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संत का आदेश

राजगृह के राजा अंबुबीच परम धर्मात्मा और प्रजा हितैषी थे। वे एक परम विरक्तसंत के सत्संग में जाया करते थे । संत कहते थे, राजा का धर्म है कि वह अपनी प्रजा के किसी भी व्यक्ति को दुःखी न होने दे। मंत्रियों और राज कर्मचारियों पर सतर्क निगाह रखे, ताकि वे किसी के साथ अन्याय न कर सकें । उसे चापलूस मंत्रियों से सतर्क रहने की भी जरूरत है । राजा संतजी के उपदेशों का पालन करने का प्रयास करते थे ।

राजा का एक मंत्री महाकर्णि कुटिल था । उसने राजा की प्रशंसा कर उन्हें वश में कर लिया । राजा उसकी चापलूसी में फँसकर आरामतलब होते चले गए । अचानक उन्हें कोई रोग हो गया । वे निराश होकर एक कमरे में पड़े रहने लगे । महाकर्णि उनकी बीमारी का लाभ उठाकर राजसत्ता पर अधिकार करने में सफल हो गया । वह राजा के विश्वासपात्र मंत्रियों व अन्य अधिकारियों को हटाकर पूरी तरह मनमानी करने लगा । उसके उत्पीड़न से प्रजाजन त्राहि - त्राहि कर उठे ।

स्थिति की जानकारी मिलने पर संतजी एक दिन चुपचाप राजा के पास पहुंचे। उन्होंने कहा , चापलूसी से खुश होकर तुमने एक दुष्ट मंत्री को पूरी छूट देकर घोर अधर्म किया है । प्रजा की आह तुम्हें ले डूबी है । अतः निराशा को भगाओ। विश्वस्त मंत्रियों की सहायता से पुनः सत्ता संभालो । बीमारी स्वतः भाग जाएगी ।

संतजी की प्रेरणा से राजा ने महाकर्णि के हाथ से सत्ता छीनकर पुनः राजा का दायित्व निभाया । संत के आशीर्वाद से वे स्वस्थ भी हो गए ।

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