य-सामर्थ्य युक्त परमात्मा की प्राप्ति के लिये
ग्रहण करने योग्य योगाभ्यास व हव्य पदार्थों द्वारा विशेष भक्ति करते हैं।
य आत्मदा बलदा यस्य
विश्व उपासते प्रशिषं यस्य देवा: ।
यस्य छायाऽमृतं यस्य
मृत्यु: कस्मै देवाय हविषा विधेम ॥३॥
मंत्रार्थ – जो परमात्मा आत्मज्ञान का दाता
शारीरिक,
आत्मिक और सामाजिक बल का देने वाला है, जिसकी
सब विद्वान लोग उपासना करते हैं, जिसकी शासन, व्यवस्था, शिक्षा को सभी मानते हैं, जिसका आश्रय ही मोक्षसुखदायक है, और जिसको न मानना
अर्थात भक्ति न करना मृत्यु आदि कष्ट का हेतु है, हम लोग उस
सुखस्वरूप एवं प्रजापालक शुद्ध एवं प्रकाशस्वरूप, दिव्य
सामर्थ्य युक्त परमात्मा की प्राप्ति के लिये ग्रहण करने योग्य योगाभ्यास व हव्य
पदार्थों द्वारा विशेष भक्ति करते हैं।
य: प्राणतो निमिषतो
महित्वैक इन्द्राजा जगतो बभूव।
य ईशे अस्य
द्विपदश्चतुष्पद: कस्मै देवाय हविषा विधेम ॥४॥
मंत्रार्थ – जो प्राणधारी चेतन और
अप्राणधारी जड जगत का अपनी अनंत महिमा के कारण एक अकेला ही सर्वोपरी विराजमान राजा
हुआ है,
जो इस दो पैरों वाले मनुष्य आदि और चार पैरों वाले पशु आदि
प्राणियों की रचना करता है और उनका सर्वोपरी स्वामी है, हम
लोग उस सुखस्वरूप एवं प्रजापालक शुद्ध एवं प्रकाशस्वरूप, दिव्यसामर्थ्ययुक्त
परमात्मा की प्रप्ति के लिये योगाभ्यास एवं हव्य पदार्थों द्वारा विशेष भक्ति करते
हैं ।
येन द्यौरुग्रा
पृथिवी च दृढा येन स्व: स्तभितं येन नाक: ।
यो अन्तरिक्षे रजसो
विमान: कस्मै देवाय हविषा विधेम ॥५॥
मंत्रार्थ – जिस परमात्मा ने तेजोमय
द्युलोक में स्थित सूर्य आदि को और पृथिवी को धारण कर रखा है, जिसने
समस्त सुखों को धारण कर रखा है, जिसने मोक्ष को धारण कर रखा
है, जोअंतरिक्ष में स्थित समस्त लोक-लोकान्तरों आदि का विशेष
नियम से निर्माता धारणकर्ता, व्यवस्थापक एवं व्याप्तकर्ता है,
हम लोग उस शुद्ध एवं प्रकाशस्वरूप, दिव्यसामर्थ्ययुक्त
परमात्मा की प्रप्ति के लिये ग्रहण करने योग्य योगाभ्यास एवं हव्य पदार्थों द्वारा
विशेष भक्ति करते हैं।
प्रजापते न
त्वदेतान्यन्यो विश्वा जातानि परिता बभूव ।
यत्कामास्ते
जुहुमस्तन्नो अस्तु वयं स्याम पतयो रयीणाम् ॥६॥
मंत्रार्थ – हे सब प्रजाओं के पालक स्वामी परमत्मन! आपसे भिन्न दूसरा कोई
उन और इन अर्थात दूर और पास स्थित समस्त उत्पन्न हुए जड-चेतन पदार्थों को वशीभूत
नहीं कर सकता, केवल आप ही इस जगत को वशीभूत रखने में समर्थ हैं।
जिस-जिस पदार्थ की कामना वाले हम लोग अपकी योगाभ्यास, भक्ति
और हव्यपदार्थों से स्तुति-प्रार्थना-उपासना करें उस-उस पदार्थ की हमारी कामना
सिद्ध होवे, जिससे की हम उपासक लोग धन-ऐश्वर्यों के स्वामी
होवें ।
स नो बन्धुर्जनिता स
विधाता धामानि वेद भुवनानि विश्वा।
यत्र देवा
अमृतमानशाना स्तृतीये धामन्नध्यैरयन्त ॥७॥
मंत्रार्थ – वह परमात्मा हमारा भाई और सम्बन्धी के समान सहायक है, सकल
जगत का उत्पादक है, वही सब कामों को पूर्ण करने वाला है। वह
समस्त लोक-लोकान्तरों को, स्थान-स्थान को जानता है। यह वही
परमात्मा है जिसके आश्रय में योगीजन मोक्ष को प्राप्त करते हुए, मोक्षानन्द का सेवन करते हुए तीसरे धाम अर्थात परब्रह्म परमात्मा के आश्रय
से प्राप्त मोक्षानन्द में स्वेच्छापूर्वक विचरण करते हैं। उसी परमात्मा की हम
भक्ति करते हैं।
अग्ने नय सुपथा राये
अस्मान् विश्वानि देव वयुनानि विद्वान।
युयोध्यस्मज्जुहुराणमेनो
भूयिष्ठां ते नम उक्तिं विधेम ॥८॥
मंत्रार्थ – हे ज्ञानप्रकाशस्वरूप, सन्मार्गप्रदर्शक,
दिव्यसामर्थयुक्त परमात्मन! हमें ज्ञान-विज्ञान, ऐश्वर्य आदि की प्राप्ति कराने के लिये धर्मयुक्त, कल्याणकारी
मार्ग से ले चल। आप समस्त ज्ञानों औरकर्मों को जानने वाले हैं। हमसे कुटिलतायुक्त
पापरूप कर्म को दूर कीजिये । इस हेतु से हम आपकी विविध प्रकार की और अधिकाधिक
स्तुति-प्रार्थना-उपासना सत्कार व नम्रतापूर्वक करते हैं।
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